Saturday, October 25, 2014

छोड़ा मद्रास था, लौटा चेन्नई

यूं तो अपने जीवन में बचपन से ही अनेक यात्राएं की हैं. बहता पानी निर्मला की तर्ज पर यात्रा करना मुझे हमेशा अच्छा लगता था. पिता जी के रेलवे की नौकरी में होने ने इस काम को कुछ आसान बना दिया. कुछ इस तरह की रेलवे का पास मिलने की वजह से ट्रेन का किराया बच जाता था. वही पैसे घूमने-फिरने के काम आ जाते थे. कभी पढ़ाई तो कभी कालेज में दाखिले के लिए उत्तर से दक्षिण भारत तक की कई यात्राएं हुईं. अस्सी के दशक में तो तब के मद्रास (अब चेन्नई) में कोई चार साल रहा भी. लेकिन अक्तूबर, 1986 में न जाने किस घड़ी में वह महानगर छोड़ा कि दोबारा जाने का मौका ही नहीं मिल सका था. जून, 2000 में गुवाहाटी से स्थानांतरित होकर कोलकाता पहुंचने के बाद लगा कि अब मद्रास के कुछ करीब आ गया हूं. शायद अब जाने का मौका लगे. लेकिन नौकरी और दुनियादारी के लाख झमेलों ने इन यात्राओं को सिलीगुड़ी, बनारस, सिवान और पुरी तक ही सीमित कर दिया था. उसके बाद बेटी की पढ़ाई, इंजीनियरिंग कालेज में उसके दाखिले और भारी खर्चों की वजह से चाहते हुए भी कहीं निकलना नहीं हो सका था. पिछले साल जरूर आगरा और उत्तराखंड के दो सप्ताह के सफर पर निकला था. लेकिन दक्षिण भारत हमेशा आकर्षित करता रहा. अपने मित्र अंबरीश जी (जनसत्ता के पूर्व उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख) का यात्रा वृत्तांत पढ़ कर दक्षिण की ओर जाने की इच्छा बलवती होती रही. लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था. आखिर संयोग बना इस साल सितंबर में. महीनों की प्लानिंग, ट्रेन के टिकट और बाकी तमाम औपचारिकताओं को पूरा करते हुए दिन महीने बन कर बीतते रहे और आखिर वह दिन आ ही गया जब हावड़ा से चेन्नई की ट्रेन पकड़नी थी. हावड़ा से कोरोमंडल एक्सप्रेस अपने तय समय से ही रवाना हुई. 28 साल पहले इसी ट्रेन से मद्रास से लौटा था. अब फिर उसी ट्रेन से वहीं जा रहा था. नोस्टालजिक होना लाजिमी था. बीच के तीन दशक यादों से न जाने कहां हवा हो गए और उस शहर में बिताए दिनों की याद एकदम ताजी हो गई. लग रहा था जैसे कल की ही बात हो. लंबी यात्रा होने की वजह से सामान काफी था और दक्षिण भारत में खाने-पीने की दिक्कतों को ध्यान में रखते हुए पत्नी ने खाने का काफी सामान भी बना-बांध लिया था. भुवनेश्वर में रात का खाना खा कर सब लोग सोने चले गए। एसी टू के कोच में तीन सीटें तो हमारी ही थीं. चौथी पर एक दक्षिण भारतीय युवक था जो अपने मोबाइल पर लगातार तमिल में किसी से बात किए जा रहा था. सुबह विशाखापत्तनम में आंख खुली. घड़ी देखी तो साढ़े चार बजे थे. चाय पीने की तलब हुई. लेकिन नींद भी आ रही थी. इसलिए चाय की बजाय नींद को तरजीह देते हुए चादर तान कर फिर लंबा हो गया. लेकिन एक बार नींद उचट जाए तो फिर आती कहां हैं. अपनी बर्थ पर लेटे हुए कोई तीन दशक पहले के चेहरे आंखों के आगे नाचने लगे. पता नहीं सब लोग कहां होंगे, मुलाकात होगी भी या नहीं, लोग वैसे ही होंगे या बदल गए होंगे-----इन सवालों से जूझते हुए बाहर झांका तो देखा ट्रेन राजमहेंद्री स्टेशन पहुंच रही है. सिर झटक कर मैं दक्षिण गंगा गोदावरी को देखने के लिए उठ कर बैठ गया. बेटी को भी जगा दिया था ताकि वो गोदावरी के चौड़े पाट को निहार सके. उसे पहले से ही इस नदी के बारे में विस्तार से बता रखा था. सो, वह भी ऊपर की बर्थ से नीच उतर आई. गोदावरी का पानी कुछ घट गया था लेकिन उसके पाट पहले की तरह ही चौड़े थे. आगे दस बजे विजयवाड़ा पहुंचे. वहां नीचे उतर कर चाय पी. पत्नी और बेटी के लिए खाने-पीने का कुछ सामान खरीदा. कोरोमंडल एक्सप्रेस विजयवाड़ा से रवाना होने के बाद कोई सात घंटे बाद सीधे मद्रास ही रुकती है. दिन का यह सफर उबाऊ होता है. लेकिन पत्नी और बेटी की चूंकि यह पहली दक्षिण यात्रा थी, इसलिए उनमें भारी उत्साह था. खैर, शाम पांच बजे चेन्नई सेंट्रल पहुंचे. वहां से टैक्सी पर सामान लाद कर सीधे होटल, जो स्टेशन से ज्यादा दूर नहीं था. लेकिन मेट्रो रेल परियोजना ने स्टेशन के आसपास के इलाके के ट्रैफिक को इतना बेतरतीब कर दिया है कि होटल पहुंचने के लिए लंबा यू-टर्न लेना पड़ा. होटल के कमरे में पहुंचने के बाद थकान हावी होने लगी. नहा-धोकर चाय पीने के बाद कल की योजना बनने लगी. डिनर जल्दी निपटा कर बिस्तर पर गए तो नींद ने तुरंत आगोश में ले लिया.

