Monday, January 18, 2010

नहीं होगा बसु का अंतिम संस्कार

प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और माकपा के वरिष्ठ नेता ज्योति बसु का अंतिम संस्कार नहीं होगा। उन्होंने अपना शरीर पहले ही दान कर दिया था। उनकी इच्छा के अनुरूप मंगलवार को अंतिम यात्रा के बाद उनका शव यहां सरकारी एसएसकेएम अस्पताल को सौंप दिया जाएगा। बसु के पार्थिव शरीर को मंगलवार को सुबह साढ़े नौ बजे केंद्र पीस हैवन से प्रदेश के सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग ले जाया जाएगा।
माकपा के प्रदेश सचिव बिमान बोस ने बताया कि बसु के पार्थिव शरीर को चार घंटे के लिए, साढ़े 10 बजे से दोपहर ढाई बजे तक प्रदेश विधानसभा परिसर में रखा जाएगा, ताकि लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे सकें।
उन्होंने बताया कि इस दौरान बांग्लादेश समेत देश-विदेश के नेता बसु को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। बोस ने बताया कि इसके बाद उनकी देह को दोपहर तीन बजे अलीमुद्दीन स्ट्रीट स्थित पार्टी मुख्यालय ले जाया जाएगा। वहां से अंतिम यात्रा के तौर पर उन्हें एसएसकेएम अस्पताल ले जाएंगे। बसु की देह को पार्टी मुख्यालय में एक घंटे के लिए रखा जाएगा।
उन्होंने बताया कि इस दौरान वहां माकपा पोलितब्यूरो और केंद्रीय समिति के सभी सदस्य आएंगे। पार्टी मुख्यालय में आने वाले लोग शब्दों के माध्यम से अपनी संवेदनाएं प्रकट कर सकें, इसलिए वहां एक श्रद्धांजलि पुस्तिका भी रखी जाएगी।
ज्योति बाबू के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा क्योंकि उन्होंने इसे दान करने का फैसला किया था। उनके शरीर का उपयोग चिकित्सा संबंधी शोध के लिए किया जाएगा।
बसु ने करीब सात साल पहले ऐलान किया था कि उनकी मौत के बाद 'गणदर्पण' नामक एनजीओ को उनका शव दान कर दिया जाए। माकपा नेता राबिन देब ने बताया कि उनकी इस इच्छा के अनुरूप मंगलवार को 'पीस हेवेन' नामक फ्यूनरल पार्लर से उनका आखिरी सफर शुरू होगा। इसके बाद उनका पार्थिव शरीर सचिवालय व विधानसभा होते हुए पार्टी मुख्यालय और फिर एसएसकेएम अस्पताल ले जाया जाएगा।
बसु नेत्रदान कर चुके थे इसलिए एक नेत्र अस्पताल के डॉक्टरों ने उनकी आंखें निकाल कर सुरक्षित रख ली हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने दिवंगत नेता के सम्मान में सोमवार को अवकाश की घोषणा की है।
ज्योति बसु की अंतिम इच्छा थी कि वह साल्ट लेक स्थित इंदिरा भवन में अपनी आखिरी सांस लें। बसु के निजी सचिव जय कृष्ण घोष ने नम आंखों से कहा कि अस्पताल में भर्ती किए जाने के बाद वह लगातार कहते थे कि उन्हें इंदिरा भवन ले जाया जाए। वह मुझसे लगातार पूछा करते थे कि मुझे घर कब लेकर जाओगे। वह कहते थे कि तुमने मुझसे वादा किया था कि एक दिन अस्पताल में रखने के बाद तुम मुझे घर ले चलोगे। घोष ने कहा कि उनकी अंतिम इच्छा इंदिरा भवन में आखिरी सांस लेने की थी। उन्होंने कहा कि मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया।

बसु पर बना था वृत्तचित्र


बांग्लादेश में बचपन, लंदन में छात्र जीवन और उसके बाद पश्चिम बंगाल में सात दशक लंबे राजनीतिक जीवन की कितनी ही भूली-बिसरी यादें और घटनाएं। कोई पांच साल पहले अपने जीवन पर बनी दो घंटे लंबी डाक्यूमेंट्री को देखते हुए माकपा के वरिष्ठ नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु मानों अतीत में डूब गए थे।
जाने-माने फ़िल्मकार गौतम घोष की इस फ़िल्म का शो खत्म होने के बाद उन्होंने कहा था कि मुझे भी याद नहीं था कि मैंने इतनी बातें कहीं थी। मेरी यादें ताजा हो गई हैं।
वर्ष 1997 से 2004 यानी पूरे आठ साल की शूटिंग के बाद बनी ‘ज्योति बसुर संगे (ए जर्नी विथ ज्योति बसु) यानी ज्योति बसु के साथ एक सफर’ में पहली बार बसु के जीवन के छुए-अनछुए कई पहलू आम लोगों के सामने आए थे।
बंगाल के कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में पहली मई, 2005 को यह डाक्यूमेंट्री रिलीज हुई थी। अपना पूरा जीवन मेहनतकश लोगों के हितों की लड़ाई में बिताने वाले नेता के जीवन पर बनी फिल्म के लिए शायद पहली मई यानी मजदूर दिवस से बेहतर कोई मौका हो ही नहीं सकता था।
कोलकाता के नंदन सिनेमाघर में इस डाक्यूमेंट्री का प्रीमियर शो आयोजित किया गया था। इसके दर्शकों में ज्योति बसु, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और फिल्मकार मृणाल सेन समेत कई जानी-मानी हस्तियां शामिल थीं।
खुद बसु का कहना था कि यह फिल्म एक ऐतिहासिक दस्तावेज साबित होगी। फिल्म की शूटिंग पश्चिम बंगाल के अलावा विदेशों खासकर लंदन में की गई है।
इसमें बसु ने बचपन के कई ऐसे क्षणों को याद किया था जो राजनीतिक जीवन की आपाधापी में वे कब के भूल चुके थे।
इस फिल्म की शूटिंग हालांकि अलग-अलग टुकड़ों में आठ वर्षों तक हुई, लेकिन इसके लिए गौतम घोष ने बसु का इंटरव्यू वर्ष 2004 में लिया था।
घोष कहते हैं कि उन्होंने बसु पर फिल्म बनाने का फैसला इसलिए किया कि वे उन गिने-चुने राजनीतिज्ञों में से हैं जिन्होंने बीते सात दशकों के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को देखा है.
