tag:blogger.com,1999:blog-67968185218435570032024-03-13T10:58:23.625+05:30पुरवाईपुरवाई यानी पूरब की हवा का झोंका जो अपने में कई गंध समेटे है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.comBlogger159125tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-59616255249236151682014-10-25T21:25:00.000+05:302014-10-25T21:25:49.566+05:30छोड़ा मद्रास था, लौटा चेन्नई
<b>यूं</b> तो अपने जीवन में बचपन से ही अनेक यात्राएं की हैं. बहता पानी निर्मला की तर्ज पर यात्रा करना मुझे हमेशा अच्छा लगता था. पिता जी के रेलवे की नौकरी में होने ने इस काम को कुछ आसान बना दिया. कुछ इस तरह की रेलवे का पास मिलने की वजह से ट्रेन का किराया बच जाता था. वही पैसे घूमने-फिरने के काम आ जाते थे. कभी पढ़ाई तो कभी कालेज में दाखिले के लिए उत्तर से दक्षिण भारत तक की कई यात्राएं हुईं. अस्सी के दशक में तो तब के मद्रास (अब चेन्नई) में कोई चार साल रहा भी. लेकिन अक्तूबर, 1986 में न जाने किस घड़ी में वह महानगर छोड़ा कि दोबारा जाने का मौका ही नहीं मिल सका था. जून, 2000 में गुवाहाटी से स्थानांतरित होकर कोलकाता पहुंचने के बाद लगा कि अब मद्रास के कुछ करीब आ गया हूं. शायद अब जाने का मौका लगे. लेकिन नौकरी और दुनियादारी के लाख झमेलों ने इन यात्राओं को सिलीगुड़ी, बनारस, सिवान और पुरी तक ही सीमित कर दिया था. उसके बाद बेटी की पढ़ाई, इंजीनियरिंग कालेज में उसके दाखिले और भारी खर्चों की वजह से चाहते हुए भी कहीं निकलना नहीं हो सका था. पिछले साल जरूर आगरा और उत्तराखंड के दो सप्ताह के सफर पर निकला था. लेकिन दक्षिण भारत हमेशा आकर्षित करता रहा. अपने मित्र अंबरीश जी (जनसत्ता के पूर्व उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख) का यात्रा वृत्तांत पढ़ कर दक्षिण की ओर जाने की इच्छा बलवती होती रही. लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था.
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आखिर संयोग बना इस साल सितंबर में. महीनों की प्लानिंग, ट्रेन के टिकट और बाकी तमाम औपचारिकताओं को पूरा करते हुए दिन महीने बन कर बीतते रहे और आखिर वह दिन आ ही गया जब हावड़ा से चेन्नई की ट्रेन पकड़नी थी. हावड़ा से कोरोमंडल एक्सप्रेस अपने तय समय से ही रवाना हुई. 28 साल पहले इसी ट्रेन से मद्रास से लौटा था. अब फिर उसी ट्रेन से वहीं जा रहा था. नोस्टालजिक होना लाजिमी था. बीच के तीन दशक यादों से न जाने कहां हवा हो गए और उस शहर में बिताए दिनों की याद एकदम ताजी हो गई. लग रहा था जैसे कल की ही बात हो. लंबी यात्रा होने की वजह से सामान काफी था और दक्षिण भारत में खाने-पीने की दिक्कतों को ध्यान में रखते हुए पत्नी ने खाने का काफी सामान भी बना-बांध लिया था. भुवनेश्वर में रात का खाना खा कर सब लोग सोने चले गए। एसी टू के कोच में तीन सीटें तो हमारी ही थीं. चौथी पर एक दक्षिण भारतीय युवक था जो अपने मोबाइल पर लगातार तमिल में किसी से बात किए जा रहा था.
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सुबह विशाखापत्तनम में आंख खुली. घड़ी देखी तो साढ़े चार बजे थे. चाय पीने की तलब हुई. लेकिन नींद भी आ रही थी. इसलिए चाय की बजाय नींद को तरजीह देते हुए चादर तान कर फिर लंबा हो गया. लेकिन एक बार नींद उचट जाए तो फिर आती कहां हैं. अपनी बर्थ पर लेटे हुए कोई तीन दशक पहले के चेहरे आंखों के आगे नाचने लगे. पता नहीं सब लोग कहां होंगे, मुलाकात होगी भी या नहीं, लोग वैसे ही होंगे या बदल गए होंगे-----इन सवालों से जूझते हुए बाहर झांका तो देखा ट्रेन राजमहेंद्री स्टेशन पहुंच रही है. सिर झटक कर मैं दक्षिण गंगा गोदावरी को देखने के लिए उठ कर बैठ गया. बेटी को भी जगा दिया था ताकि वो गोदावरी के चौड़े पाट को निहार सके. उसे पहले से ही इस नदी के बारे में विस्तार से बता रखा था. सो, वह भी ऊपर की बर्थ से नीच उतर आई. गोदावरी का पानी कुछ घट गया था लेकिन उसके पाट पहले की तरह ही चौड़े थे. आगे दस बजे विजयवाड़ा पहुंचे. वहां नीचे उतर कर चाय पी. पत्नी और बेटी के लिए खाने-पीने का कुछ सामान खरीदा. कोरोमंडल एक्सप्रेस विजयवाड़ा से रवाना होने के बाद कोई सात घंटे बाद सीधे मद्रास ही रुकती है. दिन का यह सफर उबाऊ होता है. लेकिन पत्नी और बेटी की चूंकि यह पहली दक्षिण यात्रा थी, इसलिए उनमें भारी उत्साह था.
खैर, शाम पांच बजे चेन्नई सेंट्रल पहुंचे. वहां से टैक्सी पर सामान लाद कर सीधे होटल, जो स्टेशन से ज्यादा दूर नहीं था. लेकिन मेट्रो रेल परियोजना ने स्टेशन के आसपास के इलाके के ट्रैफिक को इतना बेतरतीब कर दिया है कि होटल पहुंचने के लिए लंबा यू-टर्न लेना पड़ा. होटल के कमरे में पहुंचने के बाद थकान हावी होने लगी. नहा-धोकर चाय पीने के बाद कल की योजना बनने लगी. डिनर जल्दी निपटा कर बिस्तर पर गए तो नींद ने तुरंत आगोश में ले लिया.
प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-64284352298497552282014-05-02T23:27:00.003+05:302014-05-02T23:33:10.237+05:30ब्लागरों को पहचान दिलाता बॉब्स
दुनिया भर से जर्मन रेडियो सेवा डॉयचे वेले के पाठकों ने तीन हजार से ज्यादा ऑनलाइन अभियानों और ब्लॉगों को नामांकित किया है. अंतरराष्ट्रीय जूरी ने इनमें से 14 भाषाओं में वोटिंग के लिए खास ब्लॉग चुने हैं. अब आप इनमें से विजेता तय कर सकते हैं.बॉब्स 2014 के लिए ऑनलाइन वोटिंग 7 मई तक की जा सकती है. इस साल भी आप तय कर सकते हैं कि कौन से ब्लॉग या ऑनलाइन मुहिम को यूजर इनाम मिलना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय जूरी छह मुख्य श्रेणियों में ब्लॉग और ऑनलाइन मुहिम के विजेता चुनेगी. यह प्रक्रिया वोटिंग से अलग होती है और मई में जज तय करेंगे कि किस भाषा के किस ब्लॉग को वह इनाम देना चाहते हैं. आप यहां http://<ahref="http://thebobs.com/hindi/">thebobs.com/hindi/वोट दे सकते हैं.
जूरी इनाम जीतने वाले ब्लॉगरों को 30 जून से 2 जुलाई तक डॉयचे वेले ग्लोबल मीडिया फोरम के लिए बॉन बुलाया जाएगा.
बॉब्स की शुरुआत 2004 में हुई. इसमें ऐसे प्रोजेक्ट शामिल किए गए हैं जिनमें पारदर्शिता लाना मुख्य मुद्दा है और जो अपनी भाषा या अपने इलाके से ऊपर उठकर इंटरनेट की अहमियत का अहसास दिलाते हैं. प्रतियोगिता 14 भाषाओं में होती है, तुर्की, हिन्दी, जर्मन, अंग्रेजी, चीनी, इंडोनेशियाई, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, रूसी, स्पेनी, यूक्रेनी, बंगाली और फ्रेंच. पिछले साल बेहतरीन ब्लॉग के विजेता बने चीन के लेखक ली चेंगपेंग. इससे पहले क्यूबा की कार्यकर्ता योआनी सांचेस, ईरान के अरश सिगर्ची और लीना बेन मेनी ने पुरस्कार जीते हैं.
वोटिंग में अपने पसंदीदा ब्लॉगर को जिताने के लिए आप 24 घंटों में एक बार एक श्रेणी में वोट कर सकते हैं. सबसे ज्यादा वोटों वाला ब्लॉग या वेबसाइट को “जनता की पसंद” घोषित किया जाएगा. वोटिंग के लिए बिलकुल नामांकन की ही तरह आप फेसबुक, ट्विटर या डीडब्ल्यू पर अपना अकाउंट बनाकर वोट कर सकते हैं. अगर और जानकारी चाहिए तो इसके बारे में जानकारी नियम वाले पेज पर पढ़ी जा सकती है.
7 मई को पता चलेगा कि कौनसी श्रेणी में कौनसी वेबसाइट जीती. जूरी सदस्य जिन ब्लॉगरों को चुनेंगे, वह आएंगे जून में जर्मनी और डॉयचे वेले बॉन में पुरस्कार समारोह में हिस्सा लेंगे. जनता की पसंद से जीतने वाले ब्लॉगरों को सर्टिफिकेट और बैज भेजे जाएंगे जो आप अपनी वेबसाइट पर लगा सकते हैं.
बर्लिन में चार और पांच मई दे दिन जूरी विजेताओं का चयन करेगी. जूरी पुरस्कार कुल छह श्रेणियों के लिए चुने जाएंगे जिसमें प्रतियोगिता बॉब्स में चुने गए सभी भाषाओं के ब्लॉग्स के बीच होगी. दो दिनों तक जूरी बहस करेगी कि कौन सा ब्लॉग सबसे अच्छा और श्रेणी में बेहतरीन है. इसके बाद बहुमत के आधार पर फैसला किया जाता है.
बॉब्स के पन्ने पर सभी नामांकित वेबसाइट के साथ उनके बारे में जानकारी आपको मिल जाएगी. ब्लॉग, वेबसाइट, माइक्रोब्लॉग, वीडियो और पॉडकास्ट की मदद से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा मिलता है. यह हाल फिलहाल में होने वाली घटनाओं का विश्लेषण करती हैं या दूर दराज और पिछड़े इलाकों से हमें खबरें देती हैं.
बॉब्स की रूसी जज आलेना पोपोवा कहती हैं, "रूस में जनता जैसे कई सालों से सोई हुई थी. हर किसी को लगता था कि उसे अकेले ही हालात से लड़ना होगा. ऑनलाइन अभियानों की वजह से अब पता चला है कि रूसी समाज बदलाव के लिए तैयार है. हम एक साथ होकर कुछ कर सकते हैं. इसे सरकार का प्रोपोगेंडा भी खत्म नहीं कर पाएगा. 2011 में संसदीय चुनावों के बाद से ही ऑनलाइन अभियानों का असर दिख रहा है." अपने शहर में पोपोवा नागरिकों की और हिस्सेदारी, पारदर्शिता और राजनीति पर निगरानी पर काम करती हैं.
इंटरनेट में दुनिया भर के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पारदर्शिता के लिए काम कर रहे हैं, यह कहना है डॉयचे वेले की प्रोग्राम डायरेक्टर गेर्डा मॉयर का. "लेकिन इंटरनेट पर जासूसी होती है और नियंत्रण रखा जाता है और इस प्रतियोगिता में कई अभियान इसकी आलोचना करते हैं. वह चाहते हैं कि डिजिटल जासूसी खत्म हो." मॉयर बॉब्स प्रतियोगिता में शामिल कुछ अभियानों की मिसाल देती हैं, जैसे इंटरसेप्ट, जिसे एडवर्ड स्नोडेन के करीबी ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने शुरू किया है या सेंसर के खिलाफ काम करने वाली वेबसाइट लैंटर्न या यूक्रेन की यूरोमैदान. जर्मन भाषी देशों में केऑस कंप्यूटर क्लब और थ्रीमा ऐसे संगठन हैं जो यूजर की जानकारी की निजता सुरक्षित करते हैं.
डॉयचे वेले बॉब्स के मुख्य पार्टनरों में भारत से वेबदुनिया के अलावा यूएनआई और अन्य देशों से ग्लोबल वॉसेस, टेरा, माइनेट और चाईना डिजिटल टाइम्स शामिल हैं.
<a href="http://http://thebobs.com/hindi/"></a>प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-25426345294267530602014-03-03T23:32:00.004+05:302014-03-03T23:32:53.574+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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असली या कागजी
प्रभाकर मणि तिवारी
जनसत्ता 27 फरवरी, 2014 : कुछ समय पहले ‘जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं’ के संदेश के साथ फोन करने वाले मित्र ने आखिर वह सवाल पूछ ही लिया, जिसे हर साल झेलना पड़ता है। उन्होंने पूछा कि आपका यह जन्मदिन असली है या कागजी! अब उसे क्या और कितनी बार समझाता! मैंने कहा कि यही मेरी असली जन्मतिथि है। यों, मित्र का सवाल मुझे बुरा भले लगा, लेकिन यह जायज ही था। अपने समकालीन जितने भी मित्रों, सहकर्मियों को जन्मदिन की बधाई देता हूं, अक्सर सुनने को मिलता है कि यार, मेरी असली जन्मतिथि तो फलां तारीख को है। यह तो मां-बाबूजी ने हाईस्कूल का आवेदन भरते समय लिखवा दिया था। चारों ओर देखने के बाद लगता है कि किसी की उम्र से दो साल गायब हैं तो किसी से चार साल। एक परिचित की तो असली और कागजी जन्मतिथि में पूरे आठ साल का हेरफेर था। अट्ठावन की जगह छियासठ की उम्र में वे इसी साल जनवरी में सेवानिवृत्त हुए। दो साल पहले से इतने बीमार चल रहे थे कि दफ्तर तक नहीं जा पाते थे। बीच में तो दुनिया से ही निकल जाने का अंदेशा हो गया था! एकाध बार दफ्तर गए भी तो पत्नी को साथ लेकर।
मेरी भी असली और कागजी जन्मतिथि अलग-अलग हैं। लेकिन दूसरे लोगों की तरह इसमें दो या चार साल नहीं, बल्कि महज एक दिन का अंतर है। और उस अंतर से मेरा फायदा नहीं, नुकसान है। एक दिन पहले ही नौकरी से सेवानिवृत्त हो जाऊंगा। दरअसल, मैं दो दिसंबर की आधी रात के बाद पैदा हुआ था। यानी जन्मतिथि तीन दिसंबर हुई। लेकिन कागज में दर्ज है दो दिसंबर। हालांकि अलग-अलग जन्मतिथि के अपने फायदे भी हैं। मसलन मित्र, सहपाठी और सहकर्मी प्रमाणपत्र वाली तारीख, यानी दो दिसंबर को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं और तमाम परिजन अगले दिन। यानी लगातार दो दिनों तक शुभकामना संदेश मिलते रहते हैं। कुछ वर्षों से सबको बताने भी लगा हूं कि मेरी असली जन्मतिथि दो नहीं, तीन तारीख है। कुछ मित्रों ने इसे सुनते ही सवाल दाग दिया कि अच्छा, और साल कौन-सा है! उन्हें लगता था कि तीन दिसंबर मेरी जन्म की तारीख भले हो, लेकिन साल जरूर कोई और होगा! किस-किस को सफाई देता रहूं! अब तो कुछ वर्षों से पत्नी भी उलाहने की तर्ज पर कह देती हैं कि ‘फलां को देखिए, आपसे चार साल बड़ा है और आपके बाद रिटायर होगा!’
आसपास देखता हूं तो कागजी जन्मतिथि वाले लोग ही ज्यादा नजर आते हैं। कई करीबी रिश्तेदारों ने जब नौकरी शुरू की थी तो मैं स्कूल जाता था। लेकिन अब पता चला है कि वे तमाम लोग मुझसे साल-दो साल बाद तक नौकरी में जमे रहेंगे। लेकिन ‘अब पछताए होत क्या’ की तर्ज पर मन मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। सहकर्मी सोचते हैं कि इसने भी हमारी तरह साल-दो साल तो जरूर चुराए होंगे! लाख सफाई दूं, चेहरे पर उभरने वाले अविश्वास के भाव उनके सोच की चुगली कर देते हैं। बीते जन्मदिन पर पचास पूरे करने के बाद इस साल भी लोगों ने बधाई देने के साथ सवालिया अंदाज में पूछ ही लिया कि कम से कम बावन के तो हो गए होंगे! कई लोग सीधे पूछने के बजाय घुमा कर यही सवाल करते हैं कि अभी कितने दिन नौकरी बची है। पिछले साल तो मुहल्ले के एक सज्जन कहने लगे कि अपनी तरफ गांव में तो लोग चालीस की उम्र पार करते ही बूढ़े लगने लगते हैं। लेकिन आपको देखिए! इस उम्र में भी जवान लग रहे हैं!
लोग समझते हैं कि रंग-रोगन के जरिए उम्र छिपा रहा है। एक सहकर्मी तो कहने लगे कि अब यार आपस में क्या छिपाना! मेरी असली उम्र कागजी उम्र से तीन साल ज्यादा है। तुम भी तो मेरी ही उम्र के हो गए होगे। मैं क्या कहता! एक मित्र ने फोन किया और औपचारिकता निभाने के बाद कहने लगे कि फेसबुक पर आपकी फोटो देख कर नहीं लगता कि इतनी उम्र हो गई है। मैंने कहा कि भाई, अभी तो पचास पूरे किए हैं। इस पर कहने लगे कि कागज में तो मैं भी अड़तालीस का ही हूं! मन में कोफ्त होने के बावजूद हंस कर बात बदलने की कोशिश की। लेकिन वे भला कहां मानने वाले थे! सवाल दाग दिया कि यार, अब तो बता दो कि तुम्हारी असली जन्मतिथि क्या है! लगता है कि असली और कागजी के इस चक्कर से इस जन्म में पीछा शायद ही छूटेगा।
जनसत्ता से साभार
प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-11970047784754001082013-06-20T22:35:00.000+05:302013-06-20T22:35:14.712+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>रविवार यानी 16 जून को सुबह पांच बजे जब कौसानी स्थित कुमायूं मंडल विकास निगम (केएमवीएन) के टूरिस्ट रेस्ट हाउस में आंखें खुली तो बाहर से तेज बारिश की आवाज आ रही थी. दरवाजा खोला तो तेज छीटों ने स्वागत किया. लेकिन उस समय इस बात का जरा भी आभास नहीं हुआ कि यहां रोमांटिक-सी लगने वाली यह बारिश आज उत्तराखंड की पहाड़ियों पर कहर बरपाएगी. हमको आज ही काठगोदाम के लिए निकलना था. रानीखेत होते हुए.
इससे पहले हम शनिवार को नैनीताल से कौसानी के लिए निकले थे. हमारे ड्राइवर घनश्याम जोशी ने कहा था कि हर साल 15 जून को कैंचीधाम में भारी मेला लगता है. उससे हाइवे घंटों जाम रहता है. इसलिए हमें कौसानी के लिए तड़के ही निकलना होगा. उनकी बात मान कर हम सुबह कोई चार बजे से ही तैयार हो गए और सुबह पौने छह बजे नैनीताल क्लब से निकल पड़े. लेकिन बेटी की जिद थी कि उसे वह सेंट जोसेफ कालेज देखना है जहां कोई मिल गया फिल्म की शूटिंग हुई थी. इसलिए पहाड़ियों की चोटी पर बसे उस कालेज के गेट पर जाकर फोटो खिंचवाने के बाद जब हम भवाली के रास्ते पर निकले तो घड़ी सवा छह बजा रही थी. उस दिन मौसम बेहद खुशगवार था. खैरना में आलू पराठे के नाश्ते के बाद हम अल्मोड़ा की राह पर आगे बढ़ चले. गरम पानी कस्बे के खैरना से ही बायीं ओर की सड़क रानीखेत चली जाती है और सीधी सड़क अल्मोड़ा की ओर. सुबह नौ बजे अल्मोड़ा पहुंचने पर भी मौसम साफ था और आसमान पर बादलों का कोई निशान तक नहीं था. उस समय यह शहर उनींदा-सा था. बाजार बस खुल ही रहे थे. अल्मोड़ा की बाल मिठाई काफी मशहूर है. यह दूध को जला कर बनाई जाती है और चाकलेट की तरह लगती है. वहां मिठाई खरीदने और खाने के बाद हम बढ़ चले पहाड़ के अपने अंतिम पड़ाव कौसानी की ओर. वैसे, कौसानी में रात गुजारने का पहले कोई इरादा नहीं था. मैं रानीखेत में रात गुजारना चाहता था. लेकिन कोलकाता में केएमनवीएन के जनसंपर्क अधिकारी जुयाल साब ने कहा था कि आप रानीखेत की बजाय कौसानी क्यों नहीं चले जाते. रास्ते में रानीखेत भी देख सकते हैं. तो, इस तरह अपना कौसानी का कार्यक्रम बना.
