Sunday, August 7, 2011

सुंदरबन में तेज होती जिंदगी की जंग

प्रभाकर मणि तिवारी
(यह रिपोर्ट रविवार, 7 अगस्त को जनसत्ता रविवारी में कवर स्टोरी के तौर पर छपी है. वहीं से साभार.)
सुंदरबन यानी दुनिया में रायल बंगाल टाइगर का सबसे बड़ा घर। पश्चिम बंगाल और पड़ोसी बांग्लादेश की सीमा पर 4262 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह इलाका इन बाघों के अलावा अपनी जैविक विवधताओं के लिए भी मशहूर है। लेकिन अब यह सब खतरे में है। वैश्विक तापमान में बढ़ोती ने इस इलाके के वजूद पर सवालिया निशान लगा दिया है। लेकिन सबसे तात्कालिक समस्या तो इस इलाके में रहने वाले इंसानों और बाघों को बचाने की है। आबादी के बढ़ते दबाव और पर्यावरण असंतुलन की वजह से से सिकुड़ते जंगल के चलते सुंदरबन की विभिन्न बस्तियों में रहने वाले लोग और बाघ एक-दूसरे से रोजाना जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। कभी बाघ इंसानों का शिकार करते हैं तो कभी इंसान बाघों का। अब इस जंगल में इंसान ही नहीं बल्कि बाघ भी असुरक्षित हैं।
सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। बाघों को सुंदरबन का रक्षक कहा जाता है। लेकिन सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं व मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैंग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को की ओर से विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया।
सुंदरबन इलाके में बाघों के जंगल से निकल कर मानव बस्तियों में आने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अपने मैंग्रोव जंगल और रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरबन इलाका बाघ और इंसानों के बीच बढ़ते संघर्ष की वजह से लगातार सुर्खिर्यां बटोर रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सुंदरबन में हर साल औसतन 35 से 40 लोग बाघ के शिकार बन जाते हैं। लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि इलाके में हर साल अममून सौ से ज्यादा लोग बाघ के जबड़ों में जिंदगी गंवा देते हैं। दूर-दराज के इलाकों की घटनाओं के बारे में अक्सर पता ही नहीं चलता या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। हाल के दिनों में इंसानी बस्तियों पर बाघों के हमले की कम से कम एक दर्जन घटनाओं में छह लोग लोग मारे जा चुके हैं और इतने ही घायल हुए हैं। वन विभाग ने बीते हफ्ते बस्ती में घूमते एक बाघ को दबोचने में भी कामयाबी हासिल की है। इस कड़ी की ताजा घटना में बाघ के जबड़े में फंस कर एक और मछुआरे की मौत हो गई। इन घटनाओं ने वन विभाग के अधिकारियों और राज्य सरकार को चिंता में डाल दिया है। सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघों के हमले की ज्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी परमिट या मंजूरी के ही गहरे जंगल में घुसते हैं। इसलिए ऐसे मामलों की सही तादाद बताना मुश्किल है। वन विभाग की दलील है कि सुंदरबन का जो इलाका भारत की सीमा में है वहां रहने वाले बाघ आदमखोर नहीं हैं। लेकिन पड़ोसी बांग्लादेश में लगभग हर साल आने वाले तूफान के चलते उस पार से भी भोजन की तलाश में काफी बाघ इधर आ गए हैं। वे अक्सर जंगल से सटी बस्तियों में घुस जाते हैं या फिर जंगल में जाने वालों को घात लगा कर अपना शिकार बना लेते हैं।
वन विभाग ने इसके कारणों का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया है। शुरूआती जांच में यह तथ्य सामने आया है कि सुंदरवन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने, बाघों के चरने की जगह लगातार घटने और अपना पसंदीदा खाना नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। इनसे बचाव के फौरी राहत के तौर पर वन विभाग ने सुंदरबन में सौ हिरण छोड़े हैं। लेकिन इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही माना जा रहा है।
