Sunday, August 30, 2009

बंगाल में मुद्दा बने महापुरुष


नेताजी सुभाष चंद्र बोस, कवि नजरूल, मास्टर सूर्यसेन और उत्तम कुमार। पश्चिम बंगाल में लंबे अरसे से आम लोगों के नायक रहे यह तमाम महापुरुष फिलहाल राज्य में राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बन गए हैं। दरअसल, मेट्रो रेलवे के विस्तार के बाद रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने तमाम स्टेशनों के नाम इन महापुरुषों के नाम पर रखने का जो फैसला किया है उस पर विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी ममता के इस फैसले को एक तमाशा करार देते हुए कहा है कि महापुरुषों के साथ ऐसा मजाक ठीक नहीं है। राज्य सरकार ने फिलहाल इन नामों के पंजीकरण से इंकार कर दिया है।
पहले मेट्रो ट्रेन उत्तर कोलकाता के दमदम से लेकर दक्षिण में टालीगंज तक चलती थी। बीते हफ्ते विस्तार के बाद उसमें चार नए स्टेशन जोड़े गए हैं जिनके नाम क्रमशः नेताजी, मास्टरदा सूर्यसेन, गीतांजलि व कवि नजरूल हैं। इसके अलावा टालीगंज का नाम बदल कर महानायक उत्तम कुमार कर दिया गया है। उद्घाटन समारोह के बाद मेट्रो रेलवे अधिकारियों ने इन नामों के पंजीकरण के लिए मुख्य सचिव अशोक मोहन चक्रवर्ती को एक पत्र लिखा है। लेकिन सरकार इसे मान्यता देने के मूड में नहीं है। परिवहन मंत्री रंजीत कुंडू कहते हैं कि हमने उचित मंच पर इस फैसले का विरोध किया है। हम इनका पंजीकरण नहीं करेंगे। हालांकि यह पंजीकरण महज एक औपचारिकता है। लेकिन इसी मुद्दे पर माकपा और तृणमूल कांग्रेस ने एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें खींच रखी हैं।
मेट्रो रेलवे के विस्तार के मौके पर आयोजित समारोह में मुख्यमंत्री को नहीं बुलाने से नाराज माकपा और राज्य सरकार ने रेल मंत्रालय के खिलाफ कमर कस ली है। वैसे, ममता का दावा है कि उन्होंने मुख्यमंत्री और परिवहन मंत्री को समारोह में बुलाया था। लेकिन उनलोगों ने इसमें आने की बजाय महापुरुषों को मुद्दा बना दिया है। दूसरी ओर, परिवहन मंत्री रंजीत कुंडू कहते हैं कि राज्य सरकार ने इस परियोजना का एक तिहाई खर्च उठाया है। लेकिन मुख्यमंत्री को नहीं बुलाया गया। मुझे भी आखिरी वक्त पर एक सिपाही के हाथों न्योता भेजा गया। इसलिए मैंने समारोह में नहीं जाने का फैसला किया।
मुख्यमंत्री भट्टाचार्य भी रेलवे के इस तमाशे के लिए रेल मंत्री की खिंचाई कर चुके हैं। भट्टाचार्य ने कहा है कि क्या यह कोई तमाशा है जो कवि नजरूल इस्लाम, नेताजी और मास्टरदा सूर्यसेन जैसी महान हस्तियों की तस्वीरें रेलवे के कार्यक्रम में प्रदर्शित की गईं। उन्होंने कहा कि वामपंथी स्वाधीनता आंदोलन की महान विरासत के दुरुपयोग के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा कि यह कृत्य महान क्रांतिकारियों के प्रति अनादर दर्शाता है। उन्होंने सवाल किया है कि रेल मंत्रालय आखिर क्या कर रहा है? वह रोजाना एक नई रेलगाड़ी चला रहा है। यह क्या है? क्या वे सोचते हैं कि लोगों ने अपनी आंखें बंद रखी हैं? रेलवे की क्या स्थिति है? रेलवे की हालत बेहद खराब है।
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहने के दौरान केबिनेट ने एक प्रस्ताव पारित कर रेलवे स्टेशनों के नाम महापुरुषों के नाम पर रखने पर पाबंदी लगा दी थी। उक्त अधिकारी कहते हैं कि ममता का फैसला कानूनन सही नहीं है। स्टेशनों के नामकरण के लिए संबंधित राज्य सरकार की सहमति जरूरी है। लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं किया गया।
दूसरी ओर, रेल मंत्री ममता बनर्जी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा है कि यह काफी आश्चर्य की बात है कि महात्मा गांधी को ब्रिटिश एजंट और स्वामी विवेकानंद को प्रतिक्रियावादी कहने वाली माकपा अब महापुरुषों के नामों के कथित दुरुपयोग पर आंसू बहा रही है। ऐसे महापुरुषों से समाज को प्रेरणा मिलती है और हम उनका सम्मान करते रहेंगे। ममता का आरोप है कि राज्य सरकार व माकपा अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए हाथ धोकर रेलवे मंत्रालय के पीछे पड़ गई है। माकपा इसके लिए तमाम हथियार आजमा रही है। लेकिन उसे अब तक अपने अभियान में कोई कामयाबी नहीं मिल सकी है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस और माकपा लोकसभा चुनावों के बाद से ही एक-दूसरे को पछाड़ने का मौका तलाशती रही हैं। राज्य में राजनीतिक हिंसा, राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी की टिप्पणी पर होने वाले विवाद और मंगलकोट की हिंसा के बाद अभ राज्य के महापुरुष इन दोनों के बीच राजनीतिक बर्चस्व की लड़ाई में पिस रहे हैं। फिलहाल इस लड़ाई के थमने के आसार नहीं नजर आ रहे हैं।

Friday, August 28, 2009

कोलकाता में हिंदी पत्रकारिता

उदंत मार्तंड से अब तक कोलकाता की हिंदी पत्रकारिता ने एक लंबा सफर तय किया है। इस दौरान हुगली में ढेर सारा पानी बह चुका है और इसी के साथ पत्रकारिता ने भी कई बदलाव देखे हैं। अब तकनीक के लिहाज से यह बेहतर जरूर हुई है। लेकिन कंटेंट और क्वालिटी के लिहाज से इसमें लगातार गिरावट आई है। बीते कुछ वर्षों के दौरान महानगर से निकलने वाले हिंदी अखबारों की तादाद तेजी से बढ़ी है। लेकिन तमाम अखबार बंधी-बंधाई लीक पर ही चलने लगे हैं। कोई अठारह साल पहले जनसत्ता ने कोलकाता की हिंदी पत्रकारिता में कई नए आयाम खोले और दिखाए थे। तब देश भर से चुन-चुन कर लोग इसमें रखे गए थे। अब इस अखबार से निकले लोग तमाम संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर काम कर रहे हैं। उस समसय जनसत्ता के प्रकाशन के बाद जमे-जमाए स्थानीय अखबारों को भी खुद को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। जनसत्ता के कोलकाता आने से पहले स्थानीय अखबारों में जिस क्लिष्ट भाषा का इस्तेमाल होता होता था वह आज सार्वजनिक क्षेत्र के हिंदी अधिकारियों की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी की तरह ही थी। आम लोग इन अखबारों के जरिए इसी को शुद्ध हिंदी मानते थे। संस्कृत और हिंदी के घालमेल से बनी वह भाषा शुद्ध तो थी। लेकिन पाठकों के सिर के ऊपर से गुजर जाती थी। तब के अखबारों में फोटो परिचय में छपता था-चित्र में दाएं से प्रथम परिलक्षित हैं फलां और द्वितीय हैं फलां....। यह तो एक मिसाल है। ऐसे ही न जाने कितने गूढ़ शब्दों और मुहावरों को भी इन अखबारों ने जीवित रखा था जो साठ-सत्तर के दशक में ही आम बोलचाल से बाहर हो चुके थे।
जैसा तू बोलता है वैसा तू लिख...की तर्ज पर खबरों में बोलचाल की भाषा और शब्दों के इस्तेमाल के लिए पूरे देश में अपनी खास पहचान बना चुके जनसत्ता के कोलकाता आने के बाद कोलकाता के हिंदी हलके में तूफान नहीं तो एक क्रांति जरूर आ गई थी। इसकी देखादेखी दूसरे अखबारों ने भी संस्कृत का मुलम्मा चढ़े शब्दों से परहेज का सिलसिला शुरू किया। कोलकाता में अखबारों की भाषा और कुछ हद तक खबरों की गुणवत्ता सुधारने में जनसत्ता की अहम भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता।
उस समय दूर से खबरें भेजने का काम फैक्स पर ही निर्भर था। हर जगह फैक्स भी ठीक से काम नहीं करता था। इसके अलावा रोमन में लिख कर टेलीग्राम भेजने या फिर ट्रंक काल के जरिए गला फाड़ कर चिल्लाने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैंने तीन बीघा आंदोलन, गोरखालैंड आंदोलन और उत्तर बंगाल की बाढ़ की न जाने कितनी ही खबरें टेलीग्राम से भेजीं या ट्रंक काल पर लिखवाई होंगी। मोबाइल तो बहुत दूर था, ई-मेल का भी चलन नहीं था। अब तो मिनटों में ई-मेल के जरिए खबरें भेजी जाती हैं। उस समय अखबारों में कंपोजिटर का पद अनिवार्य था। हाथ से लिखी कापियों को कंपोज करने वाले कंपोजिटर अखबार का महत्वपूर्ण अंग थे। अब तो ज्यादातर अखबारों में यह पद खत्म हो गया है। अब रिपोर्टर अपनी कापी खुद ही कंपोज कर फाइल कर देते हैं।
तमाम आधुनिक तकनीक के बावजूद कोलकाता के हिंदी अखबारों में कंटेंट और क्वालिटी में अगर लगातार गिरावट आई है तो इसकी कई वजहें गिनाई जा सकती हैं। जनसत्ता ने पूरे देश से प्रतिभावान पत्रकारों को कोलकाता में जुटाया था। आनंद बाजार समूह की पत्रिका रविवार के बाद यह दूसरा ऐसा प्रकाशन था जिसके लिए पूरे देश से युवा और अनुभवी पत्रकार जॉब चार्नक के बसाए इस शहर में आए थे। लेकिन उसके बाद यहां पांव फैलाने वाले तमाम अखबारों ने कम पैसों पर नौसिखिए लोगों को रख कर काम चलाने की जो परपंरा शुरू की थी वह अब धीरे-धीरे और समृद्ध हो रही है। इन तमाम अखबारों में कोई दर्जन भर ऐसे चेहरे हैं जो इस अखबार से उस अखबार में डोलते मिल जाते हैं। हिंदी लिखने-पढ़ने से दूर तक उनका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे तमाम पत्रकार प्रेस क्लब में जाम छलकाते हुए इस गलत धारणा के शिकार हो गए हैं कि प्रेस क्लब में हर शाम शराब के जाम नहीं छलकाने वाला पत्रकार हो ही नहीं सकता। नतीजतन इन हिंदी अखबारों के पत्रकार लिखना-पढ़ना बाद में सीखते हैं, बोतल साफ करने की कला में पहले पारंगत हो जाते हैं। सभी ऐसे नहीं हैं, लेकिन बहुमत ऐसे लोगों का ही है।
इसके अलावा पैसे लेकर खबरें छापने की परंपरा से भी यहां के ज्यादातर अखबार अछूते नहीं हैं। कोई प्रेस रिलीज छापने के पैसे लेता है तो कोई किसी समारोह की तस्वीरें छापने के। भजन-कीर्तन और बाबाओं के प्रवचन की भरमार देख कर किसी को शक हो सकता है कि कोलकाता के ज्यादातर हिंदी अखबार धार्मिक प्रवृत्ति के हैं या फिर समाजसेवा में उनकी भारी रूचि है। लेकिन ऐसा नहीं है। इन खबरों की सबसे बड़ी वजह है पैसा। जितना भारी प्रसाद, उतनी ही बड़ी कवरेज। हालांकि कुछ अखबारों का दावा है कि यह सर्कुलेश बढ़ाने और मार्केटिंग की रणनीति का हिस्सा है। लेकिन सच क्या है, यह सबको मालूम है।
स्थानीय अखबारों में प्रबंधन अपनी अंटी ढीली नहीं करना चाहता। उनको कंटेंट या खबरों की क्वालिटी की कोई चिंता नहीं है। स्थानीय पत्रकारों को पीने-पिलाने से ही फुर्सत नहीं है। जो नहीं पीते, वे भी बेहतर लिखने-पढ़ने में सक्षम हों, यह जरूरी नहीं। प्रबंधन अव्वल तो ज्यादा पैसे खर्च कर बाहर से पत्रकारों को बुलाना नहीं चाहते और बुलाते भी हैं तो अखबारों के माहौल से ऊबकर वैसे लोग जल्दी ही हावड़ा या सियालदह से वापसी की ट्रेन पकड़ लेते हैं। ऐसे में पत्रकारों की स्थानीय चौकड़ी की बन आई है। कई ऐसे पत्रकार भी यहां मिल जाएंगे जो लगभग सभी अखबारों में काम कर चुके हैं। इनके दफ्तर तो हर छह महीने बाद बदल जाते हैं। एक चीज जो नहीं बदलती वह है प्रेस क्लब में सूरज ढलने के बाद हर शाम होने वाली बैठकें। ऐसे में अब अखबारों के स्तर में सुधार की कोई गुंजाइश कम ही बची है।
कुल मिला कर उदंत मार्तंड की इस धरती पर हिंदी पत्रकारिता अब अपने सबसे बदहाल दौर से गुजर रही है।

