Thursday, September 10, 2009

नष्ट हो रही है एक ‘अमानुष’ की धरोहर


दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा, बर्बादी की तरफ ऐसा मोड़ा,एक भले मानुष को अमानुष बना कर छोड़ा........’ कोई 35 साल पहले बनी हिंदी फिल्म ‘अमानुष’ का यह गाना भला कौन भूल सकता है! बांग्ला फिल्मों के महानायक उत्तम कुमार की 83वीं जयंती के मौके पर केंद्र सरकार ने भले उनके सम्मान में डाक टिकट जारी करने का फैसला किया हो, उनकी ज्यादातर फिल्मों के प्रिंट अब बेहद खराब हो चुके हैं. हाल ही में रेल मंत्री ममता बनर्जी ने टालीगंज मेट्रो रेल स्टेशन का नाम भी बदल कर महानायक उत्तम कुमार कर दिया. टालीगंज में ही बांग्ला फिल्म उद्योग बसता है. उत्तम कुमार का ज्यादातर समय भी इसी इलाके में स्थित स्टूडियो में अभिनय करते बीता था. बांग्ला फिल्मों के इस महानायक को सम्मान तो बहुत मिला और अब भी मिल रहा है. लेकिन किसी ने उनकी धरोहर के रखरखाव में दिलचस्पी नहीं ली. यही वजह है कि उन्होंने जिन 226 फिल्मों में अभिनय किया था उनमें से सौ से भी कम फिल्मों के निगेटिव ही सुरक्षित बचे हैं. उनकी ज्यादातर फिल्मों के प्रिंट इस हालत में हैं कि उनको 35 मिमी के परदे पर दिखाना संभव नहीं है. कई फिल्मों के तो प्रिंट भी नहीं मिल रहे हैं. अब ज्यादातर सिनेमाघरों में श्वेत-श्याम फिल्में नहीं दिखाई जातीं. यही वजह है कि किसी ने इनके संरक्षण और रखरखाव में दिलचस्पी नहीं दिखाई है.उत्तम कुमार ने 1968 में शिल्पी संसद नामक एक संगठन बनाया था. इसके सचिव साधन बागची बताते हैं कि ‘दुर्भाग्य से उत्तम कुमार की कई बेहतरीन फिल्मों के न तो प्रिंट उपलब्ध हैं और न ही उनके निगेटिव.’ वे कहते हैं कि ‘एक नया प्रिंट डेवलप करने पर कम से एक लाख रुपए की लागत आती है. इसलए कोई भी निर्माता या वितरक यह रकम खर्च करने के लिए तैयार नहीं है.’ उत्तम कुमार की जिन फिल्मों के प्रिंट खो गए हैं उनमें ‘शिल्पी,’ ‘अग्नि परीक्षा,’ ‘पथे होलो देरी’ और ‘नवराग’ शामिल हैं. उत्तम कुमार की ‘ओगो वधू सुंदरी’ के भी प्रिंट का कोई पता नहीं है. यह उनकी रिलीज होने वाली अंतिम फिल्म थी.शिल्पी संसद लंबे अरसे से उत्तम कुमार की फिल्मों का एक आर्काइव बनाने का प्रयास कर रहा है. लेकिन किसी ने भी इस काम में सहायता का हाथ नहीं बढ़ाया है. बागची कहते हैं कि ‘आर्काइव तो दूर की बात है. कोई इस महानायक की फिल्मों के संरक्षण में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा है.’ वे कहते हैं कि राज्य सरकार से भी इस मामले में कोई सहायता नहीं मिली है. हमने बीते साल ही उसे उन फिल्मों की सूची सौंपी थी जिनके प्रिंट नष्ट हो रहे हैं. लेकिन सरकार की ओर से अब तक कोई जवाब नहीं आया है.
उत्तम कुमार की लगभग पांच दर्जन फिल्में सीडी और डीवीडी पर उपलब्ध हैं. लेकिन उनकी क्वालिटी बेहद खराब है. ‘अमानुष’ और ‘आनंद आश्रम’ समेत उनकी सभी तेरह हिंदी फिल्मों के प्रिंट सुरक्षित हैं.उत्तम कुमार का जन्म कोलकाता के अहिरीटोला इलाके में हुआ था. बचपन में उनका नाम अरुण कुमार चटर्जी था. लेकिन नानी प्यार से उनको उत्तम कहती थीं. इसलिए बाद में उनका नाम उत्तम कुमार हो गया. उन्होंने कुछ दिनों तक थिएटर में भी काम किया. बाद में वे फिल्मों की ओर मुड़े और बांग्ला फिल्म ‘दृष्टिदान’ (1948) से अपना सफर शुरू किया. लेकिन अगले चार-पांच साल तक उनकी फिल्में लगातार फ्लॉप होती रहीं. फ्लॉप हीरो का ठप्पा लगने की वजह से तब वे फिल्मों से तौबा करने का मन बनाने लगे. लेकिन 1952 में बनी बसु परिवार फिल्म के हिट होते ही उनकी गाड़ी चल निकली. उसके अगले साल सुचित्रा सेन के साथ आई ‘साढ़े चौहत्तर’ फिल्म ने उनको करियर को एक नई दिशा दी. उसके बाद उत्तम कुमार ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाद में उन्होंने ‘अमानुष,’ ‘किताब,’ ‘आनंद आश्रम’ और ‘दूरियां’ समेत कई हिंदी फिल्मों में भी काम किया. वर्ष 1980 में एक फिल्म के सेट पर ही दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया.

