Saturday, May 23, 2009
लाल दुर्ग क्यों ढहा
प्रभाकर मणि तिवारी
तो क्या यह पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की तीन दशक से भी लंबी पारी के अंत की शुरूआत है? लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद अब राज्य में यह सवाल तेजी से सिर उठाने लगा है। अपनी पारी के इस सबसे बुरे प्रदर्शन के बाद खासकर माकपा के केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के मतभेद तो सामने आ ही गए हैं, घटक दल भी माकपा की नीतियों और दादागिरी के खिलाफ पहले के मुकाबले मुखर हो गए हैं। माकपा के नेता भले कबूल नहीं करें, इस गिरावट के संकेत तो बहुत पहले से मिलने लगे थे। यह अलग बात है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने कभी इसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं दिखाई। बीते विधानसभा चुनावों में माकपा के प्रदेश सचिव अनिल विश्वास के जीवित रहते ही पार्टी के सबसे मजबूत गढ़ रहे ग्रामीण इलाकों में पतन के संकेत मिलने लगे थे। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के पास खासकर गलत तरीके से कमाया धन बढ़ रहा था और उनकी जीवनशैली तेजी बदल रही थी। विश्वास ने तब इस बारे में कई रिपोर्ट तैयार कर पार्टी के नेताओं को चेतावनी भी दी थी। लेकिन उनकी चेतावनियां बेअसर ही रहीं।
बंगाल में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लहर या सिंगुर और नंदीग्राम ने वाममोर्चे की लुटिया उतनी नहीं डुबोई, जितनी खुद उसकी गलत नीतियों और माकपा के केंद्रीय व प्रदेश नेतृत्व के बीच बढ़ती खींचतान ने। बीते साल चाहे केंद्र की संप्रग सरकार से समर्थन वापसी का मामला हो या फिर लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकालने का, यह दूरियां लगातार बढ़ती रहीं। इन मुद्दों पर केंद्रीय नेतृत्व और बंगाल के माकरपा नेता दो अलग-अलग छोरों पर खड़े नजर आए। चुनाव अभियान के दौरान भी कांग्रेस को समर्थन देने के सवाल पर महासचिव प्रकाश कारत समेत दूसरे केंद्रीय नेता कुछ और कहते रहे और बंगाल के नेता कुछ और। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को भी आखिर में कहना पड़ा कि माकपा कांग्रेस को अछूत नहीं मानती। माकपा के विवादास्पद नेता व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने मतदान के ठीक पहले पार्टी के केंद्रीय नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए उन पर हवाई राजनीति करने और चुनाव लड़ने से डरने का आरोप लगाया। अब नतीजों के बाद उनकी समीक्षा के लिए दिल्ली में पोलितब्यूरो की बैठक में नहीं जा कर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी अपनी नाराजगी साफ जता दी है। यों बुद्धदेव काफी संयत नेता हैं और उनकी छवि भी साफ-सुथरी है। लेकिन अपने शासनकाल में पार्टी की इस दुर्गति को वे पचा नहीं पा रहे हैं और इसलिए उन्होंने अपना पद छोड़ने की पेशकश भी कर दी है।
नतीजों के बाद माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु ने कहा कि पूरे देश के साथ बंगाल में भी कांग्रेस की लहर थी और हमने इसका अनुमान लगाने में गलती कर दी। लेकिन वाममोर्चा के बंटाधार की यह इकलौती वजह नहीं थी। कांग्रेस तो अपनी छह सीटों पर ही बनी रही। अगर उसकी लहर का असर यहां होता तो उसकी सीटें बढ़तीं। लेकिन हुआ इसका उल्टा। माकपा नेताओं के अत्याचार व भ्रष्टाचार, केंद्र सरकार को गिराने की पार्टी की कोशिशों और सोमनाथ जैसे नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने से ऊबे लोगों ने अबकी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को बेहतर विकल्प मानते हुए उसके पक्ष में खुल कर वोट डाला। नतीजतन शहरी इलाकों के अलावा ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में भी माकपा का सूपड़ा लगभग साफ हो गया। अल्पसंख्यकों को लुभाने की तमाम कोशिशों और इसके लिए सरकारी खजाने का मुंह खोलने के बावजूद वे माकपा से दूर होते गए। इस बार वामपंथियों को अगर 15 सीटें मिलीं तो इसके लिए उनको उस भाजपा का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जिसे गरियाते हुए वे थकते नहीं थे। नतीजों से साफ है कि भाजपा के चलते ही वामपंथियों को कम से कम पांच सीटें मिलीं। भाजपा मैदान में नहीं होती तो शायद वामपंथी सीटें दहाई अंक तक भी नहीं पहुंच पाती।
