Saturday, October 24, 2009

महज एक ट्रेन नहीं, संस्कृति भी है मेट्रो


देश की पहली मेट्रो रेल शनिवार यानी 24 अक्तूबर को अपने सफर के 25 साल पूरे कर लिए हैं. वर्ष 1984 में इसी दिन पहली मेट्रो ट्रेन ने कोलकाता में धर्मतल्ला से भवानीपुर तक की दूरी तय की थी. अपनी चौथाई सदी के सफर में इस भूमिगत सेवा ने महानगर के लोगों की रहन-सहन में बदलाव तो किया ही है, इसकी संस्कृति भी काफी हद तक बदल दी है. मेट्रो की शुरूआत के बाद महानगर में जो नई संस्कृति विकसित होने लगी थी, वह अब युवास्था में पहुंच गई है. अब हाल में मेट्रो के विस्तार के बाद इसके पांच स्टेशन जमीन से ऊपर बने हैं. पहले सिर्फ दमदम और टालीगंज (अब महानायक उत्तम कुमार) ही जमीन पर थे और बाकी जमीन के भीतर.
देश में अपने किस्म की इस पहली परियोजना का शिलान्यास तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 29 दिसंबर, 1972 को किया था. इसका निर्माण कार्य 1972 में शुरू हुआ था. लेकिन महानगर के उत्तरी सिरे को दक्षिण से जोड़ने वाली इस परियोजना में जमीन अधिग्रहण जैसी बाधाओं की वजह से इस पर पहली ट्रेन 24 अक्तूबर,1984 को चली. उसके बाद इसे टालीगंज तक बढ़ाया गया. धन की कमी से से भी इसका काम प्रभावित हुआ. बाद में कोई छह बरसों तक विभिन्न वजहों से परियोजना लगभग ठप रही. आखिर में दमदम से टालीगंज तक 16.45 किमी की दूरी के बीच मेट्रो का सफर 1995 में शुरू हुआ. उस समय जमीन के लगभग सौ फीट नीचे सुरंग बना कर उसमें ट्रेन चलाना इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी चुनौती माना गया था. अब इसी साल 22 अगस्त को टालीगंज के बाद पांच नए स्टेशन इसमें जुड़े हैं.
अपने तय समय और लागत के मुकाबले देरी और कई गुना खर्च से पूरी होने वाली इस परियोजना ने महानगर के लोगों के लिए परिवहन का मतलब ही बदल दिया. पहले बसों के अलावा ट्रामें ही कोलकाता में परिवहन का सुलभ साधन थीं. लेकिन सड़कों पर जाम की वजह से इस सफऱ में काफी वक्त लगता था. मेट्रो ने लोगों का वक्त बचाया. जो दूरी बसों के जरिए दो घंटे में पूरी होती थी, वह अब महज आधे घंटे में हो जाती है. इस भूमिगत ट्रेन ने लोगों की आदतें भी बदल डाली. पहले बसों और ट्रामों में सफऱ के दौरान लोगों को बीड़ी-सिगरेट पीने और जहां-तहां पान की पीक फेंकने की आदत थी. लेकिन मेट्रो में शुरू से ही इन चीजों पर पाबंदी लग थी. इस ट्रेन ने यात्रियों को काफी हद तक प्रदूषण से निजात दिला दी.
बीते 15 बरसों से मेट्रो में सफर करने वाले सरकारी कर्मचारी विमल कांति दास कहते हैं कि ‘मेट्रो ने हमारी उम्र में कई साल जोड़ दिए. पहले दफ्तर आने-जाने में ही कई घंटे लग जाते थे. अब यह कीमत समय बच जाता है.’ इसके अलावा प्रदूषण से मुक्ति भी मिल गई है. मेट्रो में सफऱ करने वाली एक महिला श्यामली कहती हैं कि ‘मेट्रो ने लोगों की आदतें बदल दी हैं. मेट्रो शुरू होने के बाद ही लोगों को समय की कीमत समझ में आई. पहले दफ्तर आने-जाने में समय तो ज्यादा लगता ही था, थकान भी बहुत होती थी. अब इन ट्रेनों में भीड़ के बावजूद लोग कुछ मिनटों के भीतर ही अपने मुकाम तक पहुंच जाते हैं.’ वे कहती हैं कि ‘मेट्रो का सफर तो टैक्सी के मुकाबले भी आरामदेह है. उससे बेहद सस्ता तो है ही.’
मेट्रो के पहले सफऱ के समय इसके चीफ इंजीनियर रहे अशोक सेनगुप्ता पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि ‘यह परियोजना उस समय इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी और कठन चुनौती थी.’ वे बताते हैं कि ‘इस परियोजना की डिजाइन से लेकर इसमें इस्तेमाल तमाम उपकरण भारत में ही बने थे. इसके निर्माण के दौरान कई अप्रत्याशित चुनौतियों से जूझना पड़ा. लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी. धर्मतल्ला यानी एस्पलानेड से भवानीपुर (अब नेताजी भवन) के बीच जब पहली मेट्रो ट्रेन चली तो हमें लगा कि सारी मेहनत सफल हो गई.’ सेनगुप्ता भी कहते हैं कि मेट्रो ने लोगों की आदतों में बदलाव आया है. सरे राह थूकने वाले लोग मेट्रो में थूकने से परहेज करते हैं.
यानी एक चौथाई सदी के अपने सफर में इस रेल ने सिर्फ लोगों का समय ही नहीं बचाया, बल्कि उनकी कई बुरी आदतें भी बदल दी हैं. और अब तो इस मेट्रो को देखते, इसमें सफर करते और इसकी संस्कृति में पली एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है.