वे बताते हैं कि मैं उनके नजरिए को समझने का प्रयास करना चाहता था। फिल्म पूरी करने के लिए मैंने ज्योति बसु के सत्ता से रिटायर होने तक इंतजार करने का फैसला किया था ताकि वे उन सब मुद्दों पर खुल कर अपनी बात कह सकें जिन पर सत्ता में रहते कुछ नहीं कहा था।

आखिरी सांस तक मोर्चा के मसीहा बने रहे बसु

माकपा के बुजुर्ग नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु अपनी आखिरी सांस तक वाममोर्चा और अपनी पार्टी माकपा के मसीहा और संकटमोचक बने रहे। कोई नौ साल पहले सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद उनकी राजनीतिक सक्रियता में कहीं कोई कमी नहीं आई थी। वे दो साल पहले तक नियमित तौर पर अलीमुद्दीन सट्रीट स्थित पार्टी के मुख्यालय आते थे और हर मसले पर सरकार और पार्टी को सलाह देते थे। वाममोर्चा सरकार और माकपा जब भी किसी मुसीबत में फंसती थी तो बसु ही उसे उबारते थे। मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद बीते नौ वर्षों में ऐसे अनगिनत मौके आए जब उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी को संकट से बचाया। वाममोर्चा के बाकी घटकों में भी बसु का वही स्थान था जो उनकी अपनी पार्टी में। घटक दलों के विवाद के समय भी बसु ही पंचायत करते थे। अब तक ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती जब घटक दल के किसी नेता ने बसु के फैसले पर एतराज जताया हो। बसु की बात सबके लिए पत्थर की लकीर साबित होती थी।
बीते लगभग पांच वर्षों के दौरान सिंगुर, नंदीग्राम, जमीन अधिग्रहण, सोमनाथ चटर्जी के माकपा से निष्कासन और राजनीतिक हिंसा समेत न जाने कितनी ऐसी समस्याएं पैदा हुईं जब बसु ने पार्टी व सरकार को सही रास्ता दिखाया। बसु आखिरी दम तक मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर चलते रहे। यही नहीं, उन्होंने इन सिद्धांतों का पालन करते हुए इसके व्यवहारिक पक्ष का भी ध्यान रखा। सरकार और पार्टी की गलती के समय वे उनकी खिंचाई करने से भी नहीं चूके। बसु हमेशा कहते थे कि सरकार के कामकाज की सकारात्मक आलोचना जरूरी है। राज्य में औद्योगिकीकरण की बयार चलने पर सरकार ने जब बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण शुरू किया तो सबसे पहले बसु ने ही इसके खिलाफ आवाज उठाई थी। उन्होंने तब दलील दी थी कि खेती की जमीन पर उद्योग नहीं लगाए जाने चाहिए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी जताई थी। बाद में विपक्ष ने इस मुद्दे को लपक लिया। हालांकि माकपा नेतृत्व ने तब बसु को विकास की दुहाई देकर समझा लिया था। लेकिन अगर सरकार ने उस समय उनकी नसीहत पर ध्यान दिया होता तो शायद सिंगुर और नंदीग्राम की फांस उसके गले में नहीं चुभती।
इसी तरह जब लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के निष्कासन के मुद्दे पर प्रदेश माकपा के नेता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से बगावत पर उतारू थे तब बसु ने उनको समझाया था। इस पूरे मामले में बसु की वजह से ही पार्टी की ज्यादा थुक्का-फजीहत नहीं हुई। अगर बसु ने तब नेताओं को नहीं समझाया होता तो शायद यहां महासचिव प्रकाश करात के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर नारे लगने लगते।
बसु ने अपने जीवन में पद के लिए कभी कोई समझौता नहीं किया। अगर वे चाहते तो वर्ष 1996 में प्रधानमंत्री बन सकते थे। लेकिन उन्होंने पार्टी के फैसले का सम्मान करते हुए वह कुर्सी ठुकरा दी। यह जरूर है कि उनको आखिरी दम तक इस बात का मलाल रहा। बाद में हालांकि पार्टी ने भी मान लिया कि वह फैसला गलत था। वे केंद्र की पूर्व यूपीए सरकार से वामदलों के समर्थन वापसी के भी खिलाफ थे। उन्होंने पार्टी में अपने स्तर पर इसका पूरा विरोध किया था। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व समर्थन वापस लेने पर आमादा था। उसके बावजूद बसु ने नेताओं से कहा कि समर्थन भले वापस ले लें, लेकिन सरकार नहीं गिरनी चाहिए। उनकी दलील थी कि देश एक मध्यावधि चुनाव झेलने की हालत में नहीं है।
सोमनाथ चटर्जी प्रकरण में हर ओर से हताश होने के बाद माकपा का केंद्रीय नेतृत्व भी बसु की शरण में आया और उनको इस्तीफे के लिए मनाने की जिम्मेवारी बसु को सौंपी। सोमनाथ को बसु का करीबी माना जाता रहा है। बसु ने ही सोमनाथ से इस मामले को ज्यादा तूल नहीं देने की सलाह दी।
