Sunday, September 5, 2010

चुनाव, प्रेस क्लब, पत्रकार

यह चुनाव भी बड़ी दिलचस्प चीज है. वह चाहे लोकसभा का हो या फिर प्रेस क्लब का. बीते आठ-दस दिनों से कोलकाता में प्रेस क्लब के चुनावों की गहमागहमी रही. सुबह से लेकर देर रात तक उम्मीदवारों के फोन, संदेश और ईमेल आते रहे. गुवाहाटी में प्रेस क्लब का सदस्य बना था. तब वहां बस बना ही था क्लब. वहां से कोलकाता आए दस साल से ज्यादा हो रहे हैं. लेकिन यहां के माहौल को देखते हुए कभी मन में सदस्यता लेने की इच्छा ही नहीं हुई. शाम ढलते ही पीने वालों की भीड़ जुटने लगती है. ऐसा नहीं है कि मैं शराब नहीं छूता. लेकिन अब तक न तो इसका आदी हुआ हूं और न ही कभी देर रात कर प्रेस क्लब में बैठ कर पीने के बाद लड़खड़ाते कदमों से घर लौटने की कोई इच्छा मन में उभरी है. दफ्तर से निकलने के बाद सीधे मेट्रो पकड़ता हूं. घर के लिए. यही वजह है कि अपने साथ काम कर चुके कई लोगों के कहने और दबाव डालने के बावजूद बीते साल तक इसका सदस्य नहीं बना. लेकिन बीते साल मार्च में आखिर बुझे मन से ही मैंने भी क्लब की सदस्यता ले ही ली. बीते अगस्त में पहली बार चुनाव में वोट डाला. उसके बाद कभी दोबारा सूरज ढलने के बाद क्लब का रुख नहीं किया था.
इस साल यह चुनाव चार सितंबर को थे. लेकिन अगस्त के आखिरी सप्ताह से ही लगातार फोन आने लगे--भाई साहब, याद रखिएगा. सर, भूले तो नहीं हैं न. सर, मेरा नाम याद है न अमुक नंबर पर है. इनमें से ज्यादातर तो ऐसे थे जिनसे कभी औपचारिक परिचय नहीं रहा. कई बार तो हंसी भी आती थी यह सोच कर कि अरे भाई, जब तुमसे कोई परिचय ही नहीं है तो भूलने या याद करने का सवाल कहां से पैदा हो गया. खैर, प्रेस क्लब पहुंचा तो दरवाजे से ही उम्मीदवारों ने घेरना शुरू कर दिया. वहां यह देख कर और अच्छा लगा कि कल तक फोन पर याद रखने की बात कहने वाले शक्ल देख कर पहचान तक नहीं सके. उनके शब्दों में मैं प्रेस क्लब नियमित जाने वालों में नहीं था. सो, बेचारे शक्ल कैसे याद रखें. फोन नंबर तो प्रेस क्लब की डायरेक्टरी में दर्ज है. इसलिए वहां से मिल गया. दूसरों के परिचय कराने पर कुछ उम्मीदवारों ने लपक कर पर्ची पकड़ा दी.
मतदान का समय शाम छह बजे तक था. वोट देने के बाद दफ्तर चला गया और रात को जब खाने-पीने के लिए लौटा तो तिल धरने की जगह नहीं थी. कई लोग आकंठ डूब चुके थे. कुछ डूबने की तैयारी में थे. कुछ पहले राउंड में हार के गम में पी रहे थे तो कुछ बढ़त हासिल करने की खुशी में.
यह शराब भी बड़ी अजीब चीज है. इसे पीने तक तो ठीक है. लेकिन जब यह पीने लगती है तो लोग इसके लिए अपना दीन-ईमान और इज्जत तक घोल कर पी जाते हैं. किसी शाम क्लब में अगर आप हाथ में गिलास लेकर बैठें तो ज्यादा नहीं तो दो-चार लोग तो यह कहते हुए आपकी मेज पर आ ही जाएंगे कि अरे भाई साहब आपने वह खबर क्या जबरदस्त लिखी थी. कौन-सी खबर यह पूछने पर बगलें झांकते हुए कहते हैं कि अरे वही जो पहले पेज पर छपा था. यह बात अलग है कि उन्होंने शायद कभी कोई ऐसी खबर नहीं देखी होगी. अगर आपने बिठा लिया तो कहेंगे कि एक पैग मिलेगा. प्रेस क्लब नियमित जाने वाले ऐसे किस्से सुनाते रहते हैं. कभी कोई रिटायर पत्रकार मिल गया तो आपको भागने की जगह नहीं मिलेगी. वह अपने इतने संस्मरण सुनाएगा कि चाहे पूरी बोतल डकार लें, नशा हो ही नहीं सकता.
अब किस्सों का क्या? तेजी से बदलते इस दौर में कई सहयोगी कहां से कहां पहुंच गए हैं. गुवाहाटी में साथ या प्रतिद्वंद्वी अखबारों में काम कर चुके कई सज्जन इनपुट और आउटपुट हेड बन गए हैं तो कुछ लाखों में कमा रहे हैं. यह सब किसी किस्से-कहानी से कम थोड़े लगता है. अभी हाल में एक पुराने सहयोगी ने फोन किया-फलां चैनल में आउटपुट हेड बन कर जा रहा हूं. बहुत मोटा पैकेज है. जहां तक मुझे याद है, जब तक मैंने देखा था उनका इनपुट घर के लिए सब्जियां खरीदना होता था और आउटपुट अपने दो महीने के बेटे को नहलाना-धुलाना और नैपी बदलना. बाकियों में प्रतिभा रही होगी, लेकिन इन सज्जन को तो मैंने दो-ढाई साल तक देखा था. जब भी मिले हमेशा बदहवास से, हड़बड़ी में. बाद में पता चला कि पत्नी एक-एक मिनट का हिसाब लेती थी कि इतनी देर कहां लगा दी. मुन्ना कब से रो रहा है. अब ऐसे इनपुट और आउटपुट प्रमुख होंगे तो चैनल की प्रगति तो तय ही है.
कभी साथ रहे एक सज्जन तो इससे भी आगे बढ़ गए. एक प्रकाशन कंपनी के मालिक की बेटी से शादी कर खुद उस कंपनी के मालिक बन गए. जिनको कभी एक पैरा शुद्ध लिखना नहीं आता था वो अब दूसरों के लिखे में हजार किस्म की गलतियां निकालते रहते हैं. कभी मेरे तहत ट्रेनी के तौर पर काम करने वाले एक अन्य सहयोगी कभी-कभार फोन कर बताते हैं कि आपकी वह रिपोर्ट अच्छी थी. लेकिन उसमें यह एंगिल भी होता तो वह लाजवाब बन जाती. सबकी सुन लेता हूं. दिल्ली में नहीं रहता न. इसलिए लेखन में गलतियां स्वाभाविक हैं. सीख रहा हूं. कुछ प्रखर लोग इसे अंगुर खट्टे हैं....वाली कहावत दोहराते हुए कंधे भी उचका सकते हैं. मैंने अभी कंधे उचकाना नहीं सीखा है. शायद कभी दिल्ली जाने पर सीख लूं. तब तक तो जहां हूं जैसा हूं के आधार पर ही गाड़ी चलती रहेगी.

Wednesday, August 11, 2010

शिरीन ने जीती बुर्के के खिलाफ जंग


चार महीनों तक चली खींचतान के बाद आखिर शिरीन मिद्या ने बुर्का पहन कर विश्वविद्यालय में पढ़ाने के छात्र संघ के फरमान के खिलाफ जंग जीत ली है. अब आलिया विश्वविद्यालय प्रबंधन ने उनको बिना बुर्का पहने ही मुख्य परिसर में पढ़ाने की अनुमति दे दी है. अब तक शिरीन विश्वविद्यालय के साल्टलेक परिसर में स्थित लाइब्रेरी में काम कर रही थी. शिरीन ने अब विश्वविद्यालय में बिना बुर्के के पढ़ाने के लिए अपनी सुरक्षा की मांग की है.
राज्य का यह पहला मुस्लिम विश्वविद्यालय वर्ष 2008 में स्थापित हुआ था. विश्वविद्यालय के संविधान में बुर्का पहन कर पढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं है. लेकिन मदरसा छात्र संघ ने सभी शिक्षिकाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर रखा है. शिरीन ने इसी साल मार्च में अतिथि लेक्चरर के तौर पर नौकरी शुरू की थी. अप्रैल के दूसरे सप्ताह में ही छात्र संघ ने उनसे कह दिया कि वे बिना बुर्का पहने छात्रों को नहीं पढ़ा सकती. विश्वविद्यालय की बाकी सात शिक्षिकाओं ने तो यह फरमान मान लिया था. लेकिन शिरीन ने इसके आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया था. इस मुद्दे पर विवाद रोकने के लिए विश्वविद्यालय प्रबंधन ने उनको दूसरे परिसर में बनी लाइब्रेरी में भेज दिया था. लेकिन उनको वेतन लेक्चरर का ही मिलता था.
अब जुलाई के आकिरी सप्ताह से नया शिक्षण सत्र शुरू होने के बाद शिरीन ने वाइस-चांसलर से मुख्य परिसर में पढ़ाने की अनुमति देने का अनुरोध किया था. उन्होंने 31 जुलाई को वाइस-चांसलर को एक ई-मेल भेजा था और फिर दो दिन बाद उनको एक लिखित ज्ञापन सौंपा था. उसके एक सप्ताह बाद विश्वविद्याल प्रबंधन ने उनको पढ़ाने की अनुमति दे दी है.
शिरीन कहती है, ‘विश्वविद्यालय प्रबंधन ने मुझे पढ़ाने की अनुमति तो दे दी है. लेकिन फिलहाल इसके लिए कोई तारीख नहीं बताई है कि मैं कब से मुख्य परिसर में पढ़ाने जा सकती हूं.’ वह कहती है कि पढ़ाने के लिए विश्वविद्यालय जाने पर मुझे सुरक्षा मिलनी चाहिए ताकि कोई अप्रिय स्थिति नहीं पैदा हो.
इस मामले को तूल पकड़ते देख कर अब छात्र संघ ने भी कहा है कि शिक्षिका इस बात के लिए बिल्कुल स्वतंत्र है कि उसे क्या पहनना है. पश्चिम बंगाल मदरसा छात्र संघ के सचिव हसनुर जमान मानते हैं कि विश्वविद्यालय में ड्रेस कोड जैसा कोई नियम नहीं है. जमान के मुताबिक, मिद्या बिना वजह ही मीडिया के पास गई और इसे एक मुद्दा बना दिया.
चार महीने से यह मामला ऐसे ही चल रहा था. लेकिन मीडिया में इसकी खबरें आने के बाद सरकार की नींद टूटी और उसने इस मामले की जांच के आदेश दिए. अल्पसंख्यक मामलों और मदरसा शिक्षा के प्रभारी मंत्री अब्दुस सत्तार ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए वाइस-चांसलर से कहा कि मिद्या को पढ़ाने की इजाजत दी जानी चाहिए. सत्तार कहते हैं, ‘हम पहले ही यह नोटिस दे चुके हैं कि विश्वविद्यालय में कोई ड्रेस कोड नहीं है.’
विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार शेख अशफ़ाक अली कहते हैं, ‘अब शिरीन पहले की तरह ही कलकत्ता मदरसा परिसर में छात्रों को पढ़ाएगी. इस समय दाखिले की प्रक्रिया चल रही है. इसलिए शिरीन के वहां जाकर पढ़ाने में कोई समस्या नहीं है.’
शिरीन को बुर्का पहनने पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन कहती हैं कि वह ऐसा अपनी मर्जी से करेंगी, किसी की जोर-जबरदस्ती से नहीं. फिलहाल छात्र संघ के फ़रमान के
खिलाफ पहली जंग तो उन्होंने जीत ही ली है.

Wednesday, August 4, 2010

ताकि हर आंगन में गूंजे किलकारी


आधुनिकता के इस दौर में भी भारतीय समाज में बांझपन को सबसे बड़ा अभिशाप समझा जाता है. अब टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के रूप में इस अभिशाप से मुक्ति दिलाने के साधन तो मौजूद हैं. लेकिन इस तरीके से इलाज अब भी आम लोगों की पहुंच से बाहर ही है. ऐसे में कोलकाता के एक चिकित्सक ने यह तकनीक गरीबों तक पहुंचाने की दिशा में एक पहल की है.
कोलकाता में टेस्ट ट्यूब तकनीक के अगुवा और घोष दस्तीदार इंस्टीट्यूट फार फर्टिलिटी रिसर्च के निदेशक डा. सुदर्शन घोष दस्तीदार ने इस दिशा में पहल करते हुए रेल मंत्री ममता बनर्जी को एक पत्र लिखा है. उन्होंने अपने पत्र की प्रतियां केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और दूसरे संबंधित विभागों को भी भेजी हैं. वे केंद्र सरकार की भारतीय चिकित्सा शोध परिषद की ओर से कृत्रिम प्रजनन तकनीक पर गठित विशेषज्ञ समिति और यूरोपियन सोसाइटी आफ ह्यूमन रिप्रोडक्शन के भी सदस्य हैं. उन्होंने अपनी इस पहल के बारे में यहां पत्रकारों को इसकी जानकारी दी.
महानगर के विशेषज्ञों की राय में अब आईवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) यानी टेस्ट ट्यूब तकनीक से बच्चे पैदा करने के लिए भी काफी तादाद में विकसित देशों के लोग कोलकाता आ रहे हैं. यह हेल्थ टूरिज्म यानी स्वास्थ्य पर्यटन का नया पहलू है.भारतीय व खास कर कोलकाता के चिकित्सकों और उनकी काबिलियत के प्रति विदेशियों में आस्था बढ़ी है. इसके अलावा विदेशों के मुकाबले यह तकनीक यहां बेहद सस्ती है. विदेशों में जहां आईवीएफ तकनीक के जरिए गर्भधारण की प्रक्रिया पर 10 से 15 हजार डालर का खर्च आता है. वहीं यहां यह प्रक्रिया अधिकतम दो हजार डालर में पूरी हो जाती है.
डा. घोष दस्तीदार, जिन्होंने वर्ष 1981 में इनफर्टिलिटी के क्षेत्र में शोध की पहल की थी, ने तीन साल पहले आरुषा (तंजानिया) ने आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ही खासकर विकासशील देशों में गरीब तबके के लोगों तक आईवीएफ या टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक पहुंचाने की पुरजोर वकालत की थी. उन्होंने सम्मेलन में एक परचा भी पढ़ा था. उन्होंने बताया कि भारत जैसे विकासशील देश में तीन से चार करोड़ लोग बांझपन की बीमारी से पीड़ित हैं. समाज में उनको हेय नजरों से देखा जाता है. लेकिन अब यह साबित हो चुका है कि बांझपन एक बीमारी है. टेस्ट ट्यूब तकनीक से इसका इलाज संभव है. लेकिन यह तकनीक महंगी होने की वजह से ज्यादातर लोगों को इसका फायदा नहीं मिलता और वे इस अभिशाप को भोगने पर मजबूर हैं.
डा. घोष दस्तीदार ने पत्र में लिखा है कि टेस्ट ट्यूब तकनीक में इस्तेमाल होने वाले 60 से ज्यादा उपकरण विदेशों से आयात किए जाते हैं. अगर केंद्र सरकार महज गरीबों के लिए इन पर आयात ड्यूटी की छूट दे दे तो यह तकनीक बेहद सस्ती और आम लोगों के पहुंच के भीतर हो सकती है. वे बताते हैं कि टेस्ट ट्यूब तकनीक में 50 से 80 हजार तक का खर्च आता है. अगर केंद्र सरकार आयात ड्यूटी में छूट दे दे तो यह खर्च घट कर आधा रह जाएगा. वे कहते हैं कि अब बांझपन को बीमारी मानते हुए इसको आंशिक तौर पर चिकित्सा बीमा के तहत शामिल किया जाना चाहिए. इससे देश को बांझपन से काफी हद तक निजात मिल सकती है. उन्होंने कहा कि बांझपन का इलाज सस्ता होने की स्थिति में देश में चिकित्सा पर्यटन को भी काफी बढ़ावा मिलेगा. इससे विदेशी मुद्रा की आय बढ़ेगी.
उन्होंने पत्र में लिखा है कि बांझपन और इसके इलाज को राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में शामिल कर उसे तरजीह दी जानी चाहिए. तमाम सरकारी अस्पतालों में भी निजी क्षेत्र की सहायता से टेस्ट ट्यूब तकनीक की शुरूआत करनी चाहिए ताकि समाज के गरीब व कमजोर तबके के लोग इसका फायदा उठा सकें. फिलहाल एम्स के अलावा देश के किसी भी सरकारी अस्पताल में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है.
डा. घोष दस्तीदार ने बताया कि अब विश्व बैंक समेत कई संगठन विकासशील देशों में कम खर्च में आईवीएफ तकनीक को बढ़ावा देने वाली योजनाओं को सहायता देने में दिलचस्पी ले रहे हैं. उनका प्रस्ताव है कि धनी लोगों से तो पूरी रकम ली जाए. लेकिन गरीबों के लिए संबंधित उपकरणों के आयात में तमाम करों में छूट दी जाए.
घोष दस्तीदार के संस्थान ने अब ऐसे मरीजों के लिए मुफ्त सलाहकार सेवा भी शुरू की है. इसके लिए sudarsan.ivf@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Thursday, July 15, 2010