Saturday, October 17, 2009

उनकी ज़िंदगी से जुड़े हैं पटाखे


दीवाली को खुशियों का त्योहार माना जाता है. लेकिन पश्चिम बंगाल में राजधानी कोलकाता से सटे नुंगी गांव में यह सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि रोजीरोटी का जरिया भी है. यानी उनके लिए यह दोहरी खुशी का मौका है. पहली तो यह कि दीवाली उनके लिए भी खुशियों का त्योहार है और दूसरी यह कि दीवाली उनके लिए पूरे साल की मेहनत का नतीजा लेकर आती है. दरअसल, इस गांव में घर-घर में खासकर महिलाओं के हाथों बनने वाले पटाखों से ही पूरे साल घर का खर्च निकलता है. दक्षिण 24-परगना जिले में स्थानीय लोगों के बीच यह गांव पटाखा गांव के तौर पर मशहूर है.गांव की सीमा के पास पहुंचते हुए हवा में बारूद की गंध आने लगती है. गांव की हर उम्र की महिलाएं दीवाली के बहुत पहले से पटाखे बनाना शुरू कर देती हैं. यहां बनने वाले पटाखों की बंगाल के अलावा पड़ोसी झारखंड और बिहार समेत देश के दूसरे शहरों में भारी मांग है. गांव का हर लगभग परिवार इस काम से जुड़ा है. यह कहना सही होगा कि पटाखा निर्माण यहां कुटीर उद्योग बन गया है. सुजाता दास कहती है कि ‘गांव में लगभग तीन हजार महिलाएं पटाखा बनाती हैं. हमारे पटाखों की पूरे देश में अच्छी मांग है. हम यहां तरह-तरह के पटाखे बनाते हैं.’ सुजाता बचपन से ही यह काम कर रही है.पटाखा बनाने के काम में जुड़ी बर्नाली कहती है कि ‘पटाखे हमारी रोजी-रोटी का जरिया हैं. हम पूरे साल दीवाली का इंतजार करते हैं और इसके लिए तरह-तरह के पटाखे बनाते हैं. वह बताती है कि हर साल पटाखों की डिजाइन बदल दी जाती है. लोग हर बार कुछ नया चाहते हैं.’ इसी गांव की सादिया कहती है कि ‘यह पटाखों का गांव है. हमारी पूरी जिंदगी ही पटाखों से जुड़ी है.’
गांव में पटाखों के धंधे से जुड़े बासुदेव दास कहते हैं कि ‘यहां बनी चकरी और रॉकेट की दूसरे शहरों में काफी मांग है.’ वे बताते हैं कि गांव की बुजुर्ग महिलाएं पटाखे बनाने की कला युवतियों को सिखाती हैं.कुछ साल पहले राज्य में तेज आवाज वाले पटाखों पर पाबंदी लगने के बाद इस गांव को कुछ नुकसान उठाना पड़ा था. लेकिन अब इन महिलाओं ने कम आवाज और रंग-बिरंगी रोशनियों वाली फूलझड़ियां बनाना सीख लिया है. गांव के ही देवप्रिय दास कहते हैं कि यहां बनने वाले पटाखों की क्वालिटी बेहतर होने की वजह से ही इनकी काफी मांग है.

