Sunday, May 31, 2009

जस के तस हैं घाटी में हालात


15 जुलाई 2004. यह तारीख सुन कर कुछ याद आता है आपको? दुनिया के बाकी हिस्सों के लोग अब भले इस दिन को भूल गए हों, पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की महिलाओं को लगता है मानो यह कल की ही बात हो। उस दिन सुरक्षा बलों की ओर से मनोरमा देवी नामक एक महिला के अपहरण व बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में राजधानी इंफाल में कम से कम 30 महिलाओं ने अपने कपड़े उतार कर प्रदर्शन किया था। उनलोगों ने अपने हाथों में जो बैनर ले रखे थे उन पर लिखा था कि भारतीय सेना हमारे साथ भी बलात्कार करो। हम सब मनोरमा की माताएं हैं। अगले दिन वह तस्वीर देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के अखबारों में छपी थी। उस घटना के पहले तक इस घाटी की औरतें राजनीतिक तौर पर बहुत सक्रिय नहीं थीं। लेकिन मनोरमा के साथ बलात्कार व उसकी हत्या ने राज्य में तैनात असम राइफल्स के प्रति उनका आक्रोश भड़का दिया था। असम राइफल्स के मुख्यालय कांग्ला फोर्ट के सामने बिना कपड़ों के प्रदर्शन करने वाली महिलाओं में शामिल एक महिला थाओजामी कहती है कि हम कभी मनोरमा से मिले तक नहीं थे। लेकिन उसके क्षत-विक्षत शव को देखने के बाद हम अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके। उस घटना के बाद राज्य में हिंसा भड़क उठी थी, जो बाद में असम राइफल्स से कांग्ला फोर्ट को खाली कराने के बाद ही थमी थी। लेकिन घाटी में हालात अब भी जस के तस हैं। लोगों के मन में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को लेकर भारी नाराजगी है। इस अधिनियम ने राज्य में तैनात सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार दे दिए हैं। इन अधिकारों का अक्सर दुरुपयोग ही होता रहा है। मनोरमा कांड भी इसी अधिकार की उपज था। लोगों में इस अधिनियम को लेकर नाराजगी तो पहले से ही थी। मनोरमा कांड ने इस चिंगारी को पलीता दिखाने का काम किया।
मणिपुर में बढ़ती उग्रवादी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1980 में यह कानून लागू किया गया था। इसके तहत सुरक्षा बलों को एक तरह से बिना किसी सबूत के किसी की भी हत्या का लाइसेंस दे दिया गया है। मोटे आंकड़ों के मुताबिक, इस अधिनियम के लागू होने के बाद से मणिपुर में 20 हजार से भी ज्यादा लोग सुरक्षा बलों के हाथों मारे जा चुके हैं। मनोरमा कांड के बाद स्थानीय लोग इस अधिनियम को वापस लेने की मांग में लामबंद हो गए थे। लेकिन ऐसा करने की बजाय हिंसा बढ़ते देख कर सरकार ने इस अधिनियम के संवैधानिक, कानूनी व नैतिक पहलुओं की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति उपेंद्र आयोग का गठन कर दिया। लेकिन इस समीक्षा का कोई खास नतीजा सामने नहीं आया। हालांकि सरकार ने अब तक इस आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। लेकिन जानकार सूत्रों का कहना है कि अपनी रिपोर्ट में आयोग ने उक्त अधिनियम को और लचीला व पारदर्शी बनाने की सिफारिश की थी। उसने इसे एक नागरिक कानून का दर्जा देकर देश के तमाम अशांत क्षेत्रों में लागू करने की भी बात कही थी। फिलहाल यह अधिनियम सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों में ही लागू है। सरकार की सोच है कि इस अधिनियम के बिना इलाके में उग्रवाद पर काबू पाना संभव नहीं है। वैसे, इस अधिनियम के लागू होने के 26 वर्षों बाद भी राज्य में उग्रवाद की घटनाएं कम नहीं हुई हैं। यहां छोटे-बड़े लगभग तीन दर्जन उग्रवादी गुट सक्रिय हैं। म्यामां से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा ने भी इसे उग्रवाद पनपने के आदर्श ठिकाने के तौर पर विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है।
राज्य के कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी मानते हैं कि विशेषाधिकार अधिनियम ने सुरक्षा बलों व आम लोगों के बीच की दूरी बढ़ाई है। उग्रवाद पर काबू पाने में तो कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। इस अधिनियम का विरोध करने वाले दलील देते हैं कि इसके लागू होने के पहले मणिपुर में सिर्फ चार उग्रवादी संगठन ही सक्रिय थे। लेकिन अब यहां इनकी तादाद देश के किसी भी राज्य के मुकाबले ज्यादा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर हर संगठन अपने इलाके में सक्रिय है। वे लोगों से जबरन धन उगाही व अपहरण जैसी घटनाओं को कामयाबी से अंजाम दे रहे हैं। ऐसे में उक्त अधिनियम खोखला ही लगता है। अपनी खीज मिटाने के लिए इस अधिकार का इस्तेमाल कर सुरक्षा बल अक्सर बेकसूर नागरिकों को ही अपना निशाना बनाते हैं।
इस राज्य की कई समस्याएं हैं। पहले तो यह कई आदिवासी समुदायों में बंटा है। पड़ोसी राज्य नगालैंड से सटे इलाकों में नगा उग्रवादी संगठन तो सक्रिय हैं ही, ग्रेटर नगालैंड की मांग भी यहां जब-तब हिंसा को हवा देती रही है। यहां उग्रवादी संगठनों के फलने-फूलने व सक्रिय होने की सबसे बड़ी वजह है साढ़े तीन सौ किमी लंबी म्यांमा सीमा से होने वाली मादक पदार्थों की अवैध तस्करी। मादक पदार्थों के सेवन के चलते ही राज्य में एड्स के मरीजों की तादाद बहुत ज्यादा है। नगा बहुल उखरुल जिले में तो नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नगालैंड यानी एनएससीएन के इसाक-मुइवा गुट का समानांतर प्रशासन चलता है। वहां उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं डोलता। वहां हत्या से लेकर तमाम आपराधिक मामलों की सुनवाई भी नगा उग्रवादी ही करते हैं। लोग सरकार व अदालत के फैसलों को मानने से तो इंकार कर सकते हैं, लेकिन एनएससीएन नेताओं का फैसला पत्थर की लकीर साबित होती है।
यहां का दौरा किए बिना जमीनी हकीकत का पता नहीं लग सकता। राज्य के बाकी तीन जिलों में हालात अपेक्षाकृत कुछ बेहतर है, लेकि सुरक्षा की कोई गारंटी वहां भी नहीं है। पुलिस व प्रशासन के अधिकारी भारी सुरक्षा कवच के बीच ही निकलते हैं। उनके दफ्तरों व घरों के इर्द-गिर्द भी सुरक्षा का भारी इंतजाम रहता है। दिलचस्प बात यह है कि यहां इतने उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं कि लोग नहीं चाहते केंद्रीय बलों को यहां से हटा लिया जाए। इंफाल में एक व्यापारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि हम विशेषाधिकार अधिनियम को रद्द किए जाने के पक्ष में हैं, केंद्रीय बलों की वापसी के नहीं। केंद्रीय बलों को वापस भेज देने की स्थिति में राज्य में गृहयुध्द शुरू हो जाएगा। वे कहते हैं कि लोग उग्रवादी संगठनों के अत्याचारों व जबरन वसूली से भी उतने ही परेशान हैं जितना राज्य सरकार की उदासीनता से। बड़े पद पर बैठा हर सरकारी अधिकारी उग्रवादी संगठनों से मिला हुआ है।
इलाके के लोग कहते हैं कि राज्य में लागू युध्दविराम के बावजूद जीने के अधिकार के लिए हमारा संघर्ष जारी है। जब तक विशेषाधिकार अधिनियम की राज्य से विदाई नहीं होती, तब तक विकास की कौन कहे, राज्य में चैन से सांस लेना भी दूभर है। लेकिन राज्य सरकार और केंद्र को क्या यह जमीनी हकीकत नजर आएगी? इस लाख टके के सवाल का जवाब न तो मुख्यमंत्री के पास है और न ही किसी बड़े पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी के पास।

आजादी का मतलब

क्या सचमुच आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम आजाद हैं? क्या यही है असली आजादी, जहां हम अपनी मर्जी से न तो जी सकते हैं और न ही कुछ कर सकते हैं? भारत के उपद्रवग्रस्त पूर्वोत्तर इलाके में काम करने के दौरान अक्सर ऐसे सवालों से दो-चार होना पड़ा है। यह सवाल पूछने वाले वहां रह कर कामधंधा करने वाले हिंदीभाषी लोग हैं जिनको इलाके में ‘हिंदुस्तानी’ कहा जाता है। पूछने वाले चेहरे बदलते रहे हैं, लेकिन सवाल यही रहता है। जिस क्षेत्र में आजादी के 60 वर्षों बाद भी देश के बाकी हिस्से के लोगों को ‘हिंदुस्तानी’ कहा जाता हो और जहां कोई दर्जन भर उग्रवादी संगठन आजादी के बाद से ही संप्रभुता की मांग करते आए हों, वहां आजादी के सही अर्थ पर सवाल उठना लाजिमी है।
देश के बाकी हिस्सों में जहां स्वाधीनता दिवस का मतलब झंडे फहराना और छुट्टी मनाना है, वहीं पूर्वोत्तर में 15 अगस्त व 26 जनवरी को मातम जैसा माहौल होता है। विभिन्न उग्रवादी संगठनों की ओर से की गई बंद की अपील के कारण। उस दिन अघोषित कर्फ्यू रहता है। आजादी का सवाल जहां सबसे ज्यादा सालता है वह राज्य है नगालैंड। दीमापुर रेलवे स्टेशन व एअरपोर्ट पर उतरते ही आप खुद को परदेशी महसूस करने लगेंगे। दीमापुर बाजार में दुकान चलाने वाले मुरारी अग्रवाल (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि ‘40 बरसों से यहां रहने के दौरान स्थानीय लोगों के व्यवहार से हमने कभी महसूस ही नहीं किया कि हम भारत के ही एक हिस्से में रहते हैं। हर बात पर स्थानीय लोगों की धौंस सह कर काम करना पड़ता है। विभिन्न संगठन भी गाहे-बगाहे टैक्स के नाम पर मोटी रकम वसूलते रहते हैं। क्या यही असली आजादी है ?’ वे कहते हैं कि ‘यहां तो बाहरी लोगों से पुलिस भी उग्रवादियों की तरह ही बर्ताव करती है। बीते खासकर दो दशकों के दौरान जुल्म बढ़ने के कारण कई व्यापारियों ने अपना कारोबार समेट लिया है। जो हैं वे भी सहमे हैं। दीमापुर से नगालैंड की राजधानी कोहिमा की तरफ बढ़ते हुए भी नगा व हिंदुस्तानियों में फर्क साफ नजर आता है।
नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नगालैंड (एनएससीएन) के खापलांग व इसाक-मुइवा धड़े एक ओर तो केंद्र से बातचीत कर रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर वे यहां हिंदुस्तानियों को कामधेनु समझ कर मनमानी करने से भी बाज नहीं आते।
पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले असम के उग्रवादप्रभावित डिब्रूगढ़ व तिनसुकिया इलाकों में हाल के वर्षों में खासकर बिहारी लोगों के साथ हुई मारकाट को कौन भूल सकता है? उन घटनाओं में अपने परिवार को दो सदस्यों को खोने वाले रामदरश मिश्र बताते हैं कि ‘रोजी-रोटी की मजबूरी ने हमें यहां रोक रखा है। यहां अपनापन तो कभी मिला ही नहीं। कभी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) के लोग धमकाते हैं तो कभी स्थानीय राजनीतिक दलों के नेता।’ वे कहते हैं कि ‘हमारे लिए 15 अगस्त का मतलब दुकान बंद कर घर में बैठना है। दुकान खोल कर मौत को दावत देने से क्या फायदा? आखिर पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर तो नहीं किया जा सकता न ? हम अपने घर में ही बेगाने बन कर रह गए हैं।’
मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश व मेघालय के सुदूर इलाकों में रहने वाले इन बाहरी लोगों की स्थिति भी कमोबेश एक जैसी है। वहां किसी की हिम्मत नहीं है कि 15 अगस्त या 26 जनवरी को अपनी दुकान या घर पर तिरंगा लहरा ले। बरसों से रहकर स्थानीय संस्कृति में घुल-मिल जाने के बावजूद स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। उग्रवादी संगठन स्वाधीनता दिवस का स्वागत बम धमाकों से करते हैं। इस साल भी उल्फा अगस्त के पहले सप्ताह से ही कई धमाके कर चुका है। केंद्र से उसकी बातचीत भी संप्रभुता के सवाल पर ठप हो चुकी है।
इलाके को करीब से देखने व सुदूर इलाकों में उग्रवाद की रिपोर्टिंग के दौरान खासकर हिंदीभाषियों के ऊपर लिखे सवालों का इतनी बार सामना करना पड़ा है कि अब स्वाधीनता दिवस के मौके पर मन में सवाल उठने लगता है कि क्या आजादी के इतने लंबे दौर के बावजूद पूर्वोत्तर भारत में सचमुच इसकी हल्की-सी किरण भी पहुंच सकी है ?

अब घर-घर से बिकेगी बिजली !


पश्चिम बंगाल में अब आम लोग भी बिजली बेच सकते हैं. यह सुन कर चौंकना स्वाभाविक है. लेकिन यह सच है कि राज्य के लोग अब बिजली बेच कर कुछ अतिरिक्त कमाई कर सकते हैं. सरकार की एक योजना के तहत अब राज्य के लोग अपने घरों में सौर ऊर्जा संयंत्र लगा कर उससे अपनी जरूरत के बाद बचने वाली बिजली सरकारी या निजी बिजली कंपनियों को बेच सकते हैं. वह भी साढ़े बारह रुपए प्रति यूनिट की ऊंची दर पर. पश्चिम बंगाल बिजली नियमन आयोग ने इसका एलान किया है. पश्चिम बंगाल देश का पहला राज्य है जिसने अपने वाशिंदों को सौर ऊर्जा से पैदा होने वाली बिजली राज्य के बिजली नेटवर्क यानी स्टेट ग्रिड को बेचने की अनुमति दी है.
इस योजना के तहत राज्य में होटल और अस्पताल चलाने वाले लोग या आवासीय परिसर में रहने वाले अपनी छत पर सौर ऊर्जा के उपकरण लगा कर अपनी बिजली का बिल तो बचा ही सकते हैं, अच्छी-खासी रकम भी कमा सकते हैं. नियमन आयोग ने राज्य में बिजली के दो सप्लायरों कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी (सीईएससी) और पश्चिम बंगाल राज्य बिजली वितरण कंपनी (पहले राज्य बिजली बोर्ड) को 2012 तक कम से कम 10 फीसदी ऐसी बिजली खरीदने का निर्देश दिया है जो गैर-परंपरागत स्त्रोतों से बनी हो. ऐसा नहीं करने की हालत में उनको जुर्माना भरना होगा. आयोग ही राज्य में बिजली की दरें तय करता है. उसने हाल ही में सौर ऊर्जा से बनने वाली बिजली की नई दर का एलान किया है.
इस एलान के बाद अब राजधानी कोलकाता समेत आसपास के इलाकों में सौर ऊर्जा से बिजली बनाने वाले उपकरणों की मांग धीरे-धीरे बढ़ रही है. हालांकि लोगों को अब भी इसमें पूरा भरोसा नहीं है. लेकिन कोलकाता के सूचना तकनीक क्षेत्र साल्टलेक व सुंदरबन इलाके में बड़े पैमाने पर इससे बनी बिजली का इस्तेमाल हो रहा है. साल्टलेक में तो सौर ऊर्जा से सड़कों पर जलने वाली स्ट्रीट लाइट अब आम है. उत्तर 24-परगना जिले के अशोक नगर इलाके के रतन बसाक ने इसी सप्ताह ऐसा उपकरण खरीदा है. वे एक छोटा छात्रावास चलाते हैं. बसाक कहते हैं कि ‘यह चीज तो नई है. लेकिन इससे हर महीने बिजली के बिल में काफी बचत होगी. इसलिए मैंने कुछ कर्ज लेकर यह उपकरण खरीदा है.’ वे कहते हैं कि ‘फिलहाल हम सरकार से चार रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदते हैं. लेकिन अब अब अगर सौर ऊर्जा से बनी अतिरिक्त बिजली बेचें तो हमें साढ़े बारह रुपए प्रति यूनिट की दर से पैसे मिलेंगे.’
महानगर में ऐसे उपकरण बेचने वाले एक दुकानदार का कहना है कि ‘पहले कभी महीने में एकाध ग्राहक आते थे. लेकिन अब लोग रोजाना आते हैं. कभी इसकी कीमत का पता लगाने तो कभी उपकरण खरीदने. अब बिक्री भी पहले के मुकाबले बढ़ गई है.’
राज्य बिजली विभाग में विशेष सचिव एस.पी.जी.चौधुरी कहते हैं कि ‘यह एक क्रांतिकारी फैसला है. इससे राज्य में सौर ऊर्जा से बिजली बनाने और इसके लिए जरूरी उपकरण बनाने के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश आकर्षित होने की भी उम्मीद है. उपकरण निर्माताओं के आने के बाद सौर ऊर्जा से बिजली बनाने वाले उपकरणों की कीमतें भी घटेंगी.’ राज्य में सौर ऊर्जा के क्षेत्र में लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ का निवेश होने की संभावना है. इनमें से चार सौ करोड़ 10 मेगावाट क्षमता वाले एक सौर ऊर्जा संयंत्र पर खर्च होंगे और बाकी उपकरणों के निर्माण पर. रिलायंस, एस्टॉनफील्ड और श्रेयी समूह ने सौर ऊर्जा से बिजली बनाने में दिलचस्पी दिखाई है.
वेस्ट बंगाल रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (वेबरेडा) ने भी रवि रश्मि नामक एक परियोजना शुरू की है. इसके तहत 25 घरों और एक सामुदायिक केंद्र को सौर ऊर्जा से बनी बिजली मुहैया कराई जाएगी. अतिरिक्त बिजली स्टेट ग्रिड को बेच दी जाएगी. चौधरी, जो वेबरेडा के निदेशक भी हैं, बताते हैं कि ‘बिजली नियमन आयोग ने 2012 तक के लिए साढ़े बारह रुपए प्रति यूनिट की दर तय कर दी है. अब उम्मीद है कि दूसरे राज्य भी इस रास्ते पर चलेंगे.’ वे कहते हैं कि ‘सौर ऊर्जा से बनी अतिरिक्त बिजली स्टेट ग्रिड को सप्लाई करने के लिए एक खास मीटर बनाए गए हैं. इसी के आधार पर बिजलीकी कीमत का भुगतान किया जाएगा.’ उनको उम्मीद है कि लोग इस तरीके से बनने वाली बिजली में दिलचस्पी लेंगे. इससे खासकर उन इलाकों के लोगों को काफी सहायता मिलेगी जहां बिजली की सप्लाई अनियमित है. राज्य बिजली आयोग के ताजा फैसले और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में होने वाले निवेश को ध्यान में रखें तो जल्दी ही राज्य में हर दूसरा आदमी सरकार को बिजली बेचता नजर आएगा.