कौसानी से कुछ पहले और सोमेश्वर के बाद हल्की फुहारों ने हमारा स्वागत किया. कौसानी के केएमवीएन रेस्ट हाउस में जब पहुंचा तो दोपहर के ठीक 12 बज रहे थे. वहां के मैनेजर तारा दत्त तिवारी ने स्वागत किया और हमें कमरा दिखा दिया. कमरे में ही दोपहर का खाना खाने और कुछ देर आराम करने के बाद हमने अनासक्ति आश्रम का रुख किया. गांधी जी इसी आश्रम में ठहरे थे और वहां से हिमालय का नजारा साफ नजर आता था. उस आश्रम में कुछ समय गुजारने के बाद ही आसमान में काले बादल घिरने लगे थे थे. लेकिन उन बादलों ने बरसना शुरू किया तब जब हम कौसानी बाजार की एक दुकान में वहां बनी ऊन की चीजें देख रहे थे. रेस्ट हाउस लौटते हुए बारिश तेज हो गई थी. लेकिन हमें इसकी चिंता कहां थी. अब रात तो यहीं गुजारनी थी. रात का खाना खाने के बाद कोई दस बजे के आस-पास जब मोटे कंबल ओढ़ कर बिस्तर की शरण ली, तब भी आसमान बरस रहा था.
अगले दिन काठगोदाम के लिए निकलने से पहले हम वहां शाल की फैक्टरी देखने गए. उस समय भी बारिश तेज थी. किसी तरह वहां से सुबह नौ बजे निकले रानीखेत के लिए निकले तो पूरे रास्ते बारिश आंखमिचौली खेलती रही. कभी धूप तो कभी बारिश. जब रानीखेत पहुंचे तो कुछ देर के लिए मौसम साफ हो गया और हमें गोल्फ कोर्स और मनकामेश्वर मंदिर में फोटो खिंचवाने का मौका मिल गया. वहां कुमायूं रेजिमेंट का संग्रहालय देखने के दौरान भी मौसम साफ रहा. लेकिन वहां से लौट कर कार में बैठते ही एक बार फिर काली घटा घिर आई थी. रविवार को पहली बार अपने ड्राइवर जोशी के चेहरे पर चिता की लकीरें नजर आईं. वह बार-बार कह रहा था कि यह बारिश कुछ कर गुजरेगी. बरसों से कुमायूं की पहाड़ियों पर कार चलाते हुए उसे शायद भावी अंदेशे का पूर्वाभास हो गया था. रानीखेत से खैरना तक रास्ते में कई जगह सड़क पर ऐसे बड़े-बड़े पत्थर देखे जो जानलेवा साबित हो सकते थे. जोशी की जुबान पर ऐसी कितनी ही कहानियां तैर रहीं थीं. भारी बारिश के बीच ही हमने कैंचीधाम के मंदिर में दर्शन किया. वहां सड़क पर सैलाब बह रहा था. पानी का बहाव इतना तेज था कि पैर फिसल रहे थे. चौबीस घंटे पहले जाते समय जिस कोसी नदी को नाले की तरह देखा था वह आज उफन रही थी. भवाली में भी सड़क नदी का रूप ले चुकी थी. मैंने रास्ते में किसी एटीएम से पैसे निकालने का मन बनाया था. लेकिन कोई एटीएम काम नहीं कर रहा था. भवाल से काठगोदाम आते हुए ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने वाले वाहनों की लंबी कतार नजर आई. उसी समय ड्राइवर ने कहा कि शायद नैनीताल जाने वाली मुख्य सड़क बंद हो गई है. कुछ दूर जाने के बाद उसका अंदेशा सही साबित हुआ. पूरे रास्ते सड़क पर पत्थर और मलबा नजर आया. किसी तह शाम साढ़े छह बजे काठगोदाम पहुंचे तो वहां भी उड़ूपीवाला रेस्तरां से रात का खाना पैक कराते समय भारी बारिश. काठगोदाम से दिल्ली के लिए हमारी ट्रेन रानीखेत एक्सप्रेस रात 8.40 पर थी. कोई एक हफ्ते तक हमारे साथ रहे जोशी ने घर पहुंच कर फोन करने का वादा ले कर हमसे विदा ली. अगले दिन दिल्ली पहुंचने के बाद जब टीवी पर उस इलाके में बर्बादी का नजारा देखा तो समझ में आया कि हम किस मुसीबत से निकले हैं. महज अड़तालीस घंटे पहले हम अल्मोड़ा को जिस रास्ते पर गुजरे थे वह भी कोसी के गर्भ में समा गया था. शुरू में मैंने रानीखेत होकर कौसानी जाने और अल्मोड़ा होकर लौटने की योजना बनाई थी. लेकिन जोशी की सलाह पर इसे उल्टा कर दिया. अब सोच कर सिहरन होती है कि अगर मूल योजना नहीं बदलते और एक दिन भी किसी पहाड़ी पर रुक गए होते तो कई दिन वहां फंसना पड़ता. लेकिन शायद इसे ही तो किस्मत या संयोग कहते हैं.
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प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-56247664299715079512011-10-14T22:53:00.001+05:302011-10-14T22:55:19.011+05:30शाही शादी में भूटानी हुए दीवाने<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYWKLxSD-UVHRCEggOd0uFjLZ5l8OGG_EZcI4DmZbXADNWeVYV1kyNU7ZgNBITPZCmvELpj03ilKSkB04XXj3vomvn_P4lSv59OIundIksL-N4lWU7QYRCggVawhvD41zx0uuHsTEKG5I7/s1600/13bhutan4-1_1318514431_l.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 172px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYWKLxSD-UVHRCEggOd0uFjLZ5l8OGG_EZcI4DmZbXADNWeVYV1kyNU7ZgNBITPZCmvELpj03ilKSkB04XXj3vomvn_P4lSv59OIundIksL-N4lWU7QYRCggVawhvD41zx0uuHsTEKG5I7/s200/13bhutan4-1_1318514431_l.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5663400113139424146" /></a><br /><strong>बे</strong>गानी शादी में अब्दुल्ला के दीवाना होने की कहावत सबने सुनी ही होगी. लेकिन यह तो न तो बेगानी शादी थी और न ही दीवाना होने वाले लोग अब्दुल्ला थे.यह शादी उनके अपने राजा की थी. पूरे देश में युवकों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी है जिन्होंने अपने जीवन में कभी कोई शाही शादी नहीं देखी. उनके लिए तो यह नजारा किसी उत्सव से कम नहीं था. <br />यूरोपीय देशों के बाद अब हिमालय की गोद में बसे एशियाई देश भूटान के लोगों ने भी इस सप्ताह शाही शादी का नजारा देखा. बौद्ध रीति-रिवाजों के मुताबिक हुई शादी को देखने के लिए भूटान ही नहीं बल्कि भारत से भी भारी तादाद में लोग पहुंचे थे. यूरोप में होने वाली शाही शादियों के विपरीत इस शादी की खास बात यह रही कि इसमें किसी भी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को नहीं न्योता गया था. दुनिया के सबसे नन्हे लोकतंत्र भूटान के सबसे कम उम्र के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक और भारत में पली-बढ़ी और पढ़ी जेटसन पेमा की शाही शादी का गवाह बनने के लिए खराब मौसम के बावजूद देश के कोने-कोने से लगभग एक लाख लोग पहुंचे थे. <br />विवाह समारोह राजधानी थिंपू से लगभग 70 किलोमीटर दूर पुनाखा शहर में 17वीं सदी में बने एक किले में संपन्न हुआ. 1955 में राजधानी के थिम्पू जाने से पहले तक यह शहर ही सत्ता का केंद्र था. शाही परिवार में यहीं शादी करने की परंपरा है. पुनाखा के रॉयल लिंका मैदान में भूटान के विभिन्न समुदायों के कलाकारों ने शाही विवाह के उपलक्ष्य में पारंपरिक नृत्य पेश किए. इसके बाद राजा व रानी उपस्थित जनता के समक्ष आए और उसे आशीर्वाद दिया. विवाह समारोह के सिलसिले में भूटान की सेना, पुलिस और रॉयल बॉडीगार्ड की तरफ से सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए थे. विवाह के दौरान भूटान की मोबाइल सेवाओं को बंद कर दिया गया था. यहां तक कि निजी वाहनों की आवाजाही पर भी रोक थी.<br />भूटान में गुरुवार सुबह शाही विवाह का समारोह शुरू होने से पहले ही इस जोड़े को भारत की ओर से शुभकामनाएं दी गईं. भूटान नरेश की दुल्हन के पुराने स्कूल की एक शिक्षिका ने भूटान में विवाह समारोह शुरू होने से पहले ही अपनी पूर्व छात्रा को शुभकामनाएं दीं. जेटसन पेमा के यहां के कसौली हिल्स स्थित आवासीय लारेंस स्कूल में पढ़ती थीं। उस दौरान नीलम ताहलन उनकी हाउस मिस्ट्रेस थीं. इस शाही शादी में मानो समूचा भूटान झूम रहा था. एक छात्र के.नामग्याल कहता है कि मैं राजा और रानी को नजदीक से देखना चाहता था.<br />ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े भूटान नरेश वांगचुक और पेमा बचपन से ही दोस्त थे. नरेश महज 17 साल की उम्र में ही पेमा को अपना दिल दे बैठे थे. बरसों पुराना यह प्यार अब सात जन्मों के बंधन में बदल गया है. इस अवसर पर दोनों बेहद खुश थे. लोगों को लंबे अरसे से इस शाही शादी का इंतजार था. राजधानी थिम्पू के एक स्कूल शिक्षक डी. वाग्दी इस शादी को देखने के लिए दो दिन पहले ही पुनाखा पहुंच गए थे. वे कहते हैं कि भूटान में अब अगले 20-25 वर्षों तक ऐसा कोई समारोह नहीं आयोजित होगा. मैं यह मौका चूकना नहीं चाहता था.<br />राजसी विवाह को यहां के करीब सात लाख लोगों ने अपने घरों में टेलीविजन पर देखा. इसका ‘भूटान ब्राडकास्टिंग सर्विस टीवी’ पर सीधा प्रसारण किया गया. विवाह भूटानी बौद्ध परंपराओं के अनुसार हुआ. शाही शादी सुबह चार बजे ब्रह्म मुहुर्त में 100 बौद्ध भिक्षुओं की विशेष प्रार्थना के साथ आरंभ हुई. प्रार्थना मुख्य बौद्ध पुरोहित जे. खेनपो की देखरेख में हुई. इसके बाद वांगचुक और पेमा को पति-पत्नी घोषित कर दिया गया. शादी की रस्में पूरी होने के बाद दोनों बौद्ध मठ में खास तौर पर सजे कक्ष में कैमरे के सामने आए. शादी के बाद नरेश और महारानी ने किले के बाहर एक मैदान में जमा हजारों लोगों के साथ मिलकर नृत्य किया और अपनी शादी की खुशियां उनके साथ बांटी. <br /><br />विवाह की कई रस्में संपन्न होने के बाद 31 वर्षीय नरेश वांगचुक ने पीले रंग के जैकेट और स्कर्ट में सजी पेमा को मुकुट पहनाया. इसके बाद पेमा आधिकारिक तौर पर भूटान की महारानी घोषित कर दी गईं. भूटान की राजसी परंपराओं के अनुसार महारानी पेमा ने नरेश वांगचुक को तीन बार साष्टांग प्रणाम किया। इस रस्म के बाद दोनों को एक पेय दिया गया. मान्यताओं के अनुसार यह नवविवाहित जोड़े की दीर्घायु के लिए दिया जाता है. नरेश की शादी के जश्न में भूटान में भारत के राजदूत पवन के. वर्मा, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम. के. नारायणन और राज परिवार के सदस्यों समेत लगभग 300 मेहमानों ने हिस्सा लिया.<br />शादी के जश्न में आए लोगों को भूटान की 20 घाटियों से आए 60 बेहतरीन रसोईयों के हाथों का बना हुआ पारंपरिक भूटानी भोजन परोसा गया. इस शाही दावत में कुछ भारतीय पकवान भी शामिल किए गए थे. शाही शादी का गवाह बनने के लिए सौ किलोमीटर का सफर तय कर पहुंचे नामगे दोर्जी और उनके घरवाले बेहद खुश थे. इस शादी के मौके पर भूटान डाक विभाग ने नवविवाहित दंपती की तस्वीर वाले 60 हजार खास डाक टिकट छापे हैं. इसी तरह भूटान मुद्रा प्राधिकरण ने नई करेंसी और चांदी के सिक्के तैयार किए हैं. चांदी के सिक्के पांच हजार रुपए में बिक रहे हैं जबकि डाक टिकटों की कीमत 25 से 225 रुपए के बीच है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-74804322270187112412011-08-07T11:20:00.000+05:302011-08-07T11:21:38.778+05:30सुंदरबन में तेज होती जिंदगी की जंग<strong>प्रभाकर मणि तिवारी</strong><br /><strong><em>(यह रिपोर्ट रविवार, 7 अगस्त को जनसत्ता रविवारी में कवर स्टोरी के तौर पर छपी है. वहीं से साभार.)</em></strong><br /><strong>सुं</strong>दरबन यानी दुनिया में रायल बंगाल टाइगर का सबसे बड़ा घर। पश्चिम बंगाल और पड़ोसी बांग्लादेश की सीमा पर 4262 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह इलाका इन बाघों के अलावा अपनी जैविक विवधताओं के लिए भी मशहूर है। लेकिन अब यह सब खतरे में है। वैश्विक तापमान में बढ़ोती ने इस इलाके के वजूद पर सवालिया निशान लगा दिया है। लेकिन सबसे तात्कालिक समस्या तो इस इलाके में रहने वाले इंसानों और बाघों को बचाने की है। आबादी के बढ़ते दबाव और पर्यावरण असंतुलन की वजह से से सिकुड़ते जंगल के चलते सुंदरबन की विभिन्न बस्तियों में रहने वाले लोग और बाघ एक-दूसरे से रोजाना जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। कभी बाघ इंसानों का शिकार करते हैं तो कभी इंसान बाघों का। अब इस जंगल में इंसान ही नहीं बल्कि बाघ भी असुरक्षित हैं। <br />सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। बाघों को सुंदरबन का रक्षक कहा जाता है। लेकिन सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं व मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैंग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को की ओर से विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया। <br />सुंदरबन इलाके में बाघों के जंगल से निकल कर मानव बस्तियों में आने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अपने मैंग्रोव जंगल और रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरबन इलाका बाघ और इंसानों के बीच बढ़ते संघर्ष की वजह से लगातार सुर्खिर्यां बटोर रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सुंदरबन में हर साल औसतन 35 से 40 लोग बाघ के शिकार बन जाते हैं। लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि इलाके में हर साल अममून सौ से ज्यादा लोग बाघ के जबड़ों में जिंदगी गंवा देते हैं। दूर-दराज के इलाकों की घटनाओं के बारे में अक्सर पता ही नहीं चलता या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। हाल के दिनों में इंसानी बस्तियों पर बाघों के हमले की कम से कम एक दर्जन घटनाओं में छह लोग लोग मारे जा चुके हैं और इतने ही घायल हुए हैं। वन विभाग ने बीते हफ्ते बस्ती में घूमते एक बाघ को दबोचने में भी कामयाबी हासिल की है। इस कड़ी की ताजा घटना में बाघ के जबड़े में फंस कर एक और मछुआरे की मौत हो गई। इन घटनाओं ने वन विभाग के अधिकारियों और राज्य सरकार को चिंता में डाल दिया है। सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघों के हमले की ज्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी परमिट या मंजूरी के ही गहरे जंगल में घुसते हैं। इसलिए ऐसे मामलों की सही तादाद बताना मुश्किल है। वन विभाग की दलील है कि सुंदरबन का जो इलाका भारत की सीमा में है वहां रहने वाले बाघ आदमखोर नहीं हैं। लेकिन पड़ोसी बांग्लादेश में लगभग हर साल आने वाले तूफान के चलते उस पार से भी भोजन की तलाश में काफी बाघ इधर आ गए हैं। वे अक्सर जंगल से सटी बस्तियों में घुस जाते हैं या फिर जंगल में जाने वालों को घात लगा कर अपना शिकार बना लेते हैं। <br />वन विभाग ने इसके कारणों का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया है। शुरूआती जांच में यह तथ्य सामने आया है कि सुंदरवन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने, बाघों के चरने की जगह लगातार घटने और अपना पसंदीदा खाना नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। इनसे बचाव के फौरी राहत के तौर पर वन विभाग ने सुंदरबन में सौ हिरण छोड़े हैं। लेकिन इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही माना जा रहा है। <br />सुंदरबन विकास बोर्ड इस बात का पता लगाने पर जोर दे रहा है कि बाघ भोजन की कमी के चलते जंगल से बाहर निकल रहे हैं या अपनी प्रकृति में बदलाव की वजह से। बीते दो सालों में बाघों के इंसानी बस्तियों में घुसने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। सुंदरबन के बाघों की प्रकृति में भी बदलाव आ रहा है। अब वे निडर होकर बस्तियों में घुस कर इंसानों पर हमले कर रहे हैं।<br />सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता। उस अधिकारी का कहना है कि सुदरबन की इंसानी बस्तियों में रहने वाले लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए मूल रूप से जंगली लकड़ियों की कटाई पर ही निर्भर हैं। अक्सर जंगल में बाघ से मुठभेड़ होने पर वे लोग उसे अपने धारदार हथियारों से घायल कर देते हैं। ऐसे ही बाघ भोजन की तलाश में इंसानों पर हमला करते हैं। प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं वहां पानी का खारापन बीते एक दशक में 15 फीसद बढ़ गया है। इसलिए बाघ धीरे-धीरे जंगल के उत्तरी हिस्से में जाने लगे हैं जो इंसानी बस्तियों के करीब है।<br />सुंदरबन बायोरिजर्व के निदेशक प्रदीप व्यास कहते हैं कि हमारे लिए यह चिंता का विषय है। हम इसकी वजह का पता लगा रहे हैं। व्यास ने कहा कि बाघों को आसपास के वनों में प्रवेश से रोकने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं । वे बताते हैं कि बाघों के भोजन के लिए जंगल में हिरण छोड़े जा रहे हैं। राज्य वन्यजीव बोर्ड की सिफारिशों के तहत 200 हिरणों को सुंदरबन में मुक्त किया जायेगा । लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वे बीमारी से मुक्त हों । इस प्रक्रिया को पूरा होने में तीन से नौ महीने तक का समय लग सकता है । उन्होंने कहा कि वनकमिर्यों ने कुछ बाघों को पकड़ा है जो काफी कमजोर पाए गए हैं ।<br />उधर, वन्यजीवों से जुड़े एनजीओ ने चिंता जताई है कि बाघों के इन गांवों में भटकने से फिर से मानव-पशु संघर्ष हो सकता है। नेचर एनवायनर्मेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी के सचिव विश्वजीत रायचौधरी कहते हैं कि हालात काफी चिंताजनक है । <br />बाघ और इंसानों के बीच लगातार तेज हो रही इस जंग का नतीजा दक्षिण 24-परगना जिले के आरामपुर गांव में अपनी पूरी कड़वाहट के साथ देखा जा सकता है। इस गांव में हर साल इतने लोग बाघ के शिकार हो जाते हैं कि उस गांव का नाम ही विधवापल्ली यानी विधवाओं का गांव हो गया है। सुंदरबन के गोसाबा द्वीप में स्थित आरामपुर गांव राजधानी कोलकाता से लगभग 90 किलोमीटर दूर जयनगर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। लेकिन इस आरामपुर गांव में विधवाओं की लगातार बढ़ती तादाद के चलते इसका नाम ही बदल कर विधवापल्ली या विधवाओं का गांव हो गया है। गांव में अठारह से लेकर साठ साल तक की महिला मतदाता हैं। लेकिन उनके मुकाबले पुरुष मतदाताओं की तादाद नहीं के बराबर है।<br />देश में यह शायद अकेली ऐसी जगह है, जहां हर दो चुनाव के बीच पुरुष मतदाताओं की तादाद बढ़ने की बजाय घट जाती है। ज्यादातर मामलों में तो गांव के युवक मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने से पहले ही बाघ के पेट में समा जाते हैं। सुंदरबन के इस गांव में रहने वाले मछली पकड़ने के अलावा जंगल से मधु एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। जंगल में रायल बंगाल टाइगर के खतरे से बाकिफ होने के बावजूद पेट की आग बुझाने के लिए वे रोज जंगल में जाते हैं।