Wednesday, October 14, 2009

सात समंदर पार चला बांग्ला सिनेमा


बांग्ला सिनेमा अब सात समंदर पार अमेरिका पहुंच गया है. अमेरिका और यूरोप में अब तक हिंदी और तमिल फिल्मों का ही व्यावसाइक तौर पर प्रदर्शन किया जाता था. अब बांग्ला फिल्में भी इसी राह पर चलने की तैयारी में हैं. दुर्गापूजा के दौरान सनफ्रांस्सिको में नई बांग्ला फिल्म ‘दूजने (दोनों लोग)’ व्यावसाइक तौर पर रिलीज की गई. वहां दो सिनेमाघरों में प्रदर्शन के बाद फिलहाल मियामी और वाशिंगटन जीसी में भी सप्ताहांत के दौरान यह फिल्म सिनेमाघरों में दिखाई जा रही है. इसे मिलने वाली कामयाबी से उत्साहित बांग्ला फिल्मोद्योग यानी टालीवुड ने अगले छह महीनों के दौरान अमेरिका और इंग्लैंड में कम से कम सात और बांग्ला फिल्मों के प्रदर्शन की तैयारी की है.इस पहल की अगुवाई करने वाले कोलकाता स्थित पियाली फिल्म्स के मालिक अरिजीत दत्त कहते हैं कि ‘फिल्म के प्रीमियर के दौरान इसके ज्यादातर कलाकार वहां मौजूद थे. इस काम में अमेरिका के बंगाली एसोसिएशन ने भी काफी सहायता की. हम कम से कम सात और फिल्मों की रिलीज के लिए अमेरिका और इंग्लैंड में वितरकों से बातचीत कर रहे हैं.’
कई सुपरहिट बांग्ला फिल्में बनाने वाले निर्माता प्रभात राय कहते हैं कि ‘विदेशों में बांग्ला फिल्मों का बाजार काफी बड़ा है. अब तक इसकी चर्चा ही होती थी. लेकिन कभी किसी ने कोई पहल नहीं की. अब शुरूआत होने के बाद इसके लिए वितरक भी आगे आएंगे.’ दत्त कहते हैं कि ‘विदेशों में व्यावसाइक प्रदर्शन की वजह से हर फिल्म को 30 से 50 लाख रुपए तक की अतिरिक्त कमाई हो सकती है. इस रकम से बांग्ला फिल्मोद्योग का तेजी से विकास हो सकता है.’

‘दूजने’ के नायक देव कहते हैं कि ‘वैश्विक पहचान बनाने के लिए विदेशों में बांग्ला फिल्मों का प्रदर्शन जरूरी है. अब तक तो एक अभिनेता के तौर पर विदेश में बसे बंगालियों के बीच मेरी कोई पहचान नहीं बनी है.’ जाने-माने अभिनेता प्रसेनजित कहते हैं कि ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के बाद अब बांग्ला सिनेमा के लिए विदेशों में व्यावसाइक कामयाबी हासिल करने का समय आ गया है.’ वे कहते हैं कि बंगाल में बाक्स आफिस पर हिट होकर संतुष्ट होने की बजाय बांग्ला सिनेमा को अब अपनी वैश्विक पहचान बनाने पर ध्यान देना चाहिए. खुद प्रसेनजित भी एक अभिनेता के तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं. वे कहते हैं कि विदेशों में व्यावसाइक प्रदर्शन नहीं शुरू होने तक ऐसा संभव नहीं है.बांग्ला फिल्में अब तक अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों या बंग सम्मेलनों में मुफ्त में ही दिखाई जाती रही हैं. विदेश में रिलीज होने वाली फिल्म के सब-टाइटल अंग्रेजी में हैं ताकि गैर-बंगाली दर्शक भी इसे समझ सकें. हाल में बांग्ला सिनेमा पर अपनी वेबसाइट बनाने वाले प्रसेनजित कहते हैं कि यह वेबसाइट बांग्ला फिल्मों को वैश्विक पहचान दिलाने की दिशा में एक कदम है. वे मानते हैं कि अब बांग्ला फिल्में गुणवत्ता के स्तर पर एशिया और यूरोप की फिल्मों की बराबरी के लिए तैयार हैं.पहली फिल्म की कामयाबी के बाद अनिल अंबानी की बिग पिक्चर्स और महानगर की पियाली फिल्म्स समेत कई कंपनियां अब अपनी फिल्मों को सात समंदर पार दिखाने की तैयारी में जुटी हैं. पियाली फिल्म्स के दत्त कहते हैं कि यह बांग्ला सिनेमा के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है.

