Thursday, May 21, 2009

अब विदेशी बुझाएंगे चेरापूंजी की प्यास !


यह विडंबना नहीं तो और क्या है? समुद्र तल से 1,290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित जिस चेरापूंजी को दुनिया की वर्षाकालीन राजधानी होने का गौरव हासिल था, अब उसकी प्यास विदेशी बुझाएंगे। पूर्वोत्तर का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय में बांग्लादेश की सीमा से लगे चेरापूंजी में अब हर साल जाड़ों और गर्मियों में पानी की भारी किल्लत हो जाती है। इस अनूठी समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकार इजरायली विशेषज्ञों की मदद ले रही है। पानी की किल्लत से जूझते लोगों की समस्या दूर करने के लिए मेघालय सरकार ने इजरायली कृषि मंत्रालय के सेंटर फॉर इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट कोऑपरेशन (सीआईएडीसी) के साथ चेरापूंजी व राज्य के अन्य भारी वर्षा वाले इलाकों में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग यानी बारिश के पानी के संरक्षण के लिए तकनीकी सहयोग के एक समझौते पर हस्ताक्षऱ किए हैं।
मेघालय के मुख्य सचिव राजन चटर्जी के मुताबिक, सीआईएडीसी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग और इसके लिए ढांचागत निर्माण के बारे में लोगों को शिक्षित करने के अलावा बंजर भूमि को फिर से हरा-भरा करने के लिए धन भी मुहैया कराएगा।
वर्ष 1972 में असम राज्य से ख़ासी पहाड़ को अलग कर उसे गारो पहाड़ी से जोड़कर एक नया राज्य बना तो उसका नाम रखा गया- मेघालय यानी बादलों का घर।
इसकी वजह था चेरापूंजी, जो तब तक अपने बादल और बरसात के कारण प्रसिद्ध हो पूरी दुनिया में मशहूर हो चुका था। लंबे अरसे तक यह गांव दुनिया में चेरापूंजी के नाम से जाना जाता रहा, लेकिन अब इसका नाम बदलकर सोहरा कर दिया गया है। दरअसल इस गांव का पुराना नाम सोहरा ही हुआ करता था।
वर्ष 1860 के अगस्त महीने से 1861 के जुलाई महीने तक, यानी पूरे बारह महीनों में चेरापूंजी में 1042 इंच बारिश हुई। पूरी दुनिया में एक साल में इससे ज़्यादा बारिश किसी एक जगह पर कभी नहीं हुई थी और यही वजह थी कि चेरापूंजी को गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में जगह मिली। 1861 के सिर्फ़ एक महीने में जितनी बारिश हुई थी, उतनी बारिश बीते दस साल में कभी पूरे साल के दौरान नहीं हुई। चेरापूंजी में बारिश साल-दर-साल कम होती जा रही है।
मेघालय की राजधानी शिलांग में मौसम विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय के प्रमुख एससी साहू बताते हैं कि चेरापूंजी के आस-पास के जंगलों में पेड़ों की कटाई एक ख़तरनाक रूप ले चुकी है। चेरापूंजी में पेड़ों की कटाई और बारिश में कमी दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं।
चेरापूंजी में ही भूमि संरक्षण के लिए काम करनेवाली एक ग़ैर-सरकारी संस्था के प्रमुख बीए मार्क वेस्ट कहते हैं कि मेघालय के गठन के बाद से ही चेरापूंजी के आस-पास पेड़ों की कटाई बढ़ती गई। उनके मुताबिक, बीते दस वर्षों में इलाके के जंगलों में 40 फ़ीसदी की कमी आई है। चेरापूंजी स्थित रामकृष्ण मिशन के लोग बताते हैं कि जून से सितंबर तक यहां इतनी भारी बारिश होती है कि घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती, लेकिन उससे भी ज्यादा कठिन अक्टूबर से मार्च तक का वह समय है जब पानी की एक-एक बूंद इस तरह बचानी पड़ती है मानों हम किसी रेगिस्तान में रह रहे हों।
चेरापूंजी की हालत में यह बदलाव आखिर कैसे आया, इस बारे में अब तक कई अध्ययन हो चुके हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के एक पूर्व महानिदेशक पीके गुहा राय ने इस बाबत अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारी बरसात के चलते पहाडियों की ऊपरी मिट्टी पानी के तेज बहाव के साथ बह जाती है। इसलिए इस इलाके में किसी वनस्पति या पेड़-पौधे का पनपना संभव नहीं है। उन्होंने बरसात के पानी को एकत्र करने के लिए कई सुझाव भी दिए थे। इनमें हर घर की छत पर इसके लिए माकूल व्यवस्था करना और समुचित जगहों पर बांध बनाना भी शामिल था ताकि पानी को बह कर बांग्लादेश जाने से रोका जा सके। लेकिन अब तक वहां इनमें से किसी भी सुझाव पर अमल नहीं किया जा सका है। चेरापूंजी में ख़ासतौर से सर्दी और गर्मी के महीनों में, जब बारिश बिल्कुल नहीं होती, लोगों को पानी की भीषण समस्या से जूझना पड़ता है। आम लोगों को झरने का पानी लाने के लिए ऊंचे पहाड़ों से उतरना पड़ता है। स्थानीय लोगों को पीने का पानी खरीदना पड़ता है। लोग ट्रक में रखे ड्रमों में झरने का पानी रख उसे बेचते हैं।
शहर के एक शिक्षक जूलिया खारखोंगर बताते हैं कि उनको एक बाल्टी पानी के लिए छह से सात रूपए देने पड़ते हैं। 1960 में चेरापूंजी में लगभग सात हज़ार लोग रहा करते थे। लेकिन आज ये आबादी पंद्रह गुना बढ़ चुकी है। नतीजतन इलाके के जंगल पर दबाव लगातार बढ़ रहा है।
चेरापूंजी बरसों से पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है। यहां के बादल, बरसात और सूर्योदय इस आकर्षण का केंद्र रहे हैं। खूबसूरत पहाड़ियां, सर्पीली सड़कें, झरनों का अंतहीन सिलसिला और हर सौ किमी पर आपको घेरता कुहासा यानी सब मिलाकर इस जगह का प्राकृतिक सौंदर्य लोगों के मन घंटों बांधे रखने में सक्षम है।

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