Thursday, August 27, 2009

पहाड़ी पगडंडी में बदली अलग राज्य की राह

(इधर कोई एक हफ्ते कोलकाता से बाहर रहा। इस दौरान कंप्यूटर से संबंध नहीं था। सो, ब्लॉग पर भी वीरानी छाई थी। इस एक हफ्ते कहां रहा, क्या किया, इसकी चर्चा कभी बाद में। फिलहाल तो जसवंत सिंह के निष्कासन और भाजपा में आए भूकंप के झटके पहाड़ियों की रानी कही जाने वाली दार्जिलिंग की वादियों में भी लग रहे हैं। इसी पर यह रिपोर्ट-प्रभाकर मणि तिवारी)
पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग की पहाड़ियों में बरसों से चलने वाले अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में बरसों से चल रहे आंदोलन की राह अब पहाड़ी पगडंडियों की तरह ही सर्पीली हो गई है। पूर्व भाजपा नेता और स्थानीय सांसद जसवंत सिंह को पार्टी से निकाले जाने और भाजपा में लगातार बिखराव के चलते इस आंदोलन की धार अचानक कुंद होने लगी है। जसवंत को पार्टी से निकाले जाने पर आंदोलन की अगुवाई करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं ने कहा था कि उनका गठजोड़ भाजपा से है, जसवंत से नहीं। लेकिन अब पार्टी जिस तरह तेजी से बिखर रही है उससे स्थानीय लोगों की आंखों में अंगड़ाई लेता अलग राज्य का सपना भी मुरझाने लगा है। इसके साथ ही मोर्चा के नेता अब इस असमंजस से जूझ रहे हैं कि वे जसवंत के साथ संबंध रखें या भाजपा के। मोर्चा के नेता भले असमंजस में हों, आम लोगों को तो लगता है कि जसवंत का भाजपा से जाना इन पहाड़ियों के लिए एक ऐसा भूस्खलन है जिसने अलग राज्य के रास्ते सामयिक तौर पर तो बंद कर ही दिए हैं।
जसवंत को पार्टी से निकाले जाने के बाद मोर्चा प्रमुख विमल गुरुंग उनसे कई बार फोन पर बातचीत कर चुके हैं। मोर्चा के दो नेता उनसे मुलाकात के बाद कल ही दिल्ली से यहां लौटे हैं। मोर्चा की केंद्रीय समिति के नेता अमर लामा कहते हैं कि हमारा गठजोड़ भाजपा से था। इसलिए हमने लोकसभा चुनाव में जसवंत सिंह का समर्थन किया। वे कहते हैं कि भाजपा ने उनकी जगह किसी और को भी यहां मैदान में उतारा होता तो हम उसका भी इसी तरह समर्थन करते। विमल गुरुंग ने फिलहाल इस मामले पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की है। वे कहते हैं कि हम दोनों यानी जसवंत और भाजपा से संबंध बनाए रखेंगे। गुरुंग भले दोनों से संबंध बनाए रखने की बात कहें, वे भी जानते हैं कि ऐसा संभव नहीं है। इसके अलावा अब भाजपा में जिस तेजी से बिखराव शुरू हुआ है उससे मोर्चा के नेताओं की नींद उड़ गई है। केंद्र सरकार की ओर से आयोजित तितरफा बैठक में गोरखा पर्वतीय परिषद अधिनियम रद्द कर जिस वैकल्पिक प्रशासनिक ढांचे की बात कही गई थी, उसे इन नेताओं ने अलग राज्य की दिशा में एक ठोस कदम करार दिया था। लेकिन उसके तुरंत बाद हुए जसवंत प्रकरण ने उनकी उम्मीदें धूमिल कर दी हैं।
अब निर्दलीय सांसद बन चुके जसवंत सिंह ने जल्दी ही अपनी कर्मभूमि दार्जिलिंग लौटने की बात कही है। मोर्चा के एक नेता बताते हैं कि जसवंत सिंह जल्दी ही यहां आएंगे। लेकिन आम लोगों को इसका भरोसा नहीं है। चौक बाजार इलाके में चाय की दुकान चलाने वाले हरका बहादुर छेत्री कहते हैं कि हमने इस उम्मीद के साथ जसवंत सिंह को वोट दिया था कि वे गोरखालैंड की स्थापना में सहायता करेंगे। लेकिन पहले तो केंद्र में भाजपा की सरकार ही नहीं बनी। अब जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। छेत्री कहते हैं कि मोर्चा के नेता अब भले जसवंत की बजाय भाजपा से गठजोड़ की बात कह कर लोगों को दिलासा दे रहे हों, अलग राज्य की राह आसान नहीं रही। भाजपा तो खुद ही अपने बिखरते कुनबे को बचाने के लिए जूझ रही है। ऐसे में उसे दार्जिलिंग में अलग राज्य का ख्याल कैसे आएगा। मॉल रोड स्थित एक होटल के मालिक सूरज थापा कहते हैं कि अब अलग राज्य का सपना टूटने लगा है। इस सपने को साकार करने के लिए इलाके के लोगों ने जसवंत सिंह को जो लाखों वोट दिए थे, वह लगता है कूड़ेदान में चला गया है।
जसवंत को निकाले जाने के साथ ही अब पहाड़ियों का माहौल बदल गया है। लोग कहते हैं कि जसवंत सिंह जब भाजपा में रहते कुछ खास नहीं कर पाए तो अब निर्दलीय होकर क्या करेंगे। लेकिन मोर्चा के नेताओं को अब भी जसवंत से उम्मीद है। मोर्चा प्रमुख गुरुंग कहते हैं कि हम जल्दी ही एक रैली में अपने रुख का खुलासा करेंगे।
वैसे, जसवंत की जिस किताब के चलते उनको पार्टी से जाना पड़ा, उसके जरिए उन्होंने दार्जिलिंग के लोगों का कर्ज कुछ हद तक जरूर चुका दिया है। उस पुस्तक के पिछले कवर पर जसवंत के परिचय में लिखा है कि वे दार्जिलिंग पर्वतीय राज्य से लोकसभा के लिए चुने गए हैं। पुस्तक के प्रकाशक का कहना है कि ऐसा गलती से हुआ है। लेकिन मोर्चा के नेता कहते हैं कि यह इस बात का सबूत है कि जसवंत सिंह इन पहाड़ियों को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के प्रति कितने गंभीर हैं।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब जसवंत और गोरखा मोर्चा दोनों की आगे की राह कठिन हो गई है। अब जसवंत के दार्जिलिंग दौरे के बाद ही परिस्थिति साफ होने की उम्मीद है। जसवंत अपना राजनीतिक करियर दार्जिलिंग से ही आगे बढ़ाएंगे मोर्चा उनसे नाता रखेगा या भाजपा से अलग राज्य की मांग में चलने वाला आंदोलन अब किस दिशा में जाएगा इन सवालों का जवाब अब आने वाले दिनों में ही मिलेगा। तब तक तो अलग राज्य के सपने पर भी अनिश्चयता का कोहरा छा गया है। ठीक वैसा ही घना कोहरा जो बरसात के इस सीजन में इन पहाड़ियों की पहचान बन जाता है। जनसत्ता से

