Wednesday, June 30, 2010

होता है वही जो हम नहीं चाहते

अक्सर जीवन और रोजमर्रा के कामकाज में जाने-अनजाने वही सब हो जाता है जो हम नहीं चाहते. इसकी एक मिसाल काफी है. कई बार दुकान पर कपड़े या कोई सामान खरीदते समय हम दस में नौ बार वही सामान खरीद लेते हैं जो हमें कम पसंद होता है. खरीदने के बाद रास्ते भर अफसोस करते रहते हैं कि वो दूसरा वाला खऱीदा होता तो अच्छा होता. ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं होती रहती हैं जो जीवन की भागमभाग में मन से बिसर जाती हैं. मेरा पत्रकारिता में आना भी कुछ ऐसी ही घटना है. हां, लेकिन मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है.
अस्सी के दशक में उत्तरार्ध में मैं सिलीगुड़ी में रह कर इलेक्ट्रानिक्स का डिप्लोमा कर रहा था. स्कूल के दिनों का मेरा एक सहपाठी था. श्रवण कुमार अग्रवाल. उसका वहां सीमेंट का कारोबार था. हमने सिलीगुड़ी हिंदी स्कूल में कक्षा पांच से दसवीं तक पढ़ाई साथ ही की थी. अब भी हम लगभग रोज ही मिलते थे. सुबह हिंदी स्कूल के मैदान में सैर करना हमारी दिनचर्या बन गई थी. उससे दुनिया-जहान की तमाम बातों पर चर्चा होती थी. एक दिन उसने यूं ही कहा कि अरे भाई तुम्हारी हिंदी और अंग्रेजी इतनी अच्छी है. शाम को खाली समय भी है. तुम जनपथ समाचार में काम क्यों नहीं करते. उस समय सिलीगुड़ी से यही एक हिंदी अखबार निकलता था. अब भी यह नंबर वन है वहां. उसके मालिक हैं राजेंद्र बैद. तब उनका लड़का विवेक छोटा था. राजेंद्र बाबू ( सब लोग उको इसी संबोधन से पुकारते थे) ही सब काम देखते थे. श्रवण ने बात चलाई तो मैंने भी सोचा देखने में हर्ज ही क्या है. जंचा तो ठीक वरना अपने इलेक्ट्रानिक्स वाला रास्ता तो खुला ही है.
खैर, श्रवण अगले दिन मुझे साथ लेकर राजेंद्र वैद के पास पहुंचा. उन्होंने मुझे एक पन्ना दिया. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के लिए. मैंने वहीं फौरन उसका अनुवाद कर दिया. अनुवाद देखते ही उन्होंने कहा कि कल से काम पर आ जाओ. चार सौ रुपए वेतन मिलेंगे. चार सौ रुपए तब बड़ी बात थी. मैंने हामी भऱ दी. अगले दिन ठीक समय पर काम पर पहुंच गया. उस दिन राजेंद्र बाबू ने मुझे मध्यकालीन इतिहास की एक पुस्तक थमा दी. वह अंग्रेजी में थी. राजेंद्र बाबू ने कहा कि तुम रोज इसका अनुवाद करोगे और वही पहले पेज की बाटम स्टोरी होगी. फिर क्या था. इतिहास के पन्नों से शीर्षक वह कालम चार रोज बाद से शुरू हो गया. वह कोई तीन महीने चला. इसबीच, मैंने पूरी किताब का अनुवाद कर दिया.
उस समय दार्जिलिंग में अलग गोरखालैंड आंदोलन का दौर था. वहां एक साथी थे मनोज राउत. वे गोरखालैंड आंदोलन को शुरू से ही कवर करते आ रहे थे. वे बांग्ला में अपनी कापी लिखते थे. उसके अनुवाद का जिम्मा भी मेरे कंधों पर आ गया. राजेंद्र बाबू अक्सर कहते थे कि यार तुम इतनी जल्दी हाथ से इतने पेज कैसे लिख लेते हो. खैर, काम चलता गया, पांव जमते गए. मेरे आने से कुछ एकाध पुराने लोगों को दिक्कत होने लगी. एक