सिंगुर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों पर भी बसु ने हमेशा उसी बात का समर्थन किया जो उचित था। उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं की तरह कभी कोई चुभने वाली टिप्पणी नहीं की। अपने लगातार गिरते स्वास्थ्य की वजह से बसु बीते दो चुनावों में पार्टी के लिए चुनाव प्रचार नहीं कर सके थे। उससे पहले 1977 के बाद वही स्टार प्रचारक हुआ करते थे। लेकिन पार्टी ने बीते चुनावों में भी उनका सहारा लिया। बसु के भाषण के वीडियो कैसेट तैयार कर दूर-दराज के गांवों में भेजे गए। ब्रिगेड रैली में भी बसु के भाषण का वीडियो कैसेट चलाया गया।
माकपा के विवादास्पद नेता और पूर्व खेल मंत्री सुभाष चक्रवर्ती बसु के खास लोगों में थे। वे जब तक जिए अपनी टिप्पणियों और कामकाज से सरकार और पार्टी के लिए मुसीबतें पैदा करते रहे। लेकिन बसु का संरक्षण होने की वजह से ही गंभीर से गंभीर गलती करने के बावजूद पार्टी नेतृत्व को कभी सुभाष के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का साहस नहीं हुआ। सुभाष कहते भी थे कि बसु उनको राजनीतिक गुरू हैं। वे उनके अलावा दूसरे किसी नेता की बात को कोई तवज्जों नहीं देते थे। सुभाष और उनकी पत्नी ही हर साल बसु के साल्टलेक स्थित आवास पर धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाते थे। बीते साल सुभाष की मौत से बसु काफी दुखी हुए थे। उन्होंने तब कहा था कि जाना मुझे चाहिए था. लेकिन चले गए सुभाष।
बसु अपने जीते-जी ही एक किंवदंती बन गए थे। उनके राजनीतिक कद की वजह से उनको अपनी पार्टी ही नहीं बल्कि विपक्ष का भी पूरा सम्मान हासिल था। माकपा और राज्य सरकार की नाक में दम करने वाली तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी भी बसु का उतना ही सम्मान करती थी जितना कोई माकपा नेता। वे कई बार बसु के बुलावे पर उनके घर गई थीं। सिंगुर व नंदीग्राम आंदोलन के चरम पर होने के समय भी बसु ने ममता को घर पर बुला कर उसे राज्य के हित में समझौता करने का अनुरोध किया था। अब माकपा में बसु के कद का ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं हो जिसे घटक दलों का भी पूरा सम्मान हासिल हो।

खूबियों और खामियों भरा रहा कार्यकाल

माकपा के सबसे बुजुर्ग नेता ज्योति बसु कोई एक चौथाई सदी तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई तरह के आंदोलनों और चुनौतियों से जूझते रहे। उनकी बैलेंस शीट में अगर कुछ कामयाबियां रहीं तो कुछ नाकामियां भी थीं। बसु अपने कार्यकाल के दौरान होने वाले तमाम आंदोलनों से अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ से निपटते रहे। ऐसे आंदोलनों में अस्सी के दशक में दार्जिलिंग की पहाड़ियों में हुए गोरखालैंड आंदोलन और नब्बे की दशक की शुरूआत में कूचबिहार जिले में हुए तीनबीघा आंदोलन का जिक्र किया जा सकता है।
वर्ष 1985 में सुभाष घीसिंग और उनके समर्थकों ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बैनर तले अलग राज्य की मांग में जोरदार आंदोलन शुरू किया था। लगभग तीन साल तक चले इस आंदोलन के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों की सरकारी संपत्ति नष्ट हो गई। आखिर 14-15 अगस्त, 1988 को केंद्र, राज्य और जीएनएलएफ के बीच तितरफा करार के जरिए पर्वतीय परिषद के गठन पर सहमित बनी। उसके बाद भी घीसिंग जब-जब बेकाबू होते रहे, बसु ने अपने कौशल से उनको शांत किया। कभी धमका कर , कभी फुसला कर तो कभी विकास कार्यों के लिए परिषद को ज्यादा धन दे कर। हांलाकि उस धन से पर्वतीय इलाके का विकास कम हुआ, घीसिंग और उनके करीबियों का ज्यादा। इसे बसु की नाकामी ही माना जाएगा कि पहाड़ी इलाके में शांति बहाल रखने के मकसद से उन्होंने कभी घीसिंग की कार्यशैली पर न तो कोई सवाल उठाया और न ही उस रकम का कोई हिसाब मांगा।
इसी तरह यह बसु की अगुवाई वाली सरकार का ही कौशल था कि 26 जून 1992 को खून का एक कतरा बहाए बिना तीनबीघा गलियारा बांग्लादेश को सौंप दिया गया। उससे पहले तक इस आंदोलन की आक्रामकता देख कर तो लगता था कि उस दिन सैकड़ों लाशें बिछ जाएंगी। आंदोलनकारियों का नारा ही था कि रक्त देबो, प्राण देबों, तीन बीघा देबो ना (खून देंगे, जान देंगे, लेकिन तीनबीघा नहीं देंगे)।
