Tuesday, July 7, 2009
अंधी सुरंग में बदल गया है लालगढ़
पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर में माओवाद की समस्या से जूझ रहा लालगढ़ अब धीरे-धीरे एक अंधी सुरंग में बदलता जा रहा है। इलाके को माओवादियों के कब्जे से छुड़ाने के लिए राज्य पुलिस व केंद्रीय बलों के हजारों जवानों ने बीते महीने जो अभियान शुरू किया था वह कहीं पहुंचता नहीं नजर आ रहा है। यह अभियान समस्या कौ फौरी हल भले हो, स्थाई तौर पर किसी कामयाबी की उम्मीद नहीं है। यह अभियान कब तक जारी रहेगा, इस बारे में कोई भी कुछ कहने को तैयार नहीं है। लालगढ़ समस्या के उलझने के बाद अब सरकार को इलाके के पिछड़ेपन का ख्याल आया है। अब तमाम विभागों के सचिव इलाके का दौरा कर विकास कार्य शुरू करने पर जोर दे रहे हैं। लेकिन इन योजनाओं को अमली जामा पहनाना अब उतना आसान नहीं रहा।
बीते महीने शुरू आपरेशन लालगढ़ के दौरान सुरक्षा बलों को माओवादियों की ओर से किसी खास विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है। एकाध बारूदी सुरंगों के विस्फोट के अलावा कभी-कभार दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी हुई है। सुरक्षा बलों को अब तक इलाके से किसी भी बड़े माओवादी नेता को गिरफ्तार करने में कामयाबी नहीं मिली है। और तो और बार-बार गिरफ्तारी की बात कहने के बावजूद सरकार अब तक पुलिस अत्याचार विरोधी समिति के नेता छत्रधर महतो तक भी नहीं पहुंच सकी है। जबकि महतो लालगढ़ में ही है और मजे से मीडिया के लोगों से बातचीत कर रहे हैं। लेकिन सरकार इंतजार करो व देखो की नीति पर आगे बढ़ रही है। उसे डर है कि कहीं महतो की गिरफ्तारी से इलाके के आदिवासी नहीं भड़क पड़ें।
सुरक्षा बलों के बिना किसी खास प्रतिरोध के एक के बाद एक गांवों पर कब्जे से माओवादियों की रणनीति साफ है। वे पीछे हट गए हैं। उनको पता है कि सुरक्षा बल अनंतकाल तक इलाके में नहीं रह सकते। देर-सबेर उनको लौटना ही है। उसके बाद माओवादी भी इलाके में लौट जाएंगे और समस्या जस की तस रहेगी। गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन भी इस हफ्ते लालगढ़ का दौरा करने के बाद कहा था कि राज्य सरकार केंद्र सरकार से केंद्रीय बलों को जुलाई के आखिर तक इलाके में रखने का अनुरोध करेगी। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर केंद्रीय बलों के लौटने के बाद लालगढ़ का क्या होगा। क्या राज्य पुलिस वहां माओवादियों का मुकाबला कर सकेगी। इसकी उम्मीद कम ही है। यानी लालगढ़ एक बार फिर पहले वाली हालत में ही लौट जाएगा।
राज्य सरकार के निर्देश पर अब इलाके में विकास योजनाएं चलाने के लिए तमाम आला अधिकारी इलाके का दौरा कर रहे हैं। गृह सचिव ने भी अपने दौरे के दौरान माना कि लालगढ़ में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सिंचाई जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। सरकार ने अभ इलाके में विकास कार्य तेज करने की बात कही है। लेकिन अगर यही काम पहले किया गया होता तो लालगढ़ में हालात इतने नहीं बिगड़ते। इन पिछड़े जिलों में सरकार के कामकाज का पिछला रिकार्ड भी ठीक नहीं है। पांच साल पहले इसी जिले के आमलासोल में भूख से आदिवासियों के मरने की खबरों के सामने आने के बाद सरकार ने इलाके में कई विकास परियोजनाओं का एलान किया था जिसमें आदिवासियों को सस्ती दर पर चावल और गेहूं देने की भी बात कही गई थी। लेकिन बीते पांच वर्षों में इनमें से ज्यादातर योजनाएं कागजों में ही सिमटी रही हैं और आमलासोल की हालत जस की तस है।
यह आसान-सी बात राज्य सरकार भी समझ रही है कि केंद्रीय बलों की वापसी के बाद लालगढ़ फिर माओवादियों का सुरक्षित बसेरा बन जाएगा। दूसरी ओर, इलाके के लोगों को माओदावियों से काटने की किसी ठोस योजना पर मिल कर काम करने की बजाय अब राज्य के दोनों प्रमुख दलों यानी माकपा और तृणमूल कांग्रेस ने एक-दूसरे पर कीचड़ उचालने का खेल शुरू कर दिया है। माकपा तृणमूल पर माओवादियों की सहायता और समर्थन का आरोप लगा रही है तो तृणमूल का कहना है कि माओवादी दरअसल माकपा के ही लोग हैं। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी का कहना है कि माकपा अब केंद्रीय बलों की सहायता से इलाके पर दोबारा अपना कब्जा करने का प्रयास कर रही है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लालगढ़ समस्या अब धीरे-धीरे एक अंधी सुरंग में बदलता जा रहा है। इसका दूसरा छोर ने तो राज्य की वाममोर्चा सरकार को सूझ रहा है और न ही वहां बीते 20-22 दिनों से माओवादियों के खिलाफ अभियान चला रहे सुरक्षा बलों को। परयवेक्षकों का कहना है कि इलाके में बड़े पैमाने पर विकास परियोजनाओं को लागू कर और लोगों को रोजगार मुहैया कर ही उनको माओवादियों से काटा जा सकता है। लेकिन इसमें लंबा वक्त लगेगा। ऐसे में निकट भविष्य में लालगढ़ समस्साय के स्थाई समाधान की उम्मीद कम ही है।
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यदि वहाँ की जनता ने स्वशासन सीख लिया है तो सरकार उस का मुकाबला किसी हालत में नहीं कर सकती। माओवादी वहाँ रहें या चले जाएँ इस से क्या फर्क पड़ता है। एक दिन आदिवासियों को स्वशासन देना ही पड़ेगा।
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