Monday, September 7, 2009

तो मत करें प्यार का सार्वजनिक इजहार!


अगर त्योहारों के इस सीजन में आप पहाड़ियों की रानी दार्जिलिंग की सैर की योजना बना रहे हैं तो यह खबर आपके लिए है. अगर आप नवविवाहित हैं और हनीमून के लिए दार्जिलिंग की हसीन वादियों में जा रहे हैं तब तो आपको और सावधानी बरतनी चाहिए. अब इन वादियों में आप पत्नी के साथ ही सही, अपने प्यार का सार्वजनिक तौर पर इजहार नहीं कर सकते. हां, इसमें पत्नी का हाथ पकड़ कर सड़कों पर घूमना भी शामिल है. वजह--इलाके में अलग राज्य के लिए लंबे अरसे से आंदोलन करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अपने ताजा फरमान में इस पर पाबंदी लगा दी है. मोर्चा ने इससे पहले बीते साल इसी सीजन में इलाके के लोगों के लिए ड्रेस कोड लागू कर दिया था. तब उसने कहा था कि पूरे एक महीने इलाके के लोग पारंपरिक गोरखा ड्रेस में ही नजर आएंगे.उस समय भी मोर्चा के फरमान की काफी आलोचना हुई थी और अब भी हो रही है. गोरखा मोर्चा की युवा शाखा के प्रमुख रमेश कहते हैं कि ‘हमने समाज के भले के लिए ही यह फैसला किया है.’ वे कहते हैं कि ‘हमारे कार्यकर्ता पूरे इलाके में इस फरमान को कड़ाई से लागू कराएंगे.’ इसका असर भी नजर आने लगा है. इसी सप्ताह दार्जिलिंग के मशहूर मॉल चौरास्ता पर इन उत्साही कार्यकर्ताओं ने एक जोड़े को सार्वजनिक स्थल पर प्यार के इजहार के लिए सजा दी और माफी मांगने के बाद ही उसे छोड़ा. उस जोड़े का कसूर यह था कि पति-पत्नी एक-दूसरे का हाथ पकड़े वादियों का हसीन नजारा देख रहे थे.मोर्चा के नेता भले अपने ताजा फरमान को सही ठहराएं, आम लोग और होटल मालिक इसकी आलोचना में जुटे हैं. लेकिन मोर्चा के दबदबे को देखते हुए अब तक किसी ने खुल कर इसका विरोध नहीं किया है. मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने इस फऱमान को कड़ाई से लागू करने के फेर में कई जोड़ों के साथ बदतमीजियां की हैं. उनके खिलाफ थाने में शिकायतें भी दर्ज कराई गई हैं. लेकिन अब तक दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है. बंगाल में दुर्गापूजा की छुट्टियां शुरू होते ही इन पहाड़ियों में पर्यटकों की आवाजाही बढ़ जाती है. अक्तूबर के तीसरे सप्ताह से शुरू होने वाला यह पर्यटन सीजन नववर्ष तक जारी रहता है. इस दौरान तमाम होटल पहले से बुक हो जाते हैं. इलाके की अर्थव्यवस्था भी पर्यटन पर ही आधारित है.लेकिन अबकी होटल मालिक इस फरमान से डरे हुए हैं. एक होटल मालिक नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि इससे लोग यहां आने से डरेंगे. वे सवाल करते हैं कि ‘अब अगर पति-पत्नी का एक-दूसरे का हाथ पकड़ना अपराध है तो यहां लोग भला घूमने क्यों आएंगे?’ होटल मालिकों का कहना है कि इस फरमान से इलाके की बदनामी तो होगी ही, पर्यटकों की आवक पर भी इसका असर पड़ेगा. महाराष्ट्र से हनीमुन के लिए दार्जिलिंग आए एक इंजीनियर अजय भारद्वाज इससे परेशान हैं. वे कहते हैं कि ‘यहां आने के बाद इसका पता चला. इतनी पाबंदी में कौन होटल से बाहर निकलेगा.’ दस दिनों के लिए दार्जिलिंग आए अजय दो दिनों बाद ही सिक्किम चले गए.बीते तीन दिनों में इस मामले में मोर्चा कार्यकर्ताओं के खिलाफ दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और कर्सियांग थानों में छह शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं. दार्जिलिंग के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अखिलेश चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘हम इन शिकायतों की जांच कर रहे हैं. जांच के बाद दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी.’ लेकिन पर्यटन उद्योग से जुड़े लोगों को पुलिस और प्रशासन की कार्यवाही पर भरोसा कम ही है.लोग कहते हैं कि बीते साल मोर्चा की ओर से लागू ड्रेस कोड का सबको मजबूरन पालन करना पड़ा था. इस बार भी उसके समर्थक ताजा फरमान को जबरन लागू कर रहे हैं. ऐसे में इस सीजन में यहां आने वाले जोड़ों को एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है.

