Friday, October 14, 2011

शाही शादी में भूटानी हुए दीवाने


बेगानी शादी में अब्दुल्ला के दीवाना होने की कहावत सबने सुनी ही होगी. लेकिन यह तो न तो बेगानी शादी थी और न ही दीवाना होने वाले लोग अब्दुल्ला थे.यह शादी उनके अपने राजा की थी. पूरे देश में युवकों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी है जिन्होंने अपने जीवन में कभी कोई शाही शादी नहीं देखी. उनके लिए तो यह नजारा किसी उत्सव से कम नहीं था.
यूरोपीय देशों के बाद अब हिमालय की गोद में बसे एशियाई देश भूटान के लोगों ने भी इस सप्ताह शाही शादी का नजारा देखा. बौद्ध रीति-रिवाजों के मुताबिक हुई शादी को देखने के लिए भूटान ही नहीं बल्कि भारत से भी भारी तादाद में लोग पहुंचे थे. यूरोप में होने वाली शाही शादियों के विपरीत इस शादी की खास बात यह रही कि इसमें किसी भी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को नहीं न्योता गया था. दुनिया के सबसे नन्हे लोकतंत्र भूटान के सबसे कम उम्र के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक और भारत में पली-बढ़ी और पढ़ी जेटसन पेमा की शाही शादी का गवाह बनने के लिए खराब मौसम के बावजूद देश के कोने-कोने से लगभग एक लाख लोग पहुंचे थे.
विवाह समारोह राजधानी थिंपू से लगभग 70 किलोमीटर दूर पुनाखा शहर में 17वीं सदी में बने एक किले में संपन्न हुआ. 1955 में राजधानी के थिम्पू जाने से पहले तक यह शहर ही सत्ता का केंद्र था. शाही परिवार में यहीं शादी करने की परंपरा है. पुनाखा के रॉयल लिंका मैदान में भूटान के विभिन्न समुदायों के कलाकारों ने शाही विवाह के उपलक्ष्य में पारंपरिक नृत्य पेश किए. इसके बाद राजा व रानी उपस्थित जनता के समक्ष आए और उसे आशीर्वाद दिया. विवाह समारोह के सिलसिले में भूटान की सेना, पुलिस और रॉयल बॉडीगार्ड की तरफ से सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए थे. विवाह के दौरान भूटान की मोबाइल सेवाओं को बंद कर दिया गया था. यहां तक कि निजी वाहनों की आवाजाही पर भी रोक थी.
भूटान में गुरुवार सुबह शाही विवाह का समारोह शुरू होने से पहले ही इस जोड़े को भारत की ओर से शुभकामनाएं दी गईं. भूटान नरेश की दुल्हन के पुराने स्कूल की एक शिक्षिका ने भूटान में विवाह समारोह शुरू होने से पहले ही अपनी पूर्व छात्रा को शुभकामनाएं दीं. जेटसन पेमा के यहां के कसौली हिल्स स्थित आवासीय लारेंस स्कूल में पढ़ती थीं। उस दौरान नीलम ताहलन उनकी हाउस मिस्ट्रेस थीं. इस शाही शादी में मानो समूचा भूटान झूम रहा था. एक छात्र के.नामग्याल कहता है कि मैं राजा और रानी को नजदीक से देखना चाहता था.
ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े भूटान नरेश वांगचुक और पेमा बचपन से ही दोस्त थे. नरेश महज 17 साल की उम्र में ही पेमा को अपना दिल दे बैठे थे. बरसों पुराना यह प्यार अब सात जन्मों के बंधन में बदल गया है. इस अवसर पर दोनों बेहद खुश थे. लोगों को लंबे अरसे से इस शाही शादी का इंतजार था. राजधानी थिम्पू के एक स्कूल शिक्षक डी. वाग्दी इस शादी को देखने के लिए दो दिन पहले ही पुनाखा पहुंच गए थे. वे कहते हैं कि भूटान में अब अगले 20-25 वर्षों तक ऐसा कोई समारोह नहीं आयोजित होगा. मैं यह मौका चूकना नहीं चाहता था.
राजसी विवाह को यहां के करीब सात लाख लोगों ने अपने घरों में टेलीविजन पर देखा. इसका ‘भूटान ब्राडकास्टिंग सर्विस टीवी’ पर सीधा प्रसारण किया गया. विवाह भूटानी बौद्ध परंपराओं के अनुसार हुआ. शाही शादी सुबह चार बजे ब्रह्म मुहुर्त में 100 बौद्ध भिक्षुओं की विशेष प्रार्थना के साथ आरंभ हुई. प्रार्थना मुख्य बौद्ध पुरोहित जे. खेनपो की देखरेख में हुई. इसके बाद वांगचुक और पेमा को पति-पत्नी घोषित कर दिया गया. शादी की रस्में पूरी होने के बाद दोनों बौद्ध मठ में खास तौर पर सजे कक्ष में कैमरे के सामने आए. शादी के बाद नरेश और महारानी ने किले के बाहर एक मैदान में जमा हजारों लोगों के साथ मिलकर नृत्य किया और अपनी शादी की खुशियां उनके साथ बांटी.

विवाह की कई रस्में संपन्न होने के बाद 31 वर्षीय नरेश वांगचुक ने पीले रंग के जैकेट और स्कर्ट में सजी पेमा को मुकुट पहनाया. इसके बाद पेमा आधिकारिक तौर पर भूटान की महारानी घोषित कर दी गईं. भूटान की राजसी परंपराओं के अनुसार महारानी पेमा ने नरेश वांगचुक को तीन बार साष्टांग प्रणाम किया। इस रस्म के बाद दोनों को एक पेय दिया गया. मान्यताओं के अनुसार यह नवविवाहित जोड़े की दीर्घायु के लिए दिया जाता है. नरेश की शादी के जश्न में भूटान में भारत के राजदूत पवन के. वर्मा, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल एम. के. नारायणन और राज परिवार के सदस्यों समेत लगभग 300 मेहमानों ने हिस्सा लिया.
शादी के जश्न में आए लोगों को भूटान की 20 घाटियों से आए 60 बेहतरीन रसोईयों के हाथों का बना हुआ पारंपरिक भूटानी भोजन परोसा गया. इस शाही दावत में कुछ भारतीय पकवान भी शामिल किए गए थे. शाही शादी का गवाह बनने के लिए सौ किलोमीटर का सफर तय कर पहुंचे नामगे दोर्जी और उनके घरवाले बेहद खुश थे. इस शादी के मौके पर भूटान डाक विभाग ने नवविवाहित दंपती की तस्वीर वाले 60 हजार खास डाक टिकट छापे हैं. इसी तरह भूटान मुद्रा प्राधिकरण ने नई करेंसी और चांदी के सिक्के तैयार किए हैं. चांदी के सिक्के पांच हजार रुपए में बिक रहे हैं जबकि डाक टिकटों की कीमत 25 से 225 रुपए के बीच है.

