‘बोदी खूब असुविधे होच्छे। दादा के बोलो आमाके एकटा मोबाइल किने देबे (भाभी,बहुत दिक्कत हो रही है। भैया को बोलिए कि मुझे एक मोबाइल खऱीद दें)।’ सुबह-सुबह मासी के इस वाक्य को सुन कर नींद टूटी। मासी यानी मौसी नहीं। बंगाल में घर में काम करने वाली महरी को मासी कहते हैं। किचन में बर्तनों की खनखनाहट के बीच सुजाता यानी हमारी मासी ने श्रीमती जी से जो कहा उसका लब्बोलुआब यह था कि उसके साथ दूसरे घरों में काम करने वाली मासियों ने मोबाइल खरीद लिए हैं। इसलिए अब वह भी मोबाइल खरीदना चाहती है। लेकिन एक साथ इतने पैसे जुटाना संभव नहीं है। सुजाता चाहती थी कि हम उसे एकमुश्त अगरिम पैसे दे दें जो उसके वेतन से हर महीने कटते रहेंगे।
पत्नी सुबह की चाय के साथ मुझे विस्तार से मासी की इस मांग और इस सिलसिले में उसकी दलीलों के बारे में बता रही थी। उसी समय कपड़े धोकर गुसलखाने से बाहर निकली सुजाता ने कहा कि ‘दादा, मैं हर महीने वेतन से पैसे कटवा दूंगी’। बीते तीन वर्षों से काम कर रही सुजाता की ईमानदारी से हम लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। वह मेहनती तो थी ही, समय की भी एकदम पाबंद। इतनी कि उसके आने के समय से घड़ी मिलाई जा सके। दक्षिण कोलकाता में टालीगंज के जिस अपार्टमेंट में मैं रहता हूं, वहां वह दो और घरों में भी काम करती है। अपार्टमेंट के दूसरे फ्लैटों की मासियां जहां बिना बताए कई-कई दिन गायब हो जाती थी, वहीं सुजाता दुर्गापूजा, दीवाली, तीज, त्यौहार-यहां तक कि हड़ताल के दिन भी बिना कमाई किए समय पर पहुंच जाती थी। यह जानना दिलचस्प है कि बंगाल और बांग्ला में बिना बताए छुट्टी लेने को कमाई करना कहते हैं। सुजाता छुट्टी करती भी थी तो पहले से बता कर। अवगुण एक ही था कि जुबान की बहुत कड़ी थी। सप्ताह में कम से कम तीन दिन उसकी चखचख से ही नींद खुलती थी। लेकिन पाबंदी और सफाई से काम करने की आदत के चलते ही बीते तीन साल से वह हमारे घर काम कर रही थी। बीच में एकाध बार पैसे भी बढ़ाए। उसने पत्नी को दलील दी थी कि अगर कभी नहीं आ सकी तो मोबाइल होने पर आपको सूचित कर सकती हूं। इससे आपको मेरी राह नहीं तकनी पड़ेगी।
सुजाता से मेरी बातचीत नहीं के बराबर ही होती थी। इसकी एक वजह तो शायद यह रही हो कि वह सूरज की पहली किरण के साथ ही दरवाजे पर हाजिर हो जाती थी। देर रात सोने और सुबह देर से जगने की बरसों पुरानी आदत की वजह से मेरी सुबह की चाय की पहली चुस्की से पहले ही वह अपना कामकाज निपटा कर दूसरे फ्लैट में जा चुकी होती थी। यह पहला मौका था जब उसने मोबाइल के लिए मेरे सामने मुंह खोला था। वह भी शायद इस वजह से कि मैं सुबह उसकी बातें सुन कर और दिनों की अपेक्षा जल्दी उठ गया था। उस दिन भी पत्नी ने दादा से बात करुंगी, कह कर उसे टाल ही दिया था। लेकिन मुझे चाय पीते देख वह मुझसे भी यह अनुरोध कर बैठी। शायद जल्दी से जल्दी अपना मोबाइल हासिल करने के उतावलेपन ने उसका मुंह खुलवा दिया था। खैर, उस दिन तो मैंने सोचेंगे, कह कर उसे चलता किया।
