Saturday, July 18, 2009

बेमिसाल प्राकृतिक सौंदर्य की मिसाल है नाथुला


पूर्वी भारत के छोटे-से पर्वतीय राज्य सिक्किम में समुद्रतल से साढ़े चौदह हजार फीट की ऊंचाई पर तिब्बत की सीमा से सटा नाथुला दर्रा प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से बेमिसाल है। किसी जमाने में इस दर्रे से होकर सिक्किम के व्यापारी सिल्क, मसाले और दूसरी वस्तुएं लेकर तिब्बत जाते थे। अब दोबारा इस सीमा के खुलने से फिर इस दर्रे से होकर पहले की तरह आयात-निर्यात शुरू हो गया है। पूर्वी भारत में चीन से लगी यही अकेली ऐसी सीमा है जहां आप चीनी फौजियों की आंखों में आंखें डालकर बातें कर सकते हैं। कुछ साल पहले तक यहां सिर्फ सेना से जुड़े लोगों की ही आवाजाही थी, लेकिन अब इसे आम लोगों के लिए भी खोल दिया गया है। सिक्किम की राजधानी गंगटोक से नाथुला तक पहुंचने में लगभग तीन घंटे का समय लगता है। इसी रास्ते में साढ़े बारह हजार फीट की ऊंचाई पर मशहूर छांगू झील है जिसका पानी साल में छह महीने जम जाता है। यहां आप याक की सवारी का मजा ले सकते हैं। नाथुला का रास्ता जितना दुर्गम है उतना रोमांचक भी। इस सड़क से गुजरते हुए सैलानी प्राकृतिक सौंदर्य में इस कदर डूब जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि मंजिल कब आ गई। नजरें जहां तक देख सकती हैं वहां तक बर्फीली चोटियां यूं नजर आती हैं मानो प्रकृति ने उन पहाड़ियों पर चांदी की परत चढ़ा रखी हो। नाथुला के रास्ते में जगह-जगह छोटी बस्तियां हैं जहां के लोग मेहनत-मजदूरी कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। इन बस्तियों की देखभाल की जिम्मेवारी मुख्य रूप से सेना पर ही है।