अब मॉडलिंग से अपना खर्च उठाएंगे हाथी


पश्चिम बंगाल के विभिन्न वन्यजीव अभयारण्यों में रहने वाले लगभग 86 पालतू हाथी अब मॉडलिंग के जरिए अपना खर्च खुद उठाएंगे. राज्य के वन विभाग ने हाथियों पर होने वाले भारी खर्च का कुछ हिस्सा जुटाने के लिए यह अनूठी योजना बनाई है. इसके तहत विभिन्न कंपनियां बैनर के तौर पर अपने विज्ञापन तैयार कर वन विभाग को सौंपेगा. उन बैनरों को हाथियों पर पीठ पर बांधा जाएगा. इससे होने वाली आय हाथियों को पालने पर खर्च होगी. इन हाथियों पर सरकार हर साल 80 लाख रुपए से भी ज्यादा की रकम खर्च करती है.वन मंत्री अनंत राय कहते हैं कि ‘हाथियों को पालना अब बेहद खर्चीला साबित हो रहा है. पालतू हाथियों की तादाद बढ़ने की वजह से अब खर्च पूरा नहीं हो रहा है. इसलिए सरकार ने हाथियों को मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करने का फैसला किया है.’ कम से कम एक दर्जन कंपनियों ने सरकार को हाल ही में यह प्रस्ताव दिया है कि अपने विज्ञापनों के बदले वे संबंधित हाथियों का पूरे साल का खर्च उठाने को तैयार हैं.उत्तर बंगाल में वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी मनींद्रचंद्र विश्वास कहते हैं कि ‘बूढ़े हाथियों को सरकार की ओर से आजीवन भत्ता दिया जाता है. उनके महावतों को भी एक निश्चित रकम दी जाती है. इस पर काफी रकम खर्च होती है. विज्ञापन से आय होने की स्थिति में पैसों की समस्या दूर हो जाएगी.’ उत्तर बंगाल स्थित विभिन्न राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में वन विभाग के पास 86 प्रशिक्षित हाथी हैं. इनमें से सबसे ज्यादा 52 हाथी जलदापाड़ा वन्यजीव अभयारण्य में हैं. इनका इस्तेमाल पर्यटकों को जंगल में घूमाने के लिए किया जाता है. वन मंत्री कहते हैं कि ‘जल्दी ही मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ बैठक में मॉडल के तौर पर हाथियों के इस्तेमाल को हरी झंडी दिखा दी जाएगी. इसके लिए केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की अनुमति भी जरूरी है.’ वे बताते हैं कि हाथियों की पीठ पर किसी व्यावसाइक घराने के बैनर बांध दिए जाएंगे ताकि पर्यटकों की नजर उस पर पड़े. इसके बदले संबंधित घराना उस हाथी का पूरे साल का खर्च उठाएगा. राय बताते हैं कि एक हाथी पर सालाना औसतन एक लाख रुपए का खर्च आता है. हाथियों की पीठ पर बैठकर घूमने के लिए पर्यटकों से 25 से 50 रुपए की जो रकम वसूल की जाती है वह नाकाफी है. इसकी एक वजह यह है कि किसी भी राष्ट्रीय पार्क में छह महीने ही पर्यटक आते हैं. बाकी समय बरसात और प्रजनन का सीजन होने की वजह से पार्क बंद रहता है. लेकिन मॉडलिंग के एवज में हाथियों को पूरे साल का खर्च मिल जाएगा.