<br />गांव की ज्यादातर विधवाओं के पास अपनी जमीन नहीं है। अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए उन्हें काफी दूर जाकर पैसे वाले लोगों के लोगों के घरों और खेतों में काम करना पड़ता है। गांव के बच्चों का बचपन भी उसे छिन गया है। वे छोटी उम्र से ही दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं और बड़े होने पर जंगल में जाते हैं। <br />आजादी से पहले विधवापल्ली गांव का कोई वजूद नहीं था। लेकिन विभाजन के बाद पारंपरिक रूप से मछुआरे, लकड़हारे और मधु एकत्र करने वाले यहां धीरे-धीरे आ बसे। साल 1950 तक यहां की आबादी ज्यादा नहीं थी। बाद में गांव के पुरुष धीरे-धीरे बाघ का शिकार बनते गए और गांव में या तो विधवाएं बच गईं या फिर उनके दुधमुंहे बच्चे। सामाजिक बायकाट की चलते धीरे-धीरे सुंदरबन इलाके के दूसरे गांवों की विधवाएं भी विधवापल्ली में आ कर बसने लगीं। इस समय गांव में लगभग सवा दो सौ घर हैं। लेकिन इनमें से एक भी घर ऐसा नहीं है जहां बाघ के जबड़ों में सुहाग खोने वाली कोई विधवा नहीं हो। यानी सुदंरबन के बाघों ने इलाके में विधवाओं का एक पूरा गांव ही बसा दिया है।<br />गांव की पार्वर्ती मंडल के पति को बीते साल ही जंगल में बाघ ने मार दिया। वह कहती है कि यह तो विधवाओं का गांव है। हमें न तो सरकार से कोई सहायता मिलती है और न ही कोई नेता हमारा दर्द बांटने आता है। वह आरोप लगाती है कि चुनाव के मौके पर तमाम राजनीतिक पार्टियां हमदर्दी का नाटक करती हैं। लेकिन चुनाव बीतते ही उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। गांव के एक बुजुर्ग मोहम्मद शफीकुल के तो तीनों बेटों को बाघ ने मार दिया। अब अपने छोटे-छोटे पोते-पोतियों के साथ दिन काट रहे शफीकुल कहते हैं कि यहां मौत ही हमारी नियति है। घर में बैठें तो भूख से मर जाएंगे और जंगल में जाएं तो बाघ हमें नहीं छोड़ेगा। गांव के न जाने कितने ही मर्द उनका शिकार हो चुके हैं।<br />सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंजर्वेशन लैंडस्केप आॅफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी तादाद की सही जानकारी और बाघों व मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ते टकराव की वजहों का पता करना है। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है। <br />इलाके में ज्यादातर हमले अप्रैल व मई में हुए हैं। यह मैंग्रोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं। लेकिन बाघों के लिए यही प्रजनन का सीजन होता है। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों व गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।<br />सुंदरबन के बाघों को बेहद खूंखार माना जाता है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूंखार व्यवहार का कारण है। सरकार हर साल लगभघ 40 लोगों को जंगल से शहद एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट देती है। लेकिन पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों में वन उत्पादों को एकत्र करने व मछली पकड़ने जाते हैं।<br />अब इस इलाके में पर्यावरण असंतुलन के चलते बाघ ही नहीं, बल्कि इंसानों का वजूद भी खतरे में पड़ गया है। यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में शुमार सुंदरबन में देखने के लिए बहुत कुछ है। रायल बंगाल बाघ, जैविक और प्राकृतिक विविधता और सुंदरी पेड़ों का सबसे बड़ा जंगल यानी मैंग्रोव फॉरेस्ट। लेकिन अब इसमें एक और चीज जुड़ गई है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कुप्रभाव देखना हो तो सुंदरबन एक आदर्श जगह है। बांग्लादेश की सीमा से सटा यह इलाका दुनिया में मैंग्रोव जंगल और अपनी जैविक व पर्यावरण विविधताओं के लिए मशहूर है। लेकिन बंगाल की खाड़ी के लगातार बढ़ते जलस्तर ने इसके अस्तित्व पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पर्यावरण में तेजी से होने वाले बदलावों के चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण इस जंगल और इलाके में जहां-तहां बिखरे द्वीपों पर संकट मंडराने लगा है। इन प्राकृतिक द्वीपों के साथ यहां रहने वाली आबादी भी खतरे में है। डूबने के डर से इलाके से बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। वैसे, तो पहले भी समय-समय पर सुंदरबन के द्वीपों के पानी में समाने पर चिंताएं जताई जा रहीं थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी पर्यावरण रिपोर्ट के बाद इसकी गंभीरता खुल कर सामने आ गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो सुंदरबन जल्दी ही भारत के नक्शे से मिट जाएगा। <br />इस क्षेत्र के दो द्वीप पानी में डूब चुके हैं। लोहाचारा नामक एक द्वीप पानी में समा चुका है। घोड़ामारा द्वीप भी धीरे-धीरे पानी में समा रहा है। अब कम से कम और एक दर्जन द्वीपों पर यही खतरा मंडरा रहा है। इनमें वह सागरद्वीप भी शामिल है जहां सदियों से मशहूर गंगासागर मेला आयोजित होता रहा है। उन द्वीपों में लगभग 70 हजार की आबादी रहती है। <br />कोलकाता में यादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्री अध्ययन स्कूल के निदेशक सुगत हाजरा कहते हैं कि यह पर्यावरण में हो रहे बदलावों का नतीजा है। लोहाचारा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब गए हैं। अब सेटेलाइट से ली जाने वाली तस्वीरों में इनको नहीं देखा जा सकता। ग्लोबल वार्मिंग और लगातार जारी भूमि कटाव के कारण इलाके के कम से कम 12 और द्वीपों के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है। हाजरा कहते हैं कि समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर व प्रशासनिक उदासीनता के कारण सुंदरबन का 15 फीसदी हिस्सा वर्ष 2020 तक समुद्र में समा जाएगा। वे बताते हैं कि यहां समुद्र का जलस्तर 3.14 मिमी सालाना की दर से बढ़ रहा है। इससे कम से कम 12 द्वीपों का वजूद संकट में है।<br />सुंदरबन इलाके में कुल 102 द्वीप हैं। उनमें से 54 द्वीपों पर आबादी है। मछली मारना और खेती करना ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं। इलाके में यहां रोजगार का कोई अवसर नहीं है। इसके साथ बढ़ती आबादी और बाहरी लोगों के यहां की जमीन पर कब्जा कर होटल खोलने के कारण दबाव और बढ़ा है। सुंदरबन के गड़बड़ाते पर्यावरण संतुलन पर व्यापक शोध करने वाले आर. मित्र कहते हैं कि इस मुहाने के द्वीप धीरे-धीरे समुद्र में समाते जा रहे हैं। अगले दशक के दौरान हजारों लोग पर्यावरण के शरणार्थी बन जाएंगे।<br />राज्य के अतिरिक्त प्रमुख वन संरक्षक अतनु राहा कहते हैं कि आबादी के दबाव ने सुंदरबन के जंगलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इलाके के गावों में रहने वाले लोगों के चलते जंगल पर काफी दबाव है। इसे बचाने के लिए एक ठोस पहल की जरूरत है ताकि जंगल के साथ-साथ वहां रहने वाले लोगों को भी बचाया जा सके। हमने इलाके में बड़ी नहरें व तालाब खुदवाने का फैसला किया है ताकि बारिश का पानी संरक्षित किया जा सके। इस पानी से इलाके में जाड़ों के मौसम में दूसरी फसलें उगाई जा सकती हैं। इससे जंगल पर दबाव कम होगा।<br />सरकार ने कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर सुंदरबन इलाके के लोगों में जागरूकता पैदा करने की भी योजना बनाई है। लेकिन सुंदरबन को बचाने की दिशा में होने वाले उपाय उस पर मंडराते खतरे के मुकाबले पर्याप्त नहीं हैं।<br />पर्यावरण विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि अगर इस दिशा में ठोस पहल नहीं की गई तो जल्दी ही सुंदरबन का नाम नक्शे से मिट जाएगा। तब यहां न तो बाघ बचेंगे और न ही इंसान। आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से कई बस्तियां जंगल से एकदम सटी हैं। बाघ अक्सर उनमें घुस जाते हैं। जिंदगी की इस बढ़ती जंग ने बाघों को उन गांव वालों के लिए राक्षस बना दिया है जो कभी उसी बाघ देवता की पूजा कर जंगल में जाते थे।प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-67230131424425165792011-04-26T22:45:00.000+05:302011-04-26T22:46:05.247+05:30अनुशासनहीन और पार्टीविरोधी सोमनाथ बने माकपा का सहाराबदलाव के शोर के बीच पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में माकपा की अगुवाई वाला वाममोर्चा सत्ता में बने रहने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। इसके लिए उसे पार्टीविरोधी और अनुशासनहीन पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का सहारा लेने से भी कोई परहेज नहीं है। सोमनाथ को जुलाई 2008 में इन्हीं आरोपों के चलते माकपा से निकाल दिया गया था। माकपा नेता और आवासन मंत्री गौतम चटर्जी के अनुरोध पर सोमनाथ के चुनाव प्रचार से पार्टी के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व के बीच की खाई एक बार फिर सतह पर आ गई है। अब इस अहम चुनाव के मौके पर पार्टी महासचिव प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी जैसे नेताओं को भी सोमनाथ का स्वागत करना पड़ रहा है।<br />यह बात जगजाहिर है कि माकपा के शीर्ष नेतृत्व में दक्षिणपंथी लाबी के दबाव में ही सोमनाथ जैसे कद्दावर नेता को पार्टीविरोधी गतिविधियों और अनुशासनहीनता के आरोप में माकपा से निकाल दिया गया था। उस समय इस मुद्दे पर प्रदेश और शीर्ष नेतृत्व के बीच गहरे मतभेद उभरे थे। प्रदेश माकपा के नेता सोमनाथ के खिलाफ निष्कासन जैसी कड़ी कार्रवाई के पक्ष में नहीं थे। सुभाष चक्रवर्ती समेत कई नेताओं ने तो सार्वजनिक तौर पर इस फैसले के खिलाफ सवाल उठाए थे। <br />सोमनाथ बीते सप्ताह से ही माकपा के समर्थन में कई रैलियों को संबोधित कर लोगों से आठवीं वाममोर्चा सरकार को सत्ता में लाने में की अपील कर रहे हैं। लेकिन गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज की तर्ज पर वाममोर्चा के नेता इस मामले को कोई तूल नहीं देना चाहते। माकपा के प्रदेश सचिव और वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु ने पहले ही पत्रकारों से कहा था कि अगर सोमनाथ समेत कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से माकपा व वाममोर्चा के पक्ष में प्रचार के लिए आगे आता है उसका विरोध नहीं, स्वागत किया जाएगा। महासचिव प्रकाश कारत और पोलितब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में इस मुद्दे पर टिप्पणी की। लेकिन वे शायद यह भूल गए कि सोमनाथ अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि माकपा के स्टार प्रचारक और सबसे बड़े प्रवक्ता के तौर पर उभरे गौतम देव के लगातार अनुरोध की वजह से प्रचार के लिए आगे आए हैं। शायद इसलिए करात ने यह जोड़ा कि प्रचार के लिए किसी को बुलाने या नहीं बुलाने का फैसला प्रदेश नेतृत्व पर निर्भर है। गौतम देव की ओर से सोमनाथ को दिए गए प्रचार के न्योते के बाते में पूछे गए सवाल पर पहले तो विमान बसु का कहना था कि उनको इसकी जानकारी नहीं है। वे कोलकाता से बाहर थे। इससे यह सवाल पैदा होता है कि क्या गौतम देव इतने ताकतवर हो गए हैं कि वे प्रदेश सचिव की अनुमति तो दूर, उनको सूचित किए बिना किसी ऐसे नेता को प्रचार का न्योता दे सकते हैं जिसे महज तीन साल पहले पार्टीविरोधी गतिविधियों के आरोप में माकपा से निकाल दिया गया हो। अगर सचमुच ऐसा है तो सोमनाथ को निकालने में पार्टी ने जिस अनुशासन का परिचय दिया था, उसकी तो देव ने धज्जियां ही उड़ा दीं।<br />लेकिन सोमनाथ को प्रचार का न्योता देने का फैसला अकेले गौतम का नहीं था। उन्होंने पत्रकारों को बताया था कि यह फैसला विमान बसु व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से सलाह-मशविरे के बाद ही लिया गया है। गौतम का सवाल था कि कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है कि एक बार पार्टी से निकाले जाने के बाद उस नेता को वापस नहीं लिया जा सकता या फिर उससे प्रचार नहीं कराया जा सकता।<br />पार्टी से निकाले जाने के बाद सक्रिय राजनीति से अलग रहने का फैसला करने सोमनाथ ने पत्रकारों से कहा था कि गौतम देव लगातार अपने समर्थन में दमदम इलाके में चुनाव प्रचार करने का अनुरोध कर रहे हैं। अपने समर्थन में हुई कई रैलियों के बाद गौतम अब सोमनाथ को पार्टी में वापस लेने की मुहिम चला रहे हैं। उनका कहना है कि वापसी का फैसला तो सोमनाथ पर निर्भर है। लेकिन वाममोर्चा उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार करने वाले ऐसे कद्दावर नेता को कब तक पार्टी से बाहर रखा जा सकता है।<br />सोमनाथ के प्रचार में उतरने का स्वागत मुख्यमंत्री ने भी किया है। लेकिन उन्होंने पार्टी में उनकी वापसी के सवाल पर कोई टिप्पणी नहीं की है। बुद्धदेव ने कहा कि सोमनाथ हमारी पार्टी के एक अहम नेता थे। दो-तीन साल पहले कुछ समस्याएं जरूर पैदा हो गईं। लेकिन वे अब भी पार्टी के साथ हैं। क्या उनकी वापसी होगी? इस सवाल पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि फिलहाल इस सवाल पर विचार नहीं किया गया है। लेकिन यह तय है कि उनके चुनाव प्रचार से हमें काफी फायदा होगा।<br />राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अपने कार्यकाल के सबसे अहम विधानसभा चुनाव का सामना कर रही माकपा अबकी कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहती। यही वजह है कि केंद्रीय नेतृत्व की परवाह किए बिना ही उसने सोमनाथ जैसे नेता को चुनाव प्रचार में उतारा है। इसके साथ ही उनको पार्टी में वापस लाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। सोमनाथ इन चुनावी रैलियों में कह चुके हैं कि वे अब भी मार्क्सवादी हैं। चुनाव का नतीजा वाममोर्चा के पक्ष में रहने की स्थिति में माकपा में सोमनाथ की वापसी के सवाल प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व का टकराव तय है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सोमनाथ के प्रचार से माकपा को कितना फायदा होगा या फिर पार्टी में उनकी वापसी होगी या नहीं, इन जैसे कई सवालों का जवाब तो बाद में मिलेगा। लेकिन उनके कूदने से माकपा के चुनाव अभियान को मजबूती तो मिली ही है।<br /><em></em>प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-10262905078628072672011-04-26T22:44:00.001+05:302011-04-26T22:44:51.957+05:30बेशर्मी और बेहयाई की हदें टूटीं बंगाल चुनाव मेंममता तो सोनागाछी की वेश्या की तरह बड़ा ग्राहक मिलने पर छोटे को छोड़ देती हैं, तृणमूल कांग्रेस को अमेरिका से काला धन मिला है चुनाव लड़ने के लिए, ममता नाचते हुए भाषण देती हैं, पैरों में हवाई और प्रचार के लिए हेलीकाप्टर, यह तो जबरदस्त विरोधाभास है, माकपा नेता गौतम देव ने फ्लैट बेच कर करोड़ों की रिश्वत कमाई है उनको कमर में रस्सी बांध कर घूमाया जाना चाहिए, पश्चिम बंगाल देश का सबसे बदतर शासित राज्य है, सरकार ने बंगाल को कत्लगाह बना दिया है---यह बानगी है पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ लग रहे आरोपों की. बदलाव की कथित हवा के बीच हो रहे विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान में सचमुच बदलाव नजर आ रहा है. इस दौरान सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों यानी वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन ने एक-दूसरे पर निजी हमलों और अशालीन व कटु टिप्पणियों का जो दौर शुरू किया है उससे बेशर्मी और बेहयाई की तमाम हदें टूट गईं है. दोनों दलों के नेताओँ के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर ऐसे स्तर पर पहुंच गया है जिससे सड़क छाप गुंडे-मवाली भी शर्मा सकते हैं. कुछ नेता अपने विरोधियों के चरित्र हनन में इस कदर डूबे हैं कि उनको भाषा की गरिमा का भी ख्याल नहीं रहा. माकपा के एक पूर्व सांसद ने तो तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की तुलना सोनागाछी की वेश्या से कर सारी हदें तोड़ दी हैं.<br />पहले भी चुनाव में दोनों दलों के नेता अपने विरोधियों के खिलाफ तमाम आरोप तो लगाते थे. लेकिन उनकी भाषा संयत रहती थी. लेकिन इस बार यही नेता आप से तुम पर उतर आए हैं. इनके बीच तू-तू,मैं-मैं का जो दौर शुरू हुआ है वह आम वोटरों की कल्पना से परे है. दोनों पक्ष एक-दूसरे पर चुनाव प्रचार में काले धन के इस्तेमाल का आरोप लगा रहे हैं. मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान इसकी शुरूआत माकपा नेता और आवासन मंत्री गौतम देव ने की. उन्होंने तृणमूल कांग्रेस पर चुनाव अभियान के दौरान अपने उम्मीदवारों को 34 करोड़ का काला धन बांटने का आरोप लगाया. बाद में यह भी जोड़ा कि यह पैसा अमेरिका से मिला है. इसके जवाब में तृणमूल के नेताओं ने कहा कि गौतम देव ने चुनावों के एलान के बाद भी महानगर से सटे राजारहाट में फ्लैटों की अवैध बिक्री से लगभग दो सौ करोड़ रुपए कमाए हैं और वही पैसा चुनाव प्रचार में इस्तेमाल किया जा रहा है. तृणमूल ने कहा कि इस मामले में देव को गिरफ्तार कर उनकी कमर में रस्सी बांध कर उनको सड़कों पर घूमाना चाहिए. <br />इसके बाद देव ने फिर जवाबी हमला बोला. उन्होंने कहा कि ममता अपनी चुनावी रैलियों में नाच-नाच कर भाषण देती हैं. उन्होंने तृणमूल कांग्रेस पर उन कूपनों को जलाने का आरोप लगाया जिनके जरिए पार्टी ने अपने कथित काले धन को सफेद किया था. लेकिन उन्होंने अपने किसी भी आरोप के समर्थन में कोई सबूत नहीं दिया है. उनका कहना है कि समय आने पर वे सबूत पेश करेंगे. दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने भी गौतम के खिलाफ लगाए आरोपों पर कोई सबूत नहीं पेश किया है. उसकी दलील है कि पहले गौतम सबूत पेश करें, तब वह भी सबूत देगी.