Saturday, May 30, 2009

भद्रलोक का सांप्रदायिक चेहरा

उस दिन दफ्तर से लौटते हुए पार्क स्ट्रीट स्टेशन पर मेट्रो के उस डिब्बे का गेट खुलते ही अचानक शोर सुनाई पड़ा। देखा तो एक हिंदीभाषी युवक को कई लोग मिल कर बेतरह डांट रहे थे। भीड़ की वजह से वह दरवाजे से सट कर खड़ा था। उसके चलते किसी यात्री को घुसने में मामूली दिक्कत हुई थी। वह युवक बार-बार सफाई दे रहा था कि इतनी भीड़ में वह कहां खिसके। लेकिन लोग थे कि मान ही नहीं रहे थे। उस दिन मेट्रो के उस डिब्बे में मुझे बंगाल के पढ़े-लिखे समाज का सांप्रदायिक चेहरा नजर आया। मुझे महसूस हुआ कि यहां के लोग भी शिवसेना वालों से कम नहीं हैं।
इस भीड़ और लोगों की बातों का जिक्र करने से पहले मेट्रो का भूगोल समझना जरूरी है। दमदम से टालीगंज के बीच पार्क स्ट्रीट ही अकेला ऐसा स्टेशन है जहां ट्रेन के दरवाजे बाईं ओर खुलते हैं। हर डिब्बे के दाईं ओर खुलने की वजह से पार्क स्ट्रीट पहुंचने तक मेट्रो के खासकर सामने वाले दोनों डिब्बे ठसाठस भर जाते हैं। पार्क स्ट्रीट स्टेशन पर चढ़ने वाले लोग जानबूझ कर देर से चढ़ते हैं ताकि टालीगंज में पहुंचने पर सबसे पहले बाहर निकल सकें। अंतिम स्टेशन टालीगंज में जमीन के ऊपर निकलने वाली मेट्रो ट्रेन के दरवाजे बाईं ओर ही खुलते हैं। बीते करीब दस सालों से रोज यही देख रहा हूं।
उस दिन जिस युवक को चढ़ने में परेशानी हुई वह इकहरी काया का कोई साफ्टवेयर इंजीनियर था जो बाकी यात्रियों की तरह ही चालाकी से दरवाजा बंद होने के ठीक पहले चढ़ने का प्रयास कर रहा था। उस हिंदीभाषी युवक की इसमें कोई गलती नहीं थी। लेकिन अचानक एक सज्जन ने उसे बेतरह डांटना शुरू किया। वह युवक किसी बैंक में काम करता था और एक सप्ताह पहले ही उसका तबादला कोलकाता हुआ था। उसने हिंदी में सफाई दी कि भीड़ ज्यादा है, मैं कहां खिसकता। उसे हिंदी में बोलते देख कर बाकी यात्रियों की तो मानो बांछें खिल गईं। कोई कहने लगा कि लालू प्रसाद के गांव से आया है, तो कोई कह रहा था कि बांग्ला में बोलो। वह बेचारा बार-बार कह रहा था कि मैंने कोई गलती ही नहीं की तो आप लोग इस तरह बात क्यों कर रहे हैं। लेकिन लोग उस पर चढ़े जा रहे थे। खरबजे को देख कर खरबूजे के रंग बदलने की कहावत को चिरतार्थ करते हुए वह पिद्दी-सा युवक, जिसको मामूली परेशानी हुई थी, भी शेर की तरह दहाड़ने लगा। साले लालू प्रसाद के गांव से पहली बार बंगाल में चले आए हैं। उसके एक साथी ने आवाज दी कि मारो साले को। पहली बार मेट्रो में चढ़ा है। लालू प्रसाद से टिकट ले कर आया है। शायद उनलोगों को यह तथ्य भूल गया था कि रेल मंत्री होने के नाते मेट्रो रेल भी लालू प्रसाद के ही अधीन है। इसे वाममोर्चा सरकार ने नहीं बनवाया है। कई लोग उससे माफी मांगने को कहने लगे। उसने कहा कि भाई साहब मैंने कोई गलती ही नहीं की तो माफी क्यों मांगूं।
इसबीच, आगे के स्टेशनों पर जितने यात्री चढ़े, सब अपने-अपने तरीके से उस युवक को धमकाने लगे। किसी ने उसका परिचय पूछा। उसने अपना परिचय पत्र थमाया तो उस बुजुर्ग सज्जन ने कहा कि भाई यह सीबीआई के निदेशक हैं। इस पर हंसी का फव्वारा छूट पड़ा। तभी अचानक एक युवक ने कहा कि अरे बिहार से आकर यहां दादागिरी करते हो। वह युवक बोला-भाई साहब आप पचास लोग मुझ अकेले से लड़ रहे हैं और मुझ पर दादागिरी का आरोप लगा रहे हैं।
मैं वहां चुपचाप खड़ा भद्रलोक कहे जाने वाले बंगाली समाज का यह सांप्रदायिक चेहरा देखता रहा। अखबार की नौकरी करने और उससे भी ज्यादा बांग्ला अच्छी तरह बोलने-समझने की वजह से मुझे बचपन के सिवा कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा है। बचपन में रेलवे कालोनी के जिस क्लब में फुटबाल खेलता था वहां दो भाई अक्सर बिहारी और छातू (सत्तू) कह कर चिढ़ाते थे। तब बिहार की पहचान लालू प्रसाद से नहीं जुड़ी थी। बाद में एक दिन उनकी ऐसी पिटाई की कि वे दोनों अब भी मिलने पर सम्मान देते हैं। लेकिन यहां तो चित्त भी मेरी पट भी मेरी की तर्ज पर लोग उसे ऐसे डांट रहे थे मानो उसने किसी का कत्ल कर दिया हो या फिर बांग्ला नहीं बोलना ही उसका सबसे बड़ा अपराध हो। वैसे, कोलकाता के बांग्ला अखबारों में इस भद्रसमाज का यह सांप्रदायिक चेहरा अक्सर नजर आता है। चार डकैत पकड़े गए, उनमें से तीन बिहारी या फिर बस हादसे में दो बंगाली समेत पांच मरे-जैसे शीर्षक इन अखबारों में नियमित मिल जाते हैं। वाममोर्चा सरकार और माकपा का अनधिकृत मुखपत्र कहे जाने वाले एक अखबार और उसके संपादक का हिंदीद्वेष तो जगजाहिर है। उन्होंने ही कोलकाता की दुकानों पर बांग्ला में साइनबोर्ड लिखने का आंदोलन चलाया था। अपनी भाषा से प्रेम करना तो ठीक है, लेकिन इसके लिए दूसरी भाषा से नफरत करने की कोई तुक समझ में नहीं आती। बांग्ला अखबारों में चढ़े सांप्रदायिकता का गाढ़ा रंग किसी से छिपा नहीं है। अब बंगाल का यह सांप्रयादिक चेहरा खुल कर सामने आने लगा है। पढ़े-लिखे तबके को लगता है कि बाहरी लोगों के आने से उनकी रोजी-रोटी छिन रही हैं। उनको नौकरियां नहीं मिल रही हैं। इसका असर उनके स्वभाव में झलक रहा है। सांप्रदायाकिता या हिंदीभाषियों के विरोध की परंपरा तो यहां पहले भी थी, लेकिन अब यह उग्र होने लगी है।
दस वर्षों से घर से दफ्तर के बीच रोजाना मेट्रो के सफर में पार्क स्ट्रीट स्टेशन पर चालाक यात्रियों की इस रेलमपेल के चलते कहासुनी तो अक्सर होती रहती है। लेकिन इससे पहले कभी इसका रूप इतना सांप्रदायिक नहीं था। शायद इसकी वजह सिर्फ यही थी कि बांग्लाभाषी यात्रियों की नजरों में घोर अपराध करने वाला वह युवक हिंदीभाषी था।
ट्रेन अब अपने अंतिम स्टेशन टालीगंज तक पहुंचने ही वाली थी। वह युवक तो चुप ही था, लेकिन फिकरे कसने वाले चुप नहीं हुए थे। एक ने उसके साहस की भी दाद दी कि मानना होगा कि बांग्ला नहीं जानने के बावजूद वह अकेले सबसे लड़ता रहा और हार नहीं मानी। एक अन्य यात्री ने कहा कि बंगाल था बच्चू। यहां के लोग सभ्य हैं। इसलिए तुम आज बच गए। कोई और राज्य होता तो धुनाई हो जाती। मैं आश्चर्य से उस यात्री और बंगाल का यह सभ्य चेहरा देखते हुए मेट्रो से उतर कर घर की ओर बढ़ने लगा।

अब डूब रहा है सुंदरबन



पश्चिम बंगाल में बंगाल की खाड़ी व हुगली के मुहाने पर बसे सुंदरबन में देखने के लिए बहुत कुछ है। रायल बंगाल बाघ, जैविक और प्राकृतिक विविधता और सुंदरी पेड़ों का सबसे बड़ा जंगल यानी मैनग्रोव फॉरेस्ट। लेकिन अब इसमें एक और चीज जुड़ गई है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कुप्रभाव देखना हो तो भी सुंदरबन आ सकते हैं। पर्यावरण में तेजी से होने वाले बदलावों के चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण इस जंगल और इलाके में जहां-तहां बिखरे द्वीपों पर संकट मंडराने लगा है। इन प्राकृतिक द्वीपों के साथ यहां रहने वाली आबादी भी खतरे में है। डूबने के डर से इलाके से बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। वैसे, तो पहले भी समय-समय पर सुंदरबन के द्वीपों के पानी में समाने पर चिंताएं जताई जा रहीं थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी पर्यावरण रिपोर्ट के बाद अब इसकी गंभीरता खुल कर सामने आ गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो सुंदरबन जल्दी ही भारत के नक्शे से मिट जाएगा। लोहाचारा नामक एक द्वीप पानी में समा चुका है। घोड़ामारा द्वीप भी धीरे-धीरे पानी में समा रहा है।
वैसे, सुंदरवन के वजूद पर छाए संकट की बात का खुलासा पहले भी हो चुका है। लेकिन सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। कोलकाता स्थित यादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्रविज्ञान अध्ययन विभाग के प्रमुख डा. सुगत हाजरा बीते आठ वर्षों से अपनी टीम के साथ सुंदरवन पर मंडराते पर्ययावरणीय खतरे का अध्ययन कर रहे हैं। हाजरा कहते हैं कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर व प्रशासनिक उदासीनता के कारण वर्ष 2020 तक सुदंरवन का 15 फीसदी इलाका समुद्र में समा जाएगा। वे कहते हैं कि यहां बीते दस वर्षों से समुद्री जलस्तर सालाना 3.14 मिमी की दर से बढ़ रहा है। इससे कम से कम 12 द्वीप संकट में हैं। हाजरा कहते हैं कि भूमंडलीय तापमान में बदलावों के चलते बंगाल की खाड़ी का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। इससे इलाके के तमाम द्वीप खतरे में पड़ गए हैं।
सुंदरवन इलाके में कुल 102 द्वीप हैं। इनमें से 54 पर आबादी है। इनलोगों में किसानों, मछुआरों व मजदूरों की तादाद ज्यादा है। हाजरा कहते हैं कि इस इलाके में बड़े पैमाने पर होने वाले भूमिकटाव से लगभग 10 हजार लोग बेघर हो गए हैं। इनको पर्यावरण के शरणार्थी कहा जा रहा है। हाजरा कहते हैं कि अगले कुछ वर्षों के दौरान ऐसे शरणार्थियों की तादाद 70 हजार तक पहुंच जाएगी। अब वह घोड़ामारा द्वीप खतरे में है जहां दो सौ साल पहले सुंदरवन इलाके में सबसे पहली ब्रिटिश चौकी की स्थापना की गई थी। इसका एक तिहाई हिस्सा समुद्र में समा चुका है। घोड़ामारा के विश्वजीत दास कहते हैं कि मेरे पास तीन हेक्टेयर खेत थे। लेकिन अब महज एक हेक्टेयर बचा है।
इसके भी पानी में डूब जाने के बाद हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा। उस द्वीप के ज्यादातर लोगों की कहानी मिलती-जुलती है। राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने भी बीते दिनों इस द्वीप का दौरा किया है।
डा हाजरा कहते हैं कि सुंदरवन की इस हालत के लिए इंसान भी जिम्मेवार हैं। 1990 के मध्य तक लोगों ने इलाके के सुंदरी वनों को भारी नुकसान पहुंचाया। लेकिन दोबारा उन पेड़ों को रोपने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया। विश्वास कहते हैं कि इलाके में पर्यटन को बढ़ावा देकर लोगों को रोजगार के वैकल्पिक साधन मुहैया कर ही वहां की दुर्लभ वनस्पतियों को बचाया जा सकता है। इसके बिना लोग पेड़ काटते रहेंगे। राज्य के अतिरिक्त प्रमुख वन संरक्षक अतनू राहा कहते हैं कि आबादी के दबाव ने सुंदरबन के जंगलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इलाके के गावों में रहने वाले लोगों के चलते जंगल पर काफी दबाव है। इसे बचाने के लिए एक ठोस पहल की जरूरत है ताकि जंगल के साथ-साथ वहां रहने वाले लोगों को भी बचाया जा सके। हमने इलाके में बड़ी नहरें व तालाब खुदवाने का फैसला किया है ताकि बारिश का पानी संरक्षित किया जा सके। इस पानी से इलाके में जाड़ों के मौसम में दूसरी फसलें उगाई जा सकती हैं। इससे जंगल पर दबाव कम होगा।
डा. हाजरा कहते हैं कि सरकार ने अगर तत्काल प्रभावी उपाय किए तो कई द्वीपों को डूबने से बचाया जा सकता है। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया धीमी ही है। राज्य सरकार ने सुंदरवन के संरक्षण व विकास के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन किया है। सुंदरवन मामलों के मंत्री कांति गांगुली कहते हैं कि हमारे वैज्ञानिक बीते कुछ वर्षों से सुंदरवन में पर्यावरण असंतुलन के कारण होने वाले बदलावों का अध्ययन कर रहे हैं। सरकार परिस्थिति से वाकिफ है। हम जल्दी ही इस दिशा में जरूरी कदम उठाएंगे। गांगुली कहते हैं कि इलाके के लोगों को वैकल्पित रोजगार मुहैया कराने व पेड़ों की कटाई रोकने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। सरकार ने कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर सुंदरवन इलाके के लोगों में जागरूकता पैदा करने की भी योजना बनाई है। लेकिन सुंदरबन को बचाने की दिशा में होने वाले उपाय उस पर मंडराते खतरे के मुकाबले पर्याप्त नहीं हैं।

