Friday, July 31, 2009

पुलिसवालों का अंधविश्वास!



इसे अंधविश्वास कहें, आस्था या फिर दशकों पुरानी परंपरा. लेकिन पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के 32 साल लंबे शासनकाल के बावजूद राज्य पुलिस ने कुछ ऐसी परंपराओं को जीवित रखा है जिनको देख-सुन कर आज के दौर में कोई भी शर्मसार हो सकता है. उसका मानना है कि किसी पुलिस वाले के हाथों से डंडा गिर जाए तो उस इलाके में कानून व व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है. और अगर डंडा हाथों से छूट कर नीचे गिर जाए तो भावी अनिष्ट से बचने के लिए उसे गंगाजल से धोया जाता है. यही वजह है कि राज्य के तमाम थानों में थानाध्यक्ष के कमरे में गंगाजल से भरी बोतल जरूर रखी रहती है. ऐसे अंधविश्वासों की सूची काफी लंबी है.
कोई भी पुलिस अधिकारी अपनी ड्यूटी के दौरान केस डायरी नहीं लिखता. उनका मानना है कि ऐसा करने पर काम के घंटे बढ़ सकते हैं. एक पुलिस अधिकारी कहते हैं कि ‘ड्यूटी का समय खत्म हो जाने के बाद ही हम लोग केस डायरी लिखते हैं.’ राज्य के हर थाने में जनरल डायरी रजिस्टर व प्राथमिकी रजिस्टर को एक-दूसरे से काफी दूर रखा जाता है. पुलिस वाले मानते हैं कि अगर यह दोनों एक-दूसरे से छू गए तो थाने में शिकायतों की भऱमार लग जाएगी. थाने में कोई भी अधिकारी अपनी कुर्सी पर बैठ कर न तो मांसाहारी भोजन करता है और न ही अपनी मेज पर इसे रखता है. वजह-इससे आसपास के इलाके में अपराध बढ़ जाएंगे.
यह परंपरा सिर्फ थानों तक ही सीमित नहीं है. कोलकाता पुलिस के मुख्यालय लालबाजार में खुफिया विभाग के अधिकारी किसी छापामारी अभियान में रस्सा साथ लेकर नहीं जाते. यह रस्सा अपराधियों को बांधने में काम आता है. अधिकारियों का मानना है कि इससे अपराधी को पकड़ने में दिक्कत हो सकती है. खुफिया विभाग में रहे एक पुलिस अधिकारी कहते हैं कि ‘मैंने वहां अपने कार्यकाल में देखा कि कोई भी हाथों में रस्सा लेकर नहीं जाना चाहता था.’ इसी विभाग के एक अन्य अधिकारी बताते हैं कि ‘ड्यूटी खत्म कर घर जाने से पहले थाने का हर कर्मचारी पुलिस लाकअप को हाथ जोड़ कर प्रणान करता है. उनकी मान्यता है कि इससे लाकअप में मौत जैसी अप्रिय घटना नहीं होगी.’ जीप से किसी अपराधी को पकड़ने निकली पुलिस टीम का रास्ता अगर कोई बिल्ली काट दे तो वे अपनी गाड़ी खड़ी कर तब तक रुके रहते हैं जब तक दूसरी कोई गाड़ी सड़क पर आगे नहीं निकल जाए. एक पुलिस इंस्पेक्टर बताते हैं कि ‘अगर हमने ऐसा नहीं किया तो खाली हाथ लौटना पड़ सकता है.’
पुलिसवालों में शून्य के प्रति इतना खौफ है जैसे उन्होंने किसी का भूत देख लिया हो. कोई भी पुलिस वाला अपने हाजिरी रजिस्टर में अपने आने या जाने का समय इस तरह नहीं लिखता कि अंतिम अंक शून्य हो. यानी कोई अगर 10 बजे थाने पहुंचेगा तो भी वह रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए पांच मिनट तक इंतजार करेगा और समय लिखेगा दस बजकर पांच मिनट.
आखिर इन अंधविश्वासों की वजह क्या है? मनोवैज्ञानिक सलाहकार डा. सुमित चटर्जी का कहना है कि ‘दरअसल ज्यादातर पुलिस वाले भी भ्रष्ट हैं. इसलिए वे लोग इन अंधविश्वासों पर भरोसा करते हैं.’ राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि ‘कुछ पुलिसवाले अंधविश्वासी जरूर हैं. लेकिन इस नौकरी में आने वाले खतरों व असुरक्षा की भावना के चलते ही वे लोग ऐसा करते हैं. एक गलती से उनकी नौकरी तक जा सकती है. वे कहते हैं कि पुलिस वाले समाज को अपराधमुक्त रखना चाहते हैं. इसके लिए ही वे लोग इन पुरानी परंपराओं का पालन करते आ रहे हैं.’

विपक्षी गठजोड़ के नौ दो ग्यारह होने का खतरा

विधानसभा की दो और नौ यानी ग्यारह सीटों के फेर में पश्चिम बंगाल में विपक्षी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठजोड़ के नौ दो ग्यारह होने का खतरा मंडराने लगा है। लोकसभा चुनावों में भारी कामयाबी हासिल करने के दो-ढाई महीने के भीतर ही विपक्षी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच दरारें उभरने लगी हैं। 18 अगस्त को महानगर में विधानसभा की दो सीटों के लिए वोट पड़ेंगे। इसके बाद राज्य में नौ और सीटों के लिए उपचुनाव होंगे। दो सीटों पर मतभेद तो एक-एक के फार्मूले पर शनिवार यानी नामंकन वापस लेने की अंतिम तारीख तक सुलझने के आसार हैं। लेकिन असली संकट इसके बाद की नौ सीटों का है। यह सीटें विधायकों के सांसद चुने जाने की वजह से खाली हुई हैं।
जानकार सूत्रों का कहना है कि बऊबाजार और सिलायदह सीटों पर उम्मीदवारी को लेकर उपजा विवाद कल तक दूर होने की संभावना है। दोनों दलों का शीर्ष नेतृत्व एक-एक सीट के फार्मूले पर सहमत हो गया है। इस वजह से तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी बऊबाजार सीट से अपना उम्मीदवार हटा सकती हैं और इसके बदले कांग्रेस सियालदह सीट से अपने उम्मीदवार का नामांकन वापस ले लेगी। इससे दोनों पार्टियां इन सीटों पर आपस में दोस्ताना मुकाबले से बच जाएंगी।
लेकिन इससे बड़ा खतरा अभी आने वाला है। जल्दी ही नौ और विधानसभा सीटों-रायगंज, अलीपुर, बनगांव, श्रीरामपुर, कांथी दक्षिण, एगरा, सुजापुर, कालचीनी और ग्वालपोखर के लिए उपचुनाव होने हैं। राज्य चुनाव विभाग के सूत्रों की मानें तो इन सीटों के लिए दुर्गापूजा के बाद ही वोट पड़ेंगे। इन सीटों से जीते विधायक लोकसभा का पिछला चुनाव जीतने के बाद विधानसभा से इस्तीफा दे चुके हैं। इन नौ से में से अलीपुर, कांथी दक्षिण एगरा, बनगांव व श्रीरामपुर यानी पांच सीटें तृणमूल कांग्रेस की हैं। लेकिन तृणमूल कांग्रेस अबकी उत्तर बंगाल की कालचीनी सीट पर भी अपना उम्मीदवार उतारने का मन बना रही है। वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव में यहां कांग्रेस का उम्मीदवार मैदान में था। तब आरएसपी के मनोहर तिर्की यहां से जीत गए थे। अब सीटों पर समझौते के फार्मूले के तहत कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने एक दूसरे के असर वाले इलाकों में अपना उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारने पर सहमति दी थी। इस लिहाज से तृणमूल को कालचीनी में अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा करना चाहिए। दूसरी ओर, कांग्रेस भी रायगंज में मैदान में उतरने की सोच रही है। बीते चुनाव में वहां तृणमूल मैदान में थी। उस सीट पर तब माकपा के महेंद्र राय चुनाव जीते थे। अब अगर कांग्रेस वहां मैदान में उतरती है तो नए सिरे से विवाद उभरना तय है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि रायगंज कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है। इसलिए पार्टी अबकी वहां चुनाव लड़ने का मन बना रही है।
कांग्रेस ने वर्ष 2006 में ग्वालपोखर और सुजापुर सीटें जीती थी। ग्वालपोखर में पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रिय रंजन दासमुंशी की पत्नी दीपा दासमुंशी ने माकपा उम्मीदवार को हराया था। लेकिन तृणमूल कांग्रेस दीपा से नाराज है। दापी ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कई बार सार्वजनिक तौर पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की आलोचना की थी। उनको सबक सिखाने के लिए ही पार्टी वहां अपना उम्मीदवार उतारने का मन बना रही है।
उधर, माकपा की नजरें गठजोड़ में उभरने वाली इन दरारों पर टिकी हैं। गठजोड़ में फूट उसकी राह आसान कर सकता है। इन 11 सीटों पर ही नहीं बल्कि दो साल से भी कम समय में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों में भी। यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लोकसभा चुनावों में भारी कामयाबी के बाद ममता अब विधानसभा की तमाम सीट अपने कब्जे में करने का प्रयास कर रही है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले उत्तर बंगाल में भी अपने उम्मीदवार उतारने का मन बनाया है। ममता की दलील है कि वे कालचीनी और रायगंज सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार तो जीते नहीं थे। ऐसे में उनको उसकी सीटें कैसे माना जा सकता है। ममता के इस रवैए से कांग्रेस में असंतोष खदबदा रहा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व ने अपना रुख और लचीला नहीं किया तो यह गठजोड़ अगले विधानसभा चुनाव से पहले ही नौ दो ग्यारह हो सकता है। इसका फायदा माकपा और वाममोर्चा को मिलना तय है। इस खतरे को भांप कर ही दोनों दलों के नेताओं ने इन दो सीटों का विवाद सुलझाने का फैसला किया है। लेकिन बाकी की नौ सीटों का क्या होगा? विपक्ष के गठजोड़ का भविष्य इस सवाल के जवाब पर ही टिका है।

Thursday, July 30, 2009

अब न्याय दिलाना ही मिशन है फिऱोजा बीबी का


पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ़ आंदोलन और हिंसा की वजह से लंबे अरसे तक सुर्खियों में रहे नंदीग्राम की 57 साल की मुस्लिम गृहिणी फिऱोजा बीबी के जीवन का मिशन अब उन लोगों के परिजनों को न्याय दिलाना है जो 14 मार्च 2007 को हुई पुलिस फायरिंग में मारे गए थे. दो साल पहले हुई उस फायरिंग में फिऱोजा ने अपना बेटा भी खोया था. लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी थी. उसी का नतीजा था कि वह तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर नंदीग्राम विधानसभा के लिए हुए उपचुनाव में मैदान में उतरी और रिकार्ड वोटों से जीत हासिल की. इस जीत के बाद फिऱोजा विधानसभा के बजट अधिवेशन में हिस्सा लेने जब पहली बार सदन में पहुंची तो विधायकों से लेकर मीडिया तक तमाम निगाहें उसी पर टिकी थीं.
फिरोजा कहती है कि ‘मेरा बेटा शेख इमदादुल इस्लाम तो अब लौट कर नहीं आएगा. लेकिन मैं चाहती हूं कि अब नंदीग्राम का कोई परिवार उस पीड़ा से नहीं गुजरे, जो मैंने भोगी है. अब मेरा मकसद नंदीग्राम के हिंसापीड़ितों को न्याय दिलाना है.’ वह कहती है कि ‘सदन में सरकार भले मेरी आवाज नहीं सुने, मैं अपना विरोध जारी रखूंगी. सरकार मुझसे विरोध जताने का यह अधिकार नहीं छीन सकती.’ वह कहती है कि कलकत्ता हाईकोर्ट के निर्देश के बावजूद ज्यादातर लोगों को अब तक कोई मुआवजा नहीं मिला है.
फिऱोज बताती है कि ‘हमारे परिवार के पास छह बीघे जमीन है. हम केमिकल हब के लिए वह जमीन नहीं देना चाहते थे. उस दिन मेरा बेटा भी दूसरों के साथ अधिग्रहण के प्रति विरोध जताने गया था. शाम को मुझे पता चला कि पुलिस की गोली से उसकी मौत हो गई है.’
बीते साल दिसंबर में हुए उपचुनाव में तृणमूल ने जब अपना उम्मीदवार बनाने का फैसला किया तो फिऱोजा पहले इसके लिए तैयार नहीं हुई. लेकिन बाद में गांव वालों के जोर देने पर वह चुनाव लड़ने पर राजी हो गई. तृणमूल ने तय किया था कि वह पुलिस फायरिंग में मरे किसी व्यक्ति के घरवाले को ही टिकट देगी. इसीलिए फिरोजा को चुना गया.
फिऱोजा के पति शेख मनीरुल रहमान हाल ही में कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट की नौकरी से रिटायर हुए हैं. वे कहते हैं कि ‘हमारा परिवार रुढ़िवादी है. लेकिन फिऱोजा ने एक नेक मकसद के तहत चुनाव लड़ने का फैसला किया था. यही वजह है कि इलाके के लोगों ने उसे रिकार्ड वोटों के अंतर से जीत दिलाई.’ अब 57 साल की उम्र में फिऱोजा ने अपने जीवन की दूसरी पारी शुरू की है. वह कहती है कि ‘उस पुलिस फायरिंग के दो साल बाद पीड़ितों को न्याय दिलाने की मेरी असली लड़ाई तो अब ही शुरू हुई है. अब यही मेरा मिशन है.’

Sunday, July 26, 2009

बदल गया है नक्सलबाड़ी का चेहरा


नक्सलबाड़ी याद है आपको? देश को नक्सल शब्द इसी कस्बे की देन है. लेकिन किसी जमाने में सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजाकर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने वाले नक्सलबाड़ी का चेहरा अब पूरी तरह बदल गया है. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में सिलीगुड़ी की सीमा से कोई 26 किलोमीटर दूर नेपाल की सीमा से सटा यह कस्बा अपने नक्सली अतीत और आधुनिकता के मौजूदा दौर के बीच पिस रहा है. साठ के दशक के आखिरी दौर में किसानों को उनके अधिकार दिलाने के लिए यहां से जिस नक्सल आंदोलन की शुरूआत हुई थी अब यहां ढूंढ़ने से भी उसके निशान नहीं मिलते. जिस नक्सलबाड़ी की गलियों में आंदोलन के दिनों में क्रांति के गीत गूंजते थे, वहां अब गली-गली में रीमिक्स गीतों का कानफाड़ू शोर गूंजता है. नक्सल आंदोलन के भग्नावशेष के तौर पर पुरानी दीवारों पर लिखे कुछ नारे और नक्सल नेता चारू मजुमदार, जिनको इलाके में सी.एम. के नाम से जाना जाता है, की एकाध मूर्ति ही नजर आती है. इलाके की युवा पीढ़ी अब नक्सली आदर्शों को भुला कर तस्करी के धंधे में जुटी है. नेपाल से लगी सीमा ने युवकों को इस स्वरोजगार में काफी सहायता दी है.