Friday, May 2, 2014

ब्लागरों को पहचान दिलाता बॉब्स

दुनिया भर से जर्मन रेडियो सेवा डॉयचे वेले के पाठकों ने तीन हजार से ज्यादा ऑनलाइन अभियानों और ब्लॉगों को नामांकित किया है. अंतरराष्ट्रीय जूरी ने इनमें से 14 भाषाओं में वोटिंग के लिए खास ब्लॉग चुने हैं. अब आप इनमें से विजेता तय कर सकते हैं.बॉब्स 2014 के लिए ऑनलाइन वोटिंग 7 मई तक की जा सकती है. इस साल भी आप तय कर सकते हैं कि कौन से ब्लॉग या ऑनलाइन मुहिम को यूजर इनाम मिलना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय जूरी छह मुख्य श्रेणियों में ब्लॉग और ऑनलाइन मुहिम के विजेता चुनेगी. यह प्रक्रिया वोटिंग से अलग होती है और मई में जज तय करेंगे कि किस भाषा के किस ब्लॉग को वह इनाम देना चाहते हैं. आप यहां http://thebobs.com/hindi/वोट दे सकते हैं. जूरी इनाम जीतने वाले ब्लॉगरों को 30 जून से 2 जुलाई तक डॉयचे वेले ग्लोबल मीडिया फोरम के लिए बॉन बुलाया जाएगा. बॉब्स की शुरुआत 2004 में हुई. इसमें ऐसे प्रोजेक्ट शामिल किए गए हैं जिनमें पारदर्शिता लाना मुख्य मुद्दा है और जो अपनी भाषा या अपने इलाके से ऊपर उठकर इंटरनेट की अहमियत का अहसास दिलाते हैं. प्रतियोगिता 14 भाषाओं में होती है, तुर्की, हिन्दी, जर्मन, अंग्रेजी, चीनी, इंडोनेशियाई, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, रूसी, स्पेनी, यूक्रेनी, बंगाली और फ्रेंच. पिछले साल बेहतरीन ब्लॉग के विजेता बने चीन के लेखक ली चेंगपेंग. इससे पहले क्यूबा की कार्यकर्ता योआनी सांचेस, ईरान के अरश सिगर्ची और लीना बेन मेनी ने पुरस्कार जीते हैं. वोटिंग में अपने पसंदीदा ब्लॉगर को जिताने के लिए आप 24 घंटों में एक बार एक श्रेणी में वोट कर सकते हैं. सबसे ज्यादा वोटों वाला ब्लॉग या वेबसाइट को “जनता की पसंद” घोषित किया जाएगा. वोटिंग के लिए बिलकुल नामांकन की ही तरह आप फेसबुक, ट्विटर या डीडब्ल्यू पर अपना अकाउंट बनाकर वोट कर सकते हैं. अगर और जानकारी चाहिए तो इसके बारे में जानकारी नियम वाले पेज पर पढ़ी जा सकती है. 7 मई को पता चलेगा कि कौनसी श्रेणी में कौनसी वेबसाइट जीती. जूरी सदस्य जिन ब्लॉगरों को चुनेंगे, वह आएंगे जून में जर्मनी और डॉयचे वेले बॉन में पुरस्कार समारोह में हिस्सा लेंगे. जनता की पसंद से जीतने वाले ब्लॉगरों को सर्टिफिकेट और बैज भेजे जाएंगे जो आप अपनी वेबसाइट पर लगा सकते हैं. बर्लिन में चार और पांच मई दे दिन जूरी विजेताओं का चयन करेगी. जूरी पुरस्कार कुल छह श्रेणियों के लिए चुने जाएंगे जिसमें प्रतियोगिता बॉब्स में चुने गए सभी भाषाओं के ब्लॉग्स के बीच होगी. दो दिनों तक जूरी बहस करेगी कि कौन सा ब्लॉग सबसे अच्छा और श्रेणी में बेहतरीन है. इसके बाद बहुमत के आधार पर फैसला किया जाता है. बॉब्स के पन्ने पर सभी नामांकित वेबसाइट के साथ उनके बारे में जानकारी आपको मिल जाएगी. ब्लॉग, वेबसाइट, माइक्रोब्लॉग, वीडियो और पॉडकास्ट की मदद से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा मिलता है. यह हाल फिलहाल में होने वाली घटनाओं का विश्लेषण करती हैं या दूर दराज और पिछड़े इलाकों से हमें खबरें देती हैं. बॉब्स की रूसी जज आलेना पोपोवा कहती हैं, "रूस में जनता जैसे कई सालों से सोई हुई थी. हर किसी को लगता था कि उसे अकेले ही हालात से लड़ना होगा. ऑनलाइन अभियानों की वजह से अब पता चला है कि रूसी समाज बदलाव के लिए तैयार है. हम एक साथ होकर कुछ कर सकते हैं. इसे सरकार का प्रोपोगेंडा भी खत्म नहीं कर पाएगा. 2011 में संसदीय चुनावों के बाद से ही ऑनलाइन अभियानों का असर दिख रहा है." अपने शहर में पोपोवा नागरिकों की और हिस्सेदारी, पारदर्शिता और राजनीति पर निगरानी पर काम करती हैं. इंटरनेट में दुनिया भर के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पारदर्शिता के लिए काम कर रहे हैं, यह कहना है डॉयचे वेले की प्रोग्राम डायरेक्टर गेर्डा मॉयर का. "लेकिन इंटरनेट पर जासूसी होती है और नियंत्रण रखा जाता है और इस प्रतियोगिता में कई अभियान इसकी आलोचना करते हैं. वह चाहते हैं कि डिजिटल जासूसी खत्म हो." मॉयर बॉब्स प्रतियोगिता में शामिल कुछ अभियानों की मिसाल देती हैं, जैसे इंटरसेप्ट, जिसे एडवर्ड स्नोडेन के करीबी ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने शुरू किया है या सेंसर के खिलाफ काम करने वाली वेबसाइट लैंटर्न या यूक्रेन की यूरोमैदान. जर्मन भाषी देशों में केऑस कंप्यूटर क्लब और थ्रीमा ऐसे संगठन हैं जो यूजर की जानकारी की निजता सुरक्षित करते हैं. डॉयचे वेले बॉब्स के मुख्य पार्टनरों में भारत से वेबदुनिया के अलावा यूएनआई और अन्य देशों से ग्लोबल वॉसेस, टेरा, माइनेट और चाईना डिजिटल टाइम्स शामिल हैं.

