Thursday, June 20, 2013


रविवार यानी 16 जून को सुबह पांच बजे जब कौसानी स्थित कुमायूं मंडल विकास निगम (केएमवीएन) के टूरिस्ट रेस्ट हाउस में आंखें खुली तो बाहर से तेज बारिश की आवाज आ रही थी. दरवाजा खोला तो तेज छीटों ने स्वागत किया. लेकिन उस समय इस बात का जरा भी आभास नहीं हुआ कि यहां रोमांटिक-सी लगने वाली यह बारिश आज उत्तराखंड की पहाड़ियों पर कहर बरपाएगी. हमको आज ही काठगोदाम के लिए निकलना था. रानीखेत होते हुए. इससे पहले हम शनिवार को नैनीताल से कौसानी के लिए निकले थे. हमारे ड्राइवर घनश्याम जोशी ने कहा था कि हर साल 15 जून को कैंचीधाम में भारी मेला लगता है. उससे हाइवे घंटों जाम रहता है. इसलिए हमें कौसानी के लिए तड़के ही निकलना होगा. उनकी बात मान कर हम सुबह कोई चार बजे से ही तैयार हो गए और सुबह पौने छह बजे नैनीताल क्लब से निकल पड़े. लेकिन बेटी की जिद थी कि उसे वह सेंट जोसेफ कालेज देखना है जहां कोई मिल गया फिल्म की शूटिंग हुई थी. इसलिए पहाड़ियों की चोटी पर बसे उस कालेज के गेट पर जाकर फोटो खिंचवाने के बाद जब हम भवाली के रास्ते पर निकले तो घड़ी सवा छह बजा रही थी. उस दिन मौसम बेहद खुशगवार था. खैरना में आलू पराठे के नाश्ते के बाद हम अल्मोड़ा की राह पर आगे बढ़ चले. गरम पानी कस्बे के खैरना से ही बायीं ओर की सड़क रानीखेत चली जाती है और सीधी सड़क अल्मोड़ा की ओर. सुबह नौ बजे अल्मोड़ा पहुंचने पर भी मौसम साफ था और आसमान पर बादलों का कोई निशान तक नहीं था. उस समय यह शहर उनींदा-सा था. बाजार बस खुल ही रहे थे. अल्मोड़ा की बाल मिठाई काफी मशहूर है. यह दूध को जला कर बनाई जाती है और चाकलेट की तरह लगती है. वहां मिठाई खरीदने और खाने के बाद हम बढ़ चले पहाड़ के अपने अंतिम पड़ाव कौसानी की ओर. वैसे, कौसानी में रात गुजारने का पहले कोई इरादा नहीं था. मैं रानीखेत में रात गुजारना चाहता था. लेकिन कोलकाता में केएमनवीएन के जनसंपर्क अधिकारी जुयाल साब ने कहा था कि आप रानीखेत की बजाय कौसानी क्यों नहीं चले जाते. रास्ते में रानीखेत भी देख सकते हैं. तो, इस तरह अपना कौसानी का कार्यक्रम बना. कौसानी से कुछ पहले और सोमेश्वर के बाद हल्की फुहारों ने हमारा स्वागत किया. कौसानी के केएमवीएन रेस्ट हाउस में जब पहुंचा तो दोपहर के ठीक 12 बज रहे थे. वहां के मैनेजर तारा दत्त तिवारी ने स्वागत किया और हमें कमरा दिखा दिया. कमरे में ही दोपहर का खाना खाने और कुछ देर आराम करने के बाद हमने अनासक्ति आश्रम का रुख किया. गांधी जी इसी आश्रम में ठहरे थे और वहां से हिमालय का नजारा साफ नजर आता था. उस आश्रम में कुछ समय गुजारने के बाद ही आसमान में काले बादल घिरने लगे थे थे. लेकिन उन बादलों ने बरसना शुरू किया तब जब हम कौसानी बाजार की एक दुकान में वहां बनी ऊन की चीजें देख रहे थे. रेस्ट हाउस लौटते हुए बारिश तेज हो गई थी. लेकिन हमें इसकी