सुंदरबन विकास बोर्ड इस बात का पता लगाने पर जोर दे रहा है कि बाघ भोजन की कमी के चलते जंगल से बाहर निकल रहे हैं या अपनी प्रकृति में बदलाव की वजह से। बीते दो सालों में बाघों के इंसानी बस्तियों में घुसने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। सुंदरबन के बाघों की प्रकृति में भी बदलाव आ रहा है। अब वे निडर होकर बस्तियों में घुस कर इंसानों पर हमले कर रहे हैं।
सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता। उस अधिकारी का कहना है कि सुदरबन की इंसानी बस्तियों में रहने वाले लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए मूल रूप से जंगली लकड़ियों की कटाई पर ही निर्भर हैं। अक्सर जंगल में बाघ से मुठभेड़ होने पर वे लोग उसे अपने धारदार हथियारों से घायल कर देते हैं। ऐसे ही बाघ भोजन की तलाश में इंसानों पर हमला करते हैं। प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं वहां पानी का खारापन बीते एक दशक में 15 फीसद बढ़ गया है। इसलिए बाघ धीरे-धीरे जंगल के उत्तरी हिस्से में जाने लगे हैं जो इंसानी बस्तियों के करीब है।
सुंदरबन बायोरिजर्व के निदेशक प्रदीप व्यास कहते हैं कि हमारे लिए यह चिंता का विषय है। हम इसकी वजह का पता लगा रहे हैं। व्यास ने कहा कि बाघों को आसपास के वनों में प्रवेश से रोकने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं । वे बताते हैं कि बाघों के भोजन के लिए जंगल में हिरण छोड़े जा रहे हैं। राज्य वन्यजीव बोर्ड की सिफारिशों के तहत 200 हिरणों को सुंदरबन में मुक्त किया जायेगा । लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वे बीमारी से मुक्त हों । इस प्रक्रिया को पूरा होने में तीन से नौ महीने तक का समय लग सकता है । उन्होंने कहा कि वनकमिर्यों ने कुछ बाघों को पकड़ा है जो काफी कमजोर पाए गए हैं ।
उधर, वन्यजीवों से जुड़े एनजीओ ने चिंता जताई है कि बाघों के इन गांवों में भटकने से फिर से मानव-पशु संघर्ष हो सकता है। नेचर एनवायनर्मेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी के सचिव विश्वजीत रायचौधरी कहते हैं कि हालात काफी चिंताजनक है ।
बाघ और इंसानों के बीच लगातार तेज हो रही इस जंग का नतीजा दक्षिण 24-परगना जिले के आरामपुर गांव में अपनी पूरी कड़वाहट के साथ देखा जा सकता है। इस गांव में हर साल इतने लोग बाघ के शिकार हो जाते हैं कि उस गांव का नाम ही विधवापल्ली यानी विधवाओं का गांव हो गया है। सुंदरबन के गोसाबा द्वीप में स्थित आरामपुर गांव राजधानी कोलकाता से लगभग 90 किलोमीटर दूर जयनगर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। लेकिन इस आरामपुर गांव में विधवाओं की लगातार बढ़ती तादाद के चलते इसका नाम ही बदल कर विधवापल्ली या विधवाओं का गांव हो गया है। गांव में अठारह से लेकर साठ साल तक की महिला मतदाता हैं। लेकिन उनके मुकाबले पुरुष मतदाताओं की तादाद नहीं के बराबर है।
देश में यह शायद अकेली ऐसी जगह है, जहां हर दो चुनाव के बीच पुरुष मतदाताओं की तादाद बढ़ने की बजाय घट जाती है। ज्यादातर मामलों में तो गांव के युवक मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने से पहले ही बाघ के पेट में समा जाते हैं। सुंदरबन के इस गांव में रहने वाले मछली पकड़ने के अलावा जंगल से मधु एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। जंगल में रायल बंगाल टाइगर के खतरे से बाकिफ होने के बावजूद पेट की आग बुझाने के लिए वे रोज जंगल में जाते हैं।