Tuesday, October 6, 2009

टूटे सपनों के साथ बेपहिया ज़िंदगी


प्रभाकर मणि तिवारी
‘एक छोटी कार के आने की सूचना ने हमारी ज़िंदगी में पंख लगा दिए थे। हम सबकी आंखों ने न जाने कितने ही सुनहरे सपने देखे थे। लेकिन बीते एक साल से तो हम अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल भी नहीं रह गए हैं। बस, यूं समझ लीजिए कि हम टूटे सपनों के साथ अपनी बेपहिया जिंदगी को घसीट रहे हैं……।’ सिंगुर के विकास पाखिरा यह कहते हुए कहीं अतीत में खो जाते हैं। टाटा मोटर्स की नैनो कार परियोजना के लिए जमीन के अधिग्रहण और संयंत्र का काम शुरू होते ही इलाके के लोगों की जिंदगी में मानो पंख लग गए थे। राजधानी कोलकाता से सटा हुगली जिले का यह अनाम-सा कस्बा रातों-रात महानगरीय रंग में रंगने लगा था। लोगों को जमीन की कीमत के एवज में लाखों रुपए मिले थे। इलाके में बैंकों की नई शाखाओं के अलावा कारों और ब्रांडेड कपड़ों के शोरूम तक खुलने लगे थे। लेकिन बीते साल ठीक दुर्गापूजा से पहले ही रतन टाटा ने नैनो परियोजना को सिंगुर से हटा कर गुजरात में लगाने का एलान कर दिया। उनके इस एलान से सपनों के पंख लगा कर उड़ते स्थानीय लोग एक झटके में जमीन पर आ गए थे। नैनो के जाने के एक साल बीतने के बावजूद लोग अब तक छोटी कार के बड़े सदमे से उबर नहीं सके हैं। यही वजह है कि इस साल भी दुर्गापूजा में सिंगुर में खामोशी पसरी रही।
नैनो संयंत्र परिसर अब इलाके की गाय-भैंसों का चारागह बन चुका है। खाली जमीन पर घास के जंगल पनप गए हैं। परियोजना के सहारे इलाके में होने वाले विकास के काम भी रातोंरात ठप हो गए हैं। संदीप दे भी उन्हीं लोगों में हैं जो इस संयंत्र में काम कर हर महीने दस हजार रुपए तक कमा लेते थे। लेकिन वे बेरोजगार हो गए। अब वे अपनी गाय चराते हैं। संदीप कहते हैं कि इस छोटी कार ने इलाके के तमाम लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। हम तो सिंगुर के आगे चल कर टाटानगर या पुणे की तर्ज पर विकसित होने की उम्मीद बांध रहे थे। लेकिन एक झटके में ही तमाम सपने मिट्टी में मिल गए।
संदीप और उनके दोस्त विकास पाखिरा साल भर बाद भी यह नहीं समझ सके हैं कि आखिर चूक कहां हुई? विकास कहते हैं कि आंदोलन तो होते ही रहते हैं। लेकिन इस पर समझौता भी तो हो सकता था। उनलोगों को इस बात का अफसोस है कि राज्य सरकार ने टाटा को रोकने का ठोस प्रयास नहीं किया। परियोजना के लिए बालू की सप्लाई करने वाले प्रदीप दे कहते हैं कि एक झटके में सब कुछ खत्म हो गया। साल भर बाद भी सिंगुर उस छोटी कार के जाने के बड़े सदम से नहीं उबर सका है।
इलाके के लोगों को हल्की उम्मीद थी कि टाटा ने सिंगुर की जमीन नहीं लौटाई तो शायद देर-सबेर यहां कोई परियोजना लगे। लेकिन बीते महीने कोलकाता आए रतन टाटा ने साफ कर दिया कि सिंगुर के लिए फिलहाल उनके पास कोई योजना नहीं है। उन्होंने कहा था कि सरकार अगर यहां निवेश की गई रकम का मुआवजा दे दे तो वे जमीन लौटाने को तैयार हैं। दूसरी ओर, रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, जिनकी अगुवाई में इलाके में अधिग्रहण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ था, ने सिंगुर की जमीन मिलने पर वहां रेल कारखाना लगाने का भरोसा दिया है। लेकिन फिलहाल कुछ भी तय नहीं है।
टाटा के कामकाज समेटने के बाद परियोजना से जुड़े कुछ स्थानीय युवकों ने नौकरी के लिए दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में हाथ-पांव मारे थे। लेकिन मंदी के इस दौर में नौकरी भला कहां मिलती। कुछ दिनों बाद वे सब सिंगुर लौट आए। अब सिंगुर की उस खाली पड़ी जमीन और संयंत्र के ढांचे को निहारते ही उनके दिन बीतते हैं। मन में इस उम्मीद के साथ कि कभी न तो कभी तो फिर भारी-भरकम मशीनों के शोर से परियोजनास्थल पर बिखरी खामोशी टूटेगी। सुनील कहते हैं कि हमारी तो जिंदगी ही खामोश हो गई है। जनसत्ता