वे दिन ही सबसे अच्छे थे

पत्रकारिता में लगभग 25 साल पूरे करने के बाद जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि पूर्वांचल प्रहरी में बिताए दिन ही सबसे अच्छे थे. शुरूआती दिनों में जो टीम और टीम भावना बनी, वह आज कल दुर्लभ ही है. जाने कहां-कहां से आए लोग बहुत जल्द एक-दूसरे से ऐसे घुल-मिल गए मानों बरसों से जानते हों. मैंने भांगागढ़ में मकान लिया था. तब दो कमरों के उस असम टाइप मकान का किराया था छह सौ रुपए. बिजली के लिए साठ रुपए अलग से. सामान के नाम पर एक चौकी थी और बिस्तर. वहीं स्टोव खरीद कर गृहस्थी बसाने का काम शुरू हुआ. दफ्तर में काम करने वालों में कोई राजनीति या टांग खिंचाई नहीं. अब आज के माहौल में इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. होली-दीवाली या कोई त्योहार हो, तमाम लोग सपत्नीक मेरे घर जुटते थे. पत्नी जनता स्टोव पर ही सबके लिए खाना बना देती थी बिना कोई उफ किए. लगभग सबकी शादी हाल में ही हुई थी. इसलिए किसी को बच्चा नहीं था. सो, सार्वजनिक छुट्टियों के दिन देर रात गए तक मेरे घर ही महफिल जमती थी.
हां, पूर्वांचल प्रहरी और सेंटिनल के मालिकों में भले प्रतिद्वंद्विता हो, इन दोनों अखबारों में काम करने वाले लोगों में ऐसी कोई भावना नहीं थी. इसलिए मेरे घर दोनों अखबारों के लोग आते थे. सेंटिनल के सुधीर सुधाकर, मधु व जयप्रकाश मिश्र और उसके संपादक मुकेश जी भी. इनमें से ही एक थे सत्य नारायण मिश्र. उन्होंने तब जनसत्ता जैसे अखबार में लिखने के लिए मुझे काफी प्रोत्साहित किया था. उनके कहने पर मैंने खास खबर और खोज खबर जैसे स्तंभों के लिए कई लेख लिखे. उनसे कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती थी. तब जनसत्ता में ज्योतिर्मय जी इन स्तंभों के इंचार्ज थे. लेकिन मिश्र में कुछ अक्खड़पन भी था. एक बार उन्होंने अपना ब्लैक एंड व्हाइट टीवी मेरे घर रख दिया. यह कह कर कि मुझे तो देखने का समय नहीं मिलता. तुम लोग देखना. उनकी तब तक शादी नहीं हुई थी. दफ्तर के समय के बाद इधर-उधर घूमते रहते थे. टीवी मेरे घर रखने के बाद बाद लगभग रोज मेरे घर ही खाते रहे. लेकिन एक बार जब बीमारी के चलते पत्नी ने कुछ दिनों तक खाना नहीं बनाया खिलाया तो बोले अब मैं अपना टीवी घर ले जाऊंगा. तब लगा कि शायद वे इतने दिनों से टीवी का किराया वसूल रहे थे. वह तो भला हो उदय चंद्र आचार्य का. पूर्वांचल प्रहरी में काम करने वाले आचार्य ने अपने किसी परिचित से कह कर पहले मुझे एक टीवी दिलाया किश्तों पर. उसके बाद फिर एक टेप रिकार्डर भी दिलाया.
तब एकमुश्त इतने पैसे नहीं होते थे कि पंखा खरीद सकूं. एक बार सेंटिनल के कार्यकारी संपादक मुकेश कुमार घर आए. उन्होंने कहा कि आखिर इतनी गर्मी में आप लोग पंखे के बिना रहते कैसे हैं. खैर, कुछ दिनों बाद किसी तरह जुगाड़ कर हमने एक पंखा खरीद लिया. पंखा खरीदने से एक रोचक किस्सा भी जुड़ा है. फैंसी बाजार से पंखा खरीदने के बाद मैंने सोचा कि बहुत गर्मी है. कहीं चल कर जूस वगैरह पिया जाए. पत्नी के साथ जूस की दुकान पर पहुंच कर दो गिलास मौसमी के जूस पिए. जब पैसे देने की बारी आई तो दुकानदार ने कहा चालीस रुपए हुए. इतना सुनते ही जूस का स्वाद फीका हो गया और गर्मी अचानक ही गायब हो गई. वह अफसोस बहुत दिनों तक रहा. बाद में सोचते रहे कि उन पैसों में यह आ सकता था या वह खरीद सकते थे. अब भी अक्सर हम उस वाकए का याद कर हंसते हैं.
पूर्वांचल प्रहरी के पास ही सेवेंथ हैवेन नामक एक रेस्तरां था. कभी छुट्टी के दिन रात को जब खाना बनाने या घर का खाना खाने की इच्छा नहीं होती तो हम पति-पत्नी टहलते हुए वहीं चले जाते. पांच-पांच रुपए का डोसा खाकर हमारा डिनर हो जाता. और वह भी भरपेट. वेतन के तौर पर कुल मिला कर दो हजार रुपए मिलते थे. लेकिन महंगाई कम थी. मैं रोजाना दो रुपए लेकर दफ्तर जाता. उसमें से बारह आने या एक रुपया सिगरेट पर खर्च होता. एक सिगरेट तब पच्चीस पैसे में आती थी. पैदल दफ्तर जाने में सात-आठ मिनट लगते थे. कभी धूप तेज हो या बारिश हो रही हो तो रिक्शा ले लेता था. किराया था एक रुपए. लेकिन वह अखर जाता था.
हमारे संपादक कृष्ण मोहन अग्रवाल भी बड़े खुले दिल के थे. अक्सर चाय या खाने पर घर बुलाते रहते थे. संपादक नहीं, सहयोगी की तरह व्यवहार करते. इससे अखबार में काम करने का मजा ही कुछ और था. अखबार हमारी रगों में बस गया था. इसलिए कई बार पत्नी के मायके जाने पर मैं सुबह 10-11 बजे ही दफ्तर चला जाता. भले ही मेरी ड्यूटी शाम या रात की शिफ्ट में हो. वहीं शर्मा जी की कैंटीन में खाना खा कर गप्पें लड़ाता रहता.
पूर्वांचल प्रहरी में तब तक कई लड़कियां भी काम करने लगी थी. और हां, साल भर बाद बाहर से कुछ नए लोगों के आने के बाद राजनीति भी शुरू हो गई थी. इनकी चर्चा अगली बार.....

Thursday, July 8, 2010

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !

यह पुरानी कहावत बार-बार चरितार्थ होती रही है. इस बार इसे पूरी तरह नहीं बल्कि बुरी तरह चरितार्थ किया टीवी चैनलों ने. भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने सगाई और शादी क्या की, टीआरपी के लिए तरसते चैनलों की मानो बांछे ही खिल गईं. कई चैनलों के रिपोर्टर और एंकर तो इतने प्रसन्न नजर आए जितने शायद अपनी शादी में भी नहीं हुए होंगे. वैसे तो हर चैनल के पास तुर्रम खां टाइप खोजी रिपोर्टर हैं. लेकिन किसी को भी पहले से धोनी की सगाई की भनक तक नहीं लगी. बाद में भनक लगते ही सबमें एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ मच गई. एक से बढ़ कर एक्सक्लूसिव कहानियां थी सबके पास. और यह सिलसिला अब तक थमा नहीं है.
हर चैनलों का दावा था कि धोनी की शादी की खबर तो उसके पास पहले से ही थी और यह भी शादी की तस्वीरें सिर्फ हमारे चैनल पर ही नजर आएंगी. सबके पास एक ही तस्वीरें थीं. कुछ एक समाचार एजंसी की तो कुछ स्थानीय फोटोग्राफरों की. किसी के पास दो सेकेंड का वीडियो फुटेज तक नहीं? भाई लोगों ने खाने के मेन्यू के अलावा घोड़ी, बाजे वाले, होटल के वेटर, टेंट वाले और मेंहदी वाले से एक्सक्लूसिव बातचीत दिखा दी. क्या करें, आखिर भरपाई करनी थी और दर्शकों को अपने भ्रमजाल में उलझाना जो था. सो, मेरी साड़ी तेरी वाली से सफेद की तर्ज पर सब अपनी पीठ खुद ठोकते रहे. इससे पहले अभिषेक बच्चन और एश्वर्या राय की शादी पर ही चैनलों के लोग स्वयंभू बाराती के तौर पर नजर आए थे. वर के पिता अमिताभ बच्चन ने तो खैर चैनल वालों को खाना-पीना भिजवा दिया था. लेकिन धोनी ने तो किसी को पानी तक नहीं पूछा. पानी तो दूर किसी कैमरे वाले को उस होटल के आसपास तक नहीं फटकने दिया जहां शादी होनी थी. अरे भाई, उससे क्या होता है. अपनों को कहीं न्योता दिया जाता है, इसी ब्रह्मवाक्य के सहारे तमाम चैनल अब्दुल्ला बन कर नाचने लगे.
वैसे, निजी बातचीत में ढेर सारे खेल संपादक और रिपोर्टर धोनी से निजी संबंधों का दावा करते मिल जाते हैं. इस साल ईडेन गार्डेन में आपीएल मैचों को कवर करते हुए भी ऐसे दो-तीन सज्जन मिले थे. उनमें से दो की तो धोनी से सुबह-शाम बात होती थी. अब मेरे पास उनके मोबाइल की काल डिटेल तो थी नहीं. लेकिन कम से कम उन्होंने तो यही दावा किया था. बावजूद इसके उनको भी कार्ड नहीं मिला. यह तो सरासर नाइंसाफी है. ऐसे दोस्तों को शादी-ब्याह के मौके पर कोई भूलता है भला? अब इसकी खुन्नस तो निकालनी ही थी. आखिर समझा क्या है मीडिया को. शादी और सगाई की कोई फुटेज नहीं थी तो अब बात आगे कैसे बढ़ाएं. सबने राग पकड़ लिया कि टीम इंडिया में नाराजगी है, मतभेद हैं. इसलिए धोनी ने किसी को नहीं बुलाया. बुलाया भी तो कोई नहीं आया. कुछ चैनलों ने अपने खोजी रिपोर्टरों को धोनी के आगे के कार्यक्रम का पता लगाने के लिए दौड़ा लिया और उनकी मेहनत से बनाई रिपोर्ट को एक्सक्लूसिव की पट्टी के सहारे दिखाते हुए बताया कि धोनी अपने जन्मदिन पर मुंबई में रिसेप्शन आयोजित करेंगे. कोई कहने लगा कि दिल्ली में भी होगा. कोई रांची बता रहा था तो कोई कोलकाता. जितने चैनल उतने ही दावे. लेकिन धोनी शादी की अगली सुबह ही दिल्ली पहुंच गए. ठीक तमाम चैनलों की नाक के नीचे. किसी को खबर तक नहीं.
चैनलों की धोनी का असली विजुअल तब मिला जब वे रांची पहुंचे. तीन-चार सेकेंड का वह विजुअल ही चलता रहा हर जगह. उसके बाद एक्सक्लूसिव के चक्कर में एक चैनल ने कथित तौर पर टीम इंडिया के कुछ खिलाड़ियों से बातचीत कर उनकी नाराजगी भी बता दी. पहले ‘आफ द रिकार्ड और नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा’ जैसी बातें प्रिंट मीडिया में ही चलती थी. अब चैनलों ने भी शुरूआत कर दी. नाम बताए बिना खिलाड़ियों की नाराजगी जता दी. यानी अब टीवी पर भी लोग आफ द रिकार्ड बोल सकते हैं. बढ़िया है. इससे कई और खबरें ब्रेक की जा सकती हैं.
धोनी शादी के बाद लगातार यात्राएं करते रहे और दिल्ली के बाद रांची से कोलकाता आए. इसबीच, एक चैनल ने एक्सक्लूसिव बना दिया और एंकर गला फाड़ने लगे कि पांच हजार किलोमीटर का सफर करने वाले कप्तान श्रीलंका में टीम इंडिया को कैसे आगे ले जा सकते हैं. वे तो काफी थक चुके होंगे, श्रीलंका पहुंचते-पहुंचते. वह तो भला हो हरियाणा-पंजाब में बरसात और बाढ़ का, वरना किसी भी कीमत पर सबसे तेज खबरें देने का दावा करने वाले तमाम चैनल अब तक वेटर, कार के ड्राइवर, विमान के पायलट और न जाने किस-किस का इंटरव्यू कर चुके होते.
चैनलों का यह धोनी पुराण कुछ कम तो हुआ है, लेकिन थमा नहीं है. अब श्रीलंका में अगर उनका प्रदर्शन जरा भी खराब होता है तो सब एक स्वर में शोर मचाएंगे कि हमने तो पहले ही कहा था कि थका-मांदा इंसान खेल कैसे सकता है. सच तो यह है कि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक कोई भी चैनल धोनी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाल सका है. इसलिए तमाम चैनल अपने स्तर पर तमाम किस्से-कहानियां बना रहे हैं. पता नहीं अब तक किसी ने यह क्यों नहीं दिखाया है कि अब युवराज समेत तमाम क्रिकेटर, जिनको धोनी ने नहीं बुलाया था, भी अपनी शादी में धोनी को नहीं बुलाएंगे. हो सकता है, जल्दी ही यह कहानी भी आने लगे.
तो देखते रहिए टेलीविजन पर हमारा खास कार्यक्रम. हम बताएंगे कि आखिर धोनी क्यों हैं टीम इंडिया के सभी खिलाड़ियों से नाराज.....और उन्होंने क्यों नहीं दी अपनी शादी का पार्टी....