<br />गौतम देव बनाम तृणमूल कांग्रेस के बीच निहायत ओछी छींटाकशी का यह दौर चल ही रहा था कि हुगली जिले के आरामबाग से पूर्व माकपा सांसद अनिल बसु ने सारी हदें तोड़ दीं. उन्होंने कहा कि ममता को देश के विभिन्न हिस्सों से चुनाव खर्च के लिए पैसे मिल रहे थे. लेकिन उन्होंने मना कर दिया. दरअसल, उनको अमेरिका से इसके लिए पैसा मिल रहा है. बसु का कहना था कि जिस तरह सोनागाछी की वेश्याएं मालदार ग्राहक मिल जाने पर छोटे ग्राहकों को छोड़ देती हैं, ममता ने भी वैसा ही किया है. आखिर किस ग्राहक ने ममता को 34 करोड़ रुपए दिए हैं. बसु की इस टिप्पणी से यहां राजनीतिक हलके में तूफान खड़ा हो गया है. तृणमूल कांग्रेस ने उनके भाषण की सीडी के साथ चुनाव आयोग को शिकायत भेजी है. तृणमूल नेता पार्थ चटर्जी ने इस टिप्पणी के लिए बसु की गिरफ्तारी की मांग की है. दूसरी ओर, बसु की इस टिप्पणी से माकपा नेतृत्व भी सकपका गया. यही वजह है कि प्रदेश सचिव विमान बसु और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अलग-अलग बयान जारी कर बसु की उक्त टिप्पणी की निंदा की. भट्टाचार्य ने अभद्र भाषा इस्तेमाल करने पर अनिल बसु को कड़ी फटकार लगाते हुए भविष्य में सतर्क रहने को कहा है. मुख्यमंत्री ने कहा कि इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल क्षमा करने लायक नहीं है और एक वामपंथी नेता के नाते यह अनुचित है. भट्टाचार्य ने पार्टी नेतृत्व से इस मामले को गंभीरता से देखने और आवश्यक कदम उठाने को कहा.<br />भट्टाचार्य की फटकार पर दो दिन बाद बसु ने इस टिप्पणी के लिए माफी मांगने की औपचारिकता निभा ली. वैसे, सात बार सांसद रहे बसु की शालीनता का यह पहला मामला नहीं है.यह माकपा सांसद इससे पहले सिंगुर मामले पर टिप्पणी करते हुए कह चुके हैं कि वे नैनो कारखाने के सामने धरना मंच पर बैठी ममता को बाल पकड़ कर खींचते हुए नीचे उतार सकते थे.<br />दूसरी ओर, गौतम देव के तेवर जस के तस हैं.बीते सप्ताह एक स्थानीय चैनल पर इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा दिया था कि माकपा समेत हर पार्टी में अमेरिकी खुफिया एजंसी सीआईए के एजंट हैं.वे ममता की सादगी और हवाई चप्पलों की खिल्ली उड़ाते हुए कह चुके हैं कि पैरों में हवाई और चुनाव प्रचार के लिए हेलीकाप्टर—इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है.<br />इस सप्ताह चुनाव प्रचार के लिए आए केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम ने बंगाल को देश का सबसे बदतर शासित राज्य बताते हुए सरकार पर राज्य को कत्लगाह बनाने का आरोप जड़ दिया. इससे तिलमिलाए वामपंथियों ने कहा कि चिदंबरम पहले अपने गिरेबां में झांकें. <br />यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राज्य में चुनावों के दौरान निजी हमले तो पहले भी होते रहे हैं.लेकिन इस बार यह हमला जिस ओछे स्तर पर शुरू हो गया है वह बेमिसाल है.दरअसल, इस बार दोनों ही दावेदार चुनावी नतीजों को लेकर काफी डरे हुए हैं। एक को सत्ता हाथ से निकलने का डर सता रहा है तो दूसरा यह सोचकर आशंकित है कि इतनी उम्मीदों के बावजूद अगर सत्ता हाथ में नहीं आई तो क्या होगा. ऐसे में निजी हमलों और चरित्रहनने का यह दौर चुनावी नतीजों तक कम होने की बजाय और बढ़ेगा ही.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-75734388531668117102011-04-26T22:41:00.001+05:302011-04-26T22:44:03.052+05:30बंगाल चुनाव में ओबामा !<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4-FxkrJMA47Mfcm5B1zA-JmtTALHxzdFT9kYbngjLGwXaZDeZ2Hkt8nKj8UgyHCm5ZMG5AoNFbGl4QmdtfyWpMXB9vtTkvbiIwy74_XGuPswLyQ3sxuJLkEu5FruL6qYAAnLwSilftbeQ/s1600/arup+Biswas+TMC+MLA.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 176px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4-FxkrJMA47Mfcm5B1zA-JmtTALHxzdFT9kYbngjLGwXaZDeZ2Hkt8nKj8UgyHCm5ZMG5AoNFbGl4QmdtfyWpMXB9vtTkvbiIwy74_XGuPswLyQ3sxuJLkEu5FruL6qYAAnLwSilftbeQ/s200/arup+Biswas+TMC+MLA.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5599941666136591410" /></a><br />पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच भला क्या संबंध है? इसका जवाब है कुछ नहीं. ओबामा तो कभी बंगाल के दौरे पर भी नहीं आए हैं. वीकलीक्स के ताजे खुलासे में भले ममता के अमेरिका के लिए बेहतर साबित होने की बात कही गई हो, ओबामा यहां तृणमूल के पक्ष में चुनाव प्रचार नहीं कर रहे हैं. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं चाहते हुए भी हजारों मील दूर कोलकाता में दिलचस्प चर्चा का मुद्दा बन गए हैं. विधानसभा चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस का एक उम्मीदवार ओबामा के सहारे चुनाव प्रचार कर रहा है. कोलकाता की टालीगंज विधानसभा सीट के तृणमूल उम्मीदवार अरूप विश्वास अपने चुनाव अभियान के दौरान इस बात का जम कर प्रचार कर रहे हैं कि पिछले साल दुर्गापूजा के दौरान उन्होंने पर्यावरण पर मंडराते खतरों को उजागर करते हुए जो थीम रखी थी उसकी प्रशंसा ओबामा ने भी की है. इस सीट पर मतदान 27 अप्रैल को होना है.<br />विश्वास महानगर के अलीपुर इलाके की सुरुचि संघ आयोजन समिति के प्रमुख हैं. इस क्लब ने पिछले साल बारिश के पानी के संरक्षण (रेन वाटर हारवेस्टिंग) की थीम पर दुर्पापूजा आयोजित की थी. विश्वास विधायक के तौर पर अपने पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाते हुए जो परचा बांट रहे हैं, उसमें ओबामा की ओर से लिखे गए प्रशंसा पत्र की बात मोटे अक्षरों में लाल स्याही से छपी है. विश्वास ने पर्यावरण की थीम की जानकारी देते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति को जो पत्र लिखा था उसी के जवाब में ओबामा ने यह पत्र भेजा था. <br />विश्वास कहते हैं, ‘हमने पूजा की थीम के बारे में और बाद में इसके सफल आयोजन के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए ओबामा को दो पत्र लिखे थे. उसके जवाब में उन्होंने एक निजी पत्र भेजा था.’ वह कहते हैं कि यह मेरी उपलब्धियों में से एक है.<br />लेकिन सीपीएम इसे हास्यापास्द करार दे रही है. वैसे, सीपीएण के तमाम नेता पहले ही कह चुके हैं कि अमेरिका यहां लेफ्ट फ्रंट को सत्ता से हटाने के लिए तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठजोड़ की सहायता कर रहा है. सीपीएम के उम्मीदवार पार्थ प्रतिम विश्वास सवाल करते हैं, ‘आखिर दुर्गापूजा के बारे में ओबामा के पत्र का इस्तेमाल वोट मांगने के लिए कैसे किया जा सकता है? इससे साफ है कि विपक्ष मानसिक तौर पर दिवालिया हो चुका है.’<br />लेकिन अरूप विश्वास इससे परेशान नहीं हैं. वह कहते हैं, ‘हम इलाके में हरियाली फैलाने की दिशा में कई ठोस योजनाएं शुरू करेंगे. इसके अलावा पर्यावरण पर बढ़ते खतरों के बारे में भी लोगों को आगाह किया जाएगा.’ पर्यावरण को बचाने के लिए वह प्लास्टिक पर पाबंदी लगा कर जूट और मिट्टी के बने थैलों और कपों को बढ़ावा देना चाहते हैं. विश्वास कहते हैं कि इस कानून के चलते बेरोजगार होने वाले प्लास्टिक निर्माण उद्योग से जुड़े लोगों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराया जाएगा.<br />प्रभाकर,कोलकाताप्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-53674805831851599872011-04-25T22:45:00.002+05:302011-04-25T22:47:51.050+05:30डूबते द्वीप को बचाने के लिए वोट देंगे<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAgfDMM4JuMv1_I4h6s3ABE9XV0Eq8qOIs2bVkrjc6yyKhzm56GQqCEaV8DMcRhfppBQkMRQOrP6U8T0MIb2_TCmdHrqgP_S6J-lmui8SoNDAVnT63_SNsRq9dK2FYDyy2Z9n2otCyuzC7/s1600/transport.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 134px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAgfDMM4JuMv1_I4h6s3ABE9XV0Eq8qOIs2bVkrjc6yyKhzm56GQqCEaV8DMcRhfppBQkMRQOrP6U8T0MIb2_TCmdHrqgP_S6J-lmui8SoNDAVnT63_SNsRq9dK2FYDyy2Z9n2otCyuzC7/s200/transport.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5599571595108651634" /></a><br />पश्चिम बंगाल में सुंदरबन डेल्टा के लगातार धंसते द्वीपों में से एक मौसुनी के लगभग 10 हजार मतदाता जब विधानसभा चुनाव के तीसरे दौर में अपना वोट डालने के लिए मतदान केंद्रों तक पहुंचेंगे तो बिजली, पानी और सड़क जैसे आधारभूत मुद्दे उनकी चिंता का विषय नहीं होंगे. यह लोग इस बार मौसुनी को बंगाल की खाड़ी में डूबने से बचाने की उम्मीद में वोट देंगे. दक्षिण 24-परगना जिले के मथुरापुर संसदीय क्षेत्र में बसे 24 वर्गकिलोमीटर में फैले इस द्वीप में बिजली, सड़क और पानी के दर्शन दुर्लभ हैं. लेकिन इस द्वीप के लोगों के लिए यह चुनाव वजूद की लड़ाई बन गया है. जिस तेजी से यह द्वीप समुद्र में समा रहा है उससे यह तय करना मुश्किल है कि यह कब तक बचेगा.<br />इस द्वीप के गोपाल मंडल कहते हैं कि ‘हमें सड़क, पानी, बिजली या दूसरी कोई सुविधा नहीं चाहिए. हम चाहते हैं कि इस बार यहां से जीतने वाला विधायक इस द्वीप को बचाने के लिए समुद्र तट पर तटबंध बनवा दे.’ मंडल के परिवार के पास इस डूबते द्वीप पर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. बीते साल कोई पांच सौ लोग यहां से सुरक्षित स्थानों पर जा चुके हैं. बीते साल अक्तूबर में द्वीप पर बना तीन किलोमीटर लंबा तटबंध टूट गया था. उसके बाद समुद्र के खारे पानी ने इलाके में खेत और उसमें खड़ी फसलों को लील लिया. अब खारे पानी के चलते वह जमीन उपजाऊ नहीं रही.<br />समुद्र के बढ़ते जलस्तर की वजह से मौसुनी और घोड़ामारा जैसे द्वीप लगातार पानी में समा रहे हैं. मौसुनी के जलालुद्दीन कहते हैं कि ‘हमारे वोट बायकाट से भी कोई खास अंतर नहीं पड़ने वाला. इसलिए हम इस द्वीप को बचाने की उम्मीद में वोट दे रहे हैं. शायद जीतने वाला उम्मीदवार तटबंध बनवाने की दिशा में पहल करे.’ मथुरापुर संसदीय क्षेत्र का 60 फीसद हिस्सा सुंदरबन डेल्टा में है. वहां मौसुनी और घोड़ामारा जैसे डूबते द्वीपों से लोगों का पलायन लगातार बढ़ रहा है. घोड़ामारा द्वीप की आबादी पहले पांच हजार थी. लेकिन वहां अब डेढ़ हजार लोग ही बचे हैं. यह द्वीप नौ वर्गकिलोमीटर के मुकाबले बीते कुछ वर्षों में घट कर आधा रह गया है.<br />इस बार सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस ने इन द्वीपों को बचाने के लिए ठोस पहल करने का वादा तो किया है. लेकिन लोगों को उन पर भरोसा कम ही है. इलाके में ज्यादातर ग्राम पंचायतों पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है. द्वीपों की इस समस्या के लगातार गंभीर होने की जिम्मेवारी दोनों राजनीतिक दल एक-दूसरे पर डाल रहे हैं. मथुरापुर के तृणमूल सांसद और केंद्रीय मंत्री चौधरी मोहन जटुआ कहते हैं कि ‘इलाके के माकपा सांसद बासुदेव बर्मन ने पहले संसद में एक बार भी इन द्वीपों का मुद्दा नहीं उठाया. हम इसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं.’ दूसरी ओर, सीपीएम नेता और सुंदरबन विकास मंत्री कांति गांगुली कहते हैं कि ‘इन डूबते द्वीपों की समस्या इतनी गंभीर है कि राज्य सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती. इस समस्या पर राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए.’ दिलचस्प बात यह है कि इस इलाके में किसी भी पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में सुंदरबन में होने वाले जलवायु परिवर्तन या डूबते द्वीपों का कोई जिक्र तक नहीं किया है. यहां भी खेती और औद्योगिकीकरण जैसे मुद्दे ही हावी रहे हैं.<br />मौसुनी ग्राम पंचायत के सदस्य रामकृष्ण मंडल कहते हैं कि ‘पंचायतें इस समस्या से निपटने में सक्षम नहीं हैं. तटबंध बनाने में करोड़ों का खर्च है. इतना पैसा आएगा कहां से?’ इलाके के लोगों कि शायद इस बार कहीं से इस द्वीप को बचाने की कोई शुरूआत हो. ऐसा नहीं हुआ तो यह द्वीप पूरी तरह डूब जाएगा और यहां के लोग भी पर्यावरण के शरणार्थियों की लगातार बढ़ती तादाद में शामिल हो जाएंगे.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-3315664472818936232011-04-25T22:41:00.002+05:302011-04-25T22:44:57.643+05:30अब मीडिया से भी दो-दो हाथ करने पर तुली माकपाविधानसभा चुनाव में से हमारी लड़ाई तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन नहीं है। वह तो हमारे लिए ब्रेकफास्ट है। यानी हम उसे नाश्ते में ही चट कर जाएंगे। हमारी असली लड़ाई तो कुछ मीडिया घरानों से है। यह टिप्पणी है हाल के महीनों में माकपा के सबसे बड़े प्रवक्ता और झंडाफरमबदार के तौर पर उभरे आवासन मंत्री गौतम देव की। देव की इस हुंकार से साफ है कि अबकी माकपा ने मीडिया से भी दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यानी जबरा मारे और रोने भी न दे।<br />राज्य में अबकी विधानसभा चुनाव हकीकत में घमासान साबित हो रहा है। सत्ता के दोनों दावेदारों में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़ लगी है। इनमें वाममोर्चा की ओर से माकपा सबसे मुखर है। दूसरी ओर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हैं। गौतम देव को माकपा के आला नेताओँ का समर्थन भी हासिल है। ऐसा खुद उनका कहना है और माकपा जैसी अनुशासित पार्टी में ऐसा होना स्वाभाविक ही है। दरअसल, गौतम और उनकी पार्टी की नाराजगी हाल में एक बड़े मीडिया घराने की ओर से किया गया वह सर्वेक्षण है जिसमें वाममोर्चा के 294 में से महज 74 सीटों पर सिमटने की बात कही गई है और तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को 215 सीटें दी गई हैं। माकपा नेता ने इस सर्वेक्षण को सिरे से ही खारिज कर दिया है। लेकिन इसके साथ वे अनजाने में अपना और अपनी पार्टी का डर भी बयान कर गए। उन्होंने कहा कि अगर इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के चलते दो फीसद वोट भी इधर से उधर हो गए तो कुछ वोटर हाथ से निकल सकते हैं। इसके साथ ही वे यह जोड़ना भी नहीं भूले कि किसी भी मीडिया हाउस से उनकी जाती दुश्मनी नहीं है। यानी वे जो कुछ भी कह या कर रहे हैं वह माकपा के प्रदेश मुख्यालय अलीमुद्दीन स्ट्रीट के इशारे पर।<br />कोलकाता प्रेस क्लब हर बार चुनावों के मौके पर तमाम राजनीतिक दलों के नेताओँ को बुलाकर प्रेस से मिलिए कार्यक्रम आयोजित करता है। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के अलावा तमाम दलों के प्रमुख नेता इसमें शिरकत कर चुके हैं। ममता ने लाख कोशिशों के बावजूद समय ही नहीं दिया। इसी सिलसिले में बारी थी गौतम देव की। तीन-चार महीने पहले महानगर से सटे राजारहाट इलाके में जमीन अधिग्रहण पर उभरे विवाद के बाद गौतम देव माकपा के सबसे बड़े प्रवक्ता के तौर पर उभरे हैं। वे बहस अच्छी कर लेते हैं और तार्किक तरीके से सबूतों और आंकड़ों के हवाले अपनी बात रखते हैं। लेकिन शनिवार को उन्होंने दो-टूक शब्दों में मीडिया और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए। <br />यह एक खुला रहस्य है कि चुनावों के मौके पर तमाम राजनीतिक दलों की ओर से अपने पक्ष में प्रायोजित सर्वेक्षण कराए जाते रहे हैं। लेकिन अब तक किसी पार्टी ने इन सर्वेक्षणों के खिलाफ इतने उग्र तरीके से प्रतिक्रिया नहीं जताई थी। इस सर्वेक्षण के बहाने मीडिया को कटघरे में खड़ा करने के दौरान गौतम ने बस पेड न्यूज शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन इसके अलावा सब कुछ कह दिया। <br />यह सही है कि बीते पांच-छह सालों के दौरान कोलकाता समेत पूरे बंगाल के मीडिया में जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ है। कोई वाममोर्चा के पक्ष में तटस्थ है तो कोई तृणमूल कांग्रेस के। इनमें से ज्यादातर तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में हैं। लेकिन एकाध चैनल और कुछ अखबार तो माकपा के पक्ष में भी जबरदस्त तरीके से लामबंद हैं। इन अखबारों में कई बार भारी बहुमत के साथ वाममोर्चा के सत्ता में लौटने की बात छप चुकी है। लेकिन विपक्ष ने कभी इनका विरोध या खंडन नहीं किया है। लेकिन अपने विरोध में पहला सर्वेक्षण छपते ही माकपा आक्रामक मुद्रा में नजर आ रही है। दिलचस्प बात यह है कि गौतम ने जितने जबरदस्त तरीके से सर्वेक्षण का विरोध किया, उस विरोध को रविवार को किसी अखबार ने छापने लायक ही नहीं समझा। उस समूह ने भी नहीं, जिसने इसे कराया और छापा था। माकपा के मुखपत्र गणशक्ति और उसके समर्थक कुछ अखबारों में यह खबर जरूर सुर्खियों में रही।<br />अपनी उसी प्रेस कांफ्रेंस में गौतम ने तृणमूल कांग्रेस पर चुनावों में करोड़ों के कालेधन के इस्तेमाल होने का भी आरोप लगाया। उनकी दलील थी कि तृणमूल के एक के अलावा सभी उम्मीदवारों को पार्टी दफ्तर से 15-15 लाख रुपए दिए गए हैं। उनका कहना था कि वे उस एक उम्मीदवार का नाम नहीं बताएंगे। लेकिन मीडिया चाहे तो सीबीआई के पूर्व अधिकारी उपेन विश्वास से बात कर सकता है। चारा घोटाले की जांच के लिए चर्चित विश्वास तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर उत्तर 24-परगना जिले के बागदा से चुनाव मैदान में हैं। माकपा नेता ने पत्रकारों को उपेन विश्वास की मोबाइल नंबर भी दिया। उनकी सहूलियत के लिए। लेकिन बाद में उपेन विश्वास ने साफ कह दिया कि उनको तृणमूल की ओर से चुनाव खर्च के तौर पर न तो कोई पैसे दिए गए हैं और न ही कभी इस बारे में कोई बात हुई है।