Tuesday, August 18, 2009

बुद्धदेव सरकार के लिए नासूर बन गया है लालगढ़

पश्चिम मेदिनीपुर जिले का माओवाद प्रभावित लालगढ़ बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाई वाली राज्य की वाममोर्चा सरकार के लिए धीरे-धीरे एक ऐसे नासूर में बदल गया है जो अक्सर टीसता रहता है। दो महीने से जारी लालगढ़ अभियान के बावजूद सुरक्षा बलों को वहां खास कामयाबी नहीं मिल सकी है। मजबूरन बीते हफ्ते सरकार ने भी मान लिया कि इस अभियान को कामयाबी नहीं मिल सकी है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए जहां केंद्र से पड़ोसी झारखंड में भी लालगढ़ की तर्ज पर माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाने की मांग की है, वहीं वाममोर्चा के दूसरे घटक दल इस समस्या के लिए सरकार और माकपा की छीछालेदर कर रहे हैं।
लालगढ़ में बीते दो महीने से केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्य पुलिस का अभियान जारी रहने के बावजूद इलाके में माओवाद की समस्या सुलझने की बजाय और उलझती ही जा रही है। अब तक न तो कोई बड़ा नेता पुलिस की पकड़ में आया है और न ही इलाके में सामान्य स्थिति बहाल हो सकी है। इसलिए सरकार अब माओवादियों से निपटने के लिए रणनीति बदलने पर विचार कर रही है। इसी कवायद के तहत मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बीते दिनों अपने मेदिनीपुर दौरे के दौरान पुलिस व प्रशासन के तमाम आला अधिकारियों के साथ बैठक में भावी रणनीति पर विचार किया। लेकिन अब तक नई रणनीति पर अमल नहीं शुरू हो सका है। उससे पहले ही सोमवार को लालगढ़ एक बार फिर अशांत हो गया। वहां माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच घंटों हुई गोलाबारी में पुलिस का एक जवान घायल हो गया। वैसे, सरकार इससे पहले ही मान चुकी है कि लालगढ़ अभियान कामयाब नहीं रहा है। इलाके में माकना नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याओं का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। इलाके में विकास के काम ठप हैं। इससे लोगों की नाराजगी और बढ़ रही है। सरकार की मुश्किल यह है कि हालात सामान्य हुए बिना इलाके में विकास परियोजनाएं शुरू नहीं हो सकती।
राज्य सरकार का असली संकट है केंद्रीय बलों की मौजूदगी। गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन मानते हैं कि केंद्रीय बल हमेशा के लिए लालगढ़ में नहीं रह सकते। राज्य सरकार ने केंद्र से उनको कम से कम और तीन महीने तक लालगढ़ में तैनात करने की गुहार की है। लेकिन मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए तीन महीनों में भी समस्या के सुलझने के आसार कम ही हैं। सरकार को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि जब केंद्रीय बलों के रहते यह स्थिति है तो उनके लौट जाने पर क्या होगा।
दूसरी ओर, वाममोर्चा की बैठक में सरकार व माकपा को सहयोगी दलों की आलोचना से जूझना पड़ रहा है। बीते सप्ताह हुई बैठक में घटक दलों ने सरकार से इस मुद्दे पर सफाई मांगते हुए कहा कि वह लालगढ़ अभियान की नाकामी की वजह बताए। आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने इससे पहले माओवादियों पर पाबंदी लगाने का विरोध करते हुए इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर हल करने की वकालत की थी। फारवर्ड ब्लाक के एक नेता कहते हैं कि हमने सरकार से लालगढ़ अभियान की प्रगति रिपोर्ट मांगी है। भारी तादाद में सुरक्षा बलों की मौजूदगी के बावजूद हत्याओं और अपहरण का सिलसिला थम नहीं रहा है। यह गहरी चिंता का विषय है। हम सरकार से जानना चाहते हैं कि वह माओवादियों से निपटने के लिए क्या रणनीति अपना रही है।
घटक दलों ने इस मामले पर मुख्यमंत्री के बयान की मांग की। मुख्यमंत्री उस बैठक में मौजूद नहीं थे। इसलिए अब इसी हफ्ते मोर्चा की बैठक दोबारा बुलाई जाएगी। उसमें बुद्धदेव भी मौजूद रहेंगे।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लालगढ़ की समस्या अब धीरे-धीरे नासूर बनती जा रही है। यह लंबे अरसे तक जब-तब रिसता ही रहेगा। किसी ठोस रणनीति के अभाव में सुरक्षा बल अंधेरे में ही ही तीर चला रहे हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में भी वहां हालात सामान्य होने की उम्मीद कम ही है। जनसत्ता से

खूबसूरती और कंडोम !

गर्म निरोधक के तौर पर इस्तेमाल होने वाले कंडोम का भला खूबसूरती के क्या रिश्ता है? यह सवाल सुन कर कोई भी अचरज में पड़ सकता है। लेकिन इसका जवाब जानने के लिए आपको भारत के पड़ोसी पर्वतीय देश भूटान की राजधानी थिम्पू जाना होगा। भूटान की महिलाएं अपने चेहरे की खूबसूरती बढ़ाने और आंखों के नीचे के स्याह घेरे को मिटाने के लिए इन दिनों धड़ल्ले से कंडोम का इस्तेमाल कर रही हैं। यही नहीं, कपड़े बुनने के लिए धागों को नरम बनाने के लिए भी कंडोम का ही इस्तेमाल हो रहा है।
राजधानी में दवाइयों की दुकान चलाने वाली कर्मा देम ने बताया कि महिलाएं उनके पास कंडोम खरीदने आ रही हैं। वे कहती हैं कि इससे न केवल आँखों के नीचे के काले घेरे मिटते हैं, बल्कि गर्भवती महिलाओं के चेहरे के दाग भी हट जाते हैं।
एक अन्य दवा विक्रेता कहते हैं कि महिलाओं का कहना है कि कंडोम रूखी त्वचा को निखारने और झाइयों को दूर करने में काम आता है। महिला खरीददारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। इसकी वजह उनका यह भरोसा है कि कंडोम कास्मेटिक के तौर पर भी फायदेमंद है।
लेकिन डाक्टर इस विचार से सहमत नहीं हैं। त्वचा रोग विशेषज्ञ पेमा रिंजिन कहती हैं कि कंडोम से त्वचा के कोमल होने के दावों में कोई दम नहीं है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो त्वचा में निखार लाए। कंडोम में उपयोग होने वाले लुब्रिकेंट सामान्य होते हैं। अगर उनका कास्मेटिक के तौर पर लाभ है तो उसे उसी तरह से बेचा जाना चाहिए।
एक अन्य चिकित्सक का कहना है कि शोध से पता चला है कि कंडोम लुब्रिकेंट में बेंजीन होता है, जो बहुत ज्यादा मात्रा में उपयोग करने पर हानिकारक साबित हो सकता है।
महिलाओं के अलावा भूटान के बुनकर भी कंडोम का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका दावा है कि यह धागों की सख्ती दूर करने में सहायक है। एक बुनकर का कहना है कि वह कंडोम को ठंड के दौरान उपयोग करता है। उस समय धागे बहुत सख्त हो जाते हैं और उनसे काम करना मुश्किल होता है।
सरकारी बुनाई केंद्र की एक कर्मचारी फुंतशो ने बताया कि उसने एक बार धागों पर कंडोम का उपयोग किया। उसने कहा कि वह आगे भी उसका उपयोग कर सकती है, अगर कोई उसे कंडोम ला दे तो। वह कहती है कि मैं बाहर जाकर उसे खरीद नहीं सकती। मैं दवा विक्रेता को कैसे बताउँगी कि मुझे उसका क्या उपयोग करना है,कोई मेरा विश्वास नहीं करेगा। कंडोम के लुब्रिकेंट को लूम पर लगाया जाता है ताकि धागे उस पर आसानी से चल सकें।

Monday, August 17, 2009

मंदी की मार से बेहाल हैं पूजा समितियां

आर्थिक मंदी और जरूरी वस्तुओँ की आसमान छूती कीमतों ने पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े त्योहार दुर्गापूजा के आयोजकों को मुश्किल में डाल दिया है। इस बार पूजा के लिए वसूली जाने वाली चंदे की रकम में गिरावट का अंदेशा तो है ही, प्रायजकों का भी टोटा पड़ रहा है। आयोजन समितियों का कहना है कि प्रायोजकों ने मंदी के चलते अपने बजट में भारी कटौती कर दी है। इसका असर आयोजन पर पड़ना लाजिमी है।
एक पूजा समिति के सदस्य देवाशीष पाल बताते हैं कि पूजा को अब महज पांच सप्ताह बचे हैं। लेकिन हमें अब तक ढंग का प्रायोजक नहीं मिला है। जिन प्रायोजकों से अभी तक बात हुई है उन्होंने इस बार काफी कम धन खर्च करने का प्रस्ताव दिया है। उल्लेखनीय है कि दुर्गा पूजा आयोजन समितियों को चंदे के अलावा पंडालों के आस पास होर्डिग बैनर तथा स्टालों के लिए प्रायोजकों पर निर्भर रहना पड़ता है। कई पूजा आयोजकों ने बताया अबकी दुर्गा पूजा आयोजन के लिए उनको चंदे में गिरावट का अंदेशा है। मंदी के लंबे दौर की वजह से कुम्हारटोली के मूर्तिकार भी आशंकित हैं कि इस साल उनको अपनी बनाई मूर्तियों के ठीक-ठाक दाम नहीं मिलेंगे। कुम्हारटोली शिल्पी संगठन के सचिव बाबुल पाल ने बताया कि इस बार छोटी मूर्तियों के लिये अधिक आर्डर मिल रहे हैं।
एक मूर्तिकार रमेश प्रमाणिक बताते हैं कि मूर्ति निर्माण के लिये जरूरी मिट्टी के अलावा, धान की भूसी, रस्सी, जूट, लकड़ी और सजावटी सामानों और रंग की कीमतों में बीते साल के मुकाबले लगभग 25 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन बजट में कटौती के चलते पूजा आयोजक मूर्तियों की अधिक कीमत देने को तैयार नहीं हैं।
जयपुर के हवा महल की तर्ज पर पंडाल बना रहे कालेज स्क्वायर के आयोजकों ने बजट के बारे में कोई भी खुलासा करने से मना कर दिया। बीते साल उनका बजट 25 लाख का था। समितियों का कहना है कि अबकी दुर्गा पूजा पर मंदी का असर साफ नजर आएगा। पंडाल का आकार तो घटेगा ही, इनकी साज-सज्जा पर होने वाले खर्च में भी भारी कटौती होगी। ध्यान रहे कि महानगर में दर्जनों ऐसे आयोजन होते हैं जिनका बजट पहले 50 लाख से एक करोड़ के बीच होता था। अकेले बिजली की सजावट पर ही लाखों रुपए खर्च किए जाते थे। कई आयोजन समितियों ने बीते साल के मुकाबले अपना बजट आधा कर दिया है।

Sunday, August 16, 2009

बंगाल से आईएएस अफसरों का पलायन

एक बहुत पुरानी कहावत है कि बुरे वक्त में परछाई भी साथ छोड़ देती है। माकपा की अगुवाई वाली वाममोर्चा सरकार को शायद अब इस कहावत का अर्थ समझ में आ रहा है। बीते लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा की किस्मत क्या बिगड़ी, राज्य के आईएएस अफसरों में डेपुटेशन पर केंद्र में जाने की होड़ मच गई है। जिन अफसरों के सहारे बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने राज्य में औद्योगिकीकरण की जोरदार मुहिम शुरू की थी, अब वे भी एक-एक कर बंगाल को लाल सलाम करने लगे हैं। दो महीने बाद भी यह सिलसिला थमता नहीं नजर आ रहा है। बीते कुछ हफ्तों के दौरान राज्य के कई काबिल आईएएस अफसरों के केंद्र की सेवा में जाने की वजह से प्रशासन तेजी से पंगु होता जा रहा है। बीते सप्ताह भी दो अफसर दिल्ली चले गए। अभी कोई एक दर्जन अफसर केंद्र में जाने के लिए हरी झंडी मिलने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे अफसरों की लगातार लंबी होती सूची ने राज्य सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं। इन अफसरों की दलील है कि दिल्ली में कामकाज के बेहतर मौके तो हैं ही, वहीं राजनीतिक हस्तक्षेप भी बहुत कम है।
ताजा मामला दो अफसरों का है। 1984 बैच के आईएएस अफसर आर.डी.मीना दिल्ली में बंगाल के अतिरिक्त आवासीय आयुक्त बनाए गए हैं। इसी तरह स्वास्थ्य विभाग में परियोजना निदेशक रहे अनूप अग्रवाल के केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री शिशिर अधिकारी का निजी सचिव बनने की चर्चा है। इससे पहले बंगाल काडर के तीन अफसर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के साथ जुड़ गए थे। तृणमूल कांग्रेस के मंत्री भी राज्य के आईएएस अफसरों को अपने साथ रखना चाहते हैं। कुछ अफसरों ने अपने गृह राज्य में तैनाती का आवेदन दे रखा है तो कुछ अध्ययन अवकाश पर जाना चाहते हैं।
बीते कुछ हफ्तों के दौरान जिन अफसरों ने केंद्र सरकार के तहत विभिन्न स्थानों पर तैनाती ली है उनमें राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव सुनील मित्र, वस्त्र आयुक्त मनोज पंत, विशेष सचिव (उद्योग) एस.किशोर, कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथारिटी (केएमडीए) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पी.आर.वाभिष्कर व शहरी विकास मंत्रालय में प्रमुख सचिव पी.के.प्रधान जैसे लोग शामिल हैं। वाणिज्य कर आयुक्त एच.के. द्विवेदी (1988) को राज्य का नया मुख्य चुनाव अधिकारी बनाए जाने की चर्चा है। इस पर पर रहे देवाशीष सेन को पश्चिम बंगाल बिजली विकास निगम का प्रबंध निदेशक बनाया गया है।
एख आईएएस अफसर कहते हैं कि इस राज्य में काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को भी पांच हजार रुपए खर्च करने के लिए ऊपर से मंजूरी लेनी पड़ती है। ऊपर से हर काम में राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। एक अन्य अधिकारी कहते हैं कि हर आईएएस अधिकारी केंद्र में काम करना चाहता है। किसी भी काडर का अधिकारी कुछ साल तक राज्य सरकार के साथ काम करने के बाद केंद्र में जाना चाहता है। अबकी अगर आईएएस अफसरों का पलायन एक मुद्दा बन गया है तो इसकी वजह यह है कि सरकार के करीबी समझे जाने वाले अधिकारी भी बाहर जाने के लिए बेताब हैं।
यहां हालात ऐसे बन गए हैं कि दिल्ली में केंद्र सरकार के साथ डेपुटेशन की अवधि पूरी कर लेने वाले कम से कम दो अधिकारी राज्य में नहीं लौटना चाहते। इनमें से एक ने तो दो साल के अध्ययन अवकाश का आवेदन दे रखा है ताकि बंगाल नहीं लौटना पड़े।
फिलहार राज्य सरकार ने एक-एक अफसरों को दो-दो-तीन-तीन विभागों का जिम्मा सौंप रखा है। लेकिन इससे समस्या और जटिल हो रही है। अफसरों के पलायन से सरकार की हरी झंडी का इंतजार कर रहीं विभिन्न परियोजनाएं लटक गई हैं। अब भी लगभग एक दर्जन अधिकारी किसी तरह केंद्र में जाने के जुगाड़ में हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में इस समस्या के और गंभीर होने का अंदेशा है।

