Sunday, June 21, 2009

सरकारी उपेक्षा और पिछड़ेपन की कोख से जन्मा लालगढ़


पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर के लालगढ़ और आसपास के गांवों में माओवाद की समस्या कोई एक दिन में पैदा नहीं हुई। दरअसल, लालगढ़ सरकारी उपेक्षा,गरीबी और पिछड़ेपन की कोख से पैदा हुआ है। वाममोर्चा सरकार की अनदेखी के चलते आदिवासियों में सरकार के खिलाफ नाराजगी तो लंबे अरसे से पनप रही थी। इसी नाराजगी का फायदा उठा कर माओवादियों ने ग्रामीणों की सहानुभूति हासिल करते हुए धीरे-धीरे इलाके में अपनी गहरी पैठ बना ली है। लालगढ़ गरीबों की हितैषी होने का दावा करने वाली वाममोर्चा सरकार की नाकामी की सबसे बड़ी मिसाल के तौर पर उभरा है। ध्यान रहे कि लालगढ़ से कुछ दूरी पर ही वह आमलासोल गांव है जहां कुछ साल पहले भुखमरी से आदिवासियों की मौतों की खबरें आई थीं। सरकार ने उसके बाद भी इलाके में विकास का काम शुरू करने की बजाय उन मौतों को भूख नहीं, बल्कि बीमारी से होने वाली मौतें करार दे कर मामले को रफा-दफा कर दिया।
वैसे, लालगढ़ में सरकार फेल नहीं हुई है। सरकार तो वहां थी ही नहीं। जिले के बीनपुर-दो ब्लाक के कई गांवों को मिला कर बसे लालगढ़ में नक्सली बरसों से हथियार और गोला-बारूद जुटा रहे थे। नक्सलियों ने पिछड़ेपन और बेरोजगारी से आदिवासी युवकों में उपजी हताशा का फायदा उठाते हुए धीरे-धीरे उनको भी साथ कर लिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि लालगढ़ लंबे अरसे से बारूद के ढेर पर बैठा था।
बीते 30-32 वर्षों के शासनकाल में वाममोर्चा ने बाकी मूलभूत सुविधाएं जुटाना तो दूर, इलाके में गांवों को एक-दूसरे जोड़ने के लिए सड़क तक नहीं बनवाई। बेलपहाड़ी और आसपास के गांवों में नरेगा के तहत आदिवासियों को रोजगार तो मिले तो लेकिन उससे हफ्ते भर का खर्च निकलना भी मुश्किल है। बेलपाहड़ी के ज्ञानेश्वर मुर्मू को तीन साल पहले नरेगा के तहत जाब कार्ड मिला था। बरसों से उनका आवोदन ग्राम पंचायत के पास फाइलों में दबा था। बीते महीने पहली बार उनको सड़क पर मिट्टी डालने का काम मिला। लेकिन पैसा अब तक नहीं मिला है। नरेगा के तहत मिली रकम भी वापस चली गई है। अब इलाके में कोई नहीं जानता कि काम दोबारा शुरू भी होगा या नहीं।
ज्ञानेश्वर, उसके बेटे और बहू को चार दिन काम करने के एवज में एक हजार 70 रुपए मिले थे। अब अगर आगे काम नहीं मिला तो उनको साल के बाकी 361 दिन इसी रकम में गुजर-बसर करना होगा। ज्ञानेश्वर कहते हैं कि इस योजना के तहत सौ दिन काम मिलने पर हमारा जीवन आसान हो जाता। लेकिन यहां न काम है और न ही उसकी कोई उम्मीद।
इलाके में माओवादियों का असर बढ़ने की एक और वजह है। वहां एक ओर तो आदिवासी बेरोजगारी की हताशा से जूझते और भूख से मरते रहे और दूसरी ओर माकपा के नेताओं और काडरों की संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रही। अयोध्या पहाड़ी से सटे एक गांव में रहने वाले दिनेश महतो कहते हैं कि आखिर पार्टी से गुजर-बसर के लिए मामूली रकम पाने वाले माकपाई इतनी जल्दी करोड़पति कैसे बन गए। जाहिर है उन्होंने इलाके में विकास परियोजनाओं के नाम पर आने वाली पूरी रकम डकार ली है। माकपा काडरों में लगातार बढ़ते इस भ्रष्टाचार ने माओवादियों को अपने पांव जमाने में सहायता दी। बारूद के ढेर पर बैठा लालगढ़ उबल तो बरसों से रहा था, इसे पलीता दिखाया पुलिस के अत्याचारों ने।
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को इलाके के विकास और पिछड़ेपन की हकीकत मालूम है। लेकिन शायद पार्टी काडरों पर नियंत्रण नहीं होने या किसी नामालूम वजह से वे इसकी अनदेखी करते रहे। अब पानी सिर से ऊपर गुजरने के बाद वे बीते दो-तीन दिनों दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदंबरम को यह समझाने का प्रयास करते रहे कि नक्सलवाद की समस्या महज कानून व व्यवस्था की नहीं बल्कि देशव्यापी समस्या है और केंद्र व राज्य सरकारों को साझा तौर पर इसका मुकाबला करना चाहिए।
लालगढ़ की समस्या न तो एक दिन में पैदा हुई है और न ही इतनी जल्दी इसके सुलझने के आसार हैं। इलाके के लोगों में असंतोष और हताशा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि परिस्थिति सुधरने में लंबा वक्त लगेगा। लेकिन इसबीच, इस मामले में राजनीतिक खेल भी शुरू हो गया है। माकपा के नेता लगातार तृणमूल कांग्रेस पर माओवादियों की सहायता का आरोप लगा रहे हैं। दूसरी ओर, ममता ने कहा है कि माओवादी माकपा की ही उपज हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर माकपा ने अपने आरोप वापस नहीं लिए तो पार्टी राज्य में आंदोलन छेड़ेंगी। ममता ने सवाल किया है कि आखिर सरकार ने अब तक माओवादियों पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई है और लालगढ़ अभियान शुरू करने में उसने इतनी देरी क्यों की?
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पुलिस और सुरक्षा बलों के अभियान का चाहे जो भी नतीजा हो, लालगढ़ के कई सवाल अब भी अनसुलझे हैं। इन सवालों का जवाब नहीं मिलने तक लालगढ़ और आसपास के इलाकों में पसरते जा रही इस समस्या का स्थाई समाधान तो मुश्किल ही है।

Wednesday, June 17, 2009

.....तो नहीं बिगड़ते लालगढ़ में हालात


पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने अगर समय रहते समुचित कार्रवाई की होती तो पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में आज हालात इतने बेकाबू नहीं होते। सरकार की नीतियों ने इस समस्या को बेतरह उलझा दिया है। लालगढ़ में यह हालात कोई एक दिन में नहीं बने हैं। वहां पुलिस और माकपा काडरों के खिलाफ स्थानीय लोगों का गुस्सा तो बीते नवंबर में ही भड़क उठा था। लेकिन नंदीग्राम में हाथ जला चुकी सरकार ने महीनों चुप्पी साधे रखी। और तो और उसने राज्य में माओवादियों पर पाबंदी भी नहीं लगाई है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य बार-बार कहते रहे हैं कि सरकार इस समस्या को राजनीतिक स्तर पर सुलझाने की पक्षधर है।
बीते साल दो नवंबर को तत्कालीन केंद्रीय इस्पात मंत्री राम विलास पासवान और मुख्यमंत्री के काफिले के सालबनी में एक शिलान्यास समारोह से लौटने के दौरान माओवादियों ने बारूदी सुरंग का विस्फोट किया था। उसके बाद स्थानीय पुलिस ने लोगों पर जम कर जुल्म ढाए और इस हमले के आरोप में तीन छात्रों समेत कोई आधा दर्जन लोगों को गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद ही स्थानीय लोगों की नाराजगी भड़की। बाद में बहती गंगा में हाथ धोने के लिए माओवादी भी इस आंदोलन में कूद पड़े। पंद्रह नवंबर के बाद पुलिस अत्याचार विरोधी जनसाधारण समिति और माओवादियों ने महीनों लालगढ़ का संपर्क राज्य के बाकी हिस्सों से काट दिया। तमाम सड़कें काट दी गईं और जगह-जगह जांच चौकियां बना दी गईं। लोगों ने पुलिस वालों को गांव में नहीं घुसने देने का एलान कर रखा था। इस दौरान माकपा काडरों की हत्याएं होती रहीं। लेकिन राज्य सरकार इस नक्सली हिंसा के लिए झारखंड को जिम्मेवार ठहराते हुए केंद्र सरकार से अर्धैनिक बलों की मांग करती रही। यह बात अलग है कि वर्षों से झारखंड से सटे तीनों जिलों-पश्चिम मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ा में माओवादियों की लगातार बढ़ती सक्रियता के बावजूद सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए किसी खास बल का गठन नहीं किया।
सरकार की इस चुप्पी की भी वजह थी। नंदीग्राम में पुलिस को जबरन घुसाने का अंजाम वह देख चुकी थी। ऐसे में लालगढ़ को एक और नंदीग्राम बनाने का खतरा वह कम से कम चुनावों के पहले मोल नहीं ले सकती थी। इसलिए वह चुनाव बीतने का इंतजार करती रही। चुनावों के दौरान भी सरकार को समिति के साथ उसकी शर्तों पर समझौता करना पड़ा। इसमें तय हुआ था कि लालगढ़ इलाके के गांवों में मतदान केंद्र नहीं बनेंगे और मतदान के दिन भी पुलिस गांवों में नहीं घुसेगी। सरकार ने वह शर्त मान कर बाहर कुछ मतदान केंद्र बनाए थे। लेकिन वहां बहुत कम वोट पड़े। चुनावी नतीजों के बाद सरकार में शामिल दल अपनी हार की वजहें तलाशने में जुटे रहे। तब तक यह समस्या काफी गंभीर हो गई। माओवादियों और आदिवासियों ने चुनाव से पहले न सिर्फ लालगढ़ की नाकेबंदी कर दी थी, बल्कि कोलकाता में सरकार की नाक के नीचे रैली कर उन्होंने सरकार को खून-खराबे की भी चेतावनी दी थी। लेकिन सरकार बार-बार वहां बल प्रयोग नहीं करने की बात करते हुए इस समस्या के खुद-ब-खुद सुलझने का इंतजार करती रही।
गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन की दलील है कि लालगढ़ के मामले में सरकार ने जरूरत और परिस्थितियों के हिसाब से समुचित कार्रवाई की है। लेकिन हकीकत तो यह है कि सरकार ने वहां कोई कार्रवाई ही नहीं की। अब समस्या के विकराल होने के बाद उसने दो दिन पहले केंद्र से इस समस्या से निपटने के लिए अर्धसैनिक बल मांगे हैं। लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार ने अगर पहले ही यह फैसला किया होता तो हालात बेकाबू नहीं होते। पर्यवेक्षकों का कहना है कि राज्य पुलिस के जवानों के गुरिल्ला लड़ाई का प्रशिक्षण हासिल नहीं है। उन इलाकों में तैनात पुलिसवालों के पास आधुनिकतम हथियारों का भी अभाव है। इसबीच, माओवादियों ने इलाके में भारी तादाद में गोला-बारूद जमा कर लिया है। लालगढ़ की ओर जाने वाले तमाम रास्तों पर भी बारूदी सुरंग बिछा दी गई हैं। ऐसे में केंद्रीय बलों के लिए भी सीधी लड़ाई में माओवादियों से निपटना आसान नहीं है। माओवादियों ने केंद्रीय बलों को भी लालगढ़ तक पहुंचने से पहले ही रोक दिया है। यही वजह है कि इस आंदोलन के खिलाफ अभियान चलाने के बारे में अभी कोई फैसला नहीं हो सका है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार की लंबी चुप्पी में इस आंदोलन को मजबूत होने में मदद दी। छह महीने पहले पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ शुरू होने वाला यह आंदोलन अब सरकार के साथ सीधी लड़ाई में बदल गया है। और सरकार ने लालगढ़ को नंदीग्राम बनने से बचाने के लिए जो चुप्पी साध रखी थी, वह भी उसके काम नहीं आई। माओवादियों की तैयारी को देखते हुए देर-सबेर लालगढ़ में भी नंदीग्राम दुहराया जाना अब लगभग तय है।

Tuesday, June 16, 2009

वहां भूत खिलाएंगे खाना!


बहुत कम लोग ही ऐसे होंगे जिनको किसी खंडरहरनुमा अंधेरे कमरे में भूतों का नाम सुन कर सिहरन नहीं होने लगे. भूत-प्रेत का इस्तेमाल अब तक डरावने अर्थ में ही होता रहा है. लेकिन अब यह परिभाषा जल्दी ही बदलने वाली है. अब कोलकाता के पास बन रहे एक रेस्तरां में भूत आपसे आपके मनपसंद खाने का आर्डर तो लेंगे ही, आपको खाना भी वही परोसेंगे. यह कमाल करने जा रहे हैं मशहूर जादूगर पी.सी.सरकार जूनियर. वे इस साल के आखिर तक हावड़ा में हाइवे के किनारे एक ऐसा रेस्तरां खोलने जा रहे हैं जहां वेटर से लेकर मैनेजर तक तमाम लोग भूतों और नरकंकालों के मेकअप में ही होंगे.अगर आप दिल के मजबूत है और भूत-प्रेत को अंधविश्वास मानते हैं तो भूतों के इस रेस्तरां में आपका स्वागत है. इसमें आप निडर होकर हर तरह के लजीज व्यंजन का लुत्फ उठा सकते हैं. अगर आप भूत-प्रेत को मानते हैं तो इस रेस्तरां में कुछ समय बिताने के बाद आपकी सोच बदल जाएगी.हां, ग्राहक के तौर पर उस रेस्तरां में जाने के लिए आपका जिगर कुछ मजबूत होना जरूरी है. सरकार कहते हैं कि ‘यह एक नया प्रयोग है. इसका मकसद लोगों में फैला यह अंधविश्वास दूर करना है कि भूत-प्रेत दरअसल हमारे अवचेतन दिमाग की ही उपज है. रेस्तरां में ग्राहकों के लिए रोजाना जादू के हैरतअंगेज करतब भी दिखाए जाएंगे.’ सरकार कहते हैं कि शायद यह देश में अपनी तरह का पहला रेस्तरां होगा। यह सप्ताह में सातों दिन खुला रहेगा.सरकार जूनियर के अलावा उनकी जादूगर पुत्री मानेका सरकार और उनकी मंडली के सदस्य भूत रेस्तरां के कार्यक्रमों पर निगरानी रखेंगे। इस रेस्तरां की इमारत बाहर से खंडहरनुमा होगी. भीतर जाने पर कब्रें भी नजर आएंगी. दीवारों और खिड़कियों पर भुतों की तस्वीरें होंगी. खास तौर पर बने माडलों, लेजर किरणों और प्रकाश के तालमेल से इस माहौल को काफी असरदार बनाने की योजना है.सरकार जूनियर कहते हैं कि ‘कल्पना कीजिए कि आप किसी भूतरूपी वेटर को खाने का आर्डर देकर अपनी मनपसंद डिश आने का इंतजार कर रहे हों, उसी समय दीवार में बनी खिड़की में से कोई भूत या नरकंकाल निकल कर आपके बगल वाली कुर्सी पर बैठ जाए.’ वे कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति डर जाता है तो वह बाहर जा सकता है. भूत ही उसे बाहर का रास्ता दिखा देंगे. लेकिन आखिर तक रुकने की हालत में इस जादू के पीछे के विज्ञान को समझ कर उसका अंधविश्वास काफी कम हो जाएगा.सरकार का कहना है कि मेरा मकसद पैसे कमाना नहीं है. मैं हर उम्र के लोगों बताना चाहता हूं कि आखिर ये जादू है क्या? वे कहते हैं कि ‘जादू और कुछ नहीं बल्कि विज्ञान का ही एक रूप है.’सरकार की पुत्री मानेका भी इस परियोजना के प्रति काफी उत्साहित हैं. वे कहती हैं कि ‘आम लोगों के लिए यह एक दिलचस्पी का विषय होगा.जादू के प्रति लोगों में बहुत पहले से आकर्षण रहा है. अब उस रेस्तरां में हम जादू के जरिए ही आम लोगों खासकर किशोर पीढ़ी के मन से अंधविश्वास दूर करने का प्रयास करेंगे.’