बीते 40-42 वर्षों के दौरान आए इस बदलाव से नक्सल नेता कानू सान्याल कुछ हताश जरूर हैं लेकिन अभी उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी है. 80 से ऊपर की अपनी उम्र और तमाम बीमारियों के बावजूद वे इलाके के लोगों में अलख जगाने में जुटे हैं. उनके आदर्शों में आप भले विश्वास नहीं करें, लेकिन कुछ देर उनसे बातचीत के बावजूद के बाद आपको इस बात का यकीन हो जाएगा कि अपने आदर्शों के प्रति सान्याल में जितनी लगन और निष्ठा है, वह आजकल के राजनेताओं में दुर्लभ है. सान्याल के कट्टर विरोधी भी इस बात को कबूल करते हैं. वर्ष 1967-68 में नक्सल आंदोलन को कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं कि नक्सलबाड़ी में अब नक्सल आंदोलन का कोई निशान नहीं बचा है. नक्सली अनगिनत गुटों में बंट गए हैं. चारू मजुमदार की गिरफ्तारी के बाद नक्सल आंदोलन बिखर गया. जो आंदोलन पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बन सकता था वह इतिहास के पन्नों में महज एक हिंसक आंदोलन के तौर पर दर्ज हो कर रह गया.
नक्सल आंदोलन के जनक नक्सलबाड़ी में आधुनिकता की झलक अब साफ नजर आती है. अब यहां कोई क्रांति की बात तक नहीं करना चाहता. भारत से नेपाल को अलग करने वाली मेची नदी पर बने पुल के इस पार विदेशी सामानों की दुकान चलाने वाले रतन प्रामाणिक कहते हैं कि इलाके की युवा पीढ़ी के लिए अब विदेशी फैशन, हालीवुड और बालीवुड की फिल्में ही बहस के प्रमुख मुद्दे बन गए हैं. नक्सल आंदोलन तो यहां एक ऐसी किताब बन गया है जिसके पन्ने कोई नहीं पलटना चाहता. वे कहते हैं कि रोजगार का कोई वैकल्पिक साधन नहीं होने के कारण युवकों ने तस्करी के आसान पेशे को अपना लिया है. इसमें खतरा व मेहनत कम है और कमाई ज्यादा. नेपाल से सीमा पार कर तस्करी के जरिए विदेशी सामान लाकर बेचने वाला हीरेन सिंह उनकी तस्दीक करते हुए कहता है कि यहां रोजगार तो कुछ है नहीं. आखिर पेट भरने के लिए कुछ तो करना ही होगा. नक्सलबाड़ी व इसके आसपास बसे गांवों ने ही दुनिया के शब्दकोष को नक्सलवाद नामक शब्द दिया था. लेकिन उस आंदोलन के चार दशक बाद भी इलाके की हालत नहीं सुधरी है. लोगों के रहन-सहन का स्तर पहले जैसा ही है. ज्यादातर गांवों में न तो बिजली पहुंची है और न ही सड़क.
आखिर उस आंदोलन का ऐसा हश्र क्यों हुआ? आंदोलन के दिनों में चारू मजुमदार के बाद दूसरे सबसे बड़े नेता रहे कानू सान्याल इस सवाल पर गहरी सांस छोड़ते हुए कहते हैं कि यहां किसानों का आंदोलन सही मायने में जनसंघर्ष था. लेकिन आगे चलकर यह आंदोलन अपने मूल मकसद से भटक कर आतंकवाद की राह पर चल पड़ा. यही आंदोलन की नाकामी की वजह बन गई. वैसे, इस नक्सल आंदोलन को विफल बनाने में सरकारी दमन व खून-खराबे ने भी अहम भूमिका निभाई थी. अब सान्याल मानते हैं कि मजुमदार की रणनीति गलत थी. वे कहते हैं कि अगर नक्सल आंदोलन कामयाब हो गया होता तो सिर्फ इसी इलाके नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति की दशा-दिशा बदल गई होती.
नक्सलबाड़ी में नक्सल आंदोलन के निशान भले नजर नहीं आएं ,जिन लोगों ने इस आंदोलन के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया उनके दिलो-दिमाग पर इसकी छाप साफ नजर आती है. प्रसादजोत गांव के राजन सिंह, पवन सिंह और अनिल सूत्रधार ऐसे ही लोगों में शामिल हैं. इसी प्रसादजोत गांव में पुलिस फायरिंग में सात महिलाओं व दो बच्चों की मौत के बाद नक्सल आंदोलन की आग तेजी से फैली थी. इन मरने वालों में पवन की मां भी शामिल थी. राजन, पवन व अनिल अब भी क्रांति की बात करते हैं. यह ल¨ग सीपीआई (एम-एल) के महादेव मुखर्जी गुट के हैं. यह गुट कानू सान्याल की रणनीति को गलत करा देते हुए कहता है कि वे सच्चे वामपंथी नहीं हैं.
महादेव मुखर्जी का गुट हो या फिर सान्याल की अगुवाई वाला सीपीआई (एम-एल), सब भटकाव के शिकार हैं. महादेव गुट अब चारू मजुमदार के जन्मदिन और उनकी बरसी पर मजुमदार की प्रतिमा पर फूल चढ़ा कर और सिलीगुड़ी व नक्सलबाड़ी में बंद आयोजित कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है. सिलीगुड़ी में मजुमदार का मकान भी जर्जर हालत में है. अब उसे देख कर किसी अनजान व्यक्ति को इस बात का अहसास तक नहीं होगा कि नक्सल आंदोलन के दौर में इसी मकान में रात के अंधेरे में तमाम योजनाएं बनती थीं. यह बूढ़ा मकान ऐसी न जाने कितनी ही गोपनीय बैठकों का गवाह रहा है.
दूसरी ओर, सान्याल भी एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. वे कभी चाय बागान मजदूरों के हक में आंदोलन की आवाज उठाते हैं तो कभी खेती की जमीन पर उद्योगों की स्थापना के खिलाफ. नक्सल आंदोलन की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि जिन माकपाइयों ने इसकी शुरूआत की थी उन्होंने ही इसकी जड़ें काटने में भी अहम भूमिका निभाई. चारू मजुमदार व कानू सान्याल उस समय माकपा में ही थे. इस आंदोलन को कुचलने का श्रेय भी उन्हीं ज्योति बसु को जाता है जिनके नाम सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने का रिकार्ड है. बसु तब राज्य की साझा मोर्चा सरकार में गृह मंत्री थे. गृह मंत्री बनने के बाद जिस प्रसादजोत में पहली बार आने पर बसु का जबरदस्त स्वागत हुआ था, साल भर के भीतर ही उन्हीं बसु के निर्देश पर वहां पुलिस का कहर बरपने लगा. प्रसादजोत में पुलिस फायरिंग से उत्तेजित किसानों ने इलाके के कई जोतदारों (इलाके की ज्यादातर जमीन के मालिक) की हत्या कर दी. उसके बाद माकपा के निर्देश पर ही पुलिसिया दमन शुरू हो गया. पार्टी ने आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले तमाम नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया. इन नेताओं ने ही भाकपा (माले) का गठन किया. ज्योति बसु ने पांच जुलाई 1967 को नक्सलियों के खिलाफ सबसे बड़े पुलिसिया अभियान आपरेशन क्रासबो को हरी झंडी दिखा दी. तमाम नेता भूमिगत हो गए. कई नक्सलियों को मार दिया गया. अगले साल अक्तूबर में सान्याल को गिरफ्तार किया गया. मजुमदार भी पकड़े गए. वर्ष 1972 में मजुमदार की संदिग्ध परिस्थितियों में पुलिस हिरासत में मौत हो गई.

इलाके के 85 वर्षीय जितेन राय के दिमाग में अब भी नक्सल आंदोलन की घटनाएं सिनेमा की रील की तरह साफ है. वे कहते हैं कि उस आंदोलन को आम लोगों का भारी समर्थन हासिल था. इसकी वजह यह थी कि आंदोलन की शुरूआत इलाके के किसानों को शोषणमुक्त करने के लिए हुई थी. लेकिन बाद में इस आंदोलन के हिंसक होने पर लोगों का इससे मोहभंग होने लगा. अब सान्याल भी यह बात कबूल करते हैं. वे कहते हैं कि हिंसा व हत्याओं के जरिए शोषण को खत्म नहीं किया जा सकता. आंदोलन के जरिए पूरे सामाजिक ढांचे को सुधारना जरूरी था. लेकिन जमींदारों की हत्याओं ने नक्सलियों पर हत्यारा का लेबल लगा दिया. इसी वजह से मजुमदार व सान्याल में मतभेद बढ़ने लगे.
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों व हताशा के बावजूद सान्याल ने अभी हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा है. भूमिहीनों के हक में वे अब भी नक्सलबाड़ी से कोलकाता तक की दौड़ लगाते रहते हैं.वे कहते हैं कि जब तक शरीर में जान है भूमिहीनों के लिए संघर्ष जारी रखूंगा. सान्याल, मजुमदार व उन जैसे नेताओं की हिम्मत व जूझारूपन और शोषितों के लिए कुछ करने के इस जज्बे ने ही इस अनाम से कस्बे को रातों-रात दुनिया भर में सुर्खियों में ला दिया था. आंदोलन अपने मकसद में भले कामयाब नहीं हो सका. लेकि इन नेताओं ने नक्सलबाड़ी को किसान मुक्ति आंदोलन का पर्याय तो बना ही दिया. नक्सलबाड़ी का जिक्र किए बिना ऐसे किसी भी आंदोलन की चर्चा अधूरी ही रहेगी.

Thursday, July 23, 2009

बंगाल माकपा पर लगा माओवाद का ग्रहण !

श्चिम बंगाल में माकपाइयों पर माओवाद का ग्रहण लग गया है। माओवादी अपनी सक्रियता वाले तीन जिलों-पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुड़ा और पुरुलिया में माकपाइयों की चुन-चुन कर हत्या कर रहे हैं। माओवादियों के आतंक के मारे में माकपा नेताओं व काडरों में पार्टी से नाता तोड़ने की होड़ मच गई है। पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में बीते महीने केंद्रीय सुरक्षा बलों व राज्य पुलिस का साझा अभियान शुरू होने के बाद से माओवादियों ने इलाके में माकपा के एक दर्जन से ज्यादा नेताओँ और कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी है। इसके अलावा लगभग इतने ही लोग लापता हैं। सुरक्षा बलों की भारी तादाद में मौजूदगी के बावजूद माकपाइयों की हत्या का सिलसिला थमता नहीं नजर आ रहा है। ताजा घटना में माओवादियों ने बंगाल के बेलपहाड़ी क्षेत्र में बुधवार माकपा के एक नेता फागू बास्की की गोली मारकर हत्या कर दी। पश्चिमी मिदनापुर जिले के पुलिस बास्की माकपा की बेलपहाड़ी शाखा का सचिव था। इस एक महीने के दौरान माओवादियों ने इलाके में जितनी हत्याएं की हैं, वह बीते सात वर्षों के सालाना औसत से ज्यादा है।
वर्ष 2002 से अब तक माओवादियों ने इलाके में 110 से ज्यादा लोगों की हत्याएं की हैं। इनमें पुलिस वालों के अलावा माकपा के नेता व समर्थक शामिल हैं। लालगढ़ इलाके में सुरक्षा बलों का अभियान शुरू होने के बाद अब तक एक भी बड़ा माओवादी नेता न तो मारा गया है और ही गिरफ्तार हुआ है। इसके उलट माकपा के दो दर्जन से ज्यादा काडर या मारे जा चुके हैं या फिर लापता हैं। माओवादियों के आतंक के चलते इलाके में काडरों में माकपा से नाता तोड़ने की होड़ मच गई है। हर सप्ताह औसतन दो सौ लोग पार्टी छोड़ कर पुलिस अत्याचार विरोधी समिति में शामिल हो रहे हैं। कई गावों में तो माकपा और वामपंथ का कोई नामलेवा तक नहीं बचा है।
प्रदेश माकपा नेतृत्व का दावा है कि वर्ष 2002 से अब तक माओवादियों ने पार्टी के 80 लोगों की हत्या की है। यानी हर साल औसतन दस काडरों की हत्या। लेकिन इस साल तो एक महीने के भीतर अकेले लालगढ़ इलाके में ही कोई दो दर्जन लोग माओवादियों के हाथों मारे जा चुके हैं। इलाके में माकपाइयों की हत्या का सिलसिला बीते महीने की 14 तारीख से शुरू हुआ। तब लालगढ़ अभियान की तैयारी ही चल रही थी। उस दिन माओवादियों ने धरमपुर में तीन काडरों की हत्या कर दी। 17 जून को सुरक्षा बलों का अभियान शुरू होने के दिन माकपा के चार लोग मारे गए। इनमें से तीन की हत्या लोधासुली में हुई और एक की ग्वालतोड़ में। 10 जुलाई को माओवादियों ने सिरसी गांव में माकपा के एक पूर्व शाखा सचिव गुरूचरण महतो की हत्या कर दी। उसके तीन दिनों बाद 14 जुलाई को ग्वालतोड़ में माकपा के तीन और समर्थकों, स्वपन महतो, तारिणी महतो व देव सिंघा की हत्या कर दी गई। माओवादियों ने 15 जुलाई को पुरुलिया के बेल्दी इलाके में माकपा की जोनल समिति के एक सचिव गंगाधर महतो की हत्या कर दी। की हत्या कर दी। इसी तरह 18 जुलाई को पार्टी के दो और सदस्य मारे गए। इनमें से जलधर महतो की हत्या झारग्राम में हुई और अशोक घोष की ग्वालतोड़ में। अब ताजा घटना कल की है।
इन हत्याओँ के बाद माकपाइयों में भारी आतंक है। बीते एक महीने में पांच सौ से ज्यादा लोग पार्टी से नाता तोड़ चुके हैं। अब उस इलाके में माकपा के बड़े नेता भी पुलिस की सुरक्षा में अपने सुरक्षित ठिकानों में दुबक कर बैठे हैं। वे इन हत्याओं के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। इस डर से कहीं माओवादियों को उके ठिकानों का सुराग नहीं मिल जाए।
माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु का कहना है कि लालगढ़ इलाके में विपक्ष के सहयोग से ही माओवादी माकपा नेताओं व काडरों पर जानलेवा हमले कर रहे हैं। वे मानते हैं कि इन हत्याओँ से लोगों में भारी आतंक है। बसु कहते हैं कि हत्या और आतंक की राजनीति से किसी को कुछ हासिल नहीं होगा। माकपा काडरों में फैला आतंक दूर करने के लिए मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य बीते सप्ताह बांकुड़ा व पुरुलिया जिलों का दौरा कर चुके हैं। बावजूद इसके हालात जस के तस हैं।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि माकपा काडरों की चुन-चुन कर हत्या से साफ है कि माओवादियों में पार्टी के खिलाफ भारी नाराजगी है। उनलोगों ने इलाके में विकास नहीं होने और भ्रष्टाचार के लिए माकपा को जिम्मेवार ठहराया है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि हत्याओं का यह सिलसिला जल्दी नहीं थमा तो आने वाले दिनों में माकपा से पलायन और तेज होने का अंदेशा है। और इसका खमियाजा पार्टी को आगामी विधानसभा चुनावों में भुगतना पड़ सकता है।