Monday, March 3, 2014


असली या कागजी प्रभाकर मणि तिवारी जनसत्ता 27 फरवरी, 2014 : कुछ समय पहले ‘जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं’ के संदेश के साथ फोन करने वाले मित्र ने आखिर वह सवाल पूछ ही लिया, जिसे हर साल झेलना पड़ता है। उन्होंने पूछा कि आपका यह जन्मदिन असली है या कागजी! अब उसे क्या और कितनी बार समझाता! मैंने कहा कि यही मेरी असली जन्मतिथि है। यों, मित्र का सवाल मुझे बुरा भले लगा, लेकिन यह जायज ही था। अपने समकालीन जितने भी मित्रों, सहकर्मियों को जन्मदिन की बधाई देता हूं, अक्सर सुनने को मिलता है कि यार, मेरी असली जन्मतिथि तो फलां तारीख को है। यह तो मां-बाबूजी ने हाईस्कूल का आवेदन भरते समय लिखवा दिया था। चारों ओर देखने के बाद लगता है कि किसी की उम्र से दो साल गायब हैं तो किसी से चार साल। एक परिचित की तो असली और कागजी जन्मतिथि में पूरे आठ साल का हेरफेर था। अट्ठावन की जगह छियासठ की उम्र में वे इसी साल जनवरी में सेवानिवृत्त हुए। दो साल पहले से इतने बीमार चल रहे थे कि दफ्तर तक नहीं जा पाते थे। बीच में तो दुनिया से ही निकल जाने का अंदेशा हो गया था! एकाध बार दफ्तर गए भी तो पत्नी को साथ लेकर। मेरी भी असली और कागजी जन्मतिथि अलग-अलग हैं। लेकिन दूसरे लोगों की तरह इसमें दो या चार साल नहीं, बल्कि महज एक दिन का अंतर है। और उस अंतर से मेरा फायदा नहीं, नुकसान है। एक दिन पहले ही नौकरी से सेवानिवृत्त हो जाऊंगा। दरअसल, मैं दो दिसंबर की आधी रात के बाद पैदा हुआ था। यानी जन्मतिथि तीन दिसंबर हुई। लेकिन कागज में दर्ज है दो दिसंबर। हालांकि अलग-अलग जन्मतिथि के अपने फायदे भी हैं। मसलन मित्र, सहपाठी और सहकर्मी प्रमाणपत्र वाली तारीख, यानी दो दिसंबर को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं और तमाम परिजन अगले दिन। यानी लगातार दो दिनों तक शुभकामना संदेश मिलते रहते हैं। कुछ वर्षों से सबको बताने भी लगा हूं कि मेरी असली जन्मतिथि दो नहीं, तीन तारीख है। कुछ मित्रों ने इसे सुनते ही सवाल दाग दिया कि अच्छा, और साल कौन-सा है! उन्हें लगता था कि तीन दिसंबर मेरी जन्म की तारीख भले हो, लेकिन साल जरूर कोई और होगा! किस-किस को सफाई देता रहूं! अब तो कुछ वर्षों से पत्नी भी उलाहने की तर्ज पर कह देती हैं कि ‘फलां को देखिए, आपसे चार साल बड़ा है और आपके बाद रिटायर होगा!’ आसपास देखता हूं तो कागजी जन्मतिथि वाले लोग ही ज्यादा नजर आते हैं। कई करीबी रिश्तेदारों ने जब नौकरी शुरू की थी तो मैं स्कूल जाता था। लेकिन अब पता चला है कि वे तमाम लोग मुझसे साल-दो साल बाद तक नौकरी में जमे रहेंगे। लेकिन ‘अब पछताए होत क्या’ की तर्ज पर मन मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। सहकर्मी सोचते हैं कि इसने भी हमारी तरह साल-दो साल तो जरूर चुराए होंगे! लाख सफाई दूं, चेहरे पर उभरने वाले अविश्वास के भाव उनके सोच की चुगली कर देते हैं। बीते जन्मदिन पर पचास पूरे करने के बाद इस साल भी लोगों ने बधाई देने के साथ सवालिया अंदाज में पूछ ही लिया कि कम से कम बावन के तो हो गए होंगे! कई लोग सीधे पूछने के बजाय घुमा कर यही सवाल करते हैं कि अभी कितने दिन नौकरी बची है। पिछले साल तो मुहल्ले के एक सज्जन कहने लगे कि अपनी तरफ गांव में तो लोग चालीस की उम्र पार करते ही बूढ़े लगने लगते हैं। लेकिन आपको देखिए! इस उम्र में भी जवान लग रहे हैं! लोग समझते हैं कि रंग-रोगन के जरिए उम्र छिपा रहा है। एक सहकर्मी तो कहने लगे कि अब यार आपस में क्या छिपाना! मेरी असली उम्र कागजी उम्र से तीन साल ज्यादा है। तुम भी तो मेरी ही उम्र के हो गए होगे। मैं क्या कहता! एक मित्र ने फोन किया और औपचारिकता निभाने के बाद कहने लगे कि फेसबुक पर आपकी फोटो देख कर नहीं लगता कि इतनी उम्र हो गई है। मैंने कहा कि भाई, अभी तो पचास पूरे किए हैं। इस पर कहने लगे कि कागज में तो मैं भी अड़तालीस का ही हूं! मन में कोफ्त होने के बावजूद हंस कर बात बदलने की कोशिश की। लेकिन वे भला कहां मानने वाले थे! सवाल दाग दिया कि यार, अब तो बता दो कि तुम्हारी असली जन्मतिथि क्या है! लगता है कि असली और कागजी के इस चक्कर से इस जन्म में पीछा शायद ही छूटेगा। जनसत्ता से साभार

