Friday, July 17, 2009

प्रशासन पर माकपा की पकड़ का नतीजा है मंगलकोट


प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले का मंगलकोट कस्बा अब अगर अचानक सुर्खियों में है तो इसकी वजह सरकार और प्रशासन पर माकपा की बढ़ती और अपनी पार्टी पर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की लगातार ढीली पड़ती पकड़ है। लोकसभा चुनाव में दुर्गति के बाद बौखलाए माकपा काडरों ने विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में अपना बर्चस्व बढ़ाने की जो मुहिम शुरू की है, मंगलकोट की हिंसा उसी का नतीजा है। लोकसभा चुनावों के बाद राज्य में माकपा और विपक्षी राजनीतिक दलों के बीच शुरू हुई हिंसा की ही एक और कड़ी है मंगलकोट। इससे यह भी साफ है कि यह घटना आखिरी नहीं है। कांग्रेस विधायकों पर हमले के बाद विधानसभा में गुरुवार को होने वाले हंगामे के दौरान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की बेबसी साफ झलक रही थी। उन्होंने इस घटना की निंदा तो की ही, यह भी माना कि जिले में पुलिस और प्रशासन विधायकों को सुरक्षा मुहैया कराने में नाकाम रहा है। उनको भरोसा देना पड़ा कि इस घटना में अगर माकपा का कोई स्थानीय नेता भी शामिल हुआ तो उसे बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन अब न तो पार्टी पर बुद्धदेव की पहले जैसी पकड़ बची है और न ही प्रशासन पर। यही वजह है कि मंगलकोट की घटना के सिलसिले में अब तक जितनी भी गिरफ्तारियां हुई हैं उनमें माकपा का नेता तो दूर कोई समर्थक तक शामिल नहीं है।
मंगलकोट की घटना के पीछे उद्योग मंत्री और बर्दवान जिले के भारी-भरकम माकपा नेता निरुपम सेन का हाथ होने के आरोपों के बाद बुद्धदेव की बेचैनी बढ़ी है। सदन में विधानसभा अध्यक्ष हाशिम अब्दुल हलीम ने भी इस घटना के लिए सरकार और प्रशासन को आड़े हाथों लिया। हलीम ने सवाल किया कि आखिर हम दोबारा अराजकता के दौर में लौट रहे हैं? अगर सरकार विधायकों को सुरक्षा नहीं मुहैया करा पाती तो आम लोगों को सुरक्षा कैसे देगी? इससे पार्टी और सरकार के बीच फंसे बुद्धदेव बेचैन हैं।
मुख्यमंत्री ने तो निंदा भी की। लेकिन माकपा के प्रदेश नेतृत्व ने मंगलकोट की घटना की कोई निंदा नहीं की है। इस हमले को लोगों की नाराजगी करार देते हुए प्रदेश सचिव विमान बसु ने विपक्ष पर अराजकता फैलाने का रटा-रटाया जुमला दोहरा दिया। यह सही है कि गुरुवार को पूरे राज्य में जो आगजनी और तोड़फोड़ हुई, उसे कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन आखिर उसके पीछे तो मंगलकोट की घटना ही थी। बसु उस पर चुप्पी साधे रहे। बुद्धदेव ने विधानसभा में इस मामले की जांच का भरोसा दिया है। लेकिन उससे पहले ही माकपा नेतृत्व ने यह कह कर पार्टी को क्लीनचिट दे दी है कि उस हमले में पार्टी का कोई व्यक्ति शामिल ही नहीं था।
कांग्रेसी विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल पहले कई बार इलाके के दौरे की नाकाम कोशिश कर चुका था। अब बुधवार को जब चौथी बार नौ विधायकों का एक दल हालात का जायजा लेने के लिए इलाके में पहुंचा तो सैकड़ों माकपाइयों ने उनको दौड़ा लिया। कांग्रेस विधायक दल के नेता मानस भुंइया समेत तमाम विधायक जान बचाने के लिए खेतों से होकर भागने लगे। हालात इतने बिगड़ गए कि मानस भुंइया ने मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से फोन पर अपनी जान बचाने की गुहार लगानी पड़ी। भुंइया तो किसी तरह बचने में कामयाब रहे। लेकिन उनके साथ गए चार विधायक ऐसे किस्मतवाले नहीं थे। माकपाइयों ने उनलोगों की जमकर धुनाई कर दी। किसी को दर्जन भर टांके पड़े तो किसी की नाक कट गई । विधायकों के साथ पुलिस की एक टीम भी थी। लेकिन वह भी माकपाइयों के कहर से उनको बचाने में नाकाम रही। भुंइया ने आरोप लगाया कि माकपा काडरों ने जानलेवा हमला किया था। पुलिस व प्रशासन को पहले से इसकी सूचना देने के बावजूद हमें पर्याप्त सुरक्षा नहीं मुहैया कराई गई। कांग्रेसियों ने इसके विरोध में गुरुवार को जम कर हिंसा और आगजनी की। इसके साथ ही शुक्रवार को 12 घंटे बंगाल बंद रखा। विपक्ष ने विधानसभा में भी जम कर हंगामा किया और मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग की।