कुछ वामपंथी नेता अब धीरे-धीरे यह समझ रहे हैं कि लोगों ने इसलिए माकपा के खिलाफ वोट नहीं डाले कि वे तृणमूल कांग्रेस को जिताना चाहते थे। माकपा की नीतियों और कारगुजारियों से नाराज मतदाताओं ने उसके उम्मीदवारों को हराने के लिए ही भारी तादाद में मतदान किया। माकपा की जिला कमिटी के एक नेता कहते हैं कि अगर ऐसा नहीं होता तो माकपा को उन इलाकों में भी धूल नहीं चाटनी पड़ती जहां साल भर पहले तक किसी में विपक्ष का झंडा थामने या फहराने की हिम्मत नहीं थी। वे वीरभूम सीट का हवाला देते हैं जहां बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्री शताब्दी राय ने अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ते हुए ब्रज मुखर्जी जैसे दिग्गज नेता को धूल चटा दी।
लेकिन क्या माकपा को इस बात का अनुमान नहीं था कि भ्रष्ट्राचार पार्टी के नेताओं व काडरों को दीमक की तरह चाट रहा है और उसके चलते संगठन की चूलें लगातार कमजोर हो रही हैं? इसका जवाब है हां। इसकी जानकारी तो थी, लेकिन माकपा के शीर्ष नेता यह तय नहीं कर पा रहे थे कि इस दीमक से छुटकारे की प्रक्रिया कब और कैसे शुरू की जाए। पूर्व प्रदेश सचिव अनिल विश्वास ने वर्ष 2006 में अपनी मौत के पहले कई आंतरिक रिपोर्टें तैयार की थी। उनमें इस भ्रष्टाचार में गुम होते वामपंथी आदर्शों के बारे में गहरी चिंता जताई गई थी। इन तमाम रिपोर्टों को पार्टी महासचिव प्रकाश कारत को भी भएजा गया था। इनमें साफ कहा गया था कि पार्टी के कई नेता अपने निजी हितों के लिए पार्टी का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें कहा गया था कि पार्टी के नेता आगे बढ़ने के लिए माकपा को सीढ़ी बना रहे हैं। इसके अलावा कई अपराधीतत्व भी पार्टी में घुस गए हैं। उन रिपोर्टों में विश्वास ने चेतावनी दी थी कि अगर इन सबसे छुटकारे के लिए समय रहते कोई कदम नहीं उठाया गया तो नतीजे गंभीर हो सकते हैं। लेकिन केंद्र की संप्रग सरकार की बांह मरोड़ने में व्यस्त रहे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने इन तमाम रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। शायद कुआं खोदने के लिए वे पहले आग लगने का इंतजार करते रहे। अब लोकसभा चुनावों में लगे इस करारे झटके ने उन रिपोर्टों को प्रासंगिक बना दिया है।
पार्टी में भ्रष्टाचार तो बहुत पहले से ही जड़ें जमाने लगा था। लेकिन बुद्धदेव के राज्य की सत्ता संभालने और खासकर वर्ष 2006 के चुनावों में पार्टी को भारी बहुमत मिलने के बाद मझले स्तर के नेता व कार्यकर्ता खुल कर खेलने लगे। बुद्धदेव के किसी भी कीमत पर औद्योगिकीकरण के नारे ने ऐसे नेताओं की राह आसान कर दी। उद्योगों के लिए जमीन के अधिग्रहण के ज्यादातर मामलों में स्थानीय माकपा नेता दलाली पर उतर आए और उनमें से कई तो देखते ही देखते करोड़पति बन गए। राज्य के विभिन्न जिलों से आने वाली ऐसी शिकायतों पर पार्टी के प्रदेश नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। बीते दो-तीन वर्षों में ऐसी एक भी मिसाल नहीं मिलती जब भ्रष्टाचार के आरोप में किसी नेता या कार्यकर्ता के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई हो।
सच तो यह है कि संप्रग सरकार के कार्यकाल के पहले चार वर्षों के दौरान माकपा के नेता उसकी बांह मरोड़ने में इतने व्यस्त रहे कि उसे ऐसी छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिला। बीते साल संप्रग से समर्थन वापसी और सोमनाथ को पार्टी से निकालने के फैसलों ने केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के बीच की खाई और चौड़ी कर दी। लोकसभा चुनाव के पहले बीता एक साल तो इस खाई को पाटने की कोशिशों में ही बात गया। लेकिन यह लगातार चौड़ी होती गई।
अब चुनावी नतीजों से खासकर बंगाल के माकपा नेताओं भारी सदमा लगा है। पार्टी की असली चिंता यह चुनाव नहीं हैं। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार का गठन कर उसमें शामिल होने का सपना प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी जैसे केंद्रीय नेता देख रहे थे, बंगाल के नेता नहीं। बंगाल के नेताओं की असली चिंता दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। वर्ष 1977 के बाद पहली बार उसे गंभीर चुनौती से जूझना पड़ रहा है। उसके सामने इन दो सालों में अपने संगठन को मजबूत कर दागी नेताओं से छुकाकार पाने की कड़ी चुनौती है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के विश्लेषण के बाद प्रदेश माकपा नेता इसे अपनी खुशकिस्मती मान रहे होंगे कि यह चुनाव लोकसभा का था विधानसभा का नहीं। आंकड़े अपनी बात खुद कहते हैं। विपक्ष को 2006 के विधानसभा चुनावों में कुल 52 सीटें मिली थी। कांग्रेसको 21 और तृणमूल कांग्रेस को इकत्तीस। लेकिन अबकी 294 में से 186 विधानसभा क्षेत्रों में विपक्षी उम्मीदवार विजयी रहे हैं। 