साथी थे. उनका नाम नहीं लूंगा. अब संपादक पद पर पहुंच गए हैं. काम जानते तो थे. लेकिन परले दर्जे के आलसी और फांकीबाज. दफ्तर से एडवांस लेकर बैग समेत टूर के लिए निकलते और फिर घर चले जाते. वहां से दो दिनों बाद टूर पर जाते. लौट कर दो दिन घर पर आराम फरमाने के बाद दफ्तर आ जाते. बैग हाथों में होता था. यह जताने के लिए कि सीधे टूर से ही आ रहा हूं. उसके बाद थके होने की बात कह कर घर चले जाते थे. यानी उस दिन की भी छुट्टी.
एक बार बड़ा मजेदार वाकया हुआ. वे दफ्तर से पैसे लेकर टूर के लिए निकले और अपनी आदत के मुताबिक घर पहुंच गए. अगले दिन उन्होंने राजेंद्र बाबू को बाकायद फोन पर बताया कि मैं सकुशल फलां जगह पहुंच गया हूं. लेकिन आधे घंटे बाद राजेंद्र बाबू किसी काम से निकले तो देखा वह सज्जन महानंदा ब्रिज पर पान चबाते हुए स्कूटर पर तफरीह कर रहे हैं. उनकी पोल खुल गई. इन तमाम चीजों के बावजूद दफ्तर से बाहर हम दोनों की दोस्ती बनी रही बल्कि और प्रगाढ़ हो गई थी.
राजेंद्र वैद बड़े भुलक्कड़ थे. पान पराग बहुत खाते थे. हमेशा हाथ में बड़ा सा डिब्बा रखते थे. जब संपादकीय विभाग में आते थे तब भी. और दस में से नौ बार डिब्बा हमारी मेज पर छोड़ जाते थे. उनके जाते ही हम लोग टूट पड़ते उस डिब्बे पर. जिसको जितना मिला मुंह में दबा लेते थे. बाद में चपरासी से डिब्बा उन तक भिजवा देते थे. इसी तरह उन्होंने दर्जनों कलमें संपादकीय में छोड़ी होंगी. यह बात अलग है कि उनमें से कोई भी कलम दोबारा उन तक नहीं पहुंची. पैसे के मामले में दरियादिल. जितना एडवांस चाहिए, दे देते थे. फिर धीरे-धीरे वेतन में कटता रहता था. कई बार तो देकर काटना तक भूल जाते थे. वहीं रहते उन्होंने मुफ्त में नई साइकिल दिलाई और बाद में जमीन खरीदने के लिए रुपए भी दिए.
जनपथ में काम करते दोस्ती तो बनी रही. लेकिन व्यस्तता की वजह से श्रवण कुमार से मुलाकातें कम हो गई थी. उसने मेरा परिचय अखबारी दुनिया से कराया था. इस बात के लिए मैं उसका हमेशा आभारी रहा. बाद में एक छोटी से घटना की वजह से दोस्ती टूट गई. एक दिन में हमेशा की तरह मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो उसने कहा कि तुम अभी चले जाओ, मेरा भाई आ रहा है. उसकी यह बात सुनते ही मैं उल्टे पांव लौट आया. इस बात को 23-24 साल बीत गए. लेकिन मैंने दोबारा उसके दफ्तर में पांव नहीं रखा. आकिर मैं न तो कोई चोर-उचक्का था और न ही उससे कुछ मांगने गया था. बाद में गलती का अहसास होने पर उसने दर्जनों बार मेरे घऱ के चक्कर काटे. लेकिन न जाने क्यों दोबारा उसके दफ्तर की ओर जाने की इच्छा तक नहीं हुई.
बाद में जनपथ समाचार में हड़ताल हुई. कर्मचारियों ने अखबार का प्रकाशान हाथ में ले लिया. हमने महीने भर तक आधे पैसों में काम कर के अखबार निकाला. उसी दौरान गुवाहाटी से जीएल अग्रवाल आए. वे वहां से हिंदी अखबार निकालना चाहते थे और इसी सिलसिले में आए थे. जनपथ की लगभग पूरी टीम ही उनके साथ पूर्वोत्तर की राह पर निकल पड़ी. यह मार्च, 1989 की बात है.