Thursday, June 20, 2013


रविवार यानी 16 जून को सुबह पांच बजे जब कौसानी स्थित कुमायूं मंडल विकास निगम (केएमवीएन) के टूरिस्ट रेस्ट हाउस में आंखें खुली तो बाहर से तेज बारिश की आवाज आ रही थी. दरवाजा खोला तो तेज छीटों ने स्वागत किया. लेकिन उस समय इस बात का जरा भी आभास नहीं हुआ कि यहां रोमांटिक-सी लगने वाली यह बारिश आज उत्तराखंड की पहाड़ियों पर कहर बरपाएगी. हमको आज ही काठगोदाम के लिए निकलना था. रानीखेत होते हुए. इससे पहले हम शनिवार को नैनीताल से कौसानी के लिए निकले थे. हमारे ड्राइवर घनश्याम जोशी ने कहा था कि हर साल 15 जून को कैंचीधाम में भारी मेला लगता है. उससे हाइवे घंटों जाम रहता है. इसलिए हमें कौसानी के लिए तड़के ही निकलना होगा. उनकी बात मान कर हम सुबह कोई चार बजे से ही तैयार हो गए और सुबह पौने छह बजे नैनीताल क्लब से निकल पड़े. लेकिन बेटी की जिद थी कि उसे वह सेंट जोसेफ कालेज देखना है जहां कोई मिल गया फिल्म की शूटिंग हुई थी. इसलिए पहाड़ियों की चोटी पर बसे उस कालेज के गेट पर जाकर फोटो खिंचवाने के बाद जब हम भवाली के रास्ते पर निकले तो घड़ी सवा छह बजा रही थी. उस दिन मौसम बेहद खुशगवार था. खैरना में आलू पराठे के नाश्ते के बाद हम अल्मोड़ा की राह पर आगे बढ़ चले. गरम पानी कस्बे के खैरना से ही बायीं ओर की सड़क रानीखेत चली जाती है और सीधी सड़क अल्मोड़ा की ओर. सुबह नौ बजे अल्मोड़ा पहुंचने पर भी मौसम साफ था और आसमान पर बादलों का कोई निशान तक नहीं था. उस समय यह शहर उनींदा-सा था. बाजार बस खुल ही रहे थे. अल्मोड़ा की बाल मिठाई काफी मशहूर है. यह दूध को जला कर बनाई जाती है और चाकलेट की तरह लगती है. वहां मिठाई खरीदने और खाने के बाद हम बढ़ चले पहाड़ के अपने अंतिम पड़ाव कौसानी की ओर. वैसे, कौसानी में रात गुजारने का पहले कोई इरादा नहीं था. मैं रानीखेत में रात गुजारना चाहता था. लेकिन कोलकाता में केएमनवीएन के जनसंपर्क अधिकारी जुयाल साब ने कहा था कि आप रानीखेत की बजाय कौसानी क्यों नहीं चले जाते. रास्ते में रानीखेत भी देख सकते हैं. तो, इस तरह अपना कौसानी का कार्यक्रम बना. कौसानी से कुछ पहले और सोमेश्वर के बाद हल्की फुहारों ने हमारा स्वागत किया. कौसानी के केएमवीएन रेस्ट हाउस में जब पहुंचा तो दोपहर के ठीक 12 बज रहे थे. वहां के मैनेजर तारा दत्त तिवारी ने स्वागत किया और हमें कमरा दिखा दिया. कमरे में ही दोपहर का खाना खाने और कुछ देर आराम करने के बाद हमने अनासक्ति आश्रम का रुख किया. गांधी जी इसी आश्रम में ठहरे थे और वहां से हिमालय का नजारा साफ नजर आता था. उस आश्रम में कुछ समय गुजारने के बाद ही आसमान में काले बादल घिरने लगे थे थे. लेकिन उन बादलों ने बरसना शुरू किया तब जब हम कौसानी बाजार की एक दुकान में वहां बनी ऊन की चीजें देख रहे थे. रेस्ट हाउस लौटते हुए बारिश तेज हो गई थी. लेकिन हमें इसकी चिंता कहां थी. अब रात तो यहीं गुजारनी थी. रात का खाना खाने के बाद कोई दस बजे के आस-पास जब मोटे कंबल ओढ़ कर बिस्तर की शरण ली, तब भी आसमान बरस रहा था. अगले दिन काठगोदाम के लिए निकलने से पहले हम वहां शाल की फैक्टरी देखने गए. उस समय भी बारिश तेज थी. किसी तरह वहां से सुबह नौ बजे निकले रानीखेत के लिए निकले तो पूरे रास्ते बारिश आंखमिचौली खेलती रही. कभी धूप तो कभी बारिश. जब रानीखेत पहुंचे तो कुछ देर के लिए मौसम साफ हो गया और हमें गोल्फ कोर्स और मनकामेश्वर मंदिर में फोटो खिंचवाने का मौका मिल गया. वहां कुमायूं रेजिमेंट का संग्रहालय देखने के दौरान भी मौसम साफ रहा. लेकिन वहां से लौट कर कार में बैठते ही एक बार फिर काली घटा घिर आई थी. रविवार को पहली बार अपने ड्राइवर जोशी के चेहरे पर चिता की लकीरें नजर आईं. वह बार-बार कह रहा था कि यह बारिश कुछ कर गुजरेगी. बरसों से कुमायूं की पहाड़ियों पर कार चलाते हुए उसे शायद भावी अंदेशे का पूर्वाभास हो गया था. रानीखेत से खैरना तक रास्ते में कई जगह सड़क पर ऐसे बड़े-बड़े पत्थर देखे जो जानलेवा साबित हो सकते थे. जोशी की जुबान पर ऐसी कितनी ही कहानियां तैर रहीं थीं. भारी बारिश के बीच ही हमने कैंचीधाम के मंदिर में दर्शन किया. वहां सड़क पर सैलाब बह रहा था. पानी का बहाव इतना तेज था कि पैर फिसल रहे थे. चौबीस घंटे पहले जाते समय जिस कोसी नदी को नाले की तरह देखा था वह आज उफन रही थी. भवाली में भी सड़क नदी का रूप ले चुकी थी. मैंने रास्ते में किसी एटीएम से पैसे निकालने का मन बनाया था. लेकिन कोई एटीएम काम नहीं कर रहा था. भवाल से काठगोदाम आते हुए ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने वाले वाहनों की लंबी कतार नजर आई. उसी समय ड्राइवर ने कहा कि शायद नैनीताल जाने वाली मुख्य सड़क बंद हो गई है. कुछ दूर जाने के बाद उसका अंदेशा सही साबित हुआ. पूरे रास्ते सड़क पर पत्थर और मलबा नजर आया. किसी तह शाम साढ़े छह बजे काठगोदाम पहुंचे तो वहां भी उड़ूपीवाला रेस्तरां से रात का खाना पैक कराते समय भारी बारिश. काठगोदाम से दिल्ली के लिए हमारी ट्रेन रानीखेत एक्सप्रेस रात 8.40 पर थी. कोई एक हफ्ते तक हमारे साथ रहे जोशी ने घर पहुंच कर फोन करने का वादा ले कर हमसे विदा ली. अगले दिन दिल्ली पहुंचने के बाद जब टीवी पर उस इलाके में बर्बादी का नजारा देखा तो समझ में आया कि हम किस मुसीबत से निकले हैं. महज अड़तालीस घंटे पहले हम अल्मोड़ा को जिस रास्ते पर गुजरे थे वह भी कोसी के गर्भ में समा गया था. शुरू में मैंने रानीखेत होकर कौसानी जाने और अल्मोड़ा होकर लौटने की योजना बनाई थी. लेकिन जोशी की सलाह पर इसे उल्टा कर दिया. अब सोच कर सिहरन होती है कि अगर मूल योजना नहीं बदलते और एक दिन भी किसी पहाड़ी पर रुक गए होते तो कई दिन वहां फंसना पड़ता. लेकिन शायद इसे ही तो किस्मत या संयोग कहते हैं.