Sunday, August 7, 2011

सुंदरबन में तेज होती जिंदगी की जंग

प्रभाकर मणि तिवारी
(यह रिपोर्ट रविवार, 7 अगस्त को जनसत्ता रविवारी में कवर स्टोरी के तौर पर छपी है. वहीं से साभार.)
सुंदरबन यानी दुनिया में रायल बंगाल टाइगर का सबसे बड़ा घर। पश्चिम बंगाल और पड़ोसी बांग्लादेश की सीमा पर 4262 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह इलाका इन बाघों के अलावा अपनी जैविक विवधताओं के लिए भी मशहूर है। लेकिन अब यह सब खतरे में है। वैश्विक तापमान में बढ़ोती ने इस इलाके के वजूद पर सवालिया निशान लगा दिया है। लेकिन सबसे तात्कालिक समस्या तो इस इलाके में रहने वाले इंसानों और बाघों को बचाने की है। आबादी के बढ़ते दबाव और पर्यावरण असंतुलन की वजह से से सिकुड़ते जंगल के चलते सुंदरबन की विभिन्न बस्तियों में रहने वाले लोग और बाघ एक-दूसरे से रोजाना जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। कभी बाघ इंसानों का शिकार करते हैं तो कभी इंसान बाघों का। अब इस जंगल में इंसान ही नहीं बल्कि बाघ भी असुरक्षित हैं।
सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। बाघों को सुंदरबन का रक्षक कहा जाता है। लेकिन सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं व मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैंग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को की ओर से विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया।
सुंदरबन इलाके में बाघों के जंगल से निकल कर मानव बस्तियों में आने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अपने मैंग्रोव जंगल और रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरबन इलाका बाघ और इंसानों के बीच बढ़ते संघर्ष की वजह से लगातार सुर्खिर्यां बटोर रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सुंदरबन में हर साल औसतन 35 से 40 लोग बाघ के शिकार बन जाते हैं। लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि इलाके में हर साल अममून सौ से ज्यादा लोग बाघ के जबड़ों में जिंदगी गंवा देते हैं। दूर-दराज के इलाकों की घटनाओं के बारे में अक्सर पता ही नहीं चलता या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। हाल के दिनों में इंसानी बस्तियों पर बाघों के हमले की कम से कम एक दर्जन घटनाओं में छह लोग लोग मारे जा चुके हैं और इतने ही घायल हुए हैं। वन विभाग ने बीते हफ्ते बस्ती में घूमते एक बाघ को दबोचने में भी कामयाबी हासिल की है। इस कड़ी की ताजा घटना में बाघ के जबड़े में फंस कर एक और मछुआरे की मौत हो गई। इन घटनाओं ने वन विभाग के अधिकारियों और राज्य सरकार को चिंता में डाल दिया है। सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघों के हमले की ज्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी परमिट या मंजूरी के ही गहरे जंगल में घुसते हैं। इसलिए ऐसे मामलों की सही तादाद बताना मुश्किल है। वन विभाग की दलील है कि सुंदरबन का जो इलाका भारत की सीमा में है वहां रहने वाले बाघ आदमखोर नहीं हैं। लेकिन पड़ोसी बांग्लादेश में लगभग हर साल आने वाले तूफान के चलते उस पार से भी भोजन की तलाश में काफी बाघ इधर आ गए हैं। वे अक्सर जंगल से सटी बस्तियों में घुस जाते हैं या फिर जंगल में जाने वालों को घात लगा कर अपना शिकार बना लेते हैं।
वन विभाग ने इसके कारणों का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया है। शुरूआती जांच में यह तथ्य सामने आया है कि सुंदरवन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने, बाघों के चरने की जगह लगातार घटने और अपना पसंदीदा खाना नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। इनसे बचाव के फौरी राहत के तौर पर वन विभाग ने सुंदरबन में सौ हिरण छोड़े हैं। लेकिन इसे ऊंट के मुंह में जीरा ही माना जा रहा है।
सुंदरबन विकास बोर्ड इस बात का पता लगाने पर जोर दे रहा है कि बाघ भोजन की कमी के चलते जंगल से बाहर निकल रहे हैं या अपनी प्रकृति में बदलाव की वजह से। बीते दो सालों में बाघों के इंसानी बस्तियों में घुसने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। सुंदरबन के बाघों की प्रकृति में भी बदलाव आ रहा है। अब वे निडर होकर बस्तियों में घुस कर इंसानों पर हमले कर रहे हैं।
सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता। उस अधिकारी का कहना है कि सुदरबन की इंसानी बस्तियों में रहने वाले लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए मूल रूप से जंगली लकड़ियों की कटाई पर ही निर्भर हैं। अक्सर जंगल में बाघ से मुठभेड़ होने पर वे लोग उसे अपने धारदार हथियारों से घायल कर देते हैं। ऐसे ही बाघ भोजन की तलाश में इंसानों पर हमला करते हैं। प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं वहां पानी का खारापन बीते एक दशक में 15 फीसद बढ़ गया है। इसलिए बाघ धीरे-धीरे जंगल के उत्तरी हिस्से में जाने लगे हैं जो इंसानी बस्तियों के करीब है।
सुंदरबन बायोरिजर्व के निदेशक प्रदीप व्यास कहते हैं कि हमारे लिए यह चिंता का विषय है। हम इसकी वजह का पता लगा रहे हैं। व्यास ने कहा कि बाघों को आसपास के वनों में प्रवेश से रोकने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं । वे बताते हैं कि बाघों के भोजन के लिए जंगल में हिरण छोड़े जा रहे हैं। राज्य वन्यजीव बोर्ड की सिफारिशों के तहत 200 हिरणों को सुंदरबन में मुक्त किया जायेगा । लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वे बीमारी से मुक्त हों । इस प्रक्रिया को पूरा होने में तीन से नौ महीने तक का समय लग सकता है । उन्होंने कहा कि वनकमिर्यों ने कुछ बाघों को पकड़ा है जो काफी कमजोर पाए गए हैं ।
उधर, वन्यजीवों से जुड़े एनजीओ ने चिंता जताई है कि बाघों के इन गांवों में भटकने से फिर से मानव-पशु संघर्ष हो सकता है। नेचर एनवायनर्मेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी के सचिव विश्वजीत रायचौधरी कहते हैं कि हालात काफी चिंताजनक है ।
बाघ और इंसानों के बीच लगातार तेज हो रही इस जंग का नतीजा दक्षिण 24-परगना जिले के आरामपुर गांव में अपनी पूरी कड़वाहट के साथ देखा जा सकता है। इस गांव में हर साल इतने लोग बाघ के शिकार हो जाते हैं कि उस गांव का नाम ही विधवापल्ली यानी विधवाओं का गांव हो गया है। सुंदरबन के गोसाबा द्वीप में स्थित आरामपुर गांव राजधानी कोलकाता से लगभग 90 किलोमीटर दूर जयनगर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। लेकिन इस आरामपुर गांव में विधवाओं की लगातार बढ़ती तादाद के चलते इसका नाम ही बदल कर विधवापल्ली या विधवाओं का गांव हो गया है। गांव में अठारह से लेकर साठ साल तक की महिला मतदाता हैं। लेकिन उनके मुकाबले पुरुष मतदाताओं की तादाद नहीं के बराबर है।
देश में यह शायद अकेली ऐसी जगह है, जहां हर दो चुनाव के बीच पुरुष मतदाताओं की तादाद बढ़ने की बजाय घट जाती है। ज्यादातर मामलों में तो गांव के युवक मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने से पहले ही बाघ के पेट में समा जाते हैं। सुंदरबन के इस गांव में रहने वाले मछली पकड़ने के अलावा जंगल से मधु एकत्र कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। जंगल में रायल बंगाल टाइगर के खतरे से बाकिफ होने के बावजूद पेट की आग बुझाने के लिए वे रोज जंगल में जाते हैं।
गांव की ज्यादातर विधवाओं के पास अपनी जमीन नहीं है। अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए उन्हें काफी दूर जाकर पैसे वाले लोगों के लोगों के घरों और खेतों में काम करना पड़ता है। गांव के बच्चों का बचपन भी उसे छिन गया है। वे छोटी उम्र से ही दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं और बड़े होने पर जंगल में जाते हैं।