अपनी ही दवा कड़वी लग रही है माकपा को

पश्चिम बंगाल में माकपा को अब अपनी ही दवा कड़वी लग रही है। हथियारों के जोर पर इलाकों पर कब्जे की जिस लड़ाई की शुरूआत उसने की थी वह अब उसे बहुत भारी पड़ रही है। अब जब विपक्ष ने उसे उसी की भाषा में जवाब देना शुरू किया है तो कामरेडों को जान के लाले पड़ गए हैं और अपने सबसे मजबूत गढ़ रहे लालगढ़ और खेजुरी इलाकों से उनका पलायन शुरू हो गया है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पश्चिम बंगाल में शुरू हुई राजनीतिक हिंसा थमने की बजाय लगातार तेज होती जा रही है।
बीते खास कर एक सप्ताह के दौरान पूर्व मेदिनीपुर जिले के खेजुरी और पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में तो हालात बेकाबू नजर आ रहे हैं। हाल तक माकपा के गढ़ रहे इन दोनों इलाकों में इस हिंसा के निशाने पर अबकी माकपाई ही हैं। अब अपने इस गढ़ से माकपाई बोरिया-बिस्तर समेट कर भाग रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे दो साल पहले नंदीग्राम से तृणमूल कांग्रेस समर्थकों को भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी थी।
बीते महीने भर से होने वाली हिंसा में माकपा और तृणमूल दोनों दलों के दो दर्जन से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। खेजुरी में यह हिंसा इलाके पर पुनर्दखल की लड़ाई का नतीजा है। खेजुरी में तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की गिरफ्तारी के विरोध में स्थानीय लोगों ने पुलिसवालों का सामाजिक बायकाट शुरू कर दिया है तो लालगढ़ में माओवादियों ने पुलिस व प्रशासन को सरेआम चुनौती दे दी है। रविवार को लालगढ़ में माकपा के तीन नेताओं की हत्या हो गई। पुलिस अत्याचार विरोधी समिति के समर्थकों ने माकपा के एक स्थानीय नेता के आलीशान मकान में जम कर तोड़फोड़ की।
माकपा ने नवंबर, 2007 में जब हथियारों के जोर पर नंदीग्राम पर दोबारा कब्जा जमाया था तब उसने कल्पना तक नहीं की होगी कि एक दिन खेजुरी से उसके नेताओं व काडरों को जान बचा कर भागना पड़ेगा। बंदूक के जोर पर इलाके के पुनर्दखल के जिस खेल की शुरूआत माकपा ने की थी अब वही उसे महंगा पड़ रहा है। नंदीग्राम के पुनदर्खल के समय मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य तक ने काडरों की उस कार्रवाई का यह कह बचाव किया था कि उनलोगों (विपक्ष) को उनकी ही भाषा में जवाब दिया गया है। तब उनकी इस टिप्पणी की काफी आलोचना हुई थी। वैसे, बाद में भट्टाचार्य ने यह कहते हुए उस बयान के लिए माफी मांग ली थी कि वे मुख्यमंत्री होने के साथ ही माकपा के नेता भी हैं। यानी उन्होंने वह बयान पार्टी के दबाव में दिया था।
वैसे, बंगाल में लाठी के जोर पर इलाकों पर कब्जे की लड़ाई कोई नई नहीं है। इसकी शुरूआत का सेहरा माकपा के सिर पर ही है। कोई दस साल पहले उसने मेदिनीपुर जिले के केशपुर से इसकी शुरूआत की थी। इसलिए यह महज संयोग नहीं है कि अब उसी मेदिनीपुर (जो अब पूर्व और पश्चिम में बंट गया है), में उसके पैरों तले की जमीन तेजी से खिसक रही है। माकपा को अब अपनी ही दवा कड़वी लग रही है।
नंदीग्राम आंदोलन के दौरान भी खेजुरी माकपा का सबसे मजबूत गढ़ था। तृणमूल के खिलाफ जवाबी हमले वहीं से होते रहे थे। अभी बीते सप्ताह माकपा के तीन नेताओं के घर से भारी तादाद में हतियार बरामद होना अपनी कहानी खुद कहता है। हालांकि माकपा ने उन तीनों से कोई संबंध होने से इंकार कर दिया है। लेकिन इलाके के लोग तो जानते ही हैं कि वहां कौन किस पार्टी का है। अब इस राजनीतिक हिंसा के सवाल पर तृणमूल कांग्रेस और माकपा के बीच शह और मात का खेल चल रहा है। और इसमें कोई शक नहीं है कि इस खेल में अब तक तृणमूल प्रमुख और रेल मंत्री ममता बनर्जी ही भारी पड़ रही हैं।
इसबीच, तृणमूल प्रमुख और रेल मंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र से बंगाल में शांति व सुरक्षा बहाल करने में दखल देने की अपील की है। सोमवार को राज्यपाल डा. गोपाल कृष्ण गांधी से भेंट कर उन्होंने राज्य की कानून व व्यवस्था की स्थिति से उन्हें अवगत कराया। उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य में सरकार प्रायोजित आतंक जारी है। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार को हालात सुधारने तथा शांति व व्यवस्था की बहाली की दिशा में कदम उठाना चाहिए। ममता ने राज्यपाल को बताया कि चुनाव के बाद पार्टी के 23 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई है। बंगाल में लगातार हिंसक वारदातें हो रही हैं और लोग खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। सत्तारूढ़ माकपा के समर्थकों का अत्याचार लगातार बढ़ रहा है और हालात को काबू करने में सरकार व प्रशासन नाकाम रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार को अवैध हथियारों को जब्त करने के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए। इन हथियारों के बूते ही हिंसा हो रही है। वैसे, राज्यपाल ने बीते सप्ताह ही इस राजनीतिक हिंसा पर गहरी चिंता जताई थी।
दूसरी ओर, सोमवार को वाममोर्चा विधायकों की बैठक में मुख्यमंत्री को भी विधायकों के सवालों का जवाब देना मुश्किल हो गया। विधायकों का कहना था कि माकपा के लोगों की चुन-चुन कर हत्याएँ की जा रही हैं। लेकिन पुलिस दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठी है। विधायकों ने भट्टाचार्य से पुलिस को और सक्रिय करने को कहा। मुख्यमंत्री ने विधायकों को कार्रवाई का भरोसा दिया और साथ ही संयम बरतने की सलाह दी। बुद्धदेव का कहना था कि आगामी विधानसभा चुनावों से पहले विपक्ष जानबूझ कर हिंसा व आतंक फैलाने का प्रयास कर रहा है। इसलिए उसकी चाल में फंसने की बजाय हमें संयम से काम लेना चाहिए।
उधर, लालगढ़ में हालात खराब होते जा रहे हैं। माकपा और आदिवासियों के बीच शुरू हुई जंग अब पूरी तरह से हिंसक हो गई है। आदिवासियों ने सोमवार को माकपा के कार्यालय में तोड़फोड़ की और रामगढ़ पुलिस चौकी में आग लगा दी।
वहां आदिवासियों ने माकपा को खुली चुनौती दे दी है। वहीं गुस्साए आदिवासियों के आगे सीपीएम कार्यकर्ता बेबस नजर आ रहे हैं। पुलिस से नाराज आदिवासियों ने एक चौकी को भी फूंक डाला। कभी ये माकपा का गढ़ हुआ करता था लेकिन अब माकपाई यहां से भागने में ही भलाई मान रहे हैं।
बीते तीन दिनों से आदिवासियों और माकपाइयों के बीच इलाके पर कब्जे को लेकर बवाल चल रहा है। पुलिस भी इन आदिवासियों के सामने लाचार नजर आ रही है। माकपा नेताओं व कार्यकर्ताओं की हत्या से आंतकित होकर कामरेडों ने इलाके से पलायन शुरू कर दिया है। बीनपुर माकपा जोनल समिति के सचिव अनुज पांडेय ने कहा कि लालगढ़ इलाके में माकपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की हत्याओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इससे आतंकित होकर पार्टी के नेता व कार्यकर्ता सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर रहे है। उन्होंने आरोप लगाया है कि इलाके में आतंक का पर्याय बने माओवादी एवं पुलिस अत्याचार प्रतिरोध समिति के लोगों ने माकपा के स्थानीय नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के 11 लाइसेंसी बंदुकें भी छीन ली हैं। दूसरी ओर समिति के नेता छत्रधर महतो ने इस आरोप का खंडन करते हुए कहा है कि समिति नहीं बल्कि माकपाई ही इलाके में आतंक फैला रहे हैं।
माकपा की बेलाटीकरी स्थानीय समिति के सचिव चंडी करण ने रविवार को इलाके में हुई हिंसा में माकपा के तीन लोगों की मौत की पुष्टि की है। उन्होंने आरोप लगाया कि इलाके में माओवादियों के साथ मिलकर पुलिस अत्याचार विरोधी समिति माकपा समर्थकों को चुन-चुनकर मार रही है।
अब माओवादियों ने एक कदम आगे बढकर राज्य स्तर पर पुलिस व प्रशासन के बायकाट का एलान किया है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इलाके में अपना राजनीतिक बर्चस्व बहाल करने की इस लड़ाई में माकपा के पांव उखड़ रहे हैं। अगर सरकार ने खेजुरी व लालगढ़ में सामान्य स्थिति बहाल करने की दिशा में ठोस पहल नहीं की तो यह दोनों इलाके नंदीग्राम में बदल सकते हैं।

Wednesday, June 10, 2009

बंगाल में लालकिला दरकने की आहट से सन्नाटा

कोलकाता, 15 मई। पश्चिम बंगाल में अपना लालकिला दरकने की आहट से वाममोर्चा के खेमे में सन्नाटा है। राज्य की 42 लोकसभा सीटों के नतीजे राज्य में भावी राजनीति की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाएंगे। इनसे कई सवालों के जवाब तो मिलेंगे ही, यह भी पता चलेगा कि सिंगुर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों पर खास कर शहरी मतदाता क्या सोचते हैं। बंगाल में वाममोर्चे के लाल किले में सेंध लगना तो तय ही है। खुद वाममोर्चा के नेता भी अबकी पिछली बार के 35 के मुकाबले 28 से ज्यादा सीटों का दावा करने को तैयार नहीं हैं। अब नतीजों से यह बात सामने आएगी कि तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन इस लालकिले में कितना सेंध लगा पाता है। तृणमूल खेमा उत्साहित तो है, लेकिन पक्के तौर पर उसे भी अपनी अनुमानित सीटों का भरोसा नहीं है।
इस चुनाव में कांग्रेस के यथास्थिति रहने की उम्मीद है। तृणमूल कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं। इसलिए उसे फायदा मिलना तय है। तृणमूल का फायदा यानी वाममोर्चा का नुकसान। अब यह नुकसान कितना और कहां होगा, इस पर मोर्चे के नेता तमाम माथापच्ची के बावजूद किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके हैं।
अबकी चुनावों में राज्य में नैनो, खेत और विकास ही मुद्दा रहे हैं। दोनों प्रमुख गठबंधनों ने अपने-अपने तरीके से इनको भुनाने का प्रयास किया है। वाममोर्चा ने जहां टाटा की लखटकिया के राज्य से जाने के लिए ममता बनर्जी को जिम्मेवार ठहराते हुए उन पर विकासविरोधी तमगा लगाने का प्रयास किया है, वहीं ममता ने सरकार पर खेती की कीमत पर उद्योगों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है। महीनों लंबे चले चुनाव अभियान के दौरान अपनी-अपनी जीत के भारी-भरकम दावे करने वाले राजनीतिक दल नतीजों के ठीक पहले पक्के तौर पर कुछ भी कहने से परहेज कर रहे हैं। परिसीमन ने सबको ऐसा उलझाया है कि उनको खुद पर भी भरोसा नहीं रहा। दरअसल, तीन दौर में हुए चुनाव के दौरान 75 से 80 फीसद मतदान ने भी तमाम राजनीतिक दलों को असमंजस में डाल दिया है। उनको यह समझ में नहीं आ रहा है कि इतना भारी मतदान आखिर किस बात का संकेत है। वैसे, बीते विधानसभा चुनावों में भी भारी मतदान हुआ था और तब वाममोर्चा ने रिकार्ड सीटें जीती थीं। लेकिन तब से हालात बदले हैं। सिंगुर और नंदीग्राम जैसी घटनाएं उसके बाद हुई हैं और विपक्ष भी काफी हद तक एकजुट नजर आ रहा है।
कांग्रेस ने पिछली बार छह सीटें जीती थीं। इनमें से सभी सीटें उत्तर बंगाल में हैं। वहां दार्जिलिंग सीट पर तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का हाथ पकड़ कर मैदान में उतरे भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत की जीत तो कमोबेश तय ही है। यानी कांग्रेस की यह सीट तो हाथ से निकली ही है। इस कमी को पार्टी मालदा में पूरा करने का प्रयास कर रही है। पहले मालदा में एक ही सीट थी। लेकिन परिसीमन के बाद वहां दो सीटें बन गई हैं। पार्टी की अंतरकलह और गुटबाजी के बावजूद पार्टी को उन दोनों सीटों पर जीत की उम्मीद है। इसी तरह माकपा को राजधानी कोलकाता में एक सीट का नुकसान होने वाला है। कोलकाता में पहले तीन सीटें थीं। पिछली बार उनमें से एक पर ममता बनर्जी जीती थी और बाकी दो माकपा की झोली में गई थीं। लेकिन परिसीमन के बाद दो ही सीटें रह गई हैं। इनमें से कोलकाता दक्षिण सीट ममता की पारंपरिक सीट रही है। परिसीमन से उलझे समीकरणों के बावजूद कोई वामपंथी नेता ममता की हार का दावा करने का तैयार नहीं है। कोलकाता उत्तर सीट पर कांटे की टक्कर रही। यहां जीत-हार का अंतर काफी कम रहने की उम्मीद है।
लंबे अरसे बाद कांग्रेस व तृणमूल ने इन चुनावों में एक बार फिर एक-दूसरे का हाथ थामा था। अगर नतीजे उसके पक्ष में रहते हैं तो राज्य की भावी राजनीति में इस गठबंधन की अहम भूमिका हो सकती है। अगले साल राज्य में नगरनिगम व नगपालिका चुनाव होने हैं। हर विधानसभा चुनाव के साल भर पहले होने वाले इन चुनावों को राज्य में मिनी चुनाव कहा जाता है। उसके बाद 2011 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
वाममोर्चा के पिछली बार बंगाल की 42 में से 35 सीटें मिली थीं। मोर्चे के नेता अबकी केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाने और उसमें शामिल होने के लिए सक्रिय हैं। लेकिन यहां अपने किले में लगने वाली कोई भी बड़ी सेंध उसके इस प्रयास पर पानी फेर सकती है। इसलिए नतीजों से पहले मोर्चा खासकर माकपा के नेताओं ने भी अपने ओठ सिल रखे हैं।
(यह रिपोर्ट 16 मई को जनसत्ता में पहले पेज पर बॉटम के तौर पर छपी थी. उसी दिन चुनाव का नतीजा सामने आना था.नतीजों से साफ हो गया कि बंगाल में लाल किले की दीवारें दरक गई हैं.)

अब अंतिम दौर में साख की लड़ाई

कोलकाता, 10 मई। पश्चिम बंगाल में 13 मई को अंतिम दौर में होने वाले मतदान के लिए वाममोर्चा और कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठबंध की लड़ाई अब गांवों से निकल कर शहरों तक सिमट आई है। आखिरी दौर में ही ममता बनर्जी और मोहम्मद सलीम समेत कई दिग्गज मैदान में हैं। दोनों प्रमुख गठबंधनों में दलों ने अब शहरी वोटरों को लुभाने की होड़ मच गई है। पहले दो दौर के मतदान में अस्सी फीसद वोट पड़ने से चिंतित माकपा ने ममता को उनके दक्षिण कोलकाता संसदीय क्षेत्र में घेरने के लिए अपने स्टार प्रचारक मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य समेत पोलितब्यूरो के आधा दर्जन सदस्यों को मैदान में उतार दिया है।
इस अंतिम दौर से पहले दोनों गठबंधनों ने एक-दूसरे पर हमले तेज कर दिए हैं। परिसीमन के बाद महानगर में सीटों की तादाद तीन से घट कर दो रह गई है। इनमें से एक यानी दक्षिण कोलकाता ममता की पारंपरिक सीट है तो कोलकाता उत्तर संसदीय सीट पर माकपा के मोहम्मद सलीम जीत का दावा करते फिर रहे हैं। माकपा नेतृत्व तीसरे दौर की इन 11 सीटों पर खास ध्यान दे रहा है। पार्टी का एक तबका पहले दो दौर में अस्सी फीसद मतदान से चिंतित है। उसका मानना है कि इतना भारी मतदान आमतौर पर सत्ताविरोधी रुझान की वजह से ही होता है। हालांकि वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों में भी भारी मतदान हुआ था और तब वाममोर्चा को रिकार्ड सीटें मिली थीं। लेकिन तब और अब की राजनीतिक परिस्थिति में अंतर है। उस समय विपक्ष बिखरा था और अबकी कांग्रेस और तृणमूल एक साथ चुनाव लड़ रहे हैं। यही वजह है कि दमदम और बारासात जैसी सीटों पर माकपा जीत के लिए भाजपा की ओर ताक रही है।
तीसरे दौर में भी किसी दल के पास कोई मुद्दा नहीं है। हकीकत तो यह है कि बंगाल में अबकी लोकसभा चुनाव में कोई ठोस मुद्दा ही नहीं उभरा। खेती और उद्योग जैसे मुद्दे तो बीते विधानसभा चुनावों से ही चल रहे हैं। अबकी भी तमाम दलों के लिए यही मुद्दा रहा। अब नंदीग्राम में चुनाव बाद होने वाली हिंसा को कोलकाता में मुद्दा बनाने का प्रयास हो रहा है। लेकिन कोलकाता के वोटरों पर नंदीग्राम का क्या व कितना असर होगा, यह कहना मुश्किल है।
अंतिम दौर में दोनों गठबंधनों के बीच महज सीटों की ही नहीं, बल्कि साख की लड़ाई भी है। इस दौर के मतदान और उसके नतीजों से ही तय होगा कि शहरी लोग आखिर उद्योग और जमीन अधिग्रहण जैसे मुद्दों पर क्या राय रखते हैं। ममता बनर्जी, मोहम्मद सलीम और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के इलाके यादवपुर से मैदान में उतरे सुजन चक्रवर्ती के अलावा डायमंड हार्बर संसदीय सीट से किस्मत आजमा रहे प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सोमेन मित्र जैसे दिग्गज इसी दौर में हैं। यादवपुर नामक विधानसभा सीट से ही मुख्यमंत्री जीतते रहे हैं। इसी नाम से संसदीय सीट भी है। वहां तृणमूल ने गायक कबीर सुमन को मैदान में उतारा है। मुख्यमंत्री का इलाका होने की वजह से इस सीट पर माकपा खास जोर दे रही है। लेकिन दक्षिण कोलकाता में तो पार्टी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। इलाके में पार्टी के चुनाव अभियान में पोलितब्यूरो के आधा दर्जन सदस्य मैदान में उतर पड़े हैं। इनमें महासचिव प्रकाश कारत, वृंदा कारत, सीताराम येचुरी, वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उद्योग मंत्री निरुपम सेन शामिल हैं।
माकपा की इस कवायद से साफ है कि वह शहरी क्षेत्र के मतदाताओं पर अपनी पकड़ मजबूत करने के प्रति काफी गंभीर है। कोलकाता और आसपास के इलाकों पर पहले तृणमूल की पकड़ काफी मजबूत थी। लेकिन बीते विधानसभा चुनावों में माकपा को इन इलाकों में खासी कामयाबी मिली थी। अंतिम दौर में वह जहां अपनी उस पकड़ को और मजबूत बनाने का प्रयास कर रही है, वहीं तृणमूल कांग्रेस शहरी वोटरों को दोबारा अपने खेमे में खींचने का प्रयास कर रही है। इसलिए पार्टी ने बदलाव का नारा दिया है। लेकिन माकपा के एक नेता कहते हैं कि अंतिम दौर में कुछ नहीं बदलेगा। कोलकाता दक्षिण के अलावा बाकी सभी सीटों पर वाममोर्चा उम्मीदवारों की जीत लगभग तय है।

बंगाल में चढ़ते पारे ने गिराया चुनावी तापमान

कोलकाता, 25 अप्रैल। पश्चिम बंगाल में बीते सप्ताह से लगातार चढ़ते पारे ने कोलकाता और दक्षिण बंगाल के विभिन्न जिलों में चुनावी बुखार को काफी हद तक उतार दिया है। लगातार कड़ी धूप और गर्म हवा के थपेड़ों ने उम्मीदवारों और चुनाव प्रचार में जुटे कार्यकर्ताओं का घरों से निकलना मुहाल कर दिया है। पहले जहां सुबह से देर रात तक विभिन्न राजनीतिक दलों के जो उम्मीदवार और कार्यकर्ता चुनावी रैलियों और पदयात्राओं में व्यस्त नजर आ रहे थे, अब सुबह 11 बजते न बजते घरों और चुनावी कार्यालयों तक सिमट जाते हैं। उसके बाद लगभग सूर्यास्त के समय ही चुनाव अभियान का दूसरा दौर शुरू होता है। लगातार बढ़ती गर्मी ने कार्यकर्ताओं से लेकर उम्मीदवारों तक, सबका जोश ठंडा कर दिया है। बीते सप्ताह से अचानक बदले मौसम ने उम्मीदवारों को अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव पर मजबूर कर दिया है। मौसम विभाग की भविष्यवाणी ने इन उम्मीदवारों की दुश्चिता और बढ़ा दी है। विभाग ने अभी दो-तीन दिनों तक हालत में कोई बदलाव नहीं होने की बात कही है।
महानगर कोलकाता में अप्रैल के महीने में बीते एक दशक में कभी इतनी गर्मी नहीं पड़ी थी। यहां पारा लगातार 40 से 42 डिग्री सेंटीग्रेड तक बना हुआ है। दक्षिण बंगाल के बाकी जिलों खासकर बांकुड़ा, पुरुलिया और पूर्व व पश्चिम मेदिनीपुर की हालत तो और बुरी है। वहां तापमान 44 से 45 डिग्री के बीच है। ऐसे में उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार में पसीने छूट रहे हैं। मतदान की तारीख नजदीक आने के साथ चुनाव प्रचार में तेजी आने की बजाय गर्मी के चलते सुस्ती आ गई है। उम्मीदवारों ने गर्मी से बचने के लिए अपने खान-पान और जीवनशैली में बदलाव किए हैं। बावजूद इसके तापमान के 40 या उससे ऊपर पहुंचते ही उनकी हिम्मत जवाब दे रही है। कड़ी धूप के साथ पूरे दिन चलने वाले गर्म हवाओं के थपेड़ों ने टोपी और छाते जैसे धूप से बचने के पारंपरिक उपायों को भी बेअसर कर दिया है।