Wednesday, August 12, 2009

अब गांधी से दो-दो हाथ कर रहे हैं वामपंथी


पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के सबसे बड़ी घटक माकपा ने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के खिलाफ लगता है अंतिम मोर्चा खोल दिया है। वैसे, तो गांधी के कार्यकाल के दौरान माकपा से उनका छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है। लेकिन अब उनके कार्यकाल के आखिरी दौर में माकपा ने उन पर अपनी संवैधानिक जिम्मेवारियों के निर्वाह में तटस्थ नहीं रहने का आरोप लगाते हुए उन पर हमले तेज कर दिए हैं। यह हमला इतना तीखा था कि राज्यपाल को मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु, जो वाममोर्चा के अध्यक्ष भी हैं, को बाकायदा पत्र लिख कर यह सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने अपने कामकाज में हमेशा तटस्थता बरती है। बावजूद उसके माकपा सोची-समझी रणनीति के तहत गांधी पर हमले का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। माकपा के बाद अब वाममोर्चा में उसकी सहयोगी भाकपा भी हमलावर मूड में आ गई है। भाकपा महासचिव ए.बी. वर्द्धन ने भी राज्यपाल को राजनीतिक हिंसा की पूरी जानकारी लेने के बाद ही कोई टिप्पणी करने की नसीहत दे डाली।
दरअसल, विधानसभा में विपक्ष के नेता पार्थ चटर्जी की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने बीते सप्ताह राज्यपाल से मिल कर राजनीतिक हिंसा रोकने पर उनसे हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था। उन्होंने राज्यपाल को बताया था कि राज्य में हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए केंद्रीय हस्तक्षेप जरूरी है। उसी दिन वाममोर्चा विधायकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भी राज्यपाल से मिल कर राज्य में हिंसा फैलाने के लिए तृणमूल सांसदों व केंद्रीय मंत्रियों की ओर से भड़काऊ बयान देने की शिकायत की। प्रतिनिधि मंडल ने राजनीतिक हिंसा के लिए विपक्षी दलों को जिम्मेवार ठहराया था। उसके बाद ही राज्यपाल ने एक बयान जारी राजनीतिक हिंसा पर चिंता जताई थी और इसे रोकने के लिए राजनीतिक दलों की चुप्पी का भी जिक्र किया था। उसके बाद पहले वाममोर्चा की ओर से एक बयान जारी कर राज्यपाल पर पक्षपात करने का आरोप लगाया गया और बाद में माकपा राज्य समिति के सदस्य श्यामल चक्रवर्ती ने सार्वजनिक तौर पर राज्यपाल की आलोचना की।
माकपा ने गांधी के बयान को एकतरफा व पक्षपातपूर्ण करार दिया है। उसने मंगलकोट में हिंसा और लाठीचार्ज के लिए तृणमूल को जिम्मेदार ठहराया है। माकपा के राज्य सचिव विमान बसु ने आरोप लगाया है कि तृणमूल कांग्रेस सुनियोजित तरीके से राज्य में हिंसा फैला रही है। मंगलकोट में बाहरी लोगों को ले जाकर पुलिस पर हमला किया गया। इस पर टिप्पणी करते हुए तृणमूल कांग्रेस के पार्थ चटर्जी ने कहा कि सच्चाई से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ही माकपा नेता राज्यपाल के खिलाफ बेसिर-पैर के आरोप लगा रहे हैं।
रविवार को माकपा राज्य कमेटी के सदस्य व सीटू के वरिष्ठ नेता श्यामल चक्रवर्ती ने राज्यपाल पर हमला बोला। उनका कहना था कि राजनीतिक हिंसा पर राज्यपाल हमें तो बहुत उपदेश देते हैं, लेकिन वे तृणमूल कांग्रेस की ओर से फैलाई जा रही हिंसा पर चुप्पी साध लेते हैं। चक्रवर्ती ने गांधी के रवैए को अनुचित करार दिया। नंदीग्राम से लेकर अब तक के गांधी के बयानों का हवाला देते हुए माकपा नेता ने कहा कि उनका रवैया हमेशा पक्षपातपूर्ण रहा है। वे वाम मोर्चा और माकपा को ही कठघरे में खड़ा करने में लगे हैं।
इन हमलों के बाद राज्यपाल ने मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और माकपा के राज्य सचिव विमान बसु को पत्र भेज कर साफ किया है कि संवैधानिक पद का निर्वाह तटस्थ रह कर ही किया जाता है। वे निष्पक्ष होकर ही अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी निभा रहे हैं। इसबीच, पार्टी के एक कार्यक्रम में शिरकत करने कोलकाता आए भाकपा महासचिव ए.बी. वर्द्धन ने कहा कि राज्यपाल को राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा की विस्तृत जानकारी हासिल करने के बाद ही कोई बयान जारी करना चाहिए। उनको कम से कम यह तो पता करना ही चाहिए कि हिंसा के लिए कौन जिम्मेवार है। उन्होंने कहा कि वाममोर्चा के प्रतिनिधिमंडल ने पहले ही राज्यपाल को बताया था कि तृणमूल नेता व कुछ केंद्रीय मंत्री के भड़काऊ बयानों से तनाव फैल रहा है। लेकिन गांधी ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की। वर्द्धन ने कहा कि राज्यपाल ने जिस तरह पक्षपातपूर्ण बयान जारी किया वह ठीक नहीं है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि माकपा ने सोची-समझी रणनीति के तहत ही राज्यपाल पर हमले शुरू किए हैं। पार्टी यह साबित करने का प्रयास कर रही है कि विपक्ष की हिंसा को राज्यपाल का भी समर्थन हासिल है। ऐसे में यह सिलसिला अभी थमने के आसार कम ही हैं। जनसत्ता से

Sunday, August 9, 2009

ठहर-सा गया है कोलकाता


किसी जमाने में राजीव गांधी ने कलकत्ता को मरता हुआ शहर कहा था। तब उनकी इस टिप्पणी पर भद्रलोक कहे जाने वाले इस समाज ने काफी बवाल किया था। तब मरता हुआ था या नहीं, यह मुझे नहीं पता। मैं तब इस महानगर में आया ही नहीं था। लेकिन अब पंद्रह साल पुराने वाहनों को हटाने की मुहिम के तहत इस महीने की पहली तारीख से हजारों बसों, टैक्सियों और आटो रिक्शा यानी तिपहियों के सड़कों से गायब हो जाने से इस महानगर की रफ्तार जरूर थमक गई है। दक्षिण से उत्तर कोलकाता के बीच जमीन के नीचे चलने वाली मेट्रो रेल के विभिन्न स्टेशनों के बाहर अलग-अलग कालोनियों और मोहल्लों के लिए बने आटो स्टैंड अब सूने पड़े हैं। यात्री तो नहीं घटे, लेकिन सवारियां बेहद घट गई हैं। इनको देखते हुए एक पुराना गीत बरबस ही याद आता है---इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूं है....। पुराने बस मालिकों ने हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। अदालत सोमवार 10 मई को इस पर विचार करेगी। पहले यह सुनवाई चार मई को होनी थी। लेकिन टल गई।
पहले इस लेख का शीर्षक दिया था-ठहर गया है मेरा शहर। फिर लगा कि कोलकाता मेरा शहर तो कभी रहा ही नहीं। इस तथ्य के बावजूद कि बीते नौ वर्षों से यहीं रहता हूं। दफ्तर से लौटते हुए दक्षिण कोलकाता के टालीगंज मेट्रो स्टेशन तक तो आसानी से पहुंच जाता हूं । लेकिन बीते नौ-दस दिनों से इससे कोई डेढ़ किमी दूर स्थित अपने फ्लैट तक पहुंचने के लिए बाकायदा जंग लड़नी पड़ रही है। पहले जिस रूट पर कई दर्जन आटो चलते थे, अब वहां दो ही बचे हैं। कई दिन तो यह दूरी पैदल ही तय करनी पड़ी। अब दफ्तर से थके-हारे लौटने के बाद कौन घंटों लाइन में खड़ा हो कर अपनी बारी का इंतजार करे। दरअसल, भीड़-भाड़ और ट्रैफिक जाम के चलते कोलकाता मुझे कभी उतना पसंद नहीं आया। सिलीगुड़ी में रहते हुए दफ्तर के कामकाज से साल में तीन-चार बार यहां आना होता था। उस समय धर्मतल्ला इलाके में राजभवन के ठीक सामने बने भारतीय जीवन बीमा निगम के गेस्ट हाउस में ठहरता था। वहां से सुबह-सबेरे जो दफ्तर जाता था तो रात दस बजे के बाद ही वापसी होती थी। दो-तीन दिन में काम निपटाने के बाद धर्मतल्ला से ही बस पकड़ कर सिलीगुड़ी लौट जाता था। तब कभी सोचा तक नहीं था कि मुझे इसी शहर में बसना होगा। आखिर नौ साल तक रहना एक तरह से बसना ही तो है। गुवाहाटी से तबादले पर आने के बाद मेट्रो को ध्यान में रखते हुए टालीगंज इलाके में मकान लिया था। दफ्तर के बाकी साथी दमदम यानी एकदम उत्तरी इलाके में रहते थे। मेट्रो ने कभी दूरी महसूस नहीं होने दी। लेकिन नौ साल की इस सहूलियत और सुख पर इन नौ दिनों का दुख (सवारी नहीं होने का) बहुत भारी पड़ रहा है।