बुद्धदेव के एक सपने पर पानी फिरा


जमीन अधिग्रहण पर लगातार उभरने वाले विवादों के चलते पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की ड्रीम परियोजनाओं पर धीरे-धीरे पानी फिरने लगा है। सरकार ने सोमवार को कोलकाता से सटे राजरहाट में सूचना तकनीक (आईटी) हब बनाने की महात्वाकांक्षी परियोजना रद्द कर दी है। सौलह सौ एकड़ में बनने वाली इस परियोजना का शुमार बुद्धदेव की सबसे पसंदीदा परियोजनाओं में होता था। लेकिन अब उसी पर पानी फिर गया है।
सरकार ने साथ ही सूचना तकनीक क्षेत्र की दो बड़ी कंपनियों- इंफोसिस और विप्रो को भी सूचित कर दिया है कि उनको इस परियोजना के लिए कोई जमीन नहीं दी जाएगी। बीते साल बंगाल सरकार ने इंफोसिस और विप्रो के साथ अलग-अलग सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उसके तहत दोनों कंपनियों को इस हब में 90-90 एकड़ जमीन दी जानी थी।
प्रस्तावित सूचना तकनीक उपनगरी एक लग्जरी रिसोर्ट वैदिक विलेज के पास बनने वाली थी। लेकिन 23 अगस्त को हुए विरोधा प्रदर्शन और आगजनी के बाद भू माफिया और रिसोर्ट प्रबंधन में सांठगांठ के आरोप उठने लगे थे। उसके बाद से ही आवासन, भू-राजस्व, सार्वजनिक निर्माण वित्राग और शहरी विकास मंत्रालय उक्त परियोजना को रद्द करने की बात कर रहे थे।
सिंगुर और नंदीग्राम में हुए विरोध के बाद अब इस हब में वैदिक विलेज के भूमिका को लेकर काफी सवाल उठ रहे थें। भू-राजस्व मंत्री अब्दुर रज्जाक मोल्ला ने तो सीधे इस परियोजना को रद्द करने की मांग की थी।
यह हालत तब है जब कोई महीने भर पहले ही राज्य के सूचना तकनीक मंत्री देवेश दास ने कहा था कि सरकार ने विप्रो और इंफोसिस के लिए प्रस्तावित टाउनशिप में जमीन का अधिग्रहण किया है। यहां जानकारों का कहना है कि परियोजना रद्द होने के बाद संभावित निवेश और इससे पैदा होने वाली तीन लाख नौकरियों की वजह से राज्य को लगभग दस हजार करोड़ रुपए के निवेश का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी इसकी पुष्टि करते हुए बताते हैं कि इस परियोजना के रद्द होने से बंगाल दस हजार करोड़ के निवेश और तीन लाख नौकरियों से वंचित रह सकता है। अधिकारी ने कहा कि अगर इंफोसिस और विप्रो टाउनशिप में अपनी परियोजनाएं लगाने में कामयाब रहतीं तो उसके बाद आईसीआईसीआई बैंक और आईटीसी इंफोटेक के भी यहां पहुंचने की संभावना थी।
सोलह हजार एकड़ के टाउनशिप में आईटी और आईटी सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनियों को छह सौ एकड़ जमीन मुहैया कराई जानी थी। इंफोसिस और विप्रो दोनों ने ऐलान किया था कि वैदिक विलेज टाउनशिप में शुरू में दोनों कंपनियां पांच हजार लोगों को रोजगार मुहैया कराएंगी। हालांकि सूत्रों का कहना है कि दोनों कंपनियों ने सरकार को बताया था कि आगे चल कर उनके जरिये इस टाउनशिप में कम से कम 40 हजार रोजगार पैदा होंगे। लेकिन अब इस सपने पर पानी फिर गया है।

