Saturday, May 30, 2009

भद्रलोक का सांप्रदायिक चेहरा

उस दिन दफ्तर से लौटते हुए पार्क स्ट्रीट स्टेशन पर मेट्रो के उस डिब्बे का गेट खुलते ही अचानक शोर सुनाई पड़ा। देखा तो एक हिंदीभाषी युवक को कई लोग मिल कर बेतरह डांट रहे थे। भीड़ की वजह से वह दरवाजे से सट कर खड़ा था। उसके चलते किसी यात्री को घुसने में मामूली दिक्कत हुई थी। वह युवक बार-बार सफाई दे रहा था कि इतनी भीड़ में वह कहां खिसके। लेकिन लोग थे कि मान ही नहीं रहे थे। उस दिन मेट्रो के उस डिब्बे में मुझे बंगाल के पढ़े-लिखे समाज का सांप्रदायिक चेहरा नजर आया। मुझे महसूस हुआ कि यहां के लोग भी शिवसेना वालों से कम नहीं हैं।
इस भीड़ और लोगों की बातों का जिक्र करने से पहले मेट्रो का भूगोल समझना जरूरी है। दमदम से टालीगंज के बीच पार्क स्ट्रीट ही अकेला ऐसा स्टेशन है जहां ट्रेन के दरवाजे बाईं ओर खुलते हैं। हर डिब्बे के दाईं ओर खुलने की वजह से पार्क स्ट्रीट पहुंचने तक मेट्रो के खासकर सामने वाले दोनों डिब्बे ठसाठस भर जाते हैं। पार्क स्ट्रीट स्टेशन पर चढ़ने वाले लोग जानबूझ कर देर से चढ़ते हैं ताकि टालीगंज में पहुंचने पर सबसे पहले बाहर निकल सकें। अंतिम स्टेशन टालीगंज में जमीन के ऊपर निकलने वाली मेट्रो ट्रेन के दरवाजे बाईं ओर ही खुलते हैं। बीते करीब दस सालों से रोज यही देख रहा हूं।
उस दिन जिस युवक को चढ़ने में परेशानी हुई वह इकहरी काया का कोई साफ्टवेयर इंजीनियर था जो बाकी यात्रियों की तरह ही चालाकी से दरवाजा बंद होने के ठीक पहले चढ़ने का प्रयास कर रहा था। उस हिंदीभाषी युवक की इसमें कोई गलती नहीं थी। लेकिन अचानक एक सज्जन ने उसे बेतरह डांटना शुरू किया। वह युवक किसी बैंक में काम करता था और एक सप्ताह पहले ही उसका तबादला कोलकाता हुआ था। उसने हिंदी में सफाई दी कि भीड़ ज्यादा है, मैं कहां खिसकता। उसे हिंदी में बोलते देख कर बाकी यात्रियों की तो मानो बांछें खिल गईं। कोई कहने लगा कि लालू प्रसाद के गांव से आया है, तो कोई कह रहा था कि बांग्ला में बोलो। वह बेचारा बार-बार कह रहा था कि मैंने कोई गलती ही नहीं की तो आप लोग इस तरह बात क्यों कर रहे हैं। लेकिन लोग उस पर चढ़े जा रहे थे। खरबजे को देख कर खरबूजे के रंग बदलने की कहावत को चिरतार्थ करते हुए वह पिद्दी-सा युवक, जिसको मामूली परेशानी हुई थी, भी शेर की तरह दहाड़ने लगा। साले लालू प्रसाद के गांव से पहली बार बंगाल में चले आए हैं। उसके एक साथी ने आवाज दी कि मारो साले को। पहली बार मेट्रो में चढ़ा है। लालू प्रसाद से टिकट ले कर आया है। शायद उनलोगों को यह तथ्य भूल गया था कि रेल मंत्री होने के नाते मेट्रो रेल भी लालू प्रसाद के ही अधीन है। इसे वाममोर्चा सरकार ने नहीं बनवाया है। कई लोग उससे माफी मांगने को कहने लगे। उसने कहा कि भाई साहब मैंने कोई गलती ही नहीं की तो माफी क्यों मांगूं।
इसबीच, आगे के स्टेशनों पर जितने यात्री चढ़े, सब अपने-अपने तरीके से उस युवक को धमकाने लगे। किसी ने उसका परिचय पूछा। उसने अपना परिचय पत्र थमाया तो उस बुजुर्ग सज्जन ने कहा कि भाई यह सीबीआई के निदेशक हैं। इस पर हंसी का फव्वारा छूट पड़ा। तभी अचानक एक युवक ने कहा कि अरे बिहार से आकर यहां दादागिरी करते हो। वह युवक बोला-भाई साहब आप पचास लोग मुझ अकेले से लड़ रहे हैं और मुझ पर दादागिरी का आरोप लगा रहे हैं।
मैं वहां चुपचाप खड़ा भद्रलोक कहे जाने वाले बंगाली समाज का यह सांप्रदायिक चेहरा देखता रहा। अखबार की नौकरी करने और उससे भी ज्यादा बांग्ला अच्छी तरह बोलने-समझने की वजह से मुझे बचपन के सिवा कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा है। बचपन में रेलवे कालोनी के जिस क्लब में फुटबाल खेलता था वहां दो भाई अक्सर बिहारी और छातू (सत्तू) कह कर चिढ़ाते थे। तब बिहार की पहचान लालू प्रसाद से नहीं जुड़ी थी। बाद में एक दिन उनकी ऐसी पिटाई की कि वे दोनों अब भी मिलने पर सम्मान देते हैं। लेकिन यहां तो चित्त भी मेरी पट भी मेरी की तर्ज पर लोग उसे ऐसे डांट रहे थे मानो उसने किसी का कत्ल कर दिया हो या फिर बांग्ला नहीं बोलना ही उसका सबसे बड़ा अपराध हो। वैसे, कोलकाता के बांग्ला अखबारों में इस भद्रसमाज का यह सांप्रदायिक चेहरा अक्सर नजर आता है। चार डकैत पकड़े गए, उनमें से तीन बिहारी या फिर बस हादसे में दो बंगाली समेत पांच मरे-जैसे शीर्षक इन अखबारों में नियमित मिल जाते हैं। वाममोर्चा सरकार और माकपा का अनधिकृत मुखपत्र कहे जाने वाले एक अखबार और उसके संपादक का हिंदीद्वेष तो जगजाहिर है। उन्होंने ही कोलकाता की दुकानों पर बांग्ला में साइनबोर्ड लिखने का आंदोलन चलाया था। अपनी भाषा से प्रेम करना तो ठीक है, लेकिन इसके लिए दूसरी भाषा से नफरत करने की कोई तुक समझ में नहीं आती। बांग्ला अखबारों में चढ़े सांप्रदायिकता का गाढ़ा रंग किसी से छिपा नहीं है। अब बंगाल का यह सांप्रयादिक चेहरा खुल कर सामने आने लगा है। पढ़े-लिखे तबके को लगता है कि बाहरी लोगों के आने से उनकी रोजी-रोटी छिन रही हैं। उनको नौकरियां नहीं मिल रही हैं। इसका असर उनके स्वभाव में झलक रहा है। सांप्रदायाकिता या हिंदीभाषियों के विरोध की परंपरा तो यहां पहले भी थी, लेकिन अब यह उग्र होने लगी है।
दस वर्षों से घर से दफ्तर के बीच रोजाना मेट्रो के सफर में पार्क स्ट्रीट स्टेशन पर चालाक यात्रियों की इस रेलमपेल के चलते कहासुनी तो अक्सर होती रहती है। लेकिन इससे पहले कभी इसका रूप इतना सांप्रदायिक नहीं था। शायद इसकी वजह सिर्फ यही थी कि बांग्लाभाषी यात्रियों की नजरों में घोर अपराध करने वाला वह युवक हिंदीभाषी था।
ट्रेन अब अपने अंतिम स्टेशन टालीगंज तक पहुंचने ही वाली थी। वह युवक तो चुप ही था, लेकिन फिकरे कसने वाले चुप नहीं हुए थे। एक ने उसके साहस की भी दाद दी कि मानना होगा कि बांग्ला नहीं जानने के बावजूद वह अकेले सबसे लड़ता रहा और हार नहीं मानी। एक अन्य यात्री ने कहा कि बंगाल था बच्चू। यहां के लोग सभ्य हैं। इसलिए तुम आज बच गए। कोई और राज्य होता तो धुनाई हो जाती। मैं आश्चर्य से उस यात्री और बंगाल का यह सभ्य चेहरा देखते हुए मेट्रो से उतर कर घर की ओर बढ़ने लगा।

