Wednesday, May 13, 2009
वहां घटते रहते हैं पुरुष वोटर
प्रभाकर मणि तिवारी
देश के लगभग हर इलाके में साल-दर-साल मतदाताओं की तादाद अमूमन बढ़ती जाती है. लेकिन एक जगह ऐसी भी है जहां हर चुनाव में पुरुष मतदाताओं की तादाद पिछली बार के मुकाबले घट जाती है. लेकिन आखिर ऐसा क्यों है? दरअसल, किसी भी दो चुनाव के बीच के फासले के दौरान उस इलाके के कुछ पुरुष बाघ का शिकार बन जाते हैं. इसलिए हर बार मतदाता सूची में उनकी तादाद कम हो जाती है. वह इलाका है पश्चिम बंगाल में दक्षिण 24-परगना जिले का सुंदरबन. वहां एक गांव में हर साल इतने लोग बाघ के शिकार हो जाते हैं कि उस गांव का नाम ही विधवापल्ली यानी विधवाओं का गांव हो गया है.
सुंदरबन के गोसाबा द्वीप में स्थित आरामपुर गांव राजधानी कोलकाता से लगभग 90 किलोमीटर दूर जयनगर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है. लेकिन इस आरामपुर गांव में विधवाओं की लगातार बढ़ती तादाद के चलते इसका नाम ही बदल कर विधवापल्ली या विधवाओं का गांव हो गया है. गांव में अठारह से लेकर साठ साल तक की महिला मतदाता हैं. लेकिन उनके मुकाबले पुरुष मतदाताओं की तादाद नहीं के बराबर है. इस इलाके में संसदीय चुनाव आखिरी दौर में 13 मई को होने हैं.
देश में यह शायद पहली ऐसी जगह है, जहां पुरुष मतदाताओं की तादाद बढ़ने की बजाय लगातार घटती रहती है. ज्यादातर मामलों में तो गांव के युवक मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने से पहले ही बाघ के पेट में समा जाते हैं. सुंदरबन के इस गांव में रहने वाले मछली पकड़ने के अलावा जंगल से मधु एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. जंगल में रायल बंगाल टाइगर के खतरे से बाकिफ होने के बावजूद पेट की आग बुझाने के लिए वे रोज जंगल में जाते हैं.
गांव की ज्यादातर विधवाओं के पास अपनी जमीन नहीं है. अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए उन्हें काफी दूर जाकर पैसे वाले लोगों के लोगों के घरों और खेतों में काम करना पड़ता है. गांव के बच्चों का बचपन भी उसे छिन गया है. वे छोटी उम्र से ही दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं और बड़े होने पर जंगल में जाते हैं. तमाम दिक्कतों से जूझ रहे इस गांव में चुनाव का कोई उत्साह नहीं होता. फिर भी विधवाएं हर चुनाव में वोट देने मतदान केंद्रों तक पहुंचती हैं. इस उम्मीद में कि शायद यह चुनाव उनके अंधेरे जीवन में उम्मीद की नई सुबह ले कर आए.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सुंदरबन में हर साल औसतन 35 से 40 लोग बाघ के शिकार बन जाते हैं. आजादी से विधवापल्ली गांव का कोई वजूद नहीं था. लेकिन विभाजन के बाद पारंपरिक रूप से मछुआरे, लकड़हारे और मधु संग्रहकर्ता यहां धीरे-धीरे आ बसे. सन 1950 तक यहां की आबादी कुछ ज्यादा नहीं थी. बाद में गांव के पुरुष धीरे-धीरे बाघ का शिकार बनते गए और गांव में या तो विधवाएं बच गईं या फिर उनके दुधमुंहे बच्चे. सामाजिक बायकाट की चलते धीरे-धीरे सुंदरबन इलाके के दूसरे गांवों की विधवाएं भी विधवापल्ली में आ कर बसने लगीं. इस समय गांव में लगभग सवा दो सौ घर हैं. लेकिन इनमें से एक भी घर ऐसा नहीं है जहां कोई विधवा, जिसका पति बाघ का शिकार नहीं बना हो, नहीं हो. यानी सुदंरबन के बाघों ने इलाके में विधवाओं का एक पू्रा गांव ही बसा दिया है.
गांव की पार्वती मंडल के पति को बीते साल ही जंगल में बाघ ने मार दिया. वह कहती है कि ‘यह तो विधवाओं का गांव है. हमें न तो सरकार से कोई सहायता मिलती है और न ही कोई नेता हमारा दर्द बांटने आता है.’ वह आरोप लगाती है कि ‘चुनाव के मौके पर तमाम राजनीतिक पार्टियां हमदर्दी का नाटक तो करती हैं. लेकिन चुनाव बीतते ही उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं.’ गांव के एक बुजुर्ग मोहम्मद शफीकुल के तो तीनों बेटों को बाघ ने मार दिया. अब अपने छोटे-छोटे पोते-पोतियों के साथ दिन काट रहे शफीकुल कहते हैं कि ‘यहां मौत ही हमारी नियति है. घर में बैठें तो भूख से मर जाएंगे और जंगल में जाएं तो बाघ हमें नहीं छोड़ेगा. गांव के न जाने कितने ही मर्द उनका शिकार हो चुके हैं.’
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