पार्टी में अकेले पड़ गए हैं बुद्धदेव!


प्रभाकर मणि तिवारी
कभी माकपा के शीर्ष नेतृत्व से अपने हर फैसले पर मुहर लगवा लेने वाले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अब अपनी ही पार्टी में अकेले पड़ गए हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भट्टाचार्य की अगुवाई में राज्य में औद्योगिकीकरण की जबरदस्त आंधी चली थी। लेकिन सिंगुर व नंदीग्राम की घटनाओं और उनके चलते पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव और विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी की दुर्गति के बाद मुख्यमंत्री ने खुद को काफी समेट लिया है। बीते महीने तबियत खराब होने के बहान वे कोई पंद्रह दिनों तक राइटर्स बिल्डिंग स्थित अपने दफ्तर नहीं गए। अब वे दफ्तर तो जाने लगे हैं। लेकिन पहले के मुकाबले उनके काम के समय में दो से तीन घंटों तक की कटौती हो गई है। बीमारी की आड़ में ही वे दो-दो बार माकपा की पोलितब्यूरो बैठक में शिरकत करने दिल्ली नहीं गए।
मुख्यमंत्री की लगातार लंबी खिंचती इस बीमारी से साफ हो गया है कि पार्टी में अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं है। लोकसभा चुनावों के बाद भी माकपा के नेता एक के बाद एक विवादों में फंसते जा रहे हैं। ताजा मामला वैदिक विलेज का है। इसमें माकपा के दो दिग्गज मंत्रियों ने ही जिस तरह एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा किया, उससे बुद्धदेव परेशान हैं। बीते कुछ महीनों से पार्टी बुद्धदेव पर लगातार हावी हो रही है। सरकार के रोजमर्रा के कामकाज में पार्टी के लगातार बढ़ते हस्तक्षेप से खिन्न बुद्धदेव ने बीच में अपने इस्तीफे की भी पेशकश की थी। उनका कहना था कि पार्टी को अब मुख्यमंत्री के तौर पर किसी नए चेहरे की जरूरत है जो पार्टी और सरकार में बेहतर तालमेल बिठाते हुए 2011 में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पूरी तैयारी कर सके।
यहां माकपा के सूत्रों का कहना है कि बुद्धदेव की नाराजगी की कई वजहें हैं। वे लंबे अरसे से सरकार के कुछ दागी मंत्रियों को हटा कर उनकी जगह नए चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल करने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन पार्टी के दबाव में वे ऐसा नहीं कर सके। माकपा ने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के खिलाफ जिस तरह मोर्चा खोला था वह भी बुद्धदेव के गले नहीं उतरा। यह इसी से साफ है कि जब माकपा और वाममोर्चा के तमाम नेता राज्यपाल के खिलाफ जहर उगल रहे थे, मुख्यमंत्री ने इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की।