पूरे सप्ताह जब उसने दोबारा पत्नी से मोबाइल के बारे में कोई चर्चा नहीं की तो पत्नी ने कहा कि लगता है कि उसके सिर से मोबाइल का भूत उतर गया है। लेकिन हमारी सोच कितनी गलत थी, यह तो अगले सोमवार को पता चला। सोमवार को सुबह वह अपने साथ विभिन्न मोबाइल कंपनियों की अलग-अलग स्कीमों के बारे में पर्चे लेकर आई थी। साथ में मोबाइल की कीमतों की एक सूची भी थी। यानी पूरे हफ्ते वह मोबाइल के बारे में ही पता लगा रही थी। काम निपटाने के बाद उसने उन तमाम पर्चों को पत्नी के सामने रख दिया। बात यहीं तक नहीं थी। उसने एक कंपनी का बारह सौ निन्यानबे रुपए कीमत वाला मोबाइल पसंद भी कर लिया था। उसकी बात सुन कर पत्नी चकराई। उसके जाने के बाद उसने मुझे जगाया और पूरी बात बताई। अगले दिन आने पर मासी कहने लगी कि सौ रुपए मेरे पास हैं, आप बारह सौ दे दें तो आज ही मोबाइल मिल जाएगा। अरे! लेकिन तुम्हारे पास तो राशन कार्ड या पहचान के दूसरे कागजात हैं ही नहीं। मोबाइल मिलेगा कैसे ? उसका जवाब था कि दुकानदार और इलाके के पार्षद से बात हो गई है। कागज बन जाएगा। मैंने फिर समझाने की कोशिश की-श्वेत-श्याम मोबाइल ले लो। नौ सौ में ही मिल जाएगा। ‘नहीं, जब लेना ही है तो दो-चार सौ का मोह क्या करना! रंगीन ही लूंगी। दूसरी मासियों ने भी रंगीन मोबाइल ही लिए हैं-उसकी दलील थी।’
बाद में पत्नी ने कहा कि इसके रंग-ढंग आज कर कुछ ठीक नहीं लगते। हमेशा काम ज्यादा होने और पैसे कम होने की बात कहती है। ज्यादा पैसे ले कर कहीं काम छोड़ दिया तो क्या करेंगे। अंत में तय हुआ कि इसे एक महीने की तनख्वाह के बराबर यानी चार सौ रुपए अग्रिम दे दिए जाएं। सुजाता इस पर तैयार हो गई। बाद में पता चला कि बाकी के दो घरों में भी उसने मोबाइल के लिए पैसे मांगे थे और वहां से भी उसे चार-चार सौ मिल रहे थे। बहरहाल, मोबाइल खरीदने के बाद सुजाता की पाबंदी गड़बड़ाने लगी। अचानक कमाई करने पर पत्नी जब फोन करती तो कभी वह कहती कि खुद बीमार हूं तो कभी कहती बेटी बीमार है। जितने घर उतने बहाने। इसी तरह चलता रहा और धीरे-धीरे मोबाइल के पैसे वेतन में एडजस्ट हो गए। लेकिन अगले महीने फिर एक सुबह उसने एक नई मांग खड़ी कर दी। उसने पत्नी से कहा कि झाड़ू-पोंछा करते और बर्तन धोते समय फोन आने पर मोबाइल खऱाब होने का खतरा रहता है। इसलिए अब वह बिना तार वाला ईयर फोन खरीदना चाहती है। तब तक मेरी नींद भी खुल चुकी थी। वह पत्नी को समझा रही थी कि बिना तार वाला ईयर फोन,जिसे ब्लूटूथ कहते हैं। हम पति-पत्नी भौंचक हो कर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। कई बार मन में आया लोकिन कीमत सुन कर मुझे आज तक अपने लिए भी ब्लूटूथ ईयरफोन खरीदने की हिम्मत नहीं हुई और अब यह महरी। इस बार हमने साफ मना कर दिया। नतीजा-अगले महीने उसने काम छोड़ने की धमकी दी और अपना हिसाब ले लिया। बाद में पता चला कि उसने जिस नए घर में काम शुरू किया है उनलोगों ने ब्लूटूथ ईयर फोन के पैसे देने की हामी भरी थी।
Monday, May 18, 2009
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