लेकिन बसु के कार्यकाल में राज्य में हजारों की तादाद में कल-कारखाने बंद हुए, लाखों मजदूर बेरोजगार हुए। पढ़े-लिखे बेरोगारों की फौज भी लगातार बढ़ती रही। सरकारी कर्मचारियों में कार्यसंस्कृति लगभग खत्म हो गई। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी खत्म करने का बसु सरकार का फैसला आज भी बंगाल के पिछड़ेपन की सबसे अहम वजह माना जाता है। कभी पढ़ाई में अव्वल रहने वाला बंगाल लगातार फिसड्डी होता गया। शिक्षा के अलावा इस दौरान स्वास्थ्य सेवाएं भी बदहाल होती गईं। बसु के कार्यकाल में ही उस बंगाल की ऐसी हालत हो गई जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि बंगाल जो आज सोचता है, वह बाकी देश कल सोचता है।
बसु की अगुवाई वाली सरकार अपने पूरे कार्यकाल के दौरान भूमि सुधारों का ही ढिंढोरा पीटती रही। हर साल अपनी विदेश यात्राओं को लेकर भी बसु विवादं में फंसते रहे। उनकी उन यात्राओं के दौरान राज्य में अरबों डालर के विदेशी निवेश के सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए। लेकिन उनमें से कितनों पर अमल हुआ और कितनी विदेशी पूंजी का बंगाल में निवेश हुआ, यह पता लगाने के लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है। बसु के कार्यकाल में राज्य में ट्रेड यूनियन आंदोलन मजबूत से आक्रामक हो गया। हर जगह लाल झंडे लेकर काम बंद किए गए। हड़ताल व रैलियां रोजमर्रा की बात बन गई। अपने इकलौते पुत्र चंदन बसु की संपत्ति और उनके कारनामों को लेकर भी बसु की कम छीछालेदर नहीं हुई। लेकिन इन सबसे जूझते हुए वे बने रहे और बंगाल में मुख्यमंत्री पद का पर्याय बन गए।

वामपंथ के एक युग का अवसान

(इस बात का अंदेशा तो पहली जनवरी को उस समय ही पैदा हो गया था जब ज्योति बसु कोलकाता के एक निजी अस्पताल में दाखिल हुए थे. लेकिन बीते शुक्रवार को यह अंदेशा गहरा गया था. आखिर इस जुझारू नेता ने रविवार को अंतिम सांस ली.बसु के निधन पर जनसत्ता के लिए विभिन्न पहलुओं पर कई रिपोर्ट्स लिखी है. उनको साभार यहां दे रहा हूं ताकि ब्लाग पर भी बसु के जीवन के कई अनछुए पहलू सामने आ सकें.----प्रभाकर मणि तिवारी)
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे ज्योति बसु
वर्ष 1920—महानगर कोलकाता (तब कलकत्ता) में धर्मतल्ला स्थित लोरेटो स्कूल की पहली कक्षा में एक दुबला-पतला, शर्मीला और गोरा लड़का पढ़ता है। कक्षा में उसके अलावा बाकी लड़कियां ही हैं। शायद यह भी उसके शर्मीलेपन की एक वजह है। दूसरे किसी स्कूल में दाखिला नहीं मिला तो पिता ने यह कर उसे यहां भर्ती कर दिया था कि एक साल बर्बाद करने से तो लड़कियों के स्कूल में पढ़ना ही बेहतर है। इसलिए उसे एक साल वहीं पढ़ना पड़ता है।
वर्ष 1930—आक्टर लोनी मोनुमेंट (शहीद मीनार) के पास नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भाषण होने वाला है। वह शर्मीला लड़का, जो अब सोलह साल का किशोर हो चुका है और उसकी मसें भींगने लगी हैं, अपने चचेरे भाई के साथ खादी के कपड़े पहने नेताजी को सुनने वहां पहुंच जाता है। मौके पर पुलिस का भारी इंतजाम है। पुलिस लोगों पर लाठियां भांजती है। लोग भागने लगते हैं। लेकिन वे दोनों तय कर लेते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, भागना नहीं है। इस नहीं भागने के निश्चय की वजह से कई लाठियां उसकी पीठ पर भी बरसती हैं। घर पहुंचने पर मां उन चोटों पर हल्दी-चूना लगा देती है।
वर्ष 1946—वामपंथी दल ने कुछ साल पहले ही इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास कर लौटे 32 साल के उस शर्मीले युवक को रेलवे क्षेत्र से चुनाव लड़ाने का फैसला किया है। उस युवक का मुकाबला बीए (बंगाल-असम) रेलवे इंप्लाइज यूनियन के अध्यक्ष हुमायूं कबीर से है। कबीर के पीछे कांग्रेस पार्टी की ताकत और पैसा है। वह युवक जानता है कि कबीर को जिताने के लिए जम कर धांधली होगी। फिर भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। और आखिर में वह कबीर को पछाड़ कर चुनाव जीत जाता है।
