Saturday, May 16, 2009
बंगाल में औंधे मुंह गिरा वाममोर्चा
प्रभाकर मणि तिवारी
अबकी लोकसभा चुनावों में वाममोर्चा अपने सबसे मजबूत गढ़ बंगाल में औंधे मुंह गिरा है. सीटों के मामले में उसने 25 साल पुराना अपना रिकार्ड भी नहीं बचा सका है. तब देश भर में चलने वाली कांग्रेस की लहर में भी उसे 42 में से 26 सीटें मिली थी। अबकी मोर्चा उस आंकड़े से काफी दूर रह गया है. कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस गठांधन ने वाममोर्चा को इस कदर झटका दिया है जिसका अनुमान खुद मोर्चा के नेताओं को भी नहीं था. इन चुनावों में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस गठबंधन ने वाममोर्चा को इस कदर झटका दिया है जिसका अनुमान खुद मोर्चा के नेताओं को भी नहीं था. उसके कई दिग्गज धराशाई हो गए हैं. इसके साथ ही केंद्र की अगली सरकार में अहम भूमिका निभाने के उसके सपने पर भी पानी फिर गया है. यह नतीजे दोनों पक्षों के लिए अप्रत्याशित रहे हैं. न तो वाममोर्चा को इस कदर पटखनी का अंदेशा था और न ही तृणमूल को इतनी भारी जीत की उम्मीद.
इन नतीजों के बाद अब पार्टी नेतृत्व जबरदस्त आत्ममंथन में जुट गया है.अब नतीजों के बाद वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु ने माना है कि वह राज्य में सत्ताविरोधी लहर का पूर्वानुमान लगाने में नाकाम रही. उन्होंने कहा है कि पार्टी अपनी गलती से सबक लेगी. लोकसभा चुनाव के नतीजे वाममोर्चा सरकार व माकपा की नीतियों के फेल होने का सबूत हैं. यह सही है कि यह चुनाव लोकसभा का था विधानसभा का नहीं. लेकिन मुद्दे तो लगभग वही थे जो विधानसभा चुनाव में होते हैं. पूरे चुनाव अभियान के दौरान वाममोर्चा के नेता केंद्र की यूपीए सरकार की नाकामियों और अपनी उपलधियों को गिनाते रहे. इन नतीजों ने उस कहावत को एक बार फिर साबित किया है कि इतिहास खुद को दोहराता है. 1984 की कांग्रेस लहर के समय भी वाममोर्चा को 26 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 16। नतीजा अबकी भी लगभग वही है, बस दोनों दलों के छोर बदल गए हैं.
नतीजों से साफ है कि नंदीग्राम, सिंगुर और सच्चर कमिटी ने इन चुनावों में अल्पसंख्यकों को वाममोर्चा से दूर कर दिया. दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस के भाजपा का दामन छोड़ने से यह वोट बैंक उसके पाले में गया है. राज्य के अल्पसंख्यकबहुल जिलों में वाममोर्चा उम्मीदवारों की पराजय से यह बात बिल्कुल साफ है. इसके अलावा बीते साल जुलाई में केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार गिराने की कोशिशें भी वाममोर्चा पर भारी पड़ी है.
इन चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को जबरदस्त फायदा हुआ है. कांग्रेस ने तो अपनी पुरानी स्थिति को ही बरकरार रखा है.उसने पिछली बार छह सीटें जीती थीं. अबकी दार्जिलिंग सीट भले उसके हाथों से निकल गई. लेकिन परिसीमन के बाद मालदा में बढ़ी एक सीट उसके हाथ में आ गई है. यानी नतीजा बराबर. लेकिन 1999 में नौ सीटों से वर्ष 2004 में महज एक सीट पर सिमटने वाली तृणमूल ने अबकी तमाम रिकार्ड तोड़ दिए हैं.