अभी जारी है सुर का सफर


वे भले अपनी उम्र के नौवें दशक में हों, उनके सुरों का सफर अभी भी जस का तस है. आवाज में वही जादू और अपनी धुन के पक्के. जी हां, इस शख्स का नाम है प्रबोध चंद्र दे. लेकिन उनके इस नाम की जानकरी कम लोगों को ही है. ऐ भाई जरा देख के चलो और बरसात के न तो कारवां की तलाश है--. और ऐसे ही हजारों हिट गीत देने वाले प्रबोध को पूरी दुनिया मन्ना दे के नाम से जानती है. कोई 65 साल पहले 1943 में सुरैया के साथ तमन्ना फिल्म से अपनी गायकी का आगाज करने वाले मन्ना दे ने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने हिंदी के अलावा बांग्ला और मराठी गीत भी गाए हैं. और वह भी बड़ी तादाद में. अब बढ़ती उम्र की वजह से सक्रियता तो पहले जैसी नहीं रही, लेकिन आवाज का जादू जस का तस है. संगीत की दुनिया में वे सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते रहे. रास्ते में सम्मान भी खुद-ब-खुद मिलते रहे. वर्ष 2005 में उनको पद्मभूषण से नवाजा गया. बीते साल पश्चिम बंगाल सरकार ने भी संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उनको सम्मानित किया था. अब उनको दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया है.
दिलचस्प बात यह है कि कोलकाता में अपने कालेज के दिनों में मन्ना दे कुश्ती और फुटबाल के दीवाने थे. उसके बाद वे लंबे समय तक इस दुनिधा में रहे कि बैरिस्टर बनें या गायक. आखिर में अपने चाचा और गुरू कृष्ण चंद्र दे से प्रभावित होकर उन्होंने गायन के क्षेत्र में कदम रखा. मन्ना दे का बचपन किसी आम शरारती बच्चे की तरह ही बीता. दुकानदार की नजरें बचा कर मिठाई और पड़ोसी की नजरें बचा कर उसकी बालकनी से अचार चुराना उनकी शरारतों में शुमार था. अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई जाने पर उन्होंने पहले उनके और फिर सचिन देव बर्मन के साथ सहायक के तौर पर काम किया. मन्ना कहते हैं कि 'वे मुफलिसी और संघर्ष के दिन थे. शुरआत में बालीवुड में पांव टिकाने भर की जगह बनाने के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा.' वे बताते हैं कि '1943 में सुरैया के साथ तमन्ना फिल्म में गाने का मौका मिला. लेकिन उसके बाद भी काम नहीं मिला. बाद में धीरे-धीरे काम मिलने लगा.'
मन्ना हिंदी फिल्मों में संगीत के स्तर में आई गिरावट से बेहद दुखी हैं. वे कहते हैं कि'मौजूदा दौरा का गीत-संगीत अपनी भारतीयता खे चुका है. इसके लिए संगीत निर्देशक ही जिम्मेवार हैं.' मन्ना दे अपने जीवन में धुन के पक्के रहे हैं. किसी को जुबान दे दी तो किसी भी कीमत पर अपना वादा निभाते थे. लेकिन एक बार अगर किसी को ना कह दिया तो फिर उनको मनाना काफी मुश्किल होता था.
