Friday, July 3, 2009

लेकिन नहीं बदली है सोच

गांव बदल रहे हैं. लेकिन एक चीज जो नहीं बदली है वह है लोगों की सोच. खासकर खानदान का नाम रोशन करने के लिए पुत्र का मोह. खानदान का चिराग लाने की कोशिश में बेटियों की कतारें लग रही हैं. लेकिन वहां इसकी परवाह किसे है. सात बेटियों के बाद भी एक बेटा पैदा होने पर लोग उसे बुढ़ापे की लाठी मानते हैं. अब यह बात अलग है कि वह बेटा बुढ़ापे की लाठी बनने की बजाय अपने मां-बाप का स्वागत लाठी और गाली से करता है. इस कड़वी हकीकत से इस बार भी गांव जाने के दौरान मेरा पाला पड़ा.
शुरू से ही बंगाल में रहने की वजह से मुझे बेटे-बेटी में कोई खास अंतर नहीं महसूस हुआ. बंगाल में बेटियों को तरजीह दी जाती है. मेरी एक ही बिटिया है जो दसवीं में पढ़ती है. मेरे मां-पिताजी भी पोते की कमी महसूस नहीं करते. लेकिन गांव जाने पर पट्टीदार उनकी इस कमजोर नस को दबाने की कोशिश करते रहते हैं. बात-बेबात यह बात उनलोगों के मुंह से निकल ही जाती है कि काश भगवान आपको एक पोता भी दे देता. मानो पोता नहीं होना कोई बड़ा गुनाह हो. पट्टीदारों के चाशनी में लिपटे इस ताने की वजह से ही गांव से लौटने पर मां का ब्लड प्रेशर हमेशा बढ़ा रहता है. लोगों के कहने पर उन्होंने तमाम धार्मिक अनुष्ठान भी कराए हैं. गांव वाले कहते हैं कि पोता नहीं है तो खानदान का नाम ही डूब जाएगा, मोक्ष नहीं मिलेगा. मुझे लगता है कि कितनी अजीब और परस्पर विरोधी बातें लिखी हैं हमारे पुराणों और शास्त्रों में. एक ओर तो बेटा नहीं होने पर मोक्ष नहीं मिलने की दलील दी जाती है और दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि गया में पूर्वजों को पिंडदान करने पर आगे-पीछे की सात-सात पीढ़ियां मोक्ष हासिल कर लेती हैं. और यह भी एक कन्यादान करने पर कई पीढ़ियों को मोक्ष मिल जाता है. इस बार गांव जाने पर मैंने यही दलील दी कि पिताजी ने कोई पांच-छह साल पहले गया में पिंडदान कर दिया है, तो क्या हमलोगों को मोक्ष नहीं मिलेगा? लेकिन किसी के पास इसका कोई जवाब नहीं था. वैसे, गया में पिंडदान करने के लिए गए पिताजी का रुपए और कपड़ों से भरा थैला किसी ने नदी के घाट पर ही चुरा लिया था और उनको वहां से लुंगी में ही गांव लौटना पड़ा था. लेकिन अब महज अपने फायदे के लिए पुराणों की दलील को तोड़-मरोड़ कर उनका हवाला देने वालों से आप जीत भी कैसे सकते हैं?
दरअसल, बेटे के प्रति खत्म नहीं होने वाले इस मोह ने ही गांव में बेरोजगारी जैसी कई समस्याएं पैदा की हैं. मेरे एक पट्टीदार हैं, जो कोलकाता के पास कांचरापाड़ा स्थित रेलवे के वर्कशाप में काम करते हैं. उनके चार बेटे हैं और चार बेटियां. उन महोदय की शादी कच्ची उम्र में हो गई थी. बेटा जल्दी हो गया और उसकी शादी भी कच्ची उम्र में. अब उसे दो बेटियां हैं. संयोग से वे महोदय रिश्ते में मेरे भतीजे लगते हैं और मुझसे दो साल बड़े हैं. यानी उनकी पोतियां मेरी परपोती हुई. गांव के इस रिश्ते की वजह से इसी उम्र में मैं परदादा बन चुका हूं. अब उनके घर में सास-बहु में आए दिन झगड़े होते रहते हैं. मेरे गांव में रहने के दौरान भी एक दिन पत्नी का पक्ष लेकर लड़ रहे बेटे और उसकी मां के बीच ऐसी जंग हुई कि मां को रात मेरे घर आ कर गुजारनी पड़ी. बेटा भी पियक्कड़ है और बाप भी. बाप को अपने बाप की आकस्मिक मौत के बाद रेलवे में नौकरी मिल गई. बेटा बेरोजगार है और शायद उसे भी अपनी बाप की मौत का इंतजार है नौकरी के लिए. उसकी मां का कहना था कि वह बाप की हत्या कर रेलवे में नौकरी पाना चाहता है. यह है बुढ़ापे की लाठी की करतूत. दिलचस्प बात यह है कि रोजाना के जूतम-पैजार के बावजूद दो बेटियों के जन्म के बाद जब मेरे उस पोते की बहु ने अपना आपरेशन कराना चाहा तो सास उसके खिलाफ हो गई. उसका कहना था कि बेटा नहीं पैदा किया तो खानदान का नाम कैसे रोशन होगा. (मानो अब तक जितना रोशन हुआ है वह कम है) उसने बहु को सीधे धमकी दी कि आपरेशन कराया तो घर से बाहर निकाल दूंगी.
मेरे पड़ोस में रहने वाले एक और पट्टीदार के बेटे भी लगभग बेरोजगार ही हैं. कोई गांव में रह कर ट्यूशन पढ़ाता है तो कोई शहर में. उनका कहना है कि आप घर से सटी अपनी कुछ जमीन पानी के भाव मुझे दे दें. उन्होंने इसी बार पिताजी से कहा कि आपके बेटे तो अच्छी-खासी नौकरियों में हैं. मेरे बेटे तो खास नहीं कमाते. लेकिन वे भी अपने पोतों के बारे में गर्व से बताते हुए अपनी नजर में हमारी इस कमजोर नस को गाहे-बगाहे दबाने का कोई मौका नहीं चूकते.
गांव में जिससे मिला सबका एक ही सवाल था-एक ही बेटी है. इतना पैसा क्या करेंगे? खाने वाला तो है ही नहीं. अब उनलोगों को क्या पता कि बेटी की पढ़ाई व परवरिश पर भी उतनी ही रकम खर्च होती है जितनी बेटे पर. मैंने हंस कर जवाब दिया कि रतन टाटा ने तो शादी ही नहीं की है और मुकेश अंबानी और कपिलदेव को तो बेटी ही है. तो क्या वे लोग अपनी संपत्ति किसी को दान कर दें. लेकिन पुत्रमोह का काला चश्मा पहने गांव वाले मेरे इस तर्क को सुनने व मानने को तैयार ही नहीं थे. सहानुभूति भरी नजरों से देखते हुए सब कहते थे कि काश भगवान आपको भी एक बेटा दे देता. अब उसे क्या कहता मैं? उनकी सोच के आगे मेरे सारे तर्क बेकार साबित हो रहे थे.
चार दिनों बाद गांव से लौटते हुए मैं उनकी मानसिकता और इससे पैदा होने वाली समस्या के बारे में सोच रहा था. लेकिन साथ ही यह भी तय था कि अगली बार आने पर भी उनकी इस सोच में रत्ती भर भी फर्क नहीं आएगा और वे बेटे का बाप नहीं होने के लिए मुंह पर मुझसे सहानुभूति जताएंगे और पीठ पीछे हंसेंगे कि इनका पैसा कौन खाएगा. इनका खानदान तो अब डूब गया. मुझे तो अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो मरने के बाद आ कर कह गया हो कि उसे मोक्ष मिल गया अपने बेटों की वजह से. या फिर यह भी देखने नहीं आया कि बेटे उसके खानदान का नाम रोशन कर रहे हैं या डुबो रहे हैं. आपको कोई ऐसा मिला हो तो बताएंगे.