माकपा का किला रहे नंदीग्राम में आंतक व सन्नाटे का राज

कोलकाता, 5 मई। तीन दशकों तक माकपा का सबसे मजबूत गढ़ रहे नंदीग्राम में लोकसभा चुनावों के पहले आतंक व खामोशी है। जमीन अधिग्रहण के सवाल पर हिंसा का पर्याय बन चुका यह कस्बा अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लंबे अरसे तक लाल परचम फहराने वाले नंदीग्राम के सोनाचूड़ा समेत विभिन्न इलाकों में अबकी कहीं एक लाल झंडा तक नजर नहीं आता। सही मायने में राज्य में यही सीट माकपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच साख व नाक का सवाल बन गई है। तमलुक संसदीय सीट के तहत पड़ने वाले इस इलाके से अबकी भी माकपा के विवादास्पद सांसद लक्ष्मण सेठ मैदान में हैं। उनका मुकाबला तृणमूल कांग्रेस के शुभेंदु अधिकारी से है। इस सीट पर दूसरे दौर में सात मई को मतदान होना है। यह राज्य की उन गिनी-चुनी सीटों में है जहां परिसीमन का कोई खास असर नहीं पड़ा है। बीते साल हुए पंचायत चुनावों और उसके बाद नंदीग्राम विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में लोगों ने तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था। अब सेठ के सामने सबसे बड़ी चुनौती वोटरों को दोबारा माकपा के खेमे में खींचने की है।
क्या सेठ इस चुनौती पर खरे उतरेंगे ? इस सवाल का जवाब शायद सेठ को भी पता नहीं है। सेठ को पता हो या नहीं, लेकिन हकीकत यह है कि उनके ही एक विवादस्पद फैसले के चलते नंदीग्राम में आंदोलन की चिंगारी भड़की थी जो आगे चल कर शोले के रूप में बदल गई। लक्ष्मण सेठ की उस हरकत के चलते ही अबकी पार्टी का एक बड़ा खेमा उनकी उममीदवारी के खिलाफ था। बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व ने उनको एक और मौका देने का फैसला किया। नंदीग्राम के लोग दो साल पहले 14 मार्च को हुई पुलिस फायरिंग और उसके बाद माकपा काडरों की ओर से इलाके के पुनर्दखल के दौरान हुई हिंसा के सदमे से अब तक पूरी तरह नहीं उबर सके हैं। पुलिस फायरिंग में अपना बेटा खोने वाले पूर्व माकपा समर्थक धनंजय मंडल कहते हैं कि हम माकपा को कभी माफ नहीं कर सकते। बुद्धदेव सरकार की पुलिस ने मेरे बेटे को बेवजह मार डाला। उनके बड़े भाई पुलिस मंडल का बेटा भी उस फायरिंग में मारा गया था।
इस सीट के दोनों दावेदारों का बहुत कुछ यहां दांव पर लगा है। जीत की स्थिति में माकपा राज्य सरकार की औद्योगिकी नीतियों को सही ठहराते हुए यह साबित कर सकती है कि विपक्ष ने राज्य की प्रगति का राह में रोड़ा अटकाने के लिए जानबूझ कर इलाके में आंदोलन की चिंगारी को हवा दी थी। दूसरी ओर, तृणमूल की जीत से इलाके में राज्य सरकार प्रायोजित आतंकवाद के अपने पुराने आरोप को सही साबित कर सकती है।
तमलुक सीट पर जीत की हैट्रिक बना चुके लक्ष्मण सेठ और उनकी पार्टी को भरोसा है कि लोकसभा चुनावों पर नंदीग्राम की प्रेत छाया नहीं पड़ेगी और वे अपनी सीट बचाने में कामयाब रहेंगे। वे कहते हैं कि हम तो यहां पेट्रोकेमिल हब बनाना चाहते थे ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार मिले। लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने जानबूझ कर उसके खिलाफ गांव वालों को भड़का कर आंदोलन शुरू कर दिया। उसके बाद ही हिंसा फैली। सेठ का दावा है कि लोग तृणमूल को वोट नहीं देंगे। दूसरी ओर, इस सीट पर तृणमूल के उम्मीदवार शुभेंदु अदिकारी, जो तृणमूल के विधायक हैं, कहते हैं कि जीतने पर इलाके के सामाजिक ढांचे में सुधार उनकी पहली प्राथमिकता होगी। इसके अलावा वे संसद में नंदीग्राम का मुद्दा उठा कर 14 मार्च की फायरिंग के लिए जिमेमवार लोगों को सजा दिए जाने की मांग करेंगे।
परिसीमन में पश्चिम पांशकुड़ा विधानसभा सीट घाटाल संसदीय क्षेत्र में चली गई है। लेकिन हल्दिया, पूर्व पांशकुड़ा और मोयना अब भी माकपा का मजबूत गढ़ है। तृणमूल को नंदीग्राम विधानसभा सीट से बढ़त मिलने की उम्मीद है। शुभेंदु अधिकारी नंदीग्राम के लोगों के गुस्से को वोटों में बदलने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहे हैं। कांथी स्थिति अपने केंद्रीय चुनावी कार्यालय के अलावा उन्होंने दूरदराज के इलाकों में भी अपने दफ्तर खोल रखे हैं। लोग वहां जाकर अपनी समस्याएं बता सकते हैं और कहीं फोन भी कर सकते हैं। वैसे, इलाके के लोगों में आतंक अब भी कम नहीं हुआ है। चुनावों के बाद उनको एक बार हिंसा की आशंका है। लोग नाम नहीं बताने की शर्त पर कहते हैं कि यहां मुक्त व निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है। जहां जिसका जोर चलेगा, वहां उसी के पक्ष में वोट पड़ेंगे। माकपा व तृणमूल दोनों ने एक-दूसरे पर वोटरों को धमकाने के आरोप लगाए हैं। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में तमलुक सीट पर सेठ को 48.99 और अधिकारी को 43.45 फीसद वोट मिले थे। तब कांग्रेस के सुदर्शन पांजा को 3.36 फीसद वोट मिले थे। अब तालमेल के चलते उन वोटों का ज्यादातर हिस्सा तृणमूल को ही मिलेग।

लेकिन सिंगुर में मुद्दा नहीं है लखटकिया

सिंगुर (हुगली), 3 मई। पश्चिम बंगाल के बाकी इलाकों में अबकी लोकसभा चुनाव भले नैनो के मुद्दे पर लड़ा जा रहा हो, टाटा मोटर्स की यह लखटकिया उस सिंगुर में ही मुद्दा नहीं है जहां इसका उत्पादन होना था। सुन कर आश्चर्य जरूर हो सकता है, लेकिन यही हकीकत है। नैनो और सिंगुर के एक-दूसरे का पर्याय बनने के बावजूद इलाके में नैनो नहीं बल्कि खेती बनाम विकास ही सबसे प्रमुख चुनावी मुद्दा है। इलाके के लोगों की खामोशी ने नैनो परियोजना को अपने-अपने पक्ष में भुनाने के प्रयास करने वाली माकपा और तृणमूल कांग्रेस, दोनों को असमंजस में डाल दिया है। इलाके की सीटों पर दूसरे दौर में सात मई को मतदान होना है।
सिंगुर इलाके में दोनों राजनैतिक दल-माकपा और कांग्रेस नैनो को भुनाने का प्रयास कर रहे हैं। माकपा टाटा परियोजना के इलाके से जाने के मुद्दे पर तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी को उद्योगविरोधी बताने का प्रयास कर रही है। लेकिन तृणमूल इस बात का प्रचार कर रही है कि अगर राज्य सरकार ने राजभवन में हुए समझौते का उल्लंघन नहीं किया होता तो सिंगुर का सपना नहीं टूटता। इलाके में चुनावों की खास गहमा-गहमी नहीं है। दूसरे इलाकों की तरह यहां पोस्टर-बैनर भी नहीं नजर आते। जमीन अधिग्रहण के खिलाफ ममता की अगुवाई में जोरदार आंदोलन के जरिए दुनिया भर में सुर्खियां बटोरने वाले स्थानीय किसानों की अब इस परियोजना में दिलचस्पी लगता है खत्म हो चुकी है।
दरअसल, इस खामोशी की एक ठोस वजह भी है। परिसीमन ने दूसरे इलाकों की तरह सिंगुर के समीकरण भी बदल दिए हैं। इलाके में अधिग्रहणविरोधी आंदोलन की धुरी रहे कमारकुंडू, गोपालनगर व दोलुईगाछा ग्राम पंचायतों को हुगली संसदीय सीट से निकाल कर आरामबाग सीट के तहत शामिल कर दिया गया है। इससे इलाके में तृणमूल कांग्रेस के आंदोलन की हवा निकल गई है। परिसीमन के पहले बीते साल हुए पंचायत चुनावों में माकपा को पटखनी देते हुए तृणमूल ने इलाके की 16 में से 15 पंचायतों पर कब्जा कर लिया था।
अब जिन तीनों ग्राम पंचायतों के तहत सिंगुर परियोजना लगनी थी, वहां के लोग भी कहते हैं कि गतिरोध दूर कर टाटा मोटर्स को यहां परियोजना लगाने की अनुमति दी जानी चाहिए। बेराबाड़ी के गौतम सामंत, जिन्होंने नैनो परियोजना के लिए अपनी जमीन दी थी, कहते हैं कि हमें अब भी टाटा की वापसी की उम्मीद है। शायद चुनावों के बाद यह समस्या दूर हो जाए। वे कहते हैं कि परियोजना शुरू होने पर कम से कम छह हजार लोगों को रोजगार मिलता। आंदोलन वाले इलाकों के माकपा के गढ़ आरामबाग में शामिल होने के बाद लोग परियोजना के पक्ष में गोलबंद होने लगे हैं। लोगों का मूड भांप कर ही अब तृणमूल ने भी अपनी रणनीति में बदलाव लाते हुए खेती, रोजगार और उद्योगों की जरूरत पर जोर देते हुए नए पोस्टर लगाए हैं। आंदोलन खत्म होने के बाद ममता बनर्जी समेत तृणमूल का कोई भी बड़ा नेता इलाके में चुनाव प्रचार करने नहीं आया है।
माकपा उम्मीदवार इस मौके का फायदा उटाने में जुटे हैं। हुगली के पार्टी उम्मीदवार रूपचंद पाल और आरामबाग के शक्तिमोहन मल्लिक अपने अभियान में लोगों से वादा कर रहे हैं कि चुनाव बाद वे टाटा मोटर्स को दोबारा सिंगुर ले आएंगे। इसके लिए वे परियोजना स्थल की जमीन की लीज के करार के नवीनीकरण का हवाला दे रहे हैं। टाटा ने हाल में एक साल के लिए यह लीज बढ़ाई है। दूसरी ओर, हुगली की तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार रत्ना दे नाग भी उद्योगों की जरूरत पर जोर देते हुए कहती है कि सिंगुर में नए उद्योग लगने चाहिए। लेकिन इसके लिए सरकार को पहले एक ठोस नीति बनानी चाहिए। आरामबाग के कांग्रेस उम्मीदवार शंभुनाथ मल्लिक भी रत्ना का समर्थन करते हुए कहते हैं कि इलाके में कोई उद्योग नहीं है। यहां टाटा जैसे बड़े घरानों की जरूरत है। लेकिन सरकार को उद्योगों के लिए जमीन देने वाले किसानों की समस्या का भी ध्यान रखना चाहिए।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि टाटा मोटर्स के इलाके से कामकाज समेटने और परिसीमन के चलते संसदीय क्षेत्र का भूगोल बदलने के बाद तमाम दलों के समीकरण गड़बड़ा गए हैं। यही वजह है कि अब यहां मुद्दा नैनो नहीं बल्कि खेती बनाम विकास है।

बंगाल में पहले दौर में तो दागी व बागी ही भारी

कोलकाता, 29 अप्रैल। पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 14 सीटों के लिए गुरुवार को होने वाले मतदान के पहले दौर में तो दागी और बागी उम्मीदवारों का ही बहुमत है। इस दौर में दागी उम्मीदवारों को उतारने के मामले में बंगाल ने देश के बाकी तमाम राज्यों को पीछे छोड दिया है। 14 सीटों के लिए किस्मत आजमा रहे 134 उम्मीदवारों में दो दर्जन दागी हैं। यानी कुल 18 फीसद, जबकि राष्ट्रीय औसत 17 फीसद है। दागियों के अलावा बागी भी इस दौर में निर्णायक साबित हो सकते हैं। इन 24 लोगों में से 14 तो तृणमूल कांग्रेस, फारवर्ड ब्लाक, कांग्रेस, बसपा, भाजपा और झामुमो जैसे पंजीकृत दलों के हैं और बाकी 10 निर्दलीय के तौर पर मैदान में हैं। इनमें से चार को तो सजा भी हो चुकी है। दागियों के मामले में बंगाल जहां राष्ट्रीय औसत से आगे है, वहीं पढ़े-लिखे उम्मीदवारों के मामले में यह उससे पीछे है। देश में ग्रेजुएट उम्मीदवारों का औसत 60 फीसद है, लेकिन बंगाल में यह 55 फीसद ही है।
चुनावों पर नजर रखने वाले गैर-सरकारी व सामाजिक संगठनों के साझा मंच नेशनल इलेक्शन वाच की राज्य शाखा ने दागी उम्मीदवारों के आंकड़े जुटाए हैं। बंगाल शाखा के अध्यक्ष जनरल शंकर राय चौधरी कहते हैं कि हमने तमाम उम्मीदवारों की ओर से दायर हलफनामे के आधार पर उक्त आंकड़े जुटाए हैं। हम लोगों को उम्मीदवारों के हर पक्ष से परिचित कराना चाहते हैं ताकि उनको सही-गलत का चुनाव करने में सहूलियत हो। संगठन ने इन 14 लोकसभा क्षेत्रों के तमाम स्कूलों व कालेजों को पत्र भेज कर पहली बार वोट देने वाले मतदाताओं को इन तथ्यों से अवगता कराने की अपील की है।
दागी उम्मीदवार उतारने के मामले में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) पहले नंबर पर है। उसने सात ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। उसके बाद दो-दो उम्मीदवारों के साथ भाजपा व मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का नंबर है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा की घटक फारवर्ड ब्लाक की ओर से ऐसे एक-एक उम्मीदवार मैदान में हैं।
शंकर राय चौधरी कहते हैं कि लगभग सभी दलों ने आपराधिक रिकार्ड वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया है। उत्तर बंगाल की जलपाईगुड़ी, रायगंज व कूचबिहार सीटों पर तो तीन-तीन दागी उम्मीदवार हैं। 24 दागी उम्मीदवारों पर हत्या, अपहरण और जबरन वसूली के कुल 45 मामले हैं।
पहले दौर के उम्मीदवारों में से सात की संपत्ति एक करोड़ या उससे ज्यादा है। लेकिन उससे भी अचरज की बात यह है कि नौ उम्मीदवारों ने अपने हलफनामे में कहा है कि उके पास कोई संपत्ति ही नहीं है। बारह उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी संपत्ति 50 लाख से एक करोड़ के बीच है। कुल उम्मीदवारों में से 44 फीसद के पास या तो पैन (परमानेंट अकाउंट नंबर) नहीं है या फिर उन्होंने हलफनामे में इसका ब्योरा नहीं दिया है।
पहले दौर के मतदान में अगर दागी भारी पड़ रहे हैं तो बागी भी उनसे पीछे नहीं हैं। 14 में से ज्यादातर सीटों पर उम्मीदवारों की हार-जीत में इन बागियों की अहम भूमिका रहने की संभावना है। अलीपुरद्वार संसदीय सीट पर आरएसपी ने अपने सांसद जोयाकिम बाकला का टिकट काटकर पीडब्ल्यूडी राज्य मंत्री मनोहर तिर्की को मैदान में उतारा है। इससे नाराज बाकला आरएसपी से इस्तीफा देकर निर्दलीय ही चुनाव लड़ रहे हैं। उनके साथ सैकड़ों समर्थकों ने भी पार्टी छोड़ दी है। अलीपुरदुआर से लगी कूचबिहार संसदीय सीट पर भी फारवर्ड ब्लाक से हितेन बर्मन को निकाले जाने की वजह से बगावत की स्थिति है। पार्टी का एक बड़ा तबका इससे नाराज है। हितेन बर्मन का टिकट कटने के बाद से अब तक सौ से अधिक समर्थकों ने पार्टी से नाता तोड़ लिया है। रायगंज सीट पर उत्तर दिनाजपुर के तृणमूल कांग्रेस जिला अध्यक्ष अब्दुल करीम चौधरी बागी उम्मीदवार के तौर पर मैदान में हैं। उनको इस सीट पर पार्टी की ओर टिकट मिलने की उम्मीद थी, लेकिन तालमेल के तहत यह सीट कांग्रेस की झोली में चली गई। इससे नाराज अब्दुल करीम चौधरी ने तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व से बगावत करते हुए अपनी उत्तर बंगाल विकासगामी पार्टी बना ली है और निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं। यहां से केंद्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी के बदले कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही दीपा दासमुंशी को चौधरी की बगावत भारी पड़ सकती है। उससे सटी बालूरघाट सीट पर भी आरएसपी का उम्मीदवार बदलने की वजह से बगावत की हालत है। यह तो हुई प्रमुख सीटों की बात। इनके अलावा भी कई सीटें बगावत की चपेट में हैं। यानी बंगाल में पहले दौर के मतदान में दागी और बागी उम्मीदवार ही सब पर भारी पड़ रहे हैं।

