Sunday, June 21, 2009

सरकारी उपेक्षा और पिछड़ेपन की कोख से जन्मा लालगढ़


पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर के लालगढ़ और आसपास के गांवों में माओवाद की समस्या कोई एक दिन में पैदा नहीं हुई। दरअसल, लालगढ़ सरकारी उपेक्षा,गरीबी और पिछड़ेपन की कोख से पैदा हुआ है। वाममोर्चा सरकार की अनदेखी के चलते आदिवासियों में सरकार के खिलाफ नाराजगी तो लंबे अरसे से पनप रही थी। इसी नाराजगी का फायदा उठा कर माओवादियों ने ग्रामीणों की सहानुभूति हासिल करते हुए धीरे-धीरे इलाके में अपनी गहरी पैठ बना ली है। लालगढ़ गरीबों की हितैषी होने का दावा करने वाली वाममोर्चा सरकार की नाकामी की सबसे बड़ी मिसाल के तौर पर उभरा है। ध्यान रहे कि लालगढ़ से कुछ दूरी पर ही वह आमलासोल गांव है जहां कुछ साल पहले भुखमरी से आदिवासियों की मौतों की खबरें आई थीं। सरकार ने उसके बाद भी इलाके में विकास का काम शुरू करने की बजाय उन मौतों को भूख नहीं, बल्कि बीमारी से होने वाली मौतें करार दे कर मामले को रफा-दफा कर दिया।
वैसे, लालगढ़ में सरकार फेल नहीं हुई है। सरकार तो वहां थी ही नहीं। जिले के बीनपुर-दो ब्लाक के कई गांवों को मिला कर बसे लालगढ़ में नक्सली बरसों से हथियार और गोला-बारूद जुटा रहे थे। नक्सलियों ने पिछड़ेपन और बेरोजगारी से आदिवासी युवकों में उपजी हताशा का फायदा उठाते हुए धीरे-धीरे उनको भी साथ कर लिया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि लालगढ़ लंबे अरसे से बारूद के ढेर पर बैठा था।
बीते 30-32 वर्षों के शासनकाल में वाममोर्चा ने बाकी मूलभूत सुविधाएं जुटाना तो दूर, इलाके में गांवों को एक-दूसरे जोड़ने के लिए सड़क तक नहीं बनवाई। बेलपहाड़ी और आसपास के गांवों में नरेगा के तहत आदिवासियों को रोजगार तो मिले तो लेकिन उससे हफ्ते भर का खर्च निकलना भी मुश्किल है। बेलपाहड़ी के ज्ञानेश्वर मुर्मू को तीन साल पहले नरेगा के तहत जाब कार्ड मिला था। बरसों से उनका आवोदन ग्राम पंचायत के पास फाइलों में दबा था। बीते महीने पहली बार उनको सड़क पर मिट्टी डालने का काम मिला। लेकिन पैसा अब तक नहीं मिला है। नरेगा के तहत मिली रकम भी वापस चली गई है। अब इलाके में कोई नहीं जानता कि काम दोबारा शुरू भी होगा या नहीं।
ज्ञानेश्वर, उसके बेटे और बहू को चार दिन काम करने के एवज में एक हजार 70 रुपए मिले थे। अब अगर आगे काम नहीं मिला तो उनको साल के बाकी 361 दिन इसी रकम में गुजर-बसर करना होगा। ज्ञानेश्वर कहते हैं कि इस योजना के तहत सौ दिन काम मिलने पर हमारा जीवन आसान हो जाता। लेकिन यहां न काम है और न ही उसकी कोई उम्मीद।
इलाके में माओवादियों का असर बढ़ने की एक और वजह है। वहां एक ओर तो आदिवासी बेरोजगारी की हताशा से जूझते और भूख से मरते रहे और दूसरी ओर माकपा के नेताओं और काडरों की संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रही। अयोध्या पहाड़ी से सटे एक गांव में रहने वाले दिनेश महतो कहते हैं कि आखिर पार्टी से गुजर-बसर के लिए मामूली रकम पाने वाले माकपाई इतनी जल्दी करोड़पति कैसे बन गए। जाहिर है उन्होंने इलाके में विकास परियोजनाओं के नाम पर आने वाली पूरी रकम डकार ली है। माकपा काडरों में लगातार बढ़ते इस भ्रष्टाचार ने माओवादियों को अपने पांव जमाने में सहायता दी। बारूद के ढेर पर बैठा लालगढ़ उबल तो बरसों से रहा था, इसे पलीता दिखाया पुलिस के अत्याचारों ने।
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को इलाके के विकास और पिछड़ेपन की हकीकत मालूम है। लेकिन शायद पार्टी काडरों पर नियंत्रण नहीं होने या किसी नामालूम वजह से वे इसकी अनदेखी करते रहे। अब पानी सिर से ऊपर गुजरने के बाद वे बीते दो-तीन दिनों दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदंबरम को यह समझाने का प्रयास करते रहे कि नक्सलवाद की समस्या महज कानून व व्यवस्था की नहीं बल्कि देशव्यापी समस्या है और केंद्र व राज्य सरकारों को साझा तौर पर इसका मुकाबला करना चाहिए।
लालगढ़ की समस्या न तो एक दिन में पैदा हुई है और न ही इतनी जल्दी इसके सुलझने के आसार हैं। इलाके के लोगों में असंतोष और हताशा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि परिस्थिति सुधरने में लंबा वक्त लगेगा। लेकिन इसबीच, इस मामले में राजनीतिक खेल भी शुरू हो गया है। माकपा के नेता लगातार तृणमूल कांग्रेस पर माओवादियों की सहायता का आरोप लगा रहे हैं। दूसरी ओर, ममता ने कहा है कि माओवादी माकपा की ही उपज हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर माकपा ने अपने आरोप वापस नहीं लिए तो पार्टी राज्य में आंदोलन छेड़ेंगी। ममता ने सवाल किया है कि आखिर सरकार ने अब तक माओवादियों पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई है और लालगढ़ अभियान शुरू करने में उसने इतनी देरी क्यों की?
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पुलिस और सुरक्षा बलों के अभियान का चाहे जो भी नतीजा हो, लालगढ़ के कई सवाल अब भी अनसुलझे हैं। इन सवालों का जवाब नहीं मिलने तक लालगढ़ और आसपास के इलाकों में पसरते जा रही इस समस्या का स्थाई समाधान तो मुश्किल ही है।

