क्या सचमुच आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम आजाद हैं? क्या यही है असली आजादी, जहां हम अपनी मर्जी से न तो जी सकते हैं और न ही कुछ कर सकते हैं? भारत के उपद्रवग्रस्त पूर्वोत्तर इलाके में काम करने के दौरान अक्सर ऐसे सवालों से दो-चार होना पड़ा है। यह सवाल पूछने वाले वहां रह कर कामधंधा करने वाले हिंदीभाषी लोग हैं जिनको इलाके में ‘हिंदुस्तानी’ कहा जाता है। पूछने वाले चेहरे बदलते रहे हैं, लेकिन सवाल यही रहता है। जिस क्षेत्र में आजादी के 60 वर्षों बाद भी देश के बाकी हिस्से के लोगों को ‘हिंदुस्तानी’ कहा जाता हो और जहां कोई दर्जन भर उग्रवादी संगठन आजादी के बाद से ही संप्रभुता की मांग करते आए हों, वहां आजादी के सही अर्थ पर सवाल उठना लाजिमी है।
देश के बाकी हिस्सों में जहां स्वाधीनता दिवस का मतलब झंडे फहराना और छुट्टी मनाना है, वहीं पूर्वोत्तर में 15 अगस्त व 26 जनवरी को मातम जैसा माहौल होता है। विभिन्न उग्रवादी संगठनों की ओर से की गई बंद की अपील के कारण। उस दिन अघोषित कर्फ्यू रहता है। आजादी का सवाल जहां सबसे ज्यादा सालता है वह राज्य है नगालैंड। दीमापुर रेलवे स्टेशन व एअरपोर्ट पर उतरते ही आप खुद को परदेशी महसूस करने लगेंगे। दीमापुर बाजार में दुकान चलाने वाले मुरारी अग्रवाल (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि ‘40 बरसों से यहां रहने के दौरान स्थानीय लोगों के व्यवहार से हमने कभी महसूस ही नहीं किया कि हम भारत के ही एक हिस्से में रहते हैं। हर बात पर स्थानीय लोगों की धौंस सह कर काम करना पड़ता है। विभिन्न संगठन भी गाहे-बगाहे टैक्स के नाम पर मोटी रकम वसूलते रहते हैं। क्या यही असली आजादी है ?’ वे कहते हैं कि ‘यहां तो बाहरी लोगों से पुलिस भी उग्रवादियों की तरह ही बर्ताव करती है। बीते खासकर दो दशकों के दौरान जुल्म बढ़ने के कारण कई व्यापारियों ने अपना कारोबार समेट लिया है। जो हैं वे भी सहमे हैं। दीमापुर से नगालैंड की राजधानी कोहिमा की तरफ बढ़ते हुए भी नगा व हिंदुस्तानियों में फर्क साफ नजर आता है।
नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नगालैंड (एनएससीएन) के खापलांग व इसाक-मुइवा धड़े एक ओर तो केंद्र से बातचीत कर रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर वे यहां हिंदुस्तानियों को कामधेनु समझ कर मनमानी करने से भी बाज नहीं आते।
पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले असम के उग्रवादप्रभावित डिब्रूगढ़ व तिनसुकिया इलाकों में हाल के वर्षों में खासकर बिहारी लोगों के साथ हुई मारकाट को कौन भूल सकता है? उन घटनाओं में अपने परिवार को दो सदस्यों को खोने वाले रामदरश मिश्र बताते हैं कि ‘रोजी-रोटी की मजबूरी ने हमें यहां रोक रखा है। यहां अपनापन तो कभी मिला ही नहीं। कभी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) के लोग धमकाते हैं तो कभी स्थानीय राजनीतिक दलों के नेता।’ वे कहते हैं कि ‘हमारे लिए 15 अगस्त का मतलब दुकान बंद कर घर में बैठना है। दुकान खोल कर मौत को दावत देने से क्या फायदा? आखिर पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर तो नहीं किया जा सकता न ? हम अपने घर में ही बेगाने बन कर रह गए हैं।’
मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश व मेघालय के सुदूर इलाकों में रहने वाले इन बाहरी लोगों की स्थिति भी कमोबेश एक जैसी है। वहां किसी की हिम्मत नहीं है कि 15 अगस्त या 26 जनवरी को अपनी दुकान या घर पर तिरंगा लहरा ले। बरसों से रहकर स्थानीय संस्कृति में घुल-मिल जाने के बावजूद स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। उग्रवादी संगठन स्वाधीनता दिवस का स्वागत बम धमाकों से करते हैं। इस साल भी उल्फा अगस्त के पहले सप्ताह से ही कई धमाके कर चुका है। केंद्र से उसकी बातचीत भी संप्रभुता के सवाल पर ठप हो चुकी है।
इलाके को करीब से देखने व सुदूर इलाकों में उग्रवाद की रिपोर्टिंग के दौरान खासकर हिंदीभाषियों के ऊपर लिखे सवालों का इतनी बार सामना करना पड़ा है कि अब स्वाधीनता दिवस के मौके पर मन में सवाल उठने लगता है कि क्या आजादी के इतने लंबे दौर के बावजूद पूर्वोत्तर भारत में सचमुच इसकी हल्की-सी किरण भी पहुंच सकी है ?
Sunday, May 31, 2009
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aapne saarthak sawaal uthaaye hain...sachmuch hee in vishayon par sochne kee jaroorat hai....
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