काजीरंगाः गोल हो रहे हैं गैंडे


काजीरंगा नेशनल पार्क यानी दुनिया भर में तेजी से घट रहे एक सींग वाले दुर्लभ प्रजाति के गैंडों का सबसे बड़ा घर। पूर्वोत्तर के प्रवेशद्वार असम की राजधानी गुवाहाटी से लगभग सवा दो सौ किलोमीटर दूर नगांव और गोलाघाट जिले में 430 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैला यह पार्क इन गैंडों के अलावा दुर्लभ प्रजाति के दूसरे जानवरों, पशुपक्षियों व वनस्पतियों से भरा पड़ा है। उत्तर में ब्रह्मपुत्र और दक्षिण में कारबी-आंग्लांग की मनोरम पहाड़ियों से घिरे अंडाकार काजीरंगा को आजादी के तीन साल बाद 1950 में वन्यजीव अभयारण्य और 1974 में नेशनल पार्क का दर्जा मिला। इसकी जैविक और प्राकृतिक विविधताओं को देखते हुए यूनेस्को ने वर्ष 1985 में इसे विश्व घरोहर स्थल का दर्जा दिया।
असम का यह सबसे पुराना पार्क इन एक सींग वाले गैंडों के लिए तो पूरी दुनिया में मशहूर है ही, बीते कुछ सालों के दौरान यह इससे इतर वजहों से भी सुर्खियों में रहा है। वह वजह है कि एक सींग वाले गैंडों और बाघों का शिकार। काजीरंगा में अब इन गैंडों की अपनी सींग ही उनकी दुश्मन बनती जा रही है। इस सींग के लिए हर साल पार्क में गैंडों के अवैध शिकार की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। माना जाता है कि इन गैडों की सींग से यौनवर्द्धक दवाएं बनती हैं। इसलिए अमेरिका के अलावा दक्षिण एशियाई देशों में इनकी भारी मांग है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में गैंडे की सींग बीस लाख रुपए प्रति किलो की दर से बिक जाती है। शिकारी इन गैंडों को मार कर इनकी सींग निकाल लेते हैं। वर्ष 2006 में हुई गिनती के मुताबिक, विश्व में एक सींग वाले गैंडों की कुल आबादी 2,700 थी। इनमें से 1,855 काजीरंगा में हैं। लेकिन अब यह तादाद तेजी से घट रही है। बीते दो वर्षों के दौरान पार्क में कोई दो दर्जन गैंडों की हत्या के बाद अब सरकार ने अवैध शिकारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए सेना की सहायता लेने का फैसला किया है। इस साल भी अब तक चार गैंडे मारे जा चुके हैं।
असम की राजधानी को पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ने वाली सड़क नेशल हाइवे 37 इस पार्क के बीचोबीच से गुजरती है। इससे गुजरते हुए कई बार आसपास एक सींग वाले गैंडे घास चरते नजर आ जाते हैं। देश के दूसरे नेशनल पार्कों व वन्यजीव उद्यानों से जो चीज काजीरंगा को अलग करती है वह यह है कि यहां आने वाले किसी भी पर्यटक को निराश नहीं होना पड़ता है। उनको गैंडे के दर्शन हो ही जाते हैं। एक सींगी गैंडे के अलावा यह पार्क जंगली भैंसों और हिरणों का भी सबसे बड़ा घर है। इनके अलावा पार्क में हाथी. जंगली सुअएर, भालू, चीता और कई दूसरे जावनर भी भरे पड़े हैं। तरहृतरह के पक्षियों के अलावा काजीरंगा में वनस्पतियों की तीन सौ से ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं।
यूनीसेफ ने इस पार्क को विश्व धरोहरों की सूची में शामिल कर रखा है। लेकिन अब खुद इस पार्क की सबसे बड़ी धरोहर यानी इन गैडों का वजूद ही खतरे में पड़ गया है। इस पार्क पर खतरा दोतरफा है। हर साल ब्रह्मपुत्र में आने वाली भयावह बाढ़ अपने साथ पार्क का कुछ हिस्सा तो बहा कर ले जाती ही है, पूरे पार्क को भी डुबो देती है। नतीजतन हर साल बाढ़ के सीजन में इन गैंडों समेत सैकड़ों जानवर मारे जाते हैं। रही-सही कसर अवैध शिकारी पूरी कर देते हैं। हर बार गैंडों के शिकार की घटनाएं सामने आने के बाद हो-हल्ला मचता है और विभिन्न संगठन वन अधिकारियों या वन मंत्री के इस्तीफे की मांग करने लगते हैं। उसके बाद सरकार भी इसकी जांच और पार्क की सुरक्षा बढ़ाने का एलान कर चुप्पी साध लेती है। ऐसे एक मामले में तो सरकार को उच्चस्तरीय जांच का भरोसा देना पड़ा था।
दरअसल, समस्या की जड़ में कोई नहीं जाना चाहता। आखिर इन गैंडों के अवैध शिकार पर अंकुश लगाना संभव क्यों नहीं हो रहा है? इस सवाल पर सबकी अलग-अलग दलीलें हैं। लेकिन एक बात पर सब सहमत हैं कि वनरक्षकों की कमी ही इस राह में सबसे बड़ी बाधा है। राज्य के एक वरिष्ठ वन अधिकारी कहते हैं कि गैंडों के शिकार की समस्या कोई नई नहीं है। हर साल ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। मुठ्ठी भर वनरक्षकों के जरिए इतने बड़े इलाके के चप्पे-चप्पे पर नजर रखना संभव ही नहीं है। राज्य सरकार हर बार सुरक्षा कर्मियों की तादाद बढ़ाने का भरोसा तो देती है, लेकिन अब तक किसी ने इस दिशा में ठोस पहल नहीं की है। वनरक्षकों की कमी तो है ही, उनके हथियार भी बहुत पुराने और लगभग बेकार हैं। उधर, अवैध शिकारियों के पास एके-47 से एके-56 तक तमाम आधुनिकतम हथियार मौजूद हैं। ऐसे में जंगल में अवैध शिकारियों को देखने के बावजूद कोई उनसे मुकाबला नहीं करना चाहता। गैंडे की जान तो जाएगी ही, वनरक्षक भी मुफ्त में मारे जाएंगे। शिकारियों ने अब तक वन विभाग के कई कर्मचारियों की भी हत्या कर दी है।
वन विभाग के अधिकारी बताते हैं कि पार्क के अस्थाई कर्मचारियों को सरकार ने पक्की नौकरी देने की बजाय काम से ही निकाल दिया। अब यह लोग पैसों के लालच में खिकारियों के साथ मिल गए हैं। पार्क और उससे सटी जंगली बस्तियों में रहने वाले यह लोग जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं। उनकी सहायता से शिकारी आराम से अपना काम कर निकल जाते हैं।
एक सींग वाले गैंडे ही नहीं बल्कि अब इस पार्क में बाघों के मरने की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं। पार्क में बीते तीन महीनों के दौरान नौ बाघों की मौत हो चुकी है। लेकिन वन अधिकारियों का कहना है कि बाघों को शिकारियों ने नहीं मारा है। यह अलग बात है कि पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने पार्क के अधिकरियों को शिकारियों के खतरे से आगाह करते हुए कड़े नियम बनाने के लिए कहा है। एनटीसीए ने कहा है कि बाघ के हत्यारे पार्क के आसपास ही छिपे हुए हैं।
असम के मुख्य वन्यजीव वार्डन एम.सी.मालाकार ने कहा है कि काजीरंगा में नौ बाघों की मौत जरूर हुई है। लेकिन इसमें शिकारियों का कोई हाथ नहीं है। वे मानते हैं कि काजीरंगा में गैंडों के शिकार के मामले बढ़ रहे हैं। उनकी दलील है कि वन विभाग इन पर अंकुश लगाने का पूरा प्रयास कर रही है। मालाकार कहते हैं कि सेना की सहायता से ऐसी गतिविधियों पर अंकुश लगाने में कामयाबी मिलेगी।
काजीरंगा विश्व धरोहर स्थल तो है ही, प्रोजेक्ट टाइगर के तहत इसे टाइगर रिजर्व क्षेत्र भी घोषित किया गया है। पिछली बार हुई गिनती के मुताबिक, काजीरंगा में 86 रायल बंगाल टाइगर थे। मालाकर का दावा है कि अब यह तादाद दो सौ के पार पहुंच गई है। लेकिन, काजीरंगा नेशनल पार्क के अधिकारी मानते हैं कि प्रोजेक्ट टाइगर के तहत उनको कोई धन नहीं मिला है। काजीरंगा के वनरक्षकों को बाघों के संरक्षण व बचाव के लिए कोई खास प्रशिक्षण भी नहीं दिया गया है। गैंडों और बाघों के बचाव में वनरक्षकों की कमी ही सबसे बड़ी बाधा बन कर उभरी है। लेकिन सरकार ने अब तक कोई पहल नहीं की है। अगर, इस दिशा में जल्दी ही ठोस उपाय नहीं किए गए तो निकट भविष्य में काजीरंगा से गैंडे ही गोल हो जाएंगे।

Friday, May 29, 2009

फूल खिलते ही मुरझा जाते हैं चेहरे


फूलों का खिलना आम तौर पर खुशी का प्रतीक माना जाता है. हिंदी फिल्मों में फूलों के खिलने से जीवन में रंग भरने पर न जाने कितने ही लोकप्रिय गीत लिखे व गाए जा चुके हैं.लेकिन भारत में ही एक जगह ऐसी भी है जहां एक खास किस्म के फूलों के खिलने से लोगों ही नहीं बल्कि सरकार के चेहरे का रंग भी उड़ जाता है और वे मुरझाने लगते हैं. उस राज्य का नाम है मिजोरम. प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से पूर्वोत्तर भारत का सबसे खूबसूरत प्रदेश. और वे फूल चंपा, चमेली या गुलाब नहीं,बल्कि बांस के हैं.
यहां इन दिनों एक बार फिर बांस के फूल खिले हैं. दरअसल, बांस के फूल खिलते ही राज्य में चूहों की प्रजनन क्षमता तेजी से बढ़ जाती है. चूहों की बढ़ी हुई आबादी फसलों को कुतर देती है.यही वजह है कि राजधानी आइजोल में चूहों को मारने के लिए सरकार ने कई इनामी योजनाएं शुरू की हैं. चूहों ने राज्य के शेरछिप जिले में धान की फसलों को लगभग साफ कर दिया है. राज्य के एक प्रमुख कृषि वैज्ञानिक जेम्स लालसिमलियाना कहते हैं कि ‘चूहों की बढ़ी हुई आबादी ने धान की खेती को लगभग सफाचट कर दिया है. इस विपदा पर अंकुश लगाने के लिए राज्य सरपकार ने चूहों को जहर देकर मारने का अभियान शुरू किया है.’
राज्य में हर 50 वर्षों के बाद बांसों में बड़े पैमाने पर फूल खिलते हैं. राज्य के विभिन्न जिलों में इस साल भी यह फूल खिले हैं. बांस के बीजों को खाने वाले चूहों की आबादी इस दौरान आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है. स्थानीय भाषा में इस विपदा को ‘तम’ यानी ‘बांसों की मौत’ कहा जाता है. मिजोरम के कुल क्षेत्रफल के एक तिहाई हिस्से में बांस की खेती होती है.
राज्य सरकार ने पहले इस आफत से बचने के लिए किसानों को धान की बजाय दूसरी फसलों की बुवाई की सलाह दी थी. अब वह किसानों को मुफ्त जहर बांट रही है ताकि चूहों को मारा जा सके. आइजोल में एक सरकारी अधिकारी आर. ललथनहौला कहते हैं कि ‘इस प्राकृतिक आफत से निपटने के लिए राज्य सरकार पूरी तरह तैयार है. इससे पहले उसने हर चूहे की मौत के लिए 50 रुपए का इनाम देने का एलान किया था. उसके बाद हजारों की तादाद में चूहे मारे गए थे. इस बार भी कई नई योजनाओं का एलान किया गया है.’ वे कहते हैं कि ‘हम बुजुर्गों से सुनते आए हैं कि बांस में फूल खिलना विनाश का संकेत है. अब फूल खिलते ही राज्य के लोगों के चेहरों पर खौफ उभर आता है.’

कड़वी हो रही है चाय की चुस्की


इस साल उत्पादन में गिरावट के चलते चाय की रंगत फीकी पड़ने लगी है। मांग और आपूर्ति में बढ़ते अंतर की वजह से हाल में चाय की कीमतों में 20 से 40 रुपए तक का उछाल आया है। नतीजतन आम लोगों की चाय की चुस्की लगातार कड़वी होने लगी है। चाय उद्योग के सूत्रों की मानें तो अभी कीमतें और चढ़ने के आसार हैं।
कोलकाता में चाय उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इस साल जनवरी से अप्रैल तक देश में चाय की फसल के उत्पादन में 150 से 180 लाख किलोग्राम तक की गिरावट दर्ज की गई है जबकि मार्च तक कुल गिरावट 81 लाख किलोग्राम ही थी। इस तरह से देश में चालू अनुमानित घाटा 250 लाख किलोग्राम रहने का अनुमान है। वैसे, पैकेट चाय बनाने वालों पर इसका असर मई के बाद पता चलेगा क्योंकि उनके पास अगले दो महीने के लिए भंडार मौजूद हैं।
उत्तर बंगाल के चाय उत्पादक क्षेत्रों में बारिश में देरी के चलते कोलकाता, गुवाहाटी और सिलीगुड़ी के चाय नीलामी केंद्रों को मजबूरन चाय की खरीद कीमतों में इजाफा करना पड़ा है। चाय की कीमतों में ऐसी तेजी लगभग सात साल बाद दर्ज की जा रही है।
टी एसोसिएशन आफ इंडिया (टाई) की डुआर्स शाखा के एक प्रवक्ता कहते हैं कि डुआर्स व तराई इलाके सूखे की चपेट में रहे। उत्तर बंगाल में अप्रैल के आखिर तक चाय की फसलों को काफी नुकसान पहुंचा है। मई महीने में बारिश कम होने की वजह से इस महीने भी उत्पादन में गिरावट का अंदेशा है। यही वजह है कि यहां चाय की खरीद कीमत में 30 रुपये प्रति किलो तक की वृद्धि हुई है। जनवरी-मार्च के दौरान चाय की औसत बोली मूल्य 81.89 रुपये प्रति किलो रही, जो बीते साल की इसी अवधि के मुकाबले लगभग 17 फीसद ज्यादा है। चाय उद्योग से जुड़े सूत्रों ने अगले कुछ महीनों के दौरान कीमतों में गिरावट की उम्मीद जताई है। इंडियन टी प्लांटर्स एसोसिएशन के सूत्रों का कहना है कि अगर जुलाई से अक्टूबर के बीच चाय उत्पादन बढ़ता है तो कीमतों में कुछ स्थिरता आ सकती है। तब चाय की कीमत में पांच रुपए प्रति किलो की गिरावट आ सकती है।
अब चाय उद्योग आगे चल कर भले कीमतें कम होने की संभावना जताए, फिलहाल तो चाय की चुस्की कड़वी बने रहने के ही आसार हैं।

