Wednesday, June 10, 2009

लाल बंगाल में वाम दल बेहाल

कोलकाता, 8 मार्च। पश्चिम बंगाल में आम चुनावों से पहले वाममोर्चा भंवर में है। इससे पहले कभी किसी चुनाव के मौके पर उसे इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों से नहीं जूझना पड़ा था। बीते साल हुए पंचायत चुनावों के बाद से ही उसे जो झटके लगने शुरू हुए थे उसका सिलसिला नंदीग्राम से होकर अभी विष्णुपुर पश्चिम विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव तक जारी रहा है। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के आपसी तालमेल ने यह सीट माकपा से छीन ली। इस नतीजे का लोकसभा के चुनावी नतीजे पर भले कोई असर नहीं पड़े, वाममोर्चा के नेताओं का आत्मविश्वास तो डगमगा ही गया है। अपने मजबूत संगठन और विपक्षी दलों के बिखराव का फायदा उठा कर हर चुनाव में लाल झंडा गाड़ने वाला वाममोर्चा पहली बार फंसा नजर आ रहा है। इसलिए अब माकपा और उसके घटक दलों ने नए चेहरों को तरजीह देने का फैसला किया है। इस असमंजस के चलते ही वाममोर्चा को अपने उम्मीदवारों की सूची चुनावी की तारीखों के एलान के बाद करनी पड़ी। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। वह हर बार चुनावों के एलान के महीने भर पहले से ही अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करता रहा है।
माकपा के वरिष्ठ नेता ज्योति बसु तक मान चुके हैं कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के हाथ मिलाने पर उनकी पार्टी को कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। उन्होंने कहा है कि इस चुनाव में पार्टी को कड़ी लड़ाई का सामना करना पड़ेगा और हो सकता है कि 2004 के चुनाव में मिली कुछ सीटें हाथ से निकल जाएं। अगर बसु जैसा नेता यह कबूल करता है तो मानना चाहिए कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच होने वाले तालमेल से माकपा सचमुच चिंतित है। बीते लोकसभा चुनाव के आंकड़े भी उसकी चिंता की पुष्टि करते हैं। ज्यादा नहीं तो कोई आधा दर्जन सीटें तो ऐसी हैं ही जहां कांग्रेस और तृणमूल को पिछली बार मोर्चा के विजयी उम्मीदवारों से ज्यादा वोट मिले थे।
वाममोर्चा अबकी अपने घर में अपनी ही पैदा की हुई समस्याओं से जूझ रहा है। अभियान तो हर बार वह सबसे पहले शुरू करता था, लेकिन इस बार उसे सिंगुर, नंदीग्राम, गोरखालैंड आंदोलन, लालगढ़, बीते साल हुए पंचायत चुनावों के नतीजे जैसे मुद्दों व सवालों से जूझना पड़ रहा है। मोर्चा जिन समस्याओं से घिरा है, उसमें विपक्ष की बजाय उसी का हाथ ज्यादा है। यानी ज्यादातर मुसीबतें उसने खुद ही पैदा की हैं। मोर्चा के सबसे बड़े व ताकतवर घटक माकपा ने ही उसे लालगढ़ और गोरखा बनाम आदिवासी के झगड़े में फंसाया है। सिंगुर से पहले तक जिस राज्य में औद्योगिकीकरण अभियान की धूम मची थी, वहां अब इसका कोई नामलेवा तक नहीं मिल रहा है। सिंगुर से टाटा मोटर्स के कामकाज समेटने के बाद यह मुद्दा लगभग ठप हो गया है। वैसे, मोर्चा ने इससे पांव पीछे नहीं खींचे हैं। लोकसभा चुनावों में औद्योगिकीरकरण उसका सबसे अहम मुद्दा है। सिंगुर, लालगढ़, गोरखालैंड और दिनहाटा में पुलिस फायरिंग जैसे मुद्दों पर मोर्चा के घटक दलों के बीच भी मतभेद उभरे। लेकिन इससे माकपा की नीतियों पर कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। दरअसल, मोर्चा का मतभेद कागजी ही होता है। घटक दलों के नेता मीडिया में तो अपने मतभेदों के बारे में टिप्पणी करते हैं, लेकिन वाममोर्चा की बैठक में माकपा की घुड़की के आगे वे मुंह नहीं खोल पाते।
माकपा और मोर्चा का शीर्ष नेतृत्व उक्त मुद्दों के असर को लेकर चिंतित है।