आजादी से पहले विधवापल्ली गांव का कोई वजूद नहीं था। लेकिन विभाजन के बाद पारंपरिक रूप से मछुआरे, लकड़हारे और मधु एकत्र करने वाले यहां धीरे-धीरे आ बसे। साल 1950 तक यहां की आबादी ज्यादा नहीं थी। बाद में गांव के पुरुष धीरे-धीरे बाघ का शिकार बनते गए और गांव में या तो विधवाएं बच गईं या फिर उनके दुधमुंहे बच्चे। सामाजिक बायकाट की चलते धीरे-धीरे सुंदरबन इलाके के दूसरे गांवों की विधवाएं भी विधवापल्ली में आ कर बसने लगीं। इस समय गांव में लगभग सवा दो सौ घर हैं। लेकिन इनमें से एक भी घर ऐसा नहीं है जहां बाघ के जबड़ों में सुहाग खोने वाली कोई विधवा नहीं हो। यानी सुदंरबन के बाघों ने इलाके में विधवाओं का एक पूरा गांव ही बसा दिया है।
गांव की पार्वर्ती मंडल के पति को बीते साल ही जंगल में बाघ ने मार दिया। वह कहती है कि यह तो विधवाओं का गांव है। हमें न तो सरकार से कोई सहायता मिलती है और न ही कोई नेता हमारा दर्द बांटने आता है। वह आरोप लगाती है कि चुनाव के मौके पर तमाम राजनीतिक पार्टियां हमदर्दी का नाटक करती हैं। लेकिन चुनाव बीतते ही उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। गांव के एक बुजुर्ग मोहम्मद शफीकुल के तो तीनों बेटों को बाघ ने मार दिया। अब अपने छोटे-छोटे पोते-पोतियों के साथ दिन काट रहे शफीकुल कहते हैं कि यहां मौत ही हमारी नियति है। घर में बैठें तो भूख से मर जाएंगे और जंगल में जाएं तो बाघ हमें नहीं छोड़ेगा। गांव के न जाने कितने ही मर्द उनका शिकार हो चुके हैं।
सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंजर्वेशन लैंडस्केप आॅफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी तादाद की सही जानकारी और बाघों व मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ते टकराव की वजहों का पता करना है। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है।
इलाके में ज्यादातर हमले अप्रैल व मई में हुए हैं। यह मैंग्रोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं। लेकिन बाघों के लिए यही प्रजनन का सीजन होता है। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों व गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।
सुंदरबन के बाघों को बेहद खूंखार माना जाता है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूंखार व्यवहार का कारण है। सरकार हर साल लगभघ 40 लोगों को जंगल से शहद एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट देती है। लेकिन पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों में वन उत्पादों को एकत्र करने व मछली पकड़ने जाते हैं।
अब इस इलाके में पर्यावरण असंतुलन के चलते बाघ ही नहीं, बल्कि इंसानों का वजूद भी खतरे में पड़ गया है। यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में शुमार सुंदरबन में देखने के लिए बहुत कुछ है। रायल बंगाल बाघ, जैविक और प्राकृतिक विविधता और सुंदरी पेड़ों का सबसे बड़ा जंगल यानी मैंग्रोव फॉरेस्ट। लेकिन अब इसमें एक और चीज जुड़ गई है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी का कुप्रभाव देखना हो तो सुंदरबन एक आदर्श जगह है। बांग्लादेश की सीमा से सटा यह इलाका दुनिया में मैंग्रोव जंगल और अपनी जैविक व पर्यावरण विविधताओं के लिए मशहूर है। लेकिन बंगाल की खाड़ी के लगातार बढ़ते जलस्तर ने इसके अस्तित्व पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पर्यावरण में तेजी से होने वाले बदलावों के चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण इस जंगल और इलाके में जहां-तहां बिखरे द्वीपों पर संकट मंडराने लगा है। इन प्राकृतिक द्वीपों के साथ यहां रहने वाली आबादी भी खतरे में है। डूबने के डर से इलाके से बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। वैसे, तो पहले भी समय-समय पर सुंदरबन के द्वीपों के पानी में समाने पर चिंताएं जताई जा रहीं थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी पर्यावरण रिपोर्ट के बाद इसकी गंभीरता खुल कर सामने आ गई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ता रहा तो सुंदरबन जल्दी ही भारत के नक्शे से मिट जाएगा।
इस क्षेत्र के दो द्वीप पानी में डूब चुके हैं। लोहाचारा नामक एक द्वीप पानी में समा चुका है। घोड़ामारा द्वीप भी धीरे-धीरे पानी में समा रहा है। अब कम से कम और एक दर्जन द्वीपों पर यही खतरा मंडरा रहा है। इनमें वह सागरद्वीप भी शामिल है जहां सदियों से मशहूर गंगासागर मेला आयोजित होता रहा है। उन द्वीपों में लगभग 70 हजार की आबादी रहती है।
कोलकाता में यादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्री अध्ययन स्कूल के निदेशक सुगत हाजरा कहते हैं कि यह पर्यावरण में हो रहे बदलावों का नतीजा है। लोहाचारा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब गए हैं। अब सेटेलाइट से ली जाने वाली तस्वीरों में इनको नहीं देखा जा सकता। ग्लोबल वार्मिंग और लगातार जारी भूमि कटाव के कारण इलाके के कम से कम 12 और द्वीपों के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया है। हाजरा कहते हैं कि समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर व प्रशासनिक उदासीनता के कारण सुंदरबन का 15 फीसदी हिस्सा वर्ष 2020 तक समुद्र में समा जाएगा। वे बताते हैं कि यहां समुद्र का जलस्तर 3.14 मिमी सालाना की दर से बढ़ रहा है। इससे कम से कम 12 द्वीपों का वजूद संकट में है।
सुंदरबन इलाके में कुल 102 द्वीप हैं। उनमें से 54 द्वीपों पर आबादी है। मछली मारना और खेती करना ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं। इलाके में यहां रोजगार का कोई अवसर नहीं है। इसके साथ बढ़ती आबादी और बाहरी लोगों के यहां की जमीन पर कब्जा कर होटल खोलने के कारण दबाव और बढ़ा है। सुंदरबन के गड़बड़ाते पर्यावरण संतुलन पर व्यापक शोध करने वाले आर. मित्र कहते हैं कि इस मुहाने के द्वीप धीरे-धीरे समुद्र में समाते जा रहे हैं। अगले दशक के दौरान हजारों लोग पर्यावरण के शरणार्थी बन जाएंगे।
राज्य के अतिरिक्त प्रमुख वन संरक्षक अतनु राहा कहते हैं कि आबादी के दबाव ने सुंदरबन के जंगलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इलाके के गावों में रहने वाले लोगों के चलते जंगल पर काफी दबाव है। इसे बचाने के लिए एक ठोस पहल की जरूरत है ताकि जंगल के साथ-साथ वहां रहने वाले लोगों को भी बचाया जा सके। हमने इलाके में बड़ी नहरें व तालाब खुदवाने का फैसला किया है ताकि बारिश का पानी संरक्षित किया जा सके। इस पानी से इलाके में जाड़ों के मौसम में दूसरी फसलें उगाई जा सकती हैं। इससे जंगल पर दबाव कम होगा।
सरकार ने कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर सुंदरबन इलाके के लोगों में जागरूकता पैदा करने की भी योजना बनाई है। लेकिन सुंदरबन को बचाने की दिशा में होने वाले उपाय उस पर मंडराते खतरे के मुकाबले पर्याप्त नहीं हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि अगर इस दिशा में ठोस पहल नहीं की गई तो जल्दी ही सुंदरबन का नाम नक्शे से मिट जाएगा। तब यहां न तो बाघ बचेंगे और न ही इंसान। आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से कई बस्तियां जंगल से एकदम सटी हैं। बाघ अक्सर उनमें घुस जाते हैं। जिंदगी की इस बढ़ती जंग ने बाघों को उन गांव वालों के लिए राक्षस बना दिया है जो कभी उसी बाघ देवता की पूजा कर जंगल में जाते थे।