गांव की ज्यादातर विधवाओं के पास अपनी जमीन नहीं है। अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए उन्हें काफी दूर जाकर पैसे वाले लोगों के लोगों के घरों और खेतों में काम करना पड़ता है। गांव के बच्चों का बचपन भी उसे छिन गया है। वे छोटी उम्र से ही दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं और बड़े होने पर जंगल में जाते हैं।
आजादी से पहले विधवापल्ली गांव का कोई वजूद नहीं था। लेकिन विभाजन के बाद पारंपरिक रूप से मछुआरे, लकड़हारे और मधु एकत्र करने वाले यहां धीरे-धीरे आ बसे। साल 1950 तक यहां की आबादी ज्यादा नहीं थी। बाद में गांव के पुरुष धीरे-धीरे बाघ का शिकार बनते गए और गांव में या तो विधवाएं बच गईं या फिर उनके दुधमुंहे बच्चे। सामाजिक बायकाट की चलते धीरे-धीरे सुंदरबन इलाके के दूसरे गांवों की विधवाएं भी विधवापल्ली में आ कर बसने लगीं। इस समय गांव में लगभग सवा दो सौ घर हैं। लेकिन इनमें से एक भी घर ऐसा नहीं है जहां बाघ के जबड़ों में सुहाग खोने वाली कोई विधवा नहीं हो। यानी सुदंरबन के बाघों ने इलाके में विधवाओं का एक पूरा गांव ही बसा दिया है।
गांव की पार्वर्ती मंडल के पति को बीते साल ही जंगल में बाघ ने मार दिया। वह कहती है कि यह तो विधवाओं का गांव है। हमें न तो सरकार से कोई सहायता मिलती है और न ही कोई नेता हमारा दर्द बांटने आता है। वह आरोप लगाती है कि चुनाव के मौके पर तमाम राजनीतिक पार्टियां हमदर्दी का नाटक करती हैं। लेकिन चुनाव बीतते ही उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। गांव के एक बुजुर्ग मोहम्मद शफीकुल के तो तीनों बेटों को बाघ ने मार दिया। अब अपने छोटे-छोटे पोते-पोतियों के साथ दिन काट रहे शफीकुल कहते हैं कि यहां मौत ही हमारी नियति है। घर में बैठें तो भूख से मर जाएंगे और जंगल में जाएं तो बाघ हमें नहीं छोड़ेगा। गांव के न जाने कितने ही मर्द उनका शिकार हो चुके हैं।
सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंजर्वेशन लैंडस्केप आॅफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी तादाद की सही जानकारी और बाघों व मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ते टकराव की वजहों का पता करना है। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है।
इलाके में ज्यादातर हमले अप्रैल व मई में हुए हैं। यह मैंग्रोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं। लेकिन बाघों के लिए यही प्रजनन का सीजन होता है। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों व गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।
सुंदरबन के बाघों को बेहद खूंखार माना जाता है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूंखार व्यवहार का कारण है। सरकार हर साल लगभघ 40 लोगों को जंगल से शहद एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट देती है। लेकिन पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों में वन उत्पादों को एकत्र करने व मछली पकड़ने जाते हैं।
अब इस इलाके में पर्यावरण असंतुलन के चलते बाघ ही नहीं, बल्कि इंसानों का वजूद भी खतरे में पड़ गया है। यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में शुमार सुंदरबन में देखने के लिए बहुत कुछ है। रायल बंगाल बाघ, जैविक और प्राकृतिक विविधता और सुंदरी पेड़ों का सबसे बड़ा जंगल यानी मैंग्रोव फॉरेस्ट। लेकिन अब इसमें एक और चीज जुड़ गई है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कुप्रभाव देखना हो तो सुंदरबन एक आदर्श जगह है। बांग्लादेश की सीमा से सटा यह इलाका दुनिया में मैंग्रोव जंगल और अपनी जैविक व पर्यावरण विविधताओं के लिए मशहूर है। लेकिन बंगाल की खाड़ी के लगातार बढ़ते जलस्तर ने इसके अस्तित्व पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पर्यावरण में तेजी से होने वाले बदलावों के चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण इस जंगल और इलाके में जहां-तहां बिखरे द्वीपों पर संकट मंडराने लगा है। इन प्राकृतिक द्वीपों के साथ यहां रहने वाली आबादी भी खतरे में है। डूबने के डर से इलाके से बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। वैसे, तो पहले भी समय-समय पर सुंदरबन के द्वीपों के पानी में समाने पर चिंताएं जताई जा रहीं थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी पर्यावरण रिपोर्ट के बाद इसकी गंभीरता खुल कर सामने आ गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो सुंदरबन जल्दी ही भारत के नक्शे से मिट जाएगा।