बालूचरी साड़ियों के गढ़ में मुकाबला महिलाओं के बीच

कोलकाता, 29 अप्रैल। झारखंड से सटे माओवाद प्रभावित बांकुड़ा जिले में बालूचरी साड़ियों और टेराकोटा के मंदिरों के लिए दुनिया भर में मशहूर विष्णुपुर (सुरक्षित) संसदीय सीट के लिए अबकी दो महिलाओं के बीच सीधी जंग है। माकपा ने जिन दो महिलाओं को टिकट दिया है उनमें से एक सुष्मिता बाउरी इसी सीट से मैदान में हैं। वे पिछली बार भी चुनाव जीती थी। उनके मुकाबले तृणमूल कांग्रेस ने भी यहां एक महिला सिउली साहा को मैदान में उतारा है। दोनों महिलाओं की यह जंग काफी दिलचस्प हो गई है। बंगाल में पहले चरण में जिन 14 सीटों के लिए वोट पड़ेंगे उनमें विष्णुपुर भी शामिल है।
सिंचाई की सुविधाओं व आधारभूत ढांचे की कमी और पिछड़ेपन से जूझ रहे विष्णुपुर में अबकी माकपा ने चौतरफा विकास, औद्योगिकीकरण व हर पंचायत में सिंचाई की सुविधा मुहैया कराने को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है तो तृणमूल कांग्रेस ने संसदीय क्षेत्र के जयपुर व कोटुलपुर समेत विभिन्न इलाकों में माकपा के कथित अत्याचार को। सिउली साहा नंदीग्राम की रहने वाली है। उन्होंने विष्णुपुर के बालूचरी साड़ी बुनकरों की उपेक्षा और दयनीय हालत को भी अपना मुद्दा बनाया है। साहा का आरोप है कि पांच साल के अपने कार्यकाल के दौरान माकपा सांसद इस हेरिटेज शहर को पर्यटन के नक्शे पर लाने में नाकाम रही हैं।
परिसीमन के बाद तालडांगरा, रायपुर और रानीबांध विधानसभा क्षेत्र इस इलाके से हटा कर बांकुड़ा संसदीय क्षेत्र में शामिल कर दिए गए हैं। इंदपुर विधानसभा क्षेत्र का तो वजूद ही खत्म हो गया है। विष्णुपुर में चार नए विधानसभा इलाके शामिल किए गए हैं। सिउली लोगों से नंदीग्राम और दूसरे इलाकों में माकपा काडरों के कथित अत्याचारों का हवाला देते हुए बदलाव के लिए वोट मांग रही हैं। उनका आरोप है कि विष्णुपुर के कोटूलपुर और सोनामुखी विधानसभा क्षेत्रों में काडरों का अत्याचार अब भी जस का तस है। उन्हौंने बांकुड़ा के जिलाशासक व पुलिस अधीक्षक से इसकी शिकायत भी की है। साहा ने चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों से मिल कर कहा है कि माकपा के लोग मोटरसाइकोंल पर गांव-गांव घूम कर तृणमूल के समर्थकों व आम लोगों को धमका रहे हैं।
लेकिन माकपा ने उनके इस आरोप को निराधार करार दिया है। बांकुड़ा जिला माकपा के सचिव अमिय पात्र कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस जानती है कि वह विष्णुपुर में मुकबले में ही नहीं है। सुष्मिता को हराना तो दूर वह उसके आसपास भी नहीं फटक सकती। इसलिए वह बेसिर-पैर के आरोप लगा रही है।
माकपा उम्मीदवार सुष्मिता बाउरी कहती है कि वे इलाके के वोटरों के लिए नई नहीं हैं। लोगों ने इस सीट पर उनकी मां संध्या बाउरी को लगातार तीन बार जिताया है। वे मानती हैं कि इलाके में सिंचाई व पीने के पानी की समस्या है। लेकिन जल्दी ही उनको दूर करने का वादा करती हैं। बाउरी का कहना है कि इस इलाके के गांवों में खासकर महिलाएं अब भी सामाजिक न्याय से वंचित हैं। समुचित शिक्षा-दीक्षा के अभाव में लोग अंधविश्वास के चक्कर में पड़ जाते हैं। उनका आरोप है कि विपक्ष विष्णुपुर जैसे शांत इलाके को अस्थिर बनाने का प्रयास कर रहा है। लेकिन लोग उसे खारिज कर देंगे।
दूसरी ओर, तृणमूल की सिउली साहा कहती है कि माकपा मेरे बाहरी होने का प्रचार कर रही है। मैं तो यहां की बहू हूं। लेकिन सुष्मिता बाउरी भी तो बांकुड़ा में रहती है जो दूसरे संसदीय क्षेत्र में है। साहा कहती है कि विष्णुपुर अपनी बालूचरी साड़ियों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। लेकिन माकपा सांसद ने बीते पांच सालों के दौरान साड़ी बुनकरों की दशा सुधारने की दिशा में कोई पहल नहीं की है। यहां पर्यटन को बढ़ावा देने के सवाल पर भी वे खामोश रही हैं। अब माकपा के काडर इलाके में वोटरों को आंतिकत करने का प्रयास कर रहे हैं।
दोनों महिलाओं की इस जंग में जीत का सेहरा किसके माथे बंधता है, इसका फैसला तो आगे चल कर होगा। लेकिन यह जंग काफी दिलचस्प मुकाम तक पहुंच गई है।

बागी व भितरघाती ही बने सबसे बड़ा खतरा

कोलकाता,29 अप्रैल। पश्चिम बंगाल में 30 अप्रैल को पहले चरण के दौरान जिन 14 लोकसभा सीटों पर वोट पड़ेंगे, उनमें से आठ उत्तर बंगाल में हैं। उन आठों सीटों पर मैदान में उतरे उम्मीदवारों के लिए भितरघाती ही सबसे बड़े खतरे के तौर पर उभरे हैं। वामपंथी दलों के अलावा कांग्रेस और भाजपा भी इन भितरघातियों से अछूती नहीं हैं। ऐसे में लगभग सभी सीटों पर वजनी उम्मीदवारों को भी दूसरे मुद्दों के अलावा अपने लोगों की बगावत व भितराघात से भी जूझना पड़ रहा है। अबकी इन आठ सीटों पर भितरघाती ही अहम भूमिका निभाएंगे।
इन सीटों पर जिनको टिकट मिला वे तो कड़ी धूप में अपना पसीना बहाते हुए चुनाव प्रचार में जुटे हैं, लेकिन जिनको टिकट नहीं मिला उनमें काफी नाराजगी है और वे पार्टी के उम्मीदवार को चुनाव में मजा चखाने पर तुले हुए हैं। कुछ तो खुलकर अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ हो गये हैं। मालदा कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। इस सीट पर शुरू से ही एबीए गनी खान चौधरी परिवार का कब्जा रहा है। इस बार परिसीमन के चलते मालदा जिले में दो सीटें हो गई हैं-दक्षिण मालदा व उत्तर मालदा। उत्तर मालदा सीट पर कांग्रेस ने सुजापुर की विधायक मौसम बेनजीर नूर को उम्मीदवार बनाया है। मौसम नूर एबीए गनी खान चौधरी की भांजी हैं। इस सीट पर एबीए गनी खान चौधरी के छोटे भाई अबू नासेर खान कांग्रेस का टिकट मांग रहे थे, मगर उनकी राह में दोहरी नागरिकता का मामला रोड़ा बन गया। इससे उनके समर्थक नाराज हो गए और यहां तक एलान कर दिया कि मौसम नूर को चुनाव प्रचार तक करने नहीं देंगे। अब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने यह विवाद भले ही सुलझा दिया है, फिर भी 'हाथ मिला है दिल नहीं' की स्थिति बरकरार है और नासेर खान के समर्थक भितरघात में जुटे हुए हैं।
है। इस भितरघात का असर दक्षिण मालदा में भी नजर रहा है, क्योंकि इस सीट पर भी एबीए गनी खान चौधरी एक अन्य छोटे भाई अबु हासेम खान चौधरी चुनाव लड़ रहे हैं। रायगंज लोकसभा क्षेत्र में भी यही स्थिति है। यहां तृणमूल कांग्रेस से गठबंधन के चलते ही कांग्रेस में भितरघात की शुरूआत पड़ी है। ऐसे में रायगंज में दीपा को बगावत और भितरघात का सामना करना पड़ रहा है।
दक्षिण दिनाजपुर जिले की बांग्लादेश से लगी बालुरघाट संसदीय सीट पर भी माकपा व आरएसपी में अंत‌र्द्वंद है। बीते साल हुए पंचायत चुनाव के दौरान दोनों दलों में झड़प भी हुई थी, जिसमें आरएसपी के पंचायत अध्यक्ष जेड रहमान समेत कई नेता घायल हुए थे। उसका भी असर इलाके में वाममोर्चा के अभियान पर नजर आ रहा है।
जलपाईगुड़ी संसदीय क्षेत्र में भी कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस में मतभेद है। यहां कांग्रेस उम्मीदवार सुखविलास बर्मन के चुनाव अभियान को तृणमूल कांग्रेस का समर्थ नहीं मिल रहा है। इसी तरह आपसी मतभेद के बाद कामतापुर प्रोग्रेसिव पार्टी व कामतापुर पीपुल्स पार्टी ने अपने अलग-अलग उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। कामतापुर पीपुल्स पार्टी के समर्थन से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने नीरेंद्र नाथ दास को अपना उम्मीदवार बनाया है जबकि कामतापुर प्रोग्रेसिव पार्टी के उम्मीदवार हैं पृथ्वीराज राय। लंबे समय से एकजुट होकर कामतापुर राज्य व भाषा की मांग करते आ रहे इन दलों के मतभेद का फायदा विपक्ष को मिलना तय है।
जलपाईगुड़ी जिले में असम व भूटान की सीमा से सटी इसी सीट पर तृणमूल कांग्रेस का एक खेमा अ‌र्घ्य राय को टिकट देने से नाराज चल रहा है, क्योंकि उनके पिता फारवर्ड ब्लाक समर्थक हैं।
दार्जिलिंग में जसंवत सिंह पर भी बाहरी होने का आरोप लग रहा है। भाजपा ने पहले इस सीट पर दावा शेरपा को अपना उम्मीदवार बनाया था। बाद में गोरखा मोर्चा से समझौता होने पर उसने जसवंत सिंह को मैदान में उतारा। इससे भाजपाई खेमे में नाराजगी है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि उत्तर बंगाल में हर पार्टी बागियों व भितरघातियों से परेशान है। कहीं कोई किसी का टिकट मिलने से परेशान है तो कहीं किसी का टिकट कटने से। ऐसे में इन आठ सीटों के चुनावी नतीजों में बागी और भितरघाती ही अहम भूमिका निभाएंगे।

डुआर्स में तो बंद चाय बागान ही सबसे बड़ा मुद्दा

कोलकाता, 8 अप्रैल। उत्तर बंगाल के डुआर्स इलाके में लंबे अरसे से बंद चाय बागान, सिर उभारता उग्रवाद और गोरखालैंड आंदोलन के खिलाफ आदिवासियों का प्रतिरोध ही प्रमुख चुनावी मुद्दे के तौर पर उभर रहे हैं। लेकिन इनमें से बंद बागान ही सबसे बड़ा मुद्दा है। जलपाईगुड़ी और अलीपुरदुआर संसदीय इलाके में यह मुद्दा निर्णायक साबित हो सकता है। यही वजह है कि तमाम दलों का चुनाव अभियान इसी धुरी पर केंद्रित है। तमाम उम्मीदवार चुनाव जीतते ही इन बंद बागानों को खुलवाने के लंबे-चौड़े दावे करते नजर आ रहे हैं।
जलपाईगुड़ी के डुआर्स इलाके में धीरे-धीरे बंद होते बागान अब चाय के पत्तों के साथ मजदूरों को भी लील रहे हैं। नुकसान के बहाने चार साल पहले बागानों में तालाबंदी का जो दौर शुरू हुआ था उसने अब तक सात सौ से ज्यादा मजदूरों की बलि ले ली है। इलाके में 14 बागान लंबे अरसे से बंद पड़े थे। इनमें से मुश्किल से एक बागान खोला गया है। लेकिन उसकी हालत भी ठीक नहीं है। जो बागान खुले हैं उनमें से भी एक तिहाई बीमार हैं। इलाके के तीन सौ में से लगभग सौ बागान बीमार हैं। उनमें मजदूरों को पूरी मजदूरी तक नहीं मिलती। तीन साल पहले लंबी हड़ताल के बाद न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर 47 रुपए की गई थी। पहले यह 45 रुपए थी। मजदूरी कम होने से मजदूरों में भारी असंतोष है। नतीजतन उन बागानों में मारपीट व हिंसा की घटनाएं अब आम ह¨ गई हैं। मजदूरों का आक्रोश जब-तब फूट पड़ता है। दूसरी ओर, बागान मालिकों की दलील है कि चाय उद्योग अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। ऐसे में मजदूरी बढ़ाना उनके लिए संभव नहीं है। बंद बागानों को छोड़ भी दें तो घिसटते हुए चलने वाले बागानों में भी मजदूरों को नियमित तौर पर राशन नहीं मिलता।
अब चाय बागानों में वोट मांगने जाने वाले उम्मीदवारों को मजदूरों के एक ही सवाल का सामना करना पड़ता है-क्या इस बार वोट देने से हमारा बागान खुल जाएगा? हर उम्मीदवार इसका जवाब हां में ही देता है। लेकिन अब मजदूरों का भरोसा तमाम राजनीतिक दलों से उठ चुका है। कालचीनी के पास रायमटांग चाय बागान के एक मजदूर सुरेश मुंडा कहते हैं कि इससे पहले बागान खुलवाने का वादा कर पंचायत और विधानसभा चुनाव में भी नेताओं ने हमसे वोट ले लिया। लेकिन बागान नहीं खुला। वह कहता है कि अबकी ज्यादातर मजदूरों ने वोट नहीं देने का फैसला किया है।
बंद बागानों में मजदूरों का हालत बेहद खऱाब है। बिजली और राशन तो बंद ही है, वहां पीने का साफ पानी तक मुहैया नहीं है। बागान का स्वास्थ्य केंद्र बहुत पहले बंद हो चुका है। नतीजतन छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज के लिए दूर-दराज स्थित कस्बे तक जाना पड़ता है। मजदूर किसी तरह बागान में बची-खुची पत्तियां तोड़ कर उनको किसी फैक्टरी में बेच कर अपना घर चला रहे हैं। ज्यादातर लोग बाहर दैनिक मजदूरी कर किसी तरह पेट पाल रहे हैं। भरपेट भोजन और साफ पानी के अभाव के चलते ज्यादातर मजदूर तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में हैं।
डुआर्स के मालबाजार ब्लाक के तहत योगेश चंद्र चाय बागान के मजदूरों ने चाय बागान की समस्याओं के समाधान की मांग में बुधवार से मालबाजार बस स्टैंड के पास अनशन पर बैठ गए हैं। नवबंर, 2007 में प्रबंध ने बिना किसी नोटिस के ही बागान में तालाबंदी का एलान कर दिया और बागान छोड़ कर चला गया। फिलहाल उस बागान में मजदूरों व कर्मचारियों समेत लगभग पांच हजार लोग रहते हैं। बागान में बिजली, राशन व पानी मुहैया नहीं है। प्रशासन से कई बार कहने के बावजूद जब समस्या का कोई समाधान नहीं नजर आया तो चुनाव से पहले मजदूरों ने अनशन करने का फैसला किया है।
इन दोनों (जलपाईगुड़ी व अलीपुरदुआर) संसदीय सीटों पर चाय मजदूरों के वोट निर्णायक हैं। इसलिए तमाम दलों ने अपने घोषणापत्रों में भी बंद बागान खुलवाने का वादा किया है। अलीपुरदुआर संसदीय सीट से आरएसपी उम्मीदवार मनोहर तिर्की भी मजदूरों से बंद बागान खुलवाने का वादा कर रहे हैं। वे मानते हैं कि लंबे अरसे से बागान बंद या बीमार होने की वजह सले विकट हालात में दिन काट रहे मजदूरों में भारी नाराजगी है। मनोहर कहते हैं कि चुनाव के बाद वे इन बागानों का मुद्दा केंद्र सरकार के समक्ष उठाएंगे। जलपाईगुड़ी संसदीय सीट के लिए मैदान में उतरे सुखविलास वर्मा भी यही बात दोहराते हैं।
इलाके में कामतापुरी लिबरेशन आर्गनाइजेशन (केएलओ) समेत माओवादी व कई अन्य उग्रवादी संगठन भी सक्रिय हैं। भूटान से लगी सीमा और घने जंगल की वजह से ऐसे संगठनों के लिए यह इलाका काफी मुफीद है। उल्फा समेत पूर्वोत्तर के कई उग्रवादी संगठन भी केएलओ की सहायता करते रहे हैं। इसके अलावा इलाके के आदिवासियों ने प्रस्तावित गोरखालैंड में डुआर्स इलाके को शामिल करने की मांग के विरोध में बड़े पैमाने पर आंदोलन छेड़ रखा है। इनके संगठन अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद ने लोकसभा चुनाव के बायकाट की अपील की है। मंगलवार को संगठन ने एक चाय बागान में अलीपुरदुआर के आरएसपी उम्मीदवार मनोहर तिर्की की एक जनसभा में खलल डाला। नतीजतन वहां सभा आयोजित नहीं की जा सकी।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इलाके में बंद चाय बागान बीते कुछ चुनावों में सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर उभरा है। हर बार चुनावों के दौरान यह खूब जोर-शोर से उछलता है। लेकिन उसके बाद फिर यह मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है और मजदूर तिल-तिल कर मरने पर मजबूर हो जाते हैं। अबकी मजदूरों में नाराजगी है। उनकी नाराजगी उम्मीदवारों को भारी पड़ सकती है।

चुभते नारे और कार्टून बने बंगाल में अहम चुनावी हथियार

कोलकाता, 23 अप्रैल। पश्चिम बंगाल में दीवार लेखन, नारों और कार्टूनों के जरिए अपना प्रचार करने की परंपरा बहुत पुरानी है। लेकिन मौजूदा लोकसभा चुनावों में तमाम राजनीतिक दलों ने कार्टूीनों के जरिए एक-दूसरे पर जो तीखे हमले शुरू किए हैं, उसकी कोई मिसाल नहीं मलिती। इन कार्टूनों के केंद्र में मुख्य तौर पर दो ही चरित्र हैं। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी। इन दोनों को लेकर बने कुछ कार्टूनों में तो चरित्र हनन की सारी हदें पार हो गई हैं। कहीं, बुद्धदेव को महादैत्य के तौर पर दिखाते हुए उनको सिंगुर, नंदीग्राम और माओवादी हिंसा के लिए जिम्मेवार ठहराया गया है तो कहीं ममता का चित्रण राक्षसी के तौर पर करते हुए उनको उद्योगों की संहारक बताया गया है।
दीवारों और बैनरों पर बने इन कार्टूनों के साथ तरह-तरह के नारे और कविताएं भी लिखी गई हैं। इनमें से कुछ तो सचमुच दिलचस्प हैं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि बंगाल में अबकी वामपंथी दलों और कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठजोड़ ने एक-दूसरे के खिलाफ नारों की लड़ाई शुरू कर दी है। कई नारे और कार्टून तो देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर को चरितार्थ करते नजर आते हैं। वैसे राज्य में नारों का लंबा इतिहास रहा है। नक्सल आंदोलन के दिनों में आमार बाड़ी, तोमार बाड़ी नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी यानी हमारा घर, तुम्हारा घर-नक्सलबाड़ी हिट रहा था तो बाद में आमार नाम तोमार नाम, वियतनाम-वियतनाम जैसे नारे भी सबकी जुबान पर चढ़ गए थे।
तृणमूल कांग्रेस के एक बैनर में कहा गया है कि हाथे बोमा, मुखे प्रेम, ऐर नाम सीपीएम यानी हाथों में बम और मुंह से प्यार भरी बातें, इसी का नाम सीपीएम है। माकपा ने इसके जवाब में दीवार लेखन में तृणमूल को मौकापरस्त पार्टी करार देते हुए बताया है कि वह हर चुनाव में अपना साथी बदलती रही है। पार्टी ने नैनो के गुजरात जाने के लिए भी ममता को जिम्मेवार ठहराते हुए कहा है कि आप किसे चुनेंगे, विकास या विनाश। इसके जवबा में तृणमूल कांग्रेस ने अपने बैनरों और दीवार लेख में नंदीग्राम और सिंगुर की हिंसा वाली तस्वीरें बनवाई हैं। एक रेखाचित्र में तो सिंगुर की तापसी मल्लिक के साथ बलात्कार होते भी दिखाया गया है। इसी तरह नंदीग्राम में पुलिस की फायरिंग में घायल वीभत्स तस्वीरें भी तृणमूल के चुनाव प्रचार का हिस्सा बन चुकी हैं।
दोनों गठबंधनों ने नैनो और औद्योगिकीकरण को अपने प्रचार के केंद्र में रखा है। सिंगुर में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन के दौर में ममता ने नारा दिया था कि कृषक मेरे टाटा प्रेम, शेम शेम सीपीएम (किसानों को मार कर टाटा से प्रेम, शर्म करो सीपीएम)। वह नारा इन चुनावों में भी इस्तेमाल हो रहा है। तृणमूल ने इस चुनाव को मां, माटी और मानुष यानी मां, जमीन और आम लोगों की लड़ाई करार दिया है। पार्टटी ने बदले दिन यानी वाममोर्चा को बदल दो, सकलेर पेटे भात, सकलेर जन्य काज (सबके पेट में अन्न, सबके लिए काम) और कृषि, शिल्प दू-टोई चाई (खेती व उद्योग दोनों चाहिए) जैसे नारे दिए हैं। दूसरी ओर, वाममोर्चा ने नैनो के गुजरात जाने और औद्योगिकीकरण को मुद्दा बनाते हुए तमाम कार्टूनों में ममता की खिंचाई की है। इनमें सवाल किया गया है कि दीदी आखिर अब क्या चाहती हैं।
अब तक इन नारों में पेशेवर पुट भले नहीं आया हो, आम लोगों पर इनका काफी असर होता है। हर राजनीतिक दल में कुछ लोग चुनावों के एलान के बहुत पहले से ही नारे लिखने लगते हैं। इसी तरह कार्टूनों की कल्पना करते हुए उनका स्केच बना लिया जाता है। रोज नए नारे ईजाद किए जा रहे हैं। अब चुनावों की तारीख नजदीक आने के साथ ही नारों की यह लड़ाई और तेज व दिलचस्प होती जा रही है।