<br />यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि माकपा फिलहाल आक्रमण ही बचाव का सबसे बेहतर तरीका है की कहावत पर चल रही है। ऐसे में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का दौर अभी और तेज होने का अंदेशा है। अब इसके साथ ही पार्टी ने मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है। चुनावी बिसात पर बाजी बिछने से पहले ही माकपा मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी दबाब का खेल खेल रही है। यह लड़ाई चुनाव मैदान से बाहर की है। और गौतम देव के मुताबिक असली लड़ाई यही है। वरना उनके शब्दों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन से मुकाबला तो उनके लिए महज ब्रेकफास्ट यानी नाश्ता है।प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-11878755996674248782010-09-05T23:18:00.002+05:302010-09-05T23:20:51.237+05:30चुनाव, प्रेस क्लब, पत्रकारयह चुनाव भी बड़ी दिलचस्प चीज है. वह चाहे लोकसभा का हो या फिर प्रेस क्लब का. बीते आठ-दस दिनों से कोलकाता में प्रेस क्लब के चुनावों की गहमागहमी रही. सुबह से लेकर देर रात तक उम्मीदवारों के फोन, संदेश और ईमेल आते रहे. गुवाहाटी में प्रेस क्लब का सदस्य बना था. तब वहां बस बना ही था क्लब. वहां से कोलकाता आए दस साल से ज्यादा हो रहे हैं. लेकिन यहां के माहौल को देखते हुए कभी मन में सदस्यता लेने की इच्छा ही नहीं हुई. शाम ढलते ही पीने वालों की भीड़ जुटने लगती है. ऐसा नहीं है कि मैं शराब नहीं छूता. लेकिन अब तक न तो इसका आदी हुआ हूं और न ही कभी देर रात कर प्रेस क्लब में बैठ कर पीने के बाद लड़खड़ाते कदमों से घर लौटने की कोई इच्छा मन में उभरी है. दफ्तर से निकलने के बाद सीधे मेट्रो पकड़ता हूं. घर के लिए. यही वजह है कि अपने साथ काम कर चुके कई लोगों के कहने और दबाव डालने के बावजूद बीते साल तक इसका सदस्य नहीं बना. लेकिन बीते साल मार्च में आखिर बुझे मन से ही मैंने भी क्लब की सदस्यता ले ही ली. बीते अगस्त में पहली बार चुनाव में वोट डाला. उसके बाद कभी दोबारा सूरज ढलने के बाद क्लब का रुख नहीं किया था. <br />इस साल यह चुनाव चार सितंबर को थे. लेकिन अगस्त के आखिरी सप्ताह से ही लगातार फोन आने लगे--भाई साहब, याद रखिएगा. सर, भूले तो नहीं हैं न. सर, मेरा नाम याद है न अमुक नंबर पर है. इनमें से ज्यादातर तो ऐसे थे जिनसे कभी औपचारिक परिचय नहीं रहा. कई बार तो हंसी भी आती थी यह सोच कर कि अरे भाई, जब तुमसे कोई परिचय ही नहीं है तो भूलने या याद करने का सवाल कहां से पैदा हो गया. खैर, प्रेस क्लब पहुंचा तो दरवाजे से ही उम्मीदवारों ने घेरना शुरू कर दिया. वहां यह देख कर और अच्छा लगा कि कल तक फोन पर याद रखने की बात कहने वाले शक्ल देख कर पहचान तक नहीं सके. उनके शब्दों में मैं प्रेस क्लब नियमित जाने वालों में नहीं था. सो, बेचारे शक्ल कैसे याद रखें. फोन नंबर तो प्रेस क्लब की डायरेक्टरी में दर्ज है. इसलिए वहां से मिल गया. दूसरों के परिचय कराने पर कुछ उम्मीदवारों ने लपक कर पर्ची पकड़ा दी. <br />मतदान का समय शाम छह बजे तक था. वोट देने के बाद दफ्तर चला गया और रात को जब खाने-पीने के लिए लौटा तो तिल धरने की जगह नहीं थी. कई लोग आकंठ डूब चुके थे. कुछ डूबने की तैयारी में थे. कुछ पहले राउंड में हार के गम में पी रहे थे तो कुछ बढ़त हासिल करने की खुशी में. <br />यह शराब भी बड़ी अजीब चीज है. इसे पीने तक तो ठीक है. लेकिन जब यह पीने लगती है तो लोग इसके लिए अपना दीन-ईमान और इज्जत तक घोल कर पी जाते हैं. किसी शाम क्लब में अगर आप हाथ में गिलास लेकर बैठें तो ज्यादा नहीं तो दो-चार लोग तो यह कहते हुए आपकी मेज पर आ ही जाएंगे कि अरे भाई साहब आपने वह खबर क्या जबरदस्त लिखी थी. कौन-सी खबर यह पूछने पर बगलें झांकते हुए कहते हैं कि अरे वही जो पहले पेज पर छपा था. यह बात अलग है कि उन्होंने शायद कभी कोई ऐसी खबर नहीं देखी होगी. अगर आपने बिठा लिया तो कहेंगे कि एक पैग मिलेगा. प्रेस क्लब नियमित जाने वाले ऐसे किस्से सुनाते रहते हैं. कभी कोई रिटायर पत्रकार मिल गया तो आपको भागने की जगह नहीं मिलेगी. वह अपने इतने संस्मरण सुनाएगा कि चाहे पूरी बोतल डकार लें, नशा हो ही नहीं सकता.<br />अब किस्सों का क्या? तेजी से बदलते इस दौर में कई सहयोगी कहां से कहां पहुंच गए हैं. गुवाहाटी में साथ या प्रतिद्वंद्वी अखबारों में काम कर चुके कई सज्जन इनपुट और आउटपुट हेड बन गए हैं तो कुछ लाखों में कमा रहे हैं. यह सब किसी किस्से-कहानी से कम थोड़े लगता है. अभी हाल में एक पुराने सहयोगी ने फोन किया-फलां चैनल में आउटपुट हेड बन कर जा रहा हूं. बहुत मोटा पैकेज है. जहां तक मुझे याद है, जब तक मैंने देखा था उनका इनपुट घर के लिए सब्जियां खरीदना होता था और आउटपुट अपने दो महीने के बेटे को नहलाना-धुलाना और नैपी बदलना. बाकियों में प्रतिभा रही होगी, लेकिन इन सज्जन को तो मैंने दो-ढाई साल तक देखा था. जब भी मिले हमेशा बदहवास से, हड़बड़ी में. बाद में पता चला कि पत्नी एक-एक मिनट का हिसाब लेती थी कि इतनी देर कहां लगा दी. मुन्ना कब से रो रहा है. अब ऐसे इनपुट और आउटपुट प्रमुख होंगे तो चैनल की प्रगति तो तय ही है.<br />कभी साथ रहे एक सज्जन तो इससे भी आगे बढ़ गए. एक प्रकाशन कंपनी के मालिक की बेटी से शादी कर खुद उस कंपनी के मालिक बन गए. जिनको कभी एक पैरा शुद्ध लिखना नहीं आता था वो अब दूसरों के लिखे में हजार किस्म की गलतियां निकालते रहते हैं. कभी मेरे तहत ट्रेनी के तौर पर काम करने वाले एक अन्य सहयोगी कभी-कभार फोन कर बताते हैं कि आपकी वह रिपोर्ट अच्छी थी. लेकिन उसमें यह एंगिल भी होता तो वह लाजवाब बन जाती. सबकी सुन लेता हूं. दिल्ली में नहीं रहता न. इसलिए लेखन में गलतियां स्वाभाविक हैं. सीख रहा हूं. कुछ प्रखर लोग इसे अंगुर खट्टे हैं....वाली कहावत दोहराते हुए कंधे भी उचका सकते हैं. मैंने अभी कंधे उचकाना नहीं सीखा है. शायद कभी दिल्ली जाने पर सीख लूं. तब तक तो जहां हूं जैसा हूं के आधार पर ही गाड़ी चलती रहेगी.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-41305410245090255792010-08-11T22:53:00.002+05:302010-08-11T22:54:13.534+05:30शिरीन ने जीती बुर्के के खिलाफ जंग<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibB_azVU2ArJ9d6WD32ywQHA0l6MScUbBukeUhq8cMbdZPp_YAZC4j0h2D29WwJuuJzEn6hX1DcMNER_R3ogijttQybOcfpenNQs7UmTXw2_7BoSF3uShTo2v8OP8u9tEZnhYhcX8fRKo7/s1600/SIRIN+MIDDYA.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 140px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibB_azVU2ArJ9d6WD32ywQHA0l6MScUbBukeUhq8cMbdZPp_YAZC4j0h2D29WwJuuJzEn6hX1DcMNER_R3ogijttQybOcfpenNQs7UmTXw2_7BoSF3uShTo2v8OP8u9tEZnhYhcX8fRKo7/s200/SIRIN+MIDDYA.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5504204353882040402" /></a><br />चार महीनों तक चली खींचतान के बाद आखिर शिरीन मिद्या ने बुर्का पहन कर विश्वविद्यालय में पढ़ाने के छात्र संघ के फरमान के खिलाफ जंग जीत ली है. अब आलिया विश्वविद्यालय प्रबंधन ने उनको बिना बुर्का पहने ही मुख्य परिसर में पढ़ाने की अनुमति दे दी है. अब तक शिरीन विश्वविद्यालय के साल्टलेक परिसर में स्थित लाइब्रेरी में काम कर रही थी. शिरीन ने अब विश्वविद्यालय में बिना बुर्के के पढ़ाने के लिए अपनी सुरक्षा की मांग की है.<br />राज्य का यह पहला मुस्लिम विश्वविद्यालय वर्ष 2008 में स्थापित हुआ था. विश्वविद्यालय के संविधान में बुर्का पहन कर पढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं है. लेकिन मदरसा छात्र संघ ने सभी शिक्षिकाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर रखा है. शिरीन ने इसी साल मार्च में अतिथि लेक्चरर के तौर पर नौकरी शुरू की थी. अप्रैल के दूसरे सप्ताह में ही छात्र संघ ने उनसे कह दिया कि वे बिना बुर्का पहने छात्रों को नहीं पढ़ा सकती. विश्वविद्यालय की बाकी सात शिक्षिकाओं ने तो यह फरमान मान लिया था. लेकिन शिरीन ने इसके आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया था. इस मुद्दे पर विवाद रोकने के लिए विश्वविद्यालय प्रबंधन ने उनको दूसरे परिसर में बनी लाइब्रेरी में भेज दिया था. लेकिन उनको वेतन लेक्चरर का ही मिलता था.<br />अब जुलाई के आकिरी सप्ताह से नया शिक्षण सत्र शुरू होने के बाद शिरीन ने वाइस-चांसलर से मुख्य परिसर में पढ़ाने की अनुमति देने का अनुरोध किया था. उन्होंने 31 जुलाई को वाइस-चांसलर को एक ई-मेल भेजा था और फिर दो दिन बाद उनको एक लिखित ज्ञापन सौंपा था. उसके एक सप्ताह बाद विश्वविद्याल प्रबंधन ने उनको पढ़ाने की अनुमति दे दी है.<br />शिरीन कहती है, ‘विश्वविद्यालय प्रबंधन ने मुझे पढ़ाने की अनुमति तो दे दी है. लेकिन फिलहाल इसके लिए कोई तारीख नहीं बताई है कि मैं कब से मुख्य परिसर में पढ़ाने जा सकती हूं.’ वह कहती है कि पढ़ाने के लिए विश्वविद्यालय जाने पर मुझे सुरक्षा मिलनी चाहिए ताकि कोई अप्रिय स्थिति नहीं पैदा हो.<br />इस मामले को तूल पकड़ते देख कर अब छात्र संघ ने भी कहा है कि शिक्षिका इस बात के लिए बिल्कुल स्वतंत्र है कि उसे क्या पहनना है. पश्चिम बंगाल मदरसा छात्र संघ के सचिव हसनुर जमान मानते हैं कि विश्वविद्यालय में ड्रेस कोड जैसा कोई नियम नहीं है. जमान के मुताबिक, मिद्या बिना वजह ही मीडिया के पास गई और इसे एक मुद्दा बना दिया.<br />चार महीने से यह मामला ऐसे ही चल रहा था. लेकिन मीडिया में इसकी खबरें आने के बाद सरकार की नींद टूटी और उसने इस मामले की जांच के आदेश दिए. अल्पसंख्यक मामलों और मदरसा शिक्षा के प्रभारी मंत्री अब्दुस सत्तार ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए वाइस-चांसलर से कहा कि मिद्या को पढ़ाने की इजाजत दी जानी चाहिए. सत्तार कहते हैं, ‘हम पहले ही यह नोटिस दे चुके हैं कि विश्वविद्यालय में कोई ड्रेस कोड नहीं है.’<br />विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार शेख अशफ़ाक अली कहते हैं, ‘अब शिरीन पहले की तरह ही कलकत्ता मदरसा परिसर में छात्रों को पढ़ाएगी. इस समय दाखिले की प्रक्रिया चल रही है. इसलिए शिरीन के वहां जाकर पढ़ाने में कोई समस्या नहीं है.’<br />शिरीन को बुर्का पहनने पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन कहती हैं कि वह ऐसा अपनी मर्जी से करेंगी, किसी की जोर-जबरदस्ती से नहीं. फिलहाल छात्र संघ के फ़रमान के <br />खिलाफ पहली जंग तो उन्होंने जीत ही ली है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-32379887012386966412010-08-04T12:06:00.001+05:302010-08-04T12:08:33.971+05:30ताकि हर आंगन में गूंजे किलकारी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgz-iX98KQrGuWg0tTqNiAJ4DlU__HiqCZY9tJkvVzJLTCge1V4jlxpJODJWCB9ueojNPOgudtfTBGDjX3kfDCHvB0Jv25ljsxx-qJ2HcUwx6H8JvwhlnsIxGBcprayLG8Rk1MHyr-RWeqf/s1600/TEST+TUBE-4.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 142px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgz-iX98KQrGuWg0tTqNiAJ4DlU__HiqCZY9tJkvVzJLTCge1V4jlxpJODJWCB9ueojNPOgudtfTBGDjX3kfDCHvB0Jv25ljsxx-qJ2HcUwx6H8JvwhlnsIxGBcprayLG8Rk1MHyr-RWeqf/s200/TEST+TUBE-4.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5501440308738687666" /></a><br />आधुनिकता के इस दौर में भी भारतीय समाज में बांझपन को सबसे बड़ा अभिशाप समझा जाता है. अब टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के रूप में इस अभिशाप से मुक्ति दिलाने के साधन तो मौजूद हैं. लेकिन इस तरीके से इलाज अब भी आम लोगों की पहुंच से बाहर ही है. ऐसे में कोलकाता के एक चिकित्सक ने यह तकनीक गरीबों तक पहुंचाने की दिशा में एक पहल की है.<br />कोलकाता में टेस्ट ट्यूब तकनीक के अगुवा और घोष दस्तीदार इंस्टीट्यूट फार फर्टिलिटी रिसर्च के निदेशक डा. सुदर्शन घोष दस्तीदार ने इस दिशा में पहल करते हुए रेल मंत्री ममता बनर्जी को एक पत्र लिखा है. उन्होंने अपने पत्र की प्रतियां केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और दूसरे संबंधित विभागों को भी भेजी हैं. वे केंद्र सरकार की भारतीय चिकित्सा शोध परिषद की ओर से कृत्रिम प्रजनन तकनीक पर गठित विशेषज्ञ समिति और यूरोपियन सोसाइटी आफ ह्यूमन रिप्रोडक्शन के भी सदस्य हैं. उन्होंने अपनी इस पहल के बारे में यहां पत्रकारों को इसकी जानकारी दी.<br />महानगर के विशेषज्ञों की राय में अब आईवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) यानी टेस्ट ट्यूब तकनीक से बच्चे पैदा करने के लिए भी काफी तादाद में विकसित देशों के लोग कोलकाता आ रहे हैं. यह हेल्थ टूरिज्म यानी स्वास्थ्य पर्यटन का नया पहलू है.भारतीय व खास कर कोलकाता के चिकित्सकों और उनकी काबिलियत के प्रति विदेशियों में आस्था बढ़ी है. इसके अलावा विदेशों के मुकाबले यह तकनीक यहां बेहद सस्ती है. विदेशों में जहां आईवीएफ तकनीक के जरिए गर्भधारण की प्रक्रिया पर 10 से 15 हजार डालर का खर्च आता है. वहीं यहां यह प्रक्रिया अधिकतम दो हजार डालर में पूरी हो जाती है.<br />डा. घोष दस्तीदार, जिन्होंने वर्ष 1981 में इनफर्टिलिटी के क्षेत्र में शोध की पहल की थी, ने तीन साल पहले आरुषा (तंजानिया) ने आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ही खासकर विकासशील देशों में गरीब तबके के लोगों तक आईवीएफ या टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक पहुंचाने की पुरजोर वकालत की थी. उन्होंने सम्मेलन में एक परचा भी पढ़ा था. उन्होंने बताया कि भारत जैसे विकासशील देश में तीन से चार करोड़ लोग बांझपन की बीमारी से पीड़ित हैं. समाज में उनको हेय नजरों से देखा जाता है. लेकिन अब यह साबित हो चुका है कि बांझपन एक बीमारी है. टेस्ट ट्यूब तकनीक से इसका इलाज संभव है. लेकिन यह तकनीक महंगी होने की वजह से ज्यादातर लोगों को इसका फायदा नहीं मिलता और वे इस अभिशाप को भोगने पर मजबूर हैं.<br />डा. घोष दस्तीदार ने पत्र में लिखा है कि टेस्ट ट्यूब तकनीक में इस्तेमाल होने वाले 60 से ज्यादा उपकरण विदेशों से आयात किए जाते हैं. अगर केंद्र सरकार महज गरीबों के लिए इन पर आयात ड्यूटी की छूट दे दे तो यह तकनीक बेहद सस्ती और आम लोगों के पहुंच के भीतर हो सकती है. वे बताते हैं कि टेस्ट ट्यूब तकनीक में 50 से 80 हजार तक का खर्च आता है. अगर केंद्र सरकार आयात ड्यूटी में छूट दे दे तो यह खर्च घट कर आधा रह जाएगा. वे कहते हैं कि अब बांझपन को बीमारी मानते हुए इसको आंशिक तौर पर चिकित्सा बीमा के तहत शामिल किया जाना चाहिए. इससे देश को बांझपन से काफी हद तक निजात मिल सकती है. उन्होंने कहा कि बांझपन का इलाज सस्ता होने की स्थिति में देश में चिकित्सा पर्यटन को भी काफी बढ़ावा मिलेगा. इससे विदेशी मुद्रा की आय बढ़ेगी.<br />उन्होंने पत्र में लिखा है कि बांझपन और इसके इलाज को राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में शामिल कर उसे तरजीह दी जानी चाहिए. तमाम सरकारी अस्पतालों में भी निजी क्षेत्र की सहायता से टेस्ट ट्यूब तकनीक की शुरूआत करनी चाहिए ताकि समाज के गरीब व कमजोर तबके के लोग इसका फायदा उठा सकें. फिलहाल एम्स के अलावा देश के किसी भी सरकारी अस्पताल में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है.<br />डा. घोष दस्तीदार ने बताया कि अब विश्व बैंक समेत कई संगठन विकासशील देशों में कम खर्च में आईवीएफ तकनीक को बढ़ावा देने वाली योजनाओं को सहायता देने में दिलचस्पी ले रहे हैं. उनका प्रस्ताव है कि धनी लोगों से तो पूरी रकम ली जाए. लेकिन गरीबों के लिए संबंधित उपकरणों के आयात में तमाम करों में छूट दी जाए.<br />घोष दस्तीदार के संस्थान ने अब ऐसे मरीजों के लिए मुफ्त सलाहकार सेवा भी शुरू की है. इसके लिए sudarsan.ivf@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-964390378796448822010-07-15T19:05:00.000+05:302010-07-15T19:06:26.009+05:30वे दिन ही सबसे अच्छे थेपत्रकारिता में लगभग 25 साल पूरे करने के बाद जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि पूर्वांचल प्रहरी में बिताए दिन ही सबसे अच्छे थे. शुरूआती दिनों में जो टीम और टीम भावना बनी, वह आज कल दुर्लभ ही है. जाने कहां-कहां से आए लोग बहुत जल्द एक-दूसरे से ऐसे घुल-मिल गए मानों बरसों से जानते हों. मैंने भांगागढ़ में मकान लिया था. तब दो कमरों के उस असम टाइप मकान का किराया था छह सौ रुपए. बिजली के लिए साठ रुपए अलग से. सामान के नाम पर एक चौकी थी और बिस्तर. वहीं स्टोव खरीद कर गृहस्थी बसाने का काम शुरू हुआ. दफ्तर में काम करने वालों में कोई राजनीति या टांग खिंचाई नहीं. अब आज के माहौल में इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. होली-दीवाली या कोई त्योहार हो, तमाम लोग सपत्नीक मेरे घर जुटते थे. पत्नी जनता स्टोव पर ही सबके लिए खाना बना देती थी बिना कोई उफ किए. लगभग सबकी शादी हाल में ही हुई थी. इसलिए किसी को बच्चा नहीं था. सो, सार्वजनिक छुट्टियों के दिन देर रात गए तक मेरे घर ही महफिल जमती थी.