Tuesday, May 26, 2009

विनाश को न्योता देता विकास


पहाड़ियों की रानी के नाम से मशहूर पश्चिम बंगाल का एकमात्र पर्वतीय पर्यटन केंद्र दार्जिलिंग अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है. इस शहर की एक पहचान और भी है. वह है विश्व धरोहरों की सूचा में शामिल ट्वाय ट्रेन यानी खिलौना गाड़ी यहीं तक चलती है. लेकिन पर्यटन के दबाव के चलते हुए बेतरतीब विकास ने अब शहर के वजूद पर ही सवालिया निशान लगा दिया है. यह पूरा शहर अब एक ऐसी खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है जहां भूकंप का हल्का झटका भी इसे मलबे में तब्दील कर सकता है. जिस पर्यटन उद्योग को कभी यहां अर्थव्यवस्था का सबसे मजबूत आधार समझा जाता था, उसी के दबाव में हुए अंधाधुंध निर्माण ने शहर का वजूद ही खतरे में डाल दिया है.
सिलीगुड़ी से 77 किमी दूर बसे इस शहर व आसपास के इलाके में हर साल बरसात के सीजन में भूस्खलन की घटनाओं से जान-माल का भारी नुकसान होता है. इस सप्ताह इन घटनाओं में 16 लोग मारे जा चुके हैं और पांच सौ से ज्यादा मकान नष्ट हो गए हैं. इसके अलावा ट्वाय ट्रेन की पटरियां उखड़ जाने के कारण सिलीगुड़ी से कर्सियांग तक इस ट्रेन की आवाजाही भी ठप है. इस इलाके को पेड़ों की अवैध कटाई व तेजी से खड़े हो रहे क्रांकीट के जंगल का खमियाजा भुगतना पड़ा रहा है.
इस साल आए भूकंप के झटकों ने शहर में 1934 के भयावह भूकंप की यादें ताजा कर दी हैं. 14 जनवरी, 1934 को आए भूकंप में रिक्टर स्केल पर सात की तीव्रता वाले भूकंप में सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे. उसके बाद वर्ष 1998 में आए भूकंप में जान का तो नहीं, लेकिन माल का भारी नुकसान हुआ था. 1934 का भूकंप देख चुके मेजर जनरल (रिटायर्ड) के.पी.मल्ला कहते हैं कि ‘उस समय शहर की आबादी बहुत कम थी. अब यह बढ़ कर एक लाख से ज्यादा हो गई है. अब तो रिक्टर स्केल पर छह की तीव्रता वाला भूकंप भी शहर का सफाया कर सकता है. अंधाधुंध तरीके से हुए निर्माण के चलते सड़कें इतनी तंग हो गई हैं कि भूकंप की स्थिति में राहत व बचाव कार्य करना भी मुश्किल होगा.’

हाल में आए झटकों के बाद नगरपालिका ने छह मंजिली या उससे ऊंची इमारतों के मालिकों को कारण बताओ नोटिस भेजा है. अब शहर का चेहरा पूरी तरह बदल गया है. पहले जहां ब्रिटिश शासनकाल के दौरान लाल रंग के मकान इसकी पहचान थे, वहीं अब बहुमंजिली इमारतें कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं. तीन साल पहले इलाके में बड़े पैमाने पर हुए भूस्खलन में 40 लोग मारे गए थे और कई इमारतें ढह गई थीं. उसके बाद राज्य सरकार ने सिलीगुड़ी के माकपा विधायक व नगर विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य को इस मामले की जांच का जिम्मा सौंपा था. उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में अवैध निर्माण को ही इस हादसे का जिम्मेवार ठहराया था. भट्टाचार्य कहते हैं कि ‘पर्यटकों की बढ़ती तादाद के दबाव में तेजी से होने वाला शहरीकरण ही प्राकृतिक हादसे को बढ़ावा दे रहा है.’ वे कहते हैं कि ‘सरकार ने बहुत पहले ही पर्वतीय क्षेत्र को टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट के दायरे में लाने का प्रयास किया था. लेकिन सुभाष घीसिंग की अगुवाई वाली दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद ने इसकी मंजूरी नहीं दी.’
भूस्खलन की घटनाएं बढ़ने के बाद सरकार ने तीन साल पहले कुछ प्रस्ताव तैयार किए थे. इनमें कमजोर इमारतों को गिराना, नेशनल हाइवे से अवैध कब्जा हटाना व मकानों की ऊंचाई 13 मीटर तक सीमित करना शामिल था. लेकिन इस पर अब तक अमल नहीं हो सका है. मंत्री अशोक भट्टाचार्य कहते हैं कि ‘प्रशासन कमजोर इमारतों की एक सूची बना कर उनके मालिकों से उनको गिराने को कहेगा. वे सहमत नहीं हुए तो प्रशासन उन इमारतों को गिरा देगा. इन इमारतों के लिए इंसानी जीवन खतरे में नहीं डाला जा सकता.’ दार्जिलिंग नगरपालिका के पूर्व अद्यक्ष पासंग भूटिया कहते हैं कि ‘नगरपालिका ने इमारतों की ऊंचाई 13 मीटर तक सीमित करने का एक प्रस्ताव पारित किया था. लेकिन इसे अब तक सरकारी मंजूरी नहीं मिल सकी है.’
बरसात के दौरान भूस्खलन के कारण सड़क टूटने की वजह से इस इलाके का संपर्क बाहरी दुनिया से कटा रहता है. पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती आबादी व वाहनों की आवाजाही से होने वाले कंपन के कारण मिट्टी ढीली हो जाती है और हल्की बारिश होते ही अपनी जगह छोड़ देती है. विशेषज्ञ कहते हैं कि अनियंत्रित निर्माण ने पूरे शहर को खतरे में डाल दिया है. अगर सरकार, प्रशासन व परिषद ने समय रहते ध्यान दिया होता तो पहाड़ियों की रानी को प्रकृति की यह मार नहीं झेलनी पड़ती. लेकिन विडंबना तो यह है कि अब भी इसे बचाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही है.

2 comments:

  1. इस बार गया...देख कर दुख हुआ!!

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  2. वोट की खातिर सरकारों को इसकी परवाह ही कहाँ है.

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