Thursday, July 2, 2009

गांव की ओर—(1)

(चार साल बाद अबकी देस लौटना हुआ था. इसलिए ब्लाग और इंटरनेट की दुनिया से कोई छह-सात दिन दूर रहा. गांव में बिजली ही नहीं है तो इंटरनेट की कौन कहे. अब लगा कि उन यादों को सिलसिलेवार तरीके से ब्लाग पर डाल देना चाहिए.)
कोई चार साल पहले आखिरी बार गांव गया था. बीच में न तो कभी इसका मौका आया और न ही कोई वजह मिली. गर्मी की छुट्टियों में सिलीगुड़ी ही जाना होता था. वहीं सब लोग रहते हैं. लेकिन इस साल बिटिया दसवीं में पहुंची तो स्कूल में एक्सट्रा क्लास और कोचिंग के चक्कर में सिलीगुड़ी जाना नहीं हो सका. घऱ से बाहर रहने के इन वर्षों में यह पहला मौका था जब गर्मी की छुट्टियां कोलकाता में ही बीतीं. इसबीच, अचानक गांव में मां-पिताजी के जाने और वहां पूजा का कार्यक्रम बना तो पत्नी ने कहा कि आप अकेले ही गांव क्यों नहीं चले जाते दो-चार दिनों के लिए. मुझे भी यह बात जंची. और इस तरह चार साल बाद सिवान की ओर निकलने की योजना बनी.
कोलकाता के नए बने तीसरे रेलवे स्टेशन, जिसका नाम कोलकाता ही है, से एक ही सीधी ट्रेन जाती है गोरखपुर तक. पूर्वांचल एक्सप्रेस. जिस दिन जाना था उस दिन उस दिन वह ट्रेन छपरा से बलिया, मऊ और सलेमपुर होकर गोरखपुर तक का सफऱ तय करती थी.मैंने सोचा ठीक है सलेमपुर उतर कर वहां से दो-तीन घंटे में गांव पहुंच जाऊंगा.
24 जून को दोपहर के समय जब स्टेशन पहुंच कर अपने कोच के भीतर पहुंचा तो हालात बेहद खराब थे. ट्रेन चलने में आधे घंटे से भी कम समय बचा था.लेकिन एसी नहीं चलने की वजह से तमाम यात्री परेशान. पूरा कोच किसी भट्टी की तरह तप रहा था. लोगों के शोर-शराबे के बाद केयरटेकर ने बैटरी चार्ज नहीं होने की बात कह कर कोई पांच मिनट पहले एसी आन किया. लेकिन कमरे को ठंडा होने में कोई दो घंटे लग गए.
मैं हमेशा सुनियोजित तरीके से सफऱ करता हूं. पहले से कंफर्म रिजर्वेशन और पसंद की सीट चुन कर ताकि बाद में न तो रेलवे के किसी कर्मचारी को मक्खन लगाना पड़े या फिर किसी सहयात्री से सीट बदलने के लिए गिड़गिड़ाना पड़े. मैंने लगभग यह नियम बना लिया है कि ट्रेन में किसी से सीट नहीं बदलूंगा. भले मेरी सीट बहुत खऱाब हो. लेकिन लोग कहां मानते हैं. मैंने किनारे नीचे की बर्थ ली थी ताकि अपनी पत्रिकाओं में डूबा रह सकूं. लेकिन ट्रेन चलने के कुछ देर पहले एक दंपती मेरे सामने की सीट पर आया. उनकी एक सीट मेरे ऊपर वाली थी और दूसरी सीट कुछ दूर थी और वह भी ऊपर वाली. मुझे अकेला देख कर उनको लगा कि इससे सीट आसानी से बदली जा सकती है. ऐसे लोग अममून बातचीत की पहल करते हैं—भाई साहब, आप कहां तक जाएंगे. फिर वह जल्दी ही अपने मकसद पर आ गए. आप मेरी दूसरी वाली सीट ले लेंगे. मैंने कहा कि अगर वह नीचे की बर्थ हुई तो जरूर ले लूंगा.
काशीपुर इलाके में अपना कारोबार करने वाले वह सज्जन तो ठीक थे लेकिन उनकी पत्नी को देख कर लगता था मानों राशन की चलती-फिरती दुकान हो. ऊपर की बर्थ पर चढ़ना उसके लिए असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर था. मैंने कहा कि मैं अपनी सीट नहीं बदल सकता. आप किसी और से बात कर लीजिए. पत्नी को देख कर मैंने अनुमान लगाया था कि खाने-पीने की शौकीन हैं और इनकी जरूर मिठाई दुकान वगैरह होगी. बाद में पता चला कि केक और पेस्ट्री की बड़ी सी दुकान चलाते हैं. जरूर, दुकान का आधा माल हर महीने पत्नी के पेट में जाता होगा, मैंने सोचा. सीट बदलने में दो दिक्कतें थीं. सफर में मैं लगभग नहीं के बराबर सोता हूं. ऊपर की बर्थ लेने पर नींद मजबूरी बन जाती. दूसरी बात यह कि मैं सीट बदलने के खिलाफ रहा हूं. मैंने कहा कि आप छपरा तक जाएंगे. वहां ट्रेन रात को ढाई बजे पहुंचती है. उसके बाद अगर कोई वहां से चढ़ा आपकी सीट पर तो मुझे फिर से बिस्तर समेट कर अपनी सीट पर लौटना होगा.
