Monday, May 31, 2010

वो प्यार नहीं कुछ और था

बरसों पुरानी बात है. बल्कि तीन दशक पुरानी. लेकिन सोचता हूं तो लगता है कि अभी कल की ही हो. वर्ष 1978 में सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) से हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद पढ़ने के लिए अपने माम के घर देवरिया पहुंचा. मेरे मामा देवरिया में खूखुंदू स्थित शिवाजी इंटर कालेज में पढ़ाते थे. वहीं दाखिला लिया. बड़े ही मजे में गुजरे दो साल. कई नए दोस्त मिले. शहर से जाने के बाद गांव का माहौल बेहद पसंद आया. मामा के पास काफी जमीन थी. वहां अरहर, धान और गन्ने के खेत में घूमना-काटना, कंपकपाती ठंढ में गेहूं की फसल में पानी चलाना यानी सिंचाई करना, यह सब वहीं सीखा. हम लोग (मेरे कई सहपाठी भी थे) रोजाना सोलह किलोमीटर साइकिल चलाकर कालेज जाते थे. कई बार तो स्कूल से ही सीधे देवरिया चले जाते थे. और वहां फिल्मे देख कर गांव लौटते थे. यानी दिन भर में औसतन 50 किलोममीटर तक साइकिल चलती थी. वहां दो साल कैसे बीत गए, यह पता ही नहीं चला और इंटर की परीक्षा के लिए फार्म भरने का समय आ गया. मैंने भी दूसरों के साथ फार्म भरा.
मामा के वरिष्ठ शिक्षक होने की वजह से कालेज का सारा स्टाफ मुझे दूसरी नजर से देखता था. वैसे, मैं छात्र जीवन में बेहद अनुशासित भी था. तो इस वजह से कालेज के कार्यालय से लेकर प्रिसिंपल के आफिस तक मेरी पहुंच थी. नर्बदेश्वर मिश्र उन दिनों वहां प्रिंसिपल हुआ करते थे. हां, पूरे इंटर में हमारे बैच में एक ही लड़की पढ़ती थी. उसका नाम लेना यहां ठीक नहीं होगा. हम सबकी तरह उसने भी परीक्षा का फार्म भरा था. मेरे दोस्तों को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने मुझे एक दिन चुनौती दे दी. उन्होंने कहा कि बड़े तीसमार खां बनते हो तो उस लड़की की फोटो उसके फार्म से निकाल कर दिखाओ. मैंने भी हामी भर ली. और अपने मामा के शिक्षक होने की वजह से अपनी पहुंच का फायदा उठाते हुए फाइल से उस लड़की की तस्वीर नोच ली. शर्त तो मैं जीत गया. लेकिन अगले ही दिन पूरे कालेज में हड़कंप मच गया. फार्म से फोटो आखिर कैसे गायब हो गई. वह लड़की उसी गांव के एक बड़े व्यक्ति की रिश्तेदार थी जहां हमारा कालेज था. कालेज के प्रिसिंपल से लेकर सारा स्टाफ सन्न. आखिर उसे यह बात बता कर दोबारा फोटो कैसे मांगी जाए.
मैंने वह फोटो निकाल कर मामा के घर ही अपने सूटकेश में रख दी थी और उसे एक छोटी घटना मानकर भूल भी गया था. लेकिन मेरे मामा को न जाने कैसे मुझ पर शक हो गया. उन्होंने मेरा सूटकेश चेक किया और वह फोटो ले जाकर कालेज में दे दी. कालेज की इज्जत को बच गई, लेकिन मेरी इज्जत के परखचे उड़ गए. खैर, वह तो मुझे बाद में पता चला. वह भी तब जब मेरी मामी ने मुझसे पूछा कि आपने कालेज की किसी लड़की की फोटो रखी थी सूटकेश में. मामा की सज्जनता का आलम यह कि उन्होंने न तो उस समय उस बात की मुझसे कोई चर्चा की और न ही बाद में कभी इस बारे में जिक्र किया.
बाद में कालेज के दोस्त मुझे उस लड़की और फोटो वाला प्रसंग लेकर चिढ़ाते भी रहे. लेकिन अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह प्यार नहीं था. प्यार होता तो उस फोटो को मैं अपनी जेब में रखता सूटकेश में नहीं. और फिर 16 साल की उम्र में जब इंटरनेट और टेलीविजन की कौन कहे, रेडियो भी नहीं था तो प्यार-मोहब्बत का ख्याल तक दिल में नहीं आ सकता था. अब सोचता हूं तो अपनी उस बचकानी हरकत पर हंसी आती है. लेकिन साथ ही एक खुशी भी होती है. इस बात पर कि मैं अपने दोस्तों से एक रुपए की शर्त जीत गया था. तीस साल पहले एक रुपए बहुत होते थे.