जानकार सूत्रों का कहना है कि 2001 के चुनाव राज्य में वाममोर्चा के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। इसकी तैयारी के लिए सरकार के नेतृत्व परिवर्तन की सलाह के साथ बुद्धदेव ने हाल ही में माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु के साथ पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के साल्टलेक स्थित आवास पर उनसे मुलाकात कर इस मामले पर विचार-विमर्श किया था। लेकिन बसु ने यह कहते हुए उनको इस्तीफा नहीं देने की सलाह दी थी कि इससे राज्य के लोगों में एक गलत संदेश जाएगा। पहले एक दिन में उद्योगपतियों और व्यापारिक संगठनों के साथ तीन-तीन बैठकों में शिरकत करने वाले मुख्यमंत्री अब ऐसे सम्मेलनों में नहीं नजर आते। बीते दिनों वे अमेरिकन चैंबर औफ कामर्स की एक बैठक में भी शिरकत करने नहीं गए। यही नहीं, हाल में जब टाटा समूह के मुखिया रतन टाटा कोलकाता आए तो मुख्यमंत्री ने उसे भी मुलाकात नहीं की। टाटा ने मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री से मुलाकात के लिए समय मांगा था। लेकिन समय दिया सिर्फ उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने।
मुख्यमंत्री के करीबी सूत्रों का कहना है कि राज्य में लोकसभा चुनावों में दुर्गति के लिए जिस तरह अकेले उनको और उनके औद्योगिकीकरण अभियान को जिम्मेवार ठहराया गया, उससे बुद्धदेव काफी आहत हैं। लेकिन अब वे सरकार से उस तरह एक झटके में नाता नहीं तोड़ सकते, जिस तरह उन्होंने ज्योति बसु के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान तोड़ा था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पार्टी और बुद्धदेव के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन उसके सामने भी फिलहाल मुख्यमंत्री पद लायक ऐसा कोई नेता नहीं है जो बुद्धदेव के आसपास भी हो। ऐसे में बुद्धदेव को बनाए रखना उसकी मजबूरी है। माकपा के सूत्र बताते हैं कि पार्टी में बुद्धदेव के साथ एक उपमुख्यमंत्री बनाने पर गहन विचार-विमर्श चल रहा है। इस पद के लिए उद्योग मंत्री निरुपम सेन का नाम भी चर्चा में है। सूत्रों की मानें तो उपमुख्यमंत्री का पद महज दिखावे के लिए नहीं होगा, उसके पास काफी अधिकार होंगे। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़, मंगलकोट और जमीन अधिग्रहण से जुड़े तमाम मुद्दों व चुनावों में हुई दुर्गति के बाद फिलहाल पुनर्गठन के दौर से गुजर रही है। यह अलग बात है कि इस वजह से पार्टी में महीनों से भीतर ही भीतर कायम असहमतियां सतह पर आने लगी हैं। जनसत्ता