बाद में बगल के किसी यात्री से उन्होंने सीट बदली जरूर, लेकिन बीच वाली बर्थ ही पत्नी को मिल सकी. ट्रेन के एक अन्य सहयात्री कोई गुप्ता थे, जो सपरिवार गंगटोक स्थित अपनी ससुराल से लौट रहे थे. उनका मऊ में साड़ियों का बड़ा कारोबार है और वहां के सबसे बड़े होटल विजया के मालिक भी हैं. मैंने उनसे कहा कि अगर मैं पूरी योजना बना कर सफऱ करता हूं तो मेरी योजनाबद्धता का फायदा दूसरों को क्यों मिलना चाहिए. मैंने पहले से रिजर्वेशन कराया ही इसलिए था कि सफर में दिक्कत नहीं हो. इसके अलावा वह सज्जन झूठ बोल रहे थे. उनका कहना था कि इमरजेंसी में जा रहे हैं. लेकिन उन्होंने पंद्रह दिन पहले टिकट लिया था और किसी शादी में जा रहे थे. मैंने कहा कि आपका जाना तय था तो आप पहले से नीचे की बर्थ का आरक्षण करा सकते थे. या फिर छपरा तक किसी और ट्रेन से जा सकते थे. रात के खाने में उनकी पत्नी ने जितनी पूरियां और मिठाई खाईं, लगभग उतनी ही दवाएं भी निगलीं. उन्होंने जितनी दवाएं खाईं, हम जैसों का पेट तो उसी से भर जाता.
खैर, दूसरे दिन सफऱ पूरा हुआ. आमतौर पर घंटों देर से चलने के लिए बदनाम पूर्वांचल एक्सप्रेस ने तय समय से महज 45 मिनट की देरी से मुझे सलेमपुर उतार दिया. वहां से फिर तीन-चार सवारियां बदलते हुए मैं पहुंचा अपने गांव पुरैना. बिहार और उत्तरप्रदेश की सीमा पर गंडक के किनारे बसा आखिरी गांव. इलाके में अब सवारियां बढ़ी हैं और सड़कें भी बनी हैं. इसलिए ट्रेन से उतरने के बाद दो-ढाई घंटे के भीतर ही गांव पहुंच गया. वरना मुझे याद है कि बचपन में एटी मेल यानी अवध-तिरहुत मेल से सुबह सिवान उतरने के बाद गांव पहुंचने में शाम हो जाती थी. और आखिरी तीन किलोमीटर तक का सफर तो हमेशा पैदल ही तय करना पड़ता था. गांव पहुंचने पर चाची या काकी थाली में पानी रख कर पांव धोती थी और सारी थकान पल भर में उड़न-छू. अब तो बहुत कुछ बदल गया है.

इस बदलाव के बारे में चर्चा अगली कड़ी में.....

2 comments:

  1. च्छा हुअ कभी अअसे गाडी मे मुलाकात नहीं हुई वर्ना मुझे तो हर बार सीट बदलनी पडाती है हर बार उपर की सीट ही मिलती है और राशन की दुकान उपर चलती नहीं हा हा हा रोचक पोस्ट है अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा

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  2. प्रभाकर भाई। गांव के बारे में चर्चा होने पर अक्‍सर कुछ अच्‍छी-अच्‍छी बातें ही सुनाई पड़ती हैं। मुझे लगता है गांव की प्रकृ‍ति अच्‍छी है। लेकिन किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। गांव के सामन्‍ती मूल्‍यों में रचा-पगा जीवन महसूस करने पर गुस्‍सा भी पैदा होता है। एक तरफ तरक्‍कीपसंदगी और खुलापन है दूसरी तरफ जड़ता और कूडमगजता की भी भरमार है। मुझे समझ नहीं आता, पता नहीं क्‍यों हमारे यहां के ज्‍यादातर बुद्धिजीवी गांव को सिर्फ मुग्‍ध भाव से ही क्‍यों देखते हैं।

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