इतिहास में सिमटती टोटो जनजाति



एक सींग वाले गैंडों के लिए दुनिया भर में मशहूर पश्चिम बंगाल के जलदापाड़ा अभयारण्य का नाम तो आपने सुना ही होगा। यहां से अगर आप साइकिल या ट्रक से सफर करते हुए तितर, बांगर व इसके जैसी कुल सात नदियों को पार करते हुए 23 किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हों तो टोटोपाड़ा में आपका स्वागत है। यहां तय कर सकते हों इसलिए लिखा गया है कि केंद्र और राज्य सरकार और उनकी ओर से बनी विकास परियोजनाएं आजादी के 62 वर्षों बाद भी यह दूरी नहीं तय कर सकी हैं। जलपाईगुड़ी जिले में भूटान की सीमा से लगे इस गांव,जिसे बस्ती कहना ज्यादा मुफीद होगा, में टोटो जनजाति के लोग रहते हैं। टोटो जनजाति दुनिया की सबसे दुर्लभ व लुप्तप्राय जनजातियों में से एक है। यह भारत की सबसे कम आबादी वाली जनजाति है और देश में सिर्फ इसी बस्ती में इस जनजाति के लोग रहते हैं।
पश्चिम बंगाल को असम से जोड़ने वाले नेशनल हाइवे से 21 किलोमीटर दूर बसे इस गांव तक न तो कोई सड़क जाती है और न ही कोई सवारी। रास्ते में पड़ने वाली नदियों को पार करने के लिए कोई ब्रिज भी नहीं है। बरसात के दिनों में जब यह पहाड़ी नदियां उफनने लगती हैं तो अपने रोजमर्रा के कामकाज के लिए गांव के लोगों को नजदीकी कस्बे मदारीहाट तक पहुंचने के लिए सिर्फ जान ही नहीं बल्कि अपनी साइकिलें भी हथेली पर रख कर नदियों को पार करना पड़ता है। इस गांव में पहुंच कर लगता है समय अचानक पांच दशक पीछे चला गया है॥ केंद्र व राज्य सरकार के विकास कार्यक्रम तो दूर यहां उनकी छाया तक नहीं पहुंच सकी है।
वर्ष 1889 में सैंडर्स नामक एक गोरे साहब ने इस जनजाति का पता लगाया था। उस समय वहां 60 टोटो परिवार रहते थे। सैंडर्स ने उनको 19.76 एकड़ जमीन पट्टे पर दी थी ताकि वे लोग रोजी-रोटी का जुगाड़ कर सकें। उन्होंने जमीन को टोटो तबके के लिए ही संरक्षित कर दिया था ताकि कोई और उसे नहीं हथिया सके। लेकिन 1969 में सरकार ने यह संरक्षण खत्म कर दिया। नतीजतन अब इसमें से ज्यादातर जमीन बाहर से आकर इस बस्ती में बसने वाले नेपालियों के कब्जे में चली गई है और टोटो लोग अपने ही घर में बेगाने हो गए हैं। इस जनजाति के लोगों में बच्चों की जन्मदर बहुत कम है।
वर्ष 1901 की जनगणना के मुताबिक गांव की कुल आबादी 171 थी जो 1991 में बढ़ कर 936 तक पहुंची थी। पहुंची थी। फिलहाल इनकी आबादी लगभग 1300 है। इनकी आबादी बढ़ाने के लिए ही सरकार ने इस तबके के लोगों की नसबंदी पर पाबंदी लगा दी है। लेकि टोटो महिलाएं दूर-दराज के इलाकों में जाकर अपनी नसबंदी करा रही हैं। मुक्ति टोटो नामक एक महिला सवाल करती है कि जब रोजगार का कोई साधन ही नहीं है तो बच्चों को क्या खिलाएंगे? इसलिए उन्होंने भी बीते साल अपनी नसबंदी करा ली। यहां रोजगार का कोई साधन नहीं है। पहले भूटानी संतरों को टोटोपाड़ा होकर ही बांग्लादेश भेजा था। तब लोगों को ढुलाई का काम मिल जाता था। लेकिन अब वह भी बंद है।
जन्मदर ही नहीं इलाके में साक्षरता की दर भी राज्य सरकार के दावों को मुंह चिढ़ाती नजर आती है। अब तक इस जनजाति के सिर्फ 24 लोगों ने दसवीं तक की पढ़ाई की है। इनमें से दो लोग बी.ए. कर चुके हैं। इनमें से दो साल पहले संजीव टोटो को आदिवासी कल्याण विभाग में नौकरी टोटो लोग बल्लियों पर बांस व बेत से झोपड़े बना कर उसी में रहते हैं। यहां बुनियादी सुविधाओं की बेहद कमी है। न तो सड़कें हैं और न ही पीने के पानी की कोई व्यवस्था। गांव के इकलौते स्वास्थ्य केंद्र में भी अक्सर या तो डाक्टर नहीं रहता या फिर दवाएं। यहां काम कर रहे गैर-सरकारी संगठन टोटो सांस्कृतिक संघ के अध्यक्ष व दसवीं पास करने वाले पहले व्यक्ति भक्त टोटो कहते हैं कि सरकार को हमारी कोई चिंता ही नहीं है। यहां मंत्री व अधिकारी अव्वल तो आते ही नहीं। अगर भूले-भटके आ भी गए तो हमें कोरे आश्वसानों के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता। वे सवाल करते हैं कि क्या आजादी के इतने वर्षों बाद भी किसी को यहां तक सड़क बनावाने का ख्याल नहीं आया? गंभीर रूप से बीमार किसी व्यक्ति को किमी दूर मदारीहाट अस्पताल तक ले जाने के लिए कंधों का ही सहारा लेना पड़ता है। परिवहन के नाम पर नदियों से बालू निकालने के लिए आने वाले ट्रक ही एकमात्र साधन हैं। कहने के लिए तो मदारीहाट से टोटोपाड़ा तक उत्तर बंगाल राज्य परिवहन निगम की एक बस सेवा भी है। लेकिन वह अक्सर ठप ही रहती है। ऐसे में लोगों को इलाज के लिए ओझा,जिसे स्थानीय भाषा में पाव कहते हैं, का ही सहारा लेना पड़ता है। यहां रोजगार का कोई साधन नहीं है। कई लोग बीमारियों की चपेट में आ कर दम तोड़ देते हैं। लेकिन इलाके के आरएसपी पंचायत प्रधान मुक्ताराम कहते हैं कि सरकार इलाके के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं पर काम कर रही है।
यह इलाका वाममोर्चा के घटक आरएसपी के असर वाला है। भक्त टोटो आरोप लगाते हैं कि आरएसपी नेता इलाके के विकास की बजाय बाहर से नेपालियों को लाकर गांव में बसाने को ही ज्यादा तरजीह देते हैं। वे कहते हैं कि गोरे साहब (सैंडर्स) की ओर से मिली जमीन का बड़ा हिस्सा तो नेपालियों के कब्जे में चला गया है। सरकार ने अब भी इस ओर ध्यान नहीं दिया तो टोटो समाज भी जल्दी ही इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा।

Thursday, May 28, 2009

पर्यावरण बचाने की अनूठी मुहिम


पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि समूचे पूर्वी भारत में खासकर ट्रेकिंग के शौकीन सैलानियों का स्वर्ग कहा जाने वाले सांदाक्फू पर्वतीय क्षेत्र में हर साल बढ़ते कचरे के चलते इलाके का पर्यावरण संतुलन खतरे में पड़ गया है। दार्जिलिंग जिले में लगभग साढ़े बारह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस इलाके में हर साल 12 हजार देशी-विदेशी सैलानी ट्रेकिंग के लिए यहां आते हैं। वे अपने पीछे वर्षों से जो कूड़ा-कचरा छोड़ते रहे हैं उससे इलाके की दुर्लभ किस्म की वनस्पतियों को भारी नुकसान पहुंच रहा है। इलाके में तेजी से कटते पेड़ों ने भी पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है। अब वहां जमा हजारों टन कूड़े से जहां सैलानियों की आवक घटने का अंदेशा है वहीं पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंच रहा है। इतना सब होने के बावजूद राज्य सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया है। अब सिलीगुड़ी स्थित हिमालयन नेचर एंड एडवेंचर फाउंडेशन (नैफ) की पहल पर उत्तर बंगाल के दर्जन भर पर्यावरणप्रेमी संगठनों ने अब इस कूड़े को साफ करन सांदाक्फू को बचाने का बीड़ा उठाया है। लेकिन इस कूड़े को ठिकाने लगाने की समुचित आधारभूत सुविधाओं की कमी उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है।
दार्जिलिंग जिले के मानेभंजन से 70 किमी दूर स्थित सांदाक्फू इलाके की खासियत यह है कि पूर्वी भारत में सूर्योदय का सबसे सुंदर नजारा यहीं से दिखता है। इसके अलावा यही एकमात्र जगह है जहां से कंचनजंघा व माउंट एवरेस्ट की बर्फीली चोटियां पूरे 180 डिग्री के विस्तार में देखी जा सकती हैं। सांदक्फू अपनी विविध बनस्पतियों के लिए पूरे देश में मशहूर है। उस इलाके में स्थित सिंगालीला नेशनल पार्क में कई दुर्लभ प्रजातियों के पशु-पक्षी और बनस्पतियां है। 10-12 साल पहले यहां रेड पांडा और हिमालय के काले भालू भी रहते थे लेकिन अब वे ढूंढे नजर नहीं आते। हिमालयन नेचर एंड एडवेंचर फाउंडेशन के प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर अनिमेश बसु कहते हैं कि कचरे के बढ़ते ढेर के कारण इलाके का पर्यावरण और जैविक-विविधता खतरे में है। वे कहते हैं कि खासकर प्लास्टिक जैसी न गलने वाली वस्तुओं के ढेर के चलते पहाड़ियों की मिट्टी नरम हो गई है हर साल बरसात में खिसकती रहती है। इससे पानी जमा रखने की उनकी क्षमता भी कम हो गई है।

हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीटयूट के पूर्व उप-निदेशक निमा ताशी कहते हैं कि जलावन की लकड़ी के तौर पर इलाके के देवदारु के पेड़ों के कटने के कारण पर्वतीय इलाके का संतुलन पहले से ही गड़बड़ाया था। अब बीते कुछ वर्षों के दौरान सैलानियों की ओर से छोड़े गए कचरे ने स्थित और गंभीर कर दी है। ताशी बताते हैं कि पूर्वी नेपाल से सटे इलाके में तो स्थित खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है।
सांदाक्फू तक ट्रेकिंग करने वाले सैलानी सिंगालीला पार्क होकर ही जाते हैं। नतीजतन वहां से दुर्लभ किस्म के पशु-पक्षी धीरे-धीरे दूसरे सुरक्षित स्थानों की जा रहे हैं। यह पार्क इतनी ऊंचाई पर बसा दुनिया में अपनी किस्म का अकेला पार्क है। इसलिए अब किसी नए रुट की भी तलाश की जा रही है। राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि उस पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर ही निर्भर है। इसलिए ट्रेकिंग पर किसी तरह की पाबंदी लगाना संभव नहीं है। अब ताजा अभियान के तहत स्थानीय लोगों के अलावा सैलानियों में पर्यावरण की रक्षा के प्रति जागरुकता पैदा करने का प्रयास चल रहा है। लेकिन इस अभियान की राह में सबसे बड़ी समस्या यह है कि पर्वतीय इलाके में कचरे को जलाने की कोई व्यवस्था नहीं है। इस हजारों टन कचरे को ढोकर सबसे नजदीकी शहर सिलीगुड़ी तक लाना बहुत कठिन है। लेकिन पर्यावरणप्रेमी इससे हताश नहीं हैं। वे दुर्गापूजा के समय ट्रेकिंग का सीजन शुरू होने के पहले इस इलाके को साफ-सुथरा बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। इनके अभियान से इलाके के लोगों में तो धीरे-धीरे चेतना फैल रही है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि राज्य सरकार आखिर कब चेतेगी? उसके सहयोग के बिना यह काम बहुत ही कठिन है।

बंगाल में राजनीतिक हथियार बना आइला


पश्चिम बंगाल में चक्रवाती तूफान आइला के तीन दिनों बाद अब महानगर और आसपास के इलाकों में भले ही जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी हो, यह तूफान यहां दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों-माकपा व तृणमूल कांग्रेस के बीच सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार बन गया है। इस मुद्दे पर दोनों दलों में अपने-आप को तूफान पीड़ितों का सबसे बड़ा हमदर्द साबित करने की होड़ मची है। इस होड़ के चलते ही तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने परंपरा से हटते हुए इसके अलावा दोनों एक-दूसरे की कमियों पर हमला बोल रहे हैं। रेल मंत्री ममता बनर्जी कहीं राज्य सरकार पर राहत पहुंचाने में नाकाम रहने का आरोप लगा रही हैं तो कहीं मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सेना पर प्रभावित इलाकों में देरी से पहुंचने का आरोप लगाया है। ममता के अलावा मुख्यमंत्री ने भी तूफान प्रभावित इलाकों का दौरा किया। बुद्धदेव ने अपने वित्त मंत्री असीम दास गुप्ता को भी पूर्व मेदिनीपुर के दौरे पर भेज दिया।
ममता ने दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी समेत विभिन्न नेताओं से बात कर राज्य में राहत व बचाव कार्य में सहायता देने की अपील की। उनकी इस अपील का ही असर था कि प्रधानमंत्री ने आइला के चलते मरने वालों को दो-दो लाख रुपए की सहायता का एलान कर दिया। दूसरी ओर, वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु तूफानपीड़ितों के लिए सहायता जुटाने की खातिर आज यहां सड़क पर उतरे।
ममता बनर्जी ने तूफान के अगले दिन ही पुरानी पंरपरा से हटते हुए दिल्ली की बजाय यहीं अपने मंत्रालय का कार्यभार संभाला और उसके तुरंत बाद एक विशेष ट्रेन लेकर तूफान से सबसे ज्यादा प्रभावित दक्षिण 24-परगना और सुंदरबन इलाके के दौरे पर निकल गईं। उन्होंने अपने छह सांसदों को भी गुरुवार को दिल्ली में शपथ लेकर तुरंत कोलकाता लौटने का निर्देश दिया है। ममता ने आरोप लगाया है कि बंगाल में आपदा प्रबंधन के नाम पर कोई व्यवस्था नहीं है। राज्य सरकार चक्रवाती तूफान से पीड़ितों को राहत पहुंचाने में विफल रही है। अब भी दक्षिण चौबीस परगना जिले के कई इलाकों में पीड़ित लोग पानी में रहने को मजबूर हैं। उन्हें खाना और पीने का पानी नहीं मिल रहा है।
रेल मंत्री की कहना था कि सरकार राहत पहुंचाने के पहले घर बनाने के लिए मुआवजा देने का एलान कर रही है। लेकिन जीवन बचाने के लिए भोजन जरूरी है। ममता का कहना था कि वे दिल्ली में प्रधानमंत्री से पीड़ितों के लिए विशेष पैकेज देने का अनुरोध करेंगी।
आइला के बाद लोगों में उभरी नाराजगी और असंतोष को भुनाने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने कई इलाकों में राहत शिविर और नियंत्रण कक्ष खोल दिए हैं।
दूसरी ओर, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाई में सरकार और प्रदेश सचिव विमान बसु की अगुवाई में माकपा भी अब तृणमूल कांग्रेस के इस अभियान की काट में जुट गई है। बुद्धदेव ने जयनगर के नीमपीठ इलाके में जाकर पीड़ितों से तो मुलाकात की ही, उनको हरसंभ सहायता देने का भी भरोसा दिया। उन्होंने आइला के चलते पर्वतीय इलाके में हुए जान-माल के नुकसान का ब्योरा जुटाने और परिस्थिति की समीक्षा के लिए गृह सचिव को मौके पर भेज दिया है। बाद में पत्रकारों से बातचीत में बुद्धदेव ने कहा कि यह तूफान काफी गंभीर था। किसी का नाम लिए बिना उनका कहना था कि ऐसी हालत में राजनीति नहीं करनी चाहिए। मुख्यमंत्री ने माना कि लंबे समय से बिजली व पानी नहीं होने की वजह से कोलकाता के लोगों की नाराजगी सही है। उन्होंने कहा कि सरकार तमाम सुविधाएं बहाल करने का हरसंभव प्रयास कर रही है।
इसबीच, सुंदरबन के कुछ इलाकों में स्थिति अब भी गंभीर है। हजारों लोग जगह जगह फंसे हुए हैं, जिन्हें हेलीकाप्टरों से सेना के जवान खाद्य सामग्री, दवाइयां व पीने का पानी पहुंचा रहे हैं। सेना, बीएसएफ और जिला पुलिस के जवान हजारों लोगों को सुरक्षित स्थान तक पहुंच चुके हैं लेकिन सुंदरवन व संदेशखाली की स्थिति अभी भी गंभीर बनी हुई है। सूत्रों के मुताबिक, संदेशखाली, कुलतली व सुंदरवन इलाके में राहत सामग्री पहुंचाने व फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने में अभी भी दो दिन और लग सकते हैं।
दूसरी ओर, वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु की अगुवाई में कार्यकर्ता ने पीड़ितों के लिए आज से धन जुटाने का अभियान शुरू कर दिया। पीड़ितों के राहत और पुनर्वास के लिए शुरू यह अभियान तीन जून तक चलेगा। विमान बसु ने कहा है कि फिलहाल पीड़ितों की सहायता करना सबसे जरूरी है। उन्होंने वाममोर्चा के सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों व आम कार्यकर्ताओं को राहत कार्य में शामिल होने का निर्देश दिया है।
उन्होंने केंद्र व राज्य सरकार से भी इस मामले में ठोस कदम उठाने की अपील की है। बसु ने आम लोगों से राहत व पुनर्वास के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष में धन देने की अपील की है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लोकसभा चुनावों में पार्टी की जीत से उत्साहित ममता बनर्जी अब लोगों की हितैषी बनने का कोई मौका नहीं चूकना चाहतीं। शपथ लेने के दो दिन बाद ही राज्य में आए आइला ने उनको इसका सुनहरा मौका दे दिया है। ममता की इन कोशिशों की काट के लिए ही राज्य सरकार और माकपा भी पहले के मुकाबले ज्यादा सक्रिय नजर आ रही है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि दोनों पक्षों के बीच यह रस्साकशी अभी और तेज होने की संभावना है।