2 comments:

  1. यह घटना उन लोगों के शेष भारत से कटे रहने और उससे उत्पन्न हताशा की प्रतीक लगती है। ऐसे लोग एक बेबुनियाद आत्मश्रेष्ठता के भाव में लिप्त तो हैं ही शायद इस तथ्य को भी भूल जाते हैं कि देश के किसी अन्य शहर में ऐसा ही उनके साथ भी हो सकता है। अगर वे इसी स्थिति में फंसे तो तब उनकी दलीलों और व्यथागान को सुनना दिलचस्प रहेगा। अपनी सार्थक और विचारोत्तेजक पोस्ट के साथ आपने ब्लॉग की बहुत उम्दा शुरूआत की है। बधाई और शुभकामनाएं।

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  2. भद्रजनों का यदि ये हाल है तो अभद्रजनों के बीच बिहारी, बंगाली, मदरासी, नेपाली, दलित, मुस्लिम, महिला, काला , लंगड़ा, ग़रीब क्या-क्या नहीं झेलते होंगे! श्रेष्ठता का दंभ रखना ग़लत नहीं है लेकिन याद रखना ज़रूरी है कि श्रेष्ठतावाद और फ़ासीवाद का फ़ासला बड़ा महीन होता है।...ब्लॉगजगत में पदार्पण पर बधाई और शुभकामनाएँ.

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