Sunday, May 30, 2010

शादी के बाद अकेले होने का फायदा

कई बार अकेला होना भी अच्छा लगता है. खासकर शादी के बाद. इन दिनों पत्नी और बेटी रांची में हैं. मेरी बड़ी साली की तीसरी बेटी की शादी है. मैं तो जा नहीं सका. बंगाल में शहरी निकायों के चुनाव थे आज. इनको अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा था. सो, मेरा जाना संभव नहीं था. वैसे, मेरी इन साली की बेटियों की शादी हमेशा उसी समय होती है जब कहीं न कहीं कोई चुनाव होते हैं. मसलन पहली बेटी की शादी के समय बंगाल में विधानसभा चुनाव थे. वर्ष 2001 में. खैर, पहली शादी थी. किसी तरह गया. दो-तीन दिनों के लिए. उसके बाद दूसरी बेटी की शादी भी हुई 2006 में. तब भी बंगाल में विधासनसभा चुनाव थे. नहीं जा सका. पत्नी और बेटी ही गई थी पटना. और इस बार भी यही हुआ. शनिवार को पत्नी और बेटी को रांची शताब्दी पर चढा़ कर घर लौटा तो अचानक कई काम नजर आने लगे.
लेकिन अकेले रहने का फायदा यह है कि आप घर में अक्सर कुछ ऐसी फिल्में भी देख लेते हैं जिनको देखने के लिए कभी सिनेमाहाल या मल्टीप्लेक्स में जाना संभव नहीं होता. पत्नी और बेटी के रहते मैं मूक-बधिर फिल्में देखने का आदी हो गया हूं. यानी रात को जब फिल्में देखता हूं तो इस डर से आवाज बंद रखता हूं कि उनकी नींद खऱाब न हो जाए. वह तो भला हो स्टार मूवीज वालों का कि नीचे अंग्रेजी में सब-टाइटिल्स दे देते हैं. लेकिन अकेले होने पर आप वाल्यूम जितना चाहें बढ़ा सकते हैं. तो इसी क्रम में मैंने आज यानी रविवार को वेकअप सिड देखी. गजब की फिल्म है यह.
जीवन में दोस्त तो कम ही मिले हैं. जो मिले भी हैं वे मुझे समझ नहीं सके. जिन दो-चार लोगों ने समझा था वो अब मेरे दोस्त नहीं रहे. मेरी नहीं, बल्कि उनकी अपनी गलती की वजह से. मेरी इच्छाओं, जरूरतों और दुख-सुख से किसी को कोई खास मतलब नहीं रहा. हालांकि मैंने अपने करीबियों की खुशी का हमेशा ध्यान रखा है. कभी सोचता हूं तो दुख होता है. लेकिन लगता है कि यही तो दुनिया की रीति है. इसका बुरा क्या मानना. कुछ दोस्त जिनको मैं अपना मानता था वे अब मेरे अपने नहीं रहे. दो-एक बढ़िया दोस्तों से बरसों से मुलाकात ही नहीं हो सकी. न जाने वे कहां हैं. पहले तो फोन और मोबाइल भी नहीं होता था. ई-मेल आदि की कौन कहे. अब मद्रास के एक दोस्त से शायद 25 साल बाद इस साल दुर्गापूजा के दौरान मुलाकात हो जाए. कौन जाने क्या होगा. इलाहाबाद पालीटेकनिक में मेरे साथ रहे रवि प्रताप साही और मद्रास में रूम पार्टनर रहे हेमंत वषिष्ठ बहुत याद आते हैं. इसी तरह सिल्चर वाला निर्मल भौमिक भी. लेकिन उनका कोई पता-ठिकाना नहीं है मेरे पास. शायद कहीं मिलना हो. जैसे इतने साल गुजरे, वैसे ही उनकी यादों के सहारे कुछ साल और सही.यादें ही तो जीने का सहारा होती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि अतीत चाहें कितना भी दुखद हो, उसकी यादें मीठी होती हैं.