Wednesday, May 27, 2009

पेट के लिए जान देने की मजबूरी


जो रोजगार और खुशहाली का सबसे बड़ा जरिया हो, वह भला विपत्ति की सबसे बड़ी वजह कैसे हो सकती है? यह सवाल विरोधाभासी लगता है. लेकिन पश्चिम बंगाल के झारखंड से सटे इलाकों में चलने वाले अवैध खदानों व उसमें काम करने वाले मजदूरों के लिए यह कड़वी हकीकत है. वे अपना पेट पालने के लिए रोजाना इन अवैध खदानों से कोयला निकालने के लिए जमीन के भीतर जाते हैं और उनमें से कुछ लोग अक्सर उसी में दब जाते हैं. कोई बड़ा हादसा होने की स्थिति में ही दूसरों को इन मौतों के बारे में जानकारी मिलती है. लेकिन कुछ दिनों बाद फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है. हाल में पुरुलिया की सीमा पर ऐसी ही एक खदान में पानी भरने से 25 से 30 मजदूरों की जलसमाधि बन गई.
रानीगंज और आसनसोल इलाके में ऐसी सैकड़ों खदानें हैं जिन पर माफिया का राज है. यह कोयला माफिया पड़ोसी झारखंड से सस्ते मजदूरों को लाकर खदानों के आसपास बसाता है. उनसे अवैध खदानों से कोयला निकलवाया जाता है. वह कोयला यहां से ट्रकों के जरिए बनारस व कानपुर तक भेजा जाता है. इस इलाके की खदानें ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (ईसीएल) की हैं. लेकिन उसने भी इस मामले पर चुप्पी साध रखी है. अवैध खुदाई वहीं होती है जिन खदानों से ईसीएल कोयला निकालना बंद कर चुका है. मजदूर अपने हाथों में फावड़ा व मोमबत्ती लेकर खदानों के भीतर जाते हैं. वहां खुदाई के बाद कोयले को बोरियों में भर कर ऊपर लाया जाता है. मौत के मुंह में पूरे दिन जान हथेली पर लेकर काम करने के एवज में उनको महज दो सौ रुपए मिलते हैं.
रानीगंज के एक पत्रकार विमल देव गुप्ता बताते हैं कि ‘इलाके में लगभग पांच सौ अवैध खदानें हैं और वहां कोई 20 हजार मजदूर काम करते हैं.’ वे बताते हैं कि ‘इन खदानों में अक्सर मिट्टी से दब कर या पानी में डूब कर दो-एक लोग मरते रहते हैं. लेकिन यह खबर भी उनके साथ ही वहीं दब जाती है. माफिया के हाथ बहुत लंबे हैं.’ कोयले की इस अवैध धुदाई से आसपास की कई बस्तियों में जमीन धंस गई है और मकानों में बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं.
ऐसी एक खदान में काम करने वाले सुखिया मुंडा कहते हैं कि ‘हमें पेट की आग बुझाने के लिए मौत के मुंह में जाकर काम करना होता है. लेकिन इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है. दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती हैं. लेकिन जान के डर से तो भूखा नहीं रहा जा सकता.’ वे कहते हैं कि ‘यह खदानें हमारी रोजी-रोटी का जरिया हैं और यही हमारी मौत की वजह भी बन जाती हैं.’ कोयला उद्योग से जुड़े लोग बताते हैं कि इलाके में अवैध खनन एक समानांतर उद्योग है. रोजाना हजारों टन कोयला इसके जरिए निकलता है. कम समय में ज्यादा कोयला निकालने की होड़ ही हादसों को न्योता देती है.इन मजदूरों को न तो किसी तरह का प्रशिक्षण हासिल होता है और न ही वे किसी वैज्ञानिक तरीके का इस्तेमाल करते हैं.
ईसीएल के एक अधिकारी कहते हैं कि ‘बड़े पैमाने पर होने वाली इस अवैध खुदाई पर अंकुश लगाना मुश्किल है. इसके लिए राज्य सरकार व पुलिस को ही कार्रवाई करनी होगी.’ लेकिन दूसरी ओर, उद्योग मंत्री निरुपम सेन कहते हैं कि ‘ईसीएल को अपनी बंद खदानों को ठीक से सील कर देना चाहिए ताकि उनको दोबारा नहीं खोला जा सके.’ सेन कहते हैं कि ‘सरकार ईसीएल के साथ मिल कर इस समस्या पर अंकुश लगाने का कोई ठोस तरीका तलाश रही है. हमने हाल की दुर्घटना के बाद भी बातचीत की है.’
इस अंधाधुंध खुदाई के कारण इलाके के कई गांवों में जमीन धंसने लगी है. संग्रामगढ़ व पहाड़गढ़ गांवों में कई बार जमीन धंस चुकी है. पहाड़गढ़ के सैकत अली कहते हैं ‘कि हमने कई बार सरकार से शिकायत की है. लेकिन कहीं कोई नहीं सुनता. यहां जमीन धीरे-धीरे धंस रही है. घऱ की दीवारों में दरारें बढ़ती जा रही हैं.’ मजदूर संगठन भारतीय कोयलरी मजदूर सभा के सोमाल राय बताते हैं कि ‘ईसीएल व राज्य सरकार को इसके लिए जल्दी ही कोई साझा योजना बनानी होगी. ऐसा नहीं होने की स्थिति में इलाके में हर पल किसी बड़े हादसे का अंदेशा बना रहेगा.’

अब मंत्री बनने की होड़

लोकसभा चुनावों में पूर्वोत्तर राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस को अबकी केंद्रीय मंत्रिमंडल में इलाके के ज्यादा सांसदों को जगह मिलने की उम्मीद है। पूर्व संप्रग सरकार में पूर्वोत्तर से दो केबिनेट मंत्री और एक राज्य मंत्री थे। लेकिन अब सात में से पांच राज्यों में कांग्रेस की सरकार है। पार्टी ने इलाके की 25 में से 13 सीटें जीती हैं। इसिलए उसे अबकी यह तादाद बढ़ने की उम्मीद है। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और मणिपुर के ओ. ईबोबी सिंह इसके लिए कई बार दिल्ली का दौरा कर चुके हैं।
सिलचर से कांग्रेसी सांसद संतोष मोहन देव को पिछली सरकार में भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्री बनाया गया था लेकिन इस बार वह भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार कबींद्र पुरकायस्थ से पराजित हो गए। मेघालय के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता पी.आर.कींडियाह को पिछली सरकार में अनुसूचित जनजातीय मामलों से संबंधित विभाग सौंपा गया था। लेकिन अबकी उन्होंने चुनाव ही नहीं लड़ा। वैसे, बीते सप्ताह सरकार के शपथग्रहण के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पूर्व रसायन, उर्वरक और खान राज्य मंत्री विजय कृष्ण हैंडिक को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया।
असम के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तापस दे कहते हैं कि पिछली बार के मुकाबले पूर्वोत्तर में इस बार कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा है। इसलिए इस इलाके से और अधिक मंत्री बनने चाहिए।
पूर्वोत्तर राज्यों की 25 संसदीय सीटों में से कांग्रेस ने 13 पर जीत हासिल की है। पिछली बार की तुलना में यह दो अधिक है। कांग्रेस के चुनावी सहयोगी बोडो पीपुल्स फ्रंट ने एक स्थान पर विजय हासिल की है।
मणिपुर के मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह की दलील है कि राज्य की दोनों सीटों पर कांग्रेस विजयी हुई है। उनको उम्मीद है कि राज्य से एक मंत्री जरूर होगा।
मेघालय के मुख्यमंत्री डी.डी.लापांग भी कहते हैं कि इलाके के सर्वांगीण विकास और केंद्रीय मंत्रिमंडल में क्षेत्र के पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र से कम से कम चार मंत्री होने चाहिए। नगालैंड और त्रिपुरा के अलावा बाकी पांच राज्यों में फिलहाल कांग्रेस या उसकी अगुवाई वाला गठबंधन ही सत्ता में है। असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (एयूडीएफ) और नगालैंड में सरकार चला रहे नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने अभकी एक-एक सीट जीती है। उन्होंने भी संप्रग सरकार को समर्थ देने का एलान किया है। असम व त्रिपुरा की ताकतवर चाय लाबी पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और ऊपरी असम में डिब्रूगढ़ के कांग्रेसी सांसद पवन सिंह घटवार को भी सरकार में शामिल करने का दबाव बना रही है। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि पार्टी की सहयोगी बीपीएफ ने भी अपने एकमात्र सांसद एस.के.विश्वमुतियारी के लिए मंत्री पद की मांग की है।

Tuesday, May 26, 2009

विनाश को न्योता देता विकास


पहाड़ियों की रानी के नाम से मशहूर पश्चिम बंगाल का एकमात्र पर्वतीय पर्यटन केंद्र दार्जिलिंग अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है. इस शहर की एक पहचान और भी है. वह है विश्व धरोहरों की सूचा में शामिल ट्वाय ट्रेन यानी खिलौना गाड़ी यहीं तक चलती है. लेकिन पर्यटन के दबाव के चलते हुए बेतरतीब विकास ने अब शहर के वजूद पर ही सवालिया निशान लगा दिया है. यह पूरा शहर अब एक ऐसी खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है जहां भूकंप का हल्का झटका भी इसे मलबे में तब्दील कर सकता है. जिस पर्यटन उद्योग को कभी यहां अर्थव्यवस्था का सबसे मजबूत आधार समझा जाता था, उसी के दबाव में हुए अंधाधुंध निर्माण ने शहर का वजूद ही खतरे में डाल दिया है.
सिलीगुड़ी से 77 किमी दूर बसे इस शहर व आसपास के इलाके में हर साल बरसात के सीजन में भूस्खलन की घटनाओं से जान-माल का भारी नुकसान होता है. इस सप्ताह इन घटनाओं में 16 लोग मारे जा चुके हैं और पांच सौ से ज्यादा मकान नष्ट हो गए हैं. इसके अलावा ट्वाय ट्रेन की पटरियां उखड़ जाने के कारण सिलीगुड़ी से कर्सियांग तक इस ट्रेन की आवाजाही भी ठप है. इस इलाके को पेड़ों की अवैध कटाई व तेजी से खड़े हो रहे क्रांकीट के जंगल का खमियाजा भुगतना पड़ा रहा है.
इस साल आए भूकंप के झटकों ने शहर में 1934 के भयावह भूकंप की यादें ताजा कर दी हैं. 14 जनवरी, 1934 को आए भूकंप में रिक्टर स्केल पर सात की तीव्रता वाले भूकंप में सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे. उसके बाद वर्ष 1998 में आए भूकंप में जान का तो नहीं, लेकिन माल का भारी नुकसान हुआ था. 1934 का भूकंप देख चुके मेजर जनरल (रिटायर्ड) के.पी.मल्ला कहते हैं कि ‘उस समय शहर की आबादी बहुत कम थी. अब यह बढ़ कर एक लाख से ज्यादा हो गई है. अब तो रिक्टर स्केल पर छह की तीव्रता वाला भूकंप भी शहर का सफाया कर सकता है. अंधाधुंध तरीके से हुए निर्माण के चलते सड़कें इतनी तंग हो गई हैं कि भूकंप की स्थिति में राहत व बचाव कार्य करना भी मुश्किल होगा.’

हाल में आए झटकों के बाद नगरपालिका ने छह मंजिली या उससे ऊंची इमारतों के मालिकों को कारण बताओ नोटिस भेजा है. अब शहर का चेहरा पूरी तरह बदल गया है. पहले जहां ब्रिटिश शासनकाल के दौरान लाल रंग के मकान इसकी पहचान थे, वहीं अब बहुमंजिली इमारतें कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं. तीन साल पहले इलाके में बड़े पैमाने पर हुए भूस्खलन में 40 लोग मारे गए थे और कई इमारतें ढह गई थीं. उसके बाद राज्य सरकार ने सिलीगुड़ी के माकपा विधायक व नगर विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य को इस मामले की जांच का जिम्मा सौंपा था. उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में अवैध निर्माण को ही इस हादसे का जिम्मेवार ठहराया था. भट्टाचार्य कहते हैं कि ‘पर्यटकों की बढ़ती तादाद के दबाव में तेजी से होने वाला शहरीकरण ही प्राकृतिक हादसे को बढ़ावा दे रहा है.’ वे कहते हैं कि ‘सरकार ने बहुत पहले ही पर्वतीय क्षेत्र को टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट के दायरे में लाने का प्रयास किया था. लेकिन सुभाष घीसिंग की अगुवाई वाली दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद ने इसकी मंजूरी नहीं दी.’
भूस्खलन की घटनाएं बढ़ने के बाद सरकार ने तीन साल पहले कुछ प्रस्ताव तैयार किए थे. इनमें कमजोर इमारतों को गिराना, नेशनल हाइवे से अवैध कब्जा हटाना व मकानों की ऊंचाई 13 मीटर तक सीमित करना शामिल था. लेकिन इस पर अब तक अमल नहीं हो सका है. मंत्री अशोक भट्टाचार्य कहते हैं कि ‘प्रशासन कमजोर इमारतों की एक सूची बना कर उनके मालिकों से उनको गिराने को कहेगा. वे सहमत नहीं हुए तो प्रशासन उन इमारतों को गिरा देगा. इन इमारतों के लिए इंसानी जीवन खतरे में नहीं डाला जा सकता.’ दार्जिलिंग नगरपालिका के पूर्व अद्यक्ष पासंग भूटिया कहते हैं कि ‘नगरपालिका ने इमारतों की ऊंचाई 13 मीटर तक सीमित करने का एक प्रस्ताव पारित किया था. लेकिन इसे अब तक सरकारी मंजूरी नहीं मिल सकी है.’
बरसात के दौरान भूस्खलन के कारण सड़क टूटने की वजह से इस इलाके का संपर्क बाहरी दुनिया से कटा रहता है. पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती आबादी व वाहनों की आवाजाही से होने वाले कंपन के कारण मिट्टी ढीली हो जाती है और हल्की बारिश होते ही अपनी जगह छोड़ देती है. विशेषज्ञ कहते हैं कि अनियंत्रित निर्माण ने पूरे शहर को खतरे में डाल दिया है. अगर सरकार, प्रशासन व परिषद ने समय रहते ध्यान दिया होता तो पहाड़ियों की रानी को प्रकृति की यह मार नहीं झेलनी पड़ती. लेकिन विडंबना तो यह है कि अब भी इसे बचाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही है.

वहां पेड़ों पर उगती हैं विदेशी नौकरियां !


