विधानसभा की दो और नौ यानी ग्यारह सीटों के फेर में पश्चिम बंगाल में विपक्षी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठजोड़ के नौ दो ग्यारह होने का खतरा मंडराने लगा है। लोकसभा चुनावों में भारी कामयाबी हासिल करने के दो-ढाई महीने के भीतर ही विपक्षी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच दरारें उभरने लगी हैं। 18 अगस्त को महानगर में विधानसभा की दो सीटों के लिए वोट पड़ेंगे। इसके बाद राज्य में नौ और सीटों के लिए उपचुनाव होंगे। दो सीटों पर मतभेद तो एक-एक के फार्मूले पर शनिवार यानी नामंकन वापस लेने की अंतिम तारीख तक सुलझने के आसार हैं। लेकिन असली संकट इसके बाद की नौ सीटों का है। यह सीटें विधायकों के सांसद चुने जाने की वजह से खाली हुई हैं।
जानकार सूत्रों का कहना है कि बऊबाजार और सिलायदह सीटों पर उम्मीदवारी को लेकर उपजा विवाद कल तक दूर होने की संभावना है। दोनों दलों का शीर्ष नेतृत्व एक-एक सीट के फार्मूले पर सहमत हो गया है। इस वजह से तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी बऊबाजार सीट से अपना उम्मीदवार हटा सकती हैं और इसके बदले कांग्रेस सियालदह सीट से अपने उम्मीदवार का नामांकन वापस ले लेगी। इससे दोनों पार्टियां इन सीटों पर आपस में दोस्ताना मुकाबले से बच जाएंगी।
लेकिन इससे बड़ा खतरा अभी आने वाला है। जल्दी ही नौ और विधानसभा सीटों-रायगंज, अलीपुर, बनगांव, श्रीरामपुर, कांथी दक्षिण, एगरा, सुजापुर, कालचीनी और ग्वालपोखर के लिए उपचुनाव होने हैं। राज्य चुनाव विभाग के सूत्रों की मानें तो इन सीटों के लिए दुर्गापूजा के बाद ही वोट पड़ेंगे। इन सीटों से जीते विधायक लोकसभा का पिछला चुनाव जीतने के बाद विधानसभा से इस्तीफा दे चुके हैं। इन नौ से में से अलीपुर, कांथी दक्षिण एगरा, बनगांव व श्रीरामपुर यानी पांच सीटें तृणमूल कांग्रेस की हैं। लेकिन तृणमूल कांग्रेस अबकी उत्तर बंगाल की कालचीनी सीट पर भी अपना उम्मीदवार उतारने का मन बना रही है। वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में यहां कांग्रेस का उम्मीदवार मैदान में था। तब आरएसपी के मनोहर तिर्की यहां से जीत गए थे। अब सीटों पर समझौते के फार्मूले के तहत कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने एक दूसरे के असर वाले इलाकों में अपना उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारने पर सहमति दी थी। इस लिहाज से तृणमूल को कालचीनी में अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा करना चाहिए। दूसरी ओर, कांग्रेस भी रायगंज में मैदान में उतरने की सोच रही है। बीते चुनाव में वहां तृणमूल मैदान में थी। उस सीट पर तब माकपा के महेंद्र राय चुनाव जीते थे। अब अगर कांग्रेस वहां मैदान में उतरती है तो नए सिरे से विवाद उभरना तय है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि रायगंज कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है। इसलिए पार्टी अबकी वहां चुनाव लड़ने का मन बना रही है।
कांग्रेस ने वर्ष 2006 में ग्वालपोखर और सुजापुर सीटें जीती थी। ग्वालपोखर में पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रिय रंजन दासमुंशी की पत्नी दीपा दासमुंशी ने माकपा उम्मीदवार को हराया था। लेकिन तृणमूल कांग्रेस दीपा से नाराज है। दापी ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कई बार सार्वजनिक तौर पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की आलोचना की थी। उनको सबक सिखाने के लिए ही पार्टी वहां अपना उम्मीदवार उतारने का मन बना रही है।
उधर, माकपा की नजरें गठजोड़ में उभरने वाली इन दरारों पर टिकी हैं। गठजोड़ में फूट उसकी राह आसान कर सकता है। इन 11 सीटों पर ही नहीं बल्कि दो साल से भी कम समय में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों में भी। यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लोकसभा चुनावों में भारी कामयाबी के बाद ममता अब विधानसभा की तमाम सीट अपने कब्जे में करने का प्रयास कर रही है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले उत्तर बंगाल में भी अपने उम्मीदवार उतारने का मन बनाया है। ममता की दलील है कि वे कालचीनी और रायगंज सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार तो जीते नहीं थे। ऐसे में उनको उसकी सीटें कैसे माना जा सकता है। ममता के इस रवैए से कांग्रेस में असंतोष खदबदा रहा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व ने अपना रुख और लचीला नहीं किया तो यह गठजोड़ अगले विधानसभा चुनाव से पहले ही नौ दो ग्यारह हो सकता है। इसका फायदा माकपा और वाममोर्चा को मिलना तय है। इस खतरे को भांप कर ही दोनों दलों के नेताओं ने इन दो सीटों का विवाद सुलझाने का फैसला किया है। लेकिन बाकी की नौ सीटों का क्या होगा? विपक्ष के गठजोड़ का भविष्य इस सवाल के जवाब पर ही टिका है।
Friday, July 31, 2009
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