Wednesday, July 22, 2009

विवादों भरा रहा है बुद्धदेव का दूसरा कार्यकाल

पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के दूसरे कार्यकाल का अब तक समय विवादों से भरा रहा है। इसी दौरान सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़ और मंगलकोट जैसी घटनाएं हुईं तो दूसरी ओर दार्जिलिंग की पहाड़ियों में गोरखालैंड आंदोलन ने नए सिरे से सिर उठा लिया है। ऐसे में औद्योगिकीकरण के जिस नारे के साथ तीन साल पहले चुनाव जीत कर वे सत्ता में आए थे, उसकी भी वा निकल गई है। अब राज्य में औद्योगिकीकरण का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है। पहले लगातार किसानों की जमीन का अधिग्रहण करने में जुटी सरकार ने अब इससे भी तौबा कर लिया है। विधानसभा में उसने साफ कर दिया है कि अब उद्योगपतियों को किसानों से सीधे जमीन लेगी। जरूरत पड़ने पर सरकार उनकी सहायता कर सकती है।
बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत ही खराब हुई थी। उन्होंने वर्ष 2006 के विधानसभा चुनाव के बाद अपने पद की शपथ लेने के साथ ही जो पहला काम किया वह था सिंगुर में लखटकिया कार परियोजना के लिए रतन टाटा के साथ समझौते पर हस्ताक्षर। उस चुनाव में माकपा ने औद्योगिकीकरण का जबरदस्त नारा देते हुए बंगाल का चेहरा बदलने के वादे किए थे। लेकिन वह सिंगुर करार ही बुद्धदेव सरकार की राह का सबसे बड़ा कांटा साबित हुआ। दो साल तक चले आंदोलन के बाद आखिर रतन टाटा ने बंगाल से अपना कारोबार समेट लिया और गुजरात चले गए। उसके बाद से राज्य में औद्योगिकीकरण के रथ के पहिए उल्टी दिशा में घूमने लगे। इस दौरान कई दूसरी परियोजनाएं भी यहां से बाहर चली गईं। सिंगुर आंदोलन के दौरान ही नंदीग्राम में केमिकल हब के लिए जमीन अधिग्रहण के मामले ने भी तूल पकड़ा। नंदीग्राम आंदोलन, वहां पुलिस फायरिंग में होने वाली मौतें और बाद में माकपा की ओर से जबरन पुनर्दखल के चलते नंदीग्राम बुद्धदेव और उकी अगुवाई वाली राज्य सरकार के दामन का सबसे काला धब्बा बन चुका है।
इसके अलावा लालगढ़ आंदोलन ने भी सरकार की नाक में दम कर रखा है। बीते साल नवंबर में शुरू हुए इस आंदोलन में बाद में माओवादी भी शामिल हो गए। बीते कोई एक महीने से भी ज्यादा समय से केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्य पुलिस के साझा अबियान के बावजूद लालगढ़ की समस्या जस की तस है। दरअसल, लालगढ़ आंदोलन तो सरकार की उपेक्षा से ही उपजा था। अब सरकार ने इलाके में विकास परियोजनाओं पर ध्यान देना शुरू किया है। इन मुद्दों के चलते ही लोकसभा चुनाव में सरकार को जबरदस्त मुंहकी खानी पड़ी। इन आंदोलनों की लहर पर सवार होकर विपक्षी तृणमूल कांग्रेस ने अपने सीटों की तादाद एक से बढ़ा कर 19 कर ली। लेकिन माकपा दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सकी।
अब ताजा मामला मंगलकोट का है। वहां माकपा काडरों की ओर से कांग्रेसी विधायकों की पिटाई ने माकपा का असली चेहरा एक बार फिर सामने ला दिया है। इस घटना के बाद विधानसभा अध्यक्ष और माकपा के वरिष्ठ नेता हाशिम अब्दुल हलीम तक ने यह कह कर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया कि राज्य में जब विधायक सुरक्षित नहीं हैं तो आम लोगों को सुरक्षा कैसे संभव है।
अब सरकार के सामने दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी गद्दी बचाने की चिंता है। लेकिन माकपा जिस तरह सरकार और मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पर हावी हो रही है, उससे बंगाल में वामपंथ की राह आसान नहीं नजर आती।

ममता की नजरें अब बंगाल की गद्दी पर


रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने कोलकाता में शहीद दिवस के मौके पर होने वाली अपनी सालाना रैली में साफ कर दिया है कि उनकी मंजिल अब राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग है। इस रैली में जुटी रिकार्ड भीड़ ने भी साबित कर दिया कि आम लोग दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में तृणमूल को ही बंगाल की गद्दी का दावेदार मान रहे हैं। ममता ने अपने भाषण में भी साफ कहा कि दो साल बाद सत्ता पर काबिज होने के बाद वे एक साफ-सुथरी और पारदर्शी सरकार का गठन करेंगी।
उन्होंने कार्यकर्ताओं को परिर्वतन की लहर राइटर्स बिल्डिंग पहुंचने तक लगातार आंदोलन करते रहने का निर्देश दिया।
ममता का कहना था अब यह भ्रम टूट गया है कि माकपा हार नही सकती। धर्मतल्ला में शहीद रैली की भीड़ संभाले नहीं संभल रही थी। पूरा कोलकाता जाम हो गया था। अप्रत्याशित भीड़ को देख उत्साहित ममता ने कहा कि माकपा के आतंक का जवाब हम लोकतांत्रिक आंदोलन से देंगे और मानवीयता कभी नहीं छोड़ेंगे।
उन्होंने कहा कि तृणमूल की पहचान मां, माटी और मानुष की है, इसलिए हमारी जिम्मेदारी औरों से अधिक है। हम बेमतलब हड़ताल व बंद का सहारा नहीं लेंगे। हम कृषि के साथ उद्योग चाहते हैं। कृषि हंसी है तो उद्योग खुशी। इन दोनों बहनों का हम स्वागत करते हैं।
माकपा पर जमकर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में बत्तीस वर्षों के शासन में बेरोजगारों की तादाद एक करोड़ तक पहुंच गई है। उन्होंने सिंगुर, नंदीग्राम व रिजवान कांड के दौरान बुद्धिजीवियों व कलाकारों के समर्थन जिक्र करते हुए सत्ता परिवर्तन के लिए आगे भी उनका नैतिक समर्थन मांगा।
बात-बेबात आंदोलन करने वाली ममता का अंदाज भी हाल में बदल गया है। वे अब तक औद्योगीकरण से अलग हटकर बात किया करती थीं, अब सड़क, गांवों में बिजली पहुंचाने और शिक्षा व्यवस्था में पूरी तरह बदलाव की बात कर रही हैं। उनका दावा है कि अगर पश्चिम बंगाल में सत्ता उनके हाथों में आती है तो उनकी पार्टी इन मोर्चों पर राज्य का कायापलट कर देगी। राज्य में 2011 में विधान सभा चुनाव होने हैं और इसे देखते हुए उन्होंने अगले दो सालों के लिए पार्टी की योजना भी तैयार कर ली है।
ममता ने साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी अब किसी भी छोटी बात पर न तो बंद बुलाएगी और न ही सड़कें जाम करेगी। उन्होंने पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं से भी इस नियम का कड़ाई से पालन करने को कहा। ध्यान रहे कि बीते दिनों बंगाल में कांग्रेस की ओर से बुलाए गए बंद का ममता ने नैतिक समर्थ तो किया था। लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को जबरन बंद कराने के लिए सड़क पर उतरने से मना कर दिया था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अपने लंबे राजनीतिक कैरियर में पहली बार खुद को बंगाल की सत्ता के इतने करीब पा कर ही ममता ने पार्टी के चरित्र में बदलाव करते हुए उसकी छवि सुधारने की कवायद शुरू की है।

Sunday, July 19, 2009

चाय व पर्यटन उद्योग की कमर टूटी

पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलग गोरखालैंड की मांग में नए सिरे से शुरू बेमियादी बंद ने इलाके में चाय और पर्यटन उद्योग की कमर तोड़ दी है। इलाके की अर्थव्यवस्था इन दोनों पर ही आधारित है। इन दोनों उद्योगों से विदेशी मुद्रा की भी आय होती है। बंद से चाय उद्योग को रोज एक करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। इसका पर्यटन पर भी असर पड़ रहा है। कोलकाता के टूर आपरेटरों के कारोबार में गिरावट आई है। दार्जिलिंग, सिक्किम व डुआर्स के लिए बुकिंग घटी है। पर्यटक विकल्प के रूप में हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु का चयन कर रहे हैं। ट्रैवल एजेंट एसोसियेशन आफ बंगाल के उपाध्यक्ष बच्चू चौधरी के मुताबिक हड़ताल का उत्तर बंगाल में पर्यटन पर व्यापक असर पड़ा है।
उधर, दार्जिलिंग टी एसोसिएशन के सचिव संदीप मुखर्जी ने कहा है कि इस बंद ने चाय उद्योग को इस तरह प्रभावित किया है कि कुछ बागान मालिक अपना कारोबार हमेशा के लिए बंद करने की सोच रहे हैं। एक करोड़ रुपए रोज का नुकसान आखिर कितने दिनों तक बर्दाश्त किया जा सकता है। वे बताते हैं कि बीते साल की तुलना में इस बार चाय का उत्पादन 50 प्रतिशत भी नहीं होगा। बीते साल 9.5 मिलियन किलो दार्जिलिंग चाय का उत्पादन हुआ था। इस बार उसका आधा भी हो जाए तो बहुत कहा जाएगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार को ध्यान में रखते हुए भारत की साख पर इसका असर पड़ेगा। मुखर्जी ने कहा कि अगर हम अंतरराष्ट्रीय खरीददारों को चाय की आपूर्ति समय से नहीं कर पाएंगे तो वे चीन या नेपाल से चाय खरीद लेंगे। उन्हें हमारे बंद से क्या लेना देना है। वे तो अपना बाजार देखेंगे।
गोरखालैंड आंदोलन के चलते चाय उद्योग को शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बंद ने चाय उद्योग की कमर तोड़ दी है। अब कई चाय बागान बंद हो जाएंगे।
मोर्चा की इस बेमियादी हड़ताल से दार्जिलिंग, सिक्किम और डुआर्स के लिए बुकिंग में कमी हुई है। चूंकि तीनों एक ही पर्यटन सर्किट में पड़ते हैं इसलिए एक जगह पर अशांति का बाकी जगहों पर भी असर पड़ता है। बंद के कारण 80 फीसदी से भी ज्यादा होटलों की बुकिंग रद्द हो गई है। टूरिज्म सर्विस प्रोवाइडर्स के सहायक सचिव कामता राय के मुताबिक दार्जिलिंग में व्याप्त राजनीतिक गतिरोध का डुआर्स क्षेत्र में पर्यटन प्रभावित हुआ है। पर्यटक दार्जिलिंग व डुआर्स जाने से पहले दो बार सोच रहे हैं। राबंगला, गंगटोक और पेलिंग के लिए बुकिंग में कमी हुई है।