Friday, June 25, 2010

अद्भुत है पुरी का समुद्र तट


पहली बार कोई 17 साल पहले पुरी गया था. बिना किसी योजना के ही. वह महज एक संयोग था और उसके पीछे कोलकाता में रहने वाले एक रिश्तेदार की प्रेरणा थी. पत्नी के साथ इलाज के सिलसिले में सिलीगुड़ी से कोलकाता आया था. डाक्टर ने कोई जांच कराने को कहा था और उसकी रिपोर्ट सात दिनों के बाद आनी थी. अब समस्या यह कि क्या करें. सिलीगुड़ी लौट जाएं या कोलकाता में ही घर बैठे बोरियत से जूझते रहें. इसी उधेड़बुन में फंसा था कि उन रिश्तेदार ने ही हमारी मुश्किल आसान कर दी. यह कह कर कि आप लोग दो-चार दिनों के लिए पुरी क्यों नहीं घूम आते. घूमना भी हो जाएगा और तीर्थ भी. इसके अलावा समय का सदुपयोग भी हो जाएगा. यानी आम के आम और गुठली के दाम. उन्होंने ही होटल और पंडे का पता दे दिया. खैर, थोड़ी सी कोशिश के बाद पुरी जाने-आने का रिजर्वेशन भी हो गया. बस चल पड़े हावड़ा से जगन्नाथ एक्सप्रेस में बैठ कर पुरी की ओर.
वह दिसंबर का महीना था. सिलीगुड़ी से हालांकि हम गर्म कपड़े और चादर वगैरह ले आए थे. लेकिन कोलकाता में सर्दी वैसे भी नहीं पड़ती. हमारे रिश्तेदार और मित्रों ने बताया कि पुरी में समुद्र होने की वजह से वहां भी सर्दी नहीं पड़ती. बस क्या था. हमने तमाम गर्म कपड़े कोलकाता में रख दिए और एक छोटी अटैची लेकर चल दिए. इसका अफसोस तो रास्ते में ट्रेन में तब हुआ जब सर्दी के मारे दांत बजने लगे. खैर, अपनी गलती पर खुद को मन ही मन डांटते हुए सुबह पुरी पहुंचे. स्टेशन के बाहर निकल कर पुरी होटल की बस में बैठ गए. वहां जाते ही कमरा भी मिल गया. ऐन समुद्र के सामने है पुरी होटल. कमरे की बालकनी से ही समुद्र की लहरें. दो-तीन दिन ठहर कर कोणार्क और दूसरे जगहों की सैर की. इतिहास में ही पढ़ा था कोणार्क. सूर्य मंदिर को सजीव देख कर मन मानो बरसों पहले स्कूली दिनों की ओर लौट गया.
हमारी वह यात्रा यादगार थी. इसलिए भी वहां से लौटने के बाद ही मेरी पत्नी मां बनी. वहां रहते हमने जगन्नाथ मंदिर के भी दर्शन किए. हमारे पंडे का नाम था चकाचक पंडा. उसका पूरा नाम तो था चकाचक रामकृष्ण प्रतिहारी. लेकिन चकाचक पंडा के नाम से ही उसे सब जानते थे. अपने उत्तर भारतीय पंडों के उलट वहां लूट-खसोट वाली प्रवृत्ति नहीं है. जो दे दिया, पंडा उसी में खुश.