<br />हां, पूर्वांचल प्रहरी और सेंटिनल के मालिकों में भले प्रतिद्वंद्विता हो, इन दोनों अखबारों में काम करने वाले लोगों में ऐसी कोई भावना नहीं थी. इसलिए मेरे घर दोनों अखबारों के लोग आते थे. सेंटिनल के सुधीर सुधाकर, मधु व जयप्रकाश मिश्र और उसके संपादक मुकेश जी भी. इनमें से ही एक थे सत्य नारायण मिश्र. उन्होंने तब जनसत्ता जैसे अखबार में लिखने के लिए मुझे काफी प्रोत्साहित किया था. उनके कहने पर मैंने खास खबर और खोज खबर जैसे स्तंभों के लिए कई लेख लिखे. उनसे कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती थी. तब जनसत्ता में ज्योतिर्मय जी इन स्तंभों के इंचार्ज थे. लेकिन मिश्र में कुछ अक्खड़पन भी था. एक बार उन्होंने अपना ब्लैक एंड व्हाइट टीवी मेरे घर रख दिया. यह कह कर कि मुझे तो देखने का समय नहीं मिलता. तुम लोग देखना. उनकी तब तक शादी नहीं हुई थी. दफ्तर के समय के बाद इधर-उधर घूमते रहते थे. टीवी मेरे घर रखने के बाद बाद लगभग रोज मेरे घर ही खाते रहे. लेकिन एक बार जब बीमारी के चलते पत्नी ने कुछ दिनों तक खाना नहीं बनाया खिलाया तो बोले अब मैं अपना टीवी घर ले जाऊंगा. तब लगा कि शायद वे इतने दिनों से टीवी का किराया वसूल रहे थे. वह तो भला हो उदय चंद्र आचार्य का. पूर्वांचल प्रहरी में काम करने वाले आचार्य ने अपने किसी परिचित से कह कर पहले मुझे एक टीवी दिलाया किश्तों पर. उसके बाद फिर एक टेप रिकार्डर भी दिलाया.<br />तब एकमुश्त इतने पैसे नहीं होते थे कि पंखा खरीद सकूं. एक बार सेंटिनल के कार्यकारी संपादक मुकेश कुमार घर आए. उन्होंने कहा कि आखिर इतनी गर्मी में आप लोग पंखे के बिना रहते कैसे हैं. खैर, कुछ दिनों बाद किसी तरह जुगाड़ कर हमने एक पंखा खरीद लिया. पंखा खरीदने से एक रोचक किस्सा भी जुड़ा है. फैंसी बाजार से पंखा खरीदने के बाद मैंने सोचा कि बहुत गर्मी है. कहीं चल कर जूस वगैरह पिया जाए. पत्नी के साथ जूस की दुकान पर पहुंच कर दो गिलास मौसमी के जूस पिए. जब पैसे देने की बारी आई तो दुकानदार ने कहा चालीस रुपए हुए. इतना सुनते ही जूस का स्वाद फीका हो गया और गर्मी अचानक ही गायब हो गई. वह अफसोस बहुत दिनों तक रहा. बाद में सोचते रहे कि उन पैसों में यह आ सकता था या वह खरीद सकते थे. अब भी अक्सर हम उस वाकए का याद कर हंसते हैं.<br />पूर्वांचल प्रहरी के पास ही सेवेंथ हैवेन नामक एक रेस्तरां था. कभी छुट्टी के दिन रात को जब खाना बनाने या घर का खाना खाने की इच्छा नहीं होती तो हम पति-पत्नी टहलते हुए वहीं चले जाते. पांच-पांच रुपए का डोसा खाकर हमारा डिनर हो जाता. और वह भी भरपेट. वेतन के तौर पर कुल मिला कर दो हजार रुपए मिलते थे. लेकिन महंगाई कम थी. मैं रोजाना दो रुपए लेकर दफ्तर जाता. उसमें से बारह आने या एक रुपया सिगरेट पर खर्च होता. एक सिगरेट तब पच्चीस पैसे में आती थी. पैदल दफ्तर जाने में सात-आठ मिनट लगते थे. कभी धूप तेज हो या बारिश हो रही हो तो रिक्शा ले लेता था. किराया था एक रुपए. लेकिन वह अखर जाता था.<br />हमारे संपादक कृष्ण मोहन अग्रवाल भी बड़े खुले दिल के थे. अक्सर चाय या खाने पर घर बुलाते रहते थे. संपादक नहीं, सहयोगी की तरह व्यवहार करते. इससे अखबार में काम करने का मजा ही कुछ और था. अखबार हमारी रगों में बस गया था. इसलिए कई बार पत्नी के मायके जाने पर मैं सुबह 10-11 बजे ही दफ्तर चला जाता. भले ही मेरी ड्यूटी शाम या रात की शिफ्ट में हो. वहीं शर्मा जी की कैंटीन में खाना खा कर गप्पें लड़ाता रहता.<br />पूर्वांचल प्रहरी में तब तक कई लड़कियां भी काम करने लगी थी. और हां, साल भर बाद बाहर से कुछ नए लोगों के आने के बाद राजनीति भी शुरू हो गई थी. इनकी चर्चा अगली बार.....प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-40551515032564048432010-07-08T18:33:00.000+05:302010-07-08T18:34:37.381+05:30बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !यह पुरानी कहावत बार-बार चरितार्थ होती रही है. इस बार इसे पूरी तरह नहीं बल्कि बुरी तरह चरितार्थ किया टीवी चैनलों ने. भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने सगाई और शादी क्या की, टीआरपी के लिए तरसते चैनलों की मानो बांछे ही खिल गईं. कई चैनलों के रिपोर्टर और एंकर तो इतने प्रसन्न नजर आए जितने शायद अपनी शादी में भी नहीं हुए होंगे. वैसे तो हर चैनल के पास तुर्रम खां टाइप खोजी रिपोर्टर हैं. लेकिन किसी को भी पहले से धोनी की सगाई की भनक तक नहीं लगी. बाद में भनक लगते ही सबमें एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ मच गई. एक से बढ़ कर एक्सक्लूसिव कहानियां थी सबके पास. और यह सिलसिला अब तक थमा नहीं है.<br />हर चैनलों का दावा था कि धोनी की शादी की खबर तो उसके पास पहले से ही थी और यह भी शादी की तस्वीरें सिर्फ हमारे चैनल पर ही नजर आएंगी. सबके पास एक ही तस्वीरें थीं. कुछ एक समाचार एजंसी की तो कुछ स्थानीय फोटोग्राफरों की. किसी के पास दो सेकेंड का वीडियो फुटेज तक नहीं? भाई लोगों ने खाने के मेन्यू के अलावा घोड़ी, बाजे वाले, होटल के वेटर, टेंट वाले और मेंहदी वाले से एक्सक्लूसिव बातचीत दिखा दी. क्या करें, आखिर भरपाई करनी थी और दर्शकों को अपने भ्रमजाल में उलझाना जो था. सो, मेरी साड़ी तेरी वाली से सफेद की तर्ज पर सब अपनी पीठ खुद ठोकते रहे. इससे पहले अभिषेक बच्चन और एश्वर्या राय की शादी पर ही चैनलों के लोग स्वयंभू बाराती के तौर पर नजर आए थे. वर के पिता अमिताभ बच्चन ने तो खैर चैनल वालों को खाना-पीना भिजवा दिया था. लेकिन धोनी ने तो किसी को पानी तक नहीं पूछा. पानी तो दूर किसी कैमरे वाले को उस होटल के आसपास तक नहीं फटकने दिया जहां शादी होनी थी. अरे भाई, उससे क्या होता है. अपनों को कहीं न्योता दिया जाता है, इसी ब्रह्मवाक्य के सहारे तमाम चैनल अब्दुल्ला बन कर नाचने लगे. <br />वैसे, निजी बातचीत में ढेर सारे खेल संपादक और रिपोर्टर धोनी से निजी संबंधों का दावा करते मिल जाते हैं. इस साल ईडेन गार्डेन में आपीएल मैचों को कवर करते हुए भी ऐसे दो-तीन सज्जन मिले थे. उनमें से दो की तो धोनी से सुबह-शाम बात होती थी. अब मेरे पास उनके मोबाइल की काल डिटेल तो थी नहीं. लेकिन कम से कम उन्होंने तो यही दावा किया था. बावजूद इसके उनको भी कार्ड नहीं मिला. यह तो सरासर नाइंसाफी है. ऐसे दोस्तों को शादी-ब्याह के मौके पर कोई भूलता है भला? अब इसकी खुन्नस तो निकालनी ही थी. आखिर समझा क्या है मीडिया को. शादी और सगाई की कोई फुटेज नहीं थी तो अब बात आगे कैसे बढ़ाएं. सबने राग पकड़ लिया कि टीम इंडिया में नाराजगी है, मतभेद हैं. इसलिए धोनी ने किसी को नहीं बुलाया. बुलाया भी तो कोई नहीं आया. कुछ चैनलों ने अपने खोजी रिपोर्टरों को धोनी के आगे के कार्यक्रम का पता लगाने के लिए दौड़ा लिया और उनकी मेहनत से बनाई रिपोर्ट को एक्सक्लूसिव की पट्टी के सहारे दिखाते हुए बताया कि धोनी अपने जन्मदिन पर मुंबई में रिसेप्शन आयोजित करेंगे. कोई कहने लगा कि दिल्ली में भी होगा. कोई रांची बता रहा था तो कोई कोलकाता. जितने चैनल उतने ही दावे. लेकिन धोनी शादी की अगली सुबह ही दिल्ली पहुंच गए. ठीक तमाम चैनलों की नाक के नीचे. किसी को खबर तक नहीं.<br />चैनलों की धोनी का असली विजुअल तब मिला जब वे रांची पहुंचे. तीन-चार सेकेंड का वह विजुअल ही चलता रहा हर जगह. उसके बाद एक्सक्लूसिव के चक्कर में एक चैनल ने कथित तौर पर टीम इंडिया के कुछ खिलाड़ियों से बातचीत कर उनकी नाराजगी भी बता दी. पहले ‘आफ द रिकार्ड और नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा’ जैसी बातें प्रिंट मीडिया में ही चलती थी. अब चैनलों ने भी शुरूआत कर दी. नाम बताए बिना खिलाड़ियों की नाराजगी जता दी. यानी अब टीवी पर भी लोग आफ द रिकार्ड बोल सकते हैं. बढ़िया है. इससे कई और खबरें ब्रेक की जा सकती हैं.<br />धोनी शादी के बाद लगातार यात्राएं करते रहे और दिल्ली के बाद रांची से कोलकाता आए. इसबीच, एक चैनल ने एक्सक्लूसिव बना दिया और एंकर गला फाड़ने लगे कि पांच हजार किलोमीटर का सफर करने वाले कप्तान श्रीलंका में टीम इंडिया को कैसे आगे ले जा सकते हैं. वे तो काफी थक चुके होंगे, श्रीलंका पहुंचते-पहुंचते. वह तो भला हो हरियाणा-पंजाब में बरसात और बाढ़ का, वरना किसी भी कीमत पर सबसे तेज खबरें देने का दावा करने वाले तमाम चैनल अब तक वेटर, कार के ड्राइवर, विमान के पायलट और न जाने किस-किस का इंटरव्यू कर चुके होते.<br />चैनलों का यह धोनी पुराण कुछ कम तो हुआ है, लेकिन थमा नहीं है. अब श्रीलंका में अगर उनका प्रदर्शन जरा भी खराब होता है तो सब एक स्वर में शोर मचाएंगे कि हमने तो पहले ही कहा था कि थका-मांदा इंसान खेल कैसे सकता है. सच तो यह है कि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक कोई भी चैनल धोनी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाल सका है. इसलिए तमाम चैनल अपने स्तर पर तमाम किस्से-कहानियां बना रहे हैं. पता नहीं अब तक किसी ने यह क्यों नहीं दिखाया है कि अब युवराज समेत तमाम क्रिकेटर, जिनको धोनी ने नहीं बुलाया था, भी अपनी शादी में धोनी को नहीं बुलाएंगे. हो सकता है, जल्दी ही यह कहानी भी आने लगे. <br />तो देखते रहिए टेलीविजन पर हमारा खास कार्यक्रम. हम बताएंगे कि आखिर धोनी क्यों हैं टीम इंडिया के सभी खिलाड़ियों से नाराज.....और उन्होंने क्यों नहीं दी अपनी शादी का पार्टी....प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-11045094450166680972010-07-03T12:59:00.002+05:302010-07-03T13:08:46.082+05:30नई जगह, नया अखबार, नए साथीकर्मचारियों की हड़ताल के बाद आखिर सिलीगुड़ी में जनपथ समाचार बंदी के कगार पर पहुंच गया था. उसी समय गुवाहाटी से जी.एल.अग्रवाल वहां आए. वे गुवाहाटी से पूर्वांचल प्रहरी नामक एक हिंदी दैनिक निकालना चाहते थे और उनको पत्रकारों और कंप्यूटर आपरेटरों, जिनको तब कंपोजिटर कहा जाता था, कि जरूरत थी. वहां बात हुई और बात बन गई. उन्होंने हम लोगों को गुवाहाटी आने का न्योता दे दिया. घर में विचार-विमर्श करने के बाद मैंने भी गुवाहाटी जाने की हामी भर दी. पहले कई बार गुवाहाटी गया था. अक्सर कामाख्या मंदिर में दर्शन करने. बचपन की धुंधली यादें थी. लेकिन अब पहली बार नौकरी के लिए जा रहा था. हमारी टीम में छह-सात लोग थे. न्यू जलपाईगुड़ी से चलकर शाम को गुवाहाटी स्टेशन पर उतरे तो लगा कि कहां पहुंच गए. तब उग्रवाद चरम पर था. हर ओर, सेना और सुरक्षा बल के मुश्तैद जवान. अब तक ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच रहने या गुजरने की आदत जो नहीं थी. खैर, वहां से जीएल परिसर में पहुंचे. वहां कुछ देर बातचीत के बाद हमको दिसपुर स्थित हास्टलनुमा आवास में भेज दिया गया. जीएल ने वहीं सबके रहने की व्यवस्था की थी. मैं और सत्यानंद पाठक एक ही कमरे में जम गए.<br />दूसरे दिन सुबह-सबरे नए उत्साह के साथ दफ्तर पहुंचे. वहां एक शर्मा जी कैंटीन चलाते थे. तीन से पांच रुपए में भरपेट भोजन. किसी मारवाड़ी ढाबे जैसे स्वादिष्ट खाना. सुबह नाश्ता, दिन में खाना और रात में वहीं से खाकर अपने कमरे पर. दफ्तर में कई नए साथियों से मुलाकात हुई. देश के कई हिस्सों से उभरते पत्रकार वहां पहुंचे थे. राकेश सक्सेना, अरुण अस्थाना, विवेक पचौरी, प्रशांत, फजल इमाम मल्लिक, जय नारायण प्रसाद उर्फ कुमार भारत समेत बाकी लोग थे. कइयों के नाम अब याद नहीं आ रहे. मुकेश कुमार वहां मुख्य उप-संपादक थे. (अब मौर्या टीवी में समाचार निदेशक) बेहद सरल स्वभाव. पहला दिन तो परिचय आदि में ही बीत गया. बीच-बीच में चाय-पानी का दौर. एक बड़ी से गोल मेज के चारों और तमाम लोग बैठ कर शुरूआती रूपरेखा के बारे में बातें कर रहे थे. हमारे संपादक थे कृष्ण मोहन अग्रवाल. थे तो गोरखपुर के लोकिन इलाहाबाद में अमृत प्रभात में लंबे अरसे तक काम किया था. बेहद सीधे-सादे तो थे ही एक पेशेवर फोटोग्राफर भी थे. एक से एक तस्वीरें खींची थी उन्होंने. हां, उनमें महिलाओं की तस्वीरें ही ज्यादा थीं. अब का दौर होता तो फैशन फोटग्राफर कहलाते.पहले दिन वहां का माहौल बेहद पसंद आया. उसके बाद यही दिनचर्या बन गई. रोजाना सुबह से शाम तक खबरें बनती और एडिट होती. <br />यूं ही दिन बीतते रहे और अखबार के प्रकाश की तारीख टलती रही. इसबीच हमने डमी निकालना भी शुरू कर दिया. पहले 14 अप्रैल को बिहू के दिन अखबार निकलना था. वह टलता रहा. इसबीच, वहीं के एक प्रतिद्वंद्वी अखबार समूह सेंटिनल के मालिक को लगा कि यह बढ़िया मौका है. देश भर के पत्रकार यहां हैं तो क्यों न उनको तोड़ कर जीएल प्रकाशन से पहले ही अपना अखबार निकाल लिया जाए. तब उसके अंग्रेजी और असमिया अखबार थे. हां, खासी भाषा में भी एक अखबार निकलता था. बस, उसने मुकेश जी को पकड़ा और कार्यकारी संपादक बनने का प्रस्ताव दिया. मुकेश जी ने हम लोगों से बात की और हमारी आधी से ज्यादा टीम अगले दिन जीएल परिसर की बजाय सेंटिनल परिसर में पहुंच गई. पैसे ज्यादा मिल रहे थे. दो-तीन दिन वहां काम किया. अखबार के मालिक ने एक मकान में हमारे रहने की व्यवस्था की थी. लेकिन वहां पंखा नहीं था. अप्रैल के आखिर की गर्मी रात को सहना मुश्किल होता था. राजखोवा ने पहले दिन कहा था कि कल तक हर कमरे में पंखा लग जाएगा. लेकिन दूसरे दिन इस बात की याद दिलाने पर उसने कहा कैसा पंखा. वह आपलोग खरीद लीजिए. हमें झटका लगा. जब पहले ही अपनी बात से मुकर रहा है तो बाद में क्या होगा. पाठक जी और मैंने पूर्वांचल प्रहरी लौटने का फैसला किया. हमने वहां तब के महाप्रबंधक पुरकायस्थ से बात की और रातोंरात कार में अपना सामान समेट कर लौट आए. अबकी हमारा ठिकाना बना जीएल परिसर के पीछे ही एक मकान. वहां कई और लोग रहते थे. बाद में सेंटिनल पहले निकला और पूर्वांचल प्रहरी बाद में. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सेंटिनल शुरू से ही कभी पूर्वांचल प्रहरी को पछाड़ नहीं सका. लेआउट के मामले में बेहतर रहने के बावजूद. जीएल अग्रवाल ने इसबीच कई और लोगों को बुलवा लिया था बिहार और दिल्ली से. <br />इन बाद में आने वालों में मनोरंजन सिंह उर्फ अपूर्व गांधी के अलावा अमरनाथ और ओंकारेश्वर पांडेय जैसे लोग थे जो प्रशिक्षु के तौर पर पटना से आए थे. इनके अलावा माया (इलाहाबाद) से आए प्रीतिशंकर शर्मा और कल्याण कुमार भी थे. कई संपादकीय सलाहकार भी आ गए. इनमें विनोदानंद ठाकुर थे तो बद्रीनाथ तिवारी (अब स्वर्गीय) भी थे. तिवारी जी हमारे पड़ोस के मकान में ही रहते थे. उनके साथ रहने कुछ दिनों के लिए रामदत्त त्रिपाठी (अब बीबीसी में उत्तर प्रदेश संवाददाता) भी आए. लेकिन वे कुछ महीनों में ही लौट गए. विनोदानंद ठाकुर तमाम लोगों को लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे. श्रीलंका में लिट्टे की समस्या पर संपादकीय पेज पर मेरा पहला अग्रलेख भी उन्होंने ही छापा था.<br />अप्रैल में असम में बिहू बेहद धूमधाम से मनाया जाता है. पूरा राज्य लगभर एक सप्ताह तक इसके रंग में रंग जाता है. हमारे लिए बिहू नृत्य एक नया अनुभव था. दफ्तर से लौट कर हमने न जाने कितनी ही रातें बिहू नृत्य देखते हुए बिताईं. पाठख जी हमेशा साथ रहते थे.<br />शुरूआती छह महीने बड़े तकलीफदेह रहे. सुबह 10-11 बजे दफ्तर पहुंचते थे और रात दो-ढाई बजे के पहले घऱ लौटना नहीं होता था. इतने तरह के लोग थे कि व्यवस्था बनाने में महीनों लग गए. बाद में चीजें धीरे-धीरे ढर्रे पर आने लगीं. इस दौरान पूर्वांचल से कई लोगों का सेंटिनल आना-जाना लगा रहा. उसी दौरान एक तीसरा हिंदी अखबार उत्तरकाल भी निकला जो घुनों के बल चलना सीखने से पहले ही असामयिक मौत का शिकार हो गया. वहां के कुछ लोगों को भी इन दोनों अखबारों में खपाया गया.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-58404334973273149192010-06-30T12:14:00.000+05:302010-06-30T12:15:28.815+05:30होता है वही जो हम नहीं चाहतेअक्सर जीवन और रोजमर्रा के कामकाज में जाने-अनजाने वही सब हो जाता है जो हम नहीं चाहते. इसकी एक मिसाल काफी है. कई बार दुकान पर कपड़े या कोई सामान खरीदते समय हम दस में नौ बार वही सामान खरीद लेते हैं जो हमें कम पसंद होता है. खरीदने के बाद रास्ते भर अफसोस करते रहते हैं कि वो दूसरा वाला खऱीदा होता तो अच्छा होता. ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं होती रहती हैं जो जीवन की भागमभाग में मन से बिसर जाती हैं. मेरा पत्रकारिता में आना भी कुछ ऐसी ही घटना है. हां, लेकिन मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है.<br />अस्सी के दशक में उत्तरार्ध में मैं सिलीगुड़ी में रह कर इलेक्ट्रानिक्स का डिप्लोमा कर रहा था. स्कूल के दिनों का मेरा एक सहपाठी था. श्रवण कुमार अग्रवाल. उसका वहां सीमेंट का कारोबार था. हमने सिलीगुड़ी हिंदी स्कूल में कक्षा पांच से दसवीं तक पढ़ाई साथ ही की थी. अब भी हम लगभग रोज ही मिलते थे. सुबह हिंदी स्कूल के मैदान में सैर करना हमारी दिनचर्या बन गई थी. उससे दुनिया-जहान की तमाम बातों पर चर्चा होती थी. एक दिन उसने यूं ही कहा कि अरे भाई तुम्हारी हिंदी और अंग्रेजी इतनी अच्छी है. शाम को खाली समय भी है. तुम जनपथ समाचार में काम क्यों नहीं करते. उस समय सिलीगुड़ी से यही एक हिंदी अखबार निकलता था. अब भी यह नंबर वन है वहां. उसके मालिक हैं राजेंद्र बैद. तब उनका लड़का विवेक छोटा था. राजेंद्र बाबू ( सब लोग उको इसी संबोधन से पुकारते थे) ही सब काम देखते थे. श्रवण ने बात चलाई तो मैंने भी सोचा देखने में हर्ज ही क्या है. जंचा तो ठीक वरना अपने इलेक्ट्रानिक्स वाला रास्ता तो खुला ही है. <br />खैर, श्रवण अगले दिन मुझे साथ लेकर राजेंद्र वैद के पास पहुंचा. उन्होंने मुझे एक पन्ना दिया. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के लिए. मैंने वहीं फौरन उसका अनुवाद कर दिया. अनुवाद देखते ही उन्होंने कहा कि कल से काम पर आ जाओ. चार सौ रुपए वेतन मिलेंगे. चार सौ रुपए तब बड़ी बात थी. मैंने हामी भऱ दी. अगले दिन ठीक समय पर काम पर पहुंच गया. उस दिन राजेंद्र बाबू ने मुझे मध्यकालीन इतिहास की एक पुस्तक थमा दी. वह अंग्रेजी में थी. राजेंद्र बाबू ने कहा कि तुम रोज इसका अनुवाद करोगे और वही पहले पेज की बाटम स्टोरी होगी. फिर क्या था. इतिहास के पन्नों से शीर्षक वह कालम चार रोज बाद से शुरू हो गया. वह कोई तीन महीने चला. इसबीच, मैंने पूरी किताब का अनुवाद कर दिया.<br />उस समय दार्जिलिंग में अलग गोरखालैंड आंदोलन का दौर था. वहां एक साथी थे मनोज राउत. वे गोरखालैंड आंदोलन को शुरू से ही कवर करते आ रहे थे. वे बांग्ला में अपनी कापी लिखते थे. उसके अनुवाद का जिम्मा भी मेरे कंधों पर आ गया. राजेंद्र बाबू अक्सर कहते थे कि यार तुम इतनी जल्दी हाथ से इतने पेज कैसे लिख लेते हो. खैर, काम चलता गया, पांव जमते गए. मेरे आने से कुछ एकाध पुराने लोगों को दिक्कत होने लगी. एक साथी थे. उनका नाम नहीं लूंगा. अब संपादक पद पर पहुंच गए हैं. काम जानते तो थे. लेकिन परले दर्जे के आलसी और फांकीबाज. दफ्तर से एडवांस लेकर बैग समेत टूर के लिए निकलते और फिर घर चले जाते. वहां से दो दिनों बाद टूर पर जाते. लौट कर दो दिन घर पर आराम फरमाने के बाद दफ्तर आ जाते. बैग हाथों में होता था. यह जताने के लिए कि सीधे टूर से ही आ रहा हूं. उसके बाद थके होने की बात कह कर घर चले जाते थे. यानी उस दिन की भी छुट्टी.<br />एक बार बड़ा मजेदार वाकया हुआ. वे दफ्तर से पैसे लेकर टूर के लिए निकले और अपनी आदत के मुताबिक घर पहुंच गए. अगले दिन उन्होंने राजेंद्र बाबू को बाकायद फोन पर बताया कि मैं सकुशल फलां जगह पहुंच गया हूं. लेकिन आधे घंटे बाद राजेंद्र बाबू किसी काम से निकले तो देखा वह सज्जन महानंदा ब्रिज पर पान चबाते हुए स्कूटर पर तफरीह कर रहे हैं. उनकी पोल खुल गई. इन तमाम चीजों के बावजूद दफ्तर से बाहर हम दोनों की दोस्ती बनी रही बल्कि और प्रगाढ़ हो गई थी.<br />राजेंद्र वैद बड़े भुलक्कड़ थे. पान पराग बहुत खाते थे. हमेशा हाथ में बड़ा सा डिब्बा रखते थे. जब संपादकीय विभाग में आते थे तब भी. और दस में से नौ बार डिब्बा हमारी मेज पर छोड़ जाते थे. उनके जाते ही हम लोग टूट पड़ते उस डिब्बे पर. जिसको जितना मिला मुंह में दबा लेते थे. बाद में चपरासी से डिब्बा उन तक भिजवा देते थे. इसी तरह उन्होंने दर्जनों कलमें संपादकीय में छोड़ी होंगी. यह बात अलग है कि उनमें से कोई भी कलम दोबारा उन तक नहीं पहुंची. पैसे के मामले में दरियादिल. जितना एडवांस चाहिए, दे देते थे. फिर धीरे-धीरे वेतन में कटता रहता था. कई बार तो देकर काटना तक भूल जाते थे. वहीं रहते उन्होंने मुफ्त में नई साइकिल दिलाई और बाद में जमीन खरीदने के लिए रुपए भी दिए.<br />जनपथ में काम करते दोस्ती तो बनी रही. लेकिन व्यस्तता की वजह से श्रवण कुमार से मुलाकातें कम हो गई थी. उसने मेरा परिचय अखबारी दुनिया से कराया था. इस बात के लिए मैं उसका हमेशा आभारी रहा. बाद में एक छोटी से घटना की वजह से दोस्ती टूट गई. एक दिन में हमेशा की तरह मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो उसने कहा कि तुम अभी चले जाओ, मेरा भाई आ रहा है. उसकी यह बात सुनते ही मैं उल्टे पांव लौट आया. इस बात को 23-24 साल बीत गए. लेकिन मैंने दोबारा उसके दफ्तर में पांव नहीं रखा. आकिर मैं न तो कोई चोर-उचक्का था और न ही उससे कुछ मांगने गया था. बाद में गलती का अहसास होने पर उसने दर्जनों बार मेरे घऱ के चक्कर काटे. लेकिन न जाने क्यों दोबारा उसके दफ्तर की ओर जाने की इच्छा तक नहीं हुई. <br />बाद में जनपथ समाचार में हड़ताल हुई. कर्मचारियों ने अखबार का प्रकाशान हाथ में ले लिया. हमने महीने भर तक आधे पैसों में काम कर के अखबार निकाला. उसी दौरान गुवाहाटी से जीएल अग्रवाल आए. वे वहां से हिंदी अखबार निकालना चाहते थे और इसी सिलसिले में आए थे. जनपथ की लगभग पूरी टीम ही उनके साथ पूर्वोत्तर की राह पर निकल पड़ी. यह मार्च, 1989 की बात है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-17351514452590849172010-06-25T23:50:00.003+05:302010-06-26T11:19:42.394+05:30अद्भुत है पुरी का समुद्र तट<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgshwyVaKyGn4xbsAH7AUT0_uG_zk0I1AUy1rEhS0oOxFfi6R-N2yNctT5WsXrJ8GIQ7JJHffsVE54L3f54JBbWCdtAyXpaDum9sj7ZRhWIQi9XN5qCrRk5GV0MZW6TB4TUHYYpxXk4pO8Q/s1600/PURI-2.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 150px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgshwyVaKyGn4xbsAH7AUT0_uG_zk0I1AUy1rEhS0oOxFfi6R-N2yNctT5WsXrJ8GIQ7JJHffsVE54L3f54JBbWCdtAyXpaDum9sj7ZRhWIQi9XN5qCrRk5GV0MZW6TB4TUHYYpxXk4pO8Q/s200/PURI-2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5486778214927047522" /></a><br />पहली बार कोई 17 साल पहले पुरी गया था. बिना किसी योजना के ही. वह महज एक संयोग था और उसके पीछे कोलकाता में रहने वाले एक रिश्तेदार की प्रेरणा थी. पत्नी के साथ इलाज के सिलसिले में सिलीगुड़ी से कोलकाता आया था. डाक्टर ने कोई जांच कराने को कहा था और उसकी रिपोर्ट सात दिनों के बाद आनी थी. अब समस्या यह कि क्या करें. सिलीगुड़ी लौट जाएं या कोलकाता में ही घर बैठे बोरियत से जूझते रहें. इसी उधेड़बुन में फंसा था कि उन रिश्तेदार ने ही हमारी मुश्किल आसान कर दी. यह कह कर कि आप लोग दो-चार दिनों के लिए पुरी क्यों नहीं घूम आते. घूमना भी हो जाएगा और तीर्थ भी. इसके अलावा समय का सदुपयोग भी हो जाएगा. यानी आम के आम और गुठली के दाम. उन्होंने ही होटल और पंडे का पता दे दिया. खैर, थोड़ी सी कोशिश के बाद पुरी जाने-आने का रिजर्वेशन भी हो गया. बस चल पड़े हावड़ा से जगन्नाथ एक्सप्रेस में बैठ कर पुरी की ओर.<br />वह दिसंबर का महीना था. सिलीगुड़ी से हालांकि हम गर्म कपड़े और चादर वगैरह ले आए थे. लेकिन कोलकाता में सर्दी वैसे भी नहीं पड़ती. हमारे रिश्तेदार और मित्रों ने बताया कि पुरी में समुद्र होने की वजह से वहां भी सर्दी नहीं पड़ती. बस क्या था. हमने तमाम गर्म कपड़े कोलकाता में रख दिए और एक छोटी अटैची लेकर चल दिए. इसका अफसोस तो रास्ते में ट्रेन में तब हुआ जब सर्दी के मारे दांत बजने लगे. खैर, अपनी गलती पर खुद को मन ही मन डांटते हुए सुबह पुरी पहुंचे. स्टेशन के बाहर निकल कर पुरी होटल की बस में बैठ गए. वहां जाते ही कमरा भी मिल गया. ऐन समुद्र के सामने है पुरी होटल. कमरे की बालकनी से ही समुद्र की लहरें. दो-तीन दिन ठहर कर कोणार्क और दूसरे जगहों की सैर की. इतिहास में ही पढ़ा था कोणार्क. सूर्य मंदिर को सजीव देख कर मन मानो बरसों पहले स्कूली दिनों की ओर लौट गया.<br />हमारी वह यात्रा यादगार थी. इसलिए भी वहां से लौटने के बाद ही मेरी पत्नी मां बनी. वहां रहते हमने जगन्नाथ मंदिर के भी दर्शन किए. हमारे पंडे का नाम था चकाचक पंडा. उसका पूरा नाम तो था चकाचक रामकृष्ण प्रतिहारी. लेकिन चकाचक पंडा के नाम से ही उसे सब जानते थे. अपने उत्तर भारतीय पंडों के उलट वहां लूट-खसोट वाली प्रवृत्ति नहीं है. जो दे दिया, पंडा उसी में खुश.<br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFesgYpIBhYEsekAI2PoSo4rhfoMLErVtfWmq0gcMHD8CX6lZRmM41ktdns7mpWpzx134vSgg709xQv67uOUjmjBb7x-qRv3Kmk9zntPQAIGb8F7vOA6zZkLFIuTuq-oIsk05MlFqwFQC5/s1600/PURI-3.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 150px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFesgYpIBhYEsekAI2PoSo4rhfoMLErVtfWmq0gcMHD8CX6lZRmM41ktdns7mpWpzx134vSgg709xQv67uOUjmjBb7x-qRv3Kmk9zntPQAIGb8F7vOA6zZkLFIuTuq-oIsk05MlFqwFQC5/s200/PURI-3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5486955355361989970" /></a><br />उसके बाद कोई आठ-नौ साल पुरी नहीं जा सका. लेकिन तबादले पर कोलकाता आने के बाद बीते दस सालों में पांच बार पुरी हो आया हूं. एक बार तो नया साल भी वहीं मना चुका हूं. तब कोई सात दिन रहा था वहां. अब सबसे ताजा पुरी दौरे का कार्यक्रम बना जून के पहले सप्ताह में. अचानक. शादी की वर्षगांठ करीब थी. बेटी की कोचिंग की वजह से दो-तीन दिनों से ज्यादा समय नहीं निकलता था कि घर जाया जा सके. सो, पुरी जाने का कार्यक्रम बना लिया. होटल की भारी दिक्कत. पुरी में होटलों की तादाद जितनी बढ़ी है पर्यटकों की तादाद उससे कई गुना ज्यादा बढ़ गई है. दर्जनों फोन के बाद एक मित्र के जरिए होटल में कमरा मिल गया. पहले भुवनेश्वर पहुंचा. वहां कुछ देर आराम करने के बाद लिंगराज मंदिर होते हुए पुरी.<br />पुरी का समुद्र हमेशा आकर्षित करता रहा है. यह पूर्वी भारत के सुंदरतम और साफ-सुथरे समुद्र तटों में से एक है. लेकिन अबकी समुद्र का मिजाज बदला हुआ लगा. पुरी होटल के सामने तो समुद्र अपने तट को ही खा गया था. वहां गहराई पहले के मुकाबले ज्यादा हो गई है. अभी बीते साल मार्च में वहां गया था तब ऐसा नहीं था. तब हमने वहां नहाते हुए घंटों बिता दिए थे. लेकिन अब वह जगह खतरनाक हो गई है. ग्लोबल वार्मिंग का असर यहां नजर आने लगा है. लहरें लौटते हुए अपने साथ जबरन भीतर खींचने का प्रयास करती नजर आईं. पहले मैं जिस स्वर्गद्वार इलाके को सुनसान मानता था वही अब गुलजार हो गया है. पुरी होटल या उसके आसपास कोई दूसरा होटल नहीं मिल पाने की वजह से मन में कुछ निराशा थी. लेकिन वह निराशा वहां जाकर दूर हो गई. अब तो जहां होटल था वहीं नहाने वालों की भीड़ थी सामने. रात को समुद्री वस्तुओं का बाजार भी वहीं लगता था.<br />पहले दिन तो दोपहर को पहुंचवे के बाद होटल में खाना खाकर कमरे से ही समुद्री लहरों का नजारा लेते रहे. शाम को मंदिर की ओर निकले. दूसरे दिन शादी की वर्षगांठ थी. उस दिन सुबह-सुबह मंदिर में दर्शन करने के बाद भोग चढ़ाया. गर्मी काफी थी. ऐसे में मंदिर से लौटने के बाद समुद्र की ओर जाने की हिम्मत नहीं हुई. पहले कई बार तपते बालू पर अपने पैर जला चुका हूं. इस बार नहीं, मैने सोचा. तीसरे दिन वापसी थी. लेकिन ट्रेन रात को 11 बजे थी और पूरे दिन हमारे पास करने के लिए कुछ था नहीं. तड़के होटल से निकले सूर्योदय का नजारा देखने के लिए. लेकिन बादल ने सूरज को अपनी ओट में ढक रखा था. जब तक बादल छंटे, सूरज काफी ऊपर आ गया था. खैर, वहीं बैठ कर चाय पीते रहे. कुछ देर बाद होटल से कपड़े बदल कर नहाने पहुंचे. कोई घंटे भर नहाया. पत्नी और बेटी के साथ. लेकिन लहरें काफी तेज थीं. वह तो बाद में पता चला कि अंडमान में उसी दिन भूकंप आया था. शायद उसी का असर हो.<br />शाम को भी हम घंटों समुद्र के किनारे घूमते रहे. पुरी की सुबह अगर खूबसूरत है तो शाम का भी कोई जवाब नहीं. बंगाली पर्यटकों की भरमार. खासकर समुद्री मछलियां बेचने वाले ठेलों और उड़ीसा हैंडलूम की दुकानों पर. पुरी जाने पर लगता है कि कोलकाता के ही किसी कोने में हैं. बस एक समुद्र भर का ही अंतर है.<br />पुरी अब तक जितनी बार गया हूं, वहां की खूबसूरती से मन नहीं भरा है. हर बार, वापसी के दौरान दोबारा जल्दी ही लौटने का संकल्प मन ही मन दोहराते हुए आता हूं. लेकिन अब तो शायद अगले कम से कम दो साल कहीं जाना संभव ही नहीं, बिटिया 11वीं में है. उसका स्कूल, कोचिंग और सौ सांसरिक झमेले. लेकिन जब भी मौका मिला, जल्दी ही जाऊंगा. समुद्र में नहाने नहीं, तो वहां उस पर ग्लोबल वार्मिंग का असर देखने.कोलकाता से सात-आठ घंटे का ही तो सफर है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-17362062896260729672010-06-04T12:57:00.004+05:302010-06-04T13:01:12.236+05:30माकपा अब घटक दलों के भी निशाने पर<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0i321jOH3AgzcuYmgMYQmlqR_nd3oEZINyibdPLHogy4hUXRx1UQD0e1VP8qI5HkBuua6qXWBwjuKnDNcYcO55CgHP0iZPhKIO3A3o1A2031g3XmxqZRcM3xD2coUa6sgTI7wYY81Mfel/s1600/BIMAN+BASU+CPIM+SEC..jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 132px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0i321jOH3AgzcuYmgMYQmlqR_nd3oEZINyibdPLHogy4hUXRx1UQD0e1VP8qI5HkBuua6qXWBwjuKnDNcYcO55CgHP0iZPhKIO3A3o1A2031g3XmxqZRcM3xD2coUa6sgTI7wYY81Mfel/s200/BIMAN+BASU+CPIM+SEC..jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5478817122642086290" /></a><br />पश्चिम बंगाल के शहरी निकाय के लिए हुए चुनाव में जबरदस्त हार से माकपा सकते में है. नतीजों के एलान के चौबीस घंटे बाद भी वह इस सदमे से उबर नहीं सकी है. लेकिन इस हार के बावजूद माकपाइयों के तेवर ढीले नहीं पड़े हैं. यानी रस्सी भले जल गई हो, उसकी ऐंठन नहीं गई है. उसका दावा है कि पार्टी का प्रदर्शन उतना खराब नहीं रहा है. वैसे, माकपा के दिग्गज नेता भले कुछ भी दावा करें, हकीकत यह है कि इतनी करार हार का उनको कोई अंदेशा नहीं था. जिन 81 नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हुए उनमें से 54 पर वामपंथियों का कब्जा था. लेकिन अब उसकी झोली में इनमें से सिर्फ 17 ही आई हैं. शायद इसलिए नतीजों के एलान के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की बोलती बंद हो गई. इस चुनावी सदमे से पंगु बनी माकपा पर अब वाममोर्चा के उसके सहयोगी भी हमला करने लगे हैं. उन्होंने इस हार का ठीकरा माकपा के सिर पर ही फोड़ा है.<br />इन नतीजों के बाद माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु ने एक बार फिर हार की वजहों की समीक्षा करने और आम लोगों से बढ़ी दूरी कम करने की बात कही है. वैसे, उन्होंने बीते साल लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी यही कहा था. लेकिन इन नतीजों से साफ है कि माकपा और वोटरों के बीच की दूरी घटने की बजाय और बढ़ गई है. गुरुवार को हार की वजहों की समीक्षा के लिए आयोजित प्रदेश माकपा सचिव मंडल की बैठक में भी कोई ठोस चर्चा नहीं हो सकी. इसमें शामिल कुछ नेता अपने-अपने तर्क देते रहे. लेकिन ज्यादातर तो सुझाव के नाम पर बगलें ही झांकते रहे. बैठक में शामिल एक नेता ने बताया कि बैठक के दौरान माहौल गमगीन रहा. तमाम नेताओं की बोलती बंद थी.<br />शहरी निकाय चुनाव में हार का सदमा अभी कम नहीं भी हुआ है कि वाममोर्चा में उसके दो सहयोगी दलों ने इस हार के लिए सीधे तौर पर भ्रष्टाचार और राज्य सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेवार ठहराते हुए माकपा को कटघरे में खड़ा कर दिया है. आरएसपी नेता और राज्य के लोक निर्माण मंत्री क्षिति गोस्वामी ने कहा है कि जनादेश बदलाव के पक्ष में है. चुनावी नतीजों से यह बात शीशे की तरह साफ हो गई है. उन्होंने आरोप लगाया कि लंबे अरसे तक सत्ता में रहने की वजह से वाममोर्चा के कई वर्गों में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है.<br />आरएसपी नेता ने कहा कि माकपा वाममोर्चा की सबसे बड़ी घटक है. इसलिए हमारे मुकाबले उसमें भ्रष्टाचार की जड़ें भी ज्यादा गहरी हैं. उधर, मोर्चा की एक अन्य घटक वेस्ट बंगाल सोशलिस्ट पार्टी ने कहा है कि वर्ष 1977 से लगातार सत्ता में रहने की वजह से वाममोर्चा ने लोगों का भरोसा खो दिया है. पार्टी के नेता और मत्स्य पालन मंत्री किरणमय नंद ने कहा कि वर्ष 2008 के पंचायत चुनाव से ही आम लोग हमारे खिलाफ हैं. इसलिए मौजूदा हालात में इससे बेहतर नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्होंने कहा कि सरकार की गलत नीतियों और आम लोगों के प्रति माकपा की बेरुखी ने ही निकाय चुनाव में वामपंथियों की लुटिया डुबो दी. हमने लोगों का भरोसा खो दिया है.<br />नंदा ने कहा कि बीते साल लोकसभा चुनाव में मोर्चा की दुर्गति के बाद उन्होंने सरकार के इस्तीफा देकर नए सिरे से जनादेश हासिल करने का सुझाव दिया था. लेकिन मेरा वह प्रस्ताव तब खारिज कर दिया गया था. गोस्वामी व नंदा विभिन्न मुद्दों पर पहले भी सरकार और माकपा की गलत नीतियों के खिलाफ मुखर रहे हैं.