वर्ष 2000----पश्चिम बंगाल में बीते 23 वर्षों से वाममोर्चा का राज है। तब से मुख्यमंत्री भी एक ही हैं---ज्योति बसु। उनके नाम सबसे लंबे समय तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड है। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहे गेगांग अपांग इस रिकार्ड को तोड़ सकते थे। लेकिन वे दो साल पहले ही सत्ता से बाहर हो गए हैं। मुख्यमंत्री की अब उम्र हो चली है। स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। इसलिए अक्तूबर की 27 तारीख को , कभी लोरेटो स्कूल में लड़कियों के बीच पढ़ने वाला वह अकेला लड़का, नेताजी को सुनने के लिए पीठ पर लाठी खाने वाला वह किशोर और विधायक पद के चुनाव में हुमायूं कबीर जैसे दिग्गज को पछाड़ने वाला वह किशोर मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का एलान कर देता है। अगले ही दिन वाममोर्चा की बैठक में वह इस्तीफा दे देता है जिसे देर रात फैक्स से राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है। और लोरेटो के उस शर्मीले लड़के से बंगाल के अभिभावक तक का सफऱ तय करने वाले ज्योति बसु का मुख्यमंत्री के तौर पर पांच नवंबर, 2000 ही आखिरी दिन होता है। अगले दिन से बुद्धदेव भट्टाचार्य यह कुर्सी संभाल लेते हैं।
बसु का जन्म आठ जुलाई, 1914 को महानगर के हैरीसन रोड (अब महात्मा गांधी रोड) स्थित एक घऱ में हुआ था। उनके पिता, चाचा और ताऊ असम के घबड़ी में रहते थे। उनके दादाजी नौकरी के सिलसिले में वहां गए थे। चाचा और ताऊ वकील थे। बसु का पैतृक घर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में ढाका जिले के बारूदी गांव में था। मामा का घर भी वहीं था। पिता निशिकांत बसु ने असम के डिब्रूगढ़ स्थित बेरी ह्वाइट मेडिकल स्कूल (जिसका नाम अब असम मेडिकल कालेज हो गया है) से चिकित्साशास्त्र में डिग्री हासिल की। ढाका में कुछ दिनों तक प्रैक्टिस करने के बाद वे अमरीका चले गए। वहां आगे की पढ़ाई भी की और नौकरी भी। निशिकांत लगभघ छह साल तक वहां रहे। इसी दौरान वे अपने एक भाई को भी इंजीनियरिंग पढ़ाने वहां ले गए। विदेश से लौटने के बाद निशिकांत कलकत्ता में प्रैक्टिस करने लगे। तब उनका परिवार हिंदुस्तान बिल्डिंग में रहता था जहां बाद में एलीट सिनेमाहाल बना। उनके भाइयों के परिवार भी साथ ही रहते थे।
हिंदुस्तान बिल्डिंग के मालिक नलिनी रंजन सरकार से ही निशिकांत ने हिंदुस्तान पार्क में एक बीघा जमीन खरीदी। तब वहां जंगल था। प्लाट के चारों ओर धान के खेत, नारियल के पेड़ और तालाब थे। वहीं मकान बना कर निशिकांत पूरे परिवार के साथ रहने लगे। तब तक इलाके में सड़कें बनने लगी थीं और ट्राम लाइन बिछाने का काम शुरू हो गया था। यह 1924-25 की बात है। तब ज्योति बसु महज दस साल के थे और सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ रहे थे।
वर्ष 1930-31 में बसु के सेंट जेवियर्स में पढ़ने के दौरान ही बंगाल में क्रांति का ज्वार आ चुका था। चटगांव में क्रांतिकारी हथियारों के भंडार पर कब्जा कर रहे थे तो जजों और मजिस्ट्रेटों की हत्याएं भी हो रही थी। उसी साल महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ अनशन आंदोलन शुरू किया। किशोर मन पर इन घटनाओं का असर पड़ना स्वाभाविक था। बसु पर भी पड़ा। उनके किशोर मन में देश प्रेम की अनुभूति पैदा हुई और भावातिरेक में उन्होंने एलान कर दिया कि आज स्कूल नहीं जाऊंगा। पुत्र के मन का मर्म समझते हुए पिता ने भी बसु से कुछ नहीं कहा और वे उसे लेकर अपने क्लीनिक चले गए।
बसु के ताऊ नलिनीकांत बसु कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे। सेवानिवृत्ति के बाद उनको महानगर के मछुआबाजार बम कांड के अभियुक्त निरंजन सेन और उनके साथियों के खिलाफ सुनवाई के लिए गठित एक विशेष प्राधिकरण का जज बनाया गया। बसु के पिता ने उनको मना भी किया था। बसु और उनके घरवालों को यह बात अच्छी नहीं लगी। ज्योति बसु निरंजन सेन के बारे में ज्यादा कुछ तो नहीं जानते थे। लेकिन उनको यह जरूर मालूम था कि वे लोग जो कुछ कर रहे हैं, देश की आजादी के लिए ही कर रहे हैं। ताऊ जी के जज रहने के दौरान पुलिस ढेर सारी प्रतिबंधित किताबें-साहित्य जब्त कर उनके घर छोड़ जाती थी। उनमें शरतचंद्र की लिखी पथेर दाबी भी थी। बसु ने चोरी-छिपे इस किताब को पढ़ लिया। वर्ष 1930 में जब चटगांव में हथियारों के भंडार पर क्रातिंकारियों का कब्जा हुआ तब यह खबर फैली कि इसमें बंगालियों का कोई हाथ नहीं है। तब किसी को भी इस बात पर यकीन नहीं था कि बंगाली ऐसा कर सकते हैं। इसका खुलासा बाद में हुआ। उस समय सेंट जेवियर्स के पादरियों ने जब इस कांड के खिलाफ परचे बांटे तो बसु ने इसका विरोध किया। उनकी दलील थी कि यह काम तो देशहित में है।