Saturday, July 3, 2010

नई जगह, नया अखबार, नए साथी

कर्मचारियों की हड़ताल के बाद आखिर सिलीगुड़ी में जनपथ समाचार बंदी के कगार पर पहुंच गया था. उसी समय गुवाहाटी से जी.एल.अग्रवाल वहां आए. वे गुवाहाटी से पूर्वांचल प्रहरी नामक एक हिंदी दैनिक निकालना चाहते थे और उनको पत्रकारों और कंप्यूटर आपरेटरों, जिनको तब कंपोजिटर कहा जाता था, कि जरूरत थी. वहां बात हुई और बात बन गई. उन्होंने हम लोगों को गुवाहाटी आने का न्योता दे दिया. घर में विचार-विमर्श करने के बाद मैंने भी गुवाहाटी जाने की हामी भर दी. पहले कई बार गुवाहाटी गया था. अक्सर कामाख्या मंदिर में दर्शन करने. बचपन की धुंधली यादें थी. लेकिन अब पहली बार नौकरी के लिए जा रहा था. हमारी टीम में छह-सात लोग थे. न्यू जलपाईगुड़ी से चलकर शाम को गुवाहाटी स्टेशन पर उतरे तो लगा कि कहां पहुंच गए. तब उग्रवाद चरम पर था. हर ओर, सेना और सुरक्षा बल के मुश्तैद जवान. अब तक ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच रहने या गुजरने की आदत जो नहीं थी. खैर, वहां से जीएल परिसर में पहुंचे. वहां कुछ देर बातचीत के बाद हमको दिसपुर स्थित हास्टलनुमा आवास में भेज दिया गया. जीएल ने वहीं सबके रहने की व्यवस्था की थी. मैं और सत्यानंद पाठक एक ही कमरे में जम गए.
दूसरे दिन सुबह-सबरे नए उत्साह के साथ दफ्तर पहुंचे. वहां एक शर्मा जी कैंटीन चलाते थे. तीन से पांच रुपए में भरपेट भोजन. किसी मारवाड़ी ढाबे जैसे स्वादिष्ट खाना. सुबह नाश्ता, दिन में खाना और रात में वहीं से खाकर अपने कमरे पर. दफ्तर में कई नए साथियों से मुलाकात हुई. देश के कई हिस्सों से उभरते पत्रकार वहां पहुंचे थे. राकेश सक्सेना, अरुण अस्थाना, विवेक पचौरी, प्रशांत, फजल इमाम मल्लिक, जय नारायण प्रसाद उर्फ कुमार भारत समेत बाकी लोग थे. कइयों के नाम अब याद नहीं आ रहे. मुकेश कुमार वहां मुख्य उप-संपादक थे. (अब मौर्या टीवी में समाचार निदेशक) बेहद सरल स्वभाव. पहला दिन तो परिचय आदि में ही बीत गया. बीच-बीच में चाय-पानी का दौर. एक बड़ी से गोल मेज के चारों और तमाम लोग बैठ कर शुरूआती रूपरेखा के बारे में बातें कर रहे थे. हमारे संपादक थे कृष्ण मोहन अग्रवाल. थे तो गोरखपुर के लोकिन इलाहाबाद में अमृत प्रभात में लंबे अरसे तक काम किया था. बेहद सीधे-सादे तो थे ही एक पेशेवर फोटोग्राफर भी थे. एक से एक तस्वीरें खींची थी उन्होंने. हां, उनमें महिलाओं की तस्वीरें ही ज्यादा थीं. अब का दौर होता तो फैशन फोटग्राफर कहलाते.पहले दिन वहां का माहौल बेहद पसंद आया. उसके बाद यही दिनचर्या बन गई. रोजाना सुबह से शाम तक खबरें बनती और एडिट होती.
यूं ही दिन बीतते रहे और अखबार के प्रकाश की तारीख टलती रही. इसबीच हमने डमी निकालना भी शुरू कर दिया. पहले 14 अप्रैल को बिहू के दिन अखबार निकलना था. वह टलता रहा. इसबीच, वहीं के एक प्रतिद्वंद्वी अखबार समूह सेंटिनल के मालिक को लगा कि यह बढ़िया मौका है. देश भर के पत्रकार यहां हैं तो क्यों न उनको तोड़ कर जीएल प्रकाशन से पहले ही अपना अखबार निकाल लिया जाए. तब उसके अंग्रेजी और असमिया अखबार थे. हां, खासी भाषा में भी एक अखबार निकलता था. बस, उसने मुकेश जी को पकड़ा और कार्यकारी संपादक बनने का प्रस्ताव दिया. मुकेश जी ने हम लोगों से बात की और हमारी आधी से ज्यादा टीम अगले दिन जीएल परिसर की बजाय सेंटिनल परिसर में पहुंच गई. पैसे ज्यादा मिल रहे थे. दो-तीन दिन वहां काम किया. अखबार के मालिक ने एक मकान में हमारे रहने की व्यवस्था की थी. लेकिन वहां पंखा नहीं था. अप्रैल के आखिर की गर्मी रात को सहना मुश्किल होता था. राजखोवा ने पहले दिन कहा था कि कल तक हर कमरे में पंखा लग जाएगा. लेकिन दूसरे दिन इस बात की याद दिलाने पर उसने कहा कैसा पंखा. वह आपलोग खरीद लीजिए. हमें झटका लगा. जब पहले ही अपनी बात से मुकर रहा है तो बाद में क्या होगा. पाठक जी और मैंने पूर्वांचल प्रहरी लौटने का फैसला किया. हमने वहां तब के महाप्रबंधक पुरकायस्थ से बात की और रातोंरात कार में अपना सामान समेट कर लौट आए. अबकी हमारा ठिकाना बना जीएल परिसर के पीछे ही एक मकान. वहां कई और लोग रहते थे. बाद में सेंटिनल पहले निकला और पूर्वांचल प्रहरी बाद में. यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सेंटिनल शुरू से ही कभी पूर्वांचल प्रहरी को पछाड़ नहीं सका. लेआउट के मामले में बेहतर रहने के बावजूद. जीएल अग्रवाल ने इसबीच कई और लोगों को बुलवा लिया था बिहार और दिल्ली से.
इन बाद में आने वालों में मनोरंजन सिंह उर्फ अपूर्व गांधी के अलावा अमरनाथ और ओंकारेश्वर पांडेय जैसे लोग थे जो प्रशिक्षु के तौर पर पटना से आए थे. इनके अलावा माया (इलाहाबाद) से आए प्रीतिशंकर शर्मा और कल्याण कुमार भी थे. कई संपादकीय सलाहकार भी आ गए. इनमें विनोदानंद ठाकुर थे तो बद्रीनाथ तिवारी (अब स्वर्गीय) भी थे. तिवारी जी हमारे पड़ोस के मकान में ही रहते थे. उनके साथ रहने कुछ दिनों के लिए रामदत्त त्रिपाठी (अब बीबीसी में उत्तर प्रदेश संवाददाता) भी आए. लेकिन वे कुछ महीनों में ही लौट गए. विनोदानंद ठाकुर तमाम लोगों को लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे. श्रीलंका में लिट्टे की समस्या पर संपादकीय पेज पर मेरा पहला अग्रलेख भी उन्होंने ही छापा था.
अप्रैल में असम में बिहू बेहद धूमधाम से मनाया जाता है. पूरा राज्य लगभर एक सप्ताह तक इसके रंग में रंग जाता है. हमारे लिए बिहू नृत्य एक नया अनुभव था. दफ्तर से लौट कर हमने न जाने कितनी ही रातें बिहू नृत्य देखते हुए बिताईं. पाठख जी हमेशा साथ रहते थे.
शुरूआती छह महीने बड़े तकलीफदेह रहे. सुबह 10-11 बजे दफ्तर पहुंचते थे और रात दो-ढाई बजे के पहले घऱ लौटना नहीं होता था. इतने तरह के लोग थे कि व्यवस्था बनाने में महीनों लग गए. बाद में चीजें धीरे-धीरे ढर्रे पर आने लगीं. इस दौरान पूर्वांचल से कई लोगों का सेंटिनल आना-जाना लगा रहा. उसी दौरान एक तीसरा हिंदी अखबार उत्तरकाल भी निकला जो घुनों के बल चलना सीखने से पहले ही असामयिक मौत का शिकार हो गया. वहां के कुछ लोगों को भी इन दोनों अखबारों में खपाया गया.

Wednesday, June 30, 2010

होता है वही जो हम नहीं चाहते

अक्सर जीवन और रोजमर्रा के कामकाज में जाने-अनजाने वही सब हो जाता है जो हम नहीं चाहते. इसकी एक मिसाल काफी है. कई बार दुकान पर कपड़े या कोई सामान खरीदते समय हम दस में नौ बार वही सामान खरीद लेते हैं जो हमें कम पसंद होता है. खरीदने के बाद रास्ते भर अफसोस करते रहते हैं कि वो दूसरा वाला खऱीदा होता तो अच्छा होता. ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं होती रहती हैं जो जीवन की भागमभाग में मन से बिसर जाती हैं. मेरा पत्रकारिता में आना भी कुछ ऐसी ही घटना है. हां, लेकिन मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है.
अस्सी के दशक में उत्तरार्ध में मैं सिलीगुड़ी में रह कर इलेक्ट्रानिक्स का डिप्लोमा कर रहा था. स्कूल के दिनों का मेरा एक सहपाठी था. श्रवण कुमार अग्रवाल. उसका वहां सीमेंट का कारोबार था. हमने सिलीगुड़ी हिंदी स्कूल में कक्षा पांच से दसवीं तक पढ़ाई साथ ही की थी. अब भी हम लगभग रोज ही मिलते थे. सुबह हिंदी स्कूल के मैदान में सैर करना हमारी दिनचर्या बन गई थी. उससे दुनिया-जहान की तमाम बातों पर चर्चा होती थी. एक दिन उसने यूं ही कहा कि अरे भाई तुम्हारी हिंदी और अंग्रेजी इतनी अच्छी है. शाम को खाली समय भी है. तुम जनपथ समाचार में काम क्यों नहीं करते. उस समय सिलीगुड़ी से यही एक हिंदी अखबार निकलता था. अब भी यह नंबर वन है वहां. उसके मालिक हैं राजेंद्र बैद. तब उनका लड़का विवेक छोटा था. राजेंद्र बाबू ( सब लोग उको इसी संबोधन से पुकारते थे) ही सब काम देखते थे. श्रवण ने बात चलाई तो मैंने भी सोचा देखने में हर्ज ही क्या है. जंचा तो ठीक वरना अपने इलेक्ट्रानिक्स वाला रास्ता तो खुला ही है.
खैर, श्रवण अगले दिन मुझे साथ लेकर राजेंद्र वैद के पास पहुंचा. उन्होंने मुझे एक पन्ना दिया. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के लिए. मैंने वहीं फौरन उसका अनुवाद कर दिया. अनुवाद देखते ही उन्होंने कहा कि कल से काम पर आ जाओ. चार सौ रुपए वेतन मिलेंगे. चार सौ रुपए तब बड़ी बात थी. मैंने हामी भऱ दी. अगले दिन ठीक समय पर काम पर पहुंच गया. उस दिन राजेंद्र बाबू ने मुझे मध्यकालीन इतिहास की एक पुस्तक थमा दी. वह अंग्रेजी में थी. राजेंद्र बाबू ने कहा कि तुम रोज इसका अनुवाद करोगे और वही पहले पेज की बाटम स्टोरी होगी. फिर क्या था. इतिहास के पन्नों से शीर्षक वह कालम चार रोज बाद से शुरू हो गया. वह कोई तीन महीने चला. इसबीच, मैंने पूरी किताब का अनुवाद कर दिया.
उस समय दार्जिलिंग में अलग गोरखालैंड आंदोलन का दौर था. वहां एक साथी थे मनोज राउत. वे गोरखालैंड आंदोलन को शुरू से ही कवर करते आ रहे थे. वे बांग्ला में अपनी कापी लिखते थे. उसके अनुवाद का जिम्मा भी मेरे कंधों पर आ गया. राजेंद्र बाबू अक्सर कहते थे कि यार तुम इतनी जल्दी हाथ से इतने पेज कैसे लिख लेते हो. खैर, काम चलता गया, पांव जमते गए. मेरे आने से कुछ एकाध पुराने लोगों को दिक्कत होने लगी. एक साथी थे. उनका नाम नहीं लूंगा. अब संपादक पद पर पहुंच गए हैं. काम जानते तो थे. लेकिन परले दर्जे के आलसी और फांकीबाज. दफ्तर से एडवांस लेकर बैग समेत टूर के लिए निकलते और फिर घर चले जाते. वहां से दो दिनों बाद टूर पर जाते. लौट कर दो दिन घर पर आराम फरमाने के बाद दफ्तर आ जाते. बैग हाथों में होता था. यह जताने के लिए कि सीधे टूर से ही आ रहा हूं. उसके बाद थके होने की बात कह कर घर चले जाते थे. यानी उस दिन की भी छुट्टी.
एक बार बड़ा मजेदार वाकया हुआ. वे दफ्तर से पैसे लेकर टूर के लिए निकले और अपनी आदत के मुताबिक घर पहुंच गए. अगले दिन उन्होंने राजेंद्र बाबू को बाकायद फोन पर बताया कि मैं सकुशल फलां जगह पहुंच गया हूं. लेकिन आधे घंटे बाद राजेंद्र बाबू किसी काम से निकले तो देखा वह सज्जन महानंदा ब्रिज पर पान चबाते हुए स्कूटर पर तफरीह कर रहे हैं. उनकी पोल खुल गई. इन तमाम चीजों के बावजूद दफ्तर से बाहर हम दोनों की दोस्ती बनी रही बल्कि और प्रगाढ़ हो गई थी.
राजेंद्र वैद बड़े भुलक्कड़ थे. पान पराग बहुत खाते थे. हमेशा हाथ में बड़ा सा डिब्बा रखते थे. जब संपादकीय विभाग में आते थे तब भी. और दस में से नौ बार डिब्बा हमारी मेज पर छोड़ जाते थे. उनके जाते ही हम लोग टूट पड़ते उस डिब्बे पर. जिसको जितना मिला मुंह में दबा लेते थे. बाद में चपरासी से डिब्बा उन तक भिजवा देते थे. इसी तरह उन्होंने दर्जनों कलमें संपादकीय में छोड़ी होंगी. यह बात अलग है कि उनमें से कोई भी कलम दोबारा उन तक नहीं पहुंची. पैसे के मामले में दरियादिल. जितना एडवांस चाहिए, दे देते थे. फिर धीरे-धीरे वेतन में कटता रहता था. कई बार तो देकर काटना तक भूल जाते थे. वहीं रहते उन्होंने मुफ्त में नई साइकिल दिलाई और बाद में जमीन खरीदने के लिए रुपए भी दिए.
जनपथ में काम करते दोस्ती तो बनी रही. लेकिन व्यस्तता की वजह से श्रवण कुमार से मुलाकातें कम हो गई थी. उसने मेरा परिचय अखबारी दुनिया से कराया था. इस बात के लिए मैं उसका हमेशा आभारी रहा. बाद में एक छोटी से घटना की वजह से दोस्ती टूट गई. एक दिन में हमेशा की तरह मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो उसने कहा कि तुम अभी चले जाओ, मेरा भाई आ रहा है. उसकी यह बात सुनते ही मैं उल्टे पांव लौट आया. इस बात को 23-24 साल बीत गए. लेकिन मैंने दोबारा उसके दफ्तर में पांव नहीं रखा. आकिर मैं न तो कोई चोर-उचक्का था और न ही उससे कुछ मांगने गया था. बाद में गलती का अहसास होने पर उसने दर्जनों बार मेरे घऱ के चक्कर काटे. लेकिन न जाने क्यों दोबारा उसके दफ्तर की ओर जाने की इच्छा तक नहीं हुई.
बाद में जनपथ समाचार में हड़ताल हुई. कर्मचारियों ने अखबार का प्रकाशान हाथ में ले लिया. हमने महीने भर तक आधे पैसों में काम कर के अखबार निकाला. उसी दौरान गुवाहाटी से जीएल अग्रवाल आए. वे वहां से हिंदी अखबार निकालना चाहते थे और इसी सिलसिले में आए थे. जनपथ की लगभग पूरी टीम ही उनके साथ पूर्वोत्तर की राह पर निकल पड़ी. यह मार्च, 1989 की बात है.

Friday, June 25, 2010

अद्भुत है पुरी का समुद्र तट


पहली बार कोई 17 साल पहले पुरी गया था. बिना किसी योजना के ही. वह महज एक संयोग था और उसके पीछे कोलकाता में रहने वाले एक रिश्तेदार की प्रेरणा थी. पत्नी के साथ इलाज के सिलसिले में सिलीगुड़ी से कोलकाता आया था. डाक्टर ने कोई जांच कराने को कहा था और उसकी रिपोर्ट सात दिनों के बाद आनी थी. अब समस्या यह कि क्या करें. सिलीगुड़ी लौट जाएं या कोलकाता में ही घर बैठे बोरियत से जूझते रहें. इसी उधेड़बुन में फंसा था कि उन रिश्तेदार ने ही हमारी मुश्किल आसान कर दी. यह कह कर कि आप लोग दो-चार दिनों के लिए पुरी क्यों नहीं घूम आते. घूमना भी हो जाएगा और तीर्थ भी. इसके अलावा समय का सदुपयोग भी हो जाएगा. यानी आम के आम और गुठली के दाम. उन्होंने ही होटल और पंडे का पता दे दिया. खैर, थोड़ी सी कोशिश के बाद पुरी जाने-आने का रिजर्वेशन भी हो गया. बस चल पड़े हावड़ा से जगन्नाथ एक्सप्रेस में बैठ कर पुरी की ओर.
वह दिसंबर का महीना था. सिलीगुड़ी से हालांकि हम गर्म कपड़े और चादर वगैरह ले आए थे. लेकिन कोलकाता में सर्दी वैसे भी नहीं पड़ती. हमारे रिश्तेदार और मित्रों ने बताया कि पुरी में समुद्र होने की वजह से वहां भी सर्दी नहीं पड़ती. बस क्या था. हमने तमाम गर्म कपड़े कोलकाता में रख दिए और एक छोटी अटैची लेकर चल दिए. इसका अफसोस तो रास्ते में ट्रेन में तब हुआ जब सर्दी के मारे दांत बजने लगे. खैर, अपनी गलती पर खुद को मन ही मन डांटते हुए सुबह पुरी पहुंचे. स्टेशन के बाहर निकल कर पुरी होटल की बस में बैठ गए. वहां जाते ही कमरा भी मिल गया. ऐन समुद्र के सामने है पुरी होटल. कमरे की बालकनी से ही समुद्र की लहरें. दो-तीन दिन ठहर कर कोणार्क और दूसरे जगहों की सैर की. इतिहास में ही पढ़ा था कोणार्क. सूर्य मंदिर को सजीव देख कर मन मानो बरसों पहले स्कूली दिनों की ओर लौट गया.
हमारी वह यात्रा यादगार थी. इसलिए भी वहां से लौटने के बाद ही मेरी पत्नी मां बनी. वहां रहते हमने जगन्नाथ मंदिर के भी दर्शन किए. हमारे पंडे का नाम था चकाचक पंडा. उसका पूरा नाम तो था चकाचक रामकृष्ण प्रतिहारी. लेकिन चकाचक पंडा के नाम से ही उसे सब जानते थे. अपने उत्तर भारतीय पंडों के उलट वहां लूट-खसोट वाली प्रवृत्ति नहीं है. जो दे दिया, पंडा उसी में खुश.