बंगाल में विपक्ष नहीं परिसीमन बना उम्मीदवारों का दुश्मन

कोलकाता, 28 अप्रैल। पश्चिम बंगाल में अबकी लोकसभा चुनावों में विपक्षी नहीं बल्कि परिसीमन ही तमाम उम्मीदवारों के सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर उभरा है। परिसीमन के चलते बदले राजनीतिक समीकरण हर राजनीतिक दल पर भारी पड़ रहे हैं। किसी को अब तक इसका अनुमान ही नहीं लगा सका है कि परिसीमन क्या गुल खिलाएगा। राज्य में परिसीमन की कोख से निकली आठ नए संसदीय सीटों को ध्यान में रखें तो उम्मीदवारों का असमंजस समझ में आता है। बीते चुनावों के आंकड़ों और हिसाब-किताब को किनारे रख कर वहां उम्मीदवार अपने भाग्य के भरोसे ही चुनाव लड़ रहे हैं।
सबसे पहले मालदा उत्तर को देखें तो उसके तहत हबीबपुर, रतुआ, गाजोल, चांचल, हरिश्चंद्रपुर, मालतीपुर और मालदा विधानसभा क्षेत्र हैं। इस संसदीय सीट पर पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रही कांग्रेस विधायक मौसम नूर का मुकाबला माकपा के शैलेन सरकार से है। वर्ष 1977 से ही हबीबपुर और गाजोल सीटों पर माकपा का कब्जा रहा है। मालतीपुर व चांचल सीटें परिसीमन के बाद बनी हैं। रतुआ सीट पर बीते दो विधानसभा चुनावों में शैलेन सरकार ही जीतते रहे हैं हालांकि पिछली बार उनकी जीत का अंतर महज पांच हजार था। हरिश्चंद्रपुर को फारवर्ड ब्लाक का गढ़ माना जाता है। वह पांच बार यह सीट जीत चुका है। वैसे, पिछली बार इस सीट पर उसके उम्मीदवार ताजमुल हुसैन महज दो हजार वोटों से ही जीते थे। 1977 के बाद माकपा मालदा सीट पांच बार जीत चुकी है। मालदा दक्षिण संसदीय सीट भी परिसीमन की उपज है। इसमें भी विधानसभा की सात सीटें हैं जिनमें से तीन सीटें नई हैं। सुजापुर क्षेत्र शुरू से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है।
रानाघाट (सुरक्षित) सीट भी नई है। वहां माकपा के बासुदेव बर्मन का मुकाबला तृणमूल कांग्रेस के सुचारू हालदार से है। इस संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली सात विधानसभा सीटों में से चार नई हैं। इन इलाकों पर शुरू से ही माकपा का बर्चस्व रहा है। 1996 और 2001 में कांग्रेस के शंकर सिंह रानाघाट पश्चिम सीट से चुनाव जीते थे। कृष्णगंज सीट पर तो तीन दशक से माकपा का कब्जा रहा है लेकिन कृष्णनगर पूर्व सीट पर माकपा उतनी मजबूत नहीं रही है। बीते विधानसभा चुनावों में माकपा यहां महज 559 वोटों से जीती थी। इसलिए अबकी लोकसभा चुनावों में यहां ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कयास का ही विषय है।
एक अन्य नई सीट बनगांव (सु) का मामला और दिलचस्प है। इसके तहत भी विधानसभा की सात सीटें हैं जिनमें तीन परिसीमन के बाद बनी हैं। इनमें से कुछ पर माकपा मजबूत है और कुछ पर तृणमूल कांग्रेस। महानगर कोलकाता में कोलकाता उत्तर पूर्व और कोलकाता उत्तर पश्चिम संसदीय सीट को मिला कर बनी नई सीट कोलकाता उत्तर में माकपा के मोहम्मद सलीम का मुकाबला तृणमूल के सुदीप बनर्जी से है। इसके तहत भी सात विधानसभा सीटें हैं। इनमें काशीपुर-बेलगछिया नामक नई सीट भी शामिल है।
परिसीमन के चलते बदले समीकरणों में कोलकाता दक्षिण सीट पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। परिसीमन में इस संसदीय सीट से सोनारपुर, चौरंगी, अलीपुर,टालीगंज और ढाकुरिया जैसे तृणमूल के गढ़ समझे जाने वाले विधानसभा क्षेत्र बाहर निकल गए हैं। इनकी जगह कस्बा, बेहला पूर्व, बेहला पश्चिम और कोलकाता पोर्ट जैसी सीटें इस संसदीय क्षेत्र में शामिल हो गई हैं। इन चारों इलाकों में वाममोर्चा का बर्चस्व है। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो 2004 के लोकसभा चुनावों में ममता को मिले कुल वोटों का लगभग 50 फीसद सोनारपुर से ही मिला था। तब उन्होंने माकपा के रबीन देव को 98 हजार वोटों से हराया था। अबकी भी उनका मुकाबला देव से ही है।
इसके अलावा पूर्व मेदिनीपुर का घाटाल, बर्दवान पूर्व (सु) और बर्दवान-दुर्गापुर परिसीमन से उपजी तीन नई सीटें हैं। पूर्व मेदिनीपुर तो शुरू से ही वाममोर्चा का गढ़ रहा है। बर्दवान जिले में भी विपक्ष पिछले विधानसभा चुनाव में कटवा के अलावा कहीं नहीं जीत सका था। अब कटवा व अंडाल में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले आंदोलन का कोई असर होता है या नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा। लेकिन परिसीमन ने तमाम दलों के समीकरण इतने उलझा दिए हैं कि उम्मीदवारों को खुद भी अपनी जीत का पूरा भरोसा नहीं हो रहा है।

अब बंगाल में भी उतरने लगे सितारे जमीन पर

कोलकाता, 20 अप्रैल। लोकसभा चुनावों की तारीख नजदीक आने के साथ ही अब पश्चिम बंगाल में भी सितारे जमीन पर उतरने लगे हैं। इनमें नायक से लेकर नायिका, खलनायक और हास्य अभिनेता तक शामिल हैं। चालीस डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर घूम रहे पारे की परवाह नहीं करते हुए कहीं दम मारो दम गाने के लिए मशहूर जीनत अमान वोटरों से कांग्रेसियों के पक्ष में वोट मांग रही हैं तो कहीं महिमा चौधरी। बांग्ला सिनेमा के अमिताभ बच्चन कहे जाने वाले मिथुन चक्रवर्ती भी विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। हास्य अभिनेता असरानी और हिंदी फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभा चुके प्रेम चोपड़ा बीते दिनों महानगर में तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार सुदीप बंदोपाध्याय के पक्ष में प्रचार कर चुके हैं। अभी तो यह शुरूआत है। बंगाल में पहले दौर का मतदान 30 अप्रैल को होना है। उसके बाद क्रमशः छह और 13 मई को दूसरे और दूसरे दौर का मतदान होगा। उससे पहले वाममोर्चा के अलावा तमाम राजनीतिक दलों ने यहां दर्जनों कलाकारों को जमीन पर उतारने की योजना बनाई है।
अपने जमाने की मशहूर हीरोइन जीनत अमान ने रविवार को 42 डिग्री तक चढ़े पारे की परवाह नहीं करते हुए झारखंड से लगी पुरुलिया संसदीय सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार के लिए लोगों से वोट मांगे। वे एक खुली जीप में घूमने के अलावा जगह-जगह पैदल भी घूमीं और लोगों से मिलीं। पुरुलिया जैसे पिछड़े इलाके में जीनत की एक झलक पाने के लिए कड़ी धूप की परवाह किए बिना सैकड़ों लोग जुटे थे। जीनत अगर पुरुलिया में थीं तो बालीवुड की एक और हीरोइन महिमा चौधरी उससे सटे बांकुड़ा जिले में कांग्रेस उम्मीदवार और पूर्व मेयर सुब्रत मुखर्जी के लिए वोट मांगती नजर आईं। माकपा के करीबी रहे मिथुन चक्रवर्ती बीते दो दिनों से मुर्शिदाबाद जिले की जंगीपुर सीट से कांग्रेस उम्मीदवार विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने प्रणव के साथ कई चुनावी रैलियों में शिरकत कर लोगों से उनके पक्ष में वोट डालने की अपील की है।
अबकी तृणमूल कांग्रेस से तालमेल टूटने के बाद अपने बूते चुनाव लड़ रही भाजपा ने ड्रीम गर्ल हेमामालिनी और टीवी की आदर्श बहू तुलसी यानी स्मृति ईरानी समेत कई अन्य फिल्मकारों को प्रचार के लिए बंगाल लाने की योजना बनाई है।
दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी की ओर से इस महीने के आखिर में मुन्नाभाई यानी संजय दत्त के अलावा जयाप्रदा भी अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए वोट मांगती नजर आएंगी। भोजपुरी अभिनेता और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर संसदीय सीट से सपा उम्मीदवार मनोज तिवारी भी जल्दी ही हावड़ा और आसनसोल में पार्टी का प्रचार करते नजर आएंगे। गोरखपुर में पहले दौर में ही मतदान होने की वजह से मनोज फिलहाल फुर्सत में हैं। पार्टी उक्त दोनों इलाकों में रहने वाले भोजपुरी वासियों के बड़े तबके का वोट खींचने के लिए उनका इस्तेमाल करना चाहती है। सिंगुर मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस का साथ देने वाली सपा को अबकी कम से कम उससे एक सीट की उम्मीद थी। लेकिन तृणमूल ने जब उसे कोई सीट नहीं दी तो पार्टी ने अपने उम्मीदवारों को उतारने का फैसला किया। तृणमूल से नाराजगी की वजह से उसने खासकर वीरभूम और कृष्णनगर इलाके में जयाप्रदा और मुन्नाभाई को प्रचार के लिए उतारने की योजना बनाई है। इन दोनों सीटों पर तृणमूल की ओर से दो फिल्मी सितारे मैदान में लड़ रहे हैं। सपा यहां उनके खिलाफ प्रचार करेगी। सपा सूत्रों के मुताबिक, महासचिव अमर सिंह के अलावा पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह भी अपने उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करने यहां आ सकते हैं।
तृणमूल कांग्रेस ने तो पहले से ही सितारों को चुनावी जमीन पर उतार दिया है। पार्टी ने जानी-मानी अभिनेत्री शताब्दी राय को वीरभूम संसदीय सीट से मैदान में उतारा है तो बांग्ला फिल्मों में हीरो की भूमिका निभाने वाले तापस पाल को कृष्णनगर से। अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ रही शताब्दी सुबह से शाम तक काफी पसीना बहा रही हैं तापस पाल पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी के टिकट पर महानगर की अलीपुर सीट से चुनाव जीते थे। इन दोनों के अलावा जाने-माने गायक कबीर सुमन भी पार्टी के टिकट पर यादवपुर संसदीय सीट से मैदान में हैं।
लेकिन क्या इन फिल्मी सितारों के चुनाव अभियान से उम्मीदवारों की किस्मत बदलती है? यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इससे कोई ज्यादा अंतर नहीं पड़ता। इन सितारों को देखने के लिए भीड़ भले जुटती हो, मतदान के दिन लोग अपनी पसंदीदा पार्टी या उम्मीदवारों को ही वोट देते हैं। पर्यवेक्षक इस मामले में वाममोर्चा की मिसाल देते हैं। सितारों के नाम पर जावेद अख्तर और शबाना आजमी ही उनके पक्ष में प्रचार करती रही हैं। बावजूद इसके बंगाल में मोर्चा ही ज्यादातर सीटें जीतता रहा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि मतदान का नतीजा संबंधित पार्टी और उम्मीदवार पर ही निर्भर है। सितारों के आने से प्रचार में कई रंग भले शामिल हो जाते हों, नतीजों पर खास अंतर नहीं पड़ता। बावजूद इसके बंगाल में राजनीतिक दलों में अधिक से अधिक सितारों को जमीन पर उतारने की होड़ मची है।

नाम नहीं, अपने काम के भरोसे लड़ रहे हैं प्रणव

कोलकाता, 18 अप्रैल। उत्तर बंगाल में कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले मुर्शिदाबाद जिले की जंगीपुर संसदीय सीट पर यह काम का आदमी अपने नाम या पद के नहीं, बल्कि इलाके में किए गए अपने विकास कार्यों के भरोसे चुनाव मैदान में है। काम का आदमी यानी विदेश मंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी। प्रणव पिछली बार जीती इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन अपने कोई चार दशक लंबे राजनीतिक कैरियर में दूसरी बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे प्रणव दूसरे उम्मीदवारों की तरह हवाई वादे नहीं कर रहे। वे अपने नाम नहीं, बल्कि बीते पांच साल के दौरान सांसद के तौर पर इलाके में किए गए काम के आधार पर वोट मांग रहे हैं। यहां उनके चुनाव प्रचार, इलाके में लगे पोस्टरों और बैनरों में भी इसी मूलमंत्र का सहारा लिया गया है। इन पर लिखा है--काजेर लोक, काछेर लोक, उन्नयनेर प्राणपुरुष यानी काम का आदमी, आपके बीच का आदमी और विकास की धुरी। मुखर्जी ने यह भी संकेत दे दिया है कि यह उनके जीवन का आखिरी चुनाव है। बांग्लादेश से सटा यह इलाका मुसलिम बहुल है। हर साल नदियों के भूमि कटाव की गंभीर होती समस्या और लगभग छह लाख बीड़ी मजदूर यहां सबसे बड़ा मुद्दा हैं।
प्रणव के जिम्मे बंगाल के अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में चुनाव प्रचार का भी जिम्मा है। वे इलाके में पार्टी के सितारा प्रचारकों में शामिल हैं। इसलिए वे जंगीपुर में अपने चुनाव अभियान पर ध्यान कम ही दे पाते हैं। लेकिन उनको इसकी खास चिंता नहीं है। वे कहते हैं कि लोग मेरा काम देख कर ही मुझे दोबारा जिताएंगे। मुझे लंबे-चौड़े दावे करने की जरूरत नहीं है। मेरा काम ही बोलेगा। मुखर्जी कहते हैं कि वोटरों को उनकी उपलब्धियां देखकर ही उनके बारे में फैसला करना चाहिए अब इस सप्ताह वे तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के साथ मिल कर इलाके में साझा प्रचार अभियान चलाएंगे। अगले हफ्ते कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी भी जंगीपुर में प्रणव के समर्थन में एक चुनावी रैली को संबोधित करेंगी। उसमें ममता भी मौजूद रहेंगी।
प्रणव ने अगला संसदीय चुनाव नहीं लड़ने का भी संकेत दिया है। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र जंगीपुर की चुनावी सभाओं में कहा है कि उनकी उम्र बढ़ रही है, जिसके चलते शायद आगे चुनाव नहीं लड़ सकें। इसलिए एक बार और जंगीपुर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं। यदि जनता मौका दे तो जो काम पांच साल में नहीं कर सकें हैं, उनको पूरा करने का प्रयास करेंगे।
अपनी रैलियों में वे कहते हैं कि केन्द्र सरकार के कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेवारी संभालने के बावजूद मैंने कभी अपने संसदीय क्षेत्र की उपेक्षा नहीं की। जहां तक संभव हो सका, विकास में जुटा रहा। मुखर्जी लोगों को याद दिलाते हैं कि जंगीपुर से ही पहली बार संसदीय चुनाव जीतकर वे लोकसभा में पहुंचे थे। वे कहते हैं कि बंगाल के विकास के लिए वे हमेशा तैयार रहे हैं, लेकिन केंद्र के समर्थन के बावजूद कई योजनाओं को वाममोर्चा सरकार का सहयोग नहीं मिला। राज्य सरकार पर विकास के प्रति गंभीर नहीं होने का आरोप लगाते हुए प्रणव कहते हैं कि कांग्रेस उद्योग के साथ कृषि चाहती है, लेकिन सरकार की दोहरी नीति से राज्य में औद्योगिकीकरण पर विवाद पैदा हुआ।
परिसीमन के बाद इस संसदीय क्षेत्र से फऱक्का और शमशेरगंज नामक दो विधानसभा सीटें बाहर हो गई हैं। इन दोनों को कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। इससे प्रणव की चुनौती कुछ कठिन हो गई है। फरक्का सीट पर तो बीते 18 वर्षों से कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। परिसीमन के बाद अब लालगोला विधानसभा क्षेत्र इस इलाके में शामिल हो गया है। अब इस संसदीय क्षेत्र में विधानसभा की कुल सात सीटें हैं जिनमें लालगोला को छोड़ कर बाकियों पर वाममोर्चा का कब्जा है।
लेकिन यह दिग्गज कांग्रेसी नेता इससे परेशान नहीं है। उनको इलाके में किए गए विकास कार्यों पर पूरा भरोसा है। वे दावा करते हैं कि परिसीमन के चलते कांग्रेसी बर्चस्व वाले इलाकों के इस क्षेत्र से बाहर निकलने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। मुझे लोगों का समर्थन मिलेगा। वे कहते हैं कि बीते साल हुए पंचायत चुनावों में यहां पार्टी को 50 फीसद से ज्यादा वोट मिले थे। इस सीट पर प्रणव के प्रतिदंवदी और माकपा उम्मीदवार मृगांक भट्टाचार्य, जो जंगीपुर नगरपालिका के अध्यक्ष भी हैं, मानते हैं कि परिसीमन से उनको (माकपा को) कुछ फायदा जरूर मिलेगा। लेकिन यह जीत के लिए काफी नहीं है। वे कहते हैं कि जंगीपुर में हमें मुखर्जी की हाई-प्रोफाइल छवि से भी लड़ना पड़ रहा है।
माकपा उम्मीदवार का दावा है कि इलाके में सड़कों से लोकर तमाम विकास कार्य वाममोर्चा के कब्जे वाली जिला परिषद ने किया है। लेकिन मुखर्जी इन सबका सेहरा अपने माथे बांध रहे हैं। माकपा का आरोप है कि कांग्रेस ने इलाके के बीड़ी मजदूरों की दुर्दशा पर कोई ध्यान नहीं दिया है। लेकिन प्रणव इस आरोप को निराधार करार देते हैं।
प्रणव की सबसे बड़ी खासियत है कि हाई-प्रोफाइल छवि के बावजूद वे इलाके के लोगों को घर का आदमी लगते हैं। पूर्व विधायक और प्रणव के चुनाव एजंट मोहम्मद सोहराब कहते हैं कि प्रणव दा पिछली बार बाहरी थे। अब तो इलाके में उनकी पहल पर हुए विकास कार्यों ने उनको घर का आदमी बना दिया है। अपनी साख, काम पर भरोसा और घर का व काम का आदमी की अपनी छवि के बावजूद मुखर्जी इलाके में चुनाव अभियान पर पूरा ध्यान दे रहे हैं। चिलचिलाती धूप के बावजूद जब भी मौका मिलता है वे इलाके में निकल जाते हैं। वे कहते हैं कि कुछ काम हुआ है, लेकिन अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। अबकी जीतने के बाद बाकी कार्यों को जल्दी पूरा करने को प्रथामिकता दी जाएगी। कड़ी धूप में लोगों से मिलते-जुलते उनका काफिला एक से दूसरे गांव की ओर बढ़ता रहता है।
फोटो परिचय---एक तस्वीर में प्रणव मुखर्जी जंगीपुर में चुनाव प्रचार करते हुए नजर आ रहे हैं। दूसरी तस्वीर जंगीपुर में उनके समर्थ में लगे एक बैनर की है जिस पर लिखा है- उन्नयनेर प्राणपुरुष, काजेर लोक, काछेर लोक, यानी विकास की धुरी, काम का आदमी और आपके बीच का आदमी ।