सेंट जेवियर्स में स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद बसु ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया। वहां आनर्स के साथ डिग्री लेने के बाद 21 साल की उम्र में बैरिस्टरी पढ़ने के लिए वे इंग्लैंड रवाना हो गए। बसु वहां चार साल तक रहे और सच कहा जाए तो बसु के मन में वामपंथी आंदोलन के बीज इंग्लैंड में रहने के दौरान ही पड़े। यूरोप में होने वाली तत्कालीन उथल-पुथल ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। तब हिटलर और मुसोलिनी के डंके बज रहे थे। इंग्लैंड के तमाम विश्वविद्यालय राजनीतिक विचार-विमर्श के केंद्र बन चुके थे। उस समय कृष्ण मेनन इंडिया लीग के सर्वेसर्वा थे। लीग ने विदेशों में रहने वाले भारतीयों के दिलों में देश की आजादी का अलख जगाने की दिशा में सराहनीय काम किया था। उसी समय बसु भी मेनन के संपर्क में आए और धीरे-धीरे उनमें काफी घनिष्ठता पैदा हो गई। उन्हीं दिनों भूपेश गुप्ता भी लंदन पहुंचे। उनलोगों का एक गुट बन गया।
इन छात्रों ने इंग्लैंड के कई प्रमुख वामपंथी नेताओं के साथ मेलजोल बढ़ाया। इनमें हैरी पोलिट, रजनी पाम दत्त और वेन ब्राडले के नाम उल्लेखनीय हैं। बसु की अगुवाई में वहां भारतीय छात्रों को एकजुट करने का अभियान भी शुरू हुआ। लंदन, कैंब्रिज और आक्फोर्ड विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों के गुट बन गए। गुट के सभी सदस्य वामपंथी विचारधारा के थे। इनमें रजनी पटेल, पी.एन. हक्सर, मोहन कुमार मंगलम, पार्वती मंगलम, इंद्रजीत गुप्त, रेणु चक्रवर्ती, निखिल चक्रवर्ती, अरुण बोस और एन.के.कृष्णन प्रमुख थे। भारतीय छात्रों को एकजुट कर लंदन मजलिस का गठन होने के बाद बसु ही इसके संस्थापक सचिव बने। मजलिस की बैठकों में फिरोज गांधी भी मौजूद रहते थे। वे इंडिया लीग के सक्रिय नेता थे। स्पेन के गृहयुद्ध के दौरान अलगाववादी फ्रांको के खिलाफ ब्रिटिश वामपंथी नेताओं के मौदान में उतरने की घटना ने बसु के युवा मन पर काफी असर डाला और उन्होंने धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति में उतरने का फैसला किया। उसी दौरान उनमें मार्क्सवादी साहित्य के प्रति भी रुझान बढ़ा।
कृष्ण मेनन ने ही बसु को नेहरु से मिलवाया था। बैरिस्टरी की परीक्षा देकर बसु 1940 में भारत लौट आए। यह तो लंदन में ही तय हो गया था कि स्वदेश लौट कर पूरी तरह पार्टी का काम करना है। तब तक विश्वयुद्ध भी शुरू हो गया था। बसु ने बैरिस्टर के तौर पर कलकत्ता हाईकोर्ट में अपना नाम तो दर्ज कराया था। लेकिन उन्होंने कभी प्रैक्टिस नहीं की। बसु के पिता उनके इस पैसले से नाराज थे। वे सोचते थे कि जब देशबंधु चित्तरंजन दास बैरिस्टरी और राजनीति एक साथ कर सकते हैं तो यह लड़का (बसु) ऐसा क्यों नहीं कर सकता। इसबीच, पिता ने उनकी शादी भी करा दी। वैसे, खुद बसु विवाह के पक्ष में नहीं थे। वे जानते थे कि जीवन की लड़ाई बहुत कठिन है। विवाह के कुछ दिनों बाद ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। बसु ने जब पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर काम शुरू किया तब पार्टी पर प्रतिबंध लगा था। सो, सब काम गोपनीय तरीके से ही करना पड़ता था। वर्ष 1942 की अगस्त क्रांति से कुछ दिनों पहले पार्टी से प्रतिबंध हटाया गया। वामपंथियों ने उस समय भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। उनकी दलील थी कि अभी आंदोलन का सही समय नहीं आया है। इस वजह से पार्टी को देश भर में जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। वर्ष 1945 में पार्टी की पोलित ब्यूरो ने बसु को प्रदेश समिति का संयोजक मनोनीत कर दिया।
इससे पहले पार्टी ने बसु को मजदूरों को संगठित करने का काम सौंपा था। जब वे बंदरगाह और डाक मजदूरों के बीच पैठ नहीं बना सके तो उनको रेलवे मजदूरों के बीच भेजा गया। बसु ने पूर्वी बंगाल से असम तक घूम कर बी.ए.(बंगाल असम) रेलवे वर्कर यूनियन का गठन किया। वे इसके पहले महासचिव बने। यूनियन के अध्यक्ष बने बंकिम मुखर्जी। रेलवे यूनियन और दूसरी ट्रेड यूनियन गतिविधियों ने ही बसु को मांज कर चमकाया। उनकी अगुवाई में ही एक दिन की ऐतिहासिक रेल हड़ताल भी हुई। नेतृत्व के उनके गुण को ध्यान में रख कर ही पार्टी ने 1946 में हुए विधानसभा चुनाव में बसु को रेलवे क्षेत्र से उम्मीदवार बनाने का फैसला किया। उस चुनाव में कम अंतर से ही, लेकिन बसु जीत गए। उनकी पार्टी के दो और लोग तब चुनाव जीते थे। दार्जिलिंग से रतनलाल ब्राह्मण और दिनाजपुर से रूप नारायण राय। उस चुनाव के बाद बंगाल में सोहरावर्दी की अगुवाई में मुस्सलिम लीग की सरकार बनी थी। बाद में बसु को कानून सभा का भी सदस्य चुना गया। बसु और दूसरे नेताओं ने 16 अगस्त, 1946 को बंगाल में होने वाले दंगों के दौरान जान हथेली पर ले कर काम किया। बसु ने माना था कि उस दंगे में कलकत्ता में 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। दंगों के बाद राहत और पुनर्वास के काम में भी पार्टी ने अहम भूमिका निभाई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री सोहरावर्दी ने इस बात के लिए नेताओं की सराहना की थी।