उसके बाद कोई आठ-नौ साल पुरी नहीं जा सका. लेकिन तबादले पर कोलकाता आने के बाद बीते दस सालों में पांच बार पुरी हो आया हूं. एक बार तो नया साल भी वहीं मना चुका हूं. तब कोई सात दिन रहा था वहां. अब सबसे ताजा पुरी दौरे का कार्यक्रम बना जून के पहले सप्ताह में. अचानक. शादी की वर्षगांठ करीब थी. बेटी की कोचिंग की वजह से दो-तीन दिनों से ज्यादा समय नहीं निकलता था कि घर जाया जा सके. सो, पुरी जाने का कार्यक्रम बना लिया. होटल की भारी दिक्कत. पुरी में होटलों की तादाद जितनी बढ़ी है पर्यटकों की तादाद उससे कई गुना ज्यादा बढ़ गई है. दर्जनों फोन के बाद एक मित्र के जरिए होटल में कमरा मिल गया. पहले भुवनेश्वर पहुंचा. वहां कुछ देर आराम करने के बाद लिंगराज मंदिर होते हुए पुरी.
पुरी का समुद्र हमेशा आकर्षित करता रहा है. यह पूर्वी भारत के सुंदरतम और साफ-सुथरे समुद्र तटों में से एक है. लेकिन अबकी समुद्र का मिजाज बदला हुआ लगा. पुरी होटल के सामने तो समुद्र अपने तट को ही खा गया था. वहां गहराई पहले के मुकाबले ज्यादा हो गई है. अभी बीते साल मार्च में वहां गया था तब ऐसा नहीं था. तब हमने वहां नहाते हुए घंटों बिता दिए थे. लेकिन अब वह जगह खतरनाक हो गई है. ग्लोबल वार्मिंग का असर यहां नजर आने लगा है. लहरें लौटते हुए अपने साथ जबरन भीतर खींचने का प्रयास करती नजर आईं. पहले मैं जिस स्वर्गद्वार इलाके को सुनसान मानता था वही अब गुलजार हो गया है. पुरी होटल या उसके आसपास कोई दूसरा होटल नहीं मिल पाने की वजह से मन में कुछ निराशा थी. लेकिन वह निराशा वहां जाकर दूर हो गई. अब तो जहां होटल था वहीं नहाने वालों की भीड़ थी सामने. रात को समुद्री वस्तुओं का बाजार भी वहीं लगता था.
पहले दिन तो दोपहर को पहुंचवे के बाद होटल में खाना खाकर कमरे से ही समुद्री लहरों का नजारा लेते रहे. शाम को मंदिर की ओर निकले. दूसरे दिन शादी की वर्षगांठ थी. उस दिन सुबह-सुबह मंदिर में दर्शन करने के बाद भोग चढ़ाया. गर्मी काफी थी. ऐसे में मंदिर से लौटने के बाद समुद्र की ओर जाने की हिम्मत नहीं हुई. पहले कई बार तपते बालू पर अपने पैर जला चुका हूं. इस बार नहीं, मैने सोचा. तीसरे दिन वापसी थी. लेकिन ट्रेन रात को 11 बजे थी और पूरे दिन हमारे पास करने के लिए कुछ था नहीं. तड़के होटल से निकले सूर्योदय का नजारा देखने के लिए. लेकिन बादल ने सूरज को अपनी ओट में ढक रखा था. जब तक बादल छंटे, सूरज काफी ऊपर आ गया था. खैर, वहीं बैठ कर चाय पीते रहे. कुछ देर बाद होटल से कपड़े बदल कर नहाने पहुंचे. कोई घंटे भर नहाया. पत्नी और बेटी के साथ. लेकिन लहरें काफी तेज थीं. वह तो बाद में पता चला कि अंडमान में उसी दिन भूकंप आया था. शायद उसी का असर हो.
शाम को भी हम घंटों समुद्र के किनारे घूमते रहे. पुरी की सुबह अगर खूबसूरत है तो शाम का भी कोई जवाब नहीं. बंगाली पर्यटकों की भरमार. खासकर समुद्री मछलियां बेचने वाले ठेलों और उड़ीसा हैंडलूम की दुकानों पर. पुरी जाने पर लगता है कि कोलकाता के ही किसी कोने में हैं. बस एक समुद्र भर का ही अंतर है.
पुरी अब तक जितनी बार गया हूं, वहां की खूबसूरती से मन नहीं भरा है. हर बार, वापसी के दौरान दोबारा जल्दी ही लौटने का संकल्प मन ही मन दोहराते हुए आता हूं. लेकिन अब तो शायद अगले कम से कम दो साल कहीं जाना संभव ही नहीं, बिटिया 11वीं में है. उसका स्कूल, कोचिंग और सौ सांसरिक झमेले. लेकिन जब भी मौका मिला, जल्दी ही जाऊंगा. समुद्र में नहाने नहीं, तो वहां उस पर ग्लोबल वार्मिंग का असर देखने.कोलकाता से सात-आठ घंटे का ही तो सफर है.

Friday, June 4, 2010

माकपा अब घटक दलों के भी निशाने पर


पश्चिम बंगाल के शहरी निकाय के लिए हुए चुनाव में जबरदस्त हार से माकपा सकते में है. नतीजों के एलान के चौबीस घंटे बाद भी वह इस सदमे से उबर नहीं सकी है. लेकिन इस हार के बावजूद माकपाइयों के तेवर ढीले नहीं पड़े हैं. यानी रस्सी भले जल गई हो, उसकी ऐंठन नहीं गई है. उसका दावा है कि पार्टी का प्रदर्शन उतना खराब नहीं रहा है. वैसे, माकपा के दिग्गज नेता भले कुछ भी दावा करें, हकीकत यह है कि इतनी करार हार का उनको कोई अंदेशा नहीं था. जिन 81 नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हुए उनमें से 54 पर वामपंथियों का कब्जा था. लेकिन अब उसकी झोली में इनमें से सिर्फ 17 ही आई हैं. शायद इसलिए नतीजों के एलान के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की बोलती बंद हो गई. इस चुनावी सदमे से पंगु बनी माकपा पर अब वाममोर्चा के उसके सहयोगी भी हमला करने लगे हैं. उन्होंने इस हार का ठीकरा माकपा के सिर पर ही फोड़ा है.
इन नतीजों के बाद माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु ने एक बार फिर हार की वजहों की समीक्षा करने और आम लोगों से बढ़ी दूरी कम करने की बात कही है. वैसे, उन्होंने बीते साल लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी यही कहा था. लेकिन इन नतीजों से साफ है कि माकपा और वोटरों के बीच की दूरी घटने की बजाय और बढ़ गई है. गुरुवार को हार की वजहों की समीक्षा के लिए आयोजित प्रदेश माकपा सचिव मंडल की बैठक में भी कोई ठोस चर्चा नहीं हो सकी. इसमें शामिल कुछ नेता अपने-अपने तर्क देते रहे. लेकिन ज्यादातर तो सुझाव के नाम पर बगलें ही झांकते रहे. बैठक में शामिल एक नेता ने बताया कि बैठक के दौरान माहौल गमगीन रहा. तमाम नेताओं की बोलती बंद थी.
शहरी निकाय चुनाव में हार का सदमा अभी कम नहीं भी हुआ है कि वाममोर्चा में उसके दो सहयोगी दलों ने इस हार के लिए सीधे तौर पर भ्रष्टाचार और राज्य सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेवार ठहराते हुए माकपा को कटघरे में खड़ा कर दिया है. आरएसपी नेता और राज्य के लोक निर्माण मंत्री क्षिति गोस्वामी ने कहा है कि जनादेश बदलाव के पक्ष में है. चुनावी नतीजों से यह बात शीशे की तरह साफ हो गई है. उन्होंने आरोप लगाया कि लंबे अरसे तक सत्ता में रहने की वजह से वाममोर्चा के कई वर्गों में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है.
आरएसपी नेता ने कहा कि माकपा वाममोर्चा की सबसे बड़ी घटक है. इसलिए हमारे मुकाबले उसमें भ्रष्टाचार की जड़ें भी ज्यादा गहरी हैं. उधर, मोर्चा की एक अन्य घटक वेस्ट बंगाल सोशलिस्ट पार्टी ने कहा है कि वर्ष 1977 से लगातार सत्ता में रहने की वजह से वाममोर्चा ने लोगों का भरोसा खो दिया है. पार्टी के नेता और मत्स्य पालन मंत्री किरणमय नंद ने कहा कि वर्ष 2008 के पंचायत चुनाव से ही आम लोग हमारे खिलाफ हैं. इसलिए मौजूदा हालात में इससे बेहतर नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्होंने कहा कि सरकार की गलत नीतियों और आम लोगों के प्रति माकपा की बेरुखी ने ही निकाय चुनाव में वामपंथियों की लुटिया डुबो दी. हमने लोगों का भरोसा खो दिया है.
नंदा ने कहा कि बीते साल लोकसभा चुनाव में मोर्चा की दुर्गति के बाद उन्होंने सरकार के इस्तीफा देकर नए सिरे से जनादेश हासिल करने का सुझाव दिया था. लेकिन मेरा वह प्रस्ताव तब खारिज कर दिया गया था. गोस्वामी व नंदा विभिन्न मुद्दों पर पहले भी सरकार और माकपा की गलत नीतियों के खिलाफ मुखर रहे हैं.
शहरी निकाय के चुनावी नतीजों ने माकपा के दिग्गज नेताओं के तमाम पूर्वानुमान व समीकरण गड़बड़ा दिए हैं. चुनाव से पहले कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के बीच कोई तालमेल नहीं होने से माकपाई बेहद खुश थे. उनका सीधा हिसाब था कि इससे वाम-विरोधी वोटों का विभाजन होगा और वामपंथियों का बेड़ा पार हो जाएगा. लेकिन वे शायद भूल गए कि राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होता. अब हर चुनाव की तरह इस बार भी माकपाई हार की वजह की समीक्षा और लोगों के नजदीक जाने का पुराना राग ही अलाप रहे हैं. लेकिन पार्टी के भ्रष्ट नेताओं व कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई के सवाल पर पार्टी ने अब तक चुप्पी साध रखी है. बीते साल लोकसभा चुनाव के बाद उसने ऐसे नेताओं से पल्ला झाड़ कर पार्टी की छवि सुधारने के लिए शुद्धिकरण अभियान चलाने का फैसला किया था. लेकिन पार्टी के ही एक गुट के दबाव में उस फैसले को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया. अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या माकपा अतीत की गलतियों से कोई सबक लेगी. फिलहाल तो इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है.

Monday, May 31, 2010

वो प्यार नहीं कुछ और था

बरसों पुरानी बात है. बल्कि तीन दशक पुरानी. लेकिन सोचता हूं तो लगता है कि अभी कल की ही हो. वर्ष 1978 में सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) से हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद पढ़ने के लिए अपने माम के घर देवरिया पहुंचा. मेरे मामा देवरिया में खूखुंदू स्थित शिवाजी इंटर कालेज में पढ़ाते थे. वहीं दाखिला लिया. बड़े ही मजे में गुजरे दो साल. कई नए दोस्त मिले. शहर से जाने के बाद गांव का माहौल बेहद पसंद आया. मामा के पास काफी जमीन थी. वहां अरहर, धान और गन्ने के खेत में घूमना-काटना, कंपकपाती ठंढ में गेहूं की फसल में पानी चलाना यानी सिंचाई करना, यह सब वहीं सीखा. हम लोग (मेरे कई सहपाठी भी थे) रोजाना सोलह किलोमीटर साइकिल चलाकर कालेज जाते थे. कई बार तो स्कूल से ही सीधे देवरिया चले जाते थे. और वहां फिल्मे देख कर गांव लौटते थे. यानी दिन भर में औसतन 50 किलोममीटर तक साइकिल चलती थी. वहां दो साल कैसे बीत गए, यह पता ही नहीं चला और इंटर की परीक्षा के लिए फार्म भरने का समय आ गया. मैंने भी दूसरों के साथ फार्म भरा.
मामा के वरिष्ठ शिक्षक होने की वजह से कालेज का सारा स्टाफ मुझे दूसरी नजर से देखता था. वैसे, मैं छात्र जीवन में बेहद अनुशासित भी था. तो इस वजह से कालेज के कार्यालय से लेकर प्रिसिंपल के आफिस तक मेरी पहुंच थी. नर्बदेश्वर मिश्र उन दिनों वहां प्रिंसिपल हुआ करते थे. हां, पूरे इंटर में हमारे बैच में एक ही लड़की पढ़ती थी. उसका नाम लेना यहां ठीक नहीं होगा. हम सबकी तरह उसने भी परीक्षा का फार्म भरा था. मेरे दोस्तों को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने मुझे एक दिन चुनौती दे दी. उन्होंने कहा कि बड़े तीसमार खां बनते हो तो उस लड़की की फोटो उसके फार्म से निकाल कर दिखाओ. मैंने भी हामी भर ली. और अपने मामा के शिक्षक होने की वजह से अपनी पहुंच का फायदा उठाते हुए फाइल से उस लड़की की तस्वीर नोच ली. शर्त तो मैं जीत गया. लेकिन अगले ही दिन पूरे कालेज में हड़कंप मच गया. फार्म से फोटो आखिर कैसे गायब हो गई. वह लड़की उसी गांव के एक बड़े व्यक्ति की रिश्तेदार थी जहां हमारा कालेज था. कालेज के प्रिसिंपल से लेकर सारा स्टाफ सन्न. आखिर उसे यह बात बता कर दोबारा फोटो कैसे मांगी जाए.
मैंने वह फोटो निकाल कर मामा के घर ही अपने सूटकेश में रख दी थी और उसे एक छोटी घटना मानकर भूल भी गया था. लेकिन मेरे मामा को न जाने कैसे मुझ पर शक हो गया. उन्होंने मेरा सूटकेश चेक किया और वह फोटो ले जाकर कालेज में दे दी. कालेज की इज्जत को बच गई, लेकिन मेरी इज्जत के परखचे उड़ गए. खैर, वह तो मुझे बाद में पता चला. वह भी तब जब मेरी मामी ने मुझसे पूछा कि आपने कालेज की किसी लड़की की फोटो रखी थी सूटकेश में. मामा की सज्जनता का आलम यह कि उन्होंने न तो उस समय उस बात की मुझसे कोई चर्चा की और न ही बाद में कभी इस बारे में जिक्र किया.
बाद में कालेज के दोस्त मुझे उस लड़की और फोटो वाला प्रसंग लेकर चिढ़ाते भी रहे. लेकिन अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह प्यार नहीं था. प्यार होता तो उस फोटो को मैं अपनी जेब में रखता सूटकेश में नहीं. और फिर 16 साल की उम्र में जब इंटरनेट और टेलीविजन की कौन कहे, रेडियो भी नहीं था तो प्यार-मोहब्बत का ख्याल तक दिल में नहीं आ सकता था. अब सोचता हूं तो अपनी उस बचकानी हरकत पर हंसी आती है. लेकिन साथ ही एक खुशी भी होती है. इस बात पर कि मैं अपने दोस्तों से एक रुपए की शर्त जीत गया था. तीस साल पहले एक रुपए बहुत होते थे.

Sunday, May 30, 2010

शादी के बाद अकेले होने का फायदा

कई बार अकेला होना भी अच्छा लगता है. खासकर शादी के बाद. इन दिनों पत्नी और बेटी रांची में हैं. मेरी बड़ी साली की तीसरी बेटी की शादी है. मैं तो जा नहीं सका. बंगाल में शहरी निकायों के चुनाव थे आज. इनको अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा था. सो, मेरा जाना संभव नहीं था. वैसे, मेरी इन साली की बेटियों की शादी हमेशा उसी समय होती है जब कहीं न कहीं कोई चुनाव होते हैं. मसलन पहली बेटी की शादी के समय बंगाल में विधानसभा चुनाव थे. वर्ष 2001 में. खैर, पहली शादी थी. किसी तरह गया. दो-तीन दिनों के लिए. उसके बाद दूसरी बेटी की शादी भी हुई 2006 में. तब भी बंगाल में विधासनसभा चुनाव थे. नहीं जा सका. पत्नी और बेटी ही गई थी पटना. और इस बार भी यही हुआ. शनिवार को पत्नी और बेटी को रांची शताब्दी पर चढा़ कर घर लौटा तो अचानक कई काम नजर आने लगे.
लेकिन अकेले रहने का फायदा यह है कि आप घर में अक्सर कुछ ऐसी फिल्में भी देख लेते हैं जिनको देखने के लिए कभी सिनेमाहाल या मल्टीप्लेक्स में जाना संभव नहीं होता. पत्नी और बेटी के रहते मैं मूक-बधिर फिल्में देखने का आदी हो गया हूं. यानी रात को जब फिल्में देखता हूं तो इस डर से आवाज बंद रखता हूं कि उनकी नींद खऱाब न हो जाए. वह तो भला हो स्टार मूवीज वालों का कि नीचे अंग्रेजी में सब-टाइटिल्स दे देते हैं. लेकिन अकेले होने पर आप वाल्यूम जितना चाहें बढ़ा सकते हैं. तो इसी क्रम में मैंने आज यानी रविवार को वेकअप सिड देखी. गजब की फिल्म है यह.
जीवन में दोस्त तो कम ही मिले हैं. जो मिले भी हैं वे मुझे समझ नहीं सके. जिन दो-चार लोगों ने समझा था वो अब मेरे दोस्त नहीं रहे. मेरी नहीं, बल्कि उनकी अपनी गलती की वजह से. मेरी इच्छाओं, जरूरतों और दुख-सुख से किसी को कोई खास मतलब नहीं रहा. हालांकि मैंने अपने करीबियों की खुशी का हमेशा ध्यान रखा है. कभी सोचता हूं तो दुख होता है. लेकिन लगता है कि यही तो दुनिया की रीति है. इसका बुरा क्या मानना. कुछ दोस्त जिनको मैं अपना मानता था वे अब मेरे अपने नहीं रहे. दो-एक बढ़िया दोस्तों से बरसों से मुलाकात ही नहीं हो सकी. न जाने वे कहां हैं. पहले तो फोन और मोबाइल भी नहीं होता था. ई-मेल आदि की कौन कहे. अब मद्रास के एक दोस्त से शायद 25 साल बाद इस साल दुर्गापूजा के दौरान मुलाकात हो जाए. कौन जाने क्या होगा. इलाहाबाद पालीटेकनिक में मेरे साथ रहे रवि प्रताप साही और मद्रास में रूम पार्टनर रहे हेमंत वषिष्ठ बहुत याद आते हैं. इसी तरह सिल्चर वाला निर्मल भौमिक भी. लेकिन उनका कोई पता-ठिकाना नहीं है मेरे पास. शायद कहीं मिलना हो. जैसे इतने साल गुजरे, वैसे ही उनकी यादों के सहारे कुछ साल और सही.यादें ही तो जीने का सहारा होती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि अतीत चाहें कितना भी दुखद हो, उसकी यादें मीठी होती हैं.

