पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के दूसरे कार्यकाल का अब तक समय विवादों से भरा रहा है। इसी दौरान सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ और मंगलकोट जैसी घटनाएं हुईं तो दूसरी ओर दार्जिलिंग की पहाड़ियों में गोरखालैंड आंदोलन ने नए सिरे से सिर उठा लिया है। ऐसे में औद्योगिकीकरण के जिस नारे के साथ तीन साल पहले चुनाव जीत कर वे सत्ता में आए थे, उसकी भी वा निकल गई है। अब राज्य में औद्योगिकीकरण का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है। पहले लगातार किसानों की जमीन का अधिग्रहण करने में जुटी सरकार ने अब इससे भी तौबा कर लिया है। विधानसभा में उसने साफ कर दिया है कि अब उद्योगपतियों को किसानों से सीधे जमीन लेगी। जरूरत पड़ने पर सरकार उनकी सहायता कर सकती है।
बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत ही खराब हुई थी। उन्होंने वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव के बाद अपने पद की शपथ लेने के साथ ही जो पहला काम किया वह था सिंगुर में लखटकिया कार परियोजना के लिए रतन टाटा के साथ समझौते पर हस्ताक्षर। उस चुनाव में माकपा ने औद्योगिकीकरण का जबरदस्त नारा देते हुए बंगाल का चेहरा बदलने के वादे किए थे। लेकिन वह सिंगुर करार ही बुद्धदेव सरकार की राह का सबसे बड़ा कांटा साबित हुआ। दो साल तक चले आंदोलन के बाद आखिर रतन टाटा ने बंगाल से अपना कारोबार समेट लिया और गुजरात चले गए। उसके बाद से राज्य में औद्योगिकीकरण के रथ के पहिए उल्टी दिशा में घूमने लगे। इस दौरान कई दूसरी परियोजनाएं भी यहां से बाहर चली गईं। सिंगुर आंदोलन के दौरान ही नंदीग्राम में केमिकल हब के लिए जमीन अधिग्रहण के मामले ने भी तूल पकड़ा। नंदीग्राम आंदोलन, वहां पुलिस फायरिंग में होने वाली मौतें और बाद में माकपा की ओर से जबरन पुनर्दखल के चलते नंदीग्राम बुद्धदेव और उकी अगुवाई वाली राज्य सरकार के दामन का सबसे काला धब्बा बन चुका है।
इसके अलावा लालगढ़ आंदोलन ने भी सरकार की नाक में दम कर रखा है। बीते साल नवंबर में शुरू हुए इस आंदोलन में बाद में माओवादी भी शामिल हो गए। बीते कोई एक महीने से भी ज्यादा समय से केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्य पुलिस के साझा अबियान के बावजूद लालगढ़ की समस्या जस की तस है। दरअसल, लालगढ़ आंदोलन तो सरकार की उपेक्षा से ही उपजा था। अब सरकार ने इलाके में विकास परियोजनाओं पर ध्यान देना शुरू किया है। इन मुद्दों के चलते ही लोकसभा चुनाव में सरकार को जबरदस्त मुंहकी खानी पड़ी। इन आंदोलनों की लहर पर सवार होकर विपक्षी तृणमूल कांग्रेस ने अपने सीटों की तादाद एक से बढ़ा कर 19 कर ली। लेकिन माकपा दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सकी।
अब ताजा मामला मंगलकोट का है। वहां माकपा काडरों की ओर से कांग्रेसी विधायकों की पिटाई ने माकपा का असली चेहरा एक बार फिर सामने ला दिया है। इस घटना के बाद विधानसभा अध्यक्ष और माकपा के वरिष्ठ नेता हाशिम अब्दुल हलीम तक ने यह कह कर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया कि राज्य में जब विधायक सुरक्षित नहीं हैं तो आम लोगों को सुरक्षा कैसे संभव है।
अब सरकार के सामने दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी गद्दी बचाने की चिंता है। लेकिन माकपा जिस तरह सरकार और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पर हावी हो रही है, उससे बंगाल में वामपंथ की राह आसान नहीं नजर आती।
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