बीते नौ दिनों से कोलकाता में लाखों लोगों को उमस और गर्मी के बीच बस अड्डों और टैक्सी स्टैंड पर लंबी-लंबी कतारों में खड़े रहना पड़ रहा है। इन सबको को उम्मीद है कि शहर की यातायात प्रणाली जल्द ठीक होगी।
पुलिस इस महीने की पहली तारीख से ही 1993 से पहले बने वाहनों को ज़ब्त कर रही है। कोलकाता हाई कोर्ट ने जुलाई 2008 में शहरी इलाक़ों में ऐसे व्यावसायिक वाहनों के चलाने पर रोक लगा दी थी जो एक जनवरी 1993 से पहले पंजीकृत किए गए हों। पहले यह पाबंदी बीते साल 31 दिसंबर से लागू होनी थी। लेकिन सरकार ने कुछ समय और मांगा था। उसके बाद यह समयसीमा बढ़ा कर 31 जुलाई 2009 कर दी गई थी.
कोलकाता की सेवियर एंड फ़्रेंड ऑफ़ इन्वायरमेंट( सेफ़) के सर्वेक्षण के मुताबिक इन वाहनों को ज़ब्त करने के बाद से शहर के पर्यावरण में सुधार हुआ है और पिछले दो दशकों में इतना पर्यावरण इतना स्वच्छ कभी नहीं रहा।
लेकिन पर्यावरण के साथ लोगों की दिक्कतों का ख्याल रखना भी तो जरूरी है। इस मामले में न तो पुराने वाहन मालिक चेते और न ही सरकार ने कोई ध्यान दिया। अब आग लगने पर कुंआ खोदने की कहावत चरितार्थ करते हुए सरकार ने चार सौ नई बसें उतारने का दावा किया है। लेकिन यह जरूरत के मुकाबले बहुत कम है।
मुझे तो अब इस दिक्कत से निजात पाने के लिए 23 अगस्त का इंतजार है। इसकी वजह यह है कि उसी दिन टालीगंज से न्यू गड़िया के बीच मेट्रो की विस्तारित सेवा का उद्घाटन होना है। और मेरा फ्लैट इसी रूट में टालीगंज के बाद वाले स्टेशन से ही सटा है। तब तक तो मेट्रो से उतर कर घऱ पहुंचने के लिए रोज एक लड़ाई लड़नी होगी। यह तो मेरी बात हुई। लेकिन सब लोगों की किस्मत ऐसी कहां? सोचता हूं, और कुछ न सही मेट्रो के मामले में तो किस्मत का धनी हूं ही।

खेत ही बाड़ खाने पर उतारू है बंगाल में!

पश्चिम बंगाल में क्या खेत ही बाड़ को खाने पर उतारू है? बर्दवान जिले के मंगलकोट के पास शुक्रवार को पुलिस वालों ने जिस तरह तृणमूल कांग्रेस की रैली के लिए बने मंच पर चढ़ कर उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं पर लाठियां बरसाईं उससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या यहां माकपा और प्रशासन मिल कर बुद्धदेव सरकार की कब्र खोदने पर तुले हैं। माकपा का प्रदेश नेतृत्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी की टिप्पणियों के लिए दो दिनों से लगातार उन पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए उनकी खिंचाई कर रहा है। बंगाल में मुख्य विपक्षी दल के मंच पर पुलिस के चढ़ कर लाठी भांजने की हाल के वर्षों में यह शायद पहली घटना है।
पश्चिम बंगाल में बर्दवान जिले का मंगलकोट कस्बा राजनीतिक हिंसा के सवाल पर नंदीग्राम बनने की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। मंगलकोट में बीते दो महीने से माकपा के एक नेता की हत्या के मुद्दे पर माकपा काडर आक्रामक मूड में हैं। राजनीतिक हिंसा के सवाल पर पार्टी का प्रदेश नेतृत्व तो इतने आक्रामक मूड में है कि उसने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी से भी दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है। लोकसभा चुनावों के बाद बंगाल में राजनीतिक हिंसा का जो दौर शुरू हुआ है वह कहीं से थमता नहीं नजर आ रहा है। मंगलकोट ने इस मामले में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी हैं। इस मामले में उसने लालगढ़ को भी पीछे छोड़ दिया है।
मंगलकोट पर फिलहाल सरकार नहीं माकपा का राज है। कांग्रेस के कई विधायकों की बीते महीने वहां जम कर पिटाई हुई। उसके बाद कल मंगलकोट से काफी पहले तृणमूल कांग्रेस की एक रैली पर पुलिस ने जम कर लाठियां बरसाईं। तृणमूल वालों ने भी पुलिस पर पथराव किए। उसके बाद पुलिस के जवानों ने मंच पर चढ़ कर नेताओं की पिटाई की। अब पार्टी प्रमुख व रेल मंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को मंगलकोट का दौरा करने का एलान किया है। इससे इलाके में उत्तेजना और बढ़ने का अंदेशा है।
इसबीच, राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा पर राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी और माकपा में ठन गई है। गांधी ने एक बयान में सवाल उठाया था कि जब तमाम राजनीतिक दल हिंसा रोकने पर सहमत हैं तो आखिर इस पर अंकुश क्यों नहीं लग रहा है? उनका कहना था कि जो लोग कुछ करने की हालत में वे समुचित कदम नहीं उठा रहे हैं। राज्य सरकार से अवैध हथियारों की बिक्री रोकने और अपराधियों पर अंकुश लगाने का अनुरोध किया था। गांधी ने बंगाल में हिंसा जारी रहने पर गहरी चिंता जताई थी।
उन्होंने तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं से कहा था कि वे दलगत भावना से ऊपर उठ कर अपने-अपने संगठनों में हिंसक लोगों की पहचान करें और उन्हें कानून के हवाले करें।
गांधी ने अपने बयान में कहा था कि मुझे भरोसा है कि सरकार अवैध हथियारों के कारोबार को रोकने के लिए आगे आएगी। हिंसक लोगों पर नकेल लगाने के लिए तेजी के साथ कार्रवाई करेगी और लोगों में यह भरोसा पैदा करेगी कि उनकी सुरक्षा के साथ राजनीति नहीं जोड़ी जाएगी। राज्यपाल के इस बयान पर माकपा में तीखी प्रतिक्रया हुई। उसने ईंट का जवाब पत्थर से देने की तर्ज पर एक लिखित बयान में राज्यपाल को अपने संवैधानिक पद की गरिमा बनाए रखते हुए और तटस्थ रहने का सुझाव दिया। इसके अलावा भी बयान में कई बातें कही गईं थी। वैसे, माकपा और राज्यपाल में कोई पहली बार नहीं ठनी है। नंदीग्राम में हुई हिंसा पर राज्यपाल की टिप्पणी और फिर राजभवन में स्वेच्छा से बिजली की कटौती जैसे मुद्दों पर भी माकपा ने गांधी की जम कर खिंचाई की थी।
राज्यपाल की चिंता जायज थी। बीते बुधवार को तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा का एक प्रतिनिधिमंडल अलग-अलग उनसे मिला था। इन दोनों ने राज्य में उनसे राज्य में जारी हिंसा को रोकने की दिशा में पहल की अपील की थी। ऐसे में गांधी का यह सवाल गलत नहीं था कि अगर तमाम दल इसे रोकने के लिए कृतसंकल्प हैं तो आखिर यह रुक क्यों नहीं रही है। माकपा और तृणमूल कांग्रेस इस हिंसा के लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते रहे हैं। लेकिन दोनों शायद इस मामूली तथ्य को भूल गए हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती। इसी तरह दोनों दलों में हिंसा में मरने वाले अपने समर्थकों की तादाद बढ़ा-चढ़ा कर बताने की होड़ लगी है। अगर दोनों दलों के दावों को मान लें तो राज्य में बीते दो महीने से जारी इस हिंसा में मृतकों की तादाद दोगुनी हो जाएगी।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पूरा मामला खुद को इस हिंसा का शिकार बता कर सहानुभूति बटोरने और अपना राजनीतिक हित साधने का है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस हिंसा को रोकने की जिम्मेवारी प्रशासन व राज्य सरकार की है। लेकिन फिलहाल वह भी लालगढ़ की तरह मंगलकोट के मामले में भी फेल होती नजर आ रही है। ऐसे में मंगलकोट में सामान्य स्थिति बहाल होने के कोई आसार नहीं नजर आते।

Saturday, August 8, 2009

एक खामोश लेकिन सराहनीय क्रांति!


पश्चिम बंगाल के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार और माओवादी गतिविधियों के लिए अक्सर सुर्खियां बटोरने वाले पुरुलिया जिले में बीते कुछ महीनों से एक खामोश क्रांति हो रही है. लेकिन माओवादी गतिविधियों के तले दबी इस क्रांति को कभी राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खी नहीं मिल सकी है. यह क्रांति शुरू की है कुछ छात्राओं ने. इलाके के विभिन्न गांवों और तबकों में लंबे अरसे से जारी बाल विवाह की परंपरा के खिलाफ. अशिक्षा व पिछड़ेपन के चलते उस जिले की ज्यादातर गांवों में लड़कियां 12-13 साल की होते न होते ब्याह कर जबरन पिया के घर भेज दी जाती हैं.
लेकिन अब शिक्षा के प्रति बढ़ते ललक ने इलाके में नाबालिग लड़कियों को इस परंपरा के खिलाफ खड़ा कर दिया है. रेखा कालिंदी नामक एक युवती ने कुछ महीने पहले अपने मां-बाप और समाज के विरोध के बावजूद इस दिशा में पहल की थी. उसकी इस पहल में अब धीरे-धीरे कई लड़कियां शामिल हो गई हैं. उनके इस अभियान में प्रशासन भी उनकी मदद कर रहा है. यह साहसिक फैसला करने वाली तीन लड़कियों-रेखा कालिंदी,सुनीता महतो व अफसाना खातून से राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने हाल ही में राष्ट्रपति भवन में मुलाकात कर उनका हौसला बढ़ाया था. राष्ट्रपति ने इन लड़कियों के साहसिक कदम के बारे में जानकर उनको दिल्ली बुलवाया था.
इन तीनों के साहस ने इलाके की दूसरी लड़कियों को भी बाल विवाह के खिलाफ एकजुट कर दिया है. अब अक्सर ऐसे खबरें जिले के विभिन्न गांवों से आ रही हैं जहां लड़कियां मा-बांप की मर्जी के खिलाफ बाल विवाह से इंकार करते हुए पढ़ाई को तरजीह दे रही हैं. सबसे ताजा मामला जिले के झालदा दो नंबर ब्लाक के ओलदी गांव के निवासी निमाई कुमार की पुत्री अहिल्या का है. उस के पिता निमाई कुमार बीड़ी मजदूर हैं. पढ़ाई में दिलचस्पी के चलते दो साल पहले अहिल्या का दाखिला पातराहातु चाइल्ड लेबर स्कूल में हुआ था. इसी दौरान अचानक उसके पिता ने कोटशिला थाना इलाके के बड़तलिया में एक लड़के से उसका विवाह तय कर दिया. अहिल्या ने इस मामले की जानकारी अपने मित्रों को दी. इसके बाद यह बात उसके शिक्षकों तक पहुंच गई. स्कूल के शिक्षकों ने अहिल्या के पिता को काफी समझाया-बुझाया और यह विवाह रोकने में कामयाब हो गए. अहिल्या के पिता की दलील है कि मजदूरी से पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करना काफी मुश्किल है. इसलिए उन्होंने अहिल्या का विवाह तय कर दिया था ताकि उसे इस दुख से मुक्ति मिल सके.
दूसरी ओर, जिले के सहायक श्रम आयुक्त प्रसेनजीत कुंडू का कहना है कि पुरुलिया के पिछड़े क्षेत्रों में नारी सशक्तिकरण व बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है. इसी वजह से अब लोग जागरूक हो रहे हैं. विवाह रद्द होने के बाद अहिल्या फिर से स्कूल जाने लगी. वह अब पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है. अहिल्या कहती है कि मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं ताकि घर की गरीबी दूर कर सकूं. इन छोटी लड़कियों के इस अभियान ने सरकार व बाल विवाह रोकने का दावा करने वाले तमाम गैर-सरकारी संगठनों को आईना तो दिखा ही दिया है.