तो नहीं खिसकती पैरों तले की जमीन

द्योगों के लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण के जरिए बर्रे के छत्ते में हाथ देने वाली वाममोर्चा सरकार ने कई बार हाथ जलाने के बाद आखिर जमीन अधिग्रहण से तौबा कर ली है। लेकिन अगर यही काम उसने और पहले किया होता तो शायद उसके पैरों तले की जमीन इतनी तेजी से नहीं खिसकती। सरकार ने अब साफ कर दिया है कि राज्य में नए उद्योगों की स्थापना के इच्छुक निवेशकों को अब जमीन मालिकों से सीधे जमीन खरीदनी होगी। अब पहले की तरह सरकार उनके लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं करेगी। सिंगुर, नंदीग्राम, सालबनी और अंडाल में विभिन्न परियोजनाओं के लिए जमीन के अधिग्रहण के सिलसिले में आम लोगों और वोटरों की जबरदस्त नाराजगी को ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने यह फैसला किया है। अधिग्रहण के कई मामलों में हाथ जला चुकी सरकार ने इसी वजह से अब सलेम समूह की कई महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
वित्तमंत्री असीम दासगुप्ता ने हाल ही में विधानसभा के बजट सत्र के दौरान सदन में एलान किया कि अब सरकार उद्योगों के लिए भूमि का अधिग्रहण नहीं करेगी। उद्योग के लिए जमीन की व्यवस्था किसानों के साथ बातचीत कर उद्योगपतियों को ही करनी होगी। ध्यान रहे कि विपक्ष सरकार पर किसानों की खेती की जमीन उद्योगों के लिए जबरन अधिग्रहीत करने का आरोप लगाता रहा है। विपक्षी राजनीतिक दलों का आरोप है कि बर्दवान जिले के अंडाल प्रस्तावित एअरपोर्ट के लिए लगभग एक हजार एकड़ जमीन की जरूरत है लेकिन तीन हजार एकड़ से ज्यादा जमीन का अधिग्रहण किया गया है। सिंगुर व नंदीग्राम में भी जबरन अधिग्रहण के चलते ही मामला गंभीर हुआ और सिंगुर से लखटकिया परियोजना को बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा। अब पंचायत, लोकसभा व नगरपालिका चुनावों में लगातार मुंहकी खाने के बाद माकपा और वाममोर्चा में उसके सहयोगी दल नहीं चाहते सरकार इस मामले में कोई पहल करे। वाममोर्चा की असली चिंता अब दो साल से भी कम समय में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए वह कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहती।
राज्य के भूमि और भूमि सुधार मंत्री अब्दुर रज्जाक मौल्ला का कहना है कि अब निवेशकों को ही जमीन का अधिग्रहण करना होगा। सरकार के इस फैसले का असर राज्य में वीडियोकॉन, भूषण स्टील और अभिजित समूह के प्रस्तावित इस्पात संयंत्रों पर पड़ना तय है। इससे राज्य में औद्योगिकीकरण की गति भी लगभग थम जाएगी। वैसे भी सिंगुर मामले के बाद निवेशकों की दिलचस्पी बंगाल में कम हो गई है।
पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सालबनी में जिंदल समूह की इस्पात परियोजना के लिए भी अभी जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। वहां बीते साल नवंबर में शिलान्यास के बाद ही लालगढ़ आंदोलन शुरू हो गया था। इसी तरह वीडियोकॉन को अपनी परियोजना के लिए कम से कम तीन हजार एकड़ जमीन चाहिए। इस परियोजना के लिए अभी तक जमीन अधिग्रहण के लिए अधिसूचना जारी नहीं की गई है। इन परियोजनाओं से जुड़े सूत्रों का कहना है कि सरकार की सहायता के बिना जमीन का अधिग्रहण टेढ़ी खीर साबित होगा।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार के इस फैसले के दूरगामी नतीजे होंगे। अब नई परियोजनाओं की राह तो मुश्किल हो ही गई है, कई प्रस्तावित परियोजनाओं पर भी पुनर्विचार हो सकता है या फिर उनको टाटा समूह की तर्ज पर कहीं और ले जाने का फैसला हो सकता है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि टाटा मोटर्स के कारोबार समेटने का राज्य के औद्योगिक माहौल पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा है। लेकिन अब सरकार के इस फैसले से औद्योगिकीकरण की मुहिम ठप हो जाने का अंदेशा है। फिलहाल वाममोर्चा को राज्य में उद्योगों की स्थापना नहीं, बल्कि अपनी सरकार बचाने की चिंता है।

Saturday, July 18, 2009

बेमिसाल प्राकृतिक सौंदर्य की मिसाल है नाथुला


पूर्वी भारत के छोटे-से पर्वतीय राज्य सिक्किम में समुद्रतल से साढ़े चौदह हजार फीट की ऊंचाई पर तिब्बत की सीमा से सटा नाथुला दर्रा प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से बेमिसाल है। किसी जमाने में इस दर्रे से होकर सिक्किम के व्यापारी सिल्क, मसाले और दूसरी वस्तुएं लेकर तिब्बत जाते थे। अब दोबारा इस सीमा के खुलने से फिर इस दर्रे से होकर पहले की तरह आयात-निर्यात शुरू हो गया है। पूर्वी भारत में चीन से लगी यही अकेली ऐसी सीमा है जहां आप चीनी फौजियों की आंखों में आंखें डालकर बातें कर सकते हैं। कुछ साल पहले तक यहां सिर्फ सेना से जुड़े लोगों की ही आवाजाही थी, लेकिन अब इसे आम लोगों के लिए भी खोल दिया गया है। सिक्किम की राजधानी गंगटोक से नाथुला तक पहुंचने में लगभग तीन घंटे का समय लगता है। इसी रास्ते में साढ़े बारह हजार फीट की ऊंचाई पर मशहूर छांगू झील है जिसका पानी साल में छह महीने जम जाता है। यहां आप याक की सवारी का मजा ले सकते हैं। नाथुला का रास्ता जितना दुर्गम है उतना रोमांचक भी। इस सड़क से गुजरते हुए सैलानी प्राकृतिक सौंदर्य में इस कदर डूब जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि मंजिल कब आ गई। नजरें जहां तक देख सकती हैं वहां तक बर्फीली चोटियां यूं नजर आती हैं मानो प्रकृति ने उन पहाड़ियों पर चांदी की परत चढ़ा रखी हो। नाथुला के रास्ते में जगह-जगह छोटी बस्तियां हैं जहां के लोग मेहनत-मजदूरी कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। इन बस्तियों की देखभाल की जिम्मेवारी मुख्य रूप से सेना पर ही है।

गंगटोक से सर्पीली सड़कों पर लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद हम पहुंचते हैं छांगू झील। चारों ओर हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी इस झील का नीला पानी बरबस ही मन मोह लेता है। वहां याक भी बहुतायत में हैं। चाहें तो उनकी सवारी करें या फिर उनके साथ फोटो खिंचवाएं। याक की सवारी के लिए प्रति व्यक्ति तीस रुपए देने पड़ते हैं। झील के एक किनारे बनी दुकानों में चाय-काफी के अलावा खाने-पीने की दूसरी चीजें और विदेशी जैकेट तक मिलते हैं। सैलानियों में गाइको नामक स्थानीय सूप काफी लोकप्रिय है। इसी तरह वहां स्थानीय बीयर छंग का भी लुत्फ उठाया जा सकता है। यहां तक तो आप अपने कैमरे से फोटो खींच सकते हैं लेकिन वहां से आगे नाथुला के सीमावर्ती इलाके में फोटो खींचने की अनुमति नहीं है। वहां सेना की ओर से इसके लिए इंस्टैंट कैमरे मुहैया कराए जाते हैं। इस इलाके में मौसम का मिजाज पल-पल बदलता रहता है इसलिए गर्म कपड़े साथ रखना जरूरी है। ऊंचाई पर आक्सीजन की कमी के कारण लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो सकती है।
यहां एक समूह में 8-10 सैलानी आते हैं। एक दिन में दो सौ से ज्यादा लोगों को सीमा पर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। हर समूह को सीमा पर सुबह आठ से दोपहर 12 बजे के बीच सिर्फ आधा घंटे ठहरने की इजाजत होती है। गंगटोक से नाथुला की यात्रा की व्यवस्था ट्रेवल एजेंट ही करते हैं।
गंगटोक से रवाना होने के बाद सैलानी इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य में डूब जाते हैं। यहां घुमावदार सड़क के हर मोड़ के पीछे प्रकृति सौंदर्य का नया-नया खजाना छिपाए बैठी है। रास्ते में मेनला में सेना का एक बड़ा पड़ाव है जहां उसकी ओर से सड़क के किनारे बनी कैंटीन में नाश्ते की बढ़िया व्यवस्था है। सुदुर पूर्व की पहाड़ियों के बीच इस कैंटीन में दक्षिण भारतीय व्यंजन सहज ही उपलब्ध हैं। कैंटीन के सामने ही सड़क के पार लगे एक बोर्ड पर लिखा है कि यह सड़क नाथुला दर्रा होकर तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक जाती है।' गंगटोक से ल्हासा की दूरी महज 416 किलोमीटर है। वहां से आगे बढ़ने पर कंचनजंघा की बर्फीली चोटियां नजर आने लगती हैं। मंजिल के करीब पहुंचकर ऊपर जवानों की चौकी तक पहुंचने के लिए 128 सीढ़ियां तय करनी पड़ती है। ऊपर की ओर बढ़ते हुए आक्सीजन की कमी से सांस फूलने लगती है और कड़ाके की सर्दी में भी पसीना आ जाता है। सीढ़ियां जहां शुरू होती हैं वहीं सितंबर,1967 में चीनी सेना के साथ झड़पों में शहीद 82 भारतीय जवानों की याद में एक शहीद स्मारक बनाया गया है। उस झड़प में चीन के चार सौ से भी ज्यादा जवान मारे गए थे।
ऊपर चौकी पर पहुंचते ही तेज बर्फीली हवाएं हमारा स्वागत करती हैं। सूर्य के सिर पर चमकने के बावजूद तापमान है शून्य डिग्री सेंटीग्रेड। वहां सेना के एक अधिकारी इस इलाके के इतिहास और भूगोल के बारे में बताते हैं। लेकिन लोगों का ध्यान उकी बातों पर कम और आसपास के प्राकृतिक दृश्यों पर ज्यादा है। चोटी पर पहुंचने के रोमांच और आसपास बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य को शब्दों में पिरोना बहुत मुश्किल है। इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। यह पूर्वी सेक्टर में अकेली वैसी सीमा चौकी है जहां दोनों देशों की सीमा चौकियां इतनी करीब हैं । भारतीय सीमा चौकी से चीनी चौकी की दूरी महज 30 मीटर है। वर्ष 1959 में 19 सितंबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस चौकी का दौरा किया था। उस समय चीनियों ने उनका भव्य स्वागत किया था। उस दौरे की याद में ही यहां नेहरू स्टोन नामक एक स्मारक बना है। सर्दियों में इलाके का तापमान शून्य से 20 से 30 डिग्री तक नीचे गिर जाता है। तब यहां 17-18 फीट मोटी बर्फ जम जाती है। इससे सीमा पर तैनात जवानों को भारी दिक्कत होती है। इसके अलावा अकेलापन भी उनको सालता है। ऐसे में असली युध्द नहीं होने के बावजूद जवानों को रोजाना चौबीसों घंटे युध्द लड़ना पड़ता है,जीने और सीमा की चौकसी के लिए।
इस दुर्गम इलाके में देश की एकता और अखंडता कायम रखने में सेना की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। इधर आबादी कम होने के कारण राज्य सरकार यहां मूलभूत सुविधाओं पर ज्यादा ध्यान नहीं देती। सरकार ने इलाके में बिजली पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं किया है। सरकार की इस कमी को सेना पूरा कर रही है। सेना की हर यूनिट ने एक-एक गांव को गोद ले लिया है।
लोग अभी प्रकृति का सौंदर्य निहारने में डूबे हैं कि किसी आवाज से तंद्रा भंग होती है। अब वापसी की बारी है। मौसम भी बिगड़ने लगा है। कुछ देर बाद बर्फ गिरने लगेगी। सबके चेहरों पर उदासी छाने लगती है।