उसके बाद कोई आठ-नौ साल पुरी नहीं जा सका. लेकिन तबादले पर कोलकाता आने के बाद बीते दस सालों में पांच बार पुरी हो आया हूं. एक बार तो नया साल भी वहीं मना चुका हूं. तब कोई सात दिन रहा था वहां. अब सबसे ताजा पुरी दौरे का कार्यक्रम बना जून के पहले सप्ताह में. अचानक. शादी की वर्षगांठ करीब थी. बेटी की कोचिंग की वजह से दो-तीन दिनों से ज्यादा समय नहीं निकलता था कि घर जाया जा सके. सो, पुरी जाने का कार्यक्रम बना लिया. होटल की भारी दिक्कत. पुरी में होटलों की तादाद जितनी बढ़ी है पर्यटकों की तादाद उससे कई गुना ज्यादा बढ़ गई है. दर्जनों फोन के बाद एक मित्र के जरिए होटल में कमरा मिल गया. पहले भुवनेश्वर पहुंचा. वहां कुछ देर आराम करने के बाद लिंगराज मंदिर होते हुए पुरी.
पुरी का समुद्र हमेशा आकर्षित करता रहा है. यह पूर्वी भारत के सुंदरतम और साफ-सुथरे समुद्र तटों में से एक है. लेकिन अबकी समुद्र का मिजाज बदला हुआ लगा. पुरी होटल के सामने तो समुद्र अपने तट को ही खा गया था. वहां गहराई पहले के मुकाबले ज्यादा हो गई है. अभी बीते साल मार्च में वहां गया था तब ऐसा नहीं था. तब हमने वहां नहाते हुए घंटों बिता दिए थे. लेकिन अब वह जगह खतरनाक हो गई है. ग्लोबल वार्मिंग का असर यहां नजर आने लगा है. लहरें लौटते हुए अपने साथ जबरन भीतर खींचने का प्रयास करती नजर आईं. पहले मैं जिस स्वर्गद्वार इलाके को सुनसान मानता था वही अब गुलजार हो गया है. पुरी होटल या उसके आसपास कोई दूसरा होटल नहीं मिल पाने की वजह से मन में कुछ निराशा थी. लेकिन वह निराशा वहां जाकर दूर हो गई. अब तो जहां होटल था वहीं नहाने वालों की भीड़ थी सामने. रात को समुद्री वस्तुओं का बाजार भी वहीं लगता था.
पहले दिन तो दोपहर को पहुंचवे के बाद होटल में खाना खाकर कमरे से ही समुद्री लहरों का नजारा लेते रहे. शाम को मंदिर की ओर निकले. दूसरे दिन शादी की वर्षगांठ थी. उस दिन सुबह-सुबह मंदिर में दर्शन करने के बाद भोग चढ़ाया. गर्मी काफी थी. ऐसे में मंदिर से लौटने के बाद समुद्र की ओर जाने की हिम्मत नहीं हुई. पहले कई बार तपते बालू पर अपने पैर जला चुका हूं. इस बार नहीं, मैने सोचा. तीसरे दिन वापसी थी. लेकिन ट्रेन रात को 11 बजे थी और पूरे दिन हमारे पास करने के लिए कुछ था नहीं. तड़के होटल से निकले सूर्योदय का नजारा देखने के लिए. लेकिन बादल ने सूरज को अपनी ओट में ढक रखा था. जब तक बादल छंटे, सूरज काफी ऊपर आ गया था. खैर, वहीं बैठ कर चाय पीते रहे. कुछ देर बाद होटल से कपड़े बदल कर नहाने पहुंचे. कोई घंटे भर नहाया. पत्नी और बेटी के साथ. लेकिन लहरें काफी तेज थीं. वह तो बाद में पता चला कि अंडमान में उसी दिन भूकंप आया था. शायद उसी का असर हो.
शाम को भी हम घंटों समुद्र के किनारे घूमते रहे. पुरी की सुबह अगर खूबसूरत है तो शाम का भी कोई जवाब नहीं. बंगाली पर्यटकों की भरमार. खासकर समुद्री मछलियां बेचने वाले ठेलों और उड़ीसा हैंडलूम की दुकानों पर. पुरी जाने पर लगता है कि कोलकाता के ही किसी कोने में हैं. बस एक समुद्र भर का ही अंतर है.
पुरी अब तक जितनी बार गया हूं, वहां की खूबसूरती से मन नहीं भरा है. हर बार, वापसी के दौरान दोबारा जल्दी ही लौटने का संकल्प मन ही मन दोहराते हुए आता हूं. लेकिन अब तो शायद अगले कम से कम दो साल कहीं जाना संभव ही नहीं, बिटिया 11वीं में है. उसका स्कूल, कोचिंग और सौ सांसरिक झमेले. लेकिन जब भी मौका मिला, जल्दी ही जाऊंगा. समुद्र में नहाने नहीं, तो वहां उस पर ग्लोबल वार्मिंग का असर देखने.कोलकाता से सात-आठ घंटे का ही तो सफर है.

