कोलकाता, 27 मार्च। वामपंथियों का बंगाल अबकी लोकसभा चुनाव में दीवार लेखन के जरिए प्रचार के पारंपरिक तरीके की ओर लौट आया है। लाल बंगाल में ज्यादातर इमारतों की दीवारें राजनीतिक दलों के सतरंगी नारों से पट गई हैं। राज्य सरकार के एक कानून का सहारा लेकर चुनाव आयोग ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में इस पर पाबंदी लगाई थी। उस समय तो फिर भी कुछ दीवारें नारों से रंगी थी। लेकिन वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य में दीवार लेखन पर पूरी तरह पाबंदी रही थी। राज्य की साफ-सुथरी दीवारों को देख कर लगता ही नहीं था कि यहां चुनाव हो रहे हैं। तब तमाम राजनीतिक दलों ने आयोग के इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी। लेकिन आयोग ने राज्य सरकार के ही कानून का हवाला देकर उनका मुंह बंद कर दिया। यही वजह थी कि वर्ष 2006 में जीत कर सत्ता में आते ही बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने जो पहला काम किया वह था उस पुराने कानून में संशोधन का।
बंगाल में दीवार लेखन की कला बहुत पुरानी है। राज्य में हजारों लोग इस कला से जुड़े हैं। चुनाव हो या कोई राजनीतिक रैली, तमाम दल इन दीवारों का ही सहारा लेते हैं। खासकर चुनावों के दौरान तो यहां दीवारें सतरंगी हो जाती हैं। कहीं किसी पार्टी उम्मीदवार का नारा नजर आता है तो कहीं विपक्ष को चिढ़ाने वाले कार्टून। अबकी चुनाव विभाग ने सरकारी दीवारों पर प्रचार पर पाबंदी लगाई है। लेकिन माकपा और तृणमूल सरेआम इस निर्देश को ठेंगा दिखा रहे हैं। आयोग ने कहा है कि राजनीतिक दल मकान मालिकों से अनुमति लेकर ही उनके घरों की दीवारों पर नारे लिख सकते हैं। लेकिन यहां अनुमति कौन लेता है ? जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर चुनावों के एलान से बहुत पहले ही तमाम राजनीतिक दलों ने दीवारों पर कब्जा करने का अभियान चलाया था। और आज की तारीख में कोलकाता समेत पूरे राज्य में शायद ही कोई ऐसी निजी इमारत हो, जो नारों और वादों से नहीं रंगी हो।
वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों के दौरान दीवार लेख पर पाबंदी से आम लोगों ने राहत की सांस ली थी। आयोग ने तब वेस्ट बंगाल प्रिवेंशन आफ प्रापर्टी डिफेसमेंट एक्ट, 1976 के तहत यह पाबंदी लगाई थी। लेकिन आम लोगों के विरोध के बावजूद सरकार ने वर्ष 2007 में इस अधिनियम को रद्द कर दिया। आमतौर पर हर मुद्दे पर सरकार से दो-दो हाथ करने वाले विपक्ष ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी। उसके बाद दीवार लेखन को पिछले दरवाजे से अनुमति देने के लिए सरकार ने कोलकाता नगर निगम अधिनियम में संशोधन किया ताकि मकान मालिकों की सहमति से गैर-व्यावसाइक विज्ञापन लगाए जा सकें।
लेकिन यहां सरकार से एक चूक हो गई। उसने इन संशोधनों को प्रभावी बनाने के लिए गजट अधिसूचना नहीं जारी की। इसलिए बीते साल अक्तूबर में मुख्य चुनाव अधिकारी देवाशीष सेन ने कहा था कि अबकी इन चुनावों में भी दीवार लेखन पर पाबंदी जारी रहेगी। उसके बाद सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने जल्दबाजी में 27 नवंबर, 2008 को गजट अधिसूचना जारी कर दी, ताकि नगर निगम अधिनियम का लाभ उठाते हुए दीवारों पर प्रचार का काम हो सके। उसके बाद चुनाव विभाग को मजबूरन पाबंदी में ढील देनी पड़ी।
वैसे, मुख्य चुनाव अधिकारी देवाशीष सेन ने कहा है कि तमाम राजनीतिक दलों को मकान मालिकों से दीवार लेख की अनुमित लेनी होगी और चुनावों के बाद दीवारों पर अपने खर्चे से सफेदी करानी होगी। ऐसा नहीं करने पर सजा का प्रावधान है। लेकिन चुनावों के बाद राजनीतिक दल इन छोटी-मोटी बातों की परवाह नहीं करते। आयोग ने कहा है कि बिना अनुमति के दीवार पर प्रचार करने वालों के खिलाफ मकान मालिक आयोग में फोन और एसएमएस के जरिए शिकायत की जा सकती है। लेकिन कोई भी आम नागरिक पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहता।
बंगाल में चुनाव अभी दूर हैं। लेकिन अब तक तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, माकपा सांसद मोहम्मद सलीम, माकपा के ही रबीन देव और तृणमूल के सुदीप बंद्योपाध्याय जैसे दिग्गज नेताओं के खिलाफ अपने-अपने संसदीय क्षेत्र में मकान मालिकों की मर्जी के बिना ही दीवार लेखन के आरोप लग चुके हैं। चुनाव विभाग के एक अधिकारी कहते हैं कि सरकारी भवनों और बिना अनुमति के निजी मकानों पर दीवार लेखन के मामले में राजनीतिक दलों के खिलाफ अब तक पंद्रह शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं। सरकारी भवनों पर प्रचार कार्य पर पाबंदी है। चुनाव विभाग के सूत्रों के मुताबिक, दोषी साबित होने पर इन नेताओं को छह महीने तक जेल या 50 हजार रुपए जुर्माना हो सकता है। लेकिन दीवार लेखन में अगुवा रहे बंगाल में किसी कद्दावर नेता को सजा मिलने की कोई मिसाल नहीं मिलती। आयोग चाहे कुछ भी कहे, दीवार लेख का काम पूरे शबाब पर है।
इस मामले में तमाम राजनीतिक दलों में गजब की एकजुटता है। माकपा, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में इस बात पर आमराय है कि दीवार लेखन प्रचार का सबसे सस्ता और आसान साधान है। वे इसे अपना लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष की इस एकजुटता ने अबकी राज्य की तमाम दीवारें रंग दी है। यानी बंगाल कम से कम चुनाव प्रचार के मामले में फिर अपने पुराने रंग में लौट आया है।
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