राज्य में बीते दो-तीन वर्षों के दौरान नंदीग्राम, सिंगुर, और लालगढ़ में जो कुछ हुआ है, उसमें आम लोगों की कोई खास भूमिका नहीं रही है। वहां आंदोलनों के पीछे तृणमूल कांग्रेस व माओवादी रहे हैं। ऐसे में मंगलकोट की घटना अराजनीतिक कैसे करार दी जा सकती है। राज्य में लोकसभा चुनाव के बाद जारी हिंसा में पहले वाममोर्चा सरकार के पांच मंत्रियों को खेजुरी जाने से रोका गया। लेकिन वहां उनसे मारपीट नहीं हुई थी। उसके बाद हिंगलगंज में आइलापीड़ितों का हालचाल लेने गए वाममोर्चा के एक विधायक को कीचड़ पोता गया। वहां लोग सचमुच नाराज थे। भोजन और पानी के बिना कई दिन गुजारने वाले लोगों का गुस्सा देरी से पहुंचे विधायक को देख कर फूट पड़ा था। हालांकि उस घटना से भी पुलिस व प्रशासन की लापरवाही का पता चलता है।
मंगलकोट की तुलना नंदीग्राम, सिंगुर या लालगढ़ से नहीं की जा सकती। वहां लोगों में अपनी जमीन खोने का डर था तो लालगढ़ में लगातार उपेक्षा से लोग नाराज थे। विपक्ष ने लोगों के इसी डर और उपेक्षा को हवा देकर उनको आंदोलन में साथ लिया। लेकिन मंगलकोट में तो माकपा के एक नेता की हत्या हुई थी। वहां लोगों को न तो जमीन खोने का डर था न तो नंदीग्राम की तर्ज पर महिलाओं की इज्जत लुटने का कोई खतरा था। बावजूद इसके माकपाइयों ने उस हत्या के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार ठहराते हुए इलाके में उनका दाना-पानी बंद कर दिया था। बीते 15 जून से मंगलकोट इलाके पर पुलिस या प्रशासन का नहीं बल्कि माकपा काडरों का राज था। उसके बाद तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल को इलाके में जाने से रोका गया। बाद में सुब्रत मुखर्जी की अगुवाई में कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमंडल इलाके में गया था। तब तो लोगों का गुस्सा नहीं फूटा था। आखिर महीने भर बाद लोग अचानक इतने नाराज क्यों हो उठे कि विधायकों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। पुलिस वहां मूक दर्शक बनी रही। इससे विपक्ष के इस आरोप को बल मिलता है कि इस हमले में माकपा के दिग्गज नेताओं का हाथ था। अगर वह आम लोगों की नाराजगी थी तब भी उसका पूर्वानुमान नहीं लगा पाने की वजह से इसे सरकार और जिला प्रशासन की नाकामी समझी जानी चाहिए।
यहीं एक सवाल और पैदा होता है। जब मंगलकोट में कांग्रेसी विधायकों पर हमले की जांच की बात कही जा रही है तो उस माकपा नेता की हत्या के मामले में किसी जांच के बिना ही पार्टी ने कांग्रेस को कैसे जिम्मेवार ठहरा दिया। यही वजह है कि उस हत्या की हकीकत सामने लाने के लिए विपक्ष ने उस कांड की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। लेकिन सरकार के ऐसा करने की उम्मीद कम ही है। और सरकार चाहे भी तो पार्टी उसे ऐसा नहीं करने देगी।
पार्टी पर बुद्धदेव की ढीली होती पकड़ का सार्वजनिक तौर पर खुलासा नवंबर, 2007 में नंदीग्राम पर माकपा के जबरन पुनर्दखल के समय हुआ था। तब मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए इसे सही ठहराया था कि हमने उनको उनकी भाषा में ही जवाब दिया है। उनको कहना पड़ा था कि मैं मुख्यमंत्री होने के अलावा पार्टी का नेता भी हूं। हालांकि बाद में उनको इस टिप्पणी के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। बर्दवान वामपंथियों का गढ़ रहा है। वहां कोई भी ऐसी बड़ी घटना हो और उसकी जानकारी वामपंथियों को नहीं हो, यह बात गले से नीचे नहीं उतरती।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मंगलकोट की घटना की जांच के बहाने लीपापोती ही की जाएगी। विपक्ष बर्दवान जिले के जिलाशासक और एसपी को हटाने की मांग कर रहा है। लेकिन अपनी पार्टी के दबाव में बुद्धदेव फिलहाल ऐसा नहीं करेंगे। किसी भी जांच में माकपा को क्लीनचिट देते हुए मौके पर मौजूद कुछ छोटे पुलिस अधिकारियों को बलि का बकरा बना दिया जाएगा। पर्यवेक्षकों की राय में काडरों का यह ताजा करतब बुद्धदेव की परेशानी तो बढ़ाएगा ही, आगामी चुनावों में पार्टी के लिए भी यह भारी साबित हो सकता है।

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