गंगटोक से सर्पीली सड़कों पर लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद हम पहुंचते हैं छांगू झील। चारों ओर हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी इस झील का नीला पानी बरबस ही मन मोह लेता है। वहां याक भी बहुतायत में हैं। चाहें तो उनकी सवारी करें या फिर उनके साथ फोटो खिंचवाएं। याक की सवारी के लिए प्रति व्यक्ति तीस रुपए देने पड़ते हैं। झील के एक किनारे बनी दुकानों में चाय-काफी के अलावा खाने-पीने की दूसरी चीजें और विदेशी जैकेट तक मिलते हैं। सैलानियों में गाइको नामक स्थानीय सूप काफी लोकप्रिय है। इसी तरह वहां स्थानीय बीयर छंग का भी लुत्फ उठाया जा सकता है। यहां तक तो आप अपने कैमरे से फोटो खींच सकते हैं लेकिन वहां से आगे नाथुला के सीमावर्ती इलाके में फोटो खींचने की अनुमति नहीं है। वहां सेना की ओर से इसके लिए इंस्टैंट कैमरे मुहैया कराए जाते हैं। इस इलाके में मौसम का मिजाज पल-पल बदलता रहता है इसलिए गर्म कपड़े साथ रखना जरूरी है। ऊंचाई पर आक्सीजन की कमी के कारण लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो सकती है।
यहां एक समूह में 8-10 सैलानी आते हैं। एक दिन में दो सौ से ज्यादा लोगों को सीमा पर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। हर समूह को सीमा पर सुबह आठ से दोपहर 12 बजे के बीच सिर्फ आधा घंटे ठहरने की इजाजत होती है। गंगटोक से नाथुला की यात्रा की व्यवस्था ट्रेवल एजेंट ही करते हैं।
गंगटोक से रवाना होने के बाद सैलानी इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य में डूब जाते हैं। यहां घुमावदार सड़क के हर मोड़ के पीछे प्रकृति सौंदर्य का नया-नया खजाना छिपाए बैठी है। रास्ते में मेनला में सेना का एक बड़ा पड़ाव है जहां उसकी ओर से सड़क के किनारे बनी कैंटीन में नाश्ते की बढ़िया व्यवस्था है। सुदुर पूर्व की पहाड़ियों के बीच इस कैंटीन में दक्षिण भारतीय व्यंजन सहज ही उपलब्ध हैं। कैंटीन के सामने ही सड़क के पार लगे एक बोर्ड पर लिखा है कि यह सड़क नाथुला दर्रा होकर तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक जाती है।' गंगटोक से ल्हासा की दूरी महज 416 किलोमीटर है। वहां से आगे बढ़ने पर कंचनजंघा की बर्फीली चोटियां नजर आने लगती हैं। मंजिल के करीब पहुंचकर ऊपर जवानों की चौकी तक पहुंचने के लिए 128 सीढ़ियां तय करनी पड़ती है। ऊपर की ओर बढ़ते हुए आक्सीजन की कमी से सांस फूलने लगती है और कड़ाके की सर्दी में भी पसीना आ जाता है। सीढ़ियां जहां शुरू होती हैं वहीं सितंबर,1967 में चीनी सेना के साथ झड़पों में शहीद 82 भारतीय जवानों की याद में एक शहीद स्मारक बनाया गया है। उस झड़प में चीन के चार सौ से भी ज्यादा जवान मारे गए थे।
ऊपर चौकी पर पहुंचते ही तेज बर्फीली हवाएं हमारा स्वागत करती हैं। सूर्य के सिर पर चमकने के बावजूद तापमान है शून्य डिग्री सेंटीग्रेड। वहां सेना के एक अधिकारी इस इलाके के इतिहास और भूगोल के बारे में बताते हैं। लेकिन लोगों का ध्यान उकी बातों पर कम और आसपास के प्राकृतिक दृश्यों पर ज्यादा है। चोटी पर पहुंचने के रोमांच और आसपास बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य को शब्दों में पिरोना बहुत मुश्किल है। इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। यह पूर्वी सेक्टर में अकेली वैसी सीमा चौकी है जहां दोनों देशों की सीमा चौकियां इतनी करीब हैं । भारतीय सीमा चौकी से चीनी चौकी की दूरी महज 30 मीटर है। वर्ष 1959 में 19 सितंबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस चौकी का दौरा किया था। उस समय चीनियों ने उनका भव्य स्वागत किया था। उस दौरे की याद में ही यहां नेहरू स्टोन नामक एक स्मारक बना है। सर्दियों में इलाके का तापमान शून्य से 20 से 30 डिग्री तक नीचे गिर जाता है। तब यहां 17-18 फीट मोटी बर्फ जम जाती है। इससे सीमा पर तैनात जवानों को भारी दिक्कत होती है। इसके अलावा अकेलापन भी उनको सालता है। ऐसे में असली युध्द नहीं होने के बावजूद जवानों को रोजाना चौबीसों घंटे युध्द लड़ना पड़ता है,जीने और सीमा की चौकसी के लिए।
इस दुर्गम इलाके में देश की एकता और अखंडता कायम रखने में सेना की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। इधर आबादी कम होने के कारण राज्य सरकार यहां मूलभूत सुविधाओं पर ज्यादा ध्यान नहीं देती। सरकार ने इलाके में बिजली पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं किया है। सरकार की इस कमी को सेना पूरा कर रही है। सेना की हर यूनिट ने एक-एक गांव को गोद ले लिया है।
लोग अभी प्रकृति का सौंदर्य निहारने में डूबे हैं कि किसी आवाज से तंद्रा भंग होती है। अब वापसी की बारी है। मौसम भी बिगड़ने लगा है। कुछ देर बाद बर्फ गिरने लगेगी। सबके चेहरों पर उदासी छाने लगती है।

1 comment:

  1. यहां के बारे में तो केवल सुन रखा था आपने तो सजीव वर्णन कर पूरा घुमा दिया।

    ReplyDelete