वामपंथियों की चिंता यह है कि अपने काडरों की गलतियों की वजह से उसने नंदीग्राम व लालगढ़ जैसे जो भस्मासुर पैदा किए हैं, उनका लोकसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा। बीते पंचायत चुनावों और नंदीग्राम व विष्णुपुर पश्चिम विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने काफी हद तक भविष्य का संकेत तो दे ही दिया है। लेकिन अब मोर्चा नेतृत्व इसकी काट की तलाश में जुटा है। दागी नेताओं के चलते चुनावी नतीजों पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर को ध्यान में रखते हुए ही माकपा ने नए चेहरों को टिकट देने का फैसला किया है। चार महीने से ज्यादा बीत जाने के बावजूद लालगढ़ में बारूदी सुरंग के विस्फोट से शुरू हुई समस्या खत्म होने की बजाय लगातार उलझती ही जा रही है। इसके अलावा दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में साल भर से जारी आंदोलन की लपटें अब डुआर्स व तराई के मैदानी इलाकों तक भी पहुंचने लगी हैं। इलाके में हिंसा, आगजनी व बंद तो अब आम हो गया है।
बीते साल के आखिर में नंदीग्राम और अब फरवरी के आखिर में विष्णुपुर पश्चिम विधानसभा सीट पर हार से मोर्चा नेतृत्व सकते में है। दरअसल, वामपंथियों को हार का उतना मलाल नहीं है जितना हार के अंतर का। वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में भाकपा को मोहम्मद इलियास ने नंदीग्राम सीट पांच हजार वोटो के अंतर से जीती थी, लेकिन अब उसी सीट पर भाकपा का उम्मीदवार चालीस हजार वोटों से हार गया। विष्णुपुर में पिछली बार माकपा की जीत का अंतर लगभग चार हजार रहा था, लेकिन अबकी उसकी हार का अंतर तीस हजार से ज्यादा रहा। यहां तृणमूल कांग्रेस के समर्थन में कांग्रेस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली थी। माकपा के प्रदेश सचिव विमान बोस, जो वाममोर्चा के अध्यक्ष भी हैं, ने माना है कि संगठन में कमजोरी भी हार के इस विशाल अंतर की एक प्रमुख वजह है। वे कहते हैं कि हम आम लोगों तक पहुंचने में नाकाम रहे। बोस का कहना है कि विपक्ष के गठजोड़ के चलते विष्णुपुर में हार तो तय ही थी। उन्होंने यह भी माना है कि माकपा वहां लोगों से बेहतर संपर्क कायम करने में नाकाम रही है।
दो सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों और कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच प्रस्तावित तालमेल की खबरों ने सिर्फ माकपा ही नहीं, मोर्चा के दूसरे घटक दलों के माथे पर भी चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं। भाकपा के प्रदेश सचिव मंजू कुमार मजुमदार कहते हैं कि राज्य के आधे वोटर वामविरोधी हैं। दोनों विपक्षी दलों के गठजोड़ के चलते अगर वोटरों का कुछ हिस्सा भी पाला बदलता है तो वाममोर्चा को नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं। उनको उम्मीद है कि लोग सोच-समझ कर ही वोट डालेंगे। फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी ने भी इस गठजोड़ को ध्यान में रखते हुए अपने कई उम्मीदवारों को बदल दिया है।
यह पहला मौका है जब ज्योति बसु से लेकर तमाम वामपंथी नेता बेहिचक कबूल कर रहे हैं कि यह चुनाव वाममोर्चा के लिए काफी कठिन होंगे। पहले कभी माकपा अपनी कमजोरियों को सार्वजनिक तौर पर कबूल नहीं करती थी। इसबार, यह उसकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। इन तमाम समस्याओं से निपट कर अपना अभियान बेहतर तरीके से चलाने के मकसद से माकपा ने पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की भी सहायता ली है। अपनी बढ़ती उम्र व बिगड़ते स्वास्थ्य की वजह से बसु अब पार्टी के कार्यक्रमों में शिरकत तो नहीं करते। लेकिन मोर्चा ने उनसे कई बयान दिलवाए हैं। उनमें बसु ने विपक्षी दलों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि बंगाल में जो वाममोर्चा का विरोध कर रहे हैं, उनके पास न तो कोई योजना है और न कोई नीति। वे सत्ता में आने के लिए बन्दूक का सहारा ले रहे हैं।