Friday, July 17, 2009

प्रशासन पर माकपा की पकड़ का नतीजा है मंगलकोट


प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले का मंगलकोट कस्बा अब अगर अचानक सुर्खियों में है तो इसकी वजह सरकार और प्रशासन पर माकपा की बढ़ती और अपनी पार्टी पर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की लगातार ढीली पड़ती पकड़ है। लोकसभा चुनाव में दुर्गति के बाद बौखलाए माकपा काडरों ने विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में अपना बर्चस्व बढ़ाने की जो मुहिम शुरू की है, मंगलकोट की हिंसा उसी का नतीजा है। लोकसभा चुनावों के बाद राज्य में माकपा और विपक्षी राजनीतिक दलों के बीच शुरू हुई हिंसा की ही एक और कड़ी है मंगलकोट। इससे यह भी साफ है कि यह घटना आखिरी नहीं है। कांग्रेस विधायकों पर हमले के बाद विधानसभा में गुरुवार को होने वाले हंगामे के दौरान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की बेबसी साफ झलक रही थी। उन्होंने इस घटना की निंदा तो की ही, यह भी माना कि जिले में पुलिस और प्रशासन विधायकों को सुरक्षा मुहैया कराने में नाकाम रहा है। उनको भरोसा देना पड़ा कि इस घटना में अगर माकपा का कोई स्थानीय नेता भी शामिल हुआ तो उसे बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन अब न तो पार्टी पर बुद्धदेव की पहले जैसी पकड़ बची है और न ही प्रशासन पर। यही वजह है कि मंगलकोट की घटना के सिलसिले में अब तक जितनी भी गिरफ्तारियां हुई हैं उनमें माकपा का नेता तो दूर कोई समर्थक तक शामिल नहीं है।
मंगलकोट की घटना के पीछे उद्योग मंत्री और बर्दवान जिले के भारी-भरकम माकपा नेता निरुपम सेन का हाथ होने के आरोपों के बाद बुद्धदेव की बेचैनी बढ़ी है। सदन में विधानसभा अध्यक्ष हाशिम अब्दुल हलीम ने भी इस घटना के लिए सरकार और प्रशासन को आड़े हाथों लिया। हलीम ने सवाल किया कि आखिर हम दोबारा अराजकता के दौर में लौट रहे हैं? अगर सरकार विधायकों को सुरक्षा नहीं मुहैया करा पाती तो आम लोगों को सुरक्षा कैसे देगी? इससे पार्टी और सरकार के बीच फंसे बुद्धदेव बेचैन हैं।
मुख्यमंत्री ने तो निंदा भी की। लेकिन माकपा के प्रदेश नेतृत्व ने मंगलकोट की घटना की कोई निंदा नहीं की है। इस हमले को लोगों की नाराजगी करार देते हुए प्रदेश सचिव विमान बसु ने विपक्ष पर अराजकता फैलाने का रटा-रटाया जुमला दोहरा दिया। यह सही है कि गुरुवार को पूरे राज्य में जो आगजनी और तोड़फोड़ हुई, उसे कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन आखिर उसके पीछे तो मंगलकोट की घटना ही थी। बसु उस पर चुप्पी साधे रहे। बुद्धदेव ने विधानसभा में इस मामले की जांच का भरोसा दिया है। लेकिन उससे पहले ही माकपा नेतृत्व ने यह कह कर पार्टी को क्लीनचिट दे दी है कि उस हमले में पार्टी का कोई व्यक्ति शामिल ही नहीं था।
कांग्रेसी विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल पहले कई बार इलाके के दौरे की नाकाम कोशिश कर चुका था। अब बुधवार को जब चौथी बार नौ विधायकों का एक दल हालात का जायजा लेने के लिए इलाके में पहुंचा तो सैकड़ों माकपाइयों ने उनको दौड़ा लिया। कांग्रेस विधायक दल के नेता मानस भुंइया समेत तमाम विधायक जान बचाने के लिए खेतों से होकर भागने लगे। हालात इतने बिगड़ गए कि मानस भुंइया ने मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से फोन पर अपनी जान बचाने की गुहार लगानी पड़ी। भुंइया तो किसी तरह बचने में कामयाब रहे। लेकिन उनके साथ गए चार विधायक ऐसे किस्मतवाले नहीं थे। माकपाइयों ने उनलोगों की जमकर धुनाई कर दी। किसी को दर्जन भर टांके पड़े तो किसी की नाक कट गई । विधायकों के साथ पुलिस की एक टीम भी थी। लेकिन वह भी माकपाइयों के कहर से उनको बचाने में नाकाम रही। भुंइया ने आरोप लगाया कि माकपा काडरों ने जानलेवा हमला किया था। पुलिस व प्रशासन को पहले से इसकी सूचना देने के बावजूद हमें पर्याप्त सुरक्षा नहीं मुहैया कराई गई। कांग्रेसियों ने इसके विरोध में गुरुवार को जम कर हिंसा और आगजनी की। इसके साथ ही शुक्रवार को 12 घंटे बंगाल बंद रखा। विपक्ष ने विधानसभा में भी जम कर हंगामा किया और मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग की।
राज्य में बीते दो-तीन वर्षों के दौरान नंदीग्राम, सिंगुर, और लालगढ़ में जो कुछ हुआ है, उसमें आम लोगों की कोई खास भूमिका नहीं रही है। वहां आंदोलनों के पीछे तृणमूल कांग्रेस व माओवादी रहे हैं। ऐसे में मंगलकोट की घटना अराजनीतिक कैसे करार दी जा सकती है। राज्य में लोकसभा चुनाव के बाद जारी हिंसा में पहले वाममोर्चा सरकार के पांच मंत्रियों को खेजुरी जाने से रोका गया। लेकिन वहां उनसे मारपीट नहीं हुई थी। उसके बाद हिंगलगंज में आइलापीड़ितों का हालचाल लेने गए वाममोर्चा के एक विधायक को कीचड़ पोता गया। वहां लोग सचमुच नाराज थे। भोजन और पानी के बिना कई दिन गुजारने वाले लोगों का गुस्सा देरी से पहुंचे विधायक को देख कर फूट पड़ा था। हालांकि उस घटना से भी पुलिस व प्रशासन की लापरवाही का पता चलता है।
मंगलकोट की तुलना नंदीग्राम, सिंगुर या लालगढ़ से नहीं की जा सकती। वहां लोगों में अपनी जमीन खोने का डर था तो लालगढ़ में लगातार उपेक्षा से लोग नाराज थे। विपक्ष ने लोगों के इसी डर और उपेक्षा को हवा देकर उनको आंदोलन में साथ लिया। लेकिन मंगलकोट में तो माकपा के एक नेता की हत्या हुई थी। वहां लोगों को न तो जमीन खोने का डर था न तो नंदीग्राम की तर्ज पर महिलाओं की इज्जत लुटने का कोई खतरा था। बावजूद इसके माकपाइयों ने उस हत्या के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार ठहराते हुए इलाके में उनका दाना-पानी बंद कर दिया था। बीते 15 जून से मंगलकोट इलाके पर पुलिस या प्रशासन का नहीं बल्कि माकपा काडरों का राज था। उसके बाद तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल को इलाके में जाने से रोका गया। बाद में सुब्रत मुखर्जी की अगुवाई में कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमंडल इलाके में गया था। तब तो लोगों का गुस्सा नहीं फूटा था। आखिर महीने भर बाद लोग अचानक इतने नाराज क्यों हो उठे कि विधायकों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। पुलिस वहां मूक दर्शक बनी रही। इससे विपक्ष के इस आरोप को बल मिलता है कि इस हमले में माकपा के दिग्गज नेताओं का हाथ था। अगर वह आम लोगों की नाराजगी थी तब भी उसका पूर्वानुमान नहीं लगा पाने की वजह से इसे सरकार और जिला प्रशासन की नाकामी समझी जानी चाहिए।
यहीं एक सवाल और पैदा होता है। जब मंगलकोट में कांग्रेसी विधायकों पर हमले की जांच की बात कही जा रही है तो उस माकपा नेता की हत्या के मामले में किसी जांच के बिना ही पार्टी ने कांग्रेस को कैसे जिम्मेवार ठहरा दिया। यही वजह है कि उस हत्या की हकीकत सामने लाने के लिए विपक्ष ने उस कांड की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। लेकिन सरकार के ऐसा करने की उम्मीद कम ही है। और सरकार चाहे भी तो पार्टी उसे ऐसा नहीं करने देगी।
पार्टी पर बुद्धदेव की ढीली होती पकड़ का सार्वजनिक तौर पर खुलासा नवंबर, 2007 में नंदीग्राम पर माकपा के जबरन पुनर्दखल के समय हुआ था। तब मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए इसे सही ठहराया था कि हमने उनको उनकी भाषा में ही जवाब दिया है। उनको कहना पड़ा था कि मैं मुख्यमंत्री होने के अलावा पार्टी का नेता भी हूं। हालांकि बाद में उनको इस टिप्पणी के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। बर्दवान वामपंथियों का गढ़ रहा है। वहां कोई भी ऐसी बड़ी घटना हो और उसकी जानकारी वामपंथियों को नहीं हो, यह बात गले से नीचे नहीं उतरती।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मंगलकोट की घटना की जांच के बहाने लीपापोती ही की जाएगी। विपक्ष बर्दवान जिले के जिलाशासक और एसपी को हटाने की मांग कर रहा है। लेकिन अपनी पार्टी के दबाव में बुद्धदेव फिलहाल ऐसा नहीं करेंगे। किसी भी जांच में माकपा को क्लीनचिट देते हुए मौके पर मौजूद कुछ छोटे पुलिस अधिकारियों को बलि का बकरा बना दिया जाएगा। पर्यवेक्षकों की राय में काडरों का यह ताजा करतब बुद्धदेव की परेशानी तो बढ़ाएगा ही, आगामी चुनावों में पार्टी के लिए भी यह भारी साबित हो सकता है।

Monday, July 13, 2009

अब आलू बेच रही है वाममोर्चा सरकार


पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार अब राजधानी कोलकाता के बाजारों में आलू बेच रही है. जी हां, सरकार की ओर से दुकानें लगा कर आलू बेचने का यह मामला अपनी किस्म का पहला और अनूठा है. दरअसल, उसने खुले बाजार में आलू की बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए ही यह फैसला किया है. खुले बाजार में ज्योति आलू की कीमत सोलह रुपए प्रति किलो है. लेकिन सरकार कोल्ड स्टोरेजों से साढ़े बारह रुपए प्रति किलो खरीद कर इसे तेरह रुपए किलो बेच रही है. सरकार आलू को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे में शामिल करने का प्रयास कर रही है. इसके लिए अधिनियम में एक उपधारा जोड़ने पर विचार हो रहा है. लेकिन सरकार के आलू बेचने के फैसले ने उनके घटक दल फारवर्ड ब्लाक समेत आलू व्यापारियों को नाराज कर दिया है.यह विडंबना ही है कि बीते साल आलू का रिकार्ड उत्पादन होने की वजह से जहां राज्य में किसान इसे एक रुपए प्रति किलो की दर पर बेच रहे थे, वहीं इस साल इसकी कीमत 16 से 18 रुपए किलो तक पहुंच गई है. बीते साल उत्पादन लागत वसूल नहीं होने की वजह से कुछ किसानों ने आत्महत्या तक कर ली थी. सरकार ने जमाखोरों के खिलाफ बड़े पैमाने पर अभियान चलाने की भी बात कही है. वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता कहते हैं कि ‘सरकार ने आम लोगों को ध्यान में रखते हुए ही कोल्ड स्टोरेजों से खरीद तक बाजार दर से कम कीमत पर आलू बेचने का फैसला किया है.’ फिलहाल महानगर की 14 मंडियों में सरकारी कर्मचारी यह आलू बेच रहे हैं. इसके लिए सुबह से ही लंबी कतारें लग रही हैं. एक व्यक्ति को दो किलो से ज्यादा आलू नहीं दिया जाता. दासगुप्ता कहते हैं कि ‘धीरे-धीरे राज्य के दूसरे जिलों में भी यह योजना शुरू की जाएगी.’
बीते एक महीने के दौरान मंडियों में आलू के दाम दोगुने हो गए हैं. फिलहाल ज्योति और चंद्रमुखी आलू 17 से 18 रुपये किलो बिक रहे हैं. हालांकि महानगर की सबसे बड़ी मंडी पोस्ता में आलू का थोक भाव 13 रुपये किलो है. लेकिन बिचौलियों के हाथों से गुजरते हुए खुदरा बाजार में पहुंचते-पहुंचते इसकी कीमत बढ़ जाती है. इस साल कीड़ों के प्रकोप से जिलों में आलू की खेती बड़े पैमाने पर प्रभावित हुई है. इसलिए बाजारों में आवक कम है। इस साल आलू का उत्पादन बीते साल के मुकाबले 32 लाख टन कम हुआ है. यानी उत्पादन में लगभग 40 फीसदी गिरावट आई है। बीते साल राज्य में 80 लाख टन आलू का उत्पादन हुआ था। दूसरी ओर, सरकार की इस योजना के आलोचक भी कम नहीं हैं. कृषि विपणन विभाग, जो वाममोर्चा के घटक फारवर्ड ब्लाक के जिम्मे है, के एक अधिकारी कहते हैं कि सरकार की इस योजना से नवंबर में नई फसल आने तक आलू की कीमतें 25 रुपए किलो तक पहुंच जाएंगी. लेकिन वित्त मंत्री दावा करते हैं कि सरकार कीमतों पर नजर रखेगी और सरकारी कीमत को भी धीरे-धीरे कम करने का प्रयास किया जाएगा. वे कहते हैं कि ‘सरकार ने आलू के बड़े आढ़तियों के खिलाफ अभियान चलाने का फैसला किया है. शनिवार को यह योजना शुरू होने के बाद पहले दिन ही 14 बाजारों में छह हजार से ज्यादा लोगों ने सरकारी दर पर आलू खरीदा.रविवार को छुट्टी होने की वजह से और ज्यादा लोग इन दुकानों पर पहुंचे.’
इसबीच, रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने इसे माकपा और उसकी अगुवाई वाली राज्य सरकार का एक नया नाटक करार दिया है. ममता कहती हैं कि 'सरकार अपनी नाकामियों को छिपाकर आम लोगों की सहानुभूति हासिल करने के लिए ही आलू बेचने का नाटक कर रही है. इससे कीमत घटने की बजाय और बढ़ेगी.'
दूसरी ओर, सरकार की इस योजना से आलू व्यापारियों ने नुकसान का अंदेशा जताया है. उनका कहना है कि आलू की कीमत घटने की स्थिति में उनको भारी नुकसान होगा. एक व्यापारी अम्लान दास कहते हैं कि ‘हमने ऊंची कीमत पर आलू खरीदा है. अब कम दाम पर उसे बेचने पर हमें भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. सरकार ने इस पहलू के बारे में कुछ नहीं सोचा है.’ आलू व्यापारी चाहे कुछ भी कहें, आम लोग तो इससे खुश हैं. कोलकाता के गरियाहाट बाजार में एक घंटे के इंतजार के बाद दो किलो आलू खरीदने वाले इंद्रजीत मुखर्जी कहते हैं कि यह एक बढ़िया प्रयास है. इससे लोगों को महंगाई से कुछ राहत मिलेगी. इस योजना के प्रति लोगों में उत्साह को ध्यान में रखते हुए सरकार अब जल्दी ही जिलों में भी ऐसी व्यवस्था करने जा रही है. यही नहीं, सरकार अब जल्दी ही राशन की दुकानों के जरिए कम कीमतों पर चावल, दाल और तेल मुहैया कराने पर भी विचार कर रही है. अब सरकार ने यह कदम जनहित में उठाया हो या लगातार दूर होते आम लोगों को करीब लाने के लिए, कोलकाता की मंडियों में आलू की सरकारी दुकानों के सामने खरीददारों की कतार तो रोज लंबी होती जा रही है.

Sunday, July 12, 2009

फिर गरमाने लगीं दार्जिलिंग की पहाड़ियां


दक्षिण में लालगढ़ और माओवादियों की समस्या अभी पूरी तरह सुलझी भी नहीं है कि पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से में स्थित दार्जिलिंग की पहाड़ियां एक बार फिर गरमाने लगी हैं। अलग गोरखालैंड की मांग में लंबे अरसे से आंदोलन चला रहा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा लोकसभा चुनाव के पहले से ही चुप्पी साधे बैठा था। लेकिन अब उसने एक बार फिर बेमियादी बंद का अपना पुराना और आजमाया दांव चलने का फैसला किया है। उसने 13 जुलाई यानी सोमवार को दोपहर तक तमाम पर्यटकों से इलाका खाली करने और शैक्षणिक संस्थानों से हास्टल खाली कराने को कहा है। इससे इलाके में एक बार फिर आतंक फैलने लगा है। मोर्चा का बेमियादी बंद कल से ही शुरू होगा।
मोर्चा का ताजा बहाना इलाके में एक निविदा को लेकर पुराने प्रतिद्वंद्वी सुभाष घीसिंग की अगुवाई वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के सदस्यों के साथ मारपीट का है। इस मारपीट के बाद मोर्चा के तीन समर्थकों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था। अब मोर्चा दोषी लोगों और इस मामले से जुड़े तमाम पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन के तहत ही बेमियादी बंद का फैसला किया है।
मोर्चा ने दो दिन पहले ही बेमियादी बंद का एलान किया था। लेकिन बाद में पर्यटकों और छात्रों को होने वाली दिक्कतों को ध्यान में रखते हुए इसे 13 जुलाई तक स्थगित कर दिया था। अलग राज्य की मांग के समर्थन में मोर्चा पहले भी कई बार बंद बुला चुका है। इसी रणनीति के तहत उसने भाजपा नेता जसवंत सिंह को दार्जिलिंग संससीदय सीट पर समर्थन दिया था। तब मोर्चा नेतृत्व को उम्मीद थी कि केंद्र में राजग की सरकार लौटेगी और तब उसे अलग राज्य हासिल करने में आसानी हो जाएगी। लेकिन केंद्र में यूपीए सरकार के ही बने रहने की वजह से उसका यह दांव बेकार हो गया है। इसलिए उसने एक बार फिर बेमियादी बंद का हथियार चलाया है।
पानीघाटा में जीएनएलएफ समर्थकों के साथ मारपीट के बाद मोर्चा के सदस्यों की गिरफ्तारी के बाद शुक्रवार को ही पहाड़ियों में बेमियादी बंद का एलान करने वाले पोस्टर लगे थे। नतीजतन पूरा इलाका बंद हो गया। बाद में मोर्चा प्रमुख विमल गुरुंग ने एलान किया कि उन्होंने राज्य सरकार को इस मामले में दोषियों को गिरफ्तार करने और इस मामले से जुड़े पुलिस अधिकारियों को हटाने के लिए 13 जुलाई को दोपहर तक की समयसीमा तय की है। उसके बाद बेमियादी बंद शुरू होगा। मोर्चा ने अपने समर्थकों की बिनाशर्त रिहाई के अलावा जीएनएलएफ के कई नेताओं को गिरफ्तार करने और उत्तर बंगाल के आईजी कुंदन लाल टमटा समेत कोई आधा दर्जन पुलिस अधिकारियों को हटाने की मांग की है।
बेमियादी बंद के एलान के बाद शनिवार से ही जहां इलाके से बड़े पैमाने पर पर्यटकों की वापसी शुरू हो गई, वहीं जरूरी वस्तुओं व खाद्यान्नों की खरीद के लिए बाजारों में भीड़ उमड़ पड़ी।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लोकसभा चुनाव बीत जाने के बाद बीते तीन-चार महीनों की चुप्पी के बाद मोर्चा नेतृत्व अब पानीघाटा कांड के बहाने बेमियादी बंद के जरिए केंद्र व राज्य सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है। उसका यह दांव कितना कारगर होगा, यह तो बाद में पता चलेगा। लेकिन इससे आम लोगों और इलाके की पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था के साथ ही विदेशी मुद्रा कमाने वाले चाय उद्योग को भारी नुकसान तय है। बीते दो वर्षों से लगातार होने वाले आंदोलन की वजह से पहले ही इन क्षेत्रों का भारी नुकसान उठाना पड़ा है। अब दुर्गापूजा और दीवाली की छुट्टियों के दौरान शुरू होने वाले पर्यटन सीजन में इलाके की अर्थव्यवस्था को और भारी झटका लगेगा।