Friday, August 7, 2009

काश! मोबाइल और पहले आया होता

(आज से तीन दिन बाद यानी दस तारीख को ब्लॉग लिखते तीन महीने पूरे हो जाएंगे. यह ब्लॉग की सौवीं पोस्ट है. ब्लॉग में आंकड़ों के लिहाज से मुझे अगर तेज नहीं तो बहुत सुस्त भी नहीं कहा जा सकता. सैकड़ा चाहे क्रिकेट में रनों का हो या फिर ब्लॉग में पोस्ट्स का, हमेशा अहम होता है. इसलिए सोचा इसमें राजनीति की बजाय कुछ पुराने अनुभव ही लिख दूं. कौन जाने किसी मित्र की नजर पड़ जाए इस पोस्ट पर.)
काश! मोबाइल और पहले आया होता. काश! आज की तरह ई-मेल और चैट का दौर और कुछ पहले आ गया होता. अगर इन दोनों में से कोई भी एक चीज दो दशक पहले हुई होती तो मुझे जीवन के कुछ बेहतरीन दोस्तों से बिछड़ना नहीं पड़ता. पत्रकारिता के लंबे अनुभव ने बताया है कि जीवन में बेहतर लोग कैरियर के शुरूआती दौर में ही मिलते हैं. अब ऐसा है या नहीं, नहीं जानता. इसकी वजह यह है कि अपने कुछ पूर्व सहयोगियों की नजर में मैं मुख्यधारा की पत्रकारिता में नहीं हूं. दिल्ली या हिंदी पट्टी में कभी नौकरी नहीं की, इसीलिए. मेरा अब तक का समय बंगाल, पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, भूटान और नेपाल की रिपोर्टिंग करते ही बीता है. लेकिन दिल्ली में अब कई अहम पदों तक पहुंचे लोगों को लगता है कि यह पत्रकारिता भी कोई पत्रकारिता है लल्लू. बहरहाल, मुझे इसका कोई दुख नहीं है. अब तक जो भी काम किया, उससे पूरी तरह संतुष्ट हूं. सही है कि जीवन में ज्यादा मौके नहीं मिले. जो मिले भी उनको भुनाने में कामयाब नहीं रहा. शायद हिंदी पट्टी या कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता नहीं की थी--यही वजह रही होगी. लेकिन जब भी जहां काम किया मन लगा कर किया. बीते 18 वर्षों से ऐसे अखबार में हूं जहां लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी है. जो भी लिखा, जस का तस छपा. राजनीति के इतर विषयों मसलन पर्यावरण, सामाजिक सरोकार और क्रिकेट पर भी खूब लिखा. क्रिकेट के एकदिनी और आईपीएल के कई मैच कवर किए इसी अखबार के लिए. अब तक जो किया उससे संतुष्ट हूं. अपनी खबरों की कतरनें रखना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था. अब न तो इतनी जगह है और न ही इसकी जरूरत. जरूरत की चीजें तो वैसे भी घर के कंप्यूटर में दर्ज हैं.
बहरहाल, मैं बात कर रहा था शुरूआती दौर की. सिलीगुड़ी से छपने वाले जनपथ समाचार में तीन साल की नौकरी के बाद गुवाहाटी से छपने वाले पूर्वांचल प्रहरी की लांचिग टीम के सदस्य के तौर पर मार्च, 1989 में जब गुवाहाटी पहुंचा तो वहां माहौल ही कुछ अलग था. देश के विभिन्न हिस्सों से आए युवा व प्रशिक्षु पत्रकारों के चलते वह टीम सही मायने में एक राष्ट्रीय टीम बन गई थी. बाद में हालांकि कुछ लोग सेंटिनल समूह के हिंदी दैनिक में चले गए तो कुछ गुवाहाटी को ही छोड़ गए. लेकिन वहां रहने वालों से मित्रता जस की तस रही. होली-दीवाली, तीज-त्योहार में एक-दूसरे के घर आना-जाना चलता रहता था. अक्सर ऐसी जुटान मेरे दो कमरे के किराए के असम टाइप मकान में होती थी. असम टाइप मकान का मतलब दीवारें टाट खड़ी कर उन पर सीमेंट की हल्की परत और ऊपर छत के जगह टीन. लेकिन तब वही महल लगता था. आखिर घर से पहली बार निकल कर अपनी कमाई से मकान किराए पर लेने का सुख ही कुछ और होता है. वहां बाथरूम दूर था. पानी की किल्लत थी. फिर भी महफिलें खूब जमीं. उसी मकान में दिल्ली से आए पत्रकार भी जुटते थे कई बार. उनमें से कुछ से अब भी संबंध हैं, कुछ रखना नहीं चाहते.
उसी दौर में विवेक पचौरी, प्रशांत, अरुण अस्थाना, आलोक जोशी और राकेश सक्सेना समेत कितने ही लोग आए थे गुवाहाटी. लेकिन उनमें से ज्यादातर नए आशियाने की तलाश में जल्दी ही लौट गए. सेंटिनल में काम करने वाले जयप्रकाश दंपती (जयप्रकाश मिश्र और उनकी पत्नी मधु) तो हमारे अजीज थे. बाद में एक बहुत प्यारी बेटी हुई थी उनको. बाद में वे गुवाहाटी से चले गए. उसके बाद बाद उनसे कोई संपर्क ही नहीं हो सका. वे गया के ही थे और उन्होंने प्रेम विवाह किया था. बाद में उड़ती-सी खबर सुनी कि जयप्रकाश को वहीं सरकारी नौकरी मिल गई है शायद.
फुर्सत के क्षणों में अजीजों का यह बिछोह बहुत सालता है. सेंटिनल में ही थे सुधीर सुधाकर, जो बाद में दिल्ली, बरेली और कई दूसरी जगहों पर घूमते हुए फिलहाल बी.ए.जी (अब शायद उसके न्यूज चैनल) में जमे हैं. अरुण अस्थाना बीबीसी होते हुए मुंबई में हैं और अक्सर बात होती है उनसे. लेकिन बाकी लोग एक बार बिछड़े तो फिर मिले ही नहीं. इनमें ही थे पूर्वांचल प्रहरी के कार्यकारी संपादक के.एम अग्रवाल, जो गोरखपुर के थे. अमृत प्रभात (इलाहाबाद) में लंबा अरसा बिताने के बाद वे गुवाहाटी आए थे. उनकी तरह ही कल्याण जायसवाल भी इलाहाबाद के थे.
पूर्वांचल में मार्केंटिग विभाग में काम करने वाली सुषमा सिंह और मेरी पत्नी के बीच काफी पटती थी. लेकिन सारनाथ में शादी के बाद वह मार्च, 1991 में गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर आखिरी बार मिली थी. उसके बाद रिपोर्टिंग के लिए बनारस जाने पर मैंने उसकी तलाश भी की. लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिला. वहीं एक पंजाबी कंपोजिटर थी सुरेखा सागर. काफी शर्मीली और सुंदर. हमारे फोटोग्राफर गोपाल मिश्र ने दफ्तर के नीचे बनी कैंटीन में चाय पीते हुए उससे पहली बार औपचारिक परिचय कराया था. फिर तो हमारी जो जमी कि पूछिए मत. किसी से ज्यादा बात नहीं करने वाली सुरेखा और मेरे बीच दुनिया-जहान के मुद्दों पर घंटों बातचीत होती थी. बाद में हमलोग एक बार उसके घर भी गए. सुरेखा के पिता नूनमाटी स्थित रिफाइनरी में काम करते थे. सुरेखा की शादी भी अमेरिका में बसे किसी एनआरआई से हो गई थी. तब से उसके बारे में भी कोई सूचना नहीं मिली.
तब दफ्तर के बाद समय काटने के लिए लोगों से मिलने-जुलने के अलावा कोई और साधन नहीं था. सरकारी दूरदर्शन अपने समय पर ही कार्यक्रम दिखाता था. बाकी कुछ था नहीं. उन दिनों की ही बात है. हर इतवार को सुबह एक सीरियल आता था-फिर वही तलाश. घर में तो टीवी था नहीं. लेकिन यह सीरियल शुरू होते ही हम मकान मालिक के घर भागते थे. हम पति-पत्नी ने शायद ही कोई एपीसोड मिस किया हो. हफ्ते में एक ही दिन तो आता था. बाद में लोग इधर-उधर बिछड़ते गए. जो बचे उनमें राजनीति घर करने लगी. जनसत्ता का कोलकाता संस्करण निकलने वाला था. कई लोग वहां चले गए. मुझे भी सिलीगुड़ी से काम करने का आफर मिला. घर लौटने के लोभ में मैं वहां चला आया. लेकिन अब भी कुछ मित्रों की यादें सालती हैं. बाद में यही सीखा कि उस समय की मित्रता निश्छल थी. आजकल की पत्रकारिता में तो मुंह में राम बगल में छुरी वाले मित्र ही ज्यादा मिलते हैं. काश! वो दिन फिर लौट आते. या फिर उन मित्रों में दो-चार फिर मिल जाते. उनके साथ बैठकर नब्बे के दशक की शुरूआत के उन दिनों को एक बार फिर जी लेता.