कुछ सीटें तो सचमुच माकपा के लिए सिरदर्द बन गई हैं। बीते लोकसभा चुनाव में हुगली जिले की श्रीरामपुर सीट इस बात की मिसाल है कि विपक्षी दलों के बिखराव ने उसकी जीत में कितनी अहम भूमिका निभाई थी। उस सीट पर माकपा उम्मीदवार एस.चटर्जी को कुल 4.04 लाख वोट मिले थे जबकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवारों को कुल 5.09 लाख। इस बार तो विपक्ष को इसी जिले के सिंगुर में जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन का भी फायदा मिलेगा। इसी तरह पूर्व मेदिनीपुर जिले के तमलुक में माकपा के लक्ष्मण सेठ लगभग 50 हजार वोटों के अंतर से जीते थे। अब नंदीग्राम कांड के बाद इलाके की तमाम पंचायतों और नंदीग्राम विधानसभा सीट पर विपक्ष का कब्जा है। ऐसे में इस सीट को बचाने के लिए माकपा को काफी पसीना बहाना पड़ सकता है। इनके अलावा बालूरघाट, नवद्वीप, बारासात, यादवपुर और कोलकाता उत्तर लोकसभा सीटों पर भी बीते लोकसभा चुनावों में विपक्ष को मिले कुल वोट वाममोर्चा उम्मीदवारों को मिले वोटों से कहीं ज्यादा थे। अबकी इन सीटों पर भारी खतरा मंडरा रहा है।
कांग्रेस को पिछली बार छह सीटें मिली थीं। वह अबकी इन छहों पर अपना कब्जा बनाए रखने के अलावा इस सूची में कम से कम दो और सीटें जोड़ने का प्रयास कर रही है। तृणमूल कांग्रेस को बीते चुनाव में महज एक सीट मिली थी। पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी ही अपनी दक्षिण कोलकाता सीट को बचाने में कामयाब रही थी। इस बार ममता के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। परिसीमन के बाद दक्षिण 24-परगना जिले के कई ऐसे हिस्से भी इस सीट के तहत शामिल हो गए हैं जहां बीते पंचायत चुनावों में तृणमूल ने माकपा को पटखनी दी थी। ममता दावा भले पंद्रह से बीस सीटों का करें, उनको कम से कम आधा दर्जन सीटों की उम्मीद तो है ही।
इन चुनावों में बंगाल में मुद्दा तो एक ही रहेगा। जमीन का। इसी मुद्दे को अपने-अपने तरीके से भुनाते हुए सत्तारुढ़ वाममोर्चा और विपक्ष, दोनों चुनाव मैदान में उतरे हैं। मोर्चा के अभियान में जहां खेती के साथ ही औद्योगिकीकरण पर जोर दिया जा रहा है, वहीं विपक्ष उद्योगों के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ प्रचार कर रहा है। वाममोर्चा सरकार ने सिंगुर से टाटा मोटर्स के कारोबार समेटने के बाद लगभग पांच महीने तक चुप्पी साध रखी थी। लेकिन चुनाव सिर पर आते ही उसने एक सप्ताह के भीतर ही दर्जनों परियोजनाओं का शिलान्यास कर दिया। इनमें से कई परियोजनाएं तो ऐसी हैं जो शायद इसके बाद होने वाले लोकसभा चुनावों तक भी पूरी नहीं होंगी। इसी तरह सरकार अचानक अपने कर्मचारियों, गरीबों और अल्पसंख्यकों की हितैषी बन गई। उनके लिए खजाने का मुंह खोल दिया गया। राशन के जरिए दो रुपए किलो की दर से चावल बांटना हो या फिर अल्पसंख्यकों को वजीफा देना, मौजूदा प्रतिकूल परिस्थिति से निपटने के लिए वह हर दांव आजमा चुकी है। इन उपायों को असर तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के समय सामने आएगा। फिलहाल तो वामपंथियों को दिन में ही तारे नजर आ रहे हैं।

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