अबकी न तो वाममोर्चा का औद्योगिकीकरण का पासा चला और न ही केंद्र की यूपीए सरकार की नाकामी का. राज्य में तीनों दौर में भारी मतदान के बाद माकपा के शीर्ष नेताओं को सरकारविरोधी रुझान की जो आशंका सता रही थी वह पूरी तरह सच साबित हुई है. वैसे, बीते विधानसभा चुनावों में भी भारी मतदान हुआ था. लेकिन तब वाममोर्चा को रिकार्ड कामयाबी मिली थी. लेकिन अबकी यह भारी मतदान वाममोर्चा के खिलाफ गया है।
इस बार राज्य में किसी के पक्ष में न तो कोई लहर थी और न ही कोई नया मुद्दा. टाटा की लखटकिया को माकपा ने भी मुद्दा बनाया था और तृणमूल ने भी. लेकिन माकपा की लखटकिया नहीं चली. सिंगुर और नंदीग्राम जैसे पुराने मुद्दे इस लोकसभा चुनाव में हिट साबित हुए. उन इलाकों में माकपा के तमाम उम्मीदवार पिट गए हैं. दरअसल, वाममोर्चा को इन मुद्दों की वजह से तो झटका लगा ही है, उसकी इस दुर्गति के लिए खुद पार्टी व उसकी नीतियां भी जिम्मेवार हैं. औद्योगिकीकरण के लिए जबरन जमीन अधिग्रहण का मुद्दा काफी असरदार रहा. कम से कम तमलुक और हुगली के नतीजे तो यही बताते हैं. माकपा के एक बड़े गुट के विरोध के बावजूद पार्टी ने तमलुक में उसी लक्ष्मण सेठ को टिकट दिया था जिन्होंने नंदीग्राम में आंदोलन की चिंगारी को पलीता दिखाया था. नतीजा सेठ की हार के तौर पर सामने आया है.
इस चुनाव में वाममोर्चा ने अपना पिछला रिकार्ड भी तोड़ दिया है. बंगाल में अपनी सत्ता के इन 32 वर्षों में इससे पहले वर्ष 1984 के कांग्रेस लहर के दौरान भी उसने 42 में से 26 सीटें जीती थी. वाममोर्चा नेताओं को इस बार नुकसान का अंदेशा तो था. कट्टर से कट्टर वामपंथी भी मोर्चे को 25 से ज्यादा सीटें देने के लिए तैयार नहीं था. माकपा के विवादास्पद नेता व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने तो पहले ही वाममोर्चा को 28 सीटें मिलने का एलान कर दिया था. लेकिन परिसीमन और सरकार की नीतियों ने अपने ही गढ़ में वामपंथियों की लुटिया डुबो दी.
राज्य में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में कोई खास लहर नहीं थी. इसलिए यह नतीजे राज्य सरकार और वाममोर्चा की नीतियों के प्रति लोगों की नाराजगी का इजहार हैं. शहरी सीटें तो माकपा के हाथ से निकली ही हैं, अपने सबसे मजबूत गढ़ रहे ग्रामीण इलाकों में भी उसे जबरदस्त मुंहकी खानी पड़ी है. नतीजों से साफ है कि या तो अपने अतिरिक्त आत्मविश्वास के चलते वामपंथियों ने आकी जनता का मूड भांपने में जबरदस्त गलती की है या फिर वे जानबूझ कर अपनी कमियों और कमजोरियों पर पर्दा डालते रहे और 28 से 32 सीटें जीतने का दावा करते रहे. ऐसा नहीं होता तो मतगणना से एक दिन पहले तक माकपा नेता 30-32 सीटें जीतने का दावा नहीं कर रहे होते.
दरअसल, सिंगुर व नंदीग्राम की घटनाओं के बाद राज्य में हुए हर उपचुनाव, नगरपालिका चुनाव और पंचायत चुनाव में विपक्ष को लगातार बढ़त मिलती रही है. अब वामपंथियों की असली चिंता और प्राथमिकता इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना है. दो साल बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं.
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस बार माकपा का खेल परिसीमन ने नहीं, उसकी नीतियों व अल्पसंख्यकों वोटरों की दूरी ने गड़बड़ाया है. परिसीमन का असर तो कमोबेश सभी सीटों पर था. वैसे, पार्टी के कई समर्थक परिसीमन के चलते चुनाव अभियान के दौरान कोलकाता दक्षिण सीट पर ममता बनर्जी के हार के दावे करते भी नजर आए थे. पार्टी के केंद्रीय और प्रदेश स्तर के नेताओं के बयानों व टिप्पणियों में तालमेल का अभाव साफ नजर आया. इसके अलावा नंदीग्राम और सिंगुर जैसे मुद्दे शहरी मतदाताओं पर भी असरदार साबित हुए. इन मुद्दों को दोनों गठबंधन अपने-अपने तरीके से भुनाने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन इनमें कामयाबी मिली विपक्ष को. महानगर की तीसरी यानी यादवपुर सीट पर तो मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की साख भी दांव पर थी. कोलकाता उत्तर सीट पर माकपा का अल्पसंख्यक चेहरा कहे जा रहे मोहम्मद सलीम की हार उतनी अप्रत्याशित नहीं रही. कुल मिला कर बंगाल में अपनी सत्ता के 32 वर्षों में अबकी मोर्चा को जितना गहरा सदमा लगा है उसकी भरपाई में उसे काफी वक्त लगेगा.
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