Thursday, August 6, 2009

लालगढ़ यानी नौ दिन चले अढाई कोस


पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की ओर से केंद्रीय बलों की सहायता से कोई डेढ़ महीने पहले पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में ढोल पीट कर माओवादियों के खिलाफ शुरू किया अभियान आखिरकार फ्लॉप साबित हुआ है। लालगढ़ अभियान अब ‘नौ दिन चले अढाई कोस’ की कहावत को पूरी तरह चरितार्थ कर रहा है। मीडिया में तो यह बात काफी पहले से कही जा रही थी। राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी आफ द रिकार्ड यह बात कबूल कर रहे थे। लेकिन गुरुवार को राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग में एक उच्च-स्तरीय बैठक में इस अभियान की समीक्षा के बाद आखिर सरकार ने भी इस बात को मान लिया। बैठक के बाद गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन का कहना था कि लालगढ़ अभियान पूरी तरह कामयाब नहीं रहा है। शब्दों की बाजीगरी में लिपटे इस बयान का साफ मतलब है कि अभियान पूरी तरह नाकाम रहा है। सेन ने कहा कि शुरूआती दौर में कुछ कामयाबी मिलने के बावजूद बाद में यह नाकाम साबित हुआ। लालगढ़ में केंद्रीय बल के चार हजार जवानों की मौजूदगी के बावजूद वहां हत्याएं और अपहरण बदस्तूर जारी हैं। सेन कहते हैं कि सुरक्षा बल हर जगह मौजूद नहीं रह सकते। माओवादी वहां माकपाइयों को ही अपना निशाना बना रहे हैं।
गृह सचिव का बयान तथ्यों पर आधारित है। इसी हफ्ते इलाके में आधा दर्जन माकपा नेता व काडर मारे जा चुके हैं। तथ्य यह भी है कि इतने बड़े पैमाने पर अभियान के बावजूद अब तक एक भी माओवादी नेता न तो मारा गया है और न ही पुलिस के हत्थे चढ़ा है। पुलिस अत्याचार विरोधी समिति के संयोजक छत्रधर महतो खुलेआम पत्रकारों से बातचीत और जनसभाएं करते हैं। उनकी गिरफ्तारी के एलान के बावजूद पुलिस अब तक महतो के आसपास तक नहीं फटक सकी है।
सरकारी सूत्र बताते हैं कि पश्चिम मेदिनीपुर जिले के एसपी और जिलाशासक ने इस बैठक में सरकार को जो रिपोर्ट पेश की उसमें साफ कहा गया है कि अभियान पूरी तरह फ्लॉप रहा है। लालगढ़ मुद्दे से चिंतित मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रशासन से इस मामले में कोई ठोस रणनीति बनाने को कहा था। यह बैठक भी बेनतीजा ही रही। अब 13 अगस्त को इसी मामले पर दोबारा बैठक होगी। अब सरकार ने केंद्र से सुरक्षा बलों की कम से कम छह और कंपनियां मांगने का फैसला किया है। उसने मौजूदा जवानों को भी कम से कम तीन महीने तक लालगढ़ में रखने का अनुरोध किया है।
दूसरी ओर, इलाके में पुलिस अभियान के बावजूद माकपा काडरों की लगातार हत्याओं पर चिंता जताते हुए माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु ने इस मुद्दे पर प्रशासन के साथ बातचीत करने की बात कही है। उन्होंने कहा कि माओवादियों ने हमले के बाद जंगल में फरार होने की रणनीति अपनाई है।
इधर, गृह सचिव का कहना था कि लालगढ़ में हालात काबू में आने में अभी कम से कम दो महीने का समय लग सकता है। वहां सामान्य स्थिति बहाल होने तक सुरक्षा बल मौजूद रहेंगे।
इससे साफ है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के दो दिन बाद शुरू हुआ यह अभियान अब तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका है। यानी बुद्धदेव सरकार की मुसीबत बढ़ती ही जा रही है।

पाबंदियों वाला राज्य है मणिपुर


पूर्वोत्तर की सात बहनों में शुमार मणिपुर घाटी की गिनती उग्रवाद से प्रभावित राज्यों में होती है। दरअसल, यह अब कोई नई खबर नहीं है। इसकी वजह यह है कि मणिपुर घाटी में जितने उग्रवादी संगठन हैं उतने शायद इलाके के किसी भी राज्य में नहीं हैं। इस राज्य में कोई तीन दर्जन छोटे-बड़े संगठन सक्रिय है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर यह घाटी हमेशा गलत वजहों से ही सुर्खियों में रही है। राजधानी इंफाल में इस समय भी कर्फ्यू जारी है।
राज्य में उग्रवाद के फलने-फूलने की एक प्रमुख वजह इस राज्य की सीमा का म्यामां से मिलना है। लेकिन यह भी कोई खबर नहीं है। खबर यह है कि बीते कुछ वर्षों के दौरान मणिपुर पाबंदियों वाला राज्य बन गया है। कभी कोई भूमिगत संगठन यहां हिंदी फिल्मों पर पाबंदी लगाता है तो कभी कोई छात्र संगठन छात्रों के दोपहिया वाहनों के इस्तेमाल पर। मामाला यहीं तक सीमित नहीं है। पाबंदी लगाने की इस होड़ में राज्य सरकार भी पीछे नहीं है। उसने किसी भी सरकारी भवन में सरकार विरोधी कोई कार्यक्रम आयोजित करने पर पाबंदी लगा दी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह पर्वतीय राज्य अब इलाके में पाबंदी वाले सबसे बड़े राज्य के तौर पर उभर रहा है।
सबसे ताजा मामले में छात्र संगठन डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स अलायंस, मणिपुर (डीएसएएम) ने राजधानी इंफाल में जारी एक बयान में कहा है कि दोपहिया संस्कृति इस राज्य और कुछ परिवारों की अर्थव्यवस्था के अलावा अकादमिक गतिविधियों को भी प्रभावित कर रही है। संगठन ने कहा है कि बहुत से छात्र अपने शैक्षणिक संस्थानों तक आने-जाने के लिए दोपहिया वाहनों का इस्तेमाल करते हैं। खासकर कोचिंग संस्थान तो रोमांस के अड्डे बन गए हैं। संगठन ने कहा है कि इस पाबंदी को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए समुचित कदम उठाए जाए जाएंगे। संगठन ने कहा है कि उसने मजबूरी में इस पाबंदी का फैसला किया है क्योंकि इससे छात्रों का कैरियर प्रभावित हो रहा है। संगठन ने कहा है कि यह पाबंदी 12वीं कक्षा तक के छात्रों पर लागू होगी। इस समय मणिपुर में ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को दसवीं की परीक्षा पास करने पर इनाम के तौर पर दोपहिया वाहन खरीद देते हैं। मौजूदा कानूनों के तहत राज्य में किसी भी व्यक्ति को 18 वर्ष की उम्र के पहले डा्रइविंग लाइसेंस नहीं दिया जा सकता । लेकिन मणिपुर में छात्रों को इस नियम से छूट दी गई है। संगठन ने कहा है कि इस पाबंदी को असरदार तरीके से लागू करने के लिए समुचित कदम उठाए जाएंगे। उसने परिवहन अधिकारियों से भी छात्रों को ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने के मामले में नियमों का कड़ाई से पालन करने की अपील की है।
इससे पहले वर्ष 2000 में मणिपुर के लगभग 32 उग्रवादी संगठनों ने राज्य में हिंदी फिल्मों व संगीत पर भी पाबंदी लगा दी थी। यह पाबंदी आज तक लागू है। इस मामले में रिवोल्यूशनरी पीपुल्स फ्रंट यानी आरपीएफ ने सबसे अहम भूनमिका निभाई थी। संगठन की दलील थी कि हिंदी फिल्मों का राज्य की संस्कृति पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। यह संगठन पहले राज्य मे नशीली दवाओं के विक्रेताओं और अश्लील फिल्मों का कारोबार करने वालों पर भी पाबंदी लगा चुका है। संगठन ने इस कारोबार से जुड़े कई लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी है। इलाके के एक अन्य. प्रमुख संगठन यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट यानी यूएनएलएफ ने भी इन पाबंदियों का समर्थन किया है। इन संगठनों ने राज्य में शराबखोरी पर भी पूरी पाबंदी लगा दी है।
वैसे, मणिपुर सरकार भी पाबंदियों के मामले में किसी से पीछे नहीं है। सरकार ने बीते सप्ताह एक सर्कुलर जारी कर सरकारी भवनों में किसी सरकार-विरोधी कार्यक्रम के आयोजन पर पाबंदी लगा दी थी। सरकार की दलील है कि किसी सरकारी भवन का इस्तेमाल सरकार-विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं किया जा सकता। राज्य के मुख्य सचिव जरनैल सिंह की ओर से जारी इस सर्कुलर में कहा गया है कि सरकारी इमारतें सरकारी कामकाज के लिए ही इस्तेमाल की जा सकती हैं। इनका इस्तेमाल सरकार विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं किया जा सकता। कुछ गैसरकारी संगठनों ने आईरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के छह साल पूरे होने के मौके पर एक सेमिनार के आयोजन के लिए सरकारी भवन के इस्तेमाल की अनुमति मांगी थी। उसके बाद ही सरकार ने उक्त फैसला किया।
राज्य के विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। मणिपुर पीपुल्स पार्टी यानी एमपीपी के प्रवक्ता जी. जयकुमार शर्मा ने इस फैसले को मणिपुर सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम से भी ज्यादा खतरनाक करार दिया है। वे कहते हैं कि उक्त अध्यादेश के जरिए सरकार आम लोगों की आवाज दबाने का प्रयास कर रही है। मणिपुर भाजपा के अध्यक्ष एच., बोरोबाबू इस फैसले को जनविरोधी करार देते हैं।
मामला यहीं तक सीमित नहीं है। अभी बीते सप्ताह ही पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी आफ कांग्लीपाक नामक एक उग्रवादी संगठन ने स्थानीय आदिवासियों में गर्भ निरोधक उपायों पर पाबंदी लगा दी थी। उसकी दलील थी कि बाहरी लोगों की तादाद बढ़ने के कारण स्थानीय लोगों के वजूद पर खतरा पैदा हो गया है। वे अपने ही घर में अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं।
और जहां तक दोपहिया वाहनों पर पाबंदी का सवाल है, मणिपुर विश्वविद्यालय में एमए अंग्रेजी के छात्र अजमल सिंह कहते हैं कि यह गैरकानूनी है। छात्र अपनी कक्षा में आने के लिए किस वाहन का इस्तेमाल करेग, यह सिर्फ वही तय कर सकता है, कोई छात्र संगठन नहीं। मणिपुर के मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह छात्र संगठन के इस फैसले के प्रति अनभिज्ञता जताते हैं। लेकिन राज्य में समय-समय पर विभिन्न संगठनों और सरकार की ओर से जारी होने वाली पांबदियों का समर्थन करते हैं। वे कहते है कि राज्य की परंपरा और संस्कृति के हित में ही ऐसा किया जा रहा है। जहां तक उग्रवाद या इस पर काबू पाने की बात है, यह एक अलग मुद्दा है। और इस पर सरकार अकेले कोई फैसला नहीं कर सकती। मुख्यमंत्री के इस बयान से साफ है कि राज्य के लोगों को आगे भी कई और पाबंदियां झेलनी पड़ सकती हैं।

Wednesday, August 5, 2009

हिन्दुस्तान में पुरवाई


सुबह-सबेरे लखनऊ से अंबरीश जी (जनसत्ता) का पहले मेल आया और फिर फोन. उन्होंने बताया कि रवीश जी ने हिन्दुस्तान में आपके ब्लॉग के बारे में बहुत बढ़िया और विस्तार से लिखा है. सुन कर चौंका. मेरा चौंकना स्वाभाविक था.अभी ब्लॉग लिखते तीन महीने भी पूरे नहीं हुए हैं.इसबीच, रायपुर से छपने वाले दैनिक हरिभूमि में तो चार-पांच बार मेरे ब्लॉग के हवाले सिंगल कालम की रिपोर्ट्स छपी थीं. लेकिन ब्लॉग का ऐसा चित्रण पहली बार देखा.बाद में कुछ और मित्रों और परिचितों ने इसके लिए बधाई दी.अब कोलकाता में हिन्दुस्तान नहीं आता. इसलिए ई-पेपर से ही संतोष करना पड़ा.इसके लिए मैंने एक बार फिर तकनीक को बधाई दी. पहले का वह दौर याद आ गया जब रचनाएं कहीं छपने और उसे देखने के बीच हफ्तों और कई बार महीनों गुजर जाता था.
मैं रवीश जी का आभारी हूं जिन्होंने इस कदर चित्रण कर मुझे अपने ब्लॉग पर और मेहनत करने की ऊर्जा और प्रेरणा दी है. इसके बाद अब पूरब की इस खिड़की पुरवाई का कैनवास कुछ बढ़ाते हुए इसमें विविध और बहुरंगी चीजें समेटने का प्रयास करूंगा. वैसे,रवीश जी की समीक्षा तो बहुतों ने पढ़ी है. फिर भी मैं उसे पीडीएफ के तौर पर यहां डाल रहा हूं. ताकि सनद रहे.

