Friday, June 5, 2009

शांति को तरसता शांतिनिकेतन

शांतिनिकेतन का चेहरा तेजी से बदल रहा है। कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में बोलपुर नामक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक गांव में जब इसकी स्थापना की थी तब यह अपने नाम को सार्थख करता था। लेकिन अब यह अपने नाम को ही मुंह चिढ़ाता नजर आ रहा है। बीते एक-डेढ़ दशक के दौरान इस कस्बे के शहरीकरण की प्रक्रिया इतनी तेज हो गई है कि इसमें शांतिनिकेतन को तलाशना मुश्किल है। यहां अब सब कुछ है सिवाय शांति के। अभी दस साल पहले तक यहां किसी भी घर की खिड़की से सरसों के पीले फूलों से भरे खेत नजर आते थे। लेकिन अब वहां उन खेतों में फूलों की जगह बहुमंजिली इमारतें उग आई हैं।
बीते खास कर 10 वर्षों में शांतिनिकेतन का चेहरा ही बदल गया है। कभी गांव जैसा रहा यह कस्बा अब शहरीकरण की पूरी चपेट में आ गया है। जाने-माने चित्रकार जोगेन चौधुरी कभी अपने बागान में पक्षियों के कलरव के बीच चित्र बनाया करते थे। लेकिन अब यह कलरव कभी सुनाई नहीं देता। इसकी जगह अब वाहनों के शोर ने ले ली है। अब स्थानीय लोगों ने शांतिनिकेतन की हवा और पानी को प्रदूषण से बचाने की पहल करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की है।
कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर ने जिस माहौल को ध्यान में रखते हुए कोलकाता से लगभग डेढ़ सौ किमी दूर बोलपुर में शांतिनिकेतन की स्थापना की थी, वह माहौल बीते तकरीबन एक दशक में तेजी से बदला है। किसी जमाने में अपनी शांति और प्रदूषणमुक्त माहौल और विश्वभारती विश्विद्यालय के लिए दुनिया भर में मशहूर रहे शांतिनिकेतन की छवि अब पर्यटकों के सैरगाह के तौर पर विकसित हो रही है। क्रांकीट के तेजी से पसरते जंगल में इसका असली ग्रामीण स्वरूप कहीं खो गया है। कच्चे मकानों की जह अब रोज नए सेटेलाइट टाउनशिप बन रहे हैं। राजधानी कोलकाता के धनाढय लोगों ने यहां अपने फार्म हाउस व पक्के मकान बनवा लिए हैं जहां वे महीने में दो-चार दिन अपने मित्रों व परिजनों के साथ छुट्टियां मनाने चले आते हैं। बोलपुर स्टेशन से बाहर निकलते ही अब या तो क्रांकीट की बड़ी-बड़ी इमारतें नजर आती हैं या फिर होटलों के बोर्ड। बाहरी लोगों की आवाजाही बढ़ने से लाज व होटलों की तादाद और कमाई बढ़ी है लेकिन साथ ही इस छोटे से शहर का प्रदूषण भी तेजी से बढ़ा है। यह कस्बा तेजी से शहर में बदल रहा है। सबसे बड़ी दिक्कत सीवरेज की है। यह कस्बा न तो पंचायत समिति के अधीन है और न ही यहां कोई नगरपालिका है।
रवीद्रनाथ के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1863 में सात एकड़ जमीन पर एक आश्रम की स्थापना की थी। वहीं आज विश्वभारती है। रवीद्रनाथ ने 1901 में सिर्फ पांच छात्रों को लेकर यहां एक स्कूल खोला। इन पांच लोगों में उनका अपना पुत्र भी शामिल था। 1921 में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने वाले विश्वभारती में इस समय लगभग छह हजार छात्र पढ़ते हैं। इसी के ईर्द-गिर्द शांतिनिकेतन बसा था। बोलपुर रेलवे स्टेशन से इस विश्व विद्यालय तक तीन किमी लंबी पतली सड़क पर पहले जहां सिर्फ रिक्शे नजर आते थे वहीं अब तिपहिया स्कूटरों और कारों की भीड़ लगी रहती है।