4 comments:

  1. भैया जी किसी भी वजह से हुए देश की सरकार के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह को यदि हम चाहे अभावों या के भुखमरी की बजह से जायज नहीं ठहरा सकते...यदि बंगाल मैं लोग सी पी एम से इतने ही दुखी हैं और इतना ही भ्रष्टाचार ये कर रहे हैं तो सत्ता दूसरों को क्यों नहीं सोपते....पर सत्य बात तो ये है कि एक बार जो कम्यूनिष्ट बन जाता है उसकी राष्ट्र और राष्ट्रीय सत्ता मैं कोई आस्था नहीं रह जाती है...निहायत ही गैर लोकतांत्रिक विचार है ये ...अब समय आ गया है कि इस विचार को त्याग दिया जाये....

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  2. इस घटना से सीपीएम की गुंडागर्दी पूरे देश के सामने आ गई है। जाहिर है लोग इनकी असलियत समझने लगे हैं।

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  3. दिल्‍ली में लंबे कुर्ते पहनकर अच्‍छी-अच्‍छी बातों से अब बेवकूफ नहीं बना पाएंगे सीपीएम के कामरेड।

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  4. प्रभाकर जी ये वामपंथियों का सेकुलर चेहरा है जिसे चिल्ला चिल्ला कर बोलते हैं, इन्हें देश व यहाँ की जनता से नहीं बल्कि विदेशों में बैठे अपने आकाओं की चिंता रहती है, यही इनका सेचुलिरिज्म है.

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