Tuesday, April 26, 2011

अनुशासनहीन और पार्टीविरोधी सोमनाथ बने माकपा का सहारा

बदलाव के शोर के बीच पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में माकपा की अगुवाई वाला वाममोर्चा सत्ता में बने रहने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। इसके लिए उसे पार्टीविरोधी और अनुशासनहीन पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का सहारा लेने से भी कोई परहेज नहीं है। सोमनाथ को जुलाई 2008 में इन्हीं आरोपों के चलते माकपा से निकाल दिया गया था। माकपा नेता और आवासन मंत्री गौतम चटर्जी के अनुरोध पर सोमनाथ के चुनाव प्रचार से पार्टी के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व के बीच की खाई एक बार फिर सतह पर आ गई है। अब इस अहम चुनाव के मौके पर पार्टी महासचिव प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी जैसे नेताओं को भी सोमनाथ का स्वागत करना पड़ रहा है।
यह बात जगजाहिर है कि माकपा के शीर्ष नेतृत्व में दक्षिणपंथी लाबी के दबाव में ही सोमनाथ जैसे कद्दावर नेता को पार्टीविरोधी गतिविधियों और अनुशासनहीनता के आरोप में माकपा से निकाल दिया गया था। उस समय इस मुद्दे पर प्रदेश और शीर्ष नेतृत्व के बीच गहरे मतभेद उभरे थे। प्रदेश माकपा के नेता सोमनाथ के खिलाफ निष्कासन जैसी कड़ी कार्रवाई के पक्ष में नहीं थे। सुभाष चक्रवर्ती समेत कई नेताओं ने तो सार्वजनिक तौर पर इस फैसले के खिलाफ सवाल उठाए थे।
सोमनाथ बीते सप्ताह से ही माकपा के समर्थन में कई रैलियों को संबोधित कर लोगों से आठवीं वाममोर्चा सरकार को सत्ता में लाने में की अपील कर रहे हैं। लेकिन गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज की तर्ज पर वाममोर्चा के नेता इस मामले को कोई तूल नहीं देना चाहते। माकपा के प्रदेश सचिव और वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु ने पहले ही पत्रकारों से कहा था कि अगर सोमनाथ समेत कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से माकपा व वाममोर्चा के पक्ष में प्रचार के लिए आगे आता है उसका विरोध नहीं, स्वागत किया जाएगा। महासचिव प्रकाश कारत और पोलितब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में इस मुद्दे पर टिप्पणी की। लेकिन वे शायद यह भूल गए कि सोमनाथ अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि माकपा के स्टार प्रचारक और सबसे बड़े प्रवक्ता के तौर पर उभरे गौतम देव के लगातार अनुरोध की वजह से प्रचार के लिए आगे आए हैं। शायद इसलिए करात ने यह जोड़ा कि प्रचार के लिए किसी को बुलाने या नहीं बुलाने का फैसला प्रदेश नेतृत्व पर निर्भर है। गौतम देव की ओर से सोमनाथ को दिए गए प्रचार के न्योते के बाते में पूछे गए सवाल पर पहले तो विमान बसु का कहना था कि उनको इसकी जानकारी नहीं है। वे कोलकाता से बाहर थे। इससे यह सवाल पैदा होता है कि क्या गौतम देव इतने ताकतवर हो गए हैं कि वे प्रदेश सचिव की अनुमति तो दूर, उनको सूचित किए बिना किसी ऐसे नेता को प्रचार का न्योता दे सकते हैं जिसे महज तीन साल पहले पार्टीविरोधी गतिविधियों के आरोप में माकपा से निकाल दिया गया हो। अगर सचमुच ऐसा है तो सोमनाथ को निकालने में पार्टी ने जिस अनुशासन का परिचय दिया था, उसकी तो देव ने धज्जियां ही उड़ा दीं।
लेकिन सोमनाथ को प्रचार का न्योता देने का फैसला अकेले गौतम का नहीं था। उन्होंने पत्रकारों को बताया था कि यह फैसला विमान बसु व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से सलाह-मशविरे के बाद ही लिया गया है। गौतम का सवाल था कि कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है कि एक बार पार्टी से निकाले जाने के बाद उस नेता को वापस नहीं लिया जा सकता या फिर उससे प्रचार नहीं कराया जा सकता।
पार्टी से निकाले जाने के बाद सक्रिय राजनीति से अलग रहने का फैसला करने सोमनाथ ने पत्रकारों से कहा था कि गौतम देव लगातार अपने समर्थन में दमदम इलाके में चुनाव प्रचार करने का अनुरोध कर रहे हैं। अपने समर्थन में हुई कई रैलियों के बाद गौतम अब सोमनाथ को पार्टी में वापस लेने की मुहिम चला रहे हैं। उनका कहना है कि वापसी का फैसला तो सोमनाथ पर निर्भर है। लेकिन वाममोर्चा उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार करने वाले ऐसे कद्दावर नेता को कब तक पार्टी से बाहर रखा जा सकता है।
सोमनाथ के प्रचार में उतरने का स्वागत मुख्यमंत्री ने भी किया है। लेकिन उन्होंने पार्टी में उनकी वापसी के सवाल पर कोई टिप्पणी नहीं की है। बुद्धदेव ने कहा कि सोमनाथ हमारी पार्टी के एक अहम नेता थे। दो-तीन साल पहले कुछ समस्याएं जरूर पैदा हो गईं। लेकिन वे अब भी पार्टी के साथ हैं। क्या उनकी वापसी होगी? इस सवाल पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि फिलहाल इस सवाल पर विचार नहीं किया गया है। लेकिन यह तय है कि उनके चुनाव प्रचार से हमें काफी फायदा होगा।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अपने कार्यकाल के सबसे अहम विधानसभा चुनाव का सामना कर रही माकपा अबकी कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहती। यही वजह है कि केंद्रीय नेतृत्व की परवाह किए बिना ही उसने सोमनाथ जैसे नेता को चुनाव प्रचार में उतारा है। इसके साथ ही उनको पार्टी में वापस लाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। सोमनाथ इन चुनावी रैलियों में कह चुके हैं कि वे अब भी मार्क्सवादी हैं। चुनाव का नतीजा वाममोर्चा के पक्ष में रहने की स्थिति में माकपा में सोमनाथ की वापसी के सवाल प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व का टकराव तय है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सोमनाथ के प्रचार से माकपा को कितना फायदा होगा या फिर पार्टी में उनकी वापसी होगी या नहीं, इन जैसे कई सवालों का जवाब तो बाद में मिलेगा। लेकिन उनके कूदने से माकपा के चुनाव अभियान को मजबूती तो मिली ही है।