बंगाल में अबकी हाईटेक हुआ चुनाव प्रचार

कोलकाता, 3 अप्रैल। अबकी लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार पर आधनिक तकनीक का गहरा रंग नजर आ रहा है। दीवार लेख, बैनर और पोस्टर के पारंपरिक तरीकों के साथ ही अबकी चुनाव अभियान हाईटेक हो गया है। पहली बार राज्य में कई उम्मीदवारों ने चुनाव अभियान चलाने के लिए वेबसाइट का सहारा लिया है तो कई आर्कुट व फेस बुक जैसी सोशल नेटवर्किंग जैसी साइटों पर अभियान चला रहे हैं। विदेश मंत्री और जंगीपुर संससीदय सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी समेत कई उम्मीदवारों ने अपने अभियान को पेशेवर स्वरूप देने के लिए जनसंपर्क एजंसियों की सेवाए ली हैं। कुल मिला कर पहली बार बंगाल में चुनाव प्रचार हाईटेक होता नजर आ रहा है। राजनीतिक दल और उम्मीदवार ही नहीं, बंगाल में चुनाव विभाग भी पहली बार हाईटेक हो गया है। उसने अबकी राज्य में चुनाव से जुड़े तमाम कर्मचारियों के साथ सीधे संपर्क में रहने के लिए ब्लाग का सहारा लिया है।
अबकी लोकसभा चुनाव प्रचार में भी युवाओं को आकर्षित करने के लिए पार्टियां इंटरनेट का सहारा ले रही हैं। ब्लाग्स, सोशल नेटवर्किंग व इंटरेक्टिव वेबसाइटों के जरिए उनसे संपर्क साधने की कोशिश हो रही है। माकपा ने अपनी चुनावी वेबसाइट को अपडेट कर दिया है। इस पर यू ट्यूब के जरिए पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु, महासचिव प्रकाश कारत, मोहम्मद सलीम और दूसरे नेताओं के वीडियो डाले गए हैं। पार्टी का मानना है कि युवा पीढ़ी व पेशेवर वर्ग तक अपनी बात पहुंचाने का यह प्रभावी माध्यम है। आर्कुट व फेसबुक जैसी नेटवर्किंग साइटों पर मोहम्मद सलीम समेत पार्टी के कई उम्मीदवारों के समर्थन में प्रचार चल रहा है। माकपा के वरिष्ठ नेता ज्योति बसु ने हाल ही में यादवपुर सीट के सांसद सुजन चक्रवर्ती की वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट सुजन डाट इन्फो का उद्घाटन किया था। इस वेबसाइट में उम्मीदवार और उनके चुनाव क्षेत्र की विस्तृत जानकारी के साथ ही जीत के आंकड़ों का ब्योरा है। वेबसाइट लोगों को सवाल पूछने के लिए भी आमंत्रित करती है। चक्रवर्ती कहते हैं कि लोग मुझसे कोई भी सवाल पूछ सकते हैं और मैं उनको 24 घंटे के भीतर जवाब दे दूंगा। मैं अपनी वेबसाइट के जरिए सभी से बात करूंगा। सलीम बीते लोकसभा चुनावों में अपनी वेबसाइट शुरू करने वाले पहले उम्मीदवार थे। इस बार उनके अलावा सुजन चक्रवर्ती और अमिताभ नंदी ने भी वेबसाइट शुरू की है।
उधर, तृणमूल कांग्रेस इंटरनेट के जरिए मतदाताओं को लुभाने के काम में जोर-शोर से जुट गई है। सोशल नेटवर्किंग साइटों पर 'कम्युनिटीज' बन गई हैं। कहीं ममता बनर्जी फैन क्लब का गठन किया गया है तो कहीं पार्टी के दूसरे उम्मीदवारों के समर्थन में प्रचार चल रहा है। पार्टी की वेबसाइट की जरिए भी प्रचार किया जा रहा है। वेबसाइट को देखरेख करने वाली कंपनी चुनाव प्रचार के लिए वेबसाइट को लगातार अपडेट कर रही हैं।

दूसरी ओर, कांग्रेस अध्यक्ष और विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपने चुनाव क्षेत्र जंगीपुर में अपने प्रचार अभियान को पेशेवर स्वरूप देने के लिए एक विज्ञापन एजेंसी की सेवा ली है। उक्त एजंसी ने उके लिए कई आडियो-विजुअल्स तो बनाए ही हैं, रोड शो आयोजित करने का भी फैसला किया है। कुछ गांवों में इस रोड शो का आयोजन भी किया जा चुका है। रोड शो में बीते पांच साल के दौरान सांसद के तौर पर मुखर्जी की उपलब्धियों का ब्योरा देने वाले वृत्तचित्र को शामिल किया गया है। प्रणव के अलावा उत्तर कोलकाता संसदीय सीट के माकपा उम्मीदवार मोहम्मद सलीम और भाजपा के ब्रतीन सेनगुप्ता ने भी दो अलग-अलग जनसंपर्क एजंसियों के साथ करार किया है।
अबकी जब राजनीतिक दल और उम्मीदवार हाईटेक हो रहे हैं तो चुनाव विभाग भला पीछे कैसे रहता। बंगाल के मुख्य चुनाव अधिकारी ने ई-मेल और चिट्ठी-पत्री से आगे बढ़ते हुए अब राज्य के सभी चुनाव अधिकारियों से संपर्क के लिए ब्लाग का सहारा लिया है। डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट सीईओवेस्टबंगाल डाट ब्लागस्पाट के माध्यम से राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी देबाशीष सेन प्रदेश के उन 500 चुनाव अधिकारियों के संपर्क में हैं, जिन पर लोकसभा चुनावों की जिम्मेवारी है।
सेन कहते हैं कि नौकरशाही की मौजूदा व्यवस्था में किसी जूनियर अधिकारी के लिए सीधे मुझसे बात कर पाना संभ नहीं है और अगर वह अधिकारी उचित माध्यम से मुझ तक पहुंचना चाहे तो उसमें बहुत समय लगता है। ऐसे में ब्लाग के जरिए मैं जूनियर अधिकारियों के साथ सीधे संपर्क कर सकता हूं और उन्हें जरूरी निर्देश दे सकता हूं। सेन के मुताबिक, ब्लाग के जरिए उन्हें तेजी से निर्देश देने और जूनियर अधिकारियों को सही तरीके से काम करने के लिए प्रेरित करने में काफी सहायता मिली।
हाईटेक अभियान के इस दौर में बाजी किसके साथ रहती है, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन तमाम दलों और उम्मीदवार अब अब ई-प्रचार की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

चुनाव प्रचार के पुराने रंग में लौटा बंगाल

कोलकाता, 27 मार्च। वामपंथियों का बंगाल अबकी लोकसभा चुनाव में दीवार लेखन के जरिए प्रचार के पारंपरिक तरीके की ओर लौट आया है। लाल बंगाल में ज्यादातर इमारतों की दीवारें राजनीतिक दलों के सतरंगी नारों से पट गई हैं। राज्य सरकार के एक कानून का सहारा लेकर चुनाव आयोग ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में इस पर पाबंदी लगाई थी। उस समय तो फिर भी कुछ दीवारें नारों से रंगी थी। लेकिन वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य में दीवार लेखन पर पूरी तरह पाबंदी रही थी। राज्य की साफ-सुथरी दीवारों को देख कर लगता ही नहीं था कि यहां चुनाव हो रहे हैं। तब तमाम राजनीतिक दलों ने आयोग के इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी। लेकिन आयोग ने राज्य सरकार के ही कानून का हवाला देकर उनका मुंह बंद कर दिया। यही वजह थी कि वर्ष 2006 में जीत कर सत्ता में आते ही बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने जो पहला काम किया वह था उस पुराने कानून में संशोधन का।
बंगाल में दीवार लेखन की कला बहुत पुरानी है। राज्य में हजारों लोग इस कला से जुड़े हैं। चुनाव हो या कोई राजनीतिक रैली, तमाम दल इन दीवारों का ही सहारा लेते हैं। खासकर चुनावों के दौरान तो यहां दीवारें सतरंगी हो जाती हैं। कहीं किसी पार्टी उम्मीदवार का नारा नजर आता है तो कहीं विपक्ष को चिढ़ाने वाले कार्टून। अबकी चुनाव विभाग ने सरकारी दीवारों पर प्रचार पर पाबंदी लगाई है। लेकिन माकपा और तृणमूल सरेआम इस निर्देश को ठेंगा दिखा रहे हैं। आयोग ने कहा है कि राजनीतिक दल मकान मालिकों से अनुमति लेकर ही उनके घरों की दीवारों पर नारे लिख सकते हैं। लेकिन यहां अनुमति कौन लेता है ? जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर चुनावों के एलान से बहुत पहले ही तमाम राजनीतिक दलों ने दीवारों पर कब्जा करने का अभियान चलाया था। और आज की तारीख में कोलकाता समेत पूरे राज्य में शायद ही कोई ऐसी निजी इमारत हो, जो नारों और वादों से नहीं रंगी हो।
वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों के दौरान दीवार लेख पर पाबंदी से आम लोगों ने राहत की सांस ली थी। आयोग ने तब वेस्ट बंगाल प्रिवेंशन आफ प्रापर्टी डिफेसमेंट एक्ट, 1976 के तहत यह पाबंदी लगाई थी। लेकिन आम लोगों के विरोध के बावजूद सरकार ने वर्ष 2007 में इस अधिनियम को रद्द कर दिया। आमतौर पर हर मुद्दे पर सरकार से दो-दो हाथ करने वाले विपक्ष ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी। उसके बाद दीवार लेखन को पिछले दरवाजे से अनुमति देने के लिए सरकार ने कोलकाता नगर निगम अधिनियम में संशोधन किया ताकि मकान मालिकों की सहमति से गैर-व्यावसाइक विज्ञापन लगाए जा सकें।
लेकिन यहां सरकार से एक चूक हो गई। उसने इन संशोधनों को प्रभावी बनाने के लिए गजट अधिसूचना नहीं जारी की। इसलिए बीते साल अक्तूबर में मुख्य चुनाव अधिकारी देवाशीष सेन ने कहा था कि अबकी इन चुनावों में भी दीवार लेखन पर पाबंदी जारी रहेगी। उसके बाद सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने जल्दबाजी में 27 नवंबर, 2008 को गजट अधिसूचना जारी कर दी, ताकि नगर निगम अधिनियम का लाभ उठाते हुए दीवारों पर प्रचार का काम हो सके। उसके बाद चुनाव विभाग को मजबूरन पाबंदी में ढील देनी पड़ी।
वैसे, मुख्य चुनाव अधिकारी देवाशीष सेन ने कहा है कि तमाम राजनीतिक दलों को मकान मालिकों से दीवार लेख की अनुमित लेनी होगी और चुनावों के बाद दीवारों पर अपने खर्चे से सफेदी करानी होगी। ऐसा नहीं करने पर सजा का प्रावधान है। लेकिन चुनावों के बाद राजनीतिक दल इन छोटी-मोटी बातों की परवाह नहीं करते। आयोग ने कहा है कि बिना अनुमति के दीवार पर प्रचार करने वालों के खिलाफ मकान मालिक आयोग में फोन और एसएमएस के जरिए शिकायत की जा सकती है। लेकिन कोई भी आम नागरिक पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहता।
बंगाल में चुनाव अभी दूर हैं। लेकिन अब तक तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, माकपा सांसद मोहम्मद सलीम, माकपा के ही रबीन देव और तृणमूल के सुदीप बंद्योपाध्याय जैसे दिग्गज नेताओं के खिलाफ अपने-अपने संसदीय क्षेत्र में मकान मालिकों की मर्जी के बिना ही दीवार लेखन के आरोप लग चुके हैं। चुनाव विभाग के एक अधिकारी कहते हैं कि सरकारी भवनों और बिना अनुमति के निजी मकानों पर दीवार लेखन के मामले में राजनीतिक दलों के खिलाफ अब तक पंद्रह शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं। सरकारी भवनों पर प्रचार कार्य पर पाबंदी है। चुनाव विभाग के सूत्रों के मुताबिक, दोषी साबित होने पर इन नेताओं को छह महीने तक जेल या 50 हजार रुपए जुर्माना हो सकता है। लेकिन दीवार लेखन में अगुवा रहे बंगाल में किसी कद्दावर नेता को सजा मिलने की कोई मिसाल नहीं मिलती। आयोग चाहे कुछ भी कहे, दीवार लेख का काम पूरे शबाब पर है।
इस मामले में तमाम राजनीतिक दलों में गजब की एकजुटता है। माकपा, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में इस बात पर आमराय है कि दीवार लेखन प्रचार का सबसे सस्ता और आसान साधान है। वे इसे अपना लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष की इस एकजुटता ने अबकी राज्य की तमाम दीवारें रंग दी है। यानी बंगाल कम से कम चुनाव प्रचार के मामले में फिर अपने पुराने रंग में लौट आया है।

बंगाल में कईयों का खेल बिगाड़ सकती हैं वोटकटवा पार्टियां

कोलकाता, 31 मार्च। पश्चिम बंगाल में अबकी लोकसभा चुनावों में तमाम राजनीतिक दलों और गठबंधनों के समीकरण उलझे नजर आ रहे हैं। इसकी वजह हैं कि चुनाव मैदान में कूदी ऐसी राजनीतिक पार्टियां जो महज दूसरों का वोट काटने के लिए चुनाव लड़ रही हैं। भाकपा (माले), एसयूसीआई, पीडीएस, जनता दल (यूनाइटेड), राजद, लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), समाजवादी पार्टी, ममता के सहयोगी रहे सिद्दीकुल्ला चौधरी की पीडीसीआई और माकपा की सहयोगी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसी कई पार्टियां राज्य में बह रही चुनावी गंगा में हाथ धोने के लिए कूद पड़ी हैं। यह तमाम पार्टियां ऐसी हैं जिनका राज्य में कहीं कोई खास जनाधार नहीं है। लंबे अरसे तक राजग में तृणमूल की सहयोगी रही भाजपा ने भी ममता बनर्जी के रवैए से नाराज होकर सभी सीटों पर उम्मीवार उतारने का फैसला किया है। यह पार्टियां अपने बूते भले ही एक भी सीट नहीं जीत सकें, कुछ सीटों पर यह कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठबंधन और सत्तारूढ़ वाममोर्चा का खेल जरूर गड़बड़ा सकती हैं। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता ने माकपा पर जानबूझ कर विपक्ष के वोट काटने के लिए वोटकटवा पार्टियों के अधिक से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की साजिश रचने का आरोप लगाया है।
रामविलास पासवान की लोजपा, लालू के राजद व मुलायम की सपा ने राज्य की 42 में से दस-दस लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है तो वामपंथियों की मित्र और तीसरे मोर्चे की एक प्रमुख नेता मायावती यहां सभी 42 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने का मन बना रही है। राज्य में एसयूसीआई तृणमूल कांग्रेस की सहयोगी है। इस तालमेल के तहत तृणमूल ने एक सीट उसके लिए छोड़ी है। लेकिन एसयूसीआई ने यह कहते हुए नौ सीटों पर कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार मैदान में उतार दिया है कि उसका न तो कांग्रेस के साथ उसका कोई लेना-देना है और न ही तृणमूल के साथ उसके गठजोड़ से। इसी तरह, भाकपा(माले) ने भी सात सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं।
ममता ने कहा है कि माकपा विपक्ष के वोट काटने के लिए बंगाल में वोटकटवा पार्टियों की भीड़ जुटा रही है। उन्होंने आरोप लगाया है कि माकपा नेतृत्व ने भाजपा व बसपा के साथ चुनावी तालमेल किया है। बंगाल में बसपा का कोई जनाधार नहीं है लेकिन माकपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रकाश करात उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर बंगाल में सभी 42 संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ाने के लिए तैयारी कर रहे हैं। इसी तरह भाजपा को भी सभी सीटों पर चुनाव लड़ने को कहा गया है। ममता की दलील है कि वोटर वामपंथियों की इस चाल से वाकिफ हैं। वे मतदान के दिन ही इसका जवाब देंगे।
बसपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज हालदार कहते हैं कि बहन जी (मायावाती) ने राज्य की सभी 42 सीटों के लिए उम्मीदवारों की सूची मांगी थी जो उनको भेज दी गई है। उनका कहना है कि हम राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर पंजीकरण के लिए यहां अपने वोट बढ़ाना चाहते हैं। पार्टी ने कहा है कि वह यहां बहुजन समाज के लिए प्रचार करेगी, किसी पार्टी के खिलाफ नहीं। अबकी हमें राज्य में अपने वोट बढ़ने का भरोसा है। बसपा ने वर्ष 2006 के विधानसबा चुनावों में राज्य की 294 में से 128 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। उन सबकी जमानत जब्त हो गई थी और पार्टी को कुल 0.70 फीसद वोट मिले थे। बीते लोकसभा चुनावों में भी पार्टी के 38 उम्मीदवारों को कुल मिला कर 0.21 फीसद वोट मिले थे।
पार्टी ने आरोप लगाया है कि राज्य सरकार अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की समस्याओं को सुलझाने में नाकाम रही है। हालदार का दावा है कि बंगाल के मुकाबले उत्तर प्रदेश में दलित ज्यादा सुखी हैं। पार्टी के 42 उम्मीदवारों में से 38 अनसूचित जाति व अवुसूचित जनजाति तबके के होंगे और बाकी चार साधारण वर्ग के।
सिंगुर व नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन में सपा तृणमूल के साथ थी। सपा महासचिव अमर सिंह भी ममता के साथ धरना देने के लिए सिंगुर तक गए थे। इसलिए पार्टी तृणमूल से राज्य में कम से कम एक सीट मांग रही थी। लेकिन पार्टी ने उसकी यह मांग ठुकरा दी। इसलिए सपा ने यहां दस उम्मीदवारों को उतारने का फैसला किया है।
दूसरी ओर, ममता बनर्जी द्वारा लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं दिए जाने पर पीडीएस ने अपने बूते यादवपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया है। पूर्व माकपा सांसद सैफुद्दीन चौधरी यादवपुर से चुनाव लड़ेंगे। पीडीएस नेता बहुत दिनों ममता के भरोसे बैठे रहे और जब टिकट नहीं मिला तो पार्टी में चौधरी को चुनाव लड़ाने पर सहमति बनी । इस सीट के लिए माकपा के सुजन चक्रवर्ती व तृणमूल कांग्रेस की ओर से गायक कबीर सुमन मैदान में हैं। प्रदेश कांग्रेस प्रणव मुखर्जी ने हालांकि सैफुद्दीन से अपना नाम वापस लेने की अपील की थी। लेकिन अब तक यह अपील बेअसर ही रही है। ममता ने भाजपा पर भी माकपा की मदद के लिए तमाम सीटों पर चुनाव लड़ने का आरोप लगाया है।
इसबीच, लोकसभा चुनाव में भाकपा (माले) ने राज्य की सात सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पोलित ब्यूरो के सदस्य कार्तिक पाल ने लोकसभा चुनाव लड़ने वाले सात उम्मीदवारों के नामों का एलान करते हुए कहा था कि सिंगुर व नंदीग्राम में सरकारी उत्पीड़न को चुनावी मुद्दा बनाया जाएगा। वाममोर्चा सरकार ने पिछले बत्तीस वर्षों में सर्वहारा वर्ग के विकास के लिए कुछ नहीं किया। आज भी सर्वहारा समाज उपेक्षित है और उसके पास बुनियादी सुविधाएं भी नहीं पहुंची हैं। माले नेता ने कहा कि सत्तारूढ़ दलों के नेता सुविधाभोगी हो गए हैं और उन्हें वामपंथी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। पार्टी केन्द्र व राज्य सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ चुनाव प्रचार करेगी। वामो के समर्थन से लगभग पांच वर्षो तक यूपीए सरकार केंद्र में शासन में रही, लेकिन जनहित में विकास के नाम पर एक भी काम नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि कांग्रेस व तृणमूल में सीटों पर तालमेल से राज्य का भला नहीं होगा क्योंकि यह तालमेल स्वार्थ पर आधारित है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीते चुनावी नतीजों से साफ है कि इन दलों के तमाम उम्मीदवार वोटकटवा बन कर ही उभरेंगे। लेकिन जिन सीटों पर हार-जीत का फैसला कुछ हजार वोटों के अंतर से होना हो, वहां यह लोग दूसरों की किस्मत बिगाड़ ही सकते हैं।