Friday, October 14, 2011

शाही शादी में भूटानी हुए दीवाने


बेगानी शादी में अब्दुल्ला के दीवाना होने की कहावत सबने सुनी ही होगी. लेकिन यह तो न तो बेगानी शादी थी और न ही दीवाना होने वाले लोग अब्दुल्ला थे.यह शादी उनके अपने राजा की थी. पूरे देश में युवकों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी है जिन्होंने अपने जीवन में कभी कोई शाही शादी नहीं देखी. उनके लिए तो यह नजारा किसी उत्सव से कम नहीं था.
यूरोपीय देशों के बाद अब हिमालय की गोद में बसे एशियाई देश भूटान के लोगों ने भी इस सप्ताह शाही शादी का नजारा देखा. बौद्ध रीति-रिवाजों के मुताबिक हुई शादी को देखने के लिए भूटान ही नहीं बल्कि भारत से भी भारी तादाद में लोग पहुंचे थे. यूरोप में होने वाली शाही शादियों के विपरीत इस शादी की खास बात यह रही कि इसमें किसी भी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को नहीं न्योता गया था. दुनिया के सबसे नन्हे लोकतंत्र भूटान के सबसे कम उम्र के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक और भारत में पली-बढ़ी और पढ़ी जेटसन पेमा की शाही शादी का गवाह बनने के लिए खराब मौसम के बावजूद देश के कोने-कोने से लगभग एक लाख लोग पहुंचे थे.
विवाह समारोह राजधानी थिंपू से लगभग 70 किलोमीटर दूर पुनाखा शहर में 17वीं सदी में बने एक किले में संपन्न हुआ. 1955 में राजधानी के थिम्पू जाने से पहले तक यह शहर ही सत्ता का केंद्र था. शाही परिवार में यहीं शादी करने की परंपरा है. पुनाखा के रॉयल लिंका मैदान में भूटान के विभिन्न समुदायों के कलाकारों ने शाही विवाह के उपलक्ष्य में पारंपरिक नृत्य पेश किए. इसके बाद राजा व रानी उपस्थित जनता के समक्ष आए और उसे आशीर्वाद दिया. विवाह समारोह के सिलसिले में भूटान की सेना, पुलिस और रॉयल बॉडीगार्ड की तरफ से सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए थे. विवाह के दौरान भूटान की मोबाइल सेवाओं को बंद कर दिया गया था. यहां तक कि निजी वाहनों की आवाजाही पर भी रोक थी.
भूटान में गुरुवार सुबह शाही विवाह का समारोह शुरू होने से पहले ही इस जोड़े को भारत की ओर से शुभकामनाएं दी गईं. भूटान नरेश की दुल्हन के पुराने स्कूल की एक शिक्षिका ने भूटान में विवाह समारोह शुरू होने से पहले ही अपनी पूर्व छात्रा को शुभकामनाएं दीं. जेटसन पेमा के यहां के कसौली हिल्स स्थित आवासीय लारेंस स्कूल में पढ़ती थीं। उस दौरान नीलम ताहलन उनकी हाउस मिस्ट्रेस थीं. इस शाही शादी में मानो समूचा भूटान झूम रहा था. एक छात्र के.नामग्याल कहता है कि मैं राजा और रानी को नजदीक से देखना चाहता था.
ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े भूटान नरेश वांगचुक और पेमा बचपन से ही दोस्त थे. नरेश महज 17 साल की उम्र में ही पेमा को अपना दिल दे बैठे थे. बरसों पुराना यह प्यार अब सात जन्मों के बंधन में बदल गया है. इस अवसर पर दोनों बेहद खुश थे. लोगों को लंबे अरसे से इस शाही शादी का इंतजार था. राजधानी थिम्पू के एक स्कूल शिक्षक डी. वाग्दी इस शादी को देखने के लिए दो दिन पहले ही पुनाखा पहुंच गए थे. वे कहते हैं कि भूटान में अब अगले 20-25 वर्षों तक ऐसा कोई समारोह नहीं आयोजित होगा. मैं यह मौका चूकना नहीं चाहता था.
राजसी विवाह को यहां के करीब सात लाख लोगों ने अपने घरों में टेलीविजन पर देखा. इसका ‘भूटान ब्राडकास्टिंग सर्विस टीवी’ पर सीधा प्रसारण किया गया. विवाह भूटानी बौद्ध परंपराओं के अनुसार हुआ. शाही शादी सुबह चार बजे ब्रह्म मुहुर्त में 100 बौद्ध भिक्षुओं की विशेष प्रार्थना के साथ आरंभ हुई. प्रार्थना मुख्य बौद्ध पुरोहित जे. खेनपो की देखरेख में हुई. इसके बाद वांगचुक और पेमा को पति-पत्नी घोषित कर दिया गया. शादी की रस्में पूरी होने के बाद दोनों बौद्ध मठ में खास तौर पर सजे कक्ष में कैमरे के सामने आए. शादी के बाद नरेश और महारानी ने किले के बाहर एक मैदान में जमा हजारों लोगों के साथ मिलकर नृत्य किया और अपनी शादी की खुशियां उनके साथ बांटी.

विवाह की कई रस्में संपन्न होने के बाद 31 वर्षीय नरेश वांगचुक ने पीले रंग के जैकेट और स्कर्ट में सजी पेमा को मुकुट पहनाया. इसके बाद पेमा आधिकारिक तौर पर भूटान की महारानी घोषित कर दी गईं. भूटान की राजसी परंपराओं के अनुसार महारानी पेमा ने नरेश वांगचुक को तीन बार साष्टांग प्रणाम किया। इस रस्म के बाद दोनों को एक पेय दिया गया. मान्यताओं के अनुसार यह नवविवाहित जोड़े की दीर्घायु के लिए दिया जाता है. नरेश की शादी के जश्न में भूटान में भारत के राजदूत पवन के. वर्मा, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम. के. नारायणन और राज परिवार के सदस्यों समेत लगभग 300 मेहमानों ने हिस्सा लिया.
शादी के जश्न में आए लोगों को भूटान की 20 घाटियों से आए 60 बेहतरीन रसोईयों के हाथों का बना हुआ पारंपरिक भूटानी भोजन परोसा गया. इस शाही दावत में कुछ भारतीय पकवान भी शामिल किए गए थे. शाही शादी का गवाह बनने के लिए सौ किलोमीटर का सफर तय कर पहुंचे नामगे दोर्जी और उनके घरवाले बेहद खुश थे. इस शादी के मौके पर भूटान डाक विभाग ने नवविवाहित दंपती की तस्वीर वाले 60 हजार खास डाक टिकट छापे हैं. इसी तरह भूटान मुद्रा प्राधिकरण ने नई करेंसी और चांदी के सिक्के तैयार किए हैं. चांदी के सिक्के पांच हजार रुपए में बिक रहे हैं जबकि डाक टिकटों की कीमत 25 से 225 रुपए के बीच है.

