पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि राज्य में माकपा का पारंपरिक वोट बैंक कहे जाने वाले मुसलमान उससे दूर हुए हैं। माकपा के बड़े नेता भले सार्वजनिक तौर पर इस बात को कबूल नहीं करें, लेकिन हकीकत यह है कि जमीन अधिग्रहण के अलावा मुसलमानों से बढ़ इस दूरी ने भी चुनाव में वामपंथियों को लुटिया डुबोने में अहम भूमिका निभाई है। जिन इलाकों में मुसलमानों के वोट निर्णायक हैं, वहां वामपंथी उम्मीदवार बुरी तरह हारे हैं।
दरअसल, वामपंथियों से मुसलमानों की बढ़ती दूरी के संकेत तो बीते साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान ही मिलने लगे थे। लेकिन अपनी सांगठनिक मजबूती और अतिरिक्त आत्मविश्वास के चलते वामपंथियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। लोकसभा चुनावों से पहले राजनीतिक पंडितों ने मुसलमानों को दो वर्ग में बांटा था। जिलों में रहने वाले बंगाली मुसलमान और बांग्लादेश से आकर कोलकाता में बसे बिहारी मुसलमान। माकपा नेताओं का दावा था कि बिहारी मुसलमान पार्टी के साथ हैं। लेकिन नतीजों ने उनके इस दावे की पोल खोल दी।
नंदीग्राम में अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचारों ने उनको माकपा से दूर किया ही, रही-सही कसर सच्चर समिति की रिपोर्ट ने पूरी कर दी। इसके अलावा डेढ़ साल पहले हुए रिजवान-उर-रहमान कांड ने भी मुसलमानों को वाममोर्चा से दूर कर दिया। इस कांड में िस तरह कोलकाता के तत्कालीन पुलिस आयुक्त समेत कई आला अफसर रिजवान और उद्योगपति अशोक तोदी की पुत्री प्रियंका तोदी की शादी तुड़वाने में जुटे रहे, उससे गलत संदेश गया। माकपा के प्रदेश नेतृत्व ने बीते दो सालों से मुसलमानों में बढ़ते असंतोष व नाराजगी को खास तवज्जो नहीं दी। वे इसे विपक्ष की साजिश करार देते रहे। जमीन अधिग्रहण के सवाल पर अल्पसंख्यकों में पैदा होने वाली नाराजगी को कम करने में भी माकपाई नाकाम रहे। वे लोगों में पनपी असुरक्षा की भावना को कम नहीं कर सके। नतीजतन नंदीग्राम की नाराजगी धीरे-धीरे दूसरे जिलों में फैलती रही। माकपा के मंत्री अब्दुस सत्तार ने मुलमानों की नाराजगी कम करने की कुछ कोशिश जरूर की। लेकिन सच्चर समिति की रिपोर्ट ने माकपा की ताबूत पर कील ठोकने का काम किया।
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बाद में अल्पसंख्यकों के हित में कई योजनाएं शुरू करने का एलान किया और मदरसों के आधुनिकीकरण की दिशा में पहल की। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मुसलमान समझ गए कि सरकार चुनावों को ध्यान में रखते हुए ही ऐसा कर रही है। चुनाव नतीजों के बाद पार्टी में अब इस मुद्दे पर गहन विचार-विमर्श शुरू हो गया है कि सरकार व पार्टी से कहां चूक हुई है। मुसलमानों की नाराजगी के चलते ही कोलकाता उत्तर सीट पर मोहम्मद सलीम और हावड़ा में हन्नान मौला जैसे दिग्गज चुनाव हार गए।
माकपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हम संकेतों को समय रहते समझ नहीं सके। मुसलमानों ने विपक्ष को कम से कम 20 सीटें जीतने में सहायता की। राज्य की आबादी में 25 फीसद यानी एक चौथाई मुसलमान 42 में से 22 सीटों पर निर्णायक स्थिति में हैं। कानून मंत्री और माकपा की राज्य समिति के सदस्य अब्दुर रज्जाक मौला कहते हैं कि अबकी पूरे राज्य में मुसलिम वोट हमारे खिलाफ पड़े। माकपा के एक अल्पसंख्यक नेता कहते हैं कि बांग्ला और उर्दूभाषी मुसलमानों ने हमारे खिलाफ वोट डाले।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि तीसरे मोर्चे की वामपंथी पहल ने भी मुसलमानों को माकपा से दूर किया। मुसलमानों ने केंद्र में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए विपक्ष का जम कर समर्थन किया। अब माकपा के नेता मानते हैं कि जमीन अधिग्रहण के अलावा रोजगार के समान अवसरों की कमी ने भी मुसलमानों को नाराज किया। पर्यवेक्षक कहते हैं कि इससे पहले कभी राज्य के मुसलमानों ने किसी भी पार्टी को इस कदर समर्थन नहीं दिया था। मालदा व मुर्शिदाबाद जिलों के मुसलमान कांग्रेस को वोट देते थे, बाकी वामपंथियों को। लेकिन अबकी उनलोगों ने विपक्षी गठबंधन का समर्थ किया है। माकपा के प्रदेश नेता भी मानते हैं कि मुसलिम वोटरों के इस बदले रुझान का बंगाल की राजनीति पर दीर्घकालीन असर पड़ सकता है। यही वजह है कि पार्टी अब विधानसभा चुनावों से पहले एक बार फिर मुसलमानों को पटाने की कवायद में जुट गई है। लेकिन क्या इतनी जल्दी मुसलमान उसकी ओर लौटेंगे, लाख टके के इस सवाल के जवाब का इंतजार सबसे ज्यादा माकपा को ही है।
Friday, June 5, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ReplyDeleteमाकपा से दूर भये मुसलमान.. तो ?
इनको अलग पहचान देते रह कर, इन्हें मुख्यधारा के हाशिये पर क्यों रखते हो, भाई ?
अब तो रहम करो ।