अब इसे शहरीकरण के चंगुल से बचाने की पहल के तहत स्थानीय नागरिकों ने शांतिनिकेतन अंचल आवासिक समिति का गठन किया है। समिति ने इस इलाके का पर्यावरण, स्वरूप और धनी सांस्कृतिक विरासत बचाने के लिए कलकत्ता हाईकोरट में एक याचिका भी दायर की है। बीरभूम जिले में स्थित शांतिनिकेतन तक कोलकाता से मजह ढाई घंटे के ट्रेन के सफर में पहुंचा जा सकता है। समिति के सुशांत टैगोर बताते हैं कि शांतिनिकेतन को व्यावसायिक नजरिए से कांक्रीट के जंगल में बदलने की सुनियोजित साजिश हो रही है। अब न्यायापालिका ही इसे बचा सकती है। कविगुरू ने अपनी आत्मकथा जीवन-स्मृति और आश्रमेर रूप ओ विकास में जिस खोवाई इलाके का बार-बार जिक्र किया था वह अब झोपड़ियों से पट गया है और जल्दी ही वहां नौ एकड़ जमीन पर एक आवासीय परियोजना शुरू होने वाली है। इसके अलावा वहां अब डुप्लेक्स मकानों की लंबी कतारें भी नजर आने लगी हैं। स्थानीय लोग
कहते हैं कि अगर तेजी से हो रहे निर्माणों पर कोई अंकुश नहीं लगाया गया तो दस साल बाद यह जगह रहने लायक नहीं रह जाएगी।
स्थानीय लोग मौजूदा हालात के लिए श्रीनिकेतन शांतिनिकेतन विकास प्राधिकरण (एसए सडीए) को जिम्मेवार ठहराते हैं। उनका आरोप है कि प्राधिकरण को सिर्फ मुनाफा कमाने की चिंता है,स्थानीय विरासत को बचाने की नहीं। प्राधिकरण अब यहां लाहाबंद में 24 एकड़ जमीन पर एक मनोरंजन पार्क बनाने में जुटा है। इसे एक निजी कंपनी को सौंपा गया है। इस जमीन पर 17 एकड़ में फैला एक तालाब भी था। लोग बताते हैं कि इस तालाब के किनारे हर साल प्रवासी पक्षियों की भीड़ जुटती थी लेकिन अब उन्होंने अपना मुंह मोड़ लिया है। बीते कुछ वर्षों से दूर-दराज से आने वाले पक्षियों की तादाद काफी कम हो चुकी है। लोकसभा अध्यक्ष और माकपा सांसद सोमनाथ चटर्जी ही उक्त प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे हैं। उसके गठन के बाद बीते साल इस्तीफा देने तक। प्राधिकरण के एक अधिकारी कहते हैं कि हमने तो मनमाने तरीके से होने वाले निर्माण पर अंकुश लगाया है। प्राधिकरण को अदालतों में कई मामलों पर काफी रकम खर्च करनी पड़ रही है लेकिन हम अपना काम जारी रखेंगे। विश्वभारती से चार किमी दूर प्रांतिक रेलवे स्टेशन के पास अब कई नए रिसार्ट और सोनार तरी नामक आवासीय परियोजनाएं तैयार हो गई हैं।
लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जो विकास को सही मानते हैं। विश्वभारती के वाइस-चांसलर सुजीत बसु कहते हैं कि अब हर जगह बदलाव की लहर चल रही है और शांतिनिकेतन भी कोई अपवाद नहीं है। वे कहते हैं कि आखिर हम घड़ी की सुईयों को उल्टा तो नहीं घुमा सकते न। विश्वभारती में पहले यह अलिखित परंपरा थी कि शांतिनिकेतन में कोई भी मकान कविगुरू के दोमंजिले मकान उदयन से ऊंचा नहीं होना चाहिए। लेकिन अब यह नियम भी बदल रहा है। अब हर मकान में तीन मंजिल की नींव देने की बात कही जा रही है।
विश्वभारती भी हाल के दिनों में गलत वजहों से सुर्खियों में रहा है। कभी टैगोर के नोबेल पदक की चोरी की वजह से तो कभी प्रेम प्रसंग के चलते परिसर में होने वाली हत्याओं के। इन घटनाओं ने विश्वविद्यालय में सुरक्षा व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
लेकिन क्या शांतिनिकेतन को शहर में बदलने से बचाना संभव है? इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। लेकिन बाहर से यहां आकर बसने वालों को यहां मकान बनवाने में कुछ भी गलत नहीं लगता। 65 वर्ष के राजा भट्टाचार्य ने बीते साल ही यहां एक फ्लैट खरीदा है। वे सवाल करते हैं कि अगर बाकी लोग यहां मकान खरीद और बनवा सकते हैं तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?यानी अब शांतिनिकेतन को शांति के लिए तरसना ही होगा।

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