इस क्षेत्र के दो द्वीप पानी में डूब चुके हैं। लोहाचारा नामक एक द्वीप पानी में समा चुका है। घोड़ामारा द्वीप भी धीरे-धीरे पानी में समा रहा है। अब कम से कम और एक दर्जन द्वीपों पर यही खतरा मंडरा रहा है। इनमें वह सागरद्वीप भी शामिल है जहां सदियों से मशहूर गंगासागर मेला आयोजित होता रहा है। उन द्वीपों में लगभग 70 हजार की आबादी रहती है।
कोलकाता में यादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्री अध्ययन स्कूल के निदेशक सुगत हाजरा कहते हैं कि यह पर्यावरण में हो रहे बदलावों का नतीजा है। लोहाचारा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब गए हैं। अब सेटेलाइट से ली जाने वाली तस्वीरों में इनको नहीं देखा जा सकता। ग्लोबल वार्मिंग और लगातार जारी भूमि कटाव के कारण इलाके के कम से कम 12 और द्वीपों के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है। हाजरा कहते हैं कि समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर व प्रशासनिक उदासीनता के कारण सुंदरबन का 15 फीसदी हिस्सा वर्ष 2020 तक समुद्र में समा जाएगा। वे बताते हैं कि यहां समुद्र का जलस्तर 3.14 मिमी सालाना की दर से बढ़ रहा है। इससे कम से कम 12 द्वीपों का वजूद संकट में है।
सुंदरबन इलाके में कुल 102 द्वीप हैं। उनमें से 54 द्वीपों पर आबादी है। मछली मारना और खेती करना ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं। इलाके में यहां रोजगार का कोई अवसर नहीं है। इसके साथ बढ़ती आबादी और बाहरी लोगों के यहां की जमीन पर कब्जा कर होटल खोलने के कारण दबाव और बढ़ा है। सुंदरबन के गड़बड़ाते पर्यावरण संतुलन पर व्यापक शोध करने वाले आर. मित्र कहते हैं कि इस मुहाने के द्वीप धीरे-धीरे समुद्र में समाते जा रहे हैं। अगले दशक के दौरान हजारों लोग पर्यावरण के शरणार्थी बन जाएंगे।
राज्य के अतिरिक्त प्रमुख वन संरक्षक अतनु राहा कहते हैं कि आबादी के दबाव ने सुंदरबन के जंगलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इलाके के गावों में रहने वाले लोगों के चलते जंगल पर काफी दबाव है। इसे बचाने के लिए एक ठोस पहल की जरूरत है ताकि जंगल के साथ-साथ वहां रहने वाले लोगों को भी बचाया जा सके। हमने इलाके में बड़ी नहरें व तालाब खुदवाने का फैसला किया है ताकि बारिश का पानी संरक्षित किया जा सके। इस पानी से इलाके में जाड़ों के मौसम में दूसरी फसलें उगाई जा सकती हैं। इससे जंगल पर दबाव कम होगा।
सरकार ने कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर सुंदरबन इलाके के लोगों में जागरूकता पैदा करने की भी योजना बनाई है। लेकिन सुंदरबन को बचाने की दिशा में होने वाले उपाय उस पर मंडराते खतरे के मुकाबले पर्याप्त नहीं हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि अगर इस दिशा में ठोस पहल नहीं की गई तो जल्दी ही सुंदरबन का नाम नक्शे से मिट जाएगा। तब यहां न तो बाघ बचेंगे और न ही इंसान। आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से कई बस्तियां जंगल से एकदम सटी हैं। बाघ अक्सर उनमें घुस जाते हैं। जिंदगी की इस बढ़ती जंग ने बाघों को उन गांव वालों के लिए राक्षस बना दिया है जो कभी उसी बाघ देवता की पूजा कर जंगल में जाते थे।