Saturday, May 8, 2010

रे की कहानी को परदे पर उतारेंगे संदीप


बांग्ला सिनेमा को एक नई पहचान दिलाने वाले स्व. फिल्मकार सत्यजित रे की मशहूर फेलूदा सीरिज़ की अगली कड़ी जल्दी ही परदे पर नजर आएगी. इस महान फिल्मकार के पुत्र संदीप रे, जो खुद भी जाने-माने निर्देशक हैं, ने अपने पिता की जयंती के मौके पर यह एलान किया है. सत्यजित रे अगर जीवित होते तो दो मई को उम्र के नौवें दशक में कदम रखते. सत्यजित ने फेलूदा सीरिज़ के जासूसी उपन्यास और लघु कहानियां लिखी थीं. उन्होंने अपनी कहानियों और फिल्मों में फेलूदा नामक जासूस के चरित्र को अमर कर दिया था. अब संदीप उनकी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. वे इसे अपने पिता और इस महान फिल्मकार के प्रति श्रद्धांजलि मानते हैं.संदीप कहते हैं कि ‘हमने फेलूदा सीरिज के मशहूर उपन्यास गोरोस्थाने सावधान (कब्रिस्तान में सावधान) पर फिल्म बनाने का फैसला किया है. इसकी शूटिंग अगले महीने शुरू होगी. यह फेलूदा सीरिज़ की लोकप्रिय कहानियों में से एक है.’
इससे पहले फेलूदा सीरिज़ की ‘सोनार केल्ला (सोने का किला)’, ‘जय बाबा फेलूनाथ’, ‘बोंबेर बोंबेटे (बंबई के डकैत),’ ‘कैलाशे केलेंकारी (कैलाश पर अफरातफरी)’ समेत कुछ कहानियों पर बनी फिल्में काफी सफल रही हैं. ‘सोनार केल्ला’ और ‘जय बाबा फेलूनाथ’ का निर्देशन तो खुद सत्यजित रे ने ही किया था. बाकी फिल्मों का निर्देशन उनके पुत्र संदीप ने किया था. फेलूदा सीरिज़ की कई कहानियों पर टेलीविजन धारावाहिक भी बन चुके हैं.‘पथेर पांचाली (सड़क का गीत)’ जैसी सदाबहार फिल्मों के जरिए भारतीय सिनेमा को एक नई राह दिखाने वाले रे की जयंती के मौके पर कोलकाता में कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. तमाम स्थानीय टीवी चैनलों ने रे को श्रद्धांजलि के तौर पर उनकी फिल्मों का प्रसारण किया. कुछ चैनलों ने इस मौके पर विशेष कार्यक्रमों का भी प्रसारण किया.संदीप कहते हैं कि ‘गोरोस्थाने सावधान’ के बाद वे अपने पिता के विज्ञान उपन्यास प्रोफेसर शोंकू के अभियान पर भी एक फिल्म का निर्देशन करना चाहते हैं. अगले दो साल में ऐसा करने की योजना है. रे ने अपनी पहली तीन फिल्मों- पथेर पांचाली, अपराजिता और अपूर संसार के जरिए बांग्ला सिनेमा में संभावनाओं की नई राह खोल दी थी. उसके बाद उन्होंने ‘देवी’ और ‘जलसाघर’ बनाई थी. वर्ष 1977 में प्रेमचंद की कहानी पर बनी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के जरिए भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा के दर्शकों से उनका परिचय हुआ. अपनी हर फिल्म से रे नई ऊंचाईयां छूते रहे. वर्ष 1992 में उनको लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया. तब तक रे की फिल्में फिल्म प्रशिक्षण स्कूलों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुकी थी. नए निर्देशक भी उनसे प्रेरणा लेते थे. ऐसे निर्देशकों में कुमार साहनी, मणि कौल, अदूर गोपालाकृष्णन और श्याम बेनेगल शामिल हैं. रे को भारतरत्न के अलावा फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान से भी सम्मानित किया गया.बांगाला सिनेमा में अब भी सत्यजित रे का कोई सानी नहीं है. उन्होंने अपनी फिल्मों में बंगाल के ग्रामीण और शहरी जीवन का यथार्थ चित्रण किया था. रे के पुत्र संदीप कहते हैं कि ‘पिता जी की बाकी कहानियों और उपन्यासों को सिनेमा के परदे पर उतारना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.’ उन्होंने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया है.

ऐसे सिखाई नेता को वक्त की पाबंदी !

वक्त की पाबंदी और अनुशासन सिखाने का शायद यह भी एक तरीका है! नगरपालिका चुनाव के लिए परचा दाखिल करने के लिए एक उम्मीदवार जब सब-डिवीज़नल अफसर (एसडीओ) के कार्यालय में तय समय से देर से पहुंचा तो वहां पहले से इंतजार कर रहे पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने अपने उस नेता की ही धुनाई कर दी. यह दिलचस्प घटना पश्चिम बंगाल में नदिया जिले के कल्याणी में हुई. हालांकि मार खाने और कपड़े फड़वाने के बाद उस नेता ने अपना परचा दाखिल कर दिया. लेकिन यह सबक उनको आगे चुनाव प्रचार के दौरान भी शायद नहीं भूलेगा. बंगाल में 81 नगरपालिकाओं के लिए 30 मई को चुनाव होने हैं.
पुलिस के एक अधिकारी ने बताया कि तृणमूल कांग्रेस की स्थानीय शाखा के अध्यक्ष पी.के.सूर को नगरपालिका चुनाव के लिए अरना परचा दाखिल करना था. तय समय से पहले ही पार्टी के एक हजार से ज्यादा समर्थक अपने नेता की अगवानी के लिए एसडीओ के कार्यालय के सामने जमा हो गए थे. लेकिन नेता तो ठहरे नेता. वे तय समय से कोई दो घंटे देर से अपने तीन साथियों के साथ वहां पहुंचे. इस दौरान कड़ी धूप में नारेबाजी करने वाले समर्थकों का पारा चढ़ गया था. नेताजी को एअरकंडीशंड गाड़ी से उतरते देख कर लोगों ने आव देखा न ताव, उन पर पिल पड़े. उसके तीन साथी भी अपने समर्थकों की मार से नहीं बच सके. वह तो कुछ देर तक चली पिटाई के बाद पुलिस और दूसरे लोगों ने बीच-बचाव कर मामला शांत किया. लेकिन तब तक नेताजी का चेहरा बदल गया था और कपड़े भी फट गए थे.
खैर, सूर ने बाद में एसडीओ कार्यालय में जाकर अपना परचा दाखिल कर दिया. सूर कहते हैं कि ‘पार्टी कार्यालय में नेताओं के साथ विचार-विमर्श करने की वजह से उनको कुछ देर हो गई.’ उनका आरोप है कि यह माकपा के लोगों की हरकत है. वे कहते हैं कि ‘माकपा के कुछ समर्थक हमारे कार्यकर्ताओं में शामिल हो गए थे. उन्होंने ही मुझ पर हमला किया.’
पुलिस ने इस मामले में एक मामला दर्ज कर लिया है. लेकिन फिलहाल किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. वैसे, परचा भरने से पहले ही मिले इस सबक को नेताजी कम से कम चुनाव प्रचार के दौरान तो जरूर याद रखेंगे!

Wednesday, February 17, 2010

उनको सालता है जीत का गम!


गम और खुशी, यह दो शब्द क्रमशः हार और जीत के साथ जुड़े हैं। लेकिन क्या किसी को अपनी जीत का गम भी हो सकता है? जी हां, ऐसा भी होता है जब किसी को अपनी जीत का गम कोई 38 साल बाद भी साल रहा हो। ऐसे ही एक सज्जन का नाम है शिवपद भट्टाचार्य । पश्चिम बंगाल के तत्कालीन 24-परगना जिले में बरानगर के रहने वाले 74 वर्षीय भट्टाचार्य को वर्ष 1972 के विधानसभा चुनावों में अपनी जीत आज भी सालती है। वजह---उन्होंने उस चुनाव में भाकपा उम्मीदवार के तौर पर बरानगर विधानसभा से सीट पर माकपा नेता ज्योति बसु को हराया था। बसु इससे पहले वर्ष 1952 से उस सीट से लगातार छह बार चुनाव जीत चुके थे. लेकिन 1972 में वे वहां भट्टाचार्य से हार गए थे। दिलचस्प तथ्य यह है कि शिवपद ने वर्ष 1957 और 1962 के विधानसभा चुनावों में उसी बरानगर सीट पर बसु के समर्थन में चुनाव प्रचार किया था। लेकिन अब बसु के निधन के बाद भट्टाचार्य अपनी उस जीत से खुश नहीं हैं। उनको अपनी जीत का गम लगातार साल रहा है।
शिवपद कहते हैं कि ज्योति बसु हमारे नेता थे.अब लगता है कि अगर मैं उनके खिलाफ चुनाव मैदान में नहीं उतरा होता तो बेहतर होता। वे बताते हैं कि बसु बालीगंज में रहते थे और बरानर में चुनाव के दौरान अपनी कार से यहां आते थे। मुझे बरानगर की जिम्मेवारी मिली थी। बसु हमेशा यहां से भारी अंतर के साथ जीतते थे। अतीत के पन्ने पलटते हुए भट्टाचार्य बताते हैं कि 1957 में बरानगर में बसु का मुकाबला कांग्रेस के कानाईलाल ढोले से था। बसु ने मुझसे पूछा कि क्या होगा? मैंने कहा कि आप कम से कम 10 हजार वोटों के अंतर से जीतेंगे और वे जीत गए।
1972 में हार का मुंह देखने के बाद बसु ने अपना चुनाव क्षेत्र बदल लिया और सातगछिया चले गए। 1977 से 1996 तक वे वहां से लगातार जीतते रहे। शिवपद बताते हैं कि 1972 के विधानसभा चुनावों के बाद बसु के साथ उनकी कभी बातचीत नहीं हुई। वे कहते हैं कि ‘मैंने उनके साथ कई कार्यक्रमों में शिरकत की। वे मेरी ओर देख कर मुस्करा देते थे। लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं होती थी।
शिवपद फिलहाल भाकपा की राज्य समिति के सदस्य हैं। वे कहते हैं कि बसु की नीतियां मौजूदा मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की नीतियों से बेहतर थीं। भट्टाचार्य मानते हैं कि बंगाल में वामपंथी आंदोलन अब गलत राह पर चल रहा है। वे कहते हैं कि राज्य सरकार अब जमीन के अधिग्रहण, माओवादियों पर पाबंदी और केंद्र की कांग्रेस सरकार का सहारा लेकर पूंजीवादी नीतियों को बढ़ावा दे रही है।
शिवपद कहते हैं कि ज्योति बसु कामकाजी तबके के असली नेता थे. वे पहले ऐसे नेता थे जिसने संसदीय लोकतंत्र और वामपंथ के बीच बेहतर तालमेल बनाया था। बसु के राजनीति से संन्यास लेने के बाद ही वामपंथियों ने आम लोगों को समर्थन खो दिया।

हौसले ने बनाया रोल मॉडल


कच्ची उम्र में अपनी शादियां रोकने के लिए घरवालों और समाज के खिलाफ आवाज उठाते समय इन तीनों लड़कियों ने शायद सोचा भी नहीं होगा कि वे देश में बाल विवाह के खिलाफ अभियान में रोल मॉडल बन जाएंगी। पश्चिम बंगाल के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार पुरुलिया के बीड़ी मजदूर और हाकरों के परिवार की रेखा कालिंदी (13), सुनीता महतो 13) और अफसाना खातून (14) को बाल विवाह की प्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद करने और लोगों में जागरुकता फैलाने के लिए गणतंत्र दिवस के मौके पर दिल्ली में राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यह पहला मौका है जब बंगाल के किसी एक जिले की तीन लड़कियों को यह पुरस्कार मिला है।
तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली सुनीता कहती है कि एक साल पहले मेरे मात-पिता ने मेरा विवाह तय कर दिया था। इसकी जानकारी मिलने पर मैंने यह बात अपने साथ पढ़ने वाली दूसरी युवतियों को बताई। उनलोगों ने इसकी सूचना हमारी क्लासटीचर को दी। उसके बाद हम सबने मिल कर घरवालों को यह शादी नहीं करने के लिए मनाया। सुनीता आगे चल कर शिक्षिका बनना चाहती है।
रेखा ने भी अपने मात-पिता के दबाव के बावजूद कम उम्र में शादी करने से मना कर दिया. उसकी बड़ी बहन की शादी 11 साल की कच्ची उम्र में ही हो गई थी। रेखा कहती है कि इस पुरस्कार ने हमारे हौसले और मजबूत कर दिए हैं। अब पूरा भरोसा हो गया है कि हम जो कर रहे हैं वह सही है।
अब पुरुलिया जिले की यह तीन युवतियां इलाके में मिसाल बन गई हैं। इन तीनों ने सिर्फ अपना बाल विवाह रोका, बल्कि जिले की कई दूसरी युवतियों को भी घरवालों की मर्जी के अनुसार कम उम्र में शादी करने से रोक दिया। अब ऐसी 35 लड़कियां चाइल्ड एक्टीविस्ट इनिशिएटिव (सीएआई) के तौर पर काम कर रही हैं। यह सब गांव-गांव घूम कर लड़कियों को बाल विवाह से इंकार करने के लिए तैयार कर रही हैं। इनकी कोशिशों की वजह से इलाके में दर्जनों बाल विवाह रोके जा चुके हैं।
शिक्षा की व्यवस्था नहीं होने और गरीबी के चलते पुरुलिया जिले के कई हिस्सों में बाल विवाह की प्रथा अब भी कायम है। पुरुलिया के सहायक श्रम आयुक्त प्रसेनजीत कुंडू कहते हैं कि किसी ने भी इन लड़कियों को बाल विवाह के खिलाफ अभियान चलाने की सलाह नहीं दी थी। इन लोगों ने खुद ही एकजुट होकर गांव-गांव जाकर ऐसा करने का फैसला किया था। इन लड़कियों को हौसले से कुंडू भी अचरज में हैं। वे कहते हैं कि ‘पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए इन लड़कियों के लिए कच्ची उम्र में विवाह से इंकार करना और अपने हक के लिए आवाज उठाना बेहद मुश्किल है।

Tuesday, February 2, 2010

बिग बी और मैं !


यह शीर्षक भ्रामक है. इससे यह आभास हो सकता है कि मैं बिग बी यानी अमिताभ बच्चन के साथ किसी फिल्म में काम कर रहा हूं या फिर उनकी किसी फिल्म की पटकथा लिख रहा हूं. ऐसा कुछ भी नहीं है. पत्रकार हूं. लेकिन फिल्म की पटकथा लिखने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. वैसे, यह बात अंगूर खट्टे होने जैसी भी लग सकती है. फिर भी सच तो सच है.
आज से कोई 31 साल पहले 1979 में पहली बार कलकत्ता आया था. तब यह कलकत्ता ही था कोलकाता नहीं. घूमने आया था. एक परिचित के घर रहा. उसी समय जीवन का पहला कैमरा खरीदा-आगफा क्लिक थ्री. वही उस समय सबसे बेहतर था. फिल्म का एक रोल लगाने पर उससे बारह ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें खींची जा सकती थी. तब मैंने कलकत्ता के ज्यादातर दर्शनीय स्थल देखे थे. विक्टोरिया मेमोरियल और बिड़ला प्लेनेटोरियम के सामने उस कैमरे से खिंचवाई गई तस्वीर अब भी एक फोटो प्रेम में सुरक्षित रखी है. लेकिन उस बार एक चीज नहीं देख पाया. नेताजी इंडोर स्टेडियम. हालांकि उसमें देखने लायक कोई बात थी भी नहीं. लेकिन उसे नहीं देखने का मुझे काफी गहरा अफसोस हुआ दो साल बाद. क्यों? इस सवाल का जवाब आगे चल कर.
बचपन में मुझे फिल्में देखने का भारी शौक था. सातवीं-आठवीं कक्षा में कुछ दोस्त भी ऐसे ही मिल गए थे. हर नई फिल्म पहले दिन पहले शो में देखना तो आदत-सी बन गई थी. इसके लिए स्कूल से गायब रहने लगा. कई बार जेबखर्च के पैसे जुटा कर फिल्में देखता था कई बार स्कूल की फीस से. चरस, महबूबा और ऐसी ही न जाने कितनी फिल्में पहले शो में देखी थी उस दौर में. टिकट की खिड़की पर चाहे जितनी भी भीड़ हो हमें टिकटें जरूर मिल जाती थीं. किनारे से धक्का-मुक्की कर किसी तरह टिकट खिड़की के भीतर हाथ पहुंचाने की कला में मैं धीरे-धीरे उस्ताद हो गया था. अपनी इसी कला की वजह से हर बार टिकट कटाने का जिम्मा मुझे ही मिलता था.
फिल्में देखने लगा तो जाहिर है हीरो-हीरोइनों के प्रति दिलचस्पी भी बढ़ने लगी. आखिर में जेबखर्च के तौर पर मिलने वाले पैसों में से बचा कर मैं हर हफ्ते धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन से लेकर जितेंद्र और विनोद खन्ना तक को पत्र भेजने लगा. हजारों नहीं तो सैकड़ों पोस्टकार्ड तो जरूर भेजे होंगे. लेकिन अफसोस कि किसी ने एक पत्र का भी जवाब तक नहीं दिया. लेकिन इससे मेरा हौसला कम नहीं हुआ. पत्र भेजना जारी रहा. लेकिन इसबीच, एक दिन फिल्म देखने के लिए स्कूल से पेट दर्द का बहाना बना कर निकलते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया. घर आने पर पिता जी ने छाते के बेंत से ऐसी धुलाई की कि मां को बेंत के दाग और दर्द दूर करने के लिए कई दिनों तक देशी शराब मेरे बदन पर मलनी पड़ी थी. उसके बाद पढ़ाई पर ध्यान दिया. लेकिन मेरी संगत के चलते ही पिता जी ने तय कर लिया था कि हाईस्कूल के बाद इंटर के लिए मुझे देवरिया भेजना है. वहां शिवाजी इंटर कालेज में मेरे मामा पढ़ाते थे. मैं परीक्षा देकर वहां चला गया. वहीं 12वीं में पढ़ते हुए पहली बार घूमने के लिए कलकत्ता आया था.