बेशर्मी और बेहयाई की हदें टूटीं बंगाल चुनाव में

ममता तो सोनागाछी की वेश्या की तरह बड़ा ग्राहक मिलने पर छोटे को छोड़ देती हैं, तृणमूल कांग्रेस को अमेरिका से काला धन मिला है चुनाव लड़ने के लिए, ममता नाचते हुए भाषण देती हैं, पैरों में हवाई और प्रचार के लिए हेलीकाप्टर, यह तो जबरदस्त विरोधाभास है, माकपा नेता गौतम देव ने फ्लैट बेच कर करोड़ों की रिश्वत कमाई है उनको कमर में रस्सी बांध कर घूमाया जाना चाहिए, पश्चिम बंगाल देश का सबसे बदतर शासित राज्य है, सरकार ने बंगाल को कत्लगाह बना दिया है---यह बानगी है पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ लग रहे आरोपों की. बदलाव की कथित हवा के बीच हो रहे विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान में सचमुच बदलाव नजर आ रहा है. इस दौरान सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों यानी वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन ने एक-दूसरे पर निजी हमलों और अशालीन व कटु टिप्पणियों का जो दौर शुरू किया है उससे बेशर्मी और बेहयाई की तमाम हदें टूट गईं है. दोनों दलों के नेताओँ के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर ऐसे स्तर पर पहुंच गया है जिससे सड़क छाप गुंडे-मवाली भी शर्मा सकते हैं. कुछ नेता अपने विरोधियों के चरित्र हनन में इस कदर डूबे हैं कि उनको भाषा की गरिमा का भी ख्याल नहीं रहा. माकपा के एक पूर्व सांसद ने तो तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की तुलना सोनागाछी की वेश्या से कर सारी हदें तोड़ दी हैं.
पहले भी चुनाव में दोनों दलों के नेता अपने विरोधियों के खिलाफ तमाम आरोप तो लगाते थे. लेकिन उनकी भाषा संयत रहती थी. लेकिन इस बार यही नेता आप से तुम पर उतर आए हैं. इनके बीच तू-तू,मैं-मैं का जो दौर शुरू हुआ है वह आम वोटरों की कल्पना से परे है. दोनों पक्ष एक-दूसरे पर चुनाव प्रचार में काले धन के इस्तेमाल का आरोप लगा रहे हैं. मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान इसकी शुरूआत माकपा नेता और आवासन मंत्री गौतम देव ने की. उन्होंने तृणमूल कांग्रेस पर चुनाव अभियान के दौरान अपने उम्मीदवारों को 34 करोड़ का काला धन बांटने का आरोप लगाया. बाद में यह भी जोड़ा कि यह पैसा अमेरिका से मिला है. इसके जवाब में तृणमूल के नेताओं ने कहा कि गौतम देव ने चुनावों के एलान के बाद भी महानगर से सटे राजारहाट में फ्लैटों की अवैध बिक्री से लगभग दो सौ करोड़ रुपए कमाए हैं और वही पैसा चुनाव प्रचार में इस्तेमाल किया जा रहा है. तृणमूल ने कहा कि इस मामले में देव को गिरफ्तार कर उनकी कमर में रस्सी बांध कर उनको सड़कों पर घूमाना चाहिए.
इसके बाद देव ने फिर जवाबी हमला बोला. उन्होंने कहा कि ममता अपनी चुनावी रैलियों में नाच-नाच कर भाषण देती हैं. उन्होंने तृणमूल कांग्रेस पर उन कूपनों को जलाने का आरोप लगाया जिनके जरिए पार्टी ने अपने कथित काले धन को सफेद किया था. लेकिन उन्होंने अपने किसी भी आरोप के समर्थन में कोई सबूत नहीं दिया है. उनका कहना है कि समय आने पर वे सबूत पेश करेंगे. दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने भी गौतम के खिलाफ लगाए आरोपों पर कोई सबूत नहीं पेश किया है. उसकी दलील है कि पहले गौतम सबूत पेश करें, तब वह भी सबूत देगी.
गौतम देव बनाम तृणमूल कांग्रेस के बीच निहायत ओछी छींटाकशी का यह दौर चल ही रहा था कि हुगली जिले के आरामबाग से पूर्व माकपा सांसद अनिल बसु ने सारी हदें तोड़ दीं. उन्होंने कहा कि ममता को देश के विभिन्न हिस्सों से चुनाव खर्च के लिए पैसे मिल रहे थे. लेकिन उन्होंने मना कर दिया. दरअसल, उनको अमेरिका से इसके लिए पैसा मिल रहा है. बसु का कहना था कि जिस तरह सोनागाछी की वेश्याएं मालदार ग्राहक मिल जाने पर छोटे ग्राहकों को छोड़ देती हैं, ममता ने भी वैसा ही किया है. आखिर किस ग्राहक ने ममता को 34 करोड़ रुपए दिए हैं. बसु की इस टिप्पणी से यहां राजनीतिक हलके में तूफान खड़ा हो गया है. तृणमूल कांग्रेस ने उनके भाषण की सीडी के साथ चुनाव आयोग को शिकायत भेजी है. तृणमूल नेता पार्थ चटर्जी ने इस टिप्पणी के लिए बसु की गिरफ्तारी की मांग की है. दूसरी ओर, बसु की इस टिप्पणी से माकपा नेतृत्व भी सकपका गया. यही वजह है कि प्रदेश सचिव विमान बसु और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अलग-अलग बयान जारी कर बसु की उक्त टिप्पणी की निंदा की. भट्टाचार्य ने अभद्र भाषा इस्तेमाल करने पर अनिल बसु को कड़ी फटकार लगाते हुए भविष्य में सतर्क रहने को कहा है. मुख्यमंत्री ने कहा कि इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल क्षमा करने लायक नहीं है और एक वामपंथी नेता के नाते यह अनुचित है. भट्टाचार्य ने पार्टी नेतृत्व से इस मामले को गंभीरता से देखने और आवश्यक कदम उठाने को कहा.