Sunday, August 7, 2011

सुंदरबन में तेज होती जिंदगी की जंग

प्रभाकर मणि तिवारी
(यह रिपोर्ट रविवार, 7 अगस्त को जनसत्ता रविवारी में कवर स्टोरी के तौर पर छपी है. वहीं से साभार.)
सुंदरबन यानी दुनिया में रायल बंगाल टाइगर का सबसे बड़ा घर। पश्चिम बंगाल और पड़ोसी बांग्लादेश की सीमा पर 4262 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह इलाका इन बाघों के अलावा अपनी जैविक विवधताओं के लिए भी मशहूर है। लेकिन अब यह सब खतरे में है। वैश्विक तापमान में बढ़ोती ने इस इलाके के वजूद पर सवालिया निशान लगा दिया है। लेकिन सबसे तात्कालिक समस्या तो इस इलाके में रहने वाले इंसानों और बाघों को बचाने की है। आबादी के बढ़ते दबाव और पर्यावरण असंतुलन की वजह से से सिकुड़ते जंगल के चलते सुंदरबन की विभिन्न बस्तियों में रहने वाले लोग और बाघ एक-दूसरे से रोजाना जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। कभी बाघ इंसानों का शिकार करते हैं तो कभी इंसान बाघों का। अब इस जंगल में इंसान ही नहीं बल्कि बाघ भी असुरक्षित हैं।
सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। बाघों को सुंदरबन का रक्षक कहा जाता है। लेकिन सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं व मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैंग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को की ओर से विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया।
सुंदरबन इलाके में बाघों के जंगल से निकल कर मानव बस्तियों में आने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अपने मैंग्रोव जंगल और रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरबन इलाका बाघ और इंसानों के बीच बढ़ते संघर्ष की वजह से लगातार सुर्खिर्यां बटोर रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सुंदरबन में हर साल औसतन 35 से 40 लोग बाघ के शिकार बन जाते हैं। लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि इलाके में हर साल अममून सौ से ज्यादा लोग बाघ के जबड़ों में जिंदगी गंवा देते हैं। दूर-दराज के इलाकों की घटनाओं के बारे में अक्सर पता ही नहीं चलता या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। हाल के दिनों में इंसानी बस्तियों पर बाघों के हमले की कम से कम एक दर्जन घटनाओं में छह लोग लोग मारे जा चुके हैं और इतने ही घायल हुए हैं। वन विभाग ने बीते हफ्ते बस्ती में घूमते एक बाघ को दबोचने में भी कामयाबी हासिल की है। इस कड़ी की ताजा घटना में बाघ के जबड़े में फंस कर एक और मछुआरे की मौत हो गई। इन घटनाओं ने वन विभाग के अधिकारियों और राज्य सरकार को चिंता में डाल दिया है। सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघों के हमले की ज्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी परमिट या मंजूरी के ही गहरे जंगल में घुसते हैं। इसलिए ऐसे मामलों की सही तादाद बताना मुश्किल है। वन विभाग की दलील है कि सुंदरबन का जो इलाका भारत की सीमा में है वहां रहने वाले बाघ आदमखोर नहीं हैं। लेकिन पड़ोसी बांग्लादेश में लगभग हर साल आने वाले तूफान के चलते उस पार से भी भोजन की तलाश में काफी बाघ इधर आ गए हैं। वे अक्सर जंगल से सटी बस्तियों में घुस जाते हैं या फिर जंगल में जाने वालों को घात लगा कर अपना शिकार बना लेते हैं।
वन विभाग ने इसके कारणों का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया है। शुरूआती जांच में यह तथ्य सामने आया है कि सुंदरवन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने, बाघों के चरने की जगह लगातार घटने और अपना पसंदीदा खाना नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। इनसे बचाव के फौरी राहत के तौर पर वन विभाग ने सुंदरबन में सौ हिरण छोड़े हैं। लेकिन इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही माना जा रहा है।
सुंदरबन विकास बोर्ड इस बात का पता लगाने पर जोर दे रहा है कि बाघ भोजन की कमी के चलते जंगल से बाहर निकल रहे हैं या अपनी प्रकृति में बदलाव की वजह से। बीते दो सालों में बाघों के इंसानी बस्तियों में घुसने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। सुंदरबन के बाघों की प्रकृति में भी बदलाव आ रहा है। अब वे निडर होकर बस्तियों में घुस कर इंसानों पर हमले कर रहे हैं।
सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता। उस अधिकारी का कहना है कि सुदरबन की इंसानी बस्तियों में रहने वाले लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए मूल रूप से जंगली लकड़ियों की कटाई पर ही निर्भर हैं। अक्सर जंगल में बाघ से मुठभेड़ होने पर वे लोग उसे अपने धारदार हथियारों से घायल कर देते हैं। ऐसे ही बाघ भोजन की तलाश में इंसानों पर हमला करते हैं। प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं वहां पानी का खारापन बीते एक दशक में 15 फीसद बढ़ गया है। इसलिए बाघ धीरे-धीरे जंगल के उत्तरी हिस्से में जाने लगे हैं जो इंसानी बस्तियों के करीब है।
सुंदरबन बायोरिजर्व के निदेशक प्रदीप व्यास कहते हैं कि हमारे लिए यह चिंता का विषय है। हम इसकी वजह का पता लगा रहे हैं। व्यास ने कहा कि बाघों को आसपास के वनों में प्रवेश से रोकने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं । वे बताते हैं कि बाघों के भोजन के लिए जंगल में हिरण छोड़े जा रहे हैं। राज्य वन्यजीव बोर्ड की सिफारिशों के तहत 200 हिरणों को सुंदरबन में मुक्त किया जायेगा । लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वे बीमारी से मुक्त हों । इस प्रक्रिया को पूरा होने में तीन से नौ महीने तक का समय लग सकता है । उन्होंने कहा कि वनकमिर्यों ने कुछ बाघों को पकड़ा है जो काफी कमजोर पाए गए हैं ।
उधर, वन्यजीवों से जुड़े एनजीओ ने चिंता जताई है कि बाघों के इन गांवों में भटकने से फिर से मानव-पशु संघर्ष हो सकता है। नेचर एनवायनर्मेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी के सचिव विश्वजीत रायचौधरी कहते हैं कि हालात काफी चिंताजनक है ।
बाघ और इंसानों के बीच लगातार तेज हो रही इस जंग का नतीजा दक्षिण 24-परगना जिले के आरामपुर गांव में अपनी पूरी कड़वाहट के साथ देखा जा सकता है। इस गांव में हर साल इतने लोग बाघ के शिकार हो जाते हैं कि उस गांव का नाम ही विधवापल्ली यानी विधवाओं का गांव हो गया है। सुंदरबन के गोसाबा द्वीप में स्थित आरामपुर गांव राजधानी कोलकाता से लगभग 90 किलोमीटर दूर जयनगर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। लेकिन इस आरामपुर गांव में विधवाओं की लगातार बढ़ती तादाद के चलते इसका नाम ही बदल कर विधवापल्ली या विधवाओं का गांव हो गया है। गांव में अठारह से लेकर साठ साल तक की महिला मतदाता हैं। लेकिन उनके मुकाबले पुरुष मतदाताओं की तादाद नहीं के बराबर है।
देश में यह शायद अकेली ऐसी जगह है, जहां हर दो चुनाव के बीच पुरुष मतदाताओं की तादाद बढ़ने की बजाय घट जाती है। ज्यादातर मामलों में तो गांव के युवक मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने से पहले ही बाघ के पेट में समा जाते हैं। सुंदरबन के इस गांव में रहने वाले मछली पकड़ने के अलावा जंगल से मधु एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। जंगल में रायल बंगाल टाइगर के खतरे से बाकिफ होने के बावजूद पेट की आग बुझाने के लिए वे रोज जंगल में जाते हैं।