Tuesday, July 7, 2009

अंधी सुरंग में बदल गया है लालगढ़


पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर में माओवाद की समस्या से जूझ रहा लालगढ़ अब धीरे-धीरे एक अंधी सुरंग में बदलता जा रहा है। इलाके को माओवादियों के कब्जे से छुड़ाने के लिए राज्य पुलिस व केंद्रीय बलों के हजारों जवानों ने बीते महीने जो अभियान शुरू किया था वह कहीं पहुंचता नहीं नजर आ रहा है। यह अभियान समस्या कौ फौरी हल भले हो, स्थाई तौर पर किसी कामयाबी की उम्मीद नहीं है। यह अभियान कब तक जारी रहेगा, इस बारे में कोई भी कुछ कहने को तैयार नहीं है। लालगढ़ समस्या के उलझने के बाद अब सरकार को इलाके के पिछड़ेपन का ख्याल आया है। अब तमाम विभागों के सचिव इलाके का दौरा कर विकास कार्य शुरू करने पर जोर दे रहे हैं। लेकिन इन योजनाओं को अमली जामा पहनाना अब उतना आसान नहीं रहा।
बीते महीने शुरू आपरेशन लालगढ़ के दौरान सुरक्षा बलों को माओवादियों की ओर से किसी खास विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है। एकाध बारूदी सुरंगों के विस्फोट के अलावा कभी-कभार दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी हुई है। सुरक्षा बलों को अब तक इलाके से किसी भी बड़े माओवादी नेता को गिरफ्तार करने में कामयाबी नहीं मिली है। और तो और बार-बार गिरफ्तारी की बात कहने के बावजूद सरकार अब तक पुलिस अत्याचार विरोधी समिति के नेता छत्रधर महतो तक भी नहीं पहुंच सकी है। जबकि महतो लालगढ़ में ही है और मजे से मीडिया के लोगों से बातचीत कर रहे हैं। लेकिन सरकार इंतजार करो व देखो की नीति पर आगे बढ़ रही है। उसे डर है कि कहीं महतो की गिरफ्तारी से इलाके के आदिवासी नहीं भड़क पड़ें।
सुरक्षा बलों के बिना किसी खास प्रतिरोध के एक के बाद एक गांवों पर कब्जे से माओवादियों की रणनीति साफ है। वे पीछे हट गए हैं। उनको पता है कि सुरक्षा बल अनंतकाल तक इलाके में नहीं रह सकते। देर-सबेर उनको लौटना ही है। उसके बाद माओवादी भी इलाके में लौट जाएंगे और समस्या जस की तस रहेगी। गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन भी इस हफ्ते लालगढ़ का दौरा करने के बाद कहा था कि राज्य सरकार केंद्र सरकार से केंद्रीय बलों को जुलाई के आखिर तक इलाके में रखने का अनुरोध करेगी। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर केंद्रीय बलों के लौटने के बाद लालगढ़ का क्या होगा। क्या राज्य पुलिस वहां माओवादियों का मुकाबला कर सकेगी। इसकी उम्मीद कम ही है। यानी लालगढ़ एक बार फिर पहले वाली हालत में ही लौट जाएगा।
राज्य सरकार के निर्देश पर अब इलाके में विकास योजनाएं चलाने के लिए तमाम आला अधिकारी इलाके का दौरा कर रहे हैं। गृह सचिव ने भी अपने दौरे के दौरान माना कि लालगढ़ में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सिंचाई जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। सरकार ने अभ इलाके में विकास कार्य तेज करने की बात कही है। लेकिन अगर यही काम पहले किया गया होता तो लालगढ़ में हालात इतने नहीं बिगड़ते। इन पिछड़े जिलों में सरकार के कामकाज का पिछला रिकार्ड भी ठीक नहीं है। पांच साल पहले इसी जिले के आमलासोल में भूख से आदिवासियों के मरने की खबरों के सामने आने के बाद सरकार ने इलाके में कई विकास परियोजनाओं का एलान किया था जिसमें आदिवासियों को सस्ती दर पर चावल और गेहूं देने की भी बात कही गई थी। लेकिन बीते पांच वर्षों में इनमें से ज्यादातर योजनाएं कागजों में ही सिमटी रही हैं और आमलासोल की हालत जस की तस है।
यह आसान-सी बात राज्य सरकार भी समझ रही है कि केंद्रीय बलों की वापसी के बाद लालगढ़ फिर माओवादियों का सुरक्षित बसेरा बन जाएगा। दूसरी ओर, इलाके के लोगों को माओदावियों से काटने की किसी ठोस योजना पर मिल कर काम करने की बजाय अब राज्य के दोनों प्रमुख दलों यानी माकपा और तृणमूल कांग्रेस ने एक-दूसरे पर कीचड़ उचालने का खेल शुरू कर दिया है। माकपा तृणमूल पर माओवादियों की सहायता और समर्थन का आरोप लगा रही है तो तृणमूल का कहना है कि माओवादी दरअसल माकपा के ही लोग हैं। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी का कहना है कि माकपा अब केंद्रीय बलों की सहायता से इलाके पर दोबारा अपना कब्जा करने का प्रयास कर रही है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लालगढ़ समस्या अब धीरे-धीरे एक अंधी सुरंग में बदलता जा रहा है। इसका दूसरा छोर ने तो राज्य की वाममोर्चा सरकार को सूझ रहा है और न ही वहां बीते 20-22 दिनों से माओवादियों के खिलाफ अभियान चला रहे सुरक्षा बलों को। परयवेक्षकों का कहना है कि इलाके में बड़े पैमाने पर विकास परियोजनाओं को लागू कर और लोगों को रोजगार मुहैया कर ही उनको माओवादियों से काटा जा सकता है। लेकिन इसमें लंबा वक्त लगेगा। ऐसे में निकट भविष्य में लालगढ़ समस्साय के स्थाई समाधान की उम्मीद कम ही है।

Sunday, July 5, 2009

बढ़ती ही जा रही हैं माकपा की मुसीबतें


प्रभाकर मणि तिवारी
वाममोर्चा की सबसे बड़े घटक माकपा की मुसीबतें लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। जिस पार्टी की सांगठनिक ताकत और रणनीति के बूते पश्चिम बंगाल और केरल में मोर्चा लंबे समय से राज करता रहा है, अब वह अपने घऱ के झगड़ों को सुलझाने में ही जुटी है। केरल का झगड़ा निपटाने के लिए ही दिल्ली में पार्टी की पोलित ब्यूरो की दो-दिनी बैठक हुई। बावजूद इसके वहां समस्या जस की तस है। देश में अपने सबसे मजबूत गढ़ बंगाल में भी पार्टी को लगातार मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। अपने बीते 32 वर्षों के शासनकाल के दौरान पार्टी को कभी यहां इतनी विकट परिस्थितियों से नहीं जूझना पड़ा था।
दरअसल, बीते विधानसभा चुनावों के दौरान माकपा के तेज-तर्रार प्रदेश सचिव अनिल विश्वास की अचानक मौत और उसके बाद भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटी माकपा में दादागिरी की प्रवृत्ति तो उसके बाद से ही बढ़ने लगी थी। सत्ता में लौटने के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नए उद्योगों की स्थापना के लिए जमीन अधिग्रहण की जो प्रक्रिया शुरू की थी, उसी ने आगे चल कर पार्टी के लिए ऐसी मुसीबत पैदा की जिसका खमियाजा उसे अब तक भुगतना पड़ रहा है। अपने बूते विधानसभा में बहुमत हासिल करने वाली माकपा ने उसके बाद विभिन्न मुद्दों पर वाममोर्चा के दूसरे घटकों को भाव देना भी बंद कर दिया था। तमाम फैसले पार्टी के स्तर पर होने लगे। यही वजह थी कि नंदीग्राम और सिंगुर समेत विभिन्न स्थानों पर खेती की जमीन के अधिग्रहण के सवाल पर जितना मुखर विपक्षी दल रहे, उतने ही वाममोर्चा के दूसरे घटक। यह अलग बात है कि माकपा ने कभी घटक दलों की आपत्तियों व सुझावों को कोई खास तवज्जो नहीं दी। बीते खासकर तीन वर्षों में ऐसी एक भी मिसाल नहीं मिलती जिसमें माकपा ने सहयोगी दलों की आपत्तियों या सुझावों के आधार पर अपने फैसलों में कोई नीतिगत बदलाव किए हों।
एक के बाद एक मनमाने फैसलों ने ही राज्य में नंदीग्राम और सिंगुर के भूत पैदा कर दिए जो अब तक माकपा और उसकी अगुवाई वाली सरकार के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। अब लालगढ़ और आसपास के जो इलाके माओवादी की समस्या से जूझ रहे हैं वह भी माकपा की ही देन है। लगातार उपेक्षा और पिछड़ेपन से लोगों में घर करती नाराजगी का लावा जब फूटा तो माकपाइयों को ही उसका शिकार बनना पड़ा। लालगढ़ इलाके में होने वाली घटनाएं अपनी कहानी खुद कहती हैं। यह महज संयोग नहीं है कि इलाके में जितने भी हमले हुए सब माकपाइयों पर। जितने दफ्तर और घर फूंके गए वे भी माकपाइयों के ही थे। वाममोर्चा के दूसरे घटक दलों के दफ्तरों पर न तो एक भी पत्थर फेंके गए और न ही उन दलों के नेताओं या कार्यकर्ताओं पर हमले हुए। यानी आम लोगों की नाराजगी माकपा के खिलाफ ही है।
सिंगुर व नंदीग्राम के बाद बीते साल हुए पंचायत चुनावों में ही माकपा के खिलाफ लहर शुरू हुई थी। लेकिन अपनी सांगठनिक ताकत और काडरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा होने की वजह से पार्टी ने इस लहर को कोई तवज्जो नहीं दी। इसका नतीजा लोकसभा चुनावों में पार्टी की दुर्गति के तौर पर सामने आया। माकपा इस चुनाव में अपने बूते दहाई का आंकड़ा तक नहीं छू सकी। उसके बाद रही-सही कसर 16 नगरपालिकाओं और नगर निगमों के लिए हुए चुनाव ने पूरी कर दी। वाममोर्चा को इनमें से महज तीन से ही संतोष करना पड़ा। बाकी 13 विपक्ष की झोली में चले गए। इन नतीजों के बाद पार्टी के विवादास्पद नेता और परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने भी इस बात पर अचरज जताया था कि अगर लोग नहीं चाहते तो हम सत्ता में कैसे बने रह सकते हैं।
चक्रंवर्ती ने कहा है कि वाममोर्चा का समय सुखद नहीं है। माकपा की राज्य समिति के सदस्य व भूमि सुधार मंत्री अब्दुर रज्जाक मोल्ला ने भी माना है कि माकपा गरीब जनता से कट गई है। इसलिए सभी जगह बदलाव की लहर महसूस की जा रही है। लोग इतने नाराज हैं कि उन्होंने नगरपालिका चुनाव में भी वाममोर्चा को वोट नहीं डाला। लेकिन वाममोर्चा अध्यक्ष और माकपा के प्रदेश सचिव विमान बोस को अपनी खोई राजनीतिक जमीन दोबारा हासिल करने का भरोसा है। उनकी दलील है कि नगरपालिका चुनाव में जहां हार हुई हैं वहां भी लोगों ने वाममोर्चा के पक्ष में वोट डाला है। लोकसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादातर वार्डों में लोगों ने वाममोर्चा का समर्थन किया है।
अब कट्टर से कट्टर माकपाई भी मौजूदा परिस्थिति जारी रहने पर दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में वाममोर्चा की जीत का दावा करने की हालत में नहीं हैं। अगले साल कोलकाता नगर निगम के अलावा बाकी नगरपालिकाओं के चुनाव होने हैं। हर विधानसभा चुनाव के पहले राज्य में होने वाले इस चुनाव के मिनी चुनाव कहा जाता है। लेकिन बावजूद इसके माकपा नेतृत्व अपनी सांगठनिक कमजोरियों को दूर कर आम लोगों के पास जाने की बजाय घर के झगड़े सुलझाने और विपक्ष की नुक्ताचीनी करने में ही व्यस्त है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अनिल विश्वास की मौत ने माकपा को रणनीति के लिहाज से एक बड़ा झटका दिया था जिससे वह कभी उबर ही नहीं सकी। उनकी जगह पार्टी की कमान संभालने वाले विमान बसु कभी उस स्तर तक पहुंच ही नहीं सके। यही वजह है कि विश्वास की मौत के बाद माकपा की कमजोरियों और दरारें तेजी से उभरने लगीं।
विश्वास दूरदर्शी थे और उनमें संगठन को एकजुट रखने की अद्भुत क्षमता थी। उनकी मौत के बाद पार्टी को केंद्रीय नेताओं ने लगभग हाईजैक कर लिया और तमाम अहम फैसले दिल्ली से ही होने लगे। चाहे वह केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापसी का हो या फिर सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकालने का। माकपा के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व के बीच उबरने वाले मतभेदों ने भी पार्टी की कमजोरियां उजागर करने में अहम भूमिका निभाई है। ऐसे में इन मतभेदों से उबर कर राज्य में सागंठनिक तौर पर खुद को पहले की तरह मजबूत करना ही प्रदेश नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