कलकत्ता से लौटने के कोई दो साल बाद जब बिग बी की फिल्म याराना देखी तब मुझे नेताजी इंडोर स्टेडियम नहीं देखने का भारी अफसोस हुआ. फिल्म का एक गीत उसी स्टेडियम में फिल्माया गया था. खैर, जीवन की जद्दोजहद कई यादों और दर्द को धूमिल कर देती है. यही मेरे साथ भी हुआ. बीते दस सालों से कलकत्ता में रहते हुए कई बार नेताजी इंडोर स्टेडियम में जाना हुआ. कभी पत्रकार के तौर पर तो कभी बेटी के स्कूल के सालाना समारोह में. लेकिन बीते महीने बेटी के स्कूल के समारोह में जाने पर मेरा 29 साल पुराना अफसोस खत्म हो गया. अशोक हाल ग्रुप आफ स्कूल्स की ओर से हर चार साल पर बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक समारोह का आयोजन किया जाता है-स्पेक्ट्रम. अबकी स्पेट्रक्म में बिग बी ही मुख्य अतिथि थे. जगह थी नेताजी इंडोर स्टेडियम. वहां बैठे हुए लग रहा था मानो समय का पहिया एक पल में तीन दशक पीछे घूम गया.
बिग बी उस समारोह में पूरे ढाई घंटे बैठे रहे. उन्होंने भी अपने भाषण में इस स्टेडियम में हुई अपनी शूटिंग के दौर को याद किया. और मैंने भी एक अफसोस को मिटा लिया. जगह भी वही थी, आदमी (अमिताभ) भी वही, बस समय का पहिया तीन दशक आगे बढ़ गया था. लेकिन कहते हैं न कि देर आयद दुरुस्त आयद. जीवन में कई अफसोस रहेंगे. लेकिन अब उनमें से कम कम एक तो कम हो गया है. बस, इसी का संतोष है.

मौत के बाद राजनीति का मुद्दा बने बसु

प्रभाकर मणि तिवारी
आजीवन सिद्धांतों की राजनीति करने वाले माकपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु मौत के बाद अपने राज्य यानी बंगाल में राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बन गए हैं। सत्तारुढ़ वाममोर्चा से लेकर विपक्षी तृणमूल कांग्रेस तक उनको अपने सियासी हित में लगातार भुनाने में जुटी है। माकपा बसु की मौत से उपजी सहानुभूति को कम से कम अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों तक बनाए रखना चाहती है। उसकी मंशा इसी के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की है। व्यक्ति-पूजा पर भरोसा नहीं करने वाले वामपंथी राज्य में फिलहाल बसु के महिमामंडन में जुटे हैं। लेकिन दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने माकपा की इस रणनीति की काट के लिए बसु के मुख्यमंत्रित्व के कथित अंधेरे पक्ष को उजाले में लाने का प्रयास कर रही है।
ज्योति बसु मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने और सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद आखिरी सांस तक माकपा और उसकी अगुवाई वाले वाममोर्चा के मसीहा बने रहे। बीते लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपने भाषण के वीडियो टेप के जरिए दूर-दराज के मतदाताओं से वाममोर्चा को समर्थन देने की अपील की थी। लेकिन उनकी यह अपील कामयाब नहीं रही। बाद में होने वाले विधानसभा उपचुनावों में तो बसु ने तृणमूल कांग्रेस की सहयोगी कांग्रेस और उसके समर्थकों से भी वाममोर्चा उम्मीदवारों से समर्थन की अपील कर दी थी। उनकी इस अपील से राजनीतिक हलकों में हैरत हुई थी। अब माकपा की अगुवाई वाली सरकार अपने लंबे कार्यकाल की दो सबसे अहम चुनौतियों के सामने खड़ी है। इसी साल कोलकाता नगर निगम के चुनाव होने हैं। निगम पर फिलहाल वाममोर्चा का कब्जा है। अगले साल विधानसभा चुनाव होंगे। लेकिन राज्य में दो साल पहले शुरू हुई बदलाव की लहर से खुद वामपंथी भी आशंकित हैं। इसलिए उसने बसु की मौत से उफजी सहानुभूति को चुनावी हित में भुनाने की रणनीति बनाई है।
बसु के निधन और उनकी अंतिम यात्रा को मीडिया में व्यापक कवरेज मिला था। उसके बाद एक हफ्ते के भीतर ही बसु की श्रद्धांजलि सभा का आयोजन कर दिया गया। इसके अलावा महानगर समेत राज्य के तमाम इलाकों में बसु की तस्वीरों वाले विशालकाय बैनर और पोस्टर लगाए गए हैं। इन पर मोटी रकम खर्च की गई है। राज्य के विभिन्न स्थानों पर बसु की याद में होने वाली श्रद्धांजलि सभाओं का दौर अब तक जारी है। जाहिर है पार्टी बसु की यादों को जिलाए रख कर सियासी फायदा उठाना चाहती है।
दूसरी ओर, वामपंथियों की इस रणनीति को समझने के बाद तृणमूल कांग्रेस ने भी इसकी काट खोज ली है। वह वाममोर्चा के कार्यकाल में हुए कथित अत्याचारों के साथ ही अब बसु के 23 साल लंबे मुख्यमंत्रित्व के कथित काले पक्षों को लोगों के सामने लाने का प्रयास कर रही है। यह वजह है कि बीते रविवार को जब माकपा ने बसु की याद में महानगर में एक विशाल रैली आयोजित की तो ठीक उसी समय तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी मरीचझापी के शहीदों के परिजनों को सम्मानित कर रही थीं। उत्तर 24-परगना जिले के बारासत के पास मरीचझापी में वर्ष 1979 में बांग्लादेश से भारी तादाद में आए शऱणार्थियों पर पुलिस ने फायरिंग की थी और उनको राज्य से खदेड़ दिया था। तब बसु ही मुख्यमंत्री थे।
ममता बनर्जी ने मरीचझापी की घटना की नए सिरे से जांच कराने और पुलिसिया अत्याचार के शिकार लोगों को न्याय दिलाने की मांग की है। मरीचझापी का मुद्दा उठा कर पार्टी एक तीर से दो निशाने साधने का प्रयास कर रही है। वह इसके जरिए बसु की मौत से सहानुभूति बटोरने में जुटी माकपा की रणनीति का जवाब देना चाहती हैं। ममता ने वाममोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए कथित अत्याचारों की सूची में अब मरीचझापी का नाम भी जोड़ दिया है।
इससे पहले भी ममता वामपंथियों का एक मुद्दा छीन चुकी हैं। बीते साल तृणमूल की ओर से आयोजित शहीद रैली के दौरान ममता ने तेभागा आंदोलन और खाद्य आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के परिजनों को मंच पर बिठा कर उनको सम्मानित किया था। वर्ष 1946 में भाकपा के संगठन किसान सभा ने किसानों के हक में तेभागा आंदोलन शुरू किया था। उस समय किसानों को आधी फसल खेत के मालिक को देनी पड़ती थी। तेभागा (तीसरा हिस्सा) आंदोलन की मांग थी कि यह हिस्सा घटा कर एक तिहाई कर दिया जाए। राज्य में खाद्यान्नों की भारी किल्लत होने पर भाकपा ने 1959 में खाद्य आंदोलन शुरू किया था।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ज्योति बसु अपने संन्यास के बावजूद हर चुनाव में अहम भूमिका निभाते रहते थे। वे वामपंथियों की ढाल बने हुए थे। अब वामपंथी बसु की मौत से उपजी सहानुभूति के जरिए ही चुनावी वैतरणी पार करने के प्रयास में जुटे हैं। उनकी मंशा अगले चुनावों तक लोगों के दिलों में बसु को जिंदा रखने की है। यही वजह है कि पोस्टरों व बैनरों के जरिए बसु के सिद्धांतों का जम कर प्रचार किया जा रहा है। दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस भी इसकी काट की दिशा में काम कर रही है। इस अभियान से किसे कितना फायदा होगा, यह तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे। लेकिन राजनीति का मुद्दा बने बसु पर खींचतान फिलहाल दिलचस्प होती जा रही है। जनसत्ता

Monday, January 18, 2010

नहीं होगा बसु का अंतिम संस्कार

प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और माकपा के वरिष्ठ नेता ज्योति बसु का अंतिम संस्कार नहीं होगा। उन्होंने अपना शरीर पहले ही दान कर दिया था। उनकी इच्छा के अनुरूप मंगलवार को अंतिम यात्रा के बाद उनका शव यहां सरकारी एसएसकेएम अस्पताल को सौंप दिया जाएगा। बसु के पार्थिव शरीर को मंगलवार को सुबह साढ़े नौ बजे केंद्र पीस हैवन से प्रदेश के सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग ले जाया जाएगा।
माकपा के प्रदेश सचिव बिमान बोस ने बताया कि बसु के पार्थिव शरीर को चार घंटे के लिए, साढ़े 10 बजे से दोपहर ढाई बजे तक प्रदेश विधानसभा परिसर में रखा जाएगा, ताकि लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे सकें।
उन्होंने बताया कि इस दौरान बांग्लादेश समेत देश-विदेश के नेता बसु को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। बोस ने बताया कि इसके बाद उनकी देह को दोपहर तीन बजे अलीमुद्दीन स्ट्रीट स्थित पार्टी मुख्यालय ले जाया जाएगा। वहां से अंतिम यात्रा के तौर पर उन्हें एसएसकेएम अस्पताल ले जाएंगे। बसु की देह को पार्टी मुख्यालय में एक घंटे के लिए रखा जाएगा।
उन्होंने बताया कि इस दौरान वहां माकपा पोलितब्यूरो और केंद्रीय समिति के सभी सदस्य आएंगे। पार्टी मुख्यालय में आने वाले लोग शब्दों के माध्यम से अपनी संवेदनाएं प्रकट कर सकें, इसलिए वहां एक श्रद्धांजलि पुस्तिका भी रखी जाएगी।
ज्योति बाबू के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा क्योंकि उन्होंने इसे दान करने का फैसला किया था। उनके शरीर का उपयोग चिकित्सा संबंधी शोध के लिए किया जाएगा।
बसु ने करीब सात साल पहले ऐलान किया था कि उनकी मौत के बाद 'गणदर्पण' नामक एनजीओ को उनका शव दान कर दिया जाए। माकपा नेता राबिन देब ने बताया कि उनकी इस इच्छा के अनुरूप मंगलवार को 'पीस हेवेन' नामक फ्यूनरल पार्लर से उनका आखिरी सफर शुरू होगा। इसके बाद उनका पार्थिव शरीर सचिवालय व विधानसभा होते हुए पार्टी मुख्यालय और फिर एसएसकेएम अस्पताल ले जाया जाएगा।
बसु नेत्रदान कर चुके थे इसलिए एक नेत्र अस्पताल के डॉक्टरों ने उनकी आंखें निकाल कर सुरक्षित रख ली हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने दिवंगत नेता के सम्मान में सोमवार को अवकाश की घोषणा की है।
ज्योति बसु की अंतिम इच्छा थी कि वह साल्ट लेक स्थित इंदिरा भवन में अपनी आखिरी सांस लें। बसु के निजी सचिव जय कृष्ण घोष ने नम आंखों से कहा कि अस्पताल में भर्ती किए जाने के बाद वह लगातार कहते थे कि उन्हें इंदिरा भवन ले जाया जाए। वह मुझसे लगातार पूछा करते थे कि मुझे घर कब लेकर जाओगे। वह कहते थे कि तुमने मुझसे वादा किया था कि एक दिन अस्पताल में रखने के बाद तुम मुझे घर ले चलोगे। घोष ने कहा कि उनकी अंतिम इच्छा इंदिरा भवन में आखिरी सांस लेने की थी। उन्होंने कहा कि मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया।

बसु पर बना था वृत्तचित्र


बांग्लादेश में बचपन, लंदन में छात्र जीवन और उसके बाद पश्चिम बंगाल में सात दशक लंबे राजनीतिक जीवन की कितनी ही भूली-बिसरी यादें और घटनाएं। कोई पांच साल पहले अपने जीवन पर बनी दो घंटे लंबी डाक्यूमेंट्री को देखते हुए माकपा के वरिष्ठ नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु मानों अतीत में डूब गए थे।
जाने-माने फ़िल्मकार गौतम घोष की इस फ़िल्म का शो खत्म होने के बाद उन्होंने कहा था कि मुझे भी याद नहीं था कि मैंने इतनी बातें कहीं थी। मेरी यादें ताजा हो गई हैं।
वर्ष 1997 से 2004 यानी पूरे आठ साल की शूटिंग के बाद बनी ‘ज्योति बसुर संगे (ए जर्नी विथ ज्योति बसु) यानी ज्योति बसु के साथ एक सफर’ में पहली बार बसु के जीवन के छुए-अनछुए कई पहलू आम लोगों के सामने आए थे।
बंगाल के कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में पहली मई, 2005 को यह डाक्यूमेंट्री रिलीज हुई थी। अपना पूरा जीवन मेहनतकश लोगों के हितों की लड़ाई में बिताने वाले नेता के जीवन पर बनी फिल्म के लिए शायद पहली मई यानी मजदूर दिवस से बेहतर कोई मौका हो ही नहीं सकता था।
कोलकाता के नंदन सिनेमाघर में इस डाक्यूमेंट्री का प्रीमियर शो आयोजित किया गया था। इसके दर्शकों में ज्योति बसु, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और फिल्मकार मृणाल सेन समेत कई जानी-मानी हस्तियां शामिल थीं।
खुद बसु का कहना था कि यह फिल्म एक ऐतिहासिक दस्तावेज साबित होगी। फिल्म की शूटिंग पश्चिम बंगाल के अलावा विदेशों खासकर लंदन में की गई है।
इसमें बसु ने बचपन के कई ऐसे क्षणों को याद किया था जो राजनीतिक जीवन की आपाधापी में वे कब के भूल चुके थे।
इस फिल्म की शूटिंग हालांकि अलग-अलग टुकड़ों में आठ वर्षों तक हुई, लेकिन इसके लिए गौतम घोष ने बसु का इंटरव्यू वर्ष 2004 में लिया था।
घोष कहते हैं कि उन्होंने बसु पर फिल्म बनाने का फैसला इसलिए किया कि वे उन गिने-चुने राजनीतिज्ञों में से हैं जिन्होंने बीते सात दशकों के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को देखा है.
वे बताते हैं कि मैं उनके नजरिए को समझने का प्रयास करना चाहता था। फिल्म पूरी करने के लिए मैंने ज्योति बसु के सत्ता से रिटायर होने तक इंतजार करने का फैसला किया था ताकि वे उन सब मुद्दों पर खुल कर अपनी बात कह सकें जिन पर सत्ता में रहते कुछ नहीं कहा था।