वर्ष 1947 की शुरूआत में ऐतिहासिक तेभागा आंदोलन के दौरान भी बसु ने अहम भूमिका निभाई थी। किसानों की मांग थी कि फसल का दो-तिहाई हिस्सा उनको मिलना चाहिए। भू-राजस्व आयोग ने 1940 में किसानों की यह मांग मान ली थी। लेकिन उसकी सिफारिशों को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया था। 27 मार्च, 1948 को भाकपा की राज्य समिति पर प्रतिबंध लगाकार उसके तमाम बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें ज्योति बसु भी थे। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी। उनको प्रेसीडेंसी जेल में रखा गया। तीन महीने बाद वे इस शर्त पर जेल से रिहा हुए कि पुलिस को सूचित किए बिना अपना पता नहीं बदलेंगे। उन्हीं दिनों अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में शिरकत करने बसु बंबई गए। पुलिस ने इसे पता बदलना माना और रास्ते में ही खड़गपुर स्टेशन पर उनको गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में जमानत तो मिल गई, लेकिन साथ ही हर सप्ताह थाने में हाजिरी देने की शर्त भी जोड़ दी गई। इसबीच, पांच दिसंबर, 1948 को बसु दूसरी बार विवाह बंधन में बंधे। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि वामपंथी के अभिभावक का दर्जा हासिल करने वाले बसु की मंशा पर उसी साल पार्टी नेतृत्व ने भी सवाल उठाया था। उनको बाकायदा पत्र लिख कर कैफियत मांगी गई कि वे भूमिगत रह कर काम क्यों नहीं करते। उनकी दूसरी शादी पर भी सवाल उठाए गए। बसु ने जवाब दिया कि वे पार्टी के निर्देश और नीतियों के अनुरूप ही काम कर रहे हैं। बाद में बसु को लंबे अरसे तक भूमिगत रहना पड़ा था।
18 जनवरी, 1952 को हुए विधानसभा चुनाव में बसु बरानगर सीट से चुनाव जीत गए। उनको 45 फीसद से भी ज्यादा वोट मिले थे। उन्होंने कांग्रेस के राय हरेंद्र नाथ चौधरी, जो डा. विधानचंद्र राय सरकार में मंत्री थे, को पराजित किया। चुनाव के बाद गठित विधानसभा में काफी हील-हुज्जत के बाद वामपंथी पार्टी को विरोधी दल और बसु को विपक्ष के नेता के तौर पर स्वीकृति मिली। इस दौरान एक ओर जहां बसु की राजनीतिक गतिविधियां बढ़ीं, वहीं उनका परिवार भी बढ़ा। सितंबर, 1952 में वे एक बच्चे के पिता बने। उसका नाम चंदन रखा गया। वही बसु की इकलौती संतान है। बसु के जेल में रहने या भूमिगत रहने पर उनकी पत्नी कमल बसु अपने पिता वीरेन बसु के घर चली जाती थी। कई बार बसु भी छिप कर वहीं रहे।
धीरे-धीरे दिन बीतते रहे। राज्य में साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में नक्सल आंदोलन ने भी जोर पकड़ा। बसु उसी समय राज्य में बनी साझा सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। लेकिन यह सरकार ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकी। उसके बाद राज्य में फिर कांग्रेस सत्ता में आई। इमरजंसी खत्म हने के बाद 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा भारी बहुमत के साथ जीत कर सत्ता में आया। ज्योति बसु उसके पहले मुख्यमंत्री बने और तमाम रिकार्ड बनाते हुए 23 साल से भी लंबे अरसे तक इस पद पर बने रहे। उन्होंने लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहने का एक अनूठा विश्वरिकार्ड बनाया। लेकिन उनकी नजरों में इस रिकार्ड की कोई अहमियत नहीं थी। नवंबर, 2000 में यह कुर्सी छोड़ते हुए उन्होंने कहा था कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं इतने लंबे अरसे तक पद पर बना रहा। उससे ज्यादा महत्वपूर्ण वाममोर्चे का सत्ता में बने रहना है।
