Sunday, May 24, 2009

किरीबुरू में एक शाम


प्रभाकर मणि तिवारी
जीवन में अब तक अक्सर वही करना पड़ा है जो नहीं चाहता था। मसलन पत्रकार नहीं बनना चाहता था, लेकिन बन गया। कोलकाता की भीड़-भाड़ और गर्मी के चलते कभी इस महानगर में रहना-बसना नहीं चाहता था, लेकिन बसना पड़ा। यह सूची काफी लंबी है। हाल में इस सूची में किरीबुरू की यात्रा भी शामिल हो गई। यूं तो मैं यात्राएं काफी सुनियोजित तरीके से करता हूं। लेकिन यह यात्रा ऐसी रही जिसमें कुछ करने का न तो मेरे पास कोई मौका था और न ही उसका समय। दरअसल, मुझे जाना कहीं और था। दफ्तर से दो दिनों की छुट्टी भी ले ली थी। लेकिन अंतिम क्षणों में वह कार्यक्रम रद्द हो गया। उसी समय एक परिचित, जो भारतीय इस्पात प्राधिकरण(सेल) में बड़े अधिकारी हैं, का फोन आया—लौह अयस्क की खदानें देखनी है तो सुबह मेरे साथ चलिए। वे एक सेमिनार के सिलसिले में वहां जा रहे थे। बस मैं निकल पड़ा। सुबह-सबेरे हावड़ा से जनशताब्दी में बैठ कर बड़बिल की ओर। झारखंड की सीमा पर बड़बिल उड़ीसा के क्योंझर जिले का हिस्सा है। कोलकाता से एक ही ट्रेन वहां तक जाती है। जनशताब्दी एक्सप्रेस। टाटानगर और चाईबासा होकर। लगभग चार सौ किमी की यह दूरी जाते समय कोई सात घंटे में पूरी होती है और वापसी में आठ घंटे या उससे ज्यादा में। हां, कोलकाता से आने वाली जनशताब्दी यहां से आगे नहीं जाती। आगे रेल की पटरियां नहीं हैं। वह ट्रेन उसी दिन कोलकाता लौट जाती है।
खैर, दोपहर बाद एक बजे बड़बिल पहुंचते हैं। वहां छोटे-से कस्बानुमा प्लेटफार्म के बाहर चमचमाती बोलेरो और स्कार्पियो गाड़ियों की अंतहीन कतारें देख कर आंखे फटी रह जाती हैं। यह चमचमाती गाड़ियां न तो इस कस्बे की प्रकृति से मेल खाती हैं और न ही सड़कों से। सड़कों को सड़क कहना शायद ठीक नहीं होगा। सड़कें हैं कहां ? वह तो लाल मिट्टी की पगडंडियां हैं। लौह अयस्क से लदे विशालकाय ट्रकों और डंपरों की आवाजाही से उनमें इतने बड़े-बड़े गड्ढे बन गए हैं कि उनका ब्योरा देना मुश्किल है। पूरे शहर की दरो-दीवारें लाल रंग में रंगी हैं। हवा में मिल कर उड़ने वाली लाल मिट्टी की लाली शहर की हर इमारत और वाहनों पर नजर आती है। लेकिन इलाके में सरकारी और निजी कंपनियों की खदानों के चलते यहां गाड़ियां भी लगातार बढ़ रही हैं और होटल भी। होटलों में भी कमरे मिलना बहुत मुश्किल है। अगर पहले से बुकिंग नहीं हो तो। स्टेशन से होटल की ओर बढ़ते हुए शहर और हवा में छाई लालिमा साफ नजर आती है। होटल में दोपहर के भोजन और कुछ देर तक आराम करने के बाद खदान देखने किरीबुरू जाने का मन बनता है। किरीबुरू---यह नाम सुन कर अजीब-सा लगता है। पहली बार भी सुन कर लगा था।