3 comments:

  1. गांव जो शहरों से जुड़ने और विकास के दौर में पीछे रह गए हैं, उन सबकी एक ही कहानी है। फिर भी मेल-मिलाप के संदर्भ में गांव कोलकाता के अधकचरे हिंदी भाषियों से अच्छे हैं। विचारों का परिवर्तन तो कोलकाता के ऐसे तमाम प्रवासी लोगों में भी नहीं हुआ है। दरअसल गांव में महानगरों की सुविधा नहीं है मगर गांव की तुलना महानगरों-शहरों के उन लोगों से की जाती है जो उनकी तुलनी काफी सुविधा संपन्न और आधुनिक जीवन जी रहे हैं। गांवों की समीक्षा में यह शहरी दृष्टिकोण समीचीन नही लगता। लंबे समय बाद ही सही मगर गांव आप गए यह जानकर अच्छा लगा। अब उदाहरण क्या दूं मगर इसी देस ( अपने गांव) के तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जहां विचारधारा से उन्नत लोग भी बसते हैं। ब्लाग एक वैश्विक नेटवर्क है। मेरी राय है कि ऐसे नेटवर्क पर आधी-अधूरी तस्वीर पेश करने से परहेज करना चाहिए। मेरा यकीन मानिए तो बदल रहे हैं भारत के गांव और यही हकीकत है। कुछ उदाहरणों को लेकर नकारात्मक विश्लेषण से परहेज करना चाहिए। क्षमा करेंगे मैं खुद गांववाला हूं और मुझे गांवों से बहुत लगाव है। शायद इसी लिए कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी।

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  2. Apologies for unable to post in hindi!!
    Excellent post - live picture of present state of rural Bihar. The pathetic condition of the rural areas of a backward state of Bihar had been vividly presented. Delighted to know some developement works had taken place - like better road conditions but, largely the picture remains unchanged for last 20 yrs. Pouch culture has come up in the entire country but, what is shocking is illegal phracies amking fake drugs - playing with the peoples life!! Criminal political nexus has largely been responsible for such inhuman and btrutal conditins prevailing in Siwan district. The present chief minister is trying to bring in rays of developement in Bihar but, it will take years for him to undo the misdeeds done by previous regime who had dragged bihar 20 years backwards.
    Last year I had the opportunity to visit some of the rural areas of Madhya Pradesh and Chhatisgarh. Things looked much much better compared to Bihar. Agriculture is still the prime source of income for majority of the rural people and they seemed happy. Unlike in Bihar, where the majority of the young folks have migrated to diffrent states. A large no of them are doing petty jobs - largely unskilled laour - and send money back home every month for the family to survive. It is very unfortunate and hurts us as I am also from the same locality of Bihar and have not visited my native village for last 20 years or so. So it was very nice to hear some news from the homeland.
    Many thanks!!

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