आखिरी सांस तक मोर्चा के मसीहा बने रहे बसु

माकपा के बुजुर्ग नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु अपनी आखिरी सांस तक वाममोर्चा और अपनी पार्टी माकपा के मसीहा और संकटमोचक बने रहे। कोई नौ साल पहले सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद उनकी राजनीतिक सक्रियता में कहीं कोई कमी नहीं आई थी। वे दो साल पहले तक नियमित तौर पर अलीमुद्दीन सट्रीट स्थित पार्टी के मुख्यालय आते थे और हर मसले पर सरकार और पार्टी को सलाह देते थे। वाममोर्चा सरकार और माकपा जब भी किसी मुसीबत में फंसती थी तो बसु ही उसे उबारते थे। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद बीते नौ वर्षों में ऐसे अनगिनत मौके आए जब उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी को संकट से बचाया। वाममोर्चा के बाकी घटकों में भी बसु का वही स्थान था जो उनकी अपनी पार्टी में। घटक दलों के विवाद के समय भी बसु ही पंचायत करते थे। अब तक ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती जब घटक दल के किसी नेता ने बसु के फैसले पर एतराज जताया हो। बसु की बात सबके लिए पत्थर की लकीर साबित होती थी।
बीते लगभग पांच वर्षों के दौरान सिंगुर, नंदीग्राम, जमीन अधिग्रहण, सोमनाथ चटर्जी के माकपा से निष्कासन और राजनीतिक हिंसा समेत न जाने कितनी ऐसी समस्याएं पैदा हुईं जब बसु ने पार्टी व सरकार को सही रास्ता दिखाया। बसु आखिरी दम तक मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर चलते रहे। यही नहीं, उन्होंने इन सिद्धांतों का पालन करते हुए इसके व्यवहारिक पक्ष का भी ध्यान रखा। सरकार और पार्टी की गलती के समय वे उनकी खिंचाई करने से भी नहीं चूके। बसु हमेशा कहते थे कि सरकार के कामकाज की सकारात्मक आलोचना जरूरी है। राज्य में औद्योगिकीकरण की बयार चलने पर सरकार ने जब बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण शुरू किया तो सबसे पहले बसु ने ही इसके खिलाफ आवाज उठाई थी। उन्होंने तब दलील दी थी कि खेती की जमीन पर उद्योग नहीं लगाए जाने चाहिए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी जताई थी। बाद में विपक्ष ने इस मुद्दे को लपक लिया। हालांकि माकपा नेतृत्व ने तब बसु को विकास की दुहाई देकर समझा लिया था। लेकिन अगर सरकार ने उस समय उनकी नसीहत पर ध्यान दिया होता तो शायद सिंगुर और नंदीग्राम की फांस उसके गले में नहीं चुभती।
इसी तरह जब लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के निष्कासन के मुद्दे पर प्रदेश माकपा के नेता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से बगावत पर उतारू थे तब बसु ने उनको समझाया था। इस पूरे मामले में बसु की वजह से ही पार्टी की ज्यादा थुक्का-फजीहत नहीं हुई। अगर बसु ने तब नेताओं को नहीं समझाया होता तो शायद यहां महासचिव प्रकाश करात के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर नारे लगने लगते।
बसु ने अपने जीवन में पद के लिए कभी कोई समझौता नहीं किया। अगर वे चाहते तो वर्ष 1996 में प्रधानमंत्री बन सकते थे। लेकिन उन्होंने पार्टी के फैसले का सम्मान करते हुए वह कुर्सी ठुकरा दी। यह जरूर है कि उनको आखिरी दम तक इस बात का मलाल रहा। बाद में हालांकि पार्टी ने भी मान लिया कि वह फैसला गलत था। वे केंद्र की पूर्व यूपीए सरकार से वामदलों के समर्थन वापसी के भी खिलाफ थे। उन्होंने पार्टी में अपने स्तर पर इसका पूरा विरोध किया था। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व समर्थन वापस लेने पर आमादा था। उसके बावजूद बसु ने नेताओं से कहा कि समर्थन भले वापस ले लें, लेकिन सरकार नहीं गिरनी चाहिए। उनकी दलील थी कि देश एक मध्यावधि चुनाव झेलने की हालत में नहीं है।
सोमनाथ चटर्जी प्रकरण में हर ओर से हताश होने के बाद माकपा का केंद्रीय नेतृत्व भी बसु की शरण में आया और उनको इस्तीफे के लिए मनाने की जिम्मेवारी बसु को सौंपी। सोमनाथ को बसु का करीबी माना जाता रहा है। बसु ने ही सोमनाथ से इस मामले को ज्यादा तूल नहीं देने की सलाह दी।
सिंगुर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों पर भी बसु ने हमेशा उसी बात का समर्थन किया जो उचित था। उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं की तरह कभी कोई चुभने वाली टिप्पणी नहीं की। अपने लगातार गिरते स्वास्थ्य की वजह से बसु बीते दो चुनावों में पार्टी के लिए चुनाव प्रचार नहीं कर सके थे। उससे पहले 1977 के बाद वही स्टार प्रचारक हुआ करते थे। लेकिन पार्टी ने बीते चुनावों में भी उनका सहारा लिया। बसु के भाषण के वीडियो कैसेट तैयार कर दूर-दराज के गांवों में भेजे गए। ब्रिगेड रैली में भी बसु के भाषण का वीडियो कैसेट चलाया गया।
माकपा के विवादास्पद नेता और पूर्व खेल मंत्री सुभाष चक्रवर्ती बसु के खास लोगों में थे। वे जब तक जिए अपनी टिप्पणियों और कामकाज से सरकार और पार्टी के लिए मुसीबतें पैदा करते रहे। लेकिन बसु का संरक्षण होने की वजह से ही गंभीर से गंभीर गलती करने के बावजूद पार्टी नेतृत्व को कभी सुभाष के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का साहस नहीं हुआ। सुभाष कहते भी थे कि बसु उनको राजनीतिक गुरू हैं। वे उनके अलावा दूसरे किसी नेता की बात को कोई तवज्जों नहीं देते थे। सुभाष और उनकी पत्नी ही हर साल बसु के साल्टलेक स्थित आवास पर धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाते थे। बीते साल सुभाष की मौत से बसु काफी दुखी हुए थे। उन्होंने तब कहा था कि जाना मुझे चाहिए था. लेकिन चले गए सुभाष।
बसु अपने जीते-जी ही एक किंवदंती बन गए थे। उनके राजनीतिक कद की वजह से उनको अपनी पार्टी ही नहीं बल्कि विपक्ष का भी पूरा सम्मान हासिल था। माकपा और राज्य सरकार की नाक में दम करने वाली तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी भी बसु का उतना ही सम्मान करती थी जितना कोई माकपा नेता। वे कई बार बसु के बुलावे पर उनके घर गई थीं। सिंगुर व नंदीग्राम आंदोलन के चरम पर होने के समय भी बसु ने ममता को घर पर बुला कर उसे राज्य के हित में समझौता करने का अनुरोध किया था। अब माकपा में बसु के कद का ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं हो जिसे घटक दलों का भी पूरा सम्मान हासिल हो।

खूबियों और खामियों भरा रहा कार्यकाल

माकपा के सबसे बुजुर्ग नेता ज्योति बसु कोई एक चौथाई सदी तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई तरह के आंदोलनों और चुनौतियों से जूझते रहे। उनकी बैलेंस शीट में अगर कुछ कामयाबियां रहीं तो कुछ नाकामियां भी थीं। बसु अपने कार्यकाल के दौरान होने वाले तमाम आंदोलनों से अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ से निपटते रहे। ऐसे आंदोलनों में अस्सी के दशक में दार्जिलिंग की पहाड़ियों में हुए गोरखालैंड आंदोलन और नब्बे की दशक की शुरूआत में कूचबिहार जिले में हुए तीनबीघा आंदोलन का जिक्र किया जा सकता है।
वर्ष 1985 में सुभाष घीसिंग और उनके समर्थकों ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बैनर तले अलग राज्य की मांग में जोरदार आंदोलन शुरू किया था। लगभग तीन साल तक चले इस आंदोलन के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों की सरकारी संपत्ति नष्ट हो गई। आखिर 14-15 अगस्त, 1988 को केंद्र, राज्य और जीएनएलएफ के बीच तितरफा करार के जरिए पर्वतीय परिषद के गठन पर सहमित बनी। उसके बाद भी घीसिंग जब-जब बेकाबू होते रहे, बसु ने अपने कौशल से उनको शांत किया। कभी धमका कर , कभी फुसला कर तो कभी विकास कार्यों के लिए परिषद को ज्यादा धन दे कर। हांलाकि उस धन से पर्वतीय इलाके का विकास कम हुआ, घीसिंग और उनके करीबियों का ज्यादा। इसे बसु की नाकामी ही माना जाएगा कि पहाड़ी इलाके में शांति बहाल रखने के मकसद से उन्होंने कभी घीसिंग की कार्यशैली पर न तो कोई सवाल उठाया और न ही उस रकम का कोई हिसाब मांगा।
इसी तरह यह बसु की अगुवाई वाली सरकार का ही कौशल था कि 26 जून 1992 को खून का एक कतरा बहाए बिना तीनबीघा गलियारा बांग्लादेश को सौंप दिया गया। उससे पहले तक इस आंदोलन की आक्रामकता देख कर तो लगता था कि उस दिन सैकड़ों लाशें बिछ जाएंगी। आंदोलनकारियों का नारा ही था कि रक्त देबो, प्राण देबों, तीन बीघा देबो ना (खून देंगे, जान देंगे, लेकिन तीनबीघा नहीं देंगे)।
लेकिन बसु के कार्यकाल में राज्य में हजारों की तादाद में कल-कारखाने बंद हुए, लाखों मजदूर बेरोजगार हुए। पढ़े-लिखे बेरोगारों की फौज भी लगातार बढ़ती रही। सरकारी कर्मचारियों में कार्यसंस्कृति लगभग खत्म हो गई। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी खत्म करने का बसु सरकार का फैसला आज भी बंगाल के पिछड़ेपन की सबसे अहम वजह माना जाता है। कभी पढ़ाई में अव्वल रहने वाला बंगाल लगातार फिसड्डी होता गया। शिक्षा के अलावा इस दौरान स्वास्थ्य सेवाएं भी बदहाल होती गईं। बसु के कार्यकाल में ही उस बंगाल की ऐसी हालत हो गई जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि बंगाल जो आज सोचता है, वह बाकी देश कल सोचता है।
बसु की अगुवाई वाली सरकार अपने पूरे कार्यकाल के दौरान भूमि सुधारों का ही ढिंढोरा पीटती रही। हर साल अपनी विदेश यात्राओं को लेकर भी बसु विवादं में फंसते रहे। उनकी उन यात्राओं के दौरान राज्य में अरबों डालर के विदेशी निवेश के सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए। लेकिन उनमें से कितनों पर अमल हुआ और कितनी विदेशी पूंजी का बंगाल में निवेश हुआ, यह पता लगाने के लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है। बसु के कार्यकाल में राज्य में ट्रेड यूनियन आंदोलन मजबूत से आक्रामक हो गया। हर जगह लाल झंडे लेकर काम बंद किए गए। हड़ताल व रैलियां रोजमर्रा की बात बन गई। अपने इकलौते पुत्र चंदन बसु की संपत्ति और उनके कारनामों को लेकर भी बसु की कम छीछालेदर नहीं हुई। लेकिन इन सबसे जूझते हुए वे बने रहे और बंगाल में मुख्यमंत्री पद का पर्याय बन गए।