गांव की ज्यादातर विधवाओं के पास अपनी जमीन नहीं है। अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए उन्हें काफी दूर जाकर पैसे वाले लोगों के लोगों के घरों और खेतों में काम करना पड़ता है। गांव के बच्चों का बचपन भी उसे छिन गया है। वे छोटी उम्र से ही दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं और बड़े होने पर जंगल में जाते हैं।
आजादी से पहले विधवापल्ली गांव का कोई वजूद नहीं था। लेकिन विभाजन के बाद पारंपरिक रूप से मछुआरे, लकड़हारे और मधु एकत्र करने वाले यहां धीरे-धीरे आ बसे। साल 1950 तक यहां की आबादी ज्यादा नहीं थी। बाद में गांव के पुरुष धीरे-धीरे बाघ का शिकार बनते गए और गांव में या तो विधवाएं बच गईं या फिर उनके दुधमुंहे बच्चे। सामाजिक बायकाट की चलते धीरे-धीरे सुंदरबन इलाके के दूसरे गांवों की विधवाएं भी विधवापल्ली में आ कर बसने लगीं। इस समय गांव में लगभग सवा दो सौ घर हैं। लेकिन इनमें से एक भी घर ऐसा नहीं है जहां बाघ के जबड़ों में सुहाग खोने वाली कोई विधवा नहीं हो। यानी सुदंरबन के बाघों ने इलाके में विधवाओं का एक पूरा गांव ही बसा दिया है।
गांव की पार्वर्ती मंडल के पति को बीते साल ही जंगल में बाघ ने मार दिया। वह कहती है कि यह तो विधवाओं का गांव है। हमें न तो सरकार से कोई सहायता मिलती है और न ही कोई नेता हमारा दर्द बांटने आता है। वह आरोप लगाती है कि चुनाव के मौके पर तमाम राजनीतिक पार्टियां हमदर्दी का नाटक करती हैं। लेकिन चुनाव बीतते ही उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। गांव के एक बुजुर्ग मोहम्मद शफीकुल के तो तीनों बेटों को बाघ ने मार दिया। अब अपने छोटे-छोटे पोते-पोतियों के साथ दिन काट रहे शफीकुल कहते हैं कि यहां मौत ही हमारी नियति है। घर में बैठें तो भूख से मर जाएंगे और जंगल में जाएं तो बाघ हमें नहीं छोड़ेगा। गांव के न जाने कितने ही मर्द उनका शिकार हो चुके हैं।
सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंजर्वेशन लैंडस्केप आॅफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी तादाद की सही जानकारी और बाघों व मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ते टकराव की वजहों का पता करना है। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है।
इलाके में ज्यादातर हमले अप्रैल व मई में हुए हैं। यह मैंग्रोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं। लेकिन बाघों के लिए यही प्रजनन का सीजन होता है। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों व गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।
सुंदरबन के बाघों को बेहद खूंखार माना जाता है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूंखार व्यवहार का कारण है। सरकार हर साल लगभघ 40 लोगों को जंगल से शहद एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट देती है। लेकिन पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों में वन उत्पादों को एकत्र करने व मछली पकड़ने जाते हैं।
अब इस इलाके में पर्यावरण असंतुलन के चलते बाघ ही नहीं, बल्कि इंसानों का वजूद भी खतरे में पड़ गया है। यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में शुमार सुंदरबन में देखने के लिए बहुत कुछ है। रायल बंगाल बाघ, जैविक और प्राकृतिक विविधता और सुंदरी पेड़ों का सबसे बड़ा जंगल यानी मैंग्रोव फॉरेस्ट। लेकिन अब इसमें एक और चीज जुड़ गई है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कुप्रभाव देखना हो तो सुंदरबन एक आदर्श जगह है। बांग्लादेश की सीमा से सटा यह इलाका दुनिया में मैंग्रोव जंगल और अपनी जैविक व पर्यावरण विविधताओं के लिए मशहूर है। लेकिन बंगाल की खाड़ी के लगातार बढ़ते जलस्तर ने इसके अस्तित्व पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पर्यावरण में तेजी से होने वाले बदलावों के चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण इस जंगल और इलाके में जहां-तहां बिखरे द्वीपों पर संकट मंडराने लगा है। इन प्राकृतिक द्वीपों के साथ यहां रहने वाली आबादी भी खतरे में है। डूबने के डर से इलाके से बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। वैसे, तो पहले भी समय-समय पर सुंदरबन के द्वीपों के पानी में समाने पर चिंताएं जताई जा रहीं थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी पर्यावरण रिपोर्ट के बाद इसकी गंभीरता खुल कर सामने आ गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो सुंदरबन जल्दी ही भारत के नक्शे से मिट जाएगा।
इस क्षेत्र के दो द्वीप पानी में डूब चुके हैं। लोहाचारा नामक एक द्वीप पानी में समा चुका है। घोड़ामारा द्वीप भी धीरे-धीरे पानी में समा रहा है। अब कम से कम और एक दर्जन द्वीपों पर यही खतरा मंडरा रहा है। इनमें वह सागरद्वीप भी शामिल है जहां सदियों से मशहूर गंगासागर मेला आयोजित होता रहा है। उन द्वीपों में लगभग 70 हजार की आबादी रहती है।
कोलकाता में यादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्री अध्ययन स्कूल के निदेशक सुगत हाजरा कहते हैं कि यह पर्यावरण में हो रहे बदलावों का नतीजा है। लोहाचारा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब गए हैं। अब सेटेलाइट से ली जाने वाली तस्वीरों में इनको नहीं देखा जा सकता। ग्लोबल वार्मिंग और लगातार जारी भूमि कटाव के कारण इलाके के कम से कम 12 और द्वीपों के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है। हाजरा कहते हैं कि समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर व प्रशासनिक उदासीनता के कारण सुंदरबन का 15 फीसदी हिस्सा वर्ष 2020 तक समुद्र में समा जाएगा। वे बताते हैं कि यहां समुद्र का जलस्तर 3.14 मिमी सालाना की दर से बढ़ रहा है। इससे कम से कम 12 द्वीपों का वजूद संकट में है।
सुंदरबन इलाके में कुल 102 द्वीप हैं। उनमें से 54 द्वीपों पर आबादी है। मछली मारना और खेती करना ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं। इलाके में यहां रोजगार का कोई अवसर नहीं है। इसके साथ बढ़ती आबादी और बाहरी लोगों के यहां की जमीन पर कब्जा कर होटल खोलने के कारण दबाव और बढ़ा है। सुंदरबन के गड़बड़ाते पर्यावरण संतुलन पर व्यापक शोध करने वाले आर. मित्र कहते हैं कि इस मुहाने के द्वीप धीरे-धीरे समुद्र में समाते जा रहे हैं। अगले दशक के दौरान हजारों लोग पर्यावरण के शरणार्थी बन जाएंगे।
राज्य के अतिरिक्त प्रमुख वन संरक्षक अतनु राहा कहते हैं कि आबादी के दबाव ने सुंदरबन के जंगलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इलाके के गावों में रहने वाले लोगों के चलते जंगल पर काफी दबाव है। इसे बचाने के लिए एक ठोस पहल की जरूरत है ताकि जंगल के साथ-साथ वहां रहने वाले लोगों को भी बचाया जा सके। हमने इलाके में बड़ी नहरें व तालाब खुदवाने का फैसला किया है ताकि बारिश का पानी संरक्षित किया जा सके। इस पानी से इलाके में जाड़ों के मौसम में दूसरी फसलें उगाई जा सकती हैं। इससे जंगल पर दबाव कम होगा।
सरकार ने कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर सुंदरबन इलाके के लोगों में जागरूकता पैदा करने की भी योजना बनाई है। लेकिन सुंदरबन को बचाने की दिशा में होने वाले उपाय उस पर मंडराते खतरे के मुकाबले पर्याप्त नहीं हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि अगर इस दिशा में ठोस पहल नहीं की गई तो जल्दी ही सुंदरबन का नाम नक्शे से मिट जाएगा। तब यहां न तो बाघ बचेंगे और न ही इंसान। आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से कई बस्तियां जंगल से एकदम सटी हैं। बाघ अक्सर उनमें घुस जाते हैं। जिंदगी की इस बढ़ती जंग ने बाघों को उन गांव वालों के लिए राक्षस बना दिया है जो कभी उसी बाघ देवता की पूजा कर जंगल में जाते थे।

