Sunday, July 26, 2009

बदल गया है नक्सलबाड़ी का चेहरा


नक्सलबाड़ी याद है आपको? देश को नक्सल शब्द इसी कस्बे की देन है. लेकिन किसी जमाने में सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजाकर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने वाले नक्सलबाड़ी का चेहरा अब पूरी तरह बदल गया है. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में सिलीगुड़ी की सीमा से कोई 26 किलोमीटर दूर नेपाल की सीमा से सटा यह कस्बा अपने नक्सली अतीत और आधुनिकता के मौजूदा दौर के बीच पिस रहा है. साठ के दशक के आखिरी दौर में किसानों को उनके अधिकार दिलाने के लिए यहां से जिस नक्सल आंदोलन की शुरूआत हुई थी अब यहां ढूंढ़ने से भी उसके निशान नहीं मिलते. जिस नक्सलबाड़ी की गलियों में आंदोलन के दिनों में क्रांति के गीत गूंजते थे, वहां अब गली-गली में रीमिक्स गीतों का कानफाड़ू शोर गूंजता है. नक्सल आंदोलन के भग्नावशेष के तौर पर पुरानी दीवारों पर लिखे कुछ नारे और नक्सल नेता चारू मजुमदार, जिनको इलाके में सी.एम. के नाम से जाना जाता है, की एकाध मूर्ति ही नजर आती है. इलाके की युवा पीढ़ी अब नक्सली आदर्शों को भुला कर तस्करी के धंधे में जुटी है. नेपाल से लगी सीमा ने युवकों को इस स्वरोजगार में काफी सहायता दी है.

बीते 40-42 वर्षों के दौरान आए इस बदलाव से नक्सल नेता कानू सान्याल कुछ हताश जरूर हैं लेकिन अभी उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी है. 80 से ऊपर की अपनी उम्र और तमाम बीमारियों के बावजूद वे इलाके के लोगों में अलख जगाने में जुटे हैं. उनके आदर्शों में आप भले विश्वास नहीं करें, लेकिन कुछ देर उनसे बातचीत के बावजूद के बाद आपको इस बात का यकीन हो जाएगा कि अपने आदर्शों के प्रति सान्याल में जितनी लगन और निष्ठा है, वह आजकल के राजनेताओं में दुर्लभ है. सान्याल के कट्टर विरोधी भी इस बात को कबूल करते हैं. वर्ष 1967-68 में नक्सल आंदोलन को कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं कि नक्सलबाड़ी में अब नक्सल आंदोलन का कोई निशान नहीं बचा है. नक्सली अनगिनत गुटों में बंट गए हैं. चारू मजुमदार की गिरफ्तारी के बाद नक्सल आंदोलन बिखर गया. जो आंदोलन पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बन सकता था वह इतिहास के पन्नों में महज एक हिंसक आंदोलन के तौर पर दर्ज हो कर रह गया.
नक्सल आंदोलन के जनक नक्सलबाड़ी में आधुनिकता की झलक अब साफ नजर आती है. अब यहां कोई क्रांति की बात तक नहीं करना चाहता. भारत से नेपाल को अलग करने वाली मेची नदी पर बने पुल के इस पार विदेशी सामानों की दुकान चलाने वाले रतन प्रामाणिक कहते हैं कि इलाके की युवा पीढ़ी के लिए अब विदेशी फैशन, हालीवुड और बालीवुड की फिल्में ही बहस के प्रमुख मुद्दे बन गए हैं. नक्सल आंदोलन तो यहां एक ऐसी किताब बन गया है जिसके पन्ने कोई नहीं पलटना चाहता. वे कहते हैं कि रोजगार का कोई वैकल्पिक साधन नहीं होने के कारण युवकों ने तस्करी के आसान पेशे को अपना लिया है. इसमें खतरा व मेहनत कम है और कमाई ज्यादा. नेपाल से सीमा पार कर तस्करी के जरिए विदेशी सामान लाकर बेचने वाला हीरेन सिंह उनकी तस्दीक करते हुए कहता है कि यहां रोजगार तो कुछ है नहीं. आखिर पेट भरने के लिए कुछ तो करना ही होगा. नक्सलबाड़ी व इसके आसपास बसे गांवों ने ही दुनिया के शब्दकोष को नक्सलवाद नामक शब्द दिया था. लेकिन उस आंदोलन के चार दशक बाद भी इलाके की हालत नहीं सुधरी है. लोगों के रहन-सहन का स्तर पहले जैसा ही है. ज्यादातर गांवों में न तो बिजली पहुंची है और न ही सड़क.
आखिर उस आंदोलन का ऐसा हश्र क्यों हुआ? आंदोलन के दिनों में चारू मजुमदार के बाद दूसरे सबसे बड़े नेता रहे कानू सान्याल इस सवाल पर गहरी सांस छोड़ते हुए कहते हैं कि यहां किसानों का आंदोलन सही मायने में जनसंघर्ष था. लेकिन आगे चलकर यह आंदोलन अपने मूल मकसद से भटक कर आतंकवाद की राह पर चल पड़ा. यही आंदोलन की नाकामी की वजह बन गई. वैसे, इस नक्सल आंदोलन को विफल बनाने में सरकारी दमन व खून-खराबे ने भी अहम भूमिका निभाई थी. अब सान्याल मानते हैं कि मजुमदार की रणनीति गलत थी. वे कहते हैं कि अगर नक्सल आंदोलन कामयाब हो गया होता तो सिर्फ इसी इलाके नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति की दशा-दिशा बदल गई होती.
नक्सलबाड़ी में नक्सल आंदोलन के निशान भले नजर नहीं आएं ,जिन लोगों ने इस आंदोलन के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया उनके दिलो-दिमाग पर इसकी छाप साफ नजर आती है. प्रसादजोत गांव के राजन सिंह, पवन सिंह और अनिल सूत्रधार ऐसे ही लोगों में शामिल हैं. इसी प्रसादजोत गांव में पुलिस फायरिंग में सात महिलाओं व दो बच्चों की मौत के बाद नक्सल आंदोलन की आग तेजी से फैली थी. इन मरने वालों में पवन की मां भी शामिल थी. राजन, पवन व अनिल अब भी क्रांति की बात करते हैं. यह ल¨ग सीपीआई (एम-एल) के महादेव मुखर्जी गुट के हैं. यह गुट कानू सान्याल की रणनीति को गलत करा देते हुए कहता है कि वे सच्चे वामपंथी नहीं हैं.
महादेव मुखर्जी का गुट हो या फिर सान्याल की अगुवाई वाला सीपीआई (एम-एल), सब भटकाव के शिकार हैं. महादेव गुट अब चारू मजुमदार के जन्मदिन और उनकी बरसी पर मजुमदार की प्रतिमा पर फूल चढ़ा कर और सिलीगुड़ी व नक्सलबाड़ी में बंद आयोजित कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है. सिलीगुड़ी में मजुमदार का मकान भी जर्जर हालत में है. अब उसे देख कर किसी अनजान व्यक्ति को इस बात का अहसास तक नहीं होगा कि नक्सल आंदोलन के दौर में इसी मकान में रात के अंधेरे में तमाम योजनाएं बनती थीं. यह बूढ़ा मकान ऐसी न जाने कितनी ही गोपनीय बैठकों का गवाह रहा है.
दूसरी ओर, सान्याल भी एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. वे कभी चाय बागान मजदूरों के हक में आंदोलन की आवाज उठाते हैं तो कभी खेती की जमीन पर उद्योगों की स्थापना के खिलाफ. नक्सल आंदोलन की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि जिन माकपाइयों ने इसकी शुरूआत की थी उन्होंने ही इसकी जड़ें काटने में भी अहम भूमिका निभाई. चारू मजुमदार व कानू सान्याल उस समय माकपा में ही थे. इस आंदोलन को कुचलने का श्रेय भी उन्हीं ज्योति बसु को जाता है जिनके नाम सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने का रिकार्ड है. बसु तब राज्य की साझा मोर्चा सरकार में गृह मंत्री थे. गृह मंत्री बनने के बाद जिस प्रसादजोत में पहली बार आने पर बसु का जबरदस्त स्वागत हुआ था, साल भर के भीतर ही उन्हीं बसु के निर्देश पर वहां पुलिस का कहर बरपने लगा. प्रसादजोत में पुलिस फायरिंग से उत्तेजित किसानों ने इलाके के कई जोतदारों (इलाके की ज्यादातर जमीन के मालिक) की हत्या कर दी. उसके बाद माकपा के निर्देश पर ही पुलिसिया दमन शुरू हो गया. पार्टी ने आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले तमाम नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया. इन नेताओं ने ही भाकपा (माले) का गठन किया. ज्योति बसु ने पांच जुलाई 1967 को नक्सलियों के खिलाफ सबसे बड़े पुलिसिया अभियान आपरेशन क्रासबो को हरी झंडी दिखा दी. तमाम नेता भूमिगत हो गए. कई नक्सलियों को मार दिया गया. अगले साल अक्तूबर में सान्याल को गिरफ्तार किया गया. मजुमदार भी पकड़े गए. वर्ष 1972 में मजुमदार की संदिग्ध परिस्थितियों में पुलिस हिरासत में मौत हो गई.