Monday, August 3, 2009

खामोश हुई माकपा की बागी आवाज


माकपा के वरिष्ठ नेता और परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती के निधन के साथ ही माकपा की एक बागी आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई है। सुभाष को पार्टी की सुधारवादी पीढ़ी का अगुआ माना जाता है। अपनी विवादास्पद टिप्पणियों के लिए मशहूर इस नेता ने हमेशा कार्ल मार्क्स के उन सिद्धांतों के खिलाफ आवाज उठाई जो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में काफी हद तक अप्रासंगिक हो चुके थे। वह चाहे केंद्र की पिछली यूपीए सरकार में शामिल होने का मुद्दा हो, खेती की जमीन के अधिग्रहण का सवाल हो या फिर तारापीठ मंदिर में पूजा-पाठ पर उठा बवाल हो-सुभाष अपनी खरी टिप्पणियों से हमेशा पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से दो-दो हाथ करने के मूड में नजर आए।
माकपा में वे पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु को अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। बसु के वरदहस्त की वजह से ही माकपा और उसकी अगुवाई वाली राज्य सरकार में रहते हुए उसकी गलत नीतियों के खिलाफ लगातार आवाज उठाने के बावजूद उनके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई थी। वर्ष 2006 में हुए बीते विधानसभा चुनाव के मौके पर माकपा नेताओं का एक बड़ा धड़ा उनको टिकट दिए जाने के खिलाफ था। बावजूद इसके अंतिम मौके पर उनको टिकट मिल गया। चक्रवर्ती ने बसु से अपनी नजदीकी और उनके प्रति निष्ठा को कबी छिपाने की कोई कोशिश नहीं की। हकीकत यही है कि अपने बागी तेवरों और खरी टिप्पणियों के चलते कई बार खुद अपने और पार्टी के लिए मुसीबत व विवाद पैदा करने वाले सुभाष बसु के अलावा पार्टी के किसी नेता को कोई तरजीह नहीं देते थे। सुभाष का अपने इलाके में व्यापक जनाधार था। वे इलाके के तमाम क्लबों के अलावा कम से कम 120 दुर्गापूजा समितियों के भी संरक्षक थे। इसी जनाधार की वजह से वे लगातार चुनाव जीतते रहे।
कार्ल मार्क्स ने भले कहा हो कि धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है, सुभाष का इस पर कोई भरोसा नहीं था। यही वजह है कि उनके तारापीठ जा कर पूजा-अर्चना करने पर जब पार्टी में बवाल मचा तो उन्होंने साफ कहा कि वे पहले हिंदू हैं, उसके बाद ब्राह्मण और फिर वामपंथी। प्रदेश समिति से पोलित ब्यूरो तक गूंजने के बावजूद इस मामले में सुभाष के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसी साल लोकसभा चुनाव के मौके पर एक निजी टीवी चैनल से बातचीत में उन्होंने कह दिया था कि साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए कांग्रेस का साथ जरूरी है और माकपा को वर्ष 2004 में केंद्र की यूपीए सरकार में शामिल होना चाहिए था। उनकी इस टिप्पणी पर भी काफी बवाल मचा और माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु को एक बयान जारी कर सफाई देनी पड़ी कि यह सुभाष के निजी विचार हैं और माकपा की विचारधारा से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
सुभाष चक्रवर्ती उद्योगों के लिए जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ भी मुखर रहे। इसी तरह उन्होंने नंदीग्राम में पुलिस की फायरिंग और उसके आठ महीने बाद माकपा काडरों की ओर से इलाके के पुनर्दखल के खिलाफ भी खुल कर आवाज उठाई थी। इससे पहले वे क्रिकेट एसोसिएशन आफ बंगाल (सीएबी) के चुनाव में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से भी दो-दो हाथ कर चुके थे। मुख्यमंत्री ने तब सीएबी अध्यक्ष पद के लिए कोलकाता के तत्कालीन पुलिस आयुक्त प्रसून मुखर्जी के लिए मैदान में उतारा था। लेकिन सुभाष ने इस फैसले की सरेआम आलोचना करते हुए उनके प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार जगमोहन डालमिया का समर्थन किया था। उस चुनाव में डालमिया ही जीते थे।
बीते साल केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने और उसी मुद्दे पर लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकालने के मुद्दे पर असंतोष और नाराजगी तो बंगाल के तमाम कामरेडों में थी। लेकिन इस नाराजगी को स्वर देने की हिम्मत दिखाई सिर्फ सुभाष ने। उन्होंने इसके लिए सरेआम पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को जिम्मेवार ठहराया। सुभाष चक्रवर्ती पार्टी फंड में चंदा जुटाने और रैलियों में भीड़ जुटाने में भी माहिर थे। कोई 23 साल पहले कोलकाता में होप 86 नामक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बैनर तले फिल्मी सितारों को नचा कर भी उन्होंने काफी सुर्खियां और विवाद बटोरे थे।
सुभाष के राजनीतिक कैरियर की शुरूआत से ही ऐसे न जाने कितने ही प्रसंग उनसे जुड़े हैं जब किसी गलत काम या नीतिगत गलतियों के लिए उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को सरेआम कटघरे में खड़ा कर दिया। अब उनके निधन से माकपा की बागी आवाज खामोश हो गई है। माकपा में अब सुभाष चक्रवर्ती जैसा दूसरा कोई नेता नहीं बचा है जो गलत फैसलों पर उंगली उठाने का नैतिक साहस दिखाए। ऐसे में सुभाष की मौत किसी वामपंथी नेता की नहीं बल्कि एक विचारधारा की मौत कही जा सकती है।

Sunday, August 2, 2009

अब दागी कामरेडों से पल्ला झाड़ेगी माकपा

लोकसभा चुनावों में दुर्गति और उसके बाद राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा के सवाल पर केंद्र से कई बार डांट खाने के बाद अब पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार की सबसे बड़ी घटक माकपा ने पार्टी के दागी और भ्रष्ट कामरेडों से पल्ला झाड़ने की तैयारी कर ली है। रविवार को खत्म हुई माकपा राज्य समिति की दो-दिनी बैठक में पार्टी नेतृत्व ने सरकार के कामकाज में गति लाने के लिए मंत्रियों के विभागों में पेरबदल का भी फैसला किया है। इसके तहत उन मंत्रियों से कुछ विभाग लेकर दूसरों को सौंप दिए जाएंगे जिनके पास एक से ज्यादा विभागों का जिम्मा है। ध्यान रहे कि केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम राज्य के कई जिलों के कत्लगाह में तब्दील हो जाने का गंभीर आरोप लगा चुके हैं। इससे माकपा के शीर्ष नेतृत्व में तिलमिलाहट है। इन नेताओं ने पलटवार करते हुए इसके लिए कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को दोषी ठहराया है।
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पहली बार पार्टी ने कबूल किया था कि दागी और भ्रष्ट कामरेडों की तादाद बढ़ी है और इनको पार्टी से निकालना जरूरी है। पार्टी नेतृत्व का मानना था कि ऐसे दागी नेताओं के चलते ही आम लोगों से माकपा की दूरी बढ़ी है और इसी वजह से लोकसभा चुनाव में पार्टी को मुंहकी खानी पड़ी है। बैठक में नेताओं ने माना कि लंबे अरसे तक लगातार सत्ता में रहने के कारण पार्टी आम लोगों से कट गई है। नेताओं ने पार्टी की संगठनात्मक खामियों को दूर कर आम लोगों से सीधा संवाद कायम करने की जरूरत पर जोर दिया। बैठक में इस बात पर आम राय रही कि पार्टी को भ्रष्ट व दागी कामरेडों से जल्दी से जल्दी छुटकारा पा लेना चाहिए। इसमें मंत्रिमंडल में फेरबदल पर भी जोर दिया गया। राज्य समिति की बैठक में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की औद्योगिकीकरण की मुहिम को आड़े हाथों लेते हुए कहा गया कि इसी वजह से बाकी योजनाएं हाशिए पर चली गईं और पार्टी को इसका खमियाजा चुनावों में भुगतना पड़ा।
माकपा सूत्रों ने बताया कि बैठक में विभिन्न जिलों में आने वाली उन रिपोर्टों पर विस्तार से चर्चा की गई जिनमें कहा गया है कि कुछ भ्रष्ट नेताओं के अधिकारों के दुरुपयोग से नाराज होकर बेहतर छवि वाले कुछ नेताओं ने भी पार्टी से नाता तोड़ लिया है और विपक्ष के साथ हो गए हैं। बैठक में तय हुआ कि अब निजी हितों के लिए सत्ता और अधिकारों का दुरुयोग करने वाले नेताओं से छुटकारा पाना जरूरी है। पार्टी के प्रदेश सचिव विमान बसु ने तमाम जिलों से आए नेताओं से ऐसे दागी नेताओं की पहचान कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। राज्य के विभिन्न जिलों में पार्टी के कुछ नेता रियल इस्टेट के धंधे में शामिल हैं तो कई नेता कुछ सरकारी अधिकारियों के साथ मिलीभगत से शिक्षा के धंधे में सक्रिय हो गए हैं।
माकपा नेताओं का कहना है कि पूरी सरकार के औद्योगिकीकरण में जुट जाने की वजह से विभिन्न मंत्रालयों का काम ठप हो गया है और गरीब व पिछड़े तबके के लोगों के लिए चलाई जाने वाली कई कल्याण योजनाएं प्रभावित हुई हैं। इसलिए अब जल्दी ही मंत्रियों के विभागों में फेरबदल की संभावना है। पार्टी नेताओं का कहना है कि एक मंत्री के पास एक से ज्यादा मंत्रालय होने की वजह से उन पर ठीक से ध्यान देना संभव नहीं हो रहा है। खासकर पंचायत और पुलिस विभाग का कामकाज काफी सुस्त है। आगोमी विधानसभा चुनावों से पहले इनको और सक्रिय किया जाना चाहिए। कामरेडों में माओवादी प्रभावित इलाकों में माकपा नेताओं और काडरों की सुरक्षा में नाकामी के लिए भी पुलिस विभाग के प्रति भारी नाराजगी है। यह विभाग मुख्यमंत्री के ही जिम्मे है।
पार्टी ने सरकार से एक ठोस तंत्र विकसित करने को कहा है कि ताकि कल्याण योजनाओं का फायदा जमीनी स्तर पर आम लोगों तक पहुंच सके। राज्य समिति ने माना है कि दागी कामरेडों से छुटकारा नहीं मिलने और आम लोगों से सीधा संवाद दोबारा बहाल नहीं होने की स्थिति में पार्टी की आगे की राह आसान नहीं होगी।