भट्टाचार्य की फटकार पर दो दिन बाद बसु ने इस टिप्पणी के लिए माफी मांगने की औपचारिकता निभा ली. वैसे, सात बार सांसद रहे बसु की शालीनता का यह पहला मामला नहीं है.यह माकपा सांसद इससे पहले सिंगुर मामले पर टिप्पणी करते हुए कह चुके हैं कि वे नैनो कारखाने के सामने धरना मंच पर बैठी ममता को बाल पकड़ कर खींचते हुए नीचे उतार सकते थे.
दूसरी ओर, गौतम देव के तेवर जस के तस हैं.बीते सप्ताह एक स्थानीय चैनल पर इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा दिया था कि माकपा समेत हर पार्टी में अमेरिकी खुफिया एजंसी सीआईए के एजंट हैं.वे ममता की सादगी और हवाई चप्पलों की खिल्ली उड़ाते हुए कह चुके हैं कि पैरों में हवाई और चुनाव प्रचार के लिए हेलीकाप्टर—इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है.
इस सप्ताह चुनाव प्रचार के लिए आए केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम ने बंगाल को देश का सबसे बदतर शासित राज्य बताते हुए सरकार पर राज्य को कत्लगाह बनाने का आरोप जड़ दिया. इससे तिलमिलाए वामपंथियों ने कहा कि चिदंबरम पहले अपने गिरेबां में झांकें.
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राज्य में चुनावों के दौरान निजी हमले तो पहले भी होते रहे हैं.लेकिन इस बार यह हमला जिस ओछे स्तर पर शुरू हो गया है वह बेमिसाल है.दरअसल, इस बार दोनों ही दावेदार चुनावी नतीजों को लेकर काफी डरे हुए हैं। एक को सत्ता हाथ से निकलने का डर सता रहा है तो दूसरा यह सोचकर आशंकित है कि इतनी उम्मीदों के बावजूद अगर सत्ता हाथ में नहीं आई तो क्या होगा. ऐसे में निजी हमलों और चरित्रहनने का यह दौर चुनावी नतीजों तक कम होने की बजाय और बढ़ेगा ही.

बंगाल चुनाव में ओबामा !


पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच भला क्या संबंध है? इसका जवाब है कुछ नहीं. ओबामा तो कभी बंगाल के दौरे पर भी नहीं आए हैं. वीकलीक्स के ताजे खुलासे में भले ममता के अमेरिका के लिए बेहतर साबित होने की बात कही गई हो, ओबामा यहां तृणमूल के पक्ष में चुनाव प्रचार नहीं कर रहे हैं. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं चाहते हुए भी हजारों मील दूर कोलकाता में दिलचस्प चर्चा का मुद्दा बन गए हैं. विधानसभा चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस का एक उम्मीदवार ओबामा के सहारे चुनाव प्रचार कर रहा है. कोलकाता की टालीगंज विधानसभा सीट के तृणमूल उम्मीदवार अरूप विश्वास अपने चुनाव अभियान के दौरान इस बात का जम कर प्रचार कर रहे हैं कि पिछले साल दुर्गापूजा के दौरान उन्होंने पर्यावरण पर मंडराते खतरों को उजागर करते हुए जो थीम रखी थी उसकी प्रशंसा ओबामा ने भी की है. इस सीट पर मतदान 27 अप्रैल को होना है.
विश्वास महानगर के अलीपुर इलाके की सुरुचि संघ आयोजन समिति के प्रमुख हैं. इस क्लब ने पिछले साल बारिश के पानी के संरक्षण (रेन वाटर हारवेस्टिंग) की थीम पर दुर्पापूजा आयोजित की थी. विश्वास विधायक के तौर पर अपने पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाते हुए जो परचा बांट रहे हैं, उसमें ओबामा की ओर से लिखे गए प्रशंसा पत्र की बात मोटे अक्षरों में लाल स्याही से छपी है. विश्वास ने पर्यावरण की थीम की जानकारी देते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति को जो पत्र लिखा था उसी के जवाब में ओबामा ने यह पत्र भेजा था.
विश्वास कहते हैं, ‘हमने पूजा की थीम के बारे में और बाद में इसके सफल आयोजन के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए ओबामा को दो पत्र लिखे थे. उसके जवाब में उन्होंने एक निजी पत्र भेजा था.’ वह कहते हैं कि यह मेरी उपलब्धियों में से एक है.
लेकिन सीपीएम इसे हास्यापास्द करार दे रही है. वैसे, सीपीएण के तमाम नेता पहले ही कह चुके हैं कि अमेरिका यहां लेफ्ट फ्रंट को सत्ता से हटाने के लिए तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठजोड़ की सहायता कर रहा है. सीपीएम के उम्मीदवार पार्थ प्रतिम विश्वास सवाल करते हैं, ‘आखिर दुर्गापूजा के बारे में ओबामा के पत्र का इस्तेमाल वोट मांगने के लिए कैसे किया जा सकता है? इससे साफ है कि विपक्ष मानसिक तौर पर दिवालिया हो चुका है.’
लेकिन अरूप विश्वास इससे परेशान नहीं हैं. वह कहते हैं, ‘हम इलाके में हरियाली फैलाने की दिशा में कई ठोस योजनाएं शुरू करेंगे. इसके अलावा पर्यावरण पर बढ़ते खतरों के बारे में भी लोगों को आगाह किया जाएगा.’ पर्यावरण को बचाने के लिए वह प्लास्टिक पर पाबंदी लगा कर जूट और मिट्टी के बने थैलों और कपों को बढ़ावा देना चाहते हैं. विश्वास कहते हैं कि इस कानून के चलते बेरोजगार होने वाले प्लास्टिक निर्माण उद्योग से जुड़े लोगों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराया जाएगा.
प्रभाकर,कोलकाता