Saturday, May 8, 2010

रे की कहानी को परदे पर उतारेंगे संदीप


बांग्ला सिनेमा को एक नई पहचान दिलाने वाले स्व. फिल्मकार सत्यजित रे की मशहूर फेलूदा सीरिज़ की अगली कड़ी जल्दी ही परदे पर नजर आएगी. इस महान फिल्मकार के पुत्र संदीप रे, जो खुद भी जाने-माने निर्देशक हैं, ने अपने पिता की जयंती के मौके पर यह एलान किया है. सत्यजित रे अगर जीवित होते तो दो मई को उम्र के नौवें दशक में कदम रखते. सत्यजित ने फेलूदा सीरिज़ के जासूसी उपन्यास और लघु कहानियां लिखी थीं. उन्होंने अपनी कहानियों और फिल्मों में फेलूदा नामक जासूस के चरित्र को अमर कर दिया था. अब संदीप उनकी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. वे इसे अपने पिता और इस महान फिल्मकार के प्रति श्रद्धांजलि मानते हैं.संदीप कहते हैं कि ‘हमने फेलूदा सीरिज के मशहूर उपन्यास गोरोस्थाने सावधान (कब्रिस्तान में सावधान) पर फिल्म बनाने का फैसला किया है. इसकी शूटिंग अगले महीने शुरू होगी. यह फेलूदा सीरिज़ की लोकप्रिय कहानियों में से एक है.’
इससे पहले फेलूदा सीरिज़ की ‘सोनार केल्ला (सोने का किला)’, ‘जय बाबा फेलूनाथ’, ‘बोंबेर बोंबेटे (बंबई के डकैत),’ ‘कैलाशे केलेंकारी (कैलाश पर अफरातफरी)’ समेत कुछ कहानियों पर बनी फिल्में काफी सफल रही हैं. ‘सोनार केल्ला’ और ‘जय बाबा फेलूनाथ’ का निर्देशन तो खुद सत्यजित रे ने ही किया था. बाकी फिल्मों का निर्देशन उनके पुत्र संदीप ने किया था. फेलूदा सीरिज़ की कई कहानियों पर टेलीविजन धारावाहिक भी बन चुके हैं.‘पथेर पांचाली (सड़क का गीत)’ जैसी सदाबहार फिल्मों के जरिए भारतीय सिनेमा को एक नई राह दिखाने वाले रे की जयंती के मौके पर कोलकाता में कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. तमाम स्थानीय टीवी चैनलों ने रे को श्रद्धांजलि के तौर पर उनकी फिल्मों का प्रसारण किया. कुछ चैनलों ने इस मौके पर विशेष कार्यक्रमों का भी प्रसारण किया.संदीप कहते हैं कि ‘गोरोस्थाने सावधान’ के बाद वे अपने पिता के विज्ञान उपन्यास प्रोफेसर शोंकू के अभियान पर भी एक फिल्म का निर्देशन करना चाहते हैं. अगले दो साल में ऐसा करने की योजना है. रे ने अपनी पहली तीन फिल्मों- पथेर पांचाली, अपराजिता और अपूर संसार के जरिए बांग्ला सिनेमा में संभावनाओं की नई राह खोल दी थी. उसके बाद उन्होंने ‘देवी’ और ‘जलसाघर’ बनाई थी. वर्ष 1977 में प्रेमचंद की कहानी पर बनी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के जरिए भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा के दर्शकों से उनका परिचय हुआ. अपनी हर फिल्म से रे नई ऊंचाईयां छूते रहे. वर्ष 1992 में उनको लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया. तब तक रे की फिल्में फिल्म प्रशिक्षण स्कूलों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुकी थी. नए निर्देशक भी उनसे प्रेरणा लेते थे. ऐसे निर्देशकों में कुमार साहनी, मणि कौल, अदूर गोपालाकृष्णन और श्याम बेनेगल शामिल हैं. रे को भारतरत्न के अलावा फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान से भी सम्मानित किया गया.बांगाला सिनेमा में अब भी सत्यजित रे का कोई सानी नहीं है. उन्होंने अपनी फिल्मों में बंगाल के ग्रामीण और शहरी जीवन का यथार्थ चित्रण किया था. रे के पुत्र संदीप कहते हैं कि ‘पिता जी की बाकी कहानियों और उपन्यासों को सिनेमा के परदे पर उतारना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.’ उन्होंने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया है.

