Wednesday, June 10, 2009

माकपा का किला रहे नंदीग्राम में आंतक व सन्नाटे का राज

कोलकाता, 5 मई। तीन दशकों तक माकपा का सबसे मजबूत गढ़ रहे नंदीग्राम में लोकसभा चुनावों के पहले आतंक व खामोशी है। जमीन अधिग्रहण के सवाल पर हिंसा का पर्याय बन चुका यह कस्बा अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लंबे अरसे तक लाल परचम फहराने वाले नंदीग्राम के सोनाचूड़ा समेत विभिन्न इलाकों में अबकी कहीं एक लाल झंडा तक नजर नहीं आता। सही मायने में राज्य में यही सीट माकपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच साख व नाक का सवाल बन गई है। तमलुक संसदीय सीट के तहत पड़ने वाले इस इलाके से अबकी भी माकपा के विवादास्पद सांसद लक्ष्मण सेठ मैदान में हैं। उनका मुकाबला तृणमूल कांग्रेस के शुभेंदु अधिकारी से है। इस सीट पर दूसरे दौर में सात मई को मतदान होना है। यह राज्य की उन गिनी-चुनी सीटों में है जहां परिसीमन का कोई खास असर नहीं पड़ा है। बीते साल हुए पंचायत चुनावों और उसके बाद नंदीग्राम विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में लोगों ने तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था। अब सेठ के सामने सबसे बड़ी चुनौती वोटरों को दोबारा माकपा के खेमे में खींचने की है।
क्या सेठ इस चुनौती पर खरे उतरेंगे ? इस सवाल का जवाब शायद सेठ को भी पता नहीं है। सेठ को पता हो या नहीं, लेकिन हकीकत यह है कि उनके ही एक विवादस्पद फैसले के चलते नंदीग्राम में आंदोलन की चिंगारी भड़की थी जो आगे चल कर शोले के रूप में बदल गई। लक्ष्मण सेठ की उस हरकत के चलते ही अबकी पार्टी का एक बड़ा खेमा उनकी उममीदवारी के खिलाफ था। बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व ने उनको एक और मौका देने का फैसला किया। नंदीग्राम के लोग दो साल पहले 14 मार्च को हुई पुलिस फायरिंग और उसके बाद माकपा काडरों की ओर से इलाके के पुनर्दखल के दौरान हुई हिंसा के सदमे से अब तक पूरी तरह नहीं उबर सके हैं। पुलिस फायरिंग में अपना बेटा खोने वाले पूर्व माकपा समर्थक धनंजय मंडल कहते हैं कि हम माकपा को कभी माफ नहीं कर सकते। बुद्धदेव सरकार की पुलिस ने मेरे बेटे को बेवजह मार डाला। उनके बड़े भाई पुलिस मंडल का बेटा भी उस फायरिंग में मारा गया था।
इस सीट के दोनों दावेदारों का बहुत कुछ यहां दांव पर लगा है। जीत की स्थिति में माकपा राज्य सरकार की औद्योगिकी नीतियों को सही ठहराते हुए यह साबित कर सकती है कि विपक्ष ने राज्य की प्रगति का राह में रोड़ा अटकाने के लिए जानबूझ कर इलाके में आंदोलन की चिंगारी को हवा दी थी। दूसरी ओर, तृणमूल की जीत से इलाके में राज्य सरकार प्रायोजित आतंकवाद के अपने पुराने आरोप को सही साबित कर सकती है।
तमलुक सीट पर जीत की हैट्रिक बना चुके लक्ष्मण सेठ और उनकी पार्टी को भरोसा है कि लोकसभा चुनावों पर नंदीग्राम की प्रेत छाया नहीं पड़ेगी और वे अपनी सीट बचाने में कामयाब रहेंगे। वे कहते हैं कि हम तो यहां पेट्रोकेमिल हब बनाना चाहते थे ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार मिले। लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने जानबूझ कर उसके खिलाफ गांव वालों को भड़का कर आंदोलन शुरू कर दिया। उसके बाद ही हिंसा फैली। सेठ का दावा है कि लोग तृणमूल को वोट नहीं देंगे। दूसरी ओर, इस सीट पर तृणमूल के उम्मीदवार शुभेंदु अदिकारी, जो तृणमूल के विधायक हैं, कहते हैं कि जीतने पर इलाके के सामाजिक ढांचे में सुधार उनकी पहली प्राथमिकता होगी। इसके अलावा वे संसद में नंदीग्राम का मुद्दा उठा कर 14 मार्च की फायरिंग के लिए जिमेमवार लोगों को सजा दिए जाने की मांग करेंगे।
परिसीमन में पश्चिम पांशकुड़ा विधानसभा सीट घाटाल संसदीय क्षेत्र में चली गई है। लेकिन हल्दिया, पूर्व पांशकुड़ा और मोयना अब भी माकपा का मजबूत गढ़ है। तृणमूल को नंदीग्राम विधानसभा सीट से बढ़त मिलने की उम्मीद है। शुभेंदु अधिकारी नंदीग्राम के लोगों के गुस्से को वोटों में बदलने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहे हैं। कांथी स्थिति अपने केंद्रीय चुनावी कार्यालय के अलावा उन्होंने दूरदराज के इलाकों में भी अपने दफ्तर खोल रखे हैं। लोग वहां जाकर अपनी समस्याएं बता सकते हैं और कहीं फोन भी कर सकते हैं। वैसे, इलाके के लोगों में आतंक अब भी कम नहीं हुआ है। चुनावों के बाद उनको एक बार हिंसा की आशंका है। लोग नाम नहीं बताने की शर्त पर कहते हैं कि यहां मुक्त व निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है। जहां जिसका जोर चलेगा, वहां उसी के पक्ष में वोट पड़ेंगे। माकपा व तृणमूल दोनों ने एक-दूसरे पर वोटरों को धमकाने के आरोप लगाए हैं। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में तमलुक सीट पर सेठ को 48.99 और अधिकारी को 43.45 फीसद वोट मिले थे। तब कांग्रेस के सुदर्शन पांजा को 3.36 फीसद वोट मिले थे। अब तालमेल के चलते उन वोटों का ज्यादातर हिस्सा तृणमूल को ही मिलेग।

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