वामपंथ के एक युग का अवसान

(इस बात का अंदेशा तो पहली जनवरी को उस समय ही पैदा हो गया था जब ज्योति बसु कोलकाता के एक निजी अस्पताल में दाखिल हुए थे. लेकिन बीते शुक्रवार को यह अंदेशा गहरा गया था. आखिर इस जुझारू नेता ने रविवार को अंतिम सांस ली.बसु के निधन पर जनसत्ता के लिए विभिन्न पहलुओं पर कई रिपोर्ट्स लिखी है. उनको साभार यहां दे रहा हूं ताकि ब्लाग पर भी बसु के जीवन के कई अनछुए पहलू सामने आ सकें.----प्रभाकर मणि तिवारी)
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे ज्योति बसु
वर्ष 1920—महानगर कोलकाता (तब कलकत्ता) में धर्मतल्ला स्थित लोरेटो स्कूल की पहली कक्षा में एक दुबला-पतला, शर्मीला और गोरा लड़का पढ़ता है। कक्षा में उसके अलावा बाकी लड़कियां ही हैं। शायद यह भी उसके शर्मीलेपन की एक वजह है। दूसरे किसी स्कूल में दाखिला नहीं मिला तो पिता ने यह कर उसे यहां भर्ती कर दिया था कि एक साल बर्बाद करने से तो लड़कियों के स्कूल में पढ़ना ही बेहतर है। इसलिए उसे एक साल वहीं पढ़ना पड़ता है।
वर्ष 1930—आक्टर लोनी मोनुमेंट (शहीद मीनार) के पास नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भाषण होने वाला है। वह शर्मीला लड़का, जो अब सोलह साल का किशोर हो चुका है और उसकी मसें भींगने लगी हैं, अपने चचेरे भाई के साथ खादी के कपड़े पहने नेताजी को सुनने वहां पहुंच जाता है। मौके पर पुलिस का भारी इंतजाम है। पुलिस लोगों पर लाठियां भांजती है। लोग भागने लगते हैं। लेकिन वे दोनों तय कर लेते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, भागना नहीं है। इस नहीं भागने के निश्चय की वजह से कई लाठियां उसकी पीठ पर भी बरसती हैं। घर पहुंचने पर मां उन चोटों पर हल्दी-चूना लगा देती है।
वर्ष 1946—वामपंथी दल ने कुछ साल पहले ही इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास कर लौटे 32 साल के उस शर्मीले युवक को रेलवे क्षेत्र से चुनाव लड़ाने का फैसला किया है। उस युवक का मुकाबला बीए (बंगाल-असम) रेलवे इंप्लाइज यूनियन के अध्यक्ष हुमायूं कबीर से है। कबीर के पीछे कांग्रेस पार्टी की ताकत और पैसा है। वह युवक जानता है कि कबीर को जिताने के लिए जम कर धांधली होगी। फिर भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। और आखिर में वह कबीर को पछाड़ कर चुनाव जीत जाता है।
वर्ष 2000----पश्चिम बंगाल में बीते 23 वर्षों से वाममोर्चा का राज है। तब से मुख्यमंत्री भी एक ही हैं---ज्योति बसु। उनके नाम सबसे लंबे समय तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड है। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहे गेगांग अपांग इस रिकार्ड को तोड़ सकते थे। लेकिन वे दो साल पहले ही सत्ता से बाहर हो गए हैं। मुख्यमंत्री की अब उम्र हो चली है। स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। इसलिए अक्तूबर की 27 तारीख को , कभी लोरेटो स्कूल में लड़कियों के बीच पढ़ने वाला वह अकेला लड़का, नेताजी को सुनने के लिए पीठ पर लाठी खाने वाला वह किशोर और विधायक पद के चुनाव में हुमायूं कबीर जैसे दिग्गज को पछाड़ने वाला वह किशोर मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का एलान कर देता है। अगले ही दिन वाममोर्चा की बैठक में वह इस्तीफा दे देता है जिसे देर रात फैक्स से राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है। और लोरेटो के उस शर्मीले लड़के से बंगाल के अभिभावक तक का सफऱ तय करने वाले ज्योति बसु का मुख्यमंत्री के तौर पर पांच नवंबर, 2000 ही आखिरी दिन होता है। अगले दिन से बुद्धदेव भट्टाचार्य यह कुर्सी संभाल लेते हैं।
बसु का जन्म आठ जुलाई, 1914 को महानगर के हैरीसन रोड (अब महात्मा गांधी रोड) स्थित एक घऱ में हुआ था। उनके पिता, चाचा और ताऊ असम के घबड़ी में रहते थे। उनके दादाजी नौकरी के सिलसिले में वहां गए थे। चाचा और ताऊ वकील थे। बसु का पैतृक घर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में ढाका जिले के बारूदी गांव में था। मामा का घर भी वहीं था। पिता निशिकांत बसु ने असम के डिब्रूगढ़ स्थित बेरी ह्वाइट मेडिकल स्कूल (जिसका नाम अब असम मेडिकल कालेज हो गया है) से चिकित्साशास्त्र में डिग्री हासिल की। ढाका में कुछ दिनों तक प्रैक्टिस करने के बाद वे अमरीका चले गए। वहां आगे की पढ़ाई भी की और नौकरी भी। निशिकांत लगभघ छह साल तक वहां रहे। इसी दौरान वे अपने एक भाई को भी इंजीनियरिंग पढ़ाने वहां ले गए। विदेश से लौटने के बाद निशिकांत कलकत्ता में प्रैक्टिस करने लगे। तब उनका परिवार हिंदुस्तान बिल्डिंग में रहता था जहां बाद में एलीट सिनेमाहाल बना। उनके भाइयों के परिवार भी साथ ही रहते थे।
हिंदुस्तान बिल्डिंग के मालिक नलिनी रंजन सरकार से ही निशिकांत ने हिंदुस्तान पार्क में एक बीघा जमीन खरीदी। तब वहां जंगल था। प्लाट के चारों ओर धान के खेत, नारियल के पेड़ और तालाब थे। वहीं मकान बना कर निशिकांत पूरे परिवार के साथ रहने लगे। तब तक इलाके में सड़कें बनने लगी थीं और ट्राम लाइन बिछाने का काम शुरू हो गया था। यह 1924-25 की बात है। तब ज्योति बसु महज दस साल के थे और सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ रहे थे।
वर्ष 1930-31 में बसु के सेंट जेवियर्स में पढ़ने के दौरान ही बंगाल में क्रांति का ज्वार आ चुका था। चटगांव में क्रांतिकारी हथियारों के भंडार पर कब्जा कर रहे थे तो जजों और मजिस्ट्रेटों की हत्याएं भी हो रही थी। उसी साल महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ अनशन आंदोलन शुरू किया। किशोर मन पर इन घटनाओं का असर पड़ना स्वाभाविक था। बसु पर भी पड़ा। उनके किशोर मन में देश प्रेम की अनुभूति पैदा हुई और भावातिरेक में उन्होंने एलान कर दिया कि आज स्कूल नहीं जाऊंगा। पुत्र के मन का मर्म समझते हुए पिता ने भी बसु से कुछ नहीं कहा और वे उसे लेकर अपने क्लीनिक चले गए।
बसु के ताऊ नलिनीकांत बसु कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे। सेवानिवृत्ति के बाद उनको महानगर के मछुआबाजार बम कांड के अभियुक्त निरंजन सेन और उनके साथियों के खिलाफ सुनवाई के लिए गठित एक विशेष प्राधिकरण का जज बनाया गया। बसु के पिता ने उनको मना भी किया था। बसु और उनके घरवालों को यह बात अच्छी नहीं लगी। ज्योति बसु निरंजन सेन के बारे में ज्यादा कुछ तो नहीं जानते थे। लेकिन उनको यह जरूर मालूम था कि वे लोग जो कुछ कर रहे हैं, देश की आजादी के लिए ही कर रहे हैं। ताऊ जी के जज रहने के दौरान पुलिस ढेर सारी प्रतिबंधित किताबें-साहित्य जब्त कर उनके घर छोड़ जाती थी। उनमें शरतचंद्र की लिखी पथेर दाबी भी थी। बसु ने चोरी-छिपे इस किताब को पढ़ लिया। वर्ष 1930 में जब चटगांव में हथियारों के भंडार पर क्रातिंकारियों का कब्जा हुआ तब यह खबर फैली कि इसमें बंगालियों का कोई हाथ नहीं है। तब किसी को भी इस बात पर यकीन नहीं था कि बंगाली ऐसा कर सकते हैं। इसका खुलासा बाद में हुआ। उस समय सेंट जेवियर्स के पादरियों ने जब इस कांड के खिलाफ परचे बांटे तो बसु ने इसका विरोध किया। उनकी दलील थी कि यह काम तो देशहित में है।
सेंट जेवियर्स में स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद बसु ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया। वहां आनर्स के साथ डिग्री लेने के बाद 21 साल की उम्र में बैरिस्टरी पढ़ने के लिए वे इंग्लैंड रवाना हो गए। बसु वहां चार साल तक रहे और सच कहा जाए तो बसु के मन में वामपंथी आंदोलन के बीज इंग्लैंड में रहने के दौरान ही पड़े। यूरोप में होने वाली तत्कालीन उथल-पुथल ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। तब हिटलर और मुसोलिनी के डंके बज रहे थे। इंग्लैंड के तमाम विश्वविद्यालय राजनीतिक विचार-विमर्श के केंद्र बन चुके थे। उस समय कृष्ण मेनन इंडिया लीग के सर्वेसर्वा थे। लीग ने विदेशों में रहने वाले भारतीयों के दिलों में देश की आजादी का अलख जगाने की दिशा में सराहनीय काम किया था। उसी समय बसु भी मेनन के संपर्क में आए और धीरे-धीरे उनमें काफी घनिष्ठता पैदा हो गई। उन्हीं दिनों भूपेश गुप्ता भी लंदन पहुंचे। उनलोगों का एक गुट बन गया।
इन छात्रों ने इंग्लैंड के कई प्रमुख वामपंथी नेताओं के साथ मेलजोल बढ़ाया। इनमें हैरी पोलिट, रजनी पाम दत्त और वेन ब्राडले के नाम उल्लेखनीय हैं। बसु की अगुवाई में वहां भारतीय छात्रों को एकजुट करने का अभियान भी शुरू हुआ। लंदन, कैंब्रिज और आक्फोर्ड विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों के गुट बन गए। गुट के सभी सदस्य वामपंथी विचारधारा के थे। इनमें रजनी पटेल, पी.एन. हक्सर, मोहन कुमार मंगलम, पार्वती मंगलम, इंद्रजीत गुप्त, रेणु चक्रवर्ती, निखिल चक्रवर्ती, अरुण बोस और एन.के.कृष्णन प्रमुख थे। भारतीय छात्रों को एकजुट कर लंदन मजलिस का गठन होने के बाद बसु ही इसके संस्थापक सचिव बने। मजलिस की बैठकों में फिरोज गांधी भी मौजूद रहते थे। वे इंडिया लीग के सक्रिय नेता थे। स्पेन के गृहयुद्ध के दौरान अलगाववादी फ्रांको के खिलाफ ब्रिटिश वामपंथी नेताओं के मौदान में उतरने की घटना ने बसु के युवा मन पर काफी असर डाला और उन्होंने धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति में उतरने का फैसला किया। उसी दौरान उनमें मार्क्सवादी साहित्य के प्रति भी रुझान बढ़ा।
कृष्ण मेनन ने ही बसु को नेहरु से मिलवाया था। बैरिस्टरी की परीक्षा देकर बसु 1940 में भारत लौट आए। यह तो लंदन में ही तय हो गया था कि स्वदेश लौट कर पूरी तरह पार्टी का काम करना है। तब तक विश्वयुद्ध भी शुरू हो गया था। बसु ने बैरिस्टर के तौर पर कलकत्ता हाईकोर्ट में अपना नाम तो दर्ज कराया था। लेकिन उन्होंने कभी प्रैक्टिस नहीं की। बसु के पिता उनके इस पैसले से नाराज थे। वे सोचते थे कि जब देशबंधु चित्तरंजन दास बैरिस्टरी और राजनीति एक साथ कर सकते हैं तो यह लड़का (बसु) ऐसा क्यों नहीं कर सकता। इसबीच, पिता ने उनकी शादी भी करा दी। वैसे, खुद बसु विवाह के पक्ष में नहीं थे। वे जानते थे कि जीवन की लड़ाई बहुत कठिन है। विवाह के कुछ दिनों बाद ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। बसु ने जब पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर काम शुरू किया तब पार्टी पर प्रतिबंध लगा था। सो, सब काम गोपनीय तरीके से ही करना पड़ता था। वर्ष 1942 की अगस्त क्रांति से कुछ दिनों पहले पार्टी से प्रतिबंध हटाया गया। वामपंथियों ने उस समय भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। उनकी दलील थी कि अभी आंदोलन का सही समय नहीं आया है। इस वजह से पार्टी को देश भर में जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। वर्ष 1945 में पार्टी की पोलित ब्यूरो ने बसु को प्रदेश समिति का संयोजक मनोनीत कर दिया।
इससे पहले पार्टी ने बसु को मजदूरों को संगठित करने का काम सौंपा था। जब वे बंदरगाह और डाक मजदूरों के बीच पैठ नहीं बना सके तो उनको रेलवे मजदूरों के बीच भेजा गया। बसु ने पूर्वी बंगाल से असम तक घूम कर बी.ए.(बंगाल असम) रेलवे वर्कर यूनियन का गठन किया। वे इसके पहले महासचिव बने। यूनियन के अध्यक्ष बने बंकिम मुखर्जी। रेलवे यूनियन और दूसरी ट्रेड यूनियन गतिविधियों ने ही बसु को मांज कर चमकाया। उनकी अगुवाई में ही एक दिन की ऐतिहासिक रेल हड़ताल भी हुई। नेतृत्व के उनके गुण को ध्यान में रख कर ही पार्टी ने 1946 में हुए विधानसभा चुनाव में बसु को रेलवे क्षेत्र से उम्मीदवार बनाने का फैसला किया। उस चुनाव में कम अंतर से ही, लेकिन बसु जीत गए। उनकी पार्टी के दो और लोग तब चुनाव जीते थे। दार्जिलिंग से रतनलाल ब्राह्मण और दिनाजपुर से रूप नारायण राय। उस चुनाव के बाद बंगाल में सोहरावर्दी की अगुवाई में मुस्सलिम लीग की सरकार बनी थी। बाद में बसु को कानून सभा का भी सदस्य चुना गया। बसु और दूसरे नेताओं ने 16 अगस्त, 1946 को बंगाल में होने वाले दंगों के दौरान जान हथेली पर ले कर काम किया। बसु ने माना था कि उस दंगे में कलकत्ता में 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। दंगों के बाद राहत और पुनर्वास के काम में भी पार्टी ने अहम भूमिका निभाई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री सोहरावर्दी ने इस बात के लिए नेताओं की सराहना की थी।
वर्ष 1947 की शुरूआत में ऐतिहासिक तेभागा आंदोलन के दौरान भी बसु ने अहम भूमिका निभाई थी। किसानों की मांग थी कि फसल का दो-तिहाई हिस्सा उनको मिलना चाहिए। भू-राजस्व आयोग ने 1940 में किसानों की यह मांग मान ली थी। लेकिन उसकी सिफारिशों को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया था। 27 मार्च, 1948 को भाकपा की राज्य समिति पर प्रतिबंध लगाकार उसके तमाम बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें ज्योति बसु भी थे। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी। उनको प्रेसीडेंसी जेल में रखा गया। तीन महीने बाद वे इस शर्त पर जेल से रिहा हुए कि पुलिस को सूचित किए बिना अपना पता नहीं बदलेंगे। उन्हीं दिनों अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में शिरकत करने बसु बंबई गए। पुलिस ने इसे पता बदलना माना और रास्ते में ही खड़गपुर स्टेशन पर उनको गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में जमानत तो मिल गई, लेकिन साथ ही हर सप्ताह थाने में हाजिरी देने की शर्त भी जोड़ दी गई। इसबीच, पांच दिसंबर, 1948 को बसु दूसरी बार विवाह बंधन में बंधे। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि वामपंथी के अभिभावक का दर्जा हासिल करने वाले बसु की मंशा पर उसी साल पार्टी नेतृत्व ने भी सवाल उठाया था। उनको बाकायदा पत्र लिख कर कैफियत मांगी गई कि वे भूमिगत रह कर काम क्यों नहीं करते। उनकी दूसरी शादी पर भी सवाल उठाए गए। बसु ने जवाब दिया कि वे पार्टी के निर्देश और नीतियों के अनुरूप ही काम कर रहे हैं। बाद में बसु को लंबे अरसे तक भूमिगत रहना पड़ा था।
18 जनवरी, 1952 को हुए विधानसभा चुनाव में बसु बरानगर सीट से चुनाव जीत गए। उनको 45 फीसद से भी ज्यादा वोट मिले थे। उन्होंने कांग्रेस के राय हरेंद्र नाथ चौधरी, जो डा. विधानचंद्र राय सरकार में मंत्री थे, को पराजित किया। चुनाव के बाद गठित विधानसभा में काफी हील-हुज्जत के बाद वामपंथी पार्टी को विरोधी दल और बसु को विपक्ष के नेता के तौर पर स्वीकृति मिली। इस दौरान एक ओर जहां बसु की राजनीतिक गतिविधियां बढ़ीं, वहीं उनका परिवार भी बढ़ा। सितंबर, 1952 में वे एक बच्चे के पिता बने। उसका नाम चंदन रखा गया। वही बसु की इकलौती संतान है। बसु के जेल में रहने या भूमिगत रहने पर उनकी पत्नी कमल बसु अपने पिता वीरेन बसु के घर चली जाती थी। कई बार बसु भी छिप कर वहीं रहे।
धीरे-धीरे दिन बीतते रहे। राज्य में साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में नक्सल आंदोलन ने भी जोर पकड़ा। बसु उसी समय राज्य में बनी साझा सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। लेकिन यह सरकार ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकी। उसके बाद राज्य में फिर कांग्रेस सत्ता में आई। इमरजंसी खत्म हने के बाद 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा भारी बहुमत के साथ जीत कर सत्ता में आया। ज्योति बसु उसके पहले मुख्यमंत्री बने और तमाम रिकार्ड बनाते हुए 23 साल से भी लंबे अरसे तक इस पद पर बने रहे। उन्होंने लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहने का एक अनूठा विश्वरिकार्ड बनाया। लेकिन उनकी नजरों में इस रिकार्ड की कोई अहमियत नहीं थी। नवंबर, 2000 में यह कुर्सी छोड़ते हुए उन्होंने कहा था कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं इतने लंबे अरसे तक पद पर बना रहा। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण वाममोर्चे का सत्ता में बने रहना है।
वर्ष 1991 और खासकर 1996 के विधानसभा चुनावों में वाममोर्चे को जिताने के बाद बसु की छवि मोर्चे और राज्य की राजनीति में एक मसीहा जैसी हो गई। तब तक वे इतने लंबे अरसे तक राज कर चुके थे कि नई पीढ़ी के लोगों को यह याद करने और बताने में मुश्किल होती थी कि उनके पहले राज्य का मुख्यमंत्री कौन था। उस समय तक बसु राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुके थे। तब तक वे अस्सी पार कर चुके थे। उन पर बढ़ती उम्र का असर कहें या दबाव, पहली बार 1996 के चुनावों के समय ही नजर आया था। तब लोकसभा और विधानसभा चे चुनाव एक साथ ही हुए थे। बसु ने अपनी ढलती उम्र और गिरते स्वास्थ्य का हवाला देकर चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन पार्टी के दबाव के आगे उनको अंततः झुकना ही पड़ा। वे लड़े और लगातार पांचवीं बार जीते भी। लेकिन जीत का अंतर कम हो गया था। इसकी वजह थी इलाके के लोगों का असंतोष। जिस विधानसभा क्षेत्र से जीत कर कोई नेता लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने, अगर उस इलाके में लोगों को ढांचागत सुविधाएं भी मुहैया नहीं हों तो असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है।
नई ऊंचाइयों को छूने के बावजूद बसु हमेशा एक अनुशासित कामरेड रहे। पार्टी का निर्देश ही उनके लिए सबसे ऊपर होता था। ऐसा नहीं होता तो वर्ष 1996 में पार्टी का निर्देश मान कर उन्होंने चुपचाप प्रधानमंत्री की कुर्सी को हाथ से नहीं निकल जाने दिया होता। वह कुर्सी उनको तश्तरी में रख कर पेश की गई थी। बस, हां कहने की देर थी और बसु राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे होते। बसु इसके लिए तैयार थे। लेकिन पोलितब्यूरो ने मना कर दिया। तब अगर उनकी पार्टी ने रोड़ा नहीं अटकाया होता तो आज इतिहास में एक और अध्याय जुड़ गया होता। सरकार का मुखिया नहीं बन पाने का मलाल बसु को जीवन भर कटोटता रहा। इसलिए बाद में अपनी जीवनी में उन्होंने इसे एक ऐतिहासिक भूल करार दिया।
वर्ष 2000 के पहले भी उन्होंने कई बार मुख्यमंत्री का पद छोड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन पार्टी के अनुरोध पर वे बने रहे। एक बार तो तत्कालीन महासचिव सुरजीत सिंह ने उको यह कह कर मना लिया कि आपके हटते ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा। उन दिनों बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू होने की अटकलें तेज थीं। राज्य की कानून व व्यवस्था की स्थिति पर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और बसु के बीच बाकायदा पत्र युद्ध छिड़ा था। तब तो वे मान गए। लेकिन उसके कोई दो महीने बाद ही उन्होंने पार्टी से सलाह-मशविरे के बाद सरकार से संन्यास का एलान कर दिया।
बसु ने बंगाल में लंबे अरसे तक राज किया। इसलिए उनकी बैलेंस शीट में उपलब्धियों के साथ नाकामियों का होना भी स्वाभाविक है। लेकिन अपनी तमाम खूबियों और खामियं के बावजूद ज्योति बसु अपने जीते-जी ही किंवदंती बन गए थे। वे आखिरी दम तक मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर पूरी शिद्दत से चलते हुए सिर्फ माकपा ही नहीं, ब्लकि पूरे वाममोर्चा के मसीहा और संरक्षक बने रहे।

Friday, January 8, 2010

इसलिए चुप थी कलम

बीते दो महीने मुश्किल तो नहीं लेकिन काफी व्यस्त रहे. पहले लंबी छुट्टी में विभिन्न जगहों की सैर. कुछ निजी तो कुछ पारिवारिक जिम्मेवारियां. उसके बाद लौटने पर दफ्तर में काम की व्यस्तता. इसके अलावा कुछ और जिम्मेवारियां और मजबूरियां. कुल मिला कर इसीलिए ब्लाग लेखन नहीं हो सका. अब नए साल में फिर नियमित लिखने की सोच रहा हूं. इन दो महीनों के दौरान भी बहुत कुछ हुआ. कभी फुर्सत में उन पर भी लिखूंगा. फिलहाल तो नए साल की खुमारी और शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के बाद बेटी की परीक्षा की तैयारियां और ऐसे ही छोटे-बड़े कई मुद्दे सामने हैं.
हाल में कुछ नए दोस्त मिले. पुराने दोस्त तो अब दोस्त नहीं रहे. मेरी तरह उनकी भी कामकाज की व्यस्तताएं होंगी. अब उनमें से कुछ ही याद करते हैं. बाकी लोग संपादक या उसके बराबर हो गए हैं. बड़े शहरों में. कुछ ऐसे भी हैं जो सिर्फ काम पड़ने पर याद करते हैं. मैं चाह कर भी वैसा नहीं हो पाता. कुछ मित्र, परिचित ऐसे हैं जिनसे लगातार संपर्क में रहता हूं. इसलिए नहीं कि उनसे कोई काम पड़ सकता है. बल्कि इसलिए इतने लंबे करियर में कहीं न कहीं साथ काम किया था. कुछ अच्छी यादें जुड़ी हैं. उनको ताजा करने के लिए उनसे मेल और फोन से संपर्क रहता है.
कई लोगों से साल में एकाध बार नए साल या दीवाली के मौके पर ही बात हो पाती है. लेकिन इस दौर में महानगरीय जीवन और पत्रकारिता के पेशे की व्यस्तताओं के बीच यही क्या कम है.
बहरहाल, अब कोशिश करूंगा कि ब्लाग पर इतना लंबा अवकाश नहीं हो.