Friday, September 4, 2009

बादलों का घर है मेघालय


देश के पूर्वोत्तर में गारो, खासी और जयंतिया पहाड़ियों पर बसा मेघालय प्राकृतिक सौंदर्य का एक बेहद खूबसूरत नमूना है। इस राज्य में गारो, खासी और जयंतिया जनजाति के लोग ही रहते हैं। स्थानीय भाषा में मेघालय का मतलब है बादलों का घर। यह छोटा-सा पर्वतीय राज्य अपने नाम को पूरी तरह साकार करता है। यहां घूमते हुए कब बादलों का एक टुकड़ा आपको छूकर निकल जाता है, इसका पता तक नहीं चलता। उसके गुजर जाने के बाद भीगेपन से ही इस बात का अहसास होता है। मेघालय की राजधानी शिलांग समुद्रतल से 1496 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसको पूरब का स्काटलैंड कहा जाता है। इस राज्य का गठन 2 अप्रैल, 1970 को एक स्‍वायत्तशासी राज्‍य के रूप में किया गया। एक पूर्ण राज्‍य के रूप में मेघालय 21 जनवरी, 1972 को अस्तित्‍व में आया। मेघालय उत्तरी और पूर्वी दिशाओं में असम से घिरा है तथा इसके दक्षिण और पश्चिम में बांग्लादेश है।
राजधानी शिलांग में एलीफेंटा फॉल, शिलांग व्‍यू पॉइंट, लेडी हैदरी पार्क, वार्ड्स लेक, गोल्‍फ कोर्स, संग्रहालय व कैथोलिक चर्च जैसे कई दर्शनीय स्थल हैं। शिलांग से कोई 56 किमी दूर चेरापूंजी अपनी बारिश के लिए मशहूर है। इसका नाम अब बदल कर सोहरा कर दिया गया है। यह खासी पहाड़ी के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक छोटा-सा कस्‍बा है। वायु सेना की पूर्वी कमान का मुख्यालय भी शिलांग में ही है।
एलीफैंटा फाल्स शहर से 12 किमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर एक झरना दो पहाड़ियों के बीच से बहता है। हाथी के पांव की शक्ल का होने की वजह से ही इसे एलीफैंटा फाल्स कहा जाता है। डाकी कस्बे में हर साल नौका दौड़ की प्रतियोगिता होती है। यह उमगोट नदी पर आयोजित किया जाता है। पश्चिमी गारो पर्वतीय जिले में स्थित नोकरेक नेशनल पार्क रिजर्व तूरा से लगभग 45 किलो मीटर की दूरी पर है। यह दुनिया के सबसे दुर्लभ लाल पांडा का घर माना जाता है।
इस राज्य में जनजातियों के त्योहारों की कोई कमी नहीं है। पांच दिनों तक मनाया जाने वाला ‘का पांबलांग-नोंगक्रेम’ खासियों का एक प्रमुख धार्मिक त्‍योहार है। यह नोंगक्रेम नृत्‍य के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह हर साल शिलांग से लगभग 11 कि.मी. दूर स्मित नाम के गांव में मनाया जाता है। शाद सुक मिनसीम भी खासियों का एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण उत्सव है। यह हर साल अप्रैल के दूसरे सप्‍ताह में शिलांग में मनाया जाता है। जयंतिया आदिवासियों के सबसे महत्‍वपूर्ण तथा खुशनुमा त्‍योहार का नाम है बेहदीनखलम। यह आमतौर पर जुलाई के महीने में जयंतिया पहाडियों के जोवई कस्‍बे में मनाया जाता है। गारो आदिवासी अपने देवता सलजोंग (सूर्य देवता) से सम्‍मान में अक्‍तूबर-नवंबर में वांगला त्‍योहार मनाते हैं। यह भी एक हफ्ते तक चलता है।
शिलांग जाने के लिए पर्यटकों को सबसे पहले असम की राजधानी गुवाहाटी जाना होता है। वहां से सड़क मार्ग के जरिए तीन घंटे में शिलांग पहुंचा जा सकता है। गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही शिलांग के लिए बसें व टैक्सियां मिल जाती हैं। शिलांग में रहने के लिए हर तरह के होटल हैं।