Tuesday, April 26, 2011

अनुशासनहीन और पार्टीविरोधी सोमनाथ बने माकपा का सहारा

बदलाव के शोर के बीच पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में माकपा की अगुवाई वाला वाममोर्चा सत्ता में बने रहने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। इसके लिए उसे पार्टीविरोधी और अनुशासनहीन पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का सहारा लेने से भी कोई परहेज नहीं है। सोमनाथ को जुलाई 2008 में इन्हीं आरोपों के चलते माकपा से निकाल दिया गया था। माकपा नेता और आवासन मंत्री गौतम चटर्जी के अनुरोध पर सोमनाथ के चुनाव प्रचार से पार्टी के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व के बीच की खाई एक बार फिर सतह पर आ गई है। अब इस अहम चुनाव के मौके पर पार्टी महासचिव प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी जैसे नेताओं को भी सोमनाथ का स्वागत करना पड़ रहा है।
यह बात जगजाहिर है कि माकपा के शीर्ष नेतृत्व में दक्षिणपंथी लाबी के दबाव में ही सोमनाथ जैसे कद्दावर नेता को पार्टीविरोधी गतिविधियों और अनुशासनहीनता के आरोप में माकपा से निकाल दिया गया था। उस समय इस मुद्दे पर प्रदेश और शीर्ष नेतृत्व के बीच गहरे मतभेद उभरे थे। प्रदेश माकपा के नेता सोमनाथ के खिलाफ निष्कासन जैसी कड़ी कार्रवाई के पक्ष में नहीं थे। सुभाष चक्रवर्ती समेत कई नेताओं ने तो सार्वजनिक तौर पर इस फैसले के खिलाफ सवाल उठाए थे।
सोमनाथ बीते सप्ताह से ही माकपा के समर्थन में कई रैलियों को संबोधित कर लोगों से आठवीं वाममोर्चा सरकार को सत्ता में लाने में की अपील कर रहे हैं। लेकिन गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज की तर्ज पर वाममोर्चा के नेता इस मामले को कोई तूल नहीं देना चाहते। माकपा के प्रदेश सचिव और वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु ने पहले ही पत्रकारों से कहा था कि अगर सोमनाथ समेत कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से माकपा व वाममोर्चा के पक्ष में प्रचार के लिए आगे आता है उसका विरोध नहीं, स्वागत किया जाएगा। महासचिव प्रकाश कारत और पोलितब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में इस मुद्दे पर टिप्पणी की। लेकिन वे शायद यह भूल गए कि सोमनाथ अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि माकपा के स्टार प्रचारक और सबसे बड़े प्रवक्ता के तौर पर उभरे गौतम देव के लगातार अनुरोध की वजह से प्रचार के लिए आगे आए हैं। शायद इसलिए करात ने यह जोड़ा कि प्रचार के लिए किसी को बुलाने या नहीं बुलाने का फैसला प्रदेश नेतृत्व पर निर्भर है। गौतम देव की ओर से सोमनाथ को दिए गए प्रचार के न्योते के बाते में पूछे गए सवाल पर पहले तो विमान बसु का कहना था कि उनको इसकी जानकारी नहीं है। वे कोलकाता से बाहर थे। इससे यह सवाल पैदा होता है कि क्या गौतम देव इतने ताकतवर हो गए हैं कि वे प्रदेश सचिव की अनुमति तो दूर, उनको सूचित किए बिना किसी ऐसे नेता को प्रचार का न्योता दे सकते हैं जिसे महज तीन साल पहले पार्टीविरोधी गतिविधियों के आरोप में माकपा से निकाल दिया गया हो। अगर सचमुच ऐसा है तो सोमनाथ को निकालने में पार्टी ने जिस अनुशासन का परिचय दिया था, उसकी तो देव ने धज्जियां ही उड़ा दीं।
लेकिन सोमनाथ को प्रचार का न्योता देने का फैसला अकेले गौतम का नहीं था। उन्होंने पत्रकारों को बताया था कि यह फैसला विमान बसु व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से सलाह-मशविरे के बाद ही लिया गया है। गौतम का सवाल था कि कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है कि एक बार पार्टी से निकाले जाने के बाद उस नेता को वापस नहीं लिया जा सकता या फिर उससे प्रचार नहीं कराया जा सकता।
पार्टी से निकाले जाने के बाद सक्रिय राजनीति से अलग रहने का फैसला करने सोमनाथ ने पत्रकारों से कहा था कि गौतम देव लगातार अपने समर्थन में दमदम इलाके में चुनाव प्रचार करने का अनुरोध कर रहे हैं। अपने समर्थन में हुई कई रैलियों के बाद गौतम अब सोमनाथ को पार्टी में वापस लेने की मुहिम चला रहे हैं। उनका कहना है कि वापसी का फैसला तो सोमनाथ पर निर्भर है। लेकिन वाममोर्चा उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार करने वाले ऐसे कद्दावर नेता को कब तक पार्टी से बाहर रखा जा सकता है।
सोमनाथ के प्रचार में उतरने का स्वागत मुख्यमंत्री ने भी किया है। लेकिन उन्होंने पार्टी में उनकी वापसी के सवाल पर कोई टिप्पणी नहीं की है। बुद्धदेव ने कहा कि सोमनाथ हमारी पार्टी के एक अहम नेता थे। दो-तीन साल पहले कुछ समस्याएं जरूर पैदा हो गईं। लेकिन वे अब भी पार्टी के साथ हैं। क्या उनकी वापसी होगी? इस सवाल पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि फिलहाल इस सवाल पर विचार नहीं किया गया है। लेकिन यह तय है कि उनके चुनाव प्रचार से हमें काफी फायदा होगा।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अपने कार्यकाल के सबसे अहम विधानसभा चुनाव का सामना कर रही माकपा अबकी कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहती। यही वजह है कि केंद्रीय नेतृत्व की परवाह किए बिना ही उसने सोमनाथ जैसे नेता को चुनाव प्रचार में उतारा है। इसके साथ ही उनको पार्टी में वापस लाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। सोमनाथ इन चुनावी रैलियों में कह चुके हैं कि वे अब भी मार्क्सवादी हैं। चुनाव का नतीजा वाममोर्चा के पक्ष में रहने की स्थिति में माकपा में सोमनाथ की वापसी के सवाल प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व का टकराव तय है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सोमनाथ के प्रचार से माकपा को कितना फायदा होगा या फिर पार्टी में उनकी वापसी होगी या नहीं, इन जैसे कई सवालों का जवाब तो बाद में मिलेगा। लेकिन उनके कूदने से माकपा के चुनाव अभियान को मजबूती तो मिली ही है।