आस्था और अंधविश्वास के बीच विभाजन की रेखा बहुत महीन होती है. लेकिन हर सप्ताह दो दिन जुमेरात और जुम्मे को झारखंड के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से यहां आने वाले आस्था की मजबूत डोर के सहारे ही इस मजार तक चले आते हैं. वे कहते हैं कि यह विशुद्ध आस्था है कोई अंधविश्वास नहीं. आखिर वे लोग कौन हैं? यह वे लोग हैं जो नौकरी के लिए विदेश जाना चाहते हैं. वे अपने पासपोर्ट की प्रति मजार से सटे पेड़ पर बांधने के लिए यहां आते हैं. जमशेदपुर स्थित सूफी संत हजरत मिस्कीन शाह की मजार पर जुटने वाली भीड़ के चलते इसका नाम ही ‘पासपोर्ट बाबा’ की मजार पड़ गया है.
जमशेदपुर के कालूबागान इलाके में स्थित इस मजार में यों तो रोजाना हाथों में पासपोर्ट की प्रतियां ले कर लोग आते रहते हैं. लेकिन जुमेरात और जुम्मा के दिन यहां भीड़ काफी बढ़ जाती है. उनके अलावा छात्र-छात्राएं या उनके अभिभावक भी परीक्षा के एडमिट कार्ड की प्रतियां पेड़ों में टांगने आते हैं ताकि रिजल्ट बेहतर हो और जल्दी ही नौकरी मिल जाए. यही नहीं, लोग नौकरी के लिए विदेशी कंपनियों में भेजे गए आवेदनों की प्रति भी यहां चढ़ाते हैं. कई लोग तो अपनी समस्याओं को बाबा के नाम पत्र में लिख कर चढ़ा देते हैं. उनको भरोसा है कि बाबा उसे जरूर हल कर देंगे. मजार के संरक्षक पीर मोहम्मद कहते हैं कि ‘अगर किसी को पासपोर्ट की जरूरत होती है, तो वे यहां आते हैं और बाबा की मजार पर प्रार्थना करते हैं.’ यहां आने वालों में सबसे ज्यादा तादाद उन लोगों की है जो नौकरी करने के लिए खाड़ी देशों या यूरोप जाना चाहते हैं.’ उनका दावा है कि अब तक सैकड़ों युवक इसी तरीके से विदेशों में बढ़ियां नौकरियां पा चुके हैं.
मजार पर आए धनबाद के मोहम्मद अफऱोज कहते हैं कि “बीते सप्ताह ही मैंने यहां अपना पासपोर्ट चढ़ाया है. उम्मीद है कि जल्दी ही कुवैत में नौकरी मिल जाएगी. पीर मोहम्मद बताते हैं कि ‘बाबा लाहौर से यहां आए थे और 1934 में उनका निधन हो गया था. उसके बाद यहीं उनकी मजार बनाई गई थी.’ वे बताते हैं कि ‘मैं बीते 15-16 वर्षों से विदेशी नौकरियों के इच्छुक लोगों को यहां आते देख रहा हूं. पीर मोहम्मद अपने पिता की मौत के बाद बीते 20 वर्षों से मजार की देखभाल करते हैं. यहां पासपोर्ट चढ़ाने वालों में सिर्फ आसपास के मुसलिम युवक ही नहीं हैं. जम्मू और जालंधर से लेकर दूरदराज चेन्नई और भुवनेश्वर तक के लोग यहां आते हैं.
वैसे, पासपोर्ट चढ़ाने के लिए खुद मजार तक आना जरूरी नहीं है. जो इतनी दूर नहीं आ पाते वे नौकरी दिलाने के लिए बाबा के नाम एक पत्र लिख कर अपने पासपोर्ट की प्रति कूरियर या डाक से भेज देते हैं. पीर मोहम्मद और उनके पुत्र उस पत्र और पासपोर्ट की प्रति को पेड़ पर टांग देते हैं.
अपने बेटे सुलेमान अहमद का पासपोर्ट मजार पर चढ़ाने आई सुल्ताना बेगम बताती हैं कि ‘मजार पर पासपोर्ट चढ़ाने के तीन महीने के भीतर उनके दो भतीजों को बहरीन में बढ़िया नौकरियां मिल गईं. उनकी बस्ती में पांच और लोग इसी महीने बाबा के आशीर्वाद से नौकरी करने अलग-अलग देशों में गए हैं.’ वे कहती हैं कि ‘मैं यहां आस्था के चलते ही आई हूं. कई लोगों को कामयाबी मिलते देख बाबा के प्रति मेरी आस्था धीरे-धीरे मजबूत हो रही है.’ लेकिन मजार से बाहर आने पर एक चबूतरे पर बैठे युवक कुछ अलग ही कहानी बताते हैं. उनमें से एक रामपाल शर्मा कहते हैं कि ‘लोगों की देखा-देखी मैंने भी चार साल पहले अपना पासपोर्ट चढ़या था. लेकिन कोई नौकरी नहीं मिली.’ वे सवाल करते हैं कि ‘अगर इससे विदेशी नौकरियां इतनी आसानी से मिल जातीं तो क्या मजार के नजदीक रहने के बावजूद हम लोग पढ़-लिख कर बेरोजगार रहते?ट लेकिन फिर यहां इतनी दूर से लोग क्यों आते हैं? इस सवाल पर वह कहता है कि अपनी-अपनी आस्था की बात है.’
पीर मोहम्मद और इन युवकों की बातें सुनने के बाद आस्था और असमंजस के बीच झूलते हुए मैंने भी अपने पासपोर्ट की फोटोकॉपी करा कर एक पेड़ पर टांग दी. क्या पता, शायद कहीं से मेरा भी बुलावा आ ही जाए! और नहीं, तो दाल-रोटी तो चल ही रही है. पासपोर्ट चढ़ाने में नुकसान ही क्या है? लेकिन वहां अफरोज की आंखों में उमड़ती आस्था को देखते हुए इन युवकों की टिप्पणी के बारे में उसे बताने को जी नहीं चाहता और मैं वापसी के लिए उस आटो के ड्राइवर को आवाज देता हूं जो मुझे इस मजार तक लाया था.

Sunday, May 24, 2009

किरीबुरू में एक शाम


प्रभाकर मणि तिवारी
जीवन में अब तक अक्सर वही करना पड़ा है जो नहीं चाहता था। मसलन पत्रकार नहीं बनना चाहता था, लेकिन बन गया। कोलकाता की भीड़-भाड़ और गर्मी के चलते कभी इस महानगर में रहना-बसना नहीं चाहता था, लेकिन बसना पड़ा। यह सूची काफी लंबी है। हाल में इस सूची में किरीबुरू की यात्रा भी शामिल हो गई। यूं तो मैं यात्राएं काफी सुनियोजित तरीके से करता हूं। लेकिन यह यात्रा ऐसी रही जिसमें कुछ करने का न तो मेरे पास कोई मौका था और न ही उसका समय। दरअसल, मुझे जाना कहीं और था। दफ्तर से दो दिनों की छुट्टी भी ले ली थी। लेकिन अंतिम क्षणों में वह कार्यक्रम रद्द हो गया। उसी समय एक परिचित, जो भारतीय इस्पात प्राधिकरण(सेल) में बड़े अधिकारी हैं, का फोन आया—लौह अयस्क की खदानें देखनी है तो सुबह मेरे साथ चलिए। वे एक सेमिनार के सिलसिले में वहां जा रहे थे। बस मैं निकल पड़ा। सुबह-सबेरे हावड़ा से जनशताब्दी में बैठ कर बड़बिल की ओर। झारखंड की सीमा पर बड़बिल उड़ीसा के क्योंझर जिले का हिस्सा है। कोलकाता से एक ही ट्रेन वहां तक जाती है। जनशताब्दी एक्सप्रेस। टाटानगर और चाईबासा होकर। लगभग चार सौ किमी की यह दूरी जाते समय कोई सात घंटे में पूरी होती है और वापसी में आठ घंटे या उससे ज्यादा में। हां, कोलकाता से आने वाली जनशताब्दी यहां से आगे नहीं जाती। आगे रेल की पटरियां नहीं हैं। वह ट्रेन उसी दिन कोलकाता लौट जाती है।
खैर, दोपहर बाद एक बजे बड़बिल पहुंचते हैं। वहां छोटे-से कस्बानुमा प्लेटफार्म के बाहर चमचमाती बोलेरो और स्कार्पियो गाड़ियों की अंतहीन कतारें देख कर आंखे फटी रह जाती हैं। यह चमचमाती गाड़ियां न तो इस कस्बे की प्रकृति से मेल खाती हैं और न ही सड़कों से। सड़कों को सड़क कहना शायद ठीक नहीं होगा। सड़कें हैं कहां ? वह तो लाल मिट्टी की पगडंडियां हैं। लौह अयस्क से लदे विशालकाय ट्रकों और डंपरों की आवाजाही से उनमें इतने बड़े-बड़े गड्ढे बन गए हैं कि उनका ब्योरा देना मुश्किल है। पूरे शहर की दरो-दीवारें लाल रंग में रंगी हैं। हवा में मिल कर उड़ने वाली लाल मिट्टी की लाली शहर की हर इमारत और वाहनों पर नजर आती है। लेकिन इलाके में सरकारी और निजी कंपनियों की खदानों के चलते यहां गाड़ियां भी लगातार बढ़ रही हैं और होटल भी। होटलों में भी कमरे मिलना बहुत मुश्किल है। अगर पहले से बुकिंग नहीं हो तो। स्टेशन से होटल की ओर बढ़ते हुए शहर और हवा में छाई लालिमा साफ नजर आती है। होटल में दोपहर के भोजन और कुछ देर तक आराम करने के बाद खदान देखने किरीबुरू जाने का मन बनता है। किरीबुरू---यह नाम सुन कर अजीब-सा लगता है। पहली बार भी सुन कर लगा था।

बड़बिल से किरीबुरू तक का रास्ता शरीर का हर जोड़ तोड़ने वाला है। 20 किलोमीटर का यह सफर टूटी-फूटी पहाड़ी सड़क पर कोई घंटे भर में पूरा होता है। बोलानी खदान से ऊपर बढ़ते हुए हम किरीबुरू पहुंचते हैं। रास्ते में पहाड़ियों पर बिखरी लौह अयस्क की खदानों का आधा हिस्सा झारखंड में है और आधा उड़ीसा में। किरीबुरू और उससे सटा मेघाहातुबुरू समुद्रतल से एक हजार मीटर की ऊंचाई पर है। झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले के तहत पड़ने वाला यह कस्बा पहाड़ी की चोटी पर प्रकृति की ओर से बनाए गए समतल हिस्से पर बसा है। वहां बाकायदा स्टेडियम और क्लब है। एक छोटी झील भी है। यह खदानें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भारतीय इस्पात प्राधिकरण की हैं। सारंडा की इस पहाड़ी के एक किनारे बने मेघाहातुबुरू गेस्ट हाउस की बनावट और बसावट दोनों बेहतरीन है। इसी गेस्टहाउस के ही एक हिस्से में सनसेट प्वायंट है जहां की खूबसूरती के चर्चे मशहूर हैं। हम शाम को कोई पांच बजे उस गेस्ट हाउस में पहुंचे थे। मैनेजर और स्थानीय लोगों ने कहा कि जब आए हैं तो सूर्यास्त का नजारा देख कर ही जाइए। स्थानीय लोग बताते हैं कि सारंडा घाटी में छोटी-बड़ी कोई सात सौ पहाड़ियां हैं और इस सनसेट प्वायंट से उनमें से ज्यादातर नजर आती हैं।
वहां कुछ कुर्सियां लगी थीं। महिला समिति की सदस्याएं, जो खदान के अधिकारियों की पत्नियां थी, वहां बैठ कर कोई मीटिंग करने में जुटी थी। दो घंटे पहले भारी बरसात के चलते मौसम काफी सुहावना हो गया था। सनसेट प्वायंट का नजारा खूबसूरती में कौसानी और ऊटी की याद दिलाता है। सूरज के डूबने का यह नजारा अद्भुत है। पूरा आसमान लाली से ढक जाता है और सूरज देखते ही देखते आंखों से ओझल हो जाता है। सूर्यास्त को निहारते हुए ऐसा लगता है मानों कोई किसी विशाल गेंद को पानी से भरी बाल्टी में धीरे-धीरे डुबो रहा हो। वहां से लौट कर गेस्ट हाउस के लान में चाय पीते हुए मैनेजर, जो बीते 32 वर्षों से यहीं हैं, बता रहे थे कि किरीबुरू में इसी सीजन में आना चाहिए, जब मानसून दस्तक दे रहा हो। वे कहते हैं कि पहले यहां दो ही सीजन होते थे---बरसात और जाड़ा। स्कूलों में भी गर्मी नहीं बल्कि बरसात की छुट्टियां होती थीं। लेकिन वैश्विक तापमान में वृद्धि ने इस बेहद खूबसूरत कस्बाई शहर को भी नहीं बख्शा है। अब यहां गर्मी भी पड़ने लगी है। वे बताते हैं कि पहले न तो केबल टीवी था और न ही मोबाइल। अब एकाध कंपनियों के टावर लग जाने की वजह से मोबाइल काम करने लगा है। डिश टीवी भी पहुंच चुका है।
रात गहराती देख कर लौटने की तैयारी होती है। और हम निकल पड़ते हैं बड़बिल की ओर। उबड़-खाबड़ कच्ची सडक बरसात के चलते पानी और फिसलन से भर गई है। हमारी बोलेरो इस पर जबरदस्त हिचकोले खाते हुए दूर नीचे नजर आने वाली बत्तियों की ओर रेंग रही है। हर पहाड़ी मोड़ के साथ किरीबुरू पीछे छूटता जा रहा है, लेकिन किरीबुरू की यह शाम शायद जीवन भर याद रहेगी।

Saturday, May 23, 2009

हार से टूटा वामपंथियों का गुरूर

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में करारी हार ने वामपंथियों का गुरूर तोड़ दिया है। अब चिड़िया के खेत चुगने के बाद वामपंथी अपनी गलती तो कबूल कर ही रहे हैं, मोर्चा के घटक दल इस हार के लिए माकपा व राज्य सरकार की नीतियों को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं। इसके साथ ही सरकार ने अभ जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर पुनर्विचार करने का फैसला किया है। नतीजतन तमाम लंबित परियोजनाएं ठंडे बस्ते में डाल दी गई हैं।
लोकसभा चुनाव में मिली हार को अब सरकार के अपने मंत्री भी बेबाकी से कबूलने लगे हैं। भाकपा नेता और जल संसाधन मंत्री नंद गोपाल भट्टाचार्य कहते हैं कि पार्टी नेताओं के घमंड और बेलगाम भ्रष्टाचार की वजह से ही यह हार हुई है। राज्य सचिवालय में कैबिनेट की बैठक के बाद भट्टाचार्य ने कहा कि घमंड ने हमारी नाकामी साबित कर दी। लोग मानने लगे थे कि नेतृत्व में ही काफी भ्रष्टाचार है। हमारे घमंडी व्यवहार के बदले लोगों ने हमारे खिलाफ वोट डाले।
भट्टाचार्य मानते हैं कि वामपंथियों ने तो जनता का सम्मान करना ही छोड़ दिया था। आम आदमी से इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया गया। यह तमाम चीजें आम आदमी के दिमाग में घर कर गईं और हम अलग-थलग पड़ गए। भट्टाचार्य ने कहा कि वाममोर्चा के सभी घटकों को अब आम जनता के बीच जाकर खोए हुए समर्थन को दोबारा हासिल करना होगा।
ध्यान रहे कि 1977 से सत्ता में होने के बावजूद वाममोर्चा ने इस बार लोकसभा चुनाव में काफी सीटें गंवा दी हैं। राज्य की 42 सीटों में से उसके खाते में महज 15 सीटें आई हैं। जबकि मुख्य विपक्षी दल तृणमूल कांग्रेस को 19 सीटों पर जीत हासिल हुई है। यही नहीं तृणमूल की सहयोगी पाटिर्यों कांग्रेस को 6 और सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया को एक सीट हासिल हुई है।
इस करारी हार ने औद्योगिकीकरण का राह पर तेजी से बढ़ रही पश्चिम बंगाल सरकार की सोच भी बदल दी है। चुनावी नतीजों के बाद केबिनेट की पहली बैठक में बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने भूमि अधिग्रहण के तमाम कार्यक्रमों को जल्द ही रोकने औद्योगीकरण की नीति ठंडे बस्ते में डालने का संकेत दिया।
नंदीग्राम और सिंगुर से सबक लेते हुए मुख्यमंत्री ने खड़गपुर सिटी सेंटर का प्रस्ताव वापस ले लिया और राज्य मंत्रिमंडल ने भूमि का मानचित्र तैयार करने और जमीन का भंडार इकट्ठा करने की संवेदनशील जिम्मेदारी उद्योग मंत्रालय के हाथ से लेकर भूमि सुधार विभाग को सौंप दी। यह फैसला ऐसे मौके पर किया गया है जब माकपा प्रदेश में लोकसभा चुनावों में करारी हार की वजहों पर आतत्ममंथन के दौर से गुज रही है और उसे सहयोगी दलों की आलोचना भी झेलनी पड़ रही है। केबिनेट की बैठक में तय किया गया कि 2011 में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए भट्टाचार्य अगले दो सालों में सरकार की भावी कार्ययोजना पर एक विस्तृत नोट तैयार करेंगे। बहरहाल सरकार प्रदेश में उन सभी औद्योगिक परियोजनाओं पर काम जारी रखेगी जिनके लिए जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है। सूत्रों ने कहा कि मुख्यमंत्री किसान समर्थक रुख अपना सकते हैं ताकि ग्रामीण मतदाताओं को आकर्षित किया जा सके। औद्योगिक परियोजनाओं के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण पर मुख्यमंत्री को वाम मोर्चा के सहयोगी दलों की तीखी आलोचना का शिकार बनना पड़ा है।
फिलहाल वाममोर्चे के सामने सबसे बड़ी चुनौती विधानसभा की 11 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने की है। 11 विधायकों के सांसद चुने जाने की वजह से जल्दी ही यहां उपचुनाव होने हैं।

