Sunday, July 5, 2009

बढ़ती ही जा रही हैं माकपा की मुसीबतें


प्रभाकर मणि तिवारी
वाममोर्चा की सबसे बड़े घटक माकपा की मुसीबतें लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। जिस पार्टी की सांगठनिक ताकत और रणनीति के बूते पश्चिम बंगाल और केरल में मोर्चा लंबे समय से राज करता रहा है, अब वह अपने घऱ के झगड़ों को सुलझाने में ही जुटी है। केरल का झगड़ा निपटाने के लिए ही दिल्ली में पार्टी की पोलित ब्यूरो की दो-दिनी बैठक हुई। बावजूद इसके वहां समस्या जस की तस है। देश में अपने सबसे मजबूत गढ़ बंगाल में भी पार्टी को लगातार मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। अपने बीते 32 वर्षों के शासनकाल के दौरान पार्टी को कभी यहां इतनी विकट परिस्थितियों से नहीं जूझना पड़ा था।
दरअसल, बीते विधानसभा चुनावों के दौरान माकपा के तेज-तर्रार प्रदेश सचिव अनिल विश्वास की अचानक मौत और उसके बाद भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटी माकपा में दादागिरी की प्रवृत्ति तो उसके बाद से ही बढ़ने लगी थी। सत्ता में लौटने के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नए उद्योगों की स्थापना के लिए जमीन अधिग्रहण की जो प्रक्रिया शुरू की थी, उसी ने आगे चल कर पार्टी के लिए ऐसी मुसीबत पैदा की जिसका खमियाजा उसे अब तक भुगतना पड़ रहा है। अपने बूते विधानसभा में बहुमत हासिल करने वाली माकपा ने उसके बाद विभिन्न मुद्दों पर वाममोर्चा के दूसरे घटकों को भाव देना भी बंद कर दिया था। तमाम फैसले पार्टी के स्तर पर होने लगे। यही वजह थी कि नंदीग्राम और सिंगुर समेत विभिन्न स्थानों पर खेती की जमीन के अधिग्रहण के सवाल पर जितना मुखर विपक्षी दल रहे, उतने ही वाममोर्चा के दूसरे घटक। यह अलग बात है कि माकपा ने कभी घटक दलों की आपत्तियों व सुझावों को कोई खास तवज्जो नहीं दी। बीते खासकर तीन वर्षों में ऐसी एक भी मिसाल नहीं मिलती जिसमें माकपा ने सहयोगी दलों की आपत्तियों या सुझावों के आधार पर अपने फैसलों में कोई नीतिगत बदलाव किए हों।
एक के बाद एक मनमाने फैसलों ने ही राज्य में नंदीग्राम और सिंगुर के भूत पैदा कर दिए जो अब तक माकपा और उसकी अगुवाई वाली सरकार के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। अब लालगढ़ और आसपास के जो इलाके माओवादी की समस्या से जूझ रहे हैं वह भी माकपा की ही देन है। लगातार उपेक्षा और पिछड़ेपन से लोगों में घर करती नाराजगी का लावा जब फूटा तो माकपाइयों को ही उसका शिकार बनना पड़ा। लालगढ़ इलाके में होने वाली घटनाएं अपनी कहानी खुद कहती हैं। यह महज संयोग नहीं है कि इलाके में जितने भी हमले हुए सब माकपाइयों पर। जितने दफ्तर और घर फूंके गए वे भी माकपाइयों के ही थे। वाममोर्चा के दूसरे घटक दलों के दफ्तरों पर न तो एक भी पत्थर फेंके गए और न ही उन दलों के नेताओं या कार्यकर्ताओं पर हमले हुए। यानी आम लोगों की नाराजगी माकपा के खिलाफ ही है।
सिंगुर व नंदीग्राम के बाद बीते साल हुए पंचायत चुनावों में ही माकपा के खिलाफ लहर शुरू हुई थी। लेकिन अपनी सांगठनिक ताकत और काडरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा होने की वजह से पार्टी ने इस लहर को कोई तवज्जो नहीं दी। इसका नतीजा लोकसभा चुनावों में पार्टी की दुर्गति के तौर पर सामने आया। माकपा इस चुनाव में अपने बूते दहाई का आंकड़ा तक नहीं छू सकी। उसके बाद रही-सही कसर 16 नगरपालिकाओं और नगर निगमों के लिए हुए चुनाव ने पूरी कर दी। वाममोर्चा को इनमें से महज तीन से ही संतोष करना पड़ा। बाकी 13 विपक्ष की झोली में चले गए। इन नतीजों के बाद पार्टी के विवादास्पद नेता और परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने भी इस बात पर अचरज जताया था कि अगर लोग नहीं चाहते तो हम सत्ता में कैसे बने रह सकते हैं।
चक्रंवर्ती ने कहा है कि वाममोर्चा का समय सुखद नहीं है। माकपा की राज्य समिति के सदस्य व भूमि सुधार मंत्री अब्दुर रज्जाक मोल्ला ने भी माना है कि माकपा गरीब जनता से कट गई है। इसलिए सभी जगह बदलाव की लहर महसूस की जा रही है। लोग इतने नाराज हैं कि उन्होंने नगरपालिका चुनाव में भी वाममोर्चा को वोट नहीं डाला। लेकिन वाममोर्चा अध्यक्ष और माकपा के प्रदेश सचिव विमान बोस को अपनी खोई राजनीतिक जमीन दोबारा हासिल करने का भरोसा है। उनकी दलील है कि नगरपालिका चुनाव में जहां हार हुई हैं वहां भी लोगों ने वाममोर्चा के पक्ष में वोट डाला है। लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादातर वार्डों में लोगों ने वाममोर्चा का समर्थन किया है।
अब कट्टर से कट्टर माकपाई भी मौजूदा परिस्थिति जारी रहने पर दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में वाममोर्चा की जीत का दावा करने की हालत में नहीं हैं। अगले साल कोलकाता नगर निगम के अलावा बाकी नगरपालिकाओं के चुनाव होने हैं। हर विधानसभा चुनाव के पहले राज्य में होने वाले इस चुनाव के मिनी चुनाव कहा जाता है। लेकिन बावजूद इसके माकपा नेतृत्व अपनी सांगठनिक कमजोरियों को दूर कर आम लोगों के पास जाने की बजाय घर के झगड़े सुलझाने और विपक्ष की नुक्ताचीनी करने में ही व्यस्त है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अनिल विश्वास की मौत ने माकपा को रणनीति के लिहाज से एक बड़ा झटका दिया था जिससे वह कभी उबर ही नहीं सकी। उनकी जगह पार्टी की कमान संभालने वाले विमान बसु कभी उस स्तर तक पहुंच ही नहीं सके। यही वजह है कि विश्वास की मौत के बाद माकपा की कमजोरियों और दरारें तेजी से उभरने लगीं।
विश्वास दूरदर्शी थे और उनमें संगठन को एकजुट रखने की अद्भुत क्षमता थी। उनकी मौत के बाद पार्टी को केंद्रीय नेताओं ने लगभग हाईजैक कर लिया और तमाम अहम फैसले दिल्ली से ही होने लगे। चाहे वह केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापसी का हो या फिर सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकालने का। माकपा के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व के बीच उबरने वाले मतभेदों ने भी पार्टी की कमजोरियां उजागर करने में अहम भूमिका निभाई है। ऐसे में इन मतभेदों से उबर कर राज्य में सागंठनिक तौर पर खुद को पहले की तरह मजबूत करना ही प्रदेश नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

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