बड़बिल से किरीबुरू तक का रास्ता शरीर का हर जोड़ तोड़ने वाला है। 20 किलोमीटर का यह सफर टूटी-फूटी पहाड़ी सड़क पर कोई घंटे भर में पूरा होता है। बोलानी खदान से ऊपर बढ़ते हुए हम किरीबुरू पहुंचते हैं। रास्ते में पहाड़ियों पर बिखरी लौह अयस्क की खदानों का आधा हिस्सा झारखंड में है और आधा उड़ीसा में। किरीबुरू और उससे सटा मेघाहातुबुरू समुद्रतल से एक हजार मीटर की ऊंचाई पर है। झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले के तहत पड़ने वाला यह कस्बा पहाड़ी की चोटी पर प्रकृति की ओर से बनाए गए समतल हिस्से पर बसा है। वहां बाकायदा स्टेडियम और क्लब है। एक छोटी झील भी है। यह खदानें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भारतीय इस्पात प्राधिकरण की हैं। सारंडा की इस पहाड़ी के एक किनारे बने मेघाहातुबुरू गेस्ट हाउस की बनावट और बसावट दोनों बेहतरीन है। इसी गेस्टहाउस के ही एक हिस्से में सनसेट प्वायंट है जहां की खूबसूरती के चर्चे मशहूर हैं। हम शाम को कोई पांच बजे उस गेस्ट हाउस में पहुंचे थे। मैनेजर और स्थानीय लोगों ने कहा कि जब आए हैं तो सूर्यास्त का नजारा देख कर ही जाइए। स्थानीय लोग बताते हैं कि सारंडा घाटी में छोटी-बड़ी कोई सात सौ पहाड़ियां हैं और इस सनसेट प्वायंट से उनमें से ज्यादातर नजर आती हैं।
वहां कुछ कुर्सियां लगी थीं। महिला समिति की सदस्याएं, जो खदान के अधिकारियों की पत्नियां थी, वहां बैठ कर कोई मीटिंग करने में जुटी थी। दो घंटे पहले भारी बरसात के चलते मौसम काफी सुहावना हो गया था। सनसेट प्वायंट का नजारा खूबसूरती में कौसानी और ऊटी की याद दिलाता है। सूरज के डूबने का यह नजारा अद्भुत है। पूरा आसमान लाली से ढक जाता है और सूरज देखते ही देखते आंखों से ओझल हो जाता है। सूर्यास्त को निहारते हुए ऐसा लगता है मानों कोई किसी विशाल गेंद को पानी से भरी बाल्टी में धीरे-धीरे डुबो रहा हो। वहां से लौट कर गेस्ट हाउस के लान में चाय पीते हुए मैनेजर, जो बीते 32 वर्षों से यहीं हैं, बता रहे थे कि किरीबुरू में इसी सीजन में आना चाहिए, जब मानसून दस्तक दे रहा हो। वे कहते हैं कि पहले यहां दो ही सीजन होते थे---बरसात और जाड़ा। स्कूलों में भी गर्मी नहीं बल्कि बरसात की छुट्टियां होती थीं। लेकिन वैश्विक तापमान में वृद्धि ने इस बेहद खूबसूरत कस्बाई शहर को भी नहीं बख्शा है। अब यहां गर्मी भी पड़ने लगी है। वे बताते हैं कि पहले न तो केबल टीवी था और न ही मोबाइल। अब एकाध कंपनियों के टावर लग जाने की वजह से मोबाइल काम करने लगा है। डिश टीवी भी पहुंच चुका है।
रात गहराती देख कर लौटने की तैयारी होती है। और हम निकल पड़ते हैं बड़बिल की ओर। उबड़-खाबड़ कच्ची सडक बरसात के चलते पानी और फिसलन से भर गई है। हमारी बोलेरो इस पर जबरदस्त हिचकोले खाते हुए दूर नीचे नजर आने वाली बत्तियों की ओर रेंग रही है। हर पहाड़ी मोड़ के साथ किरीबुरू पीछे छूटता जा रहा है, लेकिन किरीबुरू की यह शाम शायद जीवन भर याद रहेगी।

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