नैनो पर चढ़ कर वोट मांग रही है माकपा

कोलकाता, 28 मार्च। टाटा मोटर्स की लखटकिया भले सिंगुर से सानंद जाने के बाद पंतनगर में बन कर मुंबई में लांच हो गई हो, पश्चिम बंगाल में इस परियोजना के कदमों के निशान जरा भी धूमिल नहीं हुए हैं। अबकी लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ वाममोर्चा की सबसे बड़ी घटक माकपा नैनो पर चढ़ कर ही वोट मांग रही है। लाख रुपए की यह नैनो राज्य में लाख टके का मुद्दा बन कर उभरी है। इसकी लांचिंग ने माकपा को एक धारदार हथियार दे दिया है। अब नैनो के मुद्दे पर पूरे राज्य खासकर कोलकाता और हुगली जिले में जम कर प्रचार चल रहा है। माकपा ने इस मुद्दे के समर्थन में सैकड़ों दीवारें रंग दी हैं। इनमें पार्टी ने सवाल उठाया है कि ‘नैनो-बंगाल में नहीं और गुजरात में हां, आपकी क्या राय है?’
दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने नैनो को तवज्जो देने से इंकार करते हुए कहा है कि उनकी मुख्य चिंता जमीन और किसान हैं, कार नहीं। ममता चुनावों के समय नैनो की लांचिंग को एक स्टंट और अपने खिलाफ साजिश करार देते हुए कहती हैं कि उन्होंने टाटा को राज्य छोड़ने को नहीं कहा था। हमने तो सिर्फ उसे चार सौ एकड़ जमीन लौटाने को कहा था।
नैनो की लांचिंग के पहले ही मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इस परियोजना के राज्य से बाहर जाने के लिए विपक्ष को जिम्मेवार ठहराने की मुहिम शुरू कर दी थी। लांचिंग के दिन उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने भी इसे विपक्ष की गैरजिम्मेवार राजनीति का नतीजा करार देते हुए कहा कि इससे हजारों लोगों के सपने टूट गए हैं। पार्टी अब नैनो के सवाल पर तृणमूल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि इस चुनाव में उसका हाथ थामने वाली कांग्रेस पर भी निशाना साधने लगी है। माकपा सवाल उठा रही है कि कांग्रेस आखिर किसी ऐसी पार्टी का साथ क्यों दे रही है जो राज्य के विकास के खिलाफ है।
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य नैनो परियोजना को राज्य से बाहर भेजने के लिए राज्य की विपक्षी पार्टियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। अपनी तमाम चुनावी रैलियों में वे कह रहे हैं कि इस परियोजना के राज्य से बाहर चले जाने के कारण छह हजार लोगों के हाथ से रोजगार का मौका निकल गया। इससे 6,000 लोगों को नौकरी मिलती। भट्टाचार्य सवाल करते हैं कि नैनो को राज्य से बाहर भगाने के लिए कौन जिम्मेदार है? विपक्ष ने किसानों का कितना हित किया है? सिंगुर आज अंधेरे में है। विपक्ष ने वहां परियोजना नहीं लगने दी। क्या सिंगुर इसी लायक है?
उधर, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि चुनाव से ठीक पहले टाटा मोटर्स की नैनो कार को बाजार में लाना उनके खिलाफ साजिश है।
उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनाव के समय नैनो को बाजार में लांच करने का बस एक ही मकसद है। यह उनके खिलाफ साजिश है। कार अभी तैयार नहीं है और कुछ मॉडल उतारे गए हैं।
हुगली जिले के सिंगुर, जहां नैनो परियोजना लगनी थी, में भी यह मुद्दा काफी जोर पकड़ रहा है। माकपा और तृणणूल कांग्रेस अपने-अपने तरीके से नैनो को भुनाने में जुटे हैं। सिंगुर के माकपा नेता बलाई साबुई कहते हैं कि स्थानीय लोग नैनो परियोजना के यहां के चले जाने से दुखी हैं क्योंकि इसमें वे अपने बच्चों का भविष्य देख रहे थे। इसके लिए विपक्षी दल जिम्मेदार हैं।
दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि नैनो मसले से पार्टी को फायदा होगा। सिंगुर पंचायत समिति के उपाध्यक्ष बेचाराम मान्ना, जो कृषि जमीन रक्षा समिति के संयोजक भी हैं, कहते हैं कि यहां हम बड़े अंतर से जीतेंगे। नैनो हमारी जीत में अहम भूमिका निभाएगी। मान्ना कहते हैं कि परियोजना के लिए जो चार सौ एकड़ अतिरिक्त जमीन ली गई थी, वह सरकार ने नहीं लौटाई। अब मतदान के दिन ही लोग इसका जवाब देंगे।
सिंगुर हुगली संसदीय क्षेत्र में आता है। यहां सात मई को वोट पड़ेंगे। बीते लोकसभा चुनावों में माकपा के रुपचंद पाल ने यह सीट जीती थी। वे वर्ष 1989 से लगातार इस सीट से जीतते रहे हैं। अबकी भी पाल ही माकपा के उम्मीदवार हैं। वर्ष 2004 में पाल ने तृणमूल कांग्रेस की इंद्राणी मुखर्जी को 1.65 लाख वोटों से पराजित किया था। कांग्रेस यहां तीसरे स्थान पर रही थी। तृणमूल कांग्रेस ने अबकी रत्ना नाग नामक एक महिला को यहां मैदान में उतारा है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि चुनाव के पहले नैनो की लांचिंग ने माकपा को विपक्ष के खिलाफ एक ठोस मुद्दा दे दिया है। इसलिए उसने इसे भुनाते हुए बीते साल पंचायत और विधानसभा उपचुनाव में हुई हार का हिसाब बराबर करने के लिए कांग्रेस व तृणमूल गठजोड़ के खिलाफ मुहिम शुरू कर दी है। दूसरी ओर, नैनो मुद्दे के सामने आने के बाद ममता ने भी इसकी काट के लिए अपनी रणनीति में बदलाव किया है। ‘हमला ही सबसे बड़ा बचाव है ’ कि तर्ज पर चलते हुए उन्होंने माकपा से कहा है कि वह नैनो को बड़ा मुद्दा नहीं बनाए। उन्होंने माकपा से सवाल किया है कि पहले उसे इस बात का जवाब देना चाहिए कि वाममोर्चा के 32 साल लंबे कार्यकाल में राज्य में इतनी बड़ी तादाद में उद्योग क्यों बंद हुए हैं। वे केंद्र की यूपीए सरकार को समर्थन देने के लिए भी वामपंथियों की खिंचाई कर रही हैं।
यह छोटी कार राज्य में लोकसभा चुनाव पर कितनी गहरी छाप छोड़ेगी, यह तो नतीजे ही बताएंगे। लेकिन फिलहाल टाटा की यह लखटकिया राज्य के सबसे अहम चुनावी मुद्दे के तौर पर उभर रही है।

सितारा चमकाने के लिए ममता को सितारों का सहारा

कोलकाता, 15 मार्च। पशचिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी को सिर्फ कांग्रेस के साथ तालमेल से ही संतोष नहीं है। इस लोकसभा चुनाव में अपने सितारे चमकाने के लिए वे सितारों के सहारे मैदान में उतरी हैं। वैसे, सितारों की सहारा लेना उनकी फितरत रही है। बीते विधानसभा चुनावों में उन्होंने जाने-माने बांग्ला अभिनेता तापस पाल को चुनाव लड़ाया और जिताया था। पाल के अलावा ममता ने माधवी मुखर्जी और नयना दास जैसी अभिनेत्रियों को भी टिकट दिया था। इस बार उन्होंने तापस पाल को तो मैदान में उतारा ही है, जानी-मानी बांग्ला अभिनेत्री शताब्दी राय और गायक कबीर सुमन को भी चुनाव मैदान में खड़ा कर दिया है। ममता ने अपर्णा सेन और पेंटर शुभप्रसन्न को भी टिकट देने की पेशकश की थी। लेकिन बात नहीं बनी।
दरअसल, दो साल पहले नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग के खिलाफ ममता के साथ सड़क पर उतरने वालों में बुद्धिजीवियों, कलाकारों और गायकों का एक बड़ा तबका शामिल था। उसके बाद ममता से इन सबकी नजदीकियां बढ़ीं। उन्होंने शताब्दी राय को बीरभूम संसदीय सीट से मैदान में उतारा है। राय ने तारापीठ में दर्शन-पूजन के बाद अपना चुनाव अभियान शुरू कर दिया है। शताब्दी का कहना है कि वे एक व्यक्ति व नेता के तौर पर ममता की इज्जत करती हैं। ममता राज्य के लोगों के जीवन में बदलाव का प्रयास कर रही हैं। इसलिए उन्होंने जब लोकसभा चुनाव लड़ने का अनुरोध किया तो वेइंकार नहीं कर सकीं। शताब्दी कहती हैं कि वे लोकप्रियता हासिल करने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही हैं। एक अभिनेत्री के तौर पर यह तो मुझे पहले से ही हासिल है। अब अपनी इस लोकप्रियता को मैं आम लोगों के हित में इस्तेमाल करना चाहती हूं।
गायक कबीर सुमन ने भी ममता के अनुरोध पर चुनाव लड़ने का फैसला किया। वे कहते हैं कि चुनाव जीत कर अब राज्य में बदलाव का प्रयास करेंगे। विधायक तापस पाल भी कृष्णनगर सीट से किस्मत आजमा रहे हैं। फिल्म निर्माता अपर्णा सेन को भी तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली इस निर्देशिका ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। अपर्णा ने साफ कह दिया कि सक्रिय राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
सिंगुर में किसानों की जमीन लौटाने की मांग में दिसंबर 2006 में ममता ने जब 26 दिनों तक अनशन किया था तब शतब्दी, कबीर समुन और तापस पाल वहां लगातार मौजूद रहे थे। अभिनेता तापस पाल तो तृणमूल के टिकट पर अलीपुर से विधानसभा चुनाव भी जीत चुके हैं। पुराने जमाने की मशहूर अभिनेत्री माधवी मुखर्जी ने वर्ष 2001 में कोलकाता की यादवपुर विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के खिलाफ चुनाव लड़ा था। लेकिन हार गई थीं। एक और अभिनेत्री नयना 2001 में चुनाव जीती थी। लेकिन लोकसभा चुनावों में कलाकारों और फिल्मी हस्तियों को पहली बार मैदान में उतारा है ममता ने।
शताब्दी ने तपन सिन्हा की फिल्म आतंक के जरिए 1986 में अपना फिल्मी सफर शुरू किया था। उनकी फिल्में खासकर बंगाल के ग्रामीण इलाकों में काफी हिट रही हैं।
ममता को पिछले लोकसभा चुनावों में महज एक सीटें मिली थीं। लेकिन अबकी वे इसकी तादाद बढ़ाने का प्रयास कर रही है। इसलिए कांग्रेस के साथ तालमेल हो या फिर सितारों को मैदान में उतारना, वे कोई भी मौका नहीं चूक रही हैं।
ममता की इस रणीनिति की सत्तारूढ़ वाममोर्चा ने कड़ी आलोचना की है। माकपा के वरिष्ठ नेता श्यामल चक्रवर्ती ने कहा है कि इस फैसले से साफ हो गया है कि तृणमूल कांग्रेस राजनीतिक दिवालिएपन की शिकार हो गई है। उसके पास ढंग के उम्मीदवारों का टोटा है। इसलिए अपनी किस्मत चमकाने के लिए वे फिल्मी सितारों का सहारा ले रही हैं।
वैसे, यह सितारें जीते या नहीं, लेकिन उनके चुनाव प्रचार के दौरान भारी भीड़ जुट रही है। अपने चहेते कलाकारों को देखने के लिए। ममता के विरोधी चाहे कुछ भी कहें, कई सितारों को मैदान में उतार कर ममता ने अबकी लोकसभा चुनावों में ग्लैमर के रंग तो घोल ही दिए हैं।

चुनावी वैतरणी पार करने के लिए माकपा को संकटमोचक का सहारा

कोलकाता, 28 मार्च। माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य समेत पार्टी के ज्यादातर दिगग्ज पहले ही कह चुके हैं कि वाममोर्चा के लिए यह लोकसभा चुनाव काफी कठिन साबित हो सकते हैं। इस कठिन चुनावी वैतरणी में अपनी नैय्या पार लगाने के लिए माकपा ने फिर अपने संकटमोचक पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु का सहारा लिया है। लगभग 95 साल की उम्र और लगातार ढलते स्वास्थ्य के बावजूद बसु घर बैठे ही माकपा के सितारा प्रचारक के तौर पर उभर रहे हैं। पार्टी नेतृत्व का मानना है कि अब भी बसु का आकर्षण कम नहीं हुआ है। बीते 32 वर्षों के दौरान राज्य में होने वाले हर चुनाव में ज्योति बसु ही माकपा व वाममोर्चा के खेवनहार साबित होते रहे हैं। इस बार भी अपवाद नहीं है। ढलते स्वास्थ्य की वजह से चुनावी रैलियों में शिरकत करना बसु के लिए संभव नहीं है। इसलिए पार्टी ने बसु के भाषणों का वीडियो कैसेट तैयार कराया है। इसे कार्यकर्ताओं की बैठक और चुनावी रैलियों में दिखाया जा रहा है। बसु का यह भाषण यू ट्यूब के जरिए माकपा की चुनावी वेबसाइट पर भी डाला गया है और वे सबसे हिट साबित हो रहे हैं।
बसु अपने खराब स्वास्थ्य के चलते आठ फऱवरी को ब्रिगेड परेड ग्राउंड में वाममोर्चा की पहली चुनावी रैली में शामिल नहीं हो सके थे। उसमें उनका बयान पढ़ कर सुनाया गया था। उसके बाद वाममोर्चा कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में उनके भाषण के वीडियो कैसेट का प्रसारण किया गया। इसके बाद ही पार्टी नेतृत्व ने बसु के भाषण का कैसेट तैयार कराने का फैसला किया। अब उनके भाषण के वीडियो कैसेट की प्रतियां राज्य के विभिन्न जिलों में भेजी जा रही हैं। इसे दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में दिखाया जाएगा। माकपा के मालदा जिला सचिव जीवन मित्र बताते हैं कि बसु के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ही वीडियो कैसेट बनवाने का फैसला किया गया। जल्दी ही यह कैसेट हर जिले में पहुंच जाएगा। हम अपनी चुनावी रैलियों में इसे दिखाएंगे।

वीडियो कैसेट में अपने भाषण में ज्योति बसु ने कहा है कि कांग्रेस ने देश की जनता के साथ विश्वासघात किया है। यूपीए की कोई नीति नहीं है। वामपंथियों ने भाजपा को हटाने के लिए केंद्र में कांग्रेस को समर्थन दिया गया था। लेकिन जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर कांग्रेस को समर्थन दिया गया, उसे लागू नहीं किया गया। उन्होंने अपली की है कि देश में आम जनता के हित में काम करने वाली सरकार के गठन के लिए वाममोर्चा को जिताना जरूरी है। उन्होंने विश्वास जताया है कि राज्य की जनता अपनी यह जिम्मेदारी निभाएगी।
बसु ने कहा है कि उन्होंने लंबे समय तक पार्टी और सरकार में अपनी जिम्मेदारियां निभाई। वाममोर्चा सरकार ने जनता के हित में बहुत कुछ किया है। लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य की सराहना करते हुए माकपा के इश वरिष्ठ नेता ने कहा है कि वे राज्य को विकास की पटरी पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। जनता के समर्थन से ही विकास संभव है।
माकपा ने इस वीडियो रिकार्डिंग को यू ट्यूब के जरिए बीते 17 मार्च को अपनी विशेष चुनावी वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट वोट डाट सीपीआईएम डाट ओआरजी पर अपलोड किया और तबसे कोई तीन हजार लोग इसे देख चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि माकपा के बाकी नेताओं की वीडियो पर अब तक ज्यादा हिट नहीं दर्ज नहीं हुई है। इस साइट पर बसु, करात और येटुरी के अलावा पोलित ब्यूरो के दो अन्य सदस्यों बृंदा कारत और मोहम्मद अमीन के वीडियो भी हैं।
प्रदेश माकपा के एक नेता कहते हैं कि बसु के प्रति अब भी लोगों में भारी आकर्षण है। जो असर दूसरे नेताओं की सशरीर मौजूदगी से नहीं होता, वह बसु के वीडियो से हो जाता है। वे बीते चुनावों का हवाला देते हुए कहते हैं कि 1999 के चुनावों में भाजपा ने माकपा से दमदम सीट छीन ली थी। तब बसु ही उस सीट पर पार्टी के दौबारा कब्जे की मुहिम में जुटे थे। दमदम में आंतरिक गुटबाजी के चलते पार्टी वह सीट हारी थी। बसु ने दोनों गुटों के साथ बैठ कर बातचीत की और उनमें सुलह कराई। उस बैठक में बसु ने कहा था कि वे शायद 2009 के चुनावों तक जीवित नहीं रहें। इसलिए अपने जीते-जी वे दमदम सीट को दोबारा माकपा के कब्जे में देखना चाहते हैं। उनकी इस भावनात्मक अपील का जादूई असर हुआ और 2004 के लोकसभा चुनाव में पार्टी भारी मतों के अंतर से यहां जीत गई।
आम तौर पर किसी व्यक्ति विशेष के महिमामंडन से बचने वाली माकपा ने अपनी चुनावी वेबसाइट के मास्टहेड पर वोट फार सीपीआईएम के साथ बसु की ही तस्वीर लगाई है। इससे पार्टी के लिए बसु की अहमियत का पता चलता है।
दूसरी ओर, महानगर के साल्टलेक स्थित इंदिरा भवन तक सीमित बसु के लिए भी इतिहास का पहिया पूरी तरह घूम गया है। कभी राज्य में कंप्यूटरीकरण के खिलाफ आंदोलन की कमान संभालने वाले बसु ही अब इंटरनेट पर वामपंथियों की साइट पर सबसे हिट साबित हो रहे हैं। इससे माकपा को उम्मीद है कि हर बार की तरह अबकी भी बसु का जादू राज्य के वोटरों के सिर चढ़ कर बोलेगा।