Tuesday, September 1, 2009

मैसूर में राजशाही के निशान

कर्नाटक की राजधानी बंगलूर से कोई 140 किमी दूर स्थित इस ऐतिहासिक व पौराणिक शहर में हर कदम पर राजशाही के निशान बिखरे हैं। शहर के हर कोने में या तो वाडियार राजाओं का बनवाया कोई महल है या फिर कोई मंदिर। पौराणिक मान्यता के मुताबिक, शहर से ऊपर चामुंडी पहाड़ी पर रहने वाली चामुंडेश्वरी ने इसी जगह पर महिषासुर को मारा था। पहले इस शहर का नाम महीसूर था जो बाद में धीरे-धीरे मैसूर बन गया। महाभारत के अलावा सम्राट अशोक से भी इस शहर का गहरा रिश्ता रहा है। वाडियार राजाओं के शासनकाल में फले-फूले इस मंथर गति वाले शहर का मिजाज अब भी राजसी है। मंथर इसलिए कि शहर में आम जनजीवन काफी सुस्त है। वाहनों की रफ्तार पर भी अंकुश है। शहर की चौड़ी सड़कों पर 40 किमी प्रति घंटे से ज्यादा गति से कोई वाहन चलाने पर पाबंदी है।
शहर की गति भले सुस्त हो, लेकिन अगर लोगों व प्रशासन का उत्साह देखना हो तो यहां दशहरे में आना चाहिए। यहां का दशहरा दुनिया भर में मशहूर है। उस दौरान देश-विदेश से बारी तादाद में सैलानी यहां जुटते हैं। आम तौर पर इस शांत व सुस्त शहर को उन दिनों लगभग दो महीने पहले से ही पंख लग जाते हैं। इसके दौरान शहर मानों फिर से राजशाही के दौर में लौट जाता है। इसके लिए पूरे शहर में साफ-सफाई का काम महीनों पहले शुरू हो जाता है। मैसूर राजमहल व शहर के दूसरे महलों को भी दुल्हन की तरह सजाया जाता है। बंगलूर से शहर में घुसते ही एक विशाल स्टेडियम नजर आता है। स्थानीय निवासी मुदप्पा बताते हैं कि इस स्टेडियम में दशहरा उत्सव के दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। साल के बाकी दिनों में इस स्टोडियम का इस्तेमाल सामूहिक विवाह जैसे सामुदायिक कार्यों के लिए होता है। वे कहते हैं कि मैसूर का सौंदर्य देखना हो तो दशहरे के दौरान यहां आना चाहिए।
शहर की अर्थव्यवस्था के दो मजबूत स्तंभ हैं। पहला सिल्क उद्योग व दूसरा पर्यटन । साथ ही चंदन की लकड़ियों से बनी वस्तुएं भी बहुतायत में मिलती हैं। दशहरा उत्सव के दौरान शहर के तमाम होटल महीनों पहले से ही बुक हो जाते हैं। दशहरा उत्सव के लिए नागरहोल नेशनल पार्क से हाथियों दस्ता भी शहर में आता है। इस उत्सव की शुरूआत चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा के साथ होती है। इस दौरान मैसूर राजमहल पूरे दस दिन बिजली की रोशनी में चमकता रहता है।
वर्ष 1799 में टीपू सुल्तान की मौत के बाद यह शहर तत्कालीन मैसूर राज की राजधानी बना था। उसके बाद यह लगातार फलता-फूलता रहा। विशाल इलाके में फैले इस शहर की चौड़ी सड़कें वाडियार राजाओं की यादें ताजा करती हैं। शहर की हर प्रमुख सड़क इन राजाओं के नाम पर ही है। राजाओं के बनवाए महलों में से कुछ अब होटल में बदल गए हैं तो एक में आर्ट गैलरी बन गई है। मैसूर राजमहल से सटे एक भवन में राजा के वंशज एक संग्रहालय भी चलाते हैं।
शहर के आसपास भी देखने लायक जगहों की कोई कमी नहीं है। कावेरी बांध के किनारे बसा विश्वप्रसिद्ध वृंदावन गार्डेन, चामुंडी हिल्स, ललित महल, चिड़ियाखाना, जगमोहन महल, टीपू सुल्तान का महल व मकबरा--यह सूची काफी लंबी है। मशहूर पर्वतीय पर्यटन स्थल ऊटी भी यहां से महज 150 किमी ही है। यही वजह है कि यहां पूरे साल देशी-विदेशी पर्यटकों की भरमार रहती है।