Monday, April 25, 2011

डूबते द्वीप को बचाने के लिए वोट देंगे


पश्चिम बंगाल में सुंदरबन डेल्टा के लगातार धंसते द्वीपों में से एक मौसुनी के लगभग 10 हजार मतदाता जब विधानसभा चुनाव के तीसरे दौर में अपना वोट डालने के लिए मतदान केंद्रों तक पहुंचेंगे तो बिजली, पानी और सड़क जैसे आधारभूत मुद्दे उनकी चिंता का विषय नहीं होंगे. यह लोग इस बार मौसुनी को बंगाल की खाड़ी में डूबने से बचाने की उम्मीद में वोट देंगे. दक्षिण 24-परगना जिले के मथुरापुर संसदीय क्षेत्र में बसे 24 वर्गकिलोमीटर में फैले इस द्वीप में बिजली, सड़क और पानी के दर्शन दुर्लभ हैं. लेकिन इस द्वीप के लोगों के लिए यह चुनाव वजूद की लड़ाई बन गया है. जिस तेजी से यह द्वीप समुद्र में समा रहा है उससे यह तय करना मुश्किल है कि यह कब तक बचेगा.
इस द्वीप के गोपाल मंडल कहते हैं कि ‘हमें सड़क, पानी, बिजली या दूसरी कोई सुविधा नहीं चाहिए. हम चाहते हैं कि इस बार यहां से जीतने वाला विधायक इस द्वीप को बचाने के लिए समुद्र तट पर तटबंध बनवा दे.’ मंडल के परिवार के पास इस डूबते द्वीप पर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. बीते साल कोई पांच सौ लोग यहां से सुरक्षित स्थानों पर जा चुके हैं. बीते साल अक्तूबर में द्वीप पर बना तीन किलोमीटर लंबा तटबंध टूट गया था. उसके बाद समुद्र के खारे पानी ने इलाके में खेत और उसमें खड़ी फसलों को लील लिया. अब खारे पानी के चलते वह जमीन उपजाऊ नहीं रही.
समुद्र के बढ़ते जलस्तर की वजह से मौसुनी और घोड़ामारा जैसे द्वीप लगातार पानी में समा रहे हैं. मौसुनी के जलालुद्दीन कहते हैं कि ‘हमारे वोट बायकाट से भी कोई खास अंतर नहीं पड़ने वाला. इसलिए हम इस द्वीप को बचाने की उम्मीद में वोट दे रहे हैं. शायद जीतने वाला उम्मीदवार तटबंध बनवाने की दिशा में पहल करे.’ मथुरापुर संसदीय क्षेत्र का 60 फीसद हिस्सा सुंदरबन डेल्टा में है. वहां मौसुनी और घोड़ामारा जैसे डूबते द्वीपों से लोगों का पलायन लगातार बढ़ रहा है. घोड़ामारा द्वीप की आबादी पहले पांच हजार थी. लेकिन वहां अब डेढ़ हजार लोग ही बचे हैं. यह द्वीप नौ वर्गकिलोमीटर के मुकाबले बीते कुछ वर्षों में घट कर आधा रह गया है.
इस बार सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस ने इन द्वीपों को बचाने के लिए ठोस पहल करने का वादा तो किया है. लेकिन लोगों को उन पर भरोसा कम ही है. इलाके में ज्यादातर ग्राम पंचायतों पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है. द्वीपों की इस समस्या के लगातार गंभीर होने की जिम्मेवारी दोनों राजनीतिक दल एक-दूसरे पर डाल रहे हैं. मथुरापुर के तृणमूल सांसद और केंद्रीय मंत्री चौधरी मोहन जटुआ कहते हैं कि ‘इलाके के माकपा सांसद बासुदेव बर्मन ने पहले संसद में एक बार भी इन द्वीपों का मुद्दा नहीं उठाया. हम इसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं.’ दूसरी ओर, सीपीएम नेता और सुंदरबन विकास मंत्री कांति गांगुली कहते हैं कि ‘इन डूबते द्वीपों की समस्या इतनी गंभीर है कि राज्य सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती. इस समस्या पर राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए.’ दिलचस्प बात यह है कि इस इलाके में किसी भी पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में सुंदरबन में होने वाले जलवायु परिवर्तन या डूबते द्वीपों का कोई जिक्र तक नहीं किया है. यहां भी खेती और औद्योगिकीकरण जैसे मुद्दे ही हावी रहे हैं.
मौसुनी ग्राम पंचायत के सदस्य रामकृष्ण मंडल कहते हैं कि ‘पंचायतें इस समस्या से निपटने में सक्षम नहीं हैं. तटबंध बनाने में करोड़ों का खर्च है. इतना पैसा आएगा कहां से?’ इलाके के लोगों कि शायद इस बार कहीं से इस द्वीप को बचाने की कोई शुरूआत हो. ऐसा नहीं हुआ तो यह द्वीप पूरी तरह डूब जाएगा और यहां के लोग भी पर्यावरण के शरणार्थियों की लगातार बढ़ती तादाद में शामिल हो जाएंगे.