<br />शहरी निकाय के चुनावी नतीजों ने माकपा के दिग्गज नेताओं के तमाम पूर्वानुमान व समीकरण गड़बड़ा दिए हैं. चुनाव से पहले कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के बीच कोई तालमेल नहीं होने से माकपाई बेहद खुश थे. उनका सीधा हिसाब था कि इससे वाम-विरोधी वोटों का विभाजन होगा और वामपंथियों का बेड़ा पार हो जाएगा. लेकिन वे शायद भूल गए कि राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होता. अब हर चुनाव की तरह इस बार भी माकपाई हार की वजह की समीक्षा और लोगों के नजदीक जाने का पुराना राग ही अलाप रहे हैं. लेकिन पार्टी के भ्रष्ट नेताओं व कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई के सवाल पर पार्टी ने अब तक चुप्पी साध रखी है. बीते साल लोकसभा चुनाव के बाद उसने ऐसे नेताओं से पल्ला झाड़ कर पार्टी की छवि सुधारने के लिए शुद्धिकरण अभियान चलाने का फैसला किया था. लेकिन पार्टी के ही एक गुट के दबाव में उस फैसले को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया. अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या माकपा अतीत की गलतियों से कोई सबक लेगी. फिलहाल तो इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-31247297595625096172010-05-31T00:14:00.000+05:302010-05-31T00:15:16.417+05:30वो प्यार नहीं कुछ और थाबरसों पुरानी बात है. बल्कि तीन दशक पुरानी. लेकिन सोचता हूं तो लगता है कि अभी कल की ही हो. वर्ष 1978 में सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) से हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद पढ़ने के लिए अपने माम के घर देवरिया पहुंचा. मेरे मामा देवरिया में खूखुंदू स्थित शिवाजी इंटर कालेज में पढ़ाते थे. वहीं दाखिला लिया. बड़े ही मजे में गुजरे दो साल. कई नए दोस्त मिले. शहर से जाने के बाद गांव का माहौल बेहद पसंद आया. मामा के पास काफी जमीन थी. वहां अरहर, धान और गन्ने के खेत में घूमना-काटना, कंपकपाती ठंढ में गेहूं की फसल में पानी चलाना यानी सिंचाई करना, यह सब वहीं सीखा. हम लोग (मेरे कई सहपाठी भी थे) रोजाना सोलह किलोमीटर साइकिल चलाकर कालेज जाते थे. कई बार तो स्कूल से ही सीधे देवरिया चले जाते थे. और वहां फिल्मे देख कर गांव लौटते थे. यानी दिन भर में औसतन 50 किलोममीटर तक साइकिल चलती थी. वहां दो साल कैसे बीत गए, यह पता ही नहीं चला और इंटर की परीक्षा के लिए फार्म भरने का समय आ गया. मैंने भी दूसरों के साथ फार्म भरा. <br />मामा के वरिष्ठ शिक्षक होने की वजह से कालेज का सारा स्टाफ मुझे दूसरी नजर से देखता था. वैसे, मैं छात्र जीवन में बेहद अनुशासित भी था. तो इस वजह से कालेज के कार्यालय से लेकर प्रिसिंपल के आफिस तक मेरी पहुंच थी. नर्बदेश्वर मिश्र उन दिनों वहां प्रिंसिपल हुआ करते थे. हां, पूरे इंटर में हमारे बैच में एक ही लड़की पढ़ती थी. उसका नाम लेना यहां ठीक नहीं होगा. हम सबकी तरह उसने भी परीक्षा का फार्म भरा था. मेरे दोस्तों को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने मुझे एक दिन चुनौती दे दी. उन्होंने कहा कि बड़े तीसमार खां बनते हो तो उस लड़की की फोटो उसके फार्म से निकाल कर दिखाओ. मैंने भी हामी भर ली. और अपने मामा के शिक्षक होने की वजह से अपनी पहुंच का फायदा उठाते हुए फाइल से उस लड़की की तस्वीर नोच ली. शर्त तो मैं जीत गया. लेकिन अगले ही दिन पूरे कालेज में हड़कंप मच गया. फार्म से फोटो आखिर कैसे गायब हो गई. वह लड़की उसी गांव के एक बड़े व्यक्ति की रिश्तेदार थी जहां हमारा कालेज था. कालेज के प्रिसिंपल से लेकर सारा स्टाफ सन्न. आखिर उसे यह बात बता कर दोबारा फोटो कैसे मांगी जाए. <br />मैंने वह फोटो निकाल कर मामा के घर ही अपने सूटकेश में रख दी थी और उसे एक छोटी घटना मानकर भूल भी गया था. लेकिन मेरे मामा को न जाने कैसे मुझ पर शक हो गया. उन्होंने मेरा सूटकेश चेक किया और वह फोटो ले जाकर कालेज में दे दी. कालेज की इज्जत को बच गई, लेकिन मेरी इज्जत के परखचे उड़ गए. खैर, वह तो मुझे बाद में पता चला. वह भी तब जब मेरी मामी ने मुझसे पूछा कि आपने कालेज की किसी लड़की की फोटो रखी थी सूटकेश में. मामा की सज्जनता का आलम यह कि उन्होंने न तो उस समय उस बात की मुझसे कोई चर्चा की और न ही बाद में कभी इस बारे में जिक्र किया.<br />बाद में कालेज के दोस्त मुझे उस लड़की और फोटो वाला प्रसंग लेकर चिढ़ाते भी रहे. लेकिन अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह प्यार नहीं था. प्यार होता तो उस फोटो को मैं अपनी जेब में रखता सूटकेश में नहीं. और फिर 16 साल की उम्र में जब इंटरनेट और टेलीविजन की कौन कहे, रेडियो भी नहीं था तो प्यार-मोहब्बत का ख्याल तक दिल में नहीं आ सकता था. अब सोचता हूं तो अपनी उस बचकानी हरकत पर हंसी आती है. लेकिन साथ ही एक खुशी भी होती है. इस बात पर कि मैं अपने दोस्तों से एक रुपए की शर्त जीत गया था. तीस साल पहले एक रुपए बहुत होते थे.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-48883953771548709742010-05-30T23:49:00.000+05:302010-05-30T23:50:40.771+05:30शादी के बाद अकेले होने का फायदाकई बार अकेला होना भी अच्छा लगता है. खासकर शादी के बाद. इन दिनों पत्नी और बेटी रांची में हैं. मेरी बड़ी साली की तीसरी बेटी की शादी है. मैं तो जा नहीं सका. बंगाल में शहरी निकायों के चुनाव थे आज. इनको अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा था. सो, मेरा जाना संभव नहीं था. वैसे, मेरी इन साली की बेटियों की शादी हमेशा उसी समय होती है जब कहीं न कहीं कोई चुनाव होते हैं. मसलन पहली बेटी की शादी के समय बंगाल में विधानसभा चुनाव थे. वर्ष 2001 में. खैर, पहली शादी थी. किसी तरह गया. दो-तीन दिनों के लिए. उसके बाद दूसरी बेटी की शादी भी हुई 2006 में. तब भी बंगाल में विधासनसभा चुनाव थे. नहीं जा सका. पत्नी और बेटी ही गई थी पटना. और इस बार भी यही हुआ. शनिवार को पत्नी और बेटी को रांची शताब्दी पर चढा़ कर घर लौटा तो अचानक कई काम नजर आने लगे.<br />लेकिन अकेले रहने का फायदा यह है कि आप घर में अक्सर कुछ ऐसी फिल्में भी देख लेते हैं जिनको देखने के लिए कभी सिनेमाहाल या मल्टीप्लेक्स में जाना संभव नहीं होता. पत्नी और बेटी के रहते मैं मूक-बधिर फिल्में देखने का आदी हो गया हूं. यानी रात को जब फिल्में देखता हूं तो इस डर से आवाज बंद रखता हूं कि उनकी नींद खऱाब न हो जाए. वह तो भला हो स्टार मूवीज वालों का कि नीचे अंग्रेजी में सब-टाइटिल्स दे देते हैं. लेकिन अकेले होने पर आप वाल्यूम जितना चाहें बढ़ा सकते हैं. तो इसी क्रम में मैंने आज यानी रविवार को वेकअप सिड देखी. गजब की फिल्म है यह. <br />जीवन में दोस्त तो कम ही मिले हैं. जो मिले भी हैं वे मुझे समझ नहीं सके. जिन दो-चार लोगों ने समझा था वो अब मेरे दोस्त नहीं रहे. मेरी नहीं, बल्कि उनकी अपनी गलती की वजह से. मेरी इच्छाओं, जरूरतों और दुख-सुख से किसी को कोई खास मतलब नहीं रहा. हालांकि मैंने अपने करीबियों की खुशी का हमेशा ध्यान रखा है. कभी सोचता हूं तो दुख होता है. लेकिन लगता है कि यही तो दुनिया की रीति है. इसका बुरा क्या मानना. कुछ दोस्त जिनको मैं अपना मानता था वे अब मेरे अपने नहीं रहे. दो-एक बढ़िया दोस्तों से बरसों से मुलाकात ही नहीं हो सकी. न जाने वे कहां हैं. पहले तो फोन और मोबाइल भी नहीं होता था. ई-मेल आदि की कौन कहे. अब मद्रास के एक दोस्त से शायद 25 साल बाद इस साल दुर्गापूजा के दौरान मुलाकात हो जाए. कौन जाने क्या होगा. इलाहाबाद पालीटेकनिक में मेरे साथ रहे रवि प्रताप साही और मद्रास में रूम पार्टनर रहे हेमंत वषिष्ठ बहुत याद आते हैं. इसी तरह सिल्चर वाला निर्मल भौमिक भी. लेकिन उनका कोई पता-ठिकाना नहीं है मेरे पास. शायद कहीं मिलना हो. जैसे इतने साल गुजरे, वैसे ही उनकी यादों के सहारे कुछ साल और सही.यादें ही तो जीने का सहारा होती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि अतीत चाहें कितना भी दुखद हो, उसकी यादें मीठी होती हैं.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-53528379725828445352010-05-08T17:09:00.001+05:302010-05-08T17:10:46.755+05:30रे की कहानी को परदे पर उतारेंगे संदीप<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnyUi6KyLgxKOC9vkeIGx5E4Uo2XWbBS_P_jdwGip7-9JN5ay2ntZvEN9FFpEIJTL7eQCJ-BdhvDbQvL8XAA5ukucUFBbMvYham07wR0EqtBwoy4aSSX8vybY3WPHPQMDRCYI2G4bnsWd0/s1600/satyajit-1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 173px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnyUi6KyLgxKOC9vkeIGx5E4Uo2XWbBS_P_jdwGip7-9JN5ay2ntZvEN9FFpEIJTL7eQCJ-BdhvDbQvL8XAA5ukucUFBbMvYham07wR0EqtBwoy4aSSX8vybY3WPHPQMDRCYI2G4bnsWd0/s200/satyajit-1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5468862748704650866" /></a><br />बांग्ला सिनेमा को एक नई पहचान दिलाने वाले स्व. फिल्मकार सत्यजित रे की मशहूर फेलूदा सीरिज़ की अगली कड़ी जल्दी ही परदे पर नजर आएगी. इस महान फिल्मकार के पुत्र संदीप रे, जो खुद भी जाने-माने निर्देशक हैं, ने अपने पिता की जयंती के मौके पर यह एलान किया है. सत्यजित रे अगर जीवित होते तो दो मई को उम्र के नौवें दशक में कदम रखते. सत्यजित ने फेलूदा सीरिज़ के जासूसी उपन्यास और लघु कहानियां लिखी थीं. उन्होंने अपनी कहानियों और फिल्मों में फेलूदा नामक जासूस के चरित्र को अमर कर दिया था. अब संदीप उनकी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. वे इसे अपने पिता और इस महान फिल्मकार के प्रति श्रद्धांजलि मानते हैं.संदीप कहते हैं कि ‘हमने फेलूदा सीरिज के मशहूर उपन्यास गोरोस्थाने सावधान (कब्रिस्तान में सावधान) पर फिल्म बनाने का फैसला किया है. इसकी शूटिंग अगले महीने शुरू होगी. यह फेलूदा सीरिज़ की लोकप्रिय कहानियों में से एक है.’<br />इससे पहले फेलूदा सीरिज़ की ‘सोनार केल्ला (सोने का किला)’, ‘जय बाबा फेलूनाथ’, ‘बोंबेर बोंबेटे (बंबई के डकैत),’ ‘कैलाशे केलेंकारी (कैलाश पर अफरातफरी)’ समेत कुछ कहानियों पर बनी फिल्में काफी सफल रही हैं. ‘सोनार केल्ला’ और ‘जय बाबा फेलूनाथ’ का निर्देशन तो खुद सत्यजित रे ने ही किया था. बाकी फिल्मों का निर्देशन उनके पुत्र संदीप ने किया था. फेलूदा सीरिज़ की कई कहानियों पर टेलीविजन धारावाहिक भी बन चुके हैं.‘पथेर पांचाली (सड़क का गीत)’ जैसी सदाबहार फिल्मों के जरिए भारतीय सिनेमा को एक नई राह दिखाने वाले रे की जयंती के मौके पर कोलकाता में कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. तमाम स्थानीय टीवी चैनलों ने रे को श्रद्धांजलि के तौर पर उनकी फिल्मों का प्रसारण किया. कुछ चैनलों ने इस मौके पर विशेष कार्यक्रमों का भी प्रसारण किया.संदीप कहते हैं कि ‘गोरोस्थाने सावधान’ के बाद वे अपने पिता के विज्ञान उपन्यास प्रोफेसर शोंकू के अभियान पर भी एक फिल्म का निर्देशन करना चाहते हैं. अगले दो साल में ऐसा करने की योजना है. रे ने अपनी पहली तीन फिल्मों- पथेर पांचाली, अपराजिता और अपूर संसार के जरिए बांग्ला सिनेमा में संभावनाओं की नई राह खोल दी थी. उसके बाद उन्होंने ‘देवी’ और ‘जलसाघर’ बनाई थी. वर्ष 1977 में प्रेमचंद की कहानी पर बनी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के जरिए भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा के दर्शकों से उनका परिचय हुआ. अपनी हर फिल्म से रे नई ऊंचाईयां छूते रहे. वर्ष 1992 में उनको लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया. तब तक रे की फिल्में फिल्म प्रशिक्षण स्कूलों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुकी थी. नए निर्देशक भी उनसे प्रेरणा लेते थे. ऐसे निर्देशकों में कुमार साहनी, मणि कौल, अदूर गोपालाकृष्णन और श्याम बेनेगल शामिल हैं. रे को भारतरत्न के अलावा फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान से भी सम्मानित किया गया.बांगाला सिनेमा में अब भी सत्यजित रे का कोई सानी नहीं है. उन्होंने अपनी फिल्मों में बंगाल के ग्रामीण और शहरी जीवन का यथार्थ चित्रण किया था. रे के पुत्र संदीप कहते हैं कि ‘पिता जी की बाकी कहानियों और उपन्यासों को सिनेमा के परदे पर उतारना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.’ उन्होंने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया है.प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-3736676611599159382010-05-08T17:07:00.000+05:302010-05-08T17:08:07.841+05:30ऐसे सिखाई नेता को वक्त की पाबंदी !वक्त की पाबंदी और अनुशासन सिखाने का शायद यह भी एक तरीका है! नगरपालिका चुनाव के लिए परचा दाखिल करने के लिए एक उम्मीदवार जब सब-डिवीज़नल अफसर (एसडीओ) के कार्यालय में तय समय से देर से पहुंचा तो वहां पहले से इंतजार कर रहे पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने अपने उस नेता की ही धुनाई कर दी. यह दिलचस्प घटना पश्चिम बंगाल में नदिया जिले के कल्याणी में हुई. हालांकि मार खाने और कपड़े फड़वाने के बाद उस नेता ने अपना परचा दाखिल कर दिया. लेकिन यह सबक उनको आगे चुनाव प्रचार के दौरान भी शायद नहीं भूलेगा. बंगाल में 81 नगरपालिकाओं के लिए 30 मई को चुनाव होने हैं. <br />पुलिस के एक अधिकारी ने बताया कि तृणमूल कांग्रेस की स्थानीय शाखा के अध्यक्ष पी.के.सूर को नगरपालिका चुनाव के लिए अरना परचा दाखिल करना था. तय समय से पहले ही पार्टी के एक हजार से ज्यादा समर्थक अपने नेता की अगवानी के लिए एसडीओ के कार्यालय के सामने जमा हो गए थे. लेकिन नेता तो ठहरे नेता. वे तय समय से कोई दो घंटे देर से अपने तीन साथियों के साथ वहां पहुंचे. इस दौरान कड़ी धूप में नारेबाजी करने वाले समर्थकों का पारा चढ़ गया था. नेताजी को एअरकंडीशंड गाड़ी से उतरते देख कर लोगों ने आव देखा न ताव, उन पर पिल पड़े. उसके तीन साथी भी अपने समर्थकों की मार से नहीं बच सके. वह तो कुछ देर तक चली पिटाई के बाद पुलिस और दूसरे लोगों ने बीच-बचाव कर मामला शांत किया. लेकिन तब तक नेताजी का चेहरा बदल गया था और कपड़े भी फट गए थे.<br />खैर, सूर ने बाद में एसडीओ कार्यालय में जाकर अपना परचा दाखिल कर दिया. सूर कहते हैं कि ‘पार्टी कार्यालय में नेताओं के साथ विचार-विमर्श करने की वजह से उनको कुछ देर हो गई.’ उनका आरोप है कि यह माकपा के लोगों की हरकत है. वे कहते हैं कि ‘माकपा के कुछ समर्थक हमारे कार्यकर्ताओं में शामिल हो गए थे. उन्होंने ही मुझ पर हमला किया.’<br />पुलिस ने इस मामले में एक मामला दर्ज कर लिया है. लेकिन फिलहाल किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. वैसे, परचा भरने से पहले ही मिले इस सबक को नेताजी कम से कम चुनाव प्रचार के दौरान तो जरूर याद रखेंगे!प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6796818521843557003.post-54820398070688282192010-02-17T23:12:00.002+05:302010-02-17T23:13:54.587+05:30उनको सालता है जीत का गम!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9w6ERQrxmjTR4nLH5BvZlbyIQ5zz0K-AwVgbb2wsXvyj3en__9WX07hr4FMZit6oYySdCNGYKsN1Ed7i1wS6yxIJGlp_3baB8TFfJffF-TgicuuXjGYnJCFI4N_GDmB-wodzktYO5MG6I/s1600-h/SIBAPADA+1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 130px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9w6ERQrxmjTR4nLH5BvZlbyIQ5zz0K-AwVgbb2wsXvyj3en__9WX07hr4FMZit6oYySdCNGYKsN1Ed7i1wS6yxIJGlp_3baB8TFfJffF-TgicuuXjGYnJCFI4N_GDmB-wodzktYO5MG6I/s200/SIBAPADA+1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5439269510006021762" /></a><br />गम और खुशी, यह दो शब्द क्रमशः हार और जीत के साथ जुड़े हैं। लेकिन क्या किसी को अपनी जीत का गम भी हो सकता है? जी हां, ऐसा भी होता है जब किसी को अपनी जीत का गम कोई 38 साल बाद भी साल रहा हो। ऐसे ही एक सज्जन का नाम है शिवपद भट्टाचार्य । पश्चिम बंगाल के तत्कालीन 24-परगना जिले में बरानगर के रहने वाले 74 वर्षीय भट्टाचार्य को वर्ष 1972 के विधानसभा चुनावों में अपनी जीत आज भी सालती है। वजह---उन्होंने उस चुनाव में भाकपा उम्मीदवार के तौर पर बरानगर विधानसभा से सीट पर माकपा नेता ज्योति बसु को हराया था। बसु इससे पहले वर्ष 1952 से उस सीट से लगातार छह बार चुनाव जीत चुके थे. लेकिन 1972 में वे वहां भट्टाचार्य से हार गए थे। दिलचस्प तथ्य यह है कि शिवपद ने वर्ष 1957 और 1962 के विधानसभा चुनावों में उसी बरानगर सीट पर बसु के समर्थन में चुनाव प्रचार किया था। लेकिन अब बसु के निधन के बाद भट्टाचार्य अपनी उस जीत से खुश नहीं हैं। उनको अपनी जीत का गम लगातार साल रहा है।<br />शिवपद कहते हैं कि ज्योति बसु हमारे नेता थे.अब लगता है कि अगर मैं उनके खिलाफ चुनाव मैदान में नहीं उतरा होता तो बेहतर होता। वे बताते हैं कि बसु बालीगंज में रहते थे और बरानर में चुनाव के दौरान अपनी कार से यहां आते थे। मुझे बरानगर की जिम्मेवारी मिली थी। बसु हमेशा यहां से भारी अंतर के साथ जीतते थे। अतीत के पन्ने पलटते हुए भट्टाचार्य बताते हैं कि 1957 में बरानगर में बसु का मुकाबला कांग्रेस के कानाईलाल ढोले से था। बसु ने मुझसे पूछा कि क्या होगा? मैंने कहा कि आप कम से कम 10 हजार वोटों के अंतर से जीतेंगे और वे जीत गए।<br />1972 में हार का मुंह देखने के बाद बसु ने अपना चुनाव क्षेत्र बदल लिया और सातगछिया चले गए। 1977 से 1996 तक वे वहां से लगातार जीतते रहे। शिवपद बताते हैं कि 1972 के विधानसभा चुनावों के बाद बसु के साथ उनकी कभी बातचीत नहीं हुई। वे कहते हैं कि ‘मैंने उनके साथ कई कार्यक्रमों में शिरकत की। वे मेरी ओर देख कर मुस्करा देते थे। लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं होती थी। <br />शिवपद फिलहाल भाकपा की राज्य समिति के सदस्य हैं। वे कहते हैं कि बसु की नीतियां मौजूदा मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की नीतियों से बेहतर थीं। भट्टाचार्य मानते हैं कि बंगाल में वामपंथी आंदोलन अब गलत राह पर चल रहा है। वे कहते हैं कि राज्य सरकार अब जमीन के अधिग्रहण, माओवादियों पर पाबंदी और केंद्र की कांग्रेस सरकार का सहारा लेकर पूंजीवादी नीतियों को बढ़ावा दे रही है।<br />शिवपद कहते हैं कि ज्योति बसु कामकाजी तबके के असली नेता थे. वे पहले ऐसे नेता थे जिसने संसदीय लोकतंत्र और वामपंथ के बीच बेहतर तालमेल बनाया था। बसु के राजनीति से संन्यास लेने के बाद ही वामपंथियों ने आम लोगों को समर्थन खो दिया।प्रभाकर मणि तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.com0