लाल बंगाल में वाम दल बेहाल

कोलकाता, 8 मार्च। पश्चिम बंगाल में आम चुनावों से पहले वाममोर्चा भंवर में है। इससे पहले कभी किसी चुनाव के मौके पर उसे इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों से नहीं जूझना पड़ा था। बीते साल हुए पंचायत चुनावों के बाद से ही उसे जो झटके लगने शुरू हुए थे उसका सिलसिला नंदीग्राम से होकर अभी विष्णुपुर पश्चिम विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव तक जारी रहा है। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के आपसी तालमेल ने यह सीट माकपा से छीन ली। इस नतीजे का लोकसभा के चुनावी नतीजे पर भले कोई असर नहीं पड़े, वाममोर्चा के नेताओं का आत्मविश्वास तो डगमगा ही गया है। अपने मजबूत संगठन और विपक्षी दलों के बिखराव का फायदा उठा कर हर चुनाव में लाल झंडा गाड़ने वाला वाममोर्चा पहली बार फंसा नजर आ रहा है। इसलिए अब माकपा और उसके घटक दलों ने नए चेहरों को तरजीह देने का फैसला किया है। इस असमंजस के चलते ही वाममोर्चा को अपने उम्मीदवारों की सूची चुनावी की तारीखों के एलान के बाद करनी पड़ी। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। वह हर बार चुनावों के एलान के महीने भर पहले से ही अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करता रहा है।
माकपा के वरिष्ठ नेता ज्योति बसु तक मान चुके हैं कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के हाथ मिलाने पर उनकी पार्टी को कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। उन्होंने कहा है कि इस चुनाव में पार्टी को कड़ी लड़ाई का सामना करना पड़ेगा और हो सकता है कि 2004 के चुनाव में मिली कुछ सीटें हाथ से निकल जाएं। अगर बसु जैसा नेता यह कबूल करता है तो मानना चाहिए कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच होने वाले तालमेल से माकपा सचमुच चिंतित है। बीते लोकसभा चुनाव के आंकड़े भी उसकी चिंता की पुष्टि करते हैं। ज्यादा नहीं तो कोई आधा दर्जन सीटें तो ऐसी हैं ही जहां कांग्रेस और तृणमूल को पिछली बार मोर्चा के विजयी उम्मीदवारों से ज्यादा वोट मिले थे।
वाममोर्चा अबकी अपने घर में अपनी ही पैदा की हुई समस्याओं से जूझ रहा है। अभियान तो हर बार वह सबसे पहले शुरू करता था, लेकिन इस बार उसे सिंगुर, नंदीग्राम, गोरखालैंड आंदोलन, लालगढ़, बीते साल हुए पंचायत चुनावों के नतीजे जैसे मुद्दों व सवालों से जूझना पड़ रहा है। मोर्चा जिन समस्याओं से घिरा है, उसमें विपक्ष की बजाय उसी का हाथ ज्यादा है। यानी ज्यादातर मुसीबतें उसने खुद ही पैदा की हैं। मोर्चा के सबसे बड़े व ताकतवर घटक माकपा ने ही उसे लालगढ़ और गोरखा बनाम आदिवासी के झगड़े में फंसाया है। सिंगुर से पहले तक जिस राज्य में औद्योगिकीकरण अभियान की धूम मची थी, वहां अब इसका कोई नामलेवा तक नहीं मिल रहा है। सिंगुर से टाटा मोटर्स के कामकाज समेटने के बाद यह मुद्दा लगभग ठप हो गया है। वैसे, मोर्चा ने इससे पांव पीछे नहीं खींचे हैं। लोकसभा चुनावों में औद्योगिकीरकरण उसका सबसे अहम मुद्दा है। सिंगुर, लालगढ़, गोरखालैंड और दिनहाटा में पुलिस फायरिंग जैसे मुद्दों पर मोर्चा के घटक दलों के बीच भी मतभेद उभरे। लेकिन इससे माकपा की नीतियों पर कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। दरअसल, मोर्चा का मतभेद कागजी ही होता है। घटक दलों के नेता मीडिया में तो अपने मतभेदों के बारे में टिप्पणी करते हैं, लेकिन वाममोर्चा की बैठक में माकपा की घुड़की के आगे वे मुंह नहीं खोल पाते।
माकपा और मोर्चा का शीर्ष नेतृत्व उक्त मुद्दों के असर को लेकर चिंतित है।
वामपंथियों की चिंता यह है कि अपने काडरों की गलतियों की वजह से उसने नंदीग्राम व लालगढ़ जैसे जो भस्मासुर पैदा किए हैं, उनका लोकसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा। बीते पंचायत चुनावों और नंदीग्राम व विष्णुपुर पश्चिम विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने काफी हद तक भविष्य का संकेत तो दे ही दिया है। लेकिन अब मोर्चा नेतृत्व इसकी काट की तलाश में जुटा है। दागी नेताओं के चलते चुनावी नतीजों पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर को ध्यान में रखते हुए ही माकपा ने नए चेहरों को टिकट देने का फैसला किया है। चार महीने से ज्यादा बीत जाने के बावजूद लालगढ़ में बारूदी सुरंग के विस्फोट से शुरू हुई समस्या खत्म होने की बजाय लगातार उलझती ही जा रही है। इसके अलावा दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में साल भर से जारी आंदोलन की लपटें अब डुआर्स व तराई के मैदानी इलाकों तक भी पहुंचने लगी हैं। इलाके में हिंसा, आगजनी व बंद तो अब आम हो गया है।
बीते साल के आखिर में नंदीग्राम और अब फरवरी के आखिर में विष्णुपुर पश्चिम विधानसभा सीट पर हार से मोर्चा नेतृत्व सकते में है। दरअसल, वामपंथियों को हार का उतना मलाल नहीं है जितना हार के अंतर का। वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में भाकपा को मोहम्मद इलियास ने नंदीग्राम सीट पांच हजार वोटो के अंतर से जीती थी, लेकिन अब उसी सीट पर भाकपा का उम्मीदवार चालीस हजार वोटों से हार गया। विष्णुपुर में पिछली बार माकपा की जीत का अंतर लगभग चार हजार रहा था, लेकिन अबकी उसकी हार का अंतर तीस हजार से ज्यादा रहा। यहां तृणमूल कांग्रेस के समर्थन में कांग्रेस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली थी। माकपा के प्रदेश सचिव विमान बोस, जो वाममोर्चा के अध्यक्ष भी हैं, ने माना है कि संगठन में कमजोरी भी हार के इस विशाल अंतर की एक प्रमुख वजह है। वे कहते हैं कि हम आम लोगों तक पहुंचने में नाकाम रहे। बोस का कहना है कि विपक्ष के गठजोड़ के चलते विष्णुपुर में हार तो तय ही थी। उन्होंने यह भी माना है कि माकपा वहां लोगों से बेहतर संपर्क कायम करने में नाकाम रही है।
दो सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों और कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच प्रस्तावित तालमेल की खबरों ने सिर्फ माकपा ही नहीं, मोर्चा के दूसरे घटक दलों के माथे पर भी चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं। भाकपा के प्रदेश सचिव मंजू कुमार मजुमदार कहते हैं कि राज्य के आधे वोटर वामविरोधी हैं। दोनों विपक्षी दलों के गठजोड़ के चलते अगर वोटरों का कुछ हिस्सा भी पाला बदलता है तो वाममोर्चा को नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं। उनको उम्मीद है कि लोग सोच-समझ कर ही वोट डालेंगे। फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी ने भी इस गठजोड़ को ध्यान में रखते हुए अपने कई उम्मीदवारों को बदल दिया है।
यह पहला मौका है जब ज्योति बसु से लेकर तमाम वामपंथी नेता बेहिचक कबूल कर रहे हैं कि यह चुनाव वाममोर्चा के लिए काफी कठिन होंगे। पहले कभी माकपा अपनी कमजोरियों को सार्वजनिक तौर पर कबूल नहीं करती थी। इसबार, यह उसकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। इन तमाम समस्याओं से निपट कर अपना अभियान बेहतर तरीके से चलाने के मकसद से माकपा ने पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की भी सहायता ली है। अपनी बढ़ती उम्र व बिगड़ते स्वास्थ्य की वजह से बसु अब पार्टी के कार्यक्रमों में शिरकत तो नहीं करते। लेकिन मोर्चा ने उनसे कई बयान दिलवाए हैं। उनमें बसु ने विपक्षी दलों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि बंगाल में जो वाममोर्चा का विरोध कर रहे हैं, उनके पास न तो कोई योजना है और न कोई नीति। वे सत्ता में आने के लिए बन्दूक का सहारा ले रहे हैं।
कुछ सीटें तो सचमुच माकपा के लिए सिरदर्द बन गई हैं। बीते लोकसभा चुनाव में हुगली जिले की श्रीरामपुर सीट इस बात की मिसाल है कि विपक्षी दलों के बिखराव ने उसकी जीत में कितनी अहम भूमिका निभाई थी। उस सीट पर माकपा उम्मीदवार एस.चटर्जी को कुल 4.04 लाख वोट मिले थे जबकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवारों को कुल 5.09 लाख। इस बार तो विपक्ष को इसी जिले के सिंगुर में जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन का भी फायदा मिलेगा। इसी तरह पूर्व मेदिनीपुर जिले के तमलुक में माकपा के लक्ष्मण सेठ लगभग 50 हजार वोटों के अंतर से जीते थे। अब नंदीग्राम कांड के बाद इलाके की तमाम पंचायतों और नंदीग्राम विधानसभा सीट पर विपक्ष का कब्जा है। ऐसे में इस सीट को बचाने के लिए माकपा को काफी पसीना बहाना पड़ सकता है। इनके अलावा बालूरघाट, नवद्वीप, बारासात, यादवपुर और कोलकाता उत्तर लोकसभा सीटों पर भी बीते लोकसभा चुनावों में विपक्ष को मिले कुल वोट वाममोर्चा उम्मीदवारों को मिले वोटों से कहीं ज्यादा थे। अबकी इन सीटों पर भारी खतरा मंडरा रहा है।
कांग्रेस को पिछली बार छह सीटें मिली थीं। वह अबकी इन छहों पर अपना कब्जा बनाए रखने के अलावा इस सूची में कम से कम दो और सीटें जोड़ने का प्रयास कर रही है। तृणमूल कांग्रेस को बीते चुनाव में महज एक सीट मिली थी। पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी ही अपनी दक्षिण कोलकाता सीट को बचाने में कामयाब रही थी। इस बार ममता के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। परिसीमन के बाद दक्षिण 24-परगना जिले के कई ऐसे हिस्से भी इस सीट के तहत शामिल हो गए हैं जहां बीते पंचायत चुनावों में तृणमूल ने माकपा को पटखनी दी थी। ममता दावा भले पंद्रह से बीस सीटों का करें, उनको कम से कम आधा दर्जन सीटों की उम्मीद तो है ही।
इन चुनावों में बंगाल में मुद्दा तो एक ही रहेगा। जमीन का। इसी मुद्दे को अपने-अपने तरीके से भुनाते हुए सत्तारुढ़ वाममोर्चा और विपक्ष, दोनों चुनाव मैदान में उतरे हैं। मोर्चा के अभियान में जहां खेती के साथ ही औद्योगिकीकरण पर जोर दिया जा रहा है, वहीं विपक्ष उद्योगों के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ प्रचार कर रहा है। वाममोर्चा सरकार ने सिंगुर से टाटा मोटर्स के कारोबार समेटने के बाद लगभग पांच महीने तक चुप्पी साध रखी थी। लेकिन चुनाव सिर पर आते ही उसने एक सप्ताह के भीतर ही दर्जनों परियोजनाओं का शिलान्यास कर दिया। इनमें से कई परियोजनाएं तो ऐसी हैं जो शायद इसके बाद होने वाले लोकसभा चुनावों तक भी पूरी नहीं होंगी। इसी तरह सरकार अचानक अपने कर्मचारियों, गरीबों और अल्पसंख्यकों की हितैषी बन गई। उनके लिए खजाने का मुंह खोल दिया गया। राशन के जरिए दो रुपए किलो की दर से चावल बांटना हो या फिर अल्पसंख्यकों को वजीफा देना, मौजूदा प्रतिकूल परिस्थिति से निपटने के लिए वह हर दांव आजमा चुकी है। इन उपायों को असर तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के समय सामने आएगा। फिलहाल तो वामपंथियों को दिन में ही तारे नजर आ रहे हैं।

बंगाल में फिर छूट गई महिलाओं की चुनावी ट्रेन

कोलकाता, 16 मार्च। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों की चुनावी ट्रेन एक बार फिर छूट गई है। महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने वाले विधेयक की पुरजोर वकालत करने वाले वामपंथी दलों ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों पर महज दो महिलाओं को ही टिकट दिया है, जो पिछली बार के मुकाबले आदे से भी कम है। कहां तो अबकी बीते चुनावों के मुकाबले इसकी तादाद बढ़ने की उम्मीद थी, लेकिन उसमें भी कटौती हो गई है। चौदह सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस ने दो महिलाओं को टिकट दिया है। भाजपा ने एक महिला को मैदान में उतारा है। दूसरी ओर, नंदीग्राम व सिंगुर जैसे मुद्दों और कांग्रेस के साथ तालमेल व फिल्मी सितारों के सहारे मैदान में उतरी तृणमूल कांग्रेस ने 28 में से पांच सीटों पर महिलाओं को मैदान में उतारा है। राज्य में सत्तारूढ़ वाममोर्चा के नेता महिला उम्मीदवारों का टोटा होने का रोना रो रहे हैं।
वाममोर्चा ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में पांच महिलाओं को टिकट दिया था। इनमें से तीन चुनाव जीत गई थी। लेकिन अबकी उनमें से भी एक का पत्ता साफ हो गया है। 42 में 32 सीटों पर लड़ने वाली माकपा ने पिछली बार जीतने वाली तीन में दो महिलाओं को दोबारा टिकट दिया है। इनमें से ज्योतिर्मयी सिकदर कृष्णनगर और सुष्मिचता बारूई विष्णुपुर आरक्षित सीट से लड़ेंगी। पिछली बार जीतने वाली मिनती सेन को अबकी टिकट नहीं दिया गया है। मोर्चा के बाकी तीन घटकों-आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक और भाकपा ने तो दस में किसी भी सीट पर किसी महिला को टिकट नहीं दिया है। विडंबना यह है कि राज्य में माकपा के महिला सदस्यों की तादाद 30 हजार से ऊपर है। लेकिन पार्टी के नेताओं की दलील है कि उनको कोई योग्य महिला उम्मीदवार ही नहीं मिली।
माकपा के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सदस्य श्यामल चक्रवर्ती की दलील है कि हर सीट का महत्व है। इसलिए हमने उम्मीदवारों के चयन में काफी सावधानी बरती। वे कहते हैं कि काफी विचार-विमर्श के बाद जीत सकने लायक उम्मीदवारों को ही टिकट दिए गए। पार्टी के एक अन्य नेता कहते हैं कि राज्य में ऐसी योग्य महिलाओं की कमी है जो लोकसभा चुनाव लड़ कर जीत सकें। उनकी दलील है कि विधानसभा, नगर निगम व पंचायत चुनावों में इसकी भरपाई कर दी जाएगी। पिछली बार जीतने वाली माकपा की महिला नेता मिनती सेन, जिनको अबकी टिकट नहीं मिला है, ने कहा है कि उको टिकट नहीं देने का फैसला पार्टी का है। लेकिन वे कहती हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए।
माकपा के नेता भले कुछ भी दलील दें, यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच प्रस्तावित तालमेल से वोट घटने के अंदेशे के चलते ही माकपा ने कम से कम महिला उम्मीदवारों को टिकट देने का फैसला किया। यह सही है कि तालमेल बाद में हुआ और मोर्चा के उम्मीदवारों की सूची पहले जारी हुई। लेकिन उस समय तक तालमेल की संभावना तो बढ़ ही गई थी और पार्टी के तमाम नेता इसके चलते वोट और सीटें घटने का अंदेशा जता रहे थे।
कांग्रेस ने जिन दो महिलाओं को टिकट दिया है उनमें से एक दीपा दासमुंशी को तो अपने पति के कोटे के तहत ही रायगंज से टिकट मिला है। रायगंज प्रिय रंजन दासमुंशी की पारंपरिक सीट रही है। दीपा भी उसी लोकसभा क्षेत्र के तहत पड़ने वाली विधानसभा सीट से पिछली बार चुनाव जीत चुकी हैं। अपनी लंबी बीमारी की वजह से दासमुंशी अबकी चुनाव लड़ने की हालत में नहीं हैं। इसलिए वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस ने उनके बदले उनकी पत्नी को टिकट दियाा है। इसके अलावा बर्दवान-दुर्गापुर सीट से नरगिस बेगम को टिकट दिया गया है। भाजपा ने प्रदेश महिला शाखा की प्रमुख ज्योत्सना बनर्जी को कोलकाता दक्षिण संसदीय सीट पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के खिलाफ मैदान में उतारा है। बीते चुनावों में भाजपा व तृणमूल साथ थी। लेकिन अब दोनों के रास्ते अलग हो गए हैं। इसलिए भाजपा ने ममता के खिलाफ एक महिला को ही उतार दिया है।
जहां तक तृणमूल कांग्रेस की बात है उसमें ममता के अलावा फिल्मी अभिनेत्री शताब्दी राय मैदान में हैं। डा.काकोली घोष दस्तीदार भी पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। कांग्रेस के साथ तालमेल के तहत 28 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी ने पांच महिलाओं को मैदान में उतारा है। ममता कहती हैं कि हमारी कथनी व करनी में फर्क नहीं है। हमारी सूची में लगभग 15 फीसद महिलाओं के नाम हैं। लेकिन वाममोर्चा ने तो आधे फीसद से भी कम महिलाओं को टिकट दिया है। पार्टी की दलील है कि कांग्रेस के साथ तालमेल के बाद दोनों की सूची को जोड़ने पर कुल 42 में से सात सीटों पर महिलाएं चुनाव लड़ रही हैं। जबकि वाममोर्चे ने इतनी ही सीटों पर दो महिलाओं को टिकट दिया है। यानी हमने मोर्चा के मुकाबले साढ़े तीन गुना ज्यादा महिलाओं को टिकट दिया है।