137 पर तृणमूल जीती है और 49 पर माकपा। यानी अगर यह विधानसभा चुनाव होता तो वाममोर्चा मौजूदा 235 से घट कर महज सौ सीटों पर सिमट गया होता और सत्ता उसके हाथों से निकल जाती। लेकिन यह स्थिति दो साल बाद भी सामने आ सकती है। यही वामपंथियों की चिंता का सबसे बड़ा विषय है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद खुद वामपंथी भी सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह वाममोर्चा के अंत की शुरूआत है।
वाममोर्चा के घटक दल भी अब माकपा की गलत नीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर हो रहे हैं। फारवर्ड ब्लाक के नेता अशोक घोष ने मतदान के कुछ दिनों पहले यह कह सनसनी फैला दी थी कि नंदीग्राम में बेकसूर लोगों पर पुलिस फायरिंग का निर्देश खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने दिया था। उसके बाद माकपा सचिव विमान बसु को सफाई देनी पड़ी और माकपा के दबाव में बाद में घोष भी अपने बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की बात कहने लगे। उसके दो-तीन दिनों बाद एक अन्य घटक आरएसपी के नेता और राज्य के सार्वजनिक निर्माण मंत्री क्षिति गोस्वामी ने भी यह कह जले पर नमक छिड़क दिया कि नंदीग्राम में पुलिस की फायरिंग के दौरान पुलिस की पोशाक में माकपा के काडर भी शामिल थे और उनलोगों ने निहत्थे गांव वालों पर गोलियां बरसाईं। गोस्वामी ने यही बात लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद भी दोहराई। उन्होंने साफ कहा कि माकपा की गलत नीतियों ने ही राज्य में वामपंथियों की लुटिया डुबोई है।
राजधानी कोलकाता के अलावा उससे सटे हावड़ा, हुगली, उत्तर और दक्षिण 24-परगना जिलों में शहरी मतदाताओं ने भी वामपंथी उम्मीदवारों को खारिज कर दिया है। चुनाव के पहले तक तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी की हार के दावे किए जा रहे थे, लेकिन उन्होंने अपनी जीत का अंतर दोगुने से भी ज्यादा बढ़ा लिया। अल्पसंख्यकों के हितों का दम भरने के सरकार और पार्टी के दावे के बावजूद इस तबके ने माकपा से मुंह मोड़ लिया है। अल्पसंख्यक-बहुल इलाकों में वामपंथी बुरी तरह हारे हैं। कोलकाता उत्तर सीट पर अल्पसंख्यकों के रहनुमा और पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा कहे जा रहे मोहम्मद सलीम की पराजय इसी का सबूत है।
अब आगे क्या करेगी माकपा? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब फिलहाल खुद माकपाइयों को भी नहीं सूझ रहा है। पार्टी के ज्यादातर नेता अब तक चुनावी नतीजों के सदमे से उबरे नहीं हैं। फिलहाल उनका पूरा ध्यान पार्टी के अंदरुनी मामलों को निपटाने में ही लगा है। बंगाल माकपा के नेताओं का साफ तौर पर मानना है कि पार्टी के केंद्रीय नेताओं के मनमाने फैसलों ने ही राज्य में पार्टी का बेड़ा गर्क किया है। इसलिए अब आने वाले दिनों में केद्रीय नेताओं के साथ रस्साकशी और तेज होने का अंदेशा है। इससे उबरने के बाद पार्टी अपने संगठन को मजबूत करने की पहल कर सकती है। उसके पास अब इसके लिए ज्यादा समय भी नहीं बचा है। अगले साल ही नगर निगम और नगरपालिका चुनाव होने हैं। विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले इन चुनावों को राज्य में मिनी चुनाव कहा जाता है। इनके ठीक साल भर बाद ही विधानसभा चुनावों की घंटी बज जाएगी। क्या वह घंटी राज्य में वाममोर्चा के लिए खतरे की घंटी साबित होगी? इस सवाल का जवाब तो समय ही देगा। उस जवाब से ही यह पता चलेगा कि माकपा ने अतीत की अपनी गलतियों से कोई सबक सीखा है या नहीं।
(23 मई 2009 को जनसत्ता में छपा मुख्य लेख)
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वामपंथी दलों, विशेष रूप से सीपीएम ने अपना राजनैतिक कार्यक्रम डब्बे में कैद कर दिया है। वहीं से उस का पतन आरंभ हो चुका है। पूरी पार्टी का चरित्र ही बदल चुका है। अब पछताय क्या होय। अब तो नीचे ही गिरना है।
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