लाल दुर्ग क्यों ढहा


प्रभाकर मणि तिवारी
तो क्या यह पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की तीन दशक से भी लंबी पारी के अंत की शुरूआत है? लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद अब राज्य में यह सवाल तेजी से सिर उठाने लगा है। अपनी पारी के इस सबसे बुरे प्रदर्शन के बाद खासकर माकपा के केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के मतभेद तो सामने आ ही गए हैं, घटक दल भी माकपा की नीतियों और दादागिरी के खिलाफ पहले के मुकाबले मुखर हो गए हैं। माकपा के नेता भले कबूल नहीं करें, इस गिरावट के संकेत तो बहुत पहले से मिलने लगे थे। यह अलग बात है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने कभी इसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं दिखाई। बीते विधानसभा चुनावों में माकपा के प्रदेश सचिव अनिल विश्वास के जीवित रहते ही पार्टी के सबसे मजबूत गढ़ रहे ग्रामीण इलाकों में पतन के संकेत मिलने लगे थे। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के पास खासकर गलत तरीके से कमाया धन बढ़ रहा था और उनकी जीवनशैली तेजी बदल रही थी। विश्वास ने तब इस बारे में कई रिपोर्ट तैयार कर पार्टी के नेताओं को चेतावनी भी दी थी। लेकिन उनकी चेतावनियां बेअसर ही रहीं।
बंगाल में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लहर या सिंगुर और नंदीग्राम ने वाममोर्चे की लुटिया उतनी नहीं डुबोई, जितनी खुद उसकी गलत नीतियों और माकपा के केंद्रीय व प्रदेश नेतृत्व के बीच बढ़ती खींचतान ने। बीते साल चाहे केंद्र की संप्रग सरकार से समर्थन वापसी का मामला हो या फिर लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकालने का, यह दूरियां लगातार बढ़ती रहीं। इन मुद्दों पर केंद्रीय नेतृत्व और बंगाल के माकरपा नेता दो अलग-अलग छोरों पर खड़े नजर आए। चुनाव अभियान के दौरान भी कांग्रेस को समर्थन देने के सवाल पर महासचिव प्रकाश कारत समेत दूसरे केंद्रीय नेता कुछ और कहते रहे और बंगाल के नेता कुछ और। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को भी आखिर में कहना पड़ा कि माकपा कांग्रेस को अछूत नहीं मानती। माकपा के विवादास्पद नेता व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने मतदान के ठीक पहले पार्टी के केंद्रीय नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए उन पर हवाई राजनीति करने और चुनाव लड़ने से डरने का आरोप लगाया। अब नतीजों के बाद उनकी समीक्षा के लिए दिल्ली में पोलितब्यूरो की बैठक में नहीं जा कर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी अपनी नाराजगी साफ जता दी है। यों बुद्धदेव काफी संयत नेता हैं और उनकी छवि भी साफ-सुथरी है। लेकिन अपने शासनकाल में पार्टी की इस दुर्गति को वे पचा नहीं पा रहे हैं और इसलिए उन्होंने अपना पद छोड़ने की पेशकश भी कर दी है।
नतीजों के बाद माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु ने कहा कि पूरे देश के साथ बंगाल में भी कांग्रेस की लहर थी और हमने इसका अनुमान लगाने में गलती कर दी। लेकिन वाममोर्चा के बंटाधार की यह इकलौती वजह नहीं थी। कांग्रेस तो अपनी छह सीटों पर ही बनी रही। अगर उसकी लहर का असर यहां होता तो उसकी सीटें बढ़तीं। लेकिन हुआ इसका उल्टा। माकपा नेताओं के अत्याचार व भ्रष्टाचार, केंद्र सरकार को गिराने की पार्टी की कोशिशों और सोमनाथ जैसे नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने से ऊबे लोगों ने अबकी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को बेहतर विकल्प मानते हुए उसके पक्ष में खुल कर वोट डाला। नतीजतन शहरी इलाकों के अलावा ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में भी माकपा का सूपड़ा लगभग साफ हो गया। अल्पसंख्यकों को लुभाने की तमाम कोशिशों और इसके लिए सरकारी खजाने का मुंह खोलने के बावजूद वे माकपा से दूर होते गए। इस बार वामपंथियों को अगर 15 सीटें मिलीं तो इसके लिए उनको उस भाजपा का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जिसे गरियाते हुए वे थकते नहीं थे। नतीजों से साफ है कि भाजपा के चलते ही वामपंथियों को कम से कम पांच सीटें मिलीं। भाजपा मैदान में नहीं होती तो शायद वामपंथी सीटें दहाई अंक तक भी नहीं पहुंच पाती।
कुछ वामपंथी नेता अब धीरे-धीरे यह समझ रहे हैं कि लोगों ने इसलिए माकपा के खिलाफ वोट नहीं डाले कि वे तृणमूल कांग्रेस को जिताना चाहते थे। माकपा की नीतियों और कारगुजारियों से नाराज मतदाताओं ने उसके उम्मीदवारों को हराने के लिए ही भारी तादाद में मतदान किया। माकपा की जिला कमिटी के एक नेता कहते हैं कि अगर ऐसा नहीं होता तो माकपा को उन इलाकों में भी धूल नहीं चाटनी पड़ती जहां साल भर पहले तक किसी में विपक्ष का झंडा थामने या फहराने की हिम्मत नहीं थी। वे वीरभूम सीट का हवाला देते हैं जहां बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्री शताब्दी राय ने अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ते हुए ब्रज मुखर्जी जैसे दिग्गज नेता को धूल चटा दी।
लेकिन क्या माकपा को इस बात का अनुमान नहीं था कि भ्रष्ट्राचार पार्टी के नेताओं व काडरों को दीमक की तरह चाट रहा है और उसके चलते संगठन की चूलें लगातार कमजोर हो रही हैं? इसका जवाब है हां। इसकी जानकारी तो थी, लेकिन माकपा के शीर्ष नेता यह तय नहीं कर पा रहे थे कि इस दीमक से छुटकारे की प्रक्रिया कब और कैसे शुरू की जाए। पूर्व प्रदेश सचिव अनिल विश्वास ने वर्ष 2006 में अपनी मौत के पहले कई आंतरिक रिपोर्टें तैयार की थी। उनमें इस भ्रष्टाचार में गुम होते वामपंथी आदर्शों के बारे में गहरी चिंता जताई गई थी। इन तमाम रिपोर्टों को पार्टी महासचिव प्रकाश कारत को भी भएजा गया था। इनमें साफ कहा गया था कि पार्टी के कई नेता अपने निजी हितों के लिए पार्टी का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें कहा गया था कि पार्टी के नेता आगे बढ़ने के लिए माकपा को सीढ़ी बना रहे हैं। इसके अलावा कई अपराधीतत्व भी पार्टी में घुस गए हैं। उन रिपोर्टों में विश्वास ने चेतावनी दी थी कि अगर इन सबसे छुटकारे के लिए समय रहते कोई कदम नहीं उठाया गया तो नतीजे गंभीर हो सकते हैं। लेकिन केंद्र की संप्रग सरकार की बांह मरोड़ने में व्यस्त रहे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने इन तमाम रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। शायद कुआं खोदने के लिए वे पहले आग लगने का इंतजार करते रहे। अब लोकसभा चुनावों में लगे इस करारे झटके ने उन रिपोर्टों को प्रासंगिक बना दिया है।
पार्टी में भ्रष्टाचार तो बहुत पहले से ही जड़ें जमाने लगा था। लेकिन बुद्धदेव के राज्य की सत्ता संभालने और खासकर वर्ष 2006 के चुनावों में पार्टी को भारी बहुमत मिलने के बाद मझले स्तर के नेता व कार्यकर्ता खुल कर खेलने लगे। बुद्धदेव के किसी भी कीमत पर औद्योगिकीकरण के नारे ने ऐसे नेताओं की राह आसान कर दी। उद्योगों के लिए जमीन के अधिग्रहण के ज्यादातर मामलों में स्थानीय माकपा नेता दलाली पर उतर आए और उनमें से कई तो देखते ही देखते करोड़पति बन गए। राज्य के विभिन्न जिलों से आने वाली ऐसी शिकायतों पर पार्टी के प्रदेश नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। बीते दो-तीन वर्षों में ऐसी एक भी मिसाल नहीं मिलती जब भ्रष्टाचार के आरोप में किसी नेता या कार्यकर्ता के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई हो।
सच तो यह है कि संप्रग सरकार के कार्यकाल के पहले चार वर्षों के दौरान माकपा के नेता उसकी बांह मरोड़ने में इतने व्यस्त रहे कि उसे ऐसी छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिला। बीते साल संप्रग से समर्थन वापसी और सोमनाथ को पार्टी से निकालने के फैसलों ने केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के बीच की खाई और चौड़ी कर दी। लोकसभा चुनाव के पहले बीता एक साल तो इस खाई को पाटने की कोशिशों में ही बात गया। लेकिन यह लगातार चौड़ी होती गई।
अब चुनावी नतीजों से खासकर बंगाल के माकपा नेताओं भारी सदमा लगा है। पार्टी की असली चिंता यह चुनाव नहीं हैं। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार का गठन कर उसमें शामिल होने का सपना प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी जैसे केंद्रीय नेता देख रहे थे, बंगाल के नेता नहीं। बंगाल के नेताओं की असली चिंता दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। वर्ष 1977 के बाद पहली बार उसे गंभीर चुनौती से जूझना पड़ रहा है। उसके सामने इन दो सालों में अपने संगठन को मजबूत कर दागी नेताओं से छुकाकार पाने की कड़ी चुनौती है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के विश्लेषण के बाद प्रदेश माकपा नेता इसे अपनी खुशकिस्मती मान रहे होंगे कि यह चुनाव लोकसभा का था विधानसभा का नहीं। आंकड़े अपनी बात खुद कहते हैं। विपक्ष को 2006 के विधानसभा चुनावों में कुल 52 सीटें मिली थी। कांग्रेसको 21 और तृणमूल कांग्रेस को इकत्तीस। लेकिन अबकी 294 में से 186 विधानसभा क्षेत्रों में विपक्षी उम्मीदवार विजयी रहे हैं। 137 पर तृणमूल जीती है और 49 पर माकपा। यानी अगर यह विधानसभा चुनाव होता तो वाममोर्चा मौजूदा 235 से घट कर महज सौ सीटों पर सिमट गया होता और सत्ता उसके हाथों से निकल जाती। लेकिन यह स्थिति दो साल बाद भी सामने आ सकती है। यही वामपंथियों की चिंता का सबसे बड़ा विषय है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद खुद वामपंथी भी सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह वाममोर्चा के अंत की शुरूआत है।
वाममोर्चा के घटक दल भी अब माकपा की गलत नीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर हो रहे हैं। फारवर्ड ब्लाक के नेता अशोक घोष ने मतदान के कुछ दिनों पहले यह कह सनसनी फैला दी थी कि नंदीग्राम में बेकसूर लोगों पर पुलिस फायरिंग का निर्देश खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने दिया था। उसके बाद माकपा सचिव विमान बसु को सफाई देनी पड़ी और माकपा के दबाव में बाद में घोष भी अपने बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की बात कहने लगे। उसके दो-तीन दिनों बाद एक अन्य घटक आरएसपी के नेता और राज्य के सार्वजनिक निर्माण मंत्री क्षिति गोस्वामी ने भी यह कह जले पर नमक छिड़क दिया कि नंदीग्राम में पुलिस की फायरिंग के दौरान पुलिस की पोशाक में माकपा के काडर भी शामिल थे और उनलोगों ने निहत्थे गांव वालों पर गोलियां बरसाईं। गोस्वामी ने यही बात लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद भी दोहराई। उन्होंने साफ कहा कि माकपा की गलत नीतियों ने ही राज्य में वामपंथियों की लुटिया डुबोई है।
राजधानी कोलकाता के अलावा उससे सटे हावड़ा, हुगली, उत्तर और दक्षिण 24-परगना जिलों में शहरी मतदाताओं ने भी वामपंथी उम्मीदवारों को खारिज कर दिया है। चुनाव के पहले तक तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी की हार के दावे किए जा रहे थे, लेकिन उन्होंने अपनी जीत का अंतर दोगुने से भी ज्यादा बढ़ा लिया। अल्पसंख्यकों के हितों का दम भरने के सरकार और पार्टी के दावे के बावजूद इस तबके ने माकपा से मुंह मोड़ लिया है। अल्पसंख्यक-बहुल इलाकों में वामपंथी बुरी तरह हारे हैं। कोलकाता उत्तर सीट पर अल्पसंख्यकों के रहनुमा और पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा कहे जा रहे मोहम्मद सलीम की पराजय इसी का सबूत है।
अब आगे क्या करेगी माकपा? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब फिलहाल खुद माकपाइयों को भी नहीं सूझ रहा है। पार्टी के ज्यादातर नेता अब तक चुनावी नतीजों के सदमे से उबरे नहीं हैं। फिलहाल उनका पूरा ध्यान पार्टी के अंदरुनी मामलों को निपटाने में ही लगा है। बंगाल माकपा के नेताओं का साफ तौर पर मानना है कि पार्टी के केंद्रीय नेताओं के मनमाने फैसलों ने ही राज्य में पार्टी का बेड़ा गर्क किया है। इसलिए अब आने वाले दिनों में केद्रीय नेताओं के साथ रस्साकशी और तेज होने का अंदेशा है। इससे उबरने के बाद पार्टी अपने संगठन को मजबूत करने की पहल कर सकती है। उसके पास अब इसके लिए ज्यादा समय भी नहीं बचा है। अगले साल ही नगर निगम और नगरपालिका चुनाव होने हैं। विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले इन चुनावों को राज्य में मिनी चुनाव कहा जाता है। इनके ठीक साल भर बाद ही विधानसभा चुनावों की घंटी बज जाएगी। क्या वह घंटी राज्य में वाममोर्चा के लिए खतरे की घंटी साबित होगी? इस सवाल का जवाब तो समय ही देगा। उस जवाब से ही यह पता चलेगा कि माकपा ने अतीत की अपनी गलतियों से कोई सबक सीखा है या नहीं।

(23 मई 2009 को जनसत्ता में छपा मुख्य लेख)

Thursday, May 21, 2009

अब विदेशी बुझाएंगे चेरापूंजी की प्यास !


यह विडंबना नहीं तो और क्या है? समुद्र तल से 1,290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित जिस चेरापूंजी को दुनिया की वर्षाकालीन राजधानी होने का गौरव हासिल था, अब उसकी प्यास विदेशी बुझाएंगे। पूर्वोत्तर का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय में बांग्लादेश की सीमा से लगे चेरापूंजी में अब हर साल जाड़ों और गर्मियों में पानी की भारी किल्लत हो जाती है। इस अनूठी समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकार इजरायली विशेषज्ञों की मदद ले रही है। पानी की किल्लत से जूझते लोगों की समस्या दूर करने के लिए मेघालय सरकार ने इजरायली कृषि मंत्रालय के सेंटर फॉर इंटरनेशनल एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट कोऑपरेशन (सीआईएडीसी) के साथ चेरापूंजी व राज्य के अन्य भारी वर्षा वाले इलाकों में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग यानी बारिश के पानी के संरक्षण के लिए तकनीकी सहयोग के एक समझौते पर हस्ताक्षऱ किए हैं।
मेघालय के मुख्य सचिव राजन चटर्जी के मुताबिक, सीआईएडीसी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग और इसके लिए ढांचागत निर्माण के बारे में लोगों को शिक्षित करने के अलावा बंजर भूमि को फिर से हरा-भरा करने के लिए धन भी मुहैया कराएगा।
वर्ष 1972 में असम राज्य से ख़ासी पहाड़ को अलग कर उसे गारो पहाड़ी से जोड़कर एक नया राज्य बना तो उसका नाम रखा गया- मेघालय यानी बादलों का घर।
इसकी वजह था चेरापूंजी, जो तब तक अपने बादल और बरसात के कारण प्रसिद्ध हो पूरी दुनिया में मशहूर हो चुका था। लंबे अरसे तक यह गांव दुनिया में चेरापूंजी के नाम से जाना जाता रहा, लेकिन अब इसका नाम बदलकर सोहरा कर दिया गया है। दरअसल इस गांव का पुराना नाम सोहरा ही हुआ करता था।
वर्ष 1860 के अगस्त महीने से 1861 के जुलाई महीने तक, यानी पूरे बारह महीनों में चेरापूंजी में 1042 इंच बारिश हुई। पूरी दुनिया में एक साल में इससे ज़्यादा बारिश किसी एक जगह पर कभी नहीं हुई थी और यही वजह थी कि चेरापूंजी को गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में जगह मिली। 1861 के सिर्फ़ एक महीने में जितनी बारिश हुई थी, उतनी बारिश बीते दस साल में कभी पूरे साल के दौरान नहीं हुई। चेरापूंजी में बारिश साल-दर-साल कम होती जा रही है।
मेघालय की राजधानी शिलांग में मौसम विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय के प्रमुख एससी साहू बताते हैं कि चेरापूंजी के आस-पास के जंगलों में पेड़ों की कटाई एक ख़तरनाक रूप ले चुकी है। चेरापूंजी में पेड़ों की कटाई और बारिश में कमी दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं।
चेरापूंजी में ही भूमि संरक्षण के लिए काम करनेवाली एक ग़ैर-सरकारी संस्था के प्रमुख बीए मार्क वेस्ट कहते हैं कि मेघालय के गठन के बाद से ही चेरापूंजी के आस-पास पेड़ों की कटाई बढ़ती गई। उनके मुताबिक, बीते दस वर्षों में इलाके के जंगलों में 40 फ़ीसदी की कमी आई है। चेरापूंजी स्थित रामकृष्ण मिशन के लोग बताते हैं कि जून से सितंबर तक यहां इतनी भारी बारिश होती है कि घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती, लेकिन उससे भी ज्यादा कठिन अक्टूबर से मार्च तक का वह समय है जब पानी की एक-एक बूंद इस तरह बचानी पड़ती है मानों हम किसी रेगिस्तान में रह रहे हों।
चेरापूंजी की हालत में यह बदलाव आखिर कैसे आया, इस बारे में अब तक कई अध्ययन हो चुके हैं। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के एक पूर्व महानिदेशक पीके गुहा राय ने इस बाबत अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारी बरसात के चलते पहाडियों की ऊपरी मिट्टी पानी के तेज बहाव के साथ बह जाती है। इसलिए इस इलाके में किसी वनस्पति या पेड़-पौधे का पनपना संभव नहीं है। उन्होंने बरसात के पानी को एकत्र करने के लिए कई सुझाव भी दिए थे। इनमें हर घर की छत पर इसके लिए माकूल व्यवस्था करना और समुचित जगहों पर बांध बनाना भी शामिल था ताकि पानी को बह कर बांग्लादेश जाने से रोका जा सके। लेकिन अब तक वहां इनमें से किसी भी सुझाव पर अमल नहीं किया जा सका है। चेरापूंजी में ख़ासतौर से सर्दी और गर्मी के महीनों में, जब बारिश बिल्कुल नहीं होती, लोगों को पानी की भीषण समस्या से जूझना पड़ता है। आम लोगों को झरने का पानी लाने के लिए ऊंचे पहाड़ों से उतरना पड़ता है। स्थानीय लोगों को पीने का पानी खरीदना पड़ता है। लोग ट्रक में रखे ड्रमों में झरने का पानी रख उसे बेचते हैं।
शहर के एक शिक्षक जूलिया खारखोंगर बताते हैं कि उनको एक बाल्टी पानी के लिए छह से सात रूपए देने पड़ते हैं। 1960 में चेरापूंजी में लगभग सात हज़ार लोग रहा करते थे। लेकिन आज ये आबादी पंद्रह गुना बढ़ चुकी है। नतीजतन इलाके के जंगल पर दबाव लगातार बढ़ रहा है।
चेरापूंजी बरसों से पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है। यहां के बादल, बरसात और सूर्योदय इस आकर्षण का केंद्र रहे हैं। खूबसूरत पहाड़ियां, सर्पीली सड़कें, झरनों का अंतहीन सिलसिला और हर सौ किमी पर आपको घेरता कुहासा यानी सब मिलाकर इस जगह का प्राकृतिक सौंदर्य लोगों के मन घंटों बांधे रखने में सक्षम है।