वर्ष 1991 और खासकर 1996 के विधानसभा चुनावों में वाममोर्चे को जिताने के बाद बसु की छवि मोर्चे और राज्य की राजनीति में एक मसीहा जैसी हो गई। तब तक वे इतने लंबे अरसे तक राज कर चुके थे कि नई पीढ़ी के लोगों को यह याद करने और बताने में मुश्किल होती थी कि उनके पहले राज्य का मुख्यमंत्री कौन था। उस समय तक बसु राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुके थे। तब तक वे अस्सी पार कर चुके थे। उन पर बढ़ती उम्र का असर कहें या दबाव, पहली बार 1996 के चुनावों के समय ही नजर आया था। तब लोकसभा और विधानसभा चे चुनाव एक साथ ही हुए थे। बसु ने अपनी ढलती उम्र और गिरते स्वास्थ्य का हवाला देकर चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन पार्टी के दबाव के आगे उनको अंततः झुकना ही पड़ा। वे लड़े और लगातार पांचवीं बार जीते भी। लेकिन जीत का अंतर कम हो गया था। इसकी वजह थी इलाके के लोगों का असंतोष। जिस विधानसभा क्षेत्र से जीत कर कोई नेता लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने, अगर उस इलाके में लोगों को ढांचागत सुविधाएं भी मुहैया नहीं हों तो असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है।
नई ऊंचाइयों को छूने के बावजूद बसु हमेशा एक अनुशासित कामरेड रहे। पार्टी का निर्देश ही उनके लिए सबसे ऊपर होता था। ऐसा नहीं होता तो वर्ष 1996 में पार्टी का निर्देश मान कर उन्होंने चुपचाप प्रधानमंत्री की कुर्सी को हाथ से नहीं निकल जाने दिया होता। वह कुर्सी उनको तश्तरी में रख कर पेश की गई थी। बस, हां कहने की देर थी और बसु राष्ट्रपति भवन में प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे होते। बसु इसके लिए तैयार थे। लेकिन पोलितब्यूरो ने मना कर दिया। तब अगर उनकी पार्टी ने रोड़ा नहीं अटकाया होता तो आज इतिहास में एक और अध्याय जुड़ गया होता। सरकार का मुखिया नहीं बन पाने का मलाल बसु को जीवन भर कटोटता रहा। इसलिए बाद में अपनी जीवनी में उन्होंने इसे एक ऐतिहासिक भूल करार दिया।
वर्ष 2000 के पहले भी उन्होंने कई बार मुख्यमंत्री का पद छोड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन पार्टी के अनुरोध पर वे बने रहे। एक बार तो तत्कालीन महासचिव सुरजीत सिंह ने उको यह कह कर मना लिया कि आपके हटते ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा। उन दिनों बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू होने की अटकलें तेज थीं। राज्य की कानून व व्यवस्था की स्थिति पर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और बसु के बीच बाकायदा पत्र युद्ध छिड़ा था। तब तो वे मान गए। लेकिन उसके कोई दो महीने बाद ही उन्होंने पार्टी से सलाह-मशविरे के बाद सरकार से संन्यास का एलान कर दिया।
बसु ने बंगाल में लंबे अरसे तक राज किया। इसलिए उनकी बैलेंस शीट में उपलब्धियों के साथ नाकामियों का होना भी स्वाभाविक है। लेकिन अपनी तमाम खूबियों और खामियं के बावजूद ज्योति बसु अपने जीते-जी ही किंवदंती बन गए थे। वे आखिरी दम तक मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर पूरी शिद्दत से चलते हुए सिर्फ माकपा ही नहीं, ब्लकि पूरे वाममोर्चा के मसीहा और संरक्षक बने रहे।

Friday, January 8, 2010

इसलिए चुप थी कलम

बीते दो महीने मुश्किल तो नहीं लेकिन काफी व्यस्त रहे. पहले लंबी छुट्टी में विभिन्न जगहों की सैर. कुछ निजी तो कुछ पारिवारिक जिम्मेवारियां. उसके बाद लौटने पर दफ्तर में काम की व्यस्तता. इसके अलावा कुछ और जिम्मेवारियां और मजबूरियां. कुल मिला कर इसीलिए ब्लाग लेखन नहीं हो सका. अब नए साल में फिर नियमित लिखने की सोच रहा हूं. इन दो महीनों के दौरान भी बहुत कुछ हुआ. कभी फुर्सत में उन पर भी लिखूंगा. फिलहाल तो नए साल की खुमारी और शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के बाद बेटी की परीक्षा की तैयारियां और ऐसे ही छोटे-बड़े कई मुद्दे सामने हैं.
हाल में कुछ नए दोस्त मिले. पुराने दोस्त तो अब दोस्त नहीं रहे. मेरी तरह उनकी भी कामकाज की व्यस्तताएं होंगी. अब उनमें से कुछ ही याद करते हैं. बाकी लोग संपादक या उसके बराबर हो गए हैं. बड़े शहरों में. कुछ ऐसे भी हैं जो सिर्फ काम पड़ने पर याद करते हैं. मैं चाह कर भी वैसा नहीं हो पाता. कुछ मित्र, परिचित ऐसे हैं जिनसे लगातार संपर्क में रहता हूं. इसलिए नहीं कि उनसे कोई काम पड़ सकता है. बल्कि इसलिए इतने लंबे करियर में कहीं न कहीं साथ काम किया था. कुछ अच्छी यादें जुड़ी हैं. उनको ताजा करने के लिए उनसे मेल और फोन से संपर्क रहता है.
कई लोगों से साल में एकाध बार नए साल या दीवाली के मौके पर ही बात हो पाती है. लेकिन इस दौर में महानगरीय जीवन और पत्रकारिता के पेशे की व्यस्तताओं के बीच यही क्या कम है.
बहरहाल, अब कोशिश करूंगा कि ब्लाग पर इतना लंबा अवकाश नहीं हो.