ऐसे सिखाई नेता को वक्त की पाबंदी !

वक्त की पाबंदी और अनुशासन सिखाने का शायद यह भी एक तरीका है! नगरपालिका चुनाव के लिए परचा दाखिल करने के लिए एक उम्मीदवार जब सब-डिवीज़नल अफसर (एसडीओ) के कार्यालय में तय समय से देर से पहुंचा तो वहां पहले से इंतजार कर रहे पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने अपने उस नेता की ही धुनाई कर दी. यह दिलचस्प घटना पश्चिम बंगाल में नदिया जिले के कल्याणी में हुई. हालांकि मार खाने और कपड़े फड़वाने के बाद उस नेता ने अपना परचा दाखिल कर दिया. लेकिन यह सबक उनको आगे चुनाव प्रचार के दौरान भी शायद नहीं भूलेगा. बंगाल में 81 नगरपालिकाओं के लिए 30 मई को चुनाव होने हैं.
पुलिस के एक अधिकारी ने बताया कि तृणमूल कांग्रेस की स्थानीय शाखा के अध्यक्ष पी.के.सूर को नगरपालिका चुनाव के लिए अरना परचा दाखिल करना था. तय समय से पहले ही पार्टी के एक हजार से ज्यादा समर्थक अपने नेता की अगवानी के लिए एसडीओ के कार्यालय के सामने जमा हो गए थे. लेकिन नेता तो ठहरे नेता. वे तय समय से कोई दो घंटे देर से अपने तीन साथियों के साथ वहां पहुंचे. इस दौरान कड़ी धूप में नारेबाजी करने वाले समर्थकों का पारा चढ़ गया था. नेताजी को एअरकंडीशंड गाड़ी से उतरते देख कर लोगों ने आव देखा न ताव, उन पर पिल पड़े. उसके तीन साथी भी अपने समर्थकों की मार से नहीं बच सके. वह तो कुछ देर तक चली पिटाई के बाद पुलिस और दूसरे लोगों ने बीच-बचाव कर मामला शांत किया. लेकिन तब तक नेताजी का चेहरा बदल गया था और कपड़े भी फट गए थे.
खैर, सूर ने बाद में एसडीओ कार्यालय में जाकर अपना परचा दाखिल कर दिया. सूर कहते हैं कि ‘पार्टी कार्यालय में नेताओं के साथ विचार-विमर्श करने की वजह से उनको कुछ देर हो गई.’ उनका आरोप है कि यह माकपा के लोगों की हरकत है. वे कहते हैं कि ‘माकपा के कुछ समर्थक हमारे कार्यकर्ताओं में शामिल हो गए थे. उन्होंने ही मुझ पर हमला किया.’
पुलिस ने इस मामले में एक मामला दर्ज कर लिया है. लेकिन फिलहाल किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. वैसे, परचा भरने से पहले ही मिले इस सबक को नेताजी कम से कम चुनाव प्रचार के दौरान तो जरूर याद रखेंगे!