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए मन्ना दे कहते हैं कि 'मेरे माता-पिता चाहते थे मैं पढ़-लिख कर बैरिस्टर बनूं. उन दिनों इसे काफी सम्मानजनक कैरियर माना जाता था .' वे बताते हैं कि 'मैं आज जिस मुकाम पर हूं, उसमें मेरे चाचा कृष्ण चंद्र दे की अहम भूमिका रही है. वह चूंकि अपने समय के एक माने हुए संगीतकार थे इसलिए हमारे घर संगीत जगत के बड़े-बड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था. कम उम्र में ही चाचा की आंखों की रोशनी चली जाने की वजह अक्सर मैं उनके साथ ही रहता था.' वे बताते हैं कि'संगीत की पहली तालीम मुझे अपने चाचा से ही मिली. खयाल के अलावा मैंने रवींद्र संगीत भी सीखा। उन दिनों चाचा के साथ मैं भी न्यू थिएटर आया जाया करता था. इसी वजह से वहां उस दौर के जाने-माने गायकों को नजदीक से देखने-सुनने का मौका मिला। लेकिन तब तक संगीत को कैरियर बनाने का ख्याल भी मन में नहीं आय़ा था.'
अपने चाचा के साथ मुंबई जाना मन्ना दे के जीवन में एक निर्णायक मोड़ बन गया. मुंबई पहुंचने के कुछ दिनों बाद संगीतकार एच.पी. दास ने अपने साथ सहायक के रूप में रख लिया. कुछ दिनों बाद कृष्ण चंद्र दे को फिल्म 'तमन्ना' में संगीत निर्देशन का मौका मिला. फिल्म में एक गीत था 'जागो आई उषा'. यह गीत एक भिखमंगे और एक छोटी लड़की पर फिल्माया जाना था। भिखमंगे वाले हिस्से को गाने के लिए मन्ना को चुना गया. छोटी लड़की के लिए गाया सुरैया ने. वैसे, मन्ना दे की पहली फिल्म थी रामराज्यजिसके संगीतकार विजय भट्ट थे. उसके बाद लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला तो उनके मन में कई बार कोलकाता लौट जाने का ख्याल आया. नाउम्मीदी और मुफलिसी के उसी दौर में 'मशाल' फिल्म में गाया उनका गीत 'ऊपर गगन विशाल' हिट हो गया और फिर धीरे-धीरे काम मिलने लगा.
मौजूदा दौर की गलाकाटू होड़ की तुलना उस दौर से करते हुए मन्ना याद करते हैं कि'फिल्मी दुनिया में उस समय भी काफी प्रतिद्वंद्विता थी, लेकिन वह आजकल की तरह गलाकाटू नहीं थी. उस समय टांगखिंचाई के बदले स्वस्थ प्रतिद्वंद्विंता होती थी. हम लोग दूसरे गायकों के बढ़िया गीत सुन कर खुल कर उसकी सराहना भी करते थे और उससे सीखने का प्रयास भी.' वे बताते हैं कि 'काम तो सबसे साथ और सबके लिए किया लेकिनबलराज साहनी और राज कपूर के लिए गाने की बात ही कुछ और थी. पृथ्वी राज कपूर से पहले से पहचान होने की वजह से राजकपूर से मुलाकात आसानी से हो गई. उसके बाद राज कपूर के जीने तक मेरे उनसे बहुत अच्छे संबंध रहे.'
संगीत ने ही मन्ना दे को अपने जीवनसाथी सुलोचना कुमारन से मिलवाया था. दोनों बेटियां सुरोमा और सुमिता गायन के क्षेत्र में नहीं आईं. एक बेटी अमेरिका में बसी है. पांच दशकों तक मुंबई में रहने के बाद मन्ना दे ने बंगलूर को अपना घर बनाया. लेकिन कोलकाता आना-जाना लगा रहता है. आप अब फिल्मों में ज्यादा क्यों नहीं गाते ? इस सवाल पर वे कहते हैं कि 'अब बहुत कुछ बदल गया है. न तो पहले जैसा माहौल रहा और न ही गायक और कद्रदान. लेकिन संगीत ने मुझे जीवन में बहुत कुछ दिया है. इसलिए मैं अपने अंतिम सांस तक इसी में डूबा रहना चाहता हूं.'
जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडिय अजय चक्रवर्ती कहते हैं कि 'मन्ना दा (बांग्ला में बड़े भाई के लिए संबोधन) अपने जीते-जी एक किंवदंती बन चुके हैं. अपने कालजयी गीतों से उन्होंने लाखों संगीतप्रेमियों के दिलों में अलग जगह बना ली है.'