अब मीडिया से भी दो-दो हाथ करने पर तुली माकपा

विधानसभा चुनाव में से हमारी लड़ाई तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन नहीं है। वह तो हमारे लिए ब्रेकफास्ट है। यानी हम उसे नाश्ते में ही चट कर जाएंगे। हमारी असली लड़ाई तो कुछ मीडिया घरानों से है। यह टिप्पणी है हाल के महीनों में माकपा के सबसे बड़े प्रवक्ता और झंडाफरमबदार के तौर पर उभरे आवासन मंत्री गौतम देव की। देव की इस हुंकार से साफ है कि अबकी माकपा ने मीडिया से भी दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यानी जबरा मारे और रोने भी न दे।
राज्य में अबकी विधानसभा चुनाव हकीकत में घमासान साबित हो रहा है। सत्ता के दोनों दावेदारों में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़ लगी है। इनमें वाममोर्चा की ओर से माकपा सबसे मुखर है। दूसरी ओर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हैं। गौतम देव को माकपा के आला नेताओँ का समर्थन भी हासिल है। ऐसा खुद उनका कहना है और माकपा जैसी अनुशासित पार्टी में ऐसा होना स्वाभाविक ही है। दरअसल, गौतम और उनकी पार्टी की नाराजगी हाल में एक बड़े मीडिया घराने की ओर से किया गया वह सर्वेक्षण है जिसमें वाममोर्चा के 294 में से महज 74 सीटों पर सिमटने की बात कही गई है और तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को 215 सीटें दी गई हैं। माकपा नेता ने इस सर्वेक्षण को सिरे से ही खारिज कर दिया है। लेकिन इसके साथ वे अनजाने में अपना और अपनी पार्टी का डर भी बयान कर गए। उन्होंने कहा कि अगर इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के चलते दो फीसद वोट भी इधर से उधर हो गए तो कुछ वोटर हाथ से निकल सकते हैं। इसके साथ ही वे यह जोड़ना भी नहीं भूले कि किसी भी मीडिया हाउस से उनकी जाती दुश्मनी नहीं है। यानी वे जो कुछ भी कह या कर रहे हैं वह माकपा के प्रदेश मुख्यालय अलीमुद्दीन स्ट्रीट के इशारे पर।
कोलकाता प्रेस क्लब हर बार चुनावों के मौके पर तमाम राजनीतिक दलों के नेताओँ को बुलाकर प्रेस से मिलिए कार्यक्रम आयोजित करता है। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के अलावा तमाम दलों के प्रमुख नेता इसमें शिरकत कर चुके हैं। ममता ने लाख कोशिशों के बावजूद समय ही नहीं दिया। इसी सिलसिले में बारी थी गौतम देव की। तीन-चार महीने पहले महानगर से सटे राजारहाट इलाके में जमीन अधिग्रहण पर उभरे विवाद के बाद गौतम देव माकपा के सबसे बड़े प्रवक्ता के तौर पर उभरे हैं। वे बहस अच्छी कर लेते हैं और तार्किक तरीके से सबूतों और आंकड़ों के हवाले अपनी बात रखते हैं। लेकिन शनिवार को उन्होंने दो-टूक शब्दों में मीडिया और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए।
यह एक खुला रहस्य है कि चुनावों के मौके पर तमाम राजनीतिक दलों की ओर से अपने पक्ष में प्रायोजित सर्वेक्षण कराए जाते रहे हैं। लेकिन अब तक किसी पार्टी ने इन सर्वेक्षणों के खिलाफ इतने उग्र तरीके से प्रतिक्रिया नहीं जताई थी। इस सर्वेक्षण के बहाने मीडिया को कटघरे में खड़ा करने के दौरान गौतम ने बस पेड न्यूज शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन इसके अलावा सब कुछ कह दिया।
यह सही है कि बीते पांच-छह सालों के दौरान कोलकाता समेत पूरे बंगाल के मीडिया में जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ है। कोई वाममोर्चा के पक्ष में तटस्थ है तो कोई तृणमूल कांग्रेस के। इनमें से ज्यादातर तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में हैं। लेकिन एकाध चैनल और कुछ अखबार तो माकपा के पक्ष में भी जबरदस्त तरीके से लामबंद हैं। इन अखबारों में कई बार भारी बहुमत के साथ वाममोर्चा के सत्ता में लौटने की बात छप चुकी है। लेकिन विपक्ष ने कभी इनका विरोध या खंडन नहीं किया है। लेकिन अपने विरोध में पहला सर्वेक्षण छपते ही माकपा आक्रामक मुद्रा में नजर आ रही है। दिलचस्प बात यह है कि गौतम ने जितने जबरदस्त तरीके से सर्वेक्षण का विरोध किया, उस विरोध को रविवार को किसी अखबार ने छापने लायक ही नहीं समझा। उस समूह ने भी नहीं, जिसने इसे कराया और छापा था। माकपा के मुखपत्र गणशक्ति और उसके समर्थक कुछ अखबारों में यह खबर जरूर सुर्खियों में रही।
अपनी उसी प्रेस कांफ्रेंस में गौतम ने तृणमूल कांग्रेस पर चुनावों में करोड़ों के कालेधन के इस्तेमाल होने का भी आरोप लगाया। उनकी दलील थी कि तृणमूल के एक के अलावा सभी उम्मीदवारों को पार्टी दफ्तर से 15-15 लाख रुपए दिए गए हैं। उनका कहना था कि वे उस एक उम्मीदवार का नाम नहीं बताएंगे। लेकिन मीडिया चाहे तो सीबीआई के पूर्व अधिकारी उपेन विश्वास से बात कर सकता है। चारा घोटाले की जांच के लिए चर्चित विश्वास तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर उत्तर 24-परगना जिले के बागदा से चुनाव मैदान में हैं। माकपा नेता ने पत्रकारों को उपेन विश्वास की मोबाइल नंबर भी दिया। उनकी सहूलियत के लिए। लेकिन बाद में उपेन विश्वास ने साफ कह दिया कि उनको तृणमूल की ओर से चुनाव खर्च के तौर पर न तो कोई पैसे दिए गए हैं और न ही कभी इस बारे में कोई बात हुई है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि माकपा फिलहाल आक्रमण ही बचाव का सबसे बेहतर तरीका है की कहावत पर चल रही है। ऐसे में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का दौर अभी और तेज होने का अंदेशा है। अब इसके साथ ही पार्टी ने मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है। चुनावी बिसात पर बाजी बिछने से पहले ही माकपा मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी दबाब का खेल खेल रही है। यह लड़ाई चुनाव मैदान से बाहर की है। और गौतम देव के मुताबिक असली लड़ाई यही है। वरना उनके शब्दों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन से मुकाबला तो उनके लिए महज ब्रेकफास्ट यानी नाश्ता है।