बंगलूर से निकल कर मैसूर जाने के दौरान हाइवे के किनारे बने एक दक्षिण भारतीय होटल में दोपहर के खाने के दौरान ही दक्षिण भारत की पाक कला की झलक मिलती है। तमाम वेटर पारंपरिक दक्षिण भारतीय ड्रेस में। दक्षिण भारत में लंबा अरसा गुजारने के बाद इडली की विविध आकार-प्रकार इसी होटल में देखने को मिले। मैसूर पहुंच कर होटल में कुछ देर आराम करने के बाद हमारा भी पहला ठिकाना वही था जो यहां आने वाले तमाम सैलानियों का होता है। यानी वृंदावन गार्डेन। होटल के मैनेजर ने सलाह दी कि जल्दी निकल जाइए वरना गेट बंद हो जाएगा। वहां पहुंच कर कार की पार्किंग के लिए माथापच्ची और भीतर घुसने के लिए लंबी कतार। खैर, भीतर जाकर तरह-तरह के रंगीन झरनों के संगीत की धुन पर नाचते देखा। लेकिन सबसे दिलचस्प है झील के पास गार्डेन के दूसरी ओर का नजारा। न जाने कितनी ही हिंदी फिल्मों में हीरो-हीरोइन को ठीक उसी जगह गाते देख चुका था। पुरानी यादें अतीत की धूल झाड़ कर एक पल में सजीव हो उठी।
अगले दिन पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर में जाकर दर्शन और पूजा से दिन की शुरूआत होती है। मंदिर के सामने ही महीषासुर की विशालकाय मूर्ति है। मन में किसी राक्षस के बारे में जैसी कल्पना हो सकती है, उससे भी विशाल और भयावह। मंदिर के करीब से पूरे मैसूर शहर का खूबसूरत नजारा नजर आता है। नीचे उतरते हुए मैसूर रेस कोर्स का फैलाव नजर आता है। हमारा अगला पड़ाव है मैसूर का राजमहल। कैमरा और बैग वगैरह मुख्यद्वार के पास ही टोकन के एवज में जमा करना पड़ता है। अब यह पुरात्तव विभाग के अधीन है। वहां सुरक्षा के लिहाज से पुलिस के जवान तैनात हैं। महल की खूबसूरती और वास्तुकला एपने आप में बेजोड़ है। यह तय करना मुश्किल है कि राजदरबार ज्यादा भव्य है या रनिवास। महल परिसर में ही चंदन की लकड़ी और अगरबत्तियां बिकती हैं। वापसी में बंगलूर से कोलकाता की उड़ान शाम को थी। इसलिए तय हुआ कि रास्ते में श्रीरंगपट्टनम होते हुए निकलेंगे। श्रीरंगपट्टनम यानी टीपू सुल्तान की बसाई नगरी और राजधानी। वहां अब टीपू सुल्तान का मकबरा है। काफी भीड़ जुटती है वहां भी। देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। वहां जगह-जगह पुरानी पेंटिग्स हैं जिनमें टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से लोहा लेते हुए दिखाया गया है। यहां आकर स्कूली किताबों में पढ़े वे तमाम अध्याय बरबस ही याद आने लगते हैं जो जीवन की आपाधापी में मन के किसी कोने में गहरे दब गए थे।
यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। कोलकाता से पहुंचने के बाद बंगलूर एअरपोर्ट से निकलने के बाद पूरे शहर में जहां भारी ट्रैफिक जाम से पाला पड़ा था। तब बंगलूर भी कहीं से कोलकाता जैसा ही लगा था। लेकिन शहर की सीमा से निकल कर मैसूर की ओर बढ़ते ही राज्य सरकार की ओर से बनवाया गया बंगलूर-मैसूर हाइवे देख कर यह धारणा कपूर की तरह उड़ जाती है। चिकनी सड़क पर न कहीं कोई गड्ढा, न कोई गंदगी और न ही ट्रैफिक जाम। एक जगह का जिक्र किए बिना यह कहानी अधूरी ही रह जाएगी। बंगलूर-मैसूर हाइवे पर ही स्थित है रामनगर। ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा रामनगर वही जगह है जहां जी.पी.सिप्पी ने अपनी मशहूर फिल्म शोले का सेट लगा कर उसे रामगढ़ में तब्दील कर दिया था। उन पहाड़ियों को देखते ही शोले का दृश्य आंखों के सामने सजीव हो उठता है। लगता है मानो अभी किसी कोने से आवाज आएगी-तेरा क्या होगा कालिया?

कैमरे की नजर से मैसूर