Saturday, July 4, 2009

राइटर्स बिल्डिंग की ओर दौड़ने लगी ममता की रेल

प्रभाकर मणि तिवारी

कोलकाता। रेल मंत्री के तौर पर अपनी दूसरी पारी में शुक्रवार को संसद में पहला रेल बजट पेश करने के साथ ही तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की रेल अब राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग की ओर दौड़ने लगी है। ममता ने अपने इस बजट से साफ कर दिया है कि उनकी रेल की मंजिल राइटर्स बिल्डिंग ही है। उन्होंने इस बजट में बंगाल के हर तबके के लोगों को जमकर सौगात दी है। देश में पहली बार किसी मेट्रो रेल में छात्रों को छूट देने का एलान किया गया है।
ममता बनर्जी ने रेल मंत्री के तौर पर यहां शपथ लेते ही निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए 20 रुपए में रेलवे का मासिक पास देने का एलान किया था। उनका वही एलान बजट में इज्जत योजना के तौर पर सामने आया है। इसके तहत ऐसे तमाम लोग 25 रुपए में महीने भर रोजाना सौ किलोमीटर तक का सफर कर सकते हैं जिनकी आय पंद्रह सौ रुपए मासिक है। दरअसल, उनकी यह योजना दूर-दराज के उपनगरों से रोजाना सब्जियां और दूसरे सामान बेचने या फिर काम की तलाश में महानगर आने वालों को ध्यान में रख कर ही बनाई गई है।
रेल मंत्री ने जिन पचास स्टेशनों का कायाकल्प करते हुए उनको विश्वस्तरीय बनाने का एलान किया है उनमें से कई बंगाल में हैं। उन्होंने बजट में कोलकाता से सटे काचरापाड़ा-हालीशहर रेलवे परिसर में रेलवे कोच बनाने का अत्याधुनिक कारखाना लगाने का एलान किया है। इस परिसर में रेलवे की काफी जमीन लंबे अरसे से खाली पड़ी है। इस परियोजना से हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा। सालाना पांच सौ डिब्बों के निर्माण की क्षमता वाले इस कारखाने को निजी क्षेत्र के सहयोग से लगाया जाएगा। इसमें लोकल ट्रेनों के अलावा मेट्रो रेल के डिब्बे भी बनाए जाएंगे। ममता ने देश भर में जो तीन नर्सिंग कालेज खोलने का एलान किया है उनमें से एक कोलकाता को भी मिला है। इसके अलावा उन्होंने राज्य के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार पुरुलिया के आद्रा में एक हजार मेगावाट की बिजली परियोजना लगाने की बात कही है। उस पिछड़े इलाके में प्रस्तावित बिजली कारखाने पर होने वाले भारी-भरकम निवेश से इलाके का चेहरा तो बदलेगा ही, रेल मंत्री की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का वोट बैंक भी मजबूत होगा। बजट में बंगाल को कई ट्रेनें तो मिलेंगी ही, कइयों का विस्तार भी तय है।
कोलकाता के छात्रों के लिए रेल बजट में मेट्रो के किराए में साठ फीसद छूट का एलान किया गया है। देश में किसी मेट्रो रेल में किसी तरह की छूट का यह पहला मौका है। लेकिन रेल मंत्री ने दिल्ली के छात्रों को ऐसी कोई छूट नहीं दी है। ममता ने पूरे देश में जिन एक दर्जन नान-स्टाप ट्रेनों को चलाने का एलान किया है उनमें से एक तिहाई यानी चार तो बंगाल के हिस्से में ही आई हैं। यहां से ऐसी दो ट्रेनें दिल्ली के लिए होंगी और एक-एक मुंबई और अमृतसर के लिए।
मां,माटी और मानुष (मां, मिट्टी व मनुष्य) के जिस नारे के दम पर ममता की तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में अपनी सीटें एक से बढ़ा कर 19 तक पहुंचा लीं, रेल मंत्री ने अपने बजट भाषण में इस नारे का भी जिक्र किया। इसी के तहत उन्होंने निम्न आय वर्ग के लिए इज्जत योजना के साथ मोबाइल वैनों और डाकघरों के जरिए रेल टिकट बेचने का एलान किया। उन्होंने कहा कि मंत्रालय बंगाल में बंद पड़े रेलवे कोच कारखाने बर्न स्टैंडर्ड और ब्रेथवेट के अधिग्रहण की बातचीत शुरू करने का भी भरोसा दिया। ममता ने कहा कि अगर राज्य बसुमती कार्पोरेशन को छोड़ दे तो उनका मंत्रालय इसके अधिग्रहण के लिए तैयार है। ध्यान रहे कि राज्य सरकार का यह निगम एक दैनिक बांग्ला अखबार प्रकाशित करता था जो अब बंद हो चुका है। इसके कर्मचारी लंबे समय से आंदोलन कर रहे हैं और ममता उनके इस आंदोलन का समर्थन करती रही हैं।
रेल मंत्री ने महानगर के टालीगंज स्थित मेट्रो रेलवे अस्पताल के आधुनिकीकरण का तो एलान किया ही है, मेट्रो रेलवे का विस्तार कर उसे दक्षिणेश्वर और बैरकपुर तक करने की भी बात कही है। उन्होंने रेलवे के अस्पतालों में मेडिकल कालेज खोलने का एलान किया है। इसका फायदा भी बंगाल को मिलना तय है। उन्होंने महानगर के बीचोबीच स्थित माझेरहाट रेलवे स्टेशन को विकसित कर उसे टर्मिनल बनाने की भी बात कही है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ममता ने अपने इस पहले रेल बजट में आम लोगों के साथ ही बंगाल और उसकी जनता का खास ध्यान रखा है। राज्य में पहले कभी रेलवे की इतनी परियोजनाएं एक साथ शुरू नहीं हुई थी। जाहिर है कम समय में बजट बनाने के बावजूद ममता ने 2011 में होने वाले विधानसभा चुनावों का पूरा ख्याल रखा है।
जनसत्ता से

Friday, July 3, 2009

लेकिन नहीं बदली है सोच

गांव बदल रहे हैं. लेकिन एक चीज जो नहीं बदली है वह है लोगों की सोच. खासकर खानदान का नाम रोशन करने के लिए पुत्र का मोह. खानदान का चिराग लाने की कोशिश में बेटियों की कतारें लग रही हैं. लेकिन वहां इसकी परवाह किसे है. सात बेटियों के बाद भी एक बेटा पैदा होने पर लोग उसे बुढ़ापे की लाठी मानते हैं. अब यह बात अलग है कि वह बेटा बुढ़ापे की लाठी बनने की बजाय अपने मां-बाप का स्वागत लाठी और गाली से करता है. इस कड़वी हकीकत से इस बार भी गांव जाने के दौरान मेरा पाला पड़ा.
शुरू से ही बंगाल में रहने की वजह से मुझे बेटे-बेटी में कोई खास अंतर नहीं महसूस हुआ. बंगाल में बेटियों को तरजीह दी जाती है. मेरी एक ही बिटिया है जो दसवीं में पढ़ती है. मेरे मां-पिताजी भी पोते की कमी महसूस नहीं करते. लेकिन गांव जाने पर पट्टीदार उनकी इस कमजोर नस को दबाने की कोशिश करते रहते हैं. बात-बेबात यह बात उनलोगों के मुंह से निकल ही जाती है कि काश भगवान आपको एक पोता भी दे देता. मानो पोता नहीं होना कोई बड़ा गुनाह हो. पट्टीदारों के चाशनी में लिपटे इस ताने की वजह से ही गांव से लौटने पर मां का ब्लड प्रेशर हमेशा बढ़ा रहता है. लोगों के कहने पर उन्होंने तमाम धार्मिक अनुष्ठान भी कराए हैं. गांव वाले कहते हैं कि पोता नहीं है तो खानदान का नाम ही डूब जाएगा, मोक्ष नहीं मिलेगा. मुझे लगता है कि कितनी अजीब और परस्पर विरोधी बातें लिखी हैं हमारे पुराणों और शास्त्रों में. एक ओर तो बेटा नहीं होने पर मोक्ष नहीं मिलने की दलील दी जाती है और दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि गया में पूर्वजों को पिंडदान करने पर आगे-पीछे की सात-सात पीढ़ियां मोक्ष हासिल कर लेती हैं. और यह भी एक कन्यादान करने पर कई पीढ़ियों को मोक्ष मिल जाता है. इस बार गांव जाने पर मैंने यही दलील दी कि पिताजी ने कोई पांच-छह साल पहले गया में पिंडदान कर दिया है, तो क्या हमलोगों को मोक्ष नहीं मिलेगा? लेकिन किसी के पास इसका कोई जवाब नहीं था. वैसे, गया में पिंडदान करने के लिए गए पिताजी का रुपए और कपड़ों से भरा थैला किसी ने नदी के घाट पर ही चुरा लिया था और उनको वहां से लुंगी में ही गांव लौटना पड़ा था. लेकिन अब महज अपने फायदे के लिए पुराणों की दलील को तोड़-मरोड़ कर उनका हवाला देने वालों से आप जीत भी कैसे सकते हैं?
दरअसल, बेटे के प्रति खत्म नहीं होने वाले इस मोह ने ही गांव में बेरोजगारी जैसी कई समस्याएं पैदा की हैं. मेरे एक पट्टीदार हैं, जो कोलकाता के पास कांचरापाड़ा स्थित रेलवे के वर्कशाप में काम करते हैं. उनके चार बेटे हैं और चार बेटियां. उन महोदय की शादी कच्ची उम्र में हो गई थी. बेटा जल्दी हो गया और उसकी शादी भी कच्ची उम्र में. अब उसे दो बेटियां हैं. संयोग से वे महोदय रिश्ते में मेरे भतीजे लगते हैं और मुझसे दो साल बड़े हैं. यानी उनकी पोतियां मेरी परपोती हुई. गांव के इस रिश्ते की वजह से इसी उम्र में मैं परदादा बन चुका हूं. अब उनके घर में सास-बहु में आए दिन झगड़े होते रहते हैं. मेरे गांव में रहने के दौरान भी एक दिन पत्नी का पक्ष लेकर लड़ रहे बेटे और उसकी मां के बीच ऐसी जंग हुई कि मां को रात मेरे घर आ कर गुजारनी पड़ी. बेटा भी पियक्कड़ है और बाप भी. बाप को अपने बाप की आकस्मिक मौत के बाद रेलवे में नौकरी मिल गई. बेटा बेरोजगार है और शायद उसे भी अपनी बाप की मौत का इंतजार है नौकरी के लिए. उसकी मां का कहना था कि वह बाप की हत्या कर रेलवे में नौकरी पाना चाहता है. यह है बुढ़ापे की लाठी की करतूत. दिलचस्प बात यह है कि रोजाना के जूतम-पैजार के बावजूद दो बेटियों के जन्म के बाद जब मेरे उस पोते की बहु ने अपना आपरेशन कराना चाहा तो सास उसके खिलाफ हो गई. उसका कहना था कि बेटा नहीं पैदा किया तो खानदान का नाम कैसे रोशन होगा. (मानो अब तक जितना रोशन हुआ है वह कम है) उसने बहु को सीधे धमकी दी कि आपरेशन कराया तो घर से बाहर निकाल दूंगी.
मेरे पड़ोस में रहने वाले एक और पट्टीदार के बेटे भी लगभग बेरोजगार ही हैं. कोई गांव में रह कर ट्यूशन पढ़ाता है तो कोई शहर में. उनका कहना है कि आप घर से सटी अपनी कुछ जमीन पानी के भाव मुझे दे दें. उन्होंने इसी बार पिताजी से कहा कि आपके बेटे तो अच्छी-खासी नौकरियों में हैं. मेरे बेटे तो खास नहीं कमाते. लेकिन वे भी अपने पोतों के बारे में गर्व से बताते हुए अपनी नजर में हमारी इस कमजोर नस को गाहे-बगाहे दबाने का कोई मौका नहीं चूकते.
गांव में जिससे मिला सबका एक ही सवाल था-एक ही बेटी है. इतना पैसा क्या करेंगे? खाने वाला तो है ही नहीं. अब उनलोगों को क्या पता कि बेटी की पढ़ाई व परवरिश पर भी उतनी ही रकम खर्च होती है जितनी बेटे पर. मैंने हंस कर जवाब दिया कि रतन टाटा ने तो शादी ही नहीं की है और मुकेश अंबानी और कपिलदेव को तो बेटी ही है. तो क्या वे लोग अपनी संपत्ति किसी को दान कर दें. लेकिन पुत्रमोह का काला चश्मा पहने गांव वाले मेरे इस तर्क को सुनने व मानने को तैयार ही नहीं थे. सहानुभूति भरी नजरों से देखते हुए सब कहते थे कि काश भगवान आपको भी एक बेटा दे देता. अब उसे क्या कहता मैं? उनकी सोच के आगे मेरे सारे तर्क बेकार साबित हो रहे थे.
चार दिनों बाद गांव से लौटते हुए मैं उनकी मानसिकता और इससे पैदा होने वाली समस्या के बारे में सोच रहा था. लेकिन साथ ही यह भी तय था कि अगली बार आने पर भी उनकी इस सोच में रत्ती भर भी फर्क नहीं आएगा और वे बेटे का बाप नहीं होने के लिए मुंह पर मुझसे सहानुभूति जताएंगे और पीठ पीछे हंसेंगे कि इनका पैसा कौन खाएगा. इनका खानदान तो अब डूब गया. मुझे तो अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो मरने के बाद आ कर कह गया हो कि उसे मोक्ष मिल गया अपने बेटों की वजह से. या फिर यह भी देखने नहीं आया कि बेटे उसके खानदान का नाम रोशन कर रहे हैं या डुबो रहे हैं. आपको कोई ऐसा मिला हो तो बताएंगे.