वहां भी बेहतर नहीं है महिलाओं का हालत




पूर्वोत्तर के स्कॉटलैंड के नाम से मशहूर मेघालय में महिलाओं को देश के किसी भी दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हैं। इस छोटे से पर्वतीय राज्य में मातृसत्ता वाला समाज है। परिवार की छोटी लड़की ही घर व संपत्ति की मालिक होती है और उसी के नाम पर वंश आगे बढ़ता है। वह शादी के बाद ससुराल नहीं जाती बल्कि दूल्हे को ही अपने घर ले आती है। लेकिन विडंबना यह है कि राज्य व समाज के विकास की दिशा में किसी महत्वपूर्ण फैसले में उसकी कोई भूमिका नहीं है। यही नहीं, राज्य की महिलाओं को अब घरेलू हिंसा का भी शिकार होना पड़ रहा है। वहां महिलाओं की हालत दूसरे राज्यों के मुकाबले बेहतर नहीं है। राज्य महिला आयोग के ताजा आंकड़े ही इसका खुलासा करते हैं।
आयोग ने कहा है कि वर्ष 2006 से 2008 के दौरान मेघालय के सभी जिलों में बलात्कार के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इसके अलावा इस दौरान घरेलू हिंसा और छेड़छाड़ के मामले भी पहले के मुकाबले काफी बढ़ गए। अकेले 2008 में बलात्कार के 78 मामले दर्ज किए गए। यह आंकड़े उन मामलों पर आधारित हैं जो पुलिस तक पहुंचे। लेकिन ज्यादातर मामले तो गांव की पंचायतों तक ही दम तोड़ देते हैं। महिला आयोग ने महिलाओँ के खिलाफ हिंसा के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए कहा है कि दूर-दराज के इलाकों से सूचनाएं नहीं मिल पातीं। ऐसे में हिंसा की शिकार महिलाओं की तादाद अनुमान से ज्यादा हो सकती है। आयोग की अध्यक्ष सुशाना के. मराक कहती हैं कि हिंसा की शिकार ज्यादातर महिलाएं समाज के पिछड़े तबके से ताल्लुक रखती हैं। उन्होंने राज्य में महिलाओं व कम उम्र की बच्चियों के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए बने मौजूदा कानूनों को नाकाफी करारे देते हुए उनको और धारदार बनाने पर जोर दिया है।
इससे पहले राज्य में एक गैर-सरकारी संगठन नार्थ ईस्ट नेटवर्क की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण में भी इस मुद्दे पर कई चौंकाने वाली जानकारियां सामने आई थी। संगठन की ओर से प्रकाशित एक निदेशिका में कहा गया था कि महिलाओं पर हिंसा के मामले साल-दर-साल बढ़ रहे ज्यादातर मामलों का कहीं कोई रिकार्ड ही नहीं होता। संगठन ने हिंसापीड़ित महिलाओं की सहायता के लिए एक नए सेल का गठन किया है।
मेघालय की एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आई.नोंगरांग कहती हैं कि राज्य में मातृसत्तात्मक समाज है। यानी यहां महिलाओं को कई विशेषाधिकार व सुविधाएं हासिल हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। उनका सवाल है कि राज्य का दर्जा मिलने के बाद अब तक कितनी महिलाएं विधायक बनी हैं?किसी भी नीति निर्धारक संस्था में महिलाओं की भागीदारी नहीं के बराबर है। वे कहती हैं कि जब तक निर्णय लेने के अधिकार में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाएगी, राज्य व समाज का भला नहीं होगा। विडंबना यह है कि महिला पुलिस बल के गठन जैसे मामलों में भी फैसले का अधिकार पुरुषों को ही है।
एक सामाजिक कार्यकर्ता सी.टी संगमा कहती हैं कि देश भर में माना जाता है कि मेघालय की महिलाओं को सबसे ज्यादा अधिकार हासिल हैं, लेकिन इसके उलट यहां उन पर अत्याचार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। वे इसके लिए राज्य सरकार व पुलिस की उदासीनता को जिम्मेवार ठहराती हैं। उक्त संगठन की रिपोर्ट में कहा गया था कि राज्य में महिलाओं को घरेलू हिंसा के अलावा बलात्कार व यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन ज्यादातर मामले दबा दिए जाते हैं। पंचायतें भी इसे निजी मामला मानकर कोई कार्रवाई नहीं करतीं। वे किसी भी मामले में उसी समय हस्तक्षेप करती हैं जब उसका असर पूरे गांव पर पड़ रहा हो। राज्य के खासकर ग्रामीण इलाकों में शादी के बाद पत्नी को छोड़ देना,बिना शादी के ही दूसरी पत्नी घर में रखना और कम उम्र में ही युवतियों के गर्भवती होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। राज्य में जब महिलाओं पर अत्याचार का मामला उठता है तो यह कह कर इसे दबाने का प्रयास किया जाता है कि मातृसत्ता वाले समाज में ऐसा संभव नहीं है। इसे पति-पत्नी या प्रभावित महिला का निजी झगड़ा करार दिया जाता है।
राज्य के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं पर बढ़ती हिंसा व अत्याचार की एक प्रमुख वजह शराब का सेवन है। संगमा बताती हैं कि राज्य के आदिवासी तबके के लोगों में शराबखोरी आम है और लगभग सभी मामलों में इसकी अहम भूमिका है। पुलिस का कहना है कि घरेलू हिंसा के मामलों की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। राज्य के ज्यादातर इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा भी चरमरा गया है। नतीजतन हिंसा की शिकार महिलाओं को चिकित्सा सहायता नहीं मिल पाती। हिंसा की शिकार महिलाओं के रहने के लिए राज्य में कोई आश्रम या दूसरी जगह नहीं है। ऐसी महिलाओं के पुनर्वास की भी कोई व्यवस्था नहीं है। सबसे खूबसूरत और महिला अधिकारों के मामले में सबसे आगे होने का दावा करने वाले इस खूबसूरत प्रदेश में महिलाओं की हकीकत का यह दूसरा पहलू काफी कड़वा है।

Wednesday, May 20, 2009

दार्जिलिंग चाय के प्याले में तूफान


पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय इलाके में अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में जारी आंदोलन के चलते अब दुनिया भर में मशहूर दार्जिलिंग चाय के प्याले में तूफान आ गया है। इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने अब दार्जिलिंग चाय के साथ गोरखालैंड का उत्पाद जोड़ने की मांग उठाई है। संगठन ने इलाके के चाय बागान मालिकों को नए नाम का लेबल बनवाने के लिए सात मार्च तक का समय दिया था। उस समय तो लोकसभा चुनावों के एलान की वजह से यह मामला टल गया। लेकिन चुनाव के बाद अब यह मामला एक बार पिर तूल पकड़ रहा है। संगठन के महासचिव रोशन गिरि इस मांग को जायज करार देते हुए कहते हैं कि यह गोरखालैंड इलाका है। इसलिए यहां की चाय का नाम भी इसी के नाम पर होना चाहिए। इसके अलावा संगठन ने इलाके के चाय बागान मालिकों से चाय कर वसूलने की भी बात कही है। अब तक राज्य सरकार यह कर वसूलती रही है।
मोर्चा से संबद्ध दार्जिलिंग तराई-डुआर्स प्लांटेशन लेबर यूनियन ने इस मांग के समर्थन में बागानों में आंदोलन करने का फैसला किया है। यूनियन के सचिव सूरज सुब्बा कहते हैं कि इलाके के चाय बागानों से निकलने वाली चाय के पैकेट पर गोरखालैंड का उत्पाद लिखना होगा। उन्होंने चेताया है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो बागानों से चाय बाहर नहीं जाने दी जाएगी। मोर्चा अपने प्रस्तावित गोरखालैंड इलाके में एक चाय नीलामी केंद्र खोलने की भी मांग कर रही है। इलाके में सिलीगुड़ी में ही चाय नीलामी केंद्र है।
दूसरी ओर, इलाके के वरिष्ठ माकपा नेता और नगर विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य ने मोर्चा के इस कदम को गैरकानूनी करार दिया है। वे कहते हैं कि दार्जिलिंग चाय की दुनिया में अपनी अलग पहचान है। अब इस पर गोरखालैंड लिखने से दुनिया के बाजारों में भ्रम की हालत पैदा हो जाएगी। इसका असर इस चाय की बिक्री पर पड़ सकता है। उन्होंने राज्य व केंद्र सरकार को भी इस मामले की जानकारी दी है।
मोर्चा के महासचिव गिरि कहते हैं कि बागान मालिकों को चाय के पैकेट का लेबल तो बदलना ही होगा, मोर्चा को ही कर का भुगतान करना होगा। कोई बागान मालिक अब सरकार को कर नहीं दे सकता। सभी बागान मालिकों को इसकी सूचना दे दी गई है। यह पैसा आंदोलन को आगे बढ़ाने पर खर्च किया जाएगा। इलाके के 87 बागानों में हर साल लगभग दस मिलियन किलो चाय पैदा होती है और इसका ज्यादातर हिस्सा जापान, अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों को निर्यात किया जाता है। देश के कुल चाय निर्यात में दार्जिलिंग चाय का हिस्सा सात फीसदी है।
गोरखा मोर्चा की इस नई मांग ने चाय उद्योग को सकते में डाल दिया है। इलाके के एक बागान मालिक सवाल करते हैं कि यह कैसे संभव है। दार्जिलिंग चाय की पूरी दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान है। अब इसका नाम बदल कर उसके पैकेट पर गोरखालैंड का उत्पाद लिखने की स्थिति में आयातकों में भ्रम तो पैदा होगा ही, विश्व बाजार भी हमारे हाथों से निकल सकता है। दार्जिलिंग के एक अन्य बागान मालिक कहते हैं कि यह मांग बेतुकी है। हम मोर्चा की यह मांग कभी मंजूर नहीं करेंगे। यह मांग ठीक नहीं है। आंदोलन करना अलग बात है। लेकिन इसके लिए दार्जिलिंग चाय की साख से खिलवाड़ करना उचित नहीं है।
मोर्चा के मजदूर संगठन प्रमुख पी.टी.शेरपा कहते हैं कि हम जल्दी ही बागानों से कर वसूल करेंगे। सभी बागानों को इसकी सूचना भेज दी गई है। यह रकम संगठन की केंद्रीय समिति को सौंपी जाएगी। इसी तरह आल ट्रांसपोर्ट ज्वाइंट एक्शन कमिटी ने भी प्रस्तावित गोरखालैंड क्षेत्र के 15 हजार वाहनों से कर वसूलने का फैसला किया है।
अब दार्जिलिंग चाय के नाम के साथ गोरखालैंड जोड़ने के सवाल पर इलाके में एक नया विवाद खड़ा होने का अंदेशा है। चाय उद्योग ने सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप की अपील की है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार की चुप्पी के चलते के आने वाले दिनों में यह मुद्दा जोर पकड़ सकता है।

सुंदरबन में टकराते बाघ और इंसान


पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में बाघों के जंगल से निकल कर मानव बस्तियों में आने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अपने मैनग्रोव जंगल और रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरबन इलाका अब बाघ और इंसानों के बीच बढ़ते संघर्ष की वजह से सुर्खियां बटोर रहा है। हाल के दिनों में इंसानी बस्तियों पर बाघों के हमले की कम से कम एक दर्जन घटनाओं में छह लोग लोग मारे जा चुके हैं और इतने ही घायल हुए हैं। वन विभाग ने बीते हफ्ते बस्ती में घूमते एक बाघ को दबोचने में भी कामयाबी हासिल की है। इस कड़ी की ताजा घटना में बाघ के जबड़े में फंस कर एक और मछुआरे की मौत हो गई। इन घटनाओं ने वन विभाग, राज्य सरकार और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को चिंता में डाल दिया है। सुंदरबन विकास मंत्री कांति गांगुली कहते हैं कि बाघों के हमले की ज्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी परमिट या मंजूरी के ही गहरे जंगल में घुसते हैं। इसलिए ऐसे मामलों की सही तादाद बताना मुश्किल है।
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जहां वन विभाग से इन मामलों की वजह पर विस्तृत रिपोर्ट मांगी है, वहीं वन विभाग ने इसके कारणों का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया है। शुरूआती जांच में यह तथ्य सामने आया है कि सुंदरवन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने, बाघों के चरने की जगह लगातार घटने और उनका पसंदीदा खाना नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। इनसे बचाव के फौरी राहत के तौर पर वन विभाग ने सुंदरबन में सौ हिरण छोड़े हैं। लेकिन इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही माना जा रहा है। अब चीफ वार्डन एस.बी.मंडल की अगुवाई में हुई बैठक में एक विशेषज्ञ समिति से महीने भर तक इलाके का सर्वेक्षण कराने का फैसला किया गया है।
बुद्धदेव भट्टाचार्य इंसानी बस्तियों में बाघों के घुसने की बढ़ती घटनाओं से चिंतित हैं। उन्होंने सुंदरबन विकास बोर्ड की बैठक में इस बात का पता लगाने पर जोर दिया कि बाघ भोजन की कमी के चलते जंगल से बाहर निकल रहे हैं या अपनी प्रकृति में बदलाव की वजह से। सुंदरबन विकास मंत्री कांति गांगुली कहते हैं कि बोर्ड के निदेशक से इस बारे में एक रिपोर्ट मांगी गई है। वे कहते हैं कि पहले किसी भी साल बाघों के इंसानी बस्तियों में आने की इतनी घटनाएं नहीं हुई हैं। गांगुली का कहना है कि सुंदरबन के बाघों की प्रकृति में भी बदलाव आ रहा है। अब वे निडर होकर बस्तियों में घुस कर इंसानों पर हमले कर रहे हैं।
सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता। उस अधिकारी का कहना है कि सुदरबन की इंसानी बस्तियों में रहने वाले लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए मूल रूप से जंगली लकड़ियों की कटाई पर ही निर्भर हैं। अक्सर जंगल में बाघ से मुठभेड़ होने पर वे लोग उसे अपने धारदार हथियारों से घायल कर देते हैं। ऐसे ही बाघ भोजन की तलाश में इंसानों पर हमला करते हैं। प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं वहां पानी का खारापन बीते एक दशक में 15 फीसद बढ़ गया है। इसलिए बाघ धीरे-धीरे जंगल के उत्तरी हिस्से में जाने लगे हैं जो इंसानी बस्तियों के करीब है।
वन विभाग ने सुंदरबन में इंसानी बस्तियों में बाघों को आने से रोकने के लिए लगभग 64 किमी दायरे में नायलान की बाड़ भी लगाई है। बावजूद इसके ऐसी घटनाओं पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। वन विभाग के सूत्रों का कहना है कि तेजी से घटते जंगल भी बाघों के बाहर निकलने की एक अहम वजह है।
सुंदरबन इलाके में कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाले होटलों व रिजार्टों ने भी इस समस्या को और जटिल बना दिया है। हर साल अक्तूबर से जनवरी तक हजारों पर्यटक सुंदरबन घूमने जाते हैं। उनके शोरगुल और प्रदूषण से इलाके के पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचता ही है, बाघ भी भ्रम के शिकार होकर बाहर निकलने लगे हैं। मुख्यमंत्री ने इन होटलों की बढ़ती तादाद पर अंकुश लगाने पर जोर दिया है।