इलाके के 85 वर्षीय जितेन राय के दिमाग में अब भी नक्सल आंदोलन की घटनाएं सिनेमा की रील की तरह साफ है. वे कहते हैं कि उस आंदोलन को आम लोगों का भारी समर्थन हासिल था. इसकी वजह यह थी कि आंदोलन की शुरूआत इलाके के किसानों को शोषणमुक्त करने के लिए हुई थी. लेकिन बाद में इस आंदोलन के हिंसक होने पर लोगों का इससे मोहभंग होने लगा. अब सान्याल भी यह बात कबूल करते हैं. वे कहते हैं कि हिंसा व हत्याओं के जरिए शोषण को खत्म नहीं किया जा सकता. आंदोलन के जरिए पूरे सामाजिक ढांचे को सुधारना जरूरी था. लेकिन जमींदारों की हत्याओं ने नक्सलियों पर हत्यारा का लेबल लगा दिया. इसी वजह से मजुमदार व सान्याल में मतभेद बढ़ने लगे.
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों व हताशा के बावजूद सान्याल ने अभी हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा है. भूमिहीनों के हक में वे अब भी नक्सलबाड़ी से कोलकाता तक की दौड़ लगाते रहते हैं.वे कहते हैं कि जब तक शरीर में जान है भूमिहीनों के लिए संघर्ष जारी रखूंगा. सान्याल, मजुमदार व उन जैसे नेताओं की हिम्मत व जूझारूपन और शोषितों के लिए कुछ करने के इस जज्बे ने ही इस अनाम से कस्बे को रातों-रात दुनिया भर में सुर्खियों में ला दिया था. आंदोलन अपने मकसद में भले कामयाब नहीं हो सका. लेकि इन नेताओं ने नक्सलबाड़ी को किसान मुक्ति आंदोलन का पर्याय तो बना ही दिया. नक्सलबाड़ी का जिक्र किए बिना ऐसे किसी भी आंदोलन की चर्चा अधूरी ही रहेगी.

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