यह चुनाव भी बड़ी दिलचस्प चीज है. वह चाहे लोकसभा का हो या फिर प्रेस क्लब का. बीते आठ-दस दिनों से कोलकाता में प्रेस क्लब के चुनावों की गहमागहमी रही. सुबह से लेकर देर रात तक उम्मीदवारों के फोन, संदेश और ईमेल आते रहे. गुवाहाटी में प्रेस क्लब का सदस्य बना था. तब वहां बस बना ही था क्लब. वहां से कोलकाता आए दस साल से ज्यादा हो रहे हैं. लेकिन यहां के माहौल को देखते हुए कभी मन में सदस्यता लेने की इच्छा ही नहीं हुई. शाम ढलते ही पीने वालों की भीड़ जुटने लगती है. ऐसा नहीं है कि मैं शराब नहीं छूता. लेकिन अब तक न तो इसका आदी हुआ हूं और न ही कभी देर रात कर प्रेस क्लब में बैठ कर पीने के बाद लड़खड़ाते कदमों से घर लौटने की कोई इच्छा मन में उभरी है. दफ्तर से निकलने के बाद सीधे मेट्रो पकड़ता हूं. घर के लिए. यही वजह है कि अपने साथ काम कर चुके कई लोगों के कहने और दबाव डालने के बावजूद बीते साल तक इसका सदस्य नहीं बना. लेकिन बीते साल मार्च में आखिर बुझे मन से ही मैंने भी क्लब की सदस्यता ले ही ली. बीते अगस्त में पहली बार चुनाव में वोट डाला. उसके बाद कभी दोबारा सूरज ढलने के बाद क्लब का रुख नहीं किया था.
इस साल यह चुनाव चार सितंबर को थे. लेकिन अगस्त के आखिरी सप्ताह से ही लगातार फोन आने लगे--भाई साहब, याद रखिएगा. सर, भूले तो नहीं हैं न. सर, मेरा नाम याद है न अमुक नंबर पर है. इनमें से ज्यादातर तो ऐसे थे जिनसे कभी औपचारिक परिचय नहीं रहा. कई बार तो हंसी भी आती थी यह सोच कर कि अरे भाई, जब तुमसे कोई परिचय ही नहीं है तो भूलने या याद करने का सवाल कहां से पैदा हो गया. खैर, प्रेस क्लब पहुंचा तो दरवाजे से ही उम्मीदवारों ने घेरना शुरू कर दिया. वहां यह देख कर और अच्छा लगा कि कल तक फोन पर याद रखने की बात कहने वाले शक्ल देख कर पहचान तक नहीं सके. उनके शब्दों में मैं प्रेस क्लब नियमित जाने वालों में नहीं था. सो, बेचारे शक्ल कैसे याद रखें. फोन नंबर तो प्रेस क्लब की डायरेक्टरी में दर्ज है. इसलिए वहां से मिल गया. दूसरों के परिचय कराने पर कुछ उम्मीदवारों ने लपक कर पर्ची पकड़ा दी.
मतदान का समय शाम छह बजे तक था. वोट देने के बाद दफ्तर चला गया और रात को जब खाने-पीने के लिए लौटा तो तिल धरने की जगह नहीं थी. कई लोग आकंठ डूब चुके थे. कुछ डूबने की तैयारी में थे. कुछ पहले राउंड में हार के गम में पी रहे थे तो कुछ बढ़त हासिल करने की खुशी में.
यह शराब भी बड़ी अजीब चीज है. इसे पीने तक तो ठीक है. लेकिन जब यह पीने लगती है तो लोग इसके लिए अपना दीन-ईमान और इज्जत तक घोल कर पी जाते हैं. किसी शाम क्लब में अगर आप हाथ में गिलास लेकर बैठें तो ज्यादा नहीं तो दो-चार लोग तो यह कहते हुए आपकी मेज पर आ ही जाएंगे कि अरे भाई साहब आपने वह खबर क्या जबरदस्त लिखी थी. कौन-सी खबर यह पूछने पर बगलें झांकते हुए कहते हैं कि अरे वही जो पहले पेज पर छपा था. यह बात अलग है कि उन्होंने शायद कभी कोई ऐसी खबर नहीं देखी होगी. अगर आपने बिठा लिया तो कहेंगे कि एक पैग मिलेगा. प्रेस क्लब नियमित जाने वाले ऐसे किस्से सुनाते रहते हैं. कभी कोई रिटायर पत्रकार मिल गया तो आपको भागने की जगह नहीं मिलेगी. वह अपने इतने संस्मरण सुनाएगा कि चाहे पूरी बोतल डकार लें, नशा हो ही नहीं सकता.
अब किस्सों का क्या? तेजी से बदलते इस दौर में कई सहयोगी कहां से कहां पहुंच गए हैं. गुवाहाटी में साथ या प्रतिद्वंद्वी अखबारों में काम कर चुके कई सज्जन इनपुट और आउटपुट हेड बन गए हैं तो कुछ लाखों में कमा रहे हैं. यह सब किसी किस्से-कहानी से कम थोड़े लगता है. अभी हाल में एक पुराने सहयोगी ने फोन किया-फलां चैनल में आउटपुट हेड बन कर जा रहा हूं. बहुत मोटा पैकेज है. जहां तक मुझे याद है, जब तक मैंने देखा था उनका इनपुट घर के लिए सब्जियां खरीदना होता था और आउटपुट अपने दो महीने के बेटे को नहलाना-धुलाना और नैपी बदलना. बाकियों में प्रतिभा रही होगी, लेकिन इन सज्जन को तो मैंने दो-ढाई साल तक देखा था. जब भी मिले हमेशा बदहवास से, हड़बड़ी में. बाद में पता चला कि पत्नी एक-एक मिनट का हिसाब लेती थी कि इतनी देर कहां लगा दी. मुन्ना कब से रो रहा है. अब ऐसे इनपुट और आउटपुट प्रमुख होंगे तो चैनल की प्रगति तो तय ही है.
कभी साथ रहे एक सज्जन तो इससे भी आगे बढ़ गए. एक प्रकाशन कंपनी के मालिक की बेटी से शादी कर खुद उस कंपनी के मालिक बन गए. जिनको कभी एक पैरा शुद्ध लिखना नहीं आता था वो अब दूसरों के लिखे में हजार किस्म की गलतियां निकालते रहते हैं. कभी मेरे तहत ट्रेनी के तौर पर काम करने वाले एक अन्य सहयोगी कभी-कभार फोन कर बताते हैं कि आपकी वह रिपोर्ट अच्छी थी. लेकिन उसमें यह एंगिल भी होता तो वह लाजवाब बन जाती. सबकी सुन लेता हूं. दिल्ली में नहीं रहता न. इसलिए लेखन में गलतियां स्वाभाविक हैं. सीख रहा हूं. कुछ प्रखर लोग इसे अंगुर खट्टे हैं....वाली कहावत दोहराते हुए कंधे भी उचका सकते हैं. मैंने अभी कंधे उचकाना नहीं सीखा है. शायद कभी दिल्ली जाने पर सीख लूं. तब तक तो जहां हूं जैसा हूं के आधार पर ही गाड़ी चलती रहेगी.
Sunday, September 5, 2010
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