Thursday, July 2, 2009

गांव की ओर-(2)

गांव सचमुच बदल रहे हैं. तमाम आधुनिक सुविधाएं पांव पसारने लगी हैं. कल तक ताल में गाय-भैंस चराने वालों के हाथों में भी मोबाइल सेट आ गए हैं. सलेमपुर से गांव की ओर से बढ़ते हुए यही सोच रहा था. पिछली बार गया था तो सड़कें इतनी टूटी-फूटी थीं कि समझना मुश्किल था कि सड़कों पर गड्ढे हैं या फिर गड्ढों के बीच कहीं-कहीं सड़क बनी है. लेकिन अबकी तस्वीर बदली हुई थी. चमचमाती सड़कें—ठीक वैसे ही जैसे कभी लालू प्रसाद कहा करते थे कि फलां हीरोइन के गाल की तरह.... साधन व सवारियां भी बढ़ी हैं. अबकी नई सवारी के तौर पर जगह-जगह तिपहिया, जिनको यहां टेम्पो कहा जाता है, दौड़ते नजर आए.किराया भी कम एक से दूसरी जगह जाने का महज पांच रुपया. गुठनी से मेरे गांव तक जाने वाली सड़क को होश संभालने के बाद मैंने हमेशा टूटी हालत में ही देखा है. कभी बहुत हुआ तो ईंटें बिछा दी. बाद में वह और टूट जाती थी.
इतना बड़ा साझा परिवार था कि नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों में हर साल गर्मी में गांव जाना किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं होता था. हर साल किसी न किसी की शादी होती थी और उसमें दूर-दराज के शहरों में बसे चाचा और भैया लोग आते थे. पूरे कुनबे में साठ से ज्यादा लोग थे. अब चूल्हा अलग होने के बाद लोगों में वह प्यार भी नहीं बचा कि शादियों में सब जुटें. इसके अलावा समय के साथ कई लोग भगवान को प्यारे हो गए. दिलों की दूरियां इतनी बढ़ गई हैं कि मुंह में राम बगल में छूरी वाली कहावत अब गांव में सही अर्थों में चरितार्थ होती नजर आती है.
गांव में अब या तो बूढ़े बचे हैं जो मरने का इंतजार कर रहे हैं या फिर वे नौजवान जिनको कहीं नौकरी नहीं मिल रही. बूढ़े लोगों के बच्चे दूसरे शहरों में रहते हैं. वहां से हर महीने आने वाला मनीआर्डर या फिर बैंकों के जरिए भेजी जाने वाली रकम के सहारे दवाएं खरीदी जाती हैं और खाने का सामान. इसबीच, गांव के कई युवक खाड़ी देशों में चले गए हैं. वहां मेहनत-मजदूरी कर पैसे भेजते हैं और गांव में खर्च चलता है. अरब से लौटा एक युवक बताता है कि वहां उनलोगों को वही काम करना होता जिसे गांव में करते शर्म आती है. जो युवक बेरोजगार हैं वे नशे और पाउच में मिलने वाली शराब के सहारे बेरोजगारी का दुख भुलाने का प्रयास कर रहे हैं.
एक नई चीज और देखी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते दिनों गांव से सटी एक सड़क का शिलान्यास किया था. मुझे याद नहीं कि इससे पहले कभी कोई मुख्यमंत्री मेरे गांव के इतने करीब तक आया हो. गांव में बिजली के खंभे गड़े हैं, ट्रांसफार्मर भी आ गया है. कोई बीस साल पहले भी यह सब आया था. लेकिन अब वे खंभे और ट्रांसफार्मर ऐसे गायब हो गए हैं जैसे गदहे के सिर से सींग. गांव में मेरे चाचा के लड़के दुर्गा बताते हैं कि बिजली नहीं आएगी. खंभा तो दो साल पहले ही लगा था, अब तार भी खींचने वाला है लेकिन बिजली कभी आती ही नहीं है.
गांव में मोबाइल घर-घर पहुंच गया है. लाइफटाइम स्कीम ने काम आसान कर दिया है. लेकिन समस्या है उसे चार्ज करने की. सो, जगह-जगह तीन से पांच रुपए लेकर बड़ी बैटरी से इनको चार्ज करने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है. मैंने भी तीन रुपए देकर एक दिन अपना मोबाइल चार्ज कराया.जहां तक सवारियों की बात है गांव के दो-तीन लोगों ने टेम्पो खरीद ली है. लेकिन इससे भी सुलभ एक और साधन है. गांव में कई दर्जन मोटरसाइकिलें हैं. वो ज्यादा चलती नहीं. वजह तेल के लिए पैसे नहीं होते. या फिर उनको चलाने वाला विदेशों में ईंट-गारे का काम कर रहा है. दरअसल, देहात में मोटरसाइकिलों की भरमार हो गई है. यह वो मोटरसाइकिलें हैं जो दहेज में मिलती हैं. बेरोजगार युवक के पास जब तक ससुराल से मिले पैसे होते हैं तब तक वह इन पर बैठ कर पान खाने के लिए तीन-तीन किलोमीटर चले जाते हैं. लेकिन उसके बाद मोटरसाइकिल घर की शोभा बढ़ाती है. ऐसे युवकों को तेल के पैसे देने पर वे किसी को कहीं तक पहुंचाने के लिए तैयार रहते हैं. तेल के सौ रुपए लेकर वे पचास का तेल भरवाते हैं और बाकी रकम का पाउच खरीद कर पी जाते हैं. यह साधन बीते चार-पांच सालों में सुलभ हुआ है. मेरे पिता जी कई बार इसका लाभ उठा चुके हैं.
हां, गांव में हर कोई सलाह देता है कि कोई भी दवा सिवान जिले से मत खरीदो. सलेमपुर जाओ, देवरिया जाओ, लेकिन यहां से नहीं. वजह, पूरे जिले में नकली दवाएं धड़ल्ले से बनती और बिकती हैं. ऊपर से नीचे तक तमाम लोग इस धंधे में शामिल हैं. इसलिए मां-पिताजी गांव जाने पर हर मर्ज की दवा सिलीगुड़ी से ही साथ ले जाते हैं.

गांव की ओर—(1)

(चार साल बाद अबकी देस लौटना हुआ था. इसलिए ब्लाग और इंटरनेट की दुनिया से कोई छह-सात दिन दूर रहा. गांव में बिजली ही नहीं है तो इंटरनेट की कौन कहे. अब लगा कि उन यादों को सिलसिलेवार तरीके से ब्लाग पर डाल देना चाहिए.)
कोई चार साल पहले आखिरी बार गांव गया था. बीच में न तो कभी इसका मौका आया और न ही कोई वजह मिली. गर्मी की छुट्टियों में सिलीगुड़ी ही जाना होता था. वहीं सब लोग रहते हैं. लेकिन इस साल बिटिया दसवीं में पहुंची तो स्कूल में एक्सट्रा क्लास और कोचिंग के चक्कर में सिलीगुड़ी जाना नहीं हो सका. घऱ से बाहर रहने के इन वर्षों में यह पहला मौका था जब गर्मी की छुट्टियां कोलकाता में ही बीतीं. इसबीच, अचानक गांव में मां-पिताजी के जाने और वहां पूजा का कार्यक्रम बना तो पत्नी ने कहा कि आप अकेले ही गांव क्यों नहीं चले जाते दो-चार दिनों के लिए. मुझे भी यह बात जंची. और इस तरह चार साल बाद सिवान की ओर निकलने की योजना बनी.
कोलकाता के नए बने तीसरे रेलवे स्टेशन, जिसका नाम कोलकाता ही है, से एक ही सीधी ट्रेन जाती है गोरखपुर तक. पूर्वांचल एक्सप्रेस. जिस दिन जाना था उस दिन उस दिन वह ट्रेन छपरा से बलिया, मऊ और सलेमपुर होकर गोरखपुर तक का सफऱ तय करती थी.मैंने सोचा ठीक है सलेमपुर उतर कर वहां से दो-तीन घंटे में गांव पहुंच जाऊंगा.
24 जून को दोपहर के समय जब स्टेशन पहुंच कर अपने कोच के भीतर पहुंचा तो हालात बेहद खराब थे. ट्रेन चलने में आधे घंटे से भी कम समय बचा था.लेकिन एसी नहीं चलने की वजह से तमाम यात्री परेशान. पूरा कोच किसी भट्टी की तरह तप रहा था. लोगों के शोर-शराबे के बाद केयरटेकर ने बैटरी चार्ज नहीं होने की बात कह कर कोई पांच मिनट पहले एसी आन किया. लेकिन कमरे को ठंडा होने में कोई दो घंटे लग गए.
मैं हमेशा सुनियोजित तरीके से सफऱ करता हूं. पहले से कंफर्म रिजर्वेशन और पसंद की सीट चुन कर ताकि बाद में न तो रेलवे के किसी कर्मचारी को मक्खन लगाना पड़े या फिर किसी सहयात्री से सीट बदलने के लिए गिड़गिड़ाना पड़े. मैंने लगभग यह नियम बना लिया है कि ट्रेन में किसी से सीट नहीं बदलूंगा. भले मेरी सीट बहुत खऱाब हो. लेकिन लोग कहां मानते हैं. मैंने किनारे नीचे की बर्थ ली थी ताकि अपनी पत्रिकाओं में डूबा रह सकूं. लेकिन ट्रेन चलने के कुछ देर पहले एक दंपती मेरे सामने की सीट पर आया. उनकी एक सीट मेरे ऊपर वाली थी और दूसरी सीट कुछ दूर थी और वह भी ऊपर वाली. मुझे अकेला देख कर उनको लगा कि इससे सीट आसानी से बदली जा सकती है. ऐसे लोग अममून बातचीत की पहल करते हैं—भाई साहब, आप कहां तक जाएंगे. फिर वह जल्दी ही अपने मकसद पर आ गए. आप मेरी दूसरी वाली सीट ले लेंगे. मैंने कहा कि अगर वह नीचे की बर्थ हुई तो जरूर ले लूंगा.
काशीपुर इलाके में अपना कारोबार करने वाले वह सज्जन तो ठीक थे लेकिन उनकी पत्नी को देख कर लगता था मानों राशन की चलती-फिरती दुकान हो. ऊपर की बर्थ पर चढ़ना उसके लिए असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर था. मैंने कहा कि मैं अपनी सीट नहीं बदल सकता. आप किसी और से बात कर लीजिए. पत्नी को देख कर मैंने अनुमान लगाया था कि खाने-पीने की शौकीन हैं और इनकी जरूर मिठाई दुकान वगैरह होगी. बाद में पता चला कि केक और पेस्ट्री की बड़ी सी दुकान चलाते हैं. जरूर, दुकान का आधा माल हर महीने पत्नी के पेट में जाता होगा, मैंने सोचा. सीट बदलने में दो दिक्कतें थीं. सफर में मैं लगभग नहीं के बराबर सोता हूं. ऊपर की बर्थ लेने पर नींद मजबूरी बन जाती. दूसरी बात यह कि मैं सीट बदलने के खिलाफ रहा हूं. मैंने कहा कि आप छपरा तक जाएंगे. वहां ट्रेन रात को ढाई बजे पहुंचती है. उसके बाद अगर कोई वहां से चढ़ा आपकी सीट पर तो मुझे फिर से बिस्तर समेट कर अपनी सीट पर लौटना होगा.
बाद में बगल के किसी यात्री से उन्होंने सीट बदली जरूर, लेकिन बीच वाली बर्थ ही पत्नी को मिल सकी. ट्रेन के एक अन्य सहयात्री कोई गुप्ता थे, जो सपरिवार गंगटोक स्थित अपनी ससुराल से लौट रहे थे. उनका मऊ में साड़ियों का बड़ा कारोबार है और वहां के सबसे बड़े होटल विजया के मालिक भी हैं. मैंने उनसे कहा कि अगर मैं पूरी योजना बना कर सफऱ करता हूं तो मेरी योजनाबद्धता का फायदा दूसरों को क्यों मिलना चाहिए. मैंने पहले से रिजर्वेशन कराया ही इसलिए था कि सफर में दिक्कत नहीं हो. इसके अलावा वह सज्जन झूठ बोल रहे थे. उनका कहना था कि इमरजेंसी में जा रहे हैं. लेकिन उन्होंने पंद्रह दिन पहले टिकट लिया था और किसी शादी में जा रहे थे. मैंने कहा कि आपका जाना तय था तो आप पहले से नीचे की बर्थ का आरक्षण करा सकते थे. या फिर छपरा तक किसी और ट्रेन से जा सकते थे. रात के खाने में उनकी पत्नी ने जितनी पूरियां और मिठाई खाईं, लगभग उतनी ही दवाएं भी निगलीं. उन्होंने जितनी दवाएं खाईं, हम जैसों का पेट तो उसी से भर जाता.
खैर, दूसरे दिन सफऱ पूरा हुआ. आमतौर पर घंटों देर से चलने के लिए बदनाम पूर्वांचल एक्सप्रेस ने तय समय से महज 45 मिनट की देरी से मुझे सलेमपुर उतार दिया. वहां से फिर तीन-चार सवारियां बदलते हुए मैं पहुंचा अपने गांव पुरैना. बिहार और उत्तरप्रदेश की सीमा पर गंडक के किनारे बसा आखिरी गांव. इलाके में अब सवारियां बढ़ी हैं और सड़कें भी बनी हैं. इसलिए ट्रेन से उतरने के बाद दो-ढाई घंटे के भीतर ही गांव पहुंच गया. वरना मुझे याद है कि बचपन में एटी मेल यानी अवध-तिरहुत मेल से सुबह सिवान उतरने के बाद गांव पहुंचने में शाम हो जाती थी. और आखिरी तीन किलोमीटर तक का सफर तो हमेशा पैदल ही तय करना पड़ता था. गांव पहुंचने पर चाची या काकी थाली में पानी रख कर पांव धोती थी और सारी थकान पल भर में उड़न-छू. अब तो बहुत कुछ बदल गया है.

इस बदलाव के बारे में चर्चा अगली कड़ी में.....