Friday, June 4, 2010

माकपा अब घटक दलों के भी निशाने पर


पश्चिम बंगाल के शहरी निकाय के लिए हुए चुनाव में जबरदस्त हार से माकपा सकते में है. नतीजों के एलान के चौबीस घंटे बाद भी वह इस सदमे से उबर नहीं सकी है. लेकिन इस हार के बावजूद माकपाइयों के तेवर ढीले नहीं पड़े हैं. यानी रस्सी भले जल गई हो, उसकी ऐंठन नहीं गई है. उसका दावा है कि पार्टी का प्रदर्शन उतना खराब नहीं रहा है. वैसे, माकपा के दिग्गज नेता भले कुछ भी दावा करें, हकीकत यह है कि इतनी करार हार का उनको कोई अंदेशा नहीं था. जिन 81 नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हुए उनमें से 54 पर वामपंथियों का कब्जा था. लेकिन अब उसकी झोली में इनमें से सिर्फ 17 ही आई हैं. शायद इसलिए नतीजों के एलान के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की बोलती बंद हो गई. इस चुनावी सदमे से पंगु बनी माकपा पर अब वाममोर्चा के उसके सहयोगी भी हमला करने लगे हैं. उन्होंने इस हार का ठीकरा माकपा के सिर पर ही फोड़ा है.
इन नतीजों के बाद माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु ने एक बार फिर हार की वजहों की समीक्षा करने और आम लोगों से बढ़ी दूरी कम करने की बात कही है. वैसे, उन्होंने बीते साल लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी यही कहा था. लेकिन इन नतीजों से साफ है कि माकपा और वोटरों के बीच की दूरी घटने की बजाय और बढ़ गई है. गुरुवार को हार की वजहों की समीक्षा के लिए आयोजित प्रदेश माकपा सचिव मंडल की बैठक में भी कोई ठोस चर्चा नहीं हो सकी. इसमें शामिल कुछ नेता अपने-अपने तर्क देते रहे. लेकिन ज्यादातर तो सुझाव के नाम पर बगलें ही झांकते रहे. बैठक में शामिल एक नेता ने बताया कि बैठक के दौरान माहौल गमगीन रहा. तमाम नेताओं की बोलती बंद थी.
शहरी निकाय चुनाव में हार का सदमा अभी कम नहीं भी हुआ है कि वाममोर्चा में उसके दो सहयोगी दलों ने इस हार के लिए सीधे तौर पर भ्रष्टाचार और राज्य सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेवार ठहराते हुए माकपा को कटघरे में खड़ा कर दिया है. आरएसपी नेता और राज्य के लोक निर्माण मंत्री क्षिति गोस्वामी ने कहा है कि जनादेश बदलाव के पक्ष में है. चुनावी नतीजों से यह बात शीशे की तरह साफ हो गई है. उन्होंने आरोप लगाया कि लंबे अरसे तक सत्ता में रहने की वजह से वाममोर्चा के कई वर्गों में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है.
आरएसपी नेता ने कहा कि माकपा वाममोर्चा की सबसे बड़ी घटक है. इसलिए हमारे मुकाबले उसमें भ्रष्टाचार की जड़ें भी ज्यादा गहरी हैं. उधर, मोर्चा की एक अन्य घटक वेस्ट बंगाल सोशलिस्ट पार्टी ने कहा है कि वर्ष 1977 से लगातार सत्ता में रहने की वजह से वाममोर्चा ने लोगों का भरोसा खो दिया है. पार्टी के नेता और मत्स्य पालन मंत्री किरणमय नंद ने कहा कि वर्ष 2008 के पंचायत चुनाव से ही आम लोग हमारे खिलाफ हैं. इसलिए मौजूदा हालात में इससे बेहतर नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्होंने कहा कि सरकार की गलत नीतियों और आम लोगों के प्रति माकपा की बेरुखी ने ही निकाय चुनाव में वामपंथियों की लुटिया डुबो दी. हमने लोगों का भरोसा खो दिया है.
नंदा ने कहा कि बीते साल लोकसभा चुनाव में मोर्चा की दुर्गति के बाद उन्होंने सरकार के इस्तीफा देकर नए सिरे से जनादेश हासिल करने का सुझाव दिया था. लेकिन मेरा वह प्रस्ताव तब खारिज कर दिया गया था. गोस्वामी व नंदा विभिन्न मुद्दों पर पहले भी सरकार और माकपा की गलत नीतियों के खिलाफ मुखर रहे हैं.
शहरी निकाय के चुनावी नतीजों ने माकपा के दिग्गज नेताओं के तमाम पूर्वानुमान व समीकरण गड़बड़ा दिए हैं. चुनाव से पहले कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के बीच कोई तालमेल नहीं होने से माकपाई बेहद खुश थे. उनका सीधा हिसाब था कि इससे वाम-विरोधी वोटों का विभाजन होगा और वामपंथियों का बेड़ा पार हो जाएगा. लेकिन वे शायद भूल गए कि राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होता. अब हर चुनाव की तरह इस बार भी माकपाई हार की वजह की समीक्षा और लोगों के नजदीक जाने का पुराना राग ही अलाप रहे हैं. लेकिन पार्टी के भ्रष्ट नेताओं व कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई के सवाल पर पार्टी ने अब तक चुप्पी साध रखी है. बीते साल लोकसभा चुनाव के बाद उसने ऐसे नेताओं से पल्ला झाड़ कर पार्टी की छवि सुधारने के लिए शुद्धिकरण अभियान चलाने का फैसला किया था. लेकिन पार्टी के ही एक गुट के दबाव में उस फैसले को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया. अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या माकपा अतीत की गलतियों से कोई सबक लेगी. फिलहाल तो इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है.