चिंता कहां थी. अब रात तो यहीं गुजारनी थी. रात का खाना खाने के बाद कोई दस बजे के आस-पास जब मोटे कंबल ओढ़ कर बिस्तर की शरण ली, तब भी आसमान बरस रहा था. अगले दिन काठगोदाम के लिए निकलने से पहले हम वहां शाल की फैक्टरी देखने गए. उस समय भी बारिश तेज थी. किसी तरह वहां से सुबह नौ बजे निकले रानीखेत के लिए निकले तो पूरे रास्ते बारिश आंखमिचौली खेलती रही. कभी धूप तो कभी बारिश. जब रानीखेत पहुंचे तो कुछ देर के लिए मौसम साफ हो गया और हमें गोल्फ कोर्स और मनकामेश्वर मंदिर में फोटो खिंचवाने का मौका मिल गया. वहां कुमायूं रेजिमेंट का संग्रहालय देखने के दौरान भी मौसम साफ रहा. लेकिन वहां से लौट कर कार में बैठते ही एक बार फिर काली घटा घिर आई थी. रविवार को पहली बार अपने ड्राइवर जोशी के चेहरे पर चिता की लकीरें नजर आईं. वह बार-बार कह रहा था कि यह बारिश कुछ कर गुजरेगी. बरसों से कुमायूं की पहाड़ियों पर कार चलाते हुए उसे शायद भावी अंदेशे का पूर्वाभास हो गया था. रानीखेत से खैरना तक रास्ते में कई जगह सड़क पर ऐसे बड़े-बड़े पत्थर देखे जो जानलेवा साबित हो सकते थे. जोशी की जुबान पर ऐसी कितनी ही कहानियां तैर रहीं थीं. भारी बारिश के बीच ही हमने कैंचीधाम के मंदिर में दर्शन किया. वहां सड़क पर सैलाब बह रहा था. पानी का बहाव इतना तेज था कि पैर फिसल रहे थे. चौबीस घंटे पहले जाते समय जिस कोसी नदी को नाले की तरह देखा था वह आज उफन रही थी. भवाली में भी सड़क नदी का रूप ले चुकी थी. मैंने रास्ते में किसी एटीएम से पैसे निकालने का मन बनाया था. लेकिन कोई एटीएम काम नहीं कर रहा था. भवाल से काठगोदाम आते हुए ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने वाले वाहनों की लंबी कतार नजर आई. उसी समय ड्राइवर ने कहा कि शायद नैनीताल जाने वाली मुख्य सड़क बंद हो गई है. कुछ दूर जाने के बाद उसका अंदेशा सही साबित हुआ. पूरे रास्ते सड़क पर पत्थर और मलबा नजर आया. किसी तह शाम साढ़े छह बजे काठगोदाम पहुंचे तो वहां भी उड़ूपीवाला रेस्तरां से रात का खाना पैक कराते समय भारी बारिश. काठगोदाम से दिल्ली के लिए हमारी ट्रेन रानीखेत एक्सप्रेस रात 8.40 पर थी. कोई एक हफ्ते तक हमारे साथ रहे जोशी ने घर पहुंच कर फोन करने का वादा ले कर हमसे विदा ली. अगले दिन दिल्ली पहुंचने के बाद जब टीवी पर उस इलाके में बर्बादी का नजारा देखा तो समझ में आया कि हम किस मुसीबत से निकले हैं. महज अड़तालीस घंटे पहले हम अल्मोड़ा को जिस रास्ते पर गुजरे थे वह भी कोसी के गर्भ में समा गया था. शुरू में मैंने रानीखेत होकर कौसानी जाने और अल्मोड़ा होकर लौटने की योजना बनाई थी. लेकिन जोशी की सलाह पर इसे उल्टा कर दिया. अब सोच कर सिहरन होती है कि अगर मूल योजना नहीं बदलते और एक दिन भी किसी पहाड़ी पर रुक गए होते तो कई दिन वहां फंसना पड़ता. लेकिन शायद इसे ही तो किस्मत या संयोग कहते हैं.