Friday, November 6, 2009
इंतजार लेख का, खबर निधन की....
छह नवंबर की यह सुबह भी आम दिनों की तरह ही थी. लेकिन कल रात भारत-आस्ट्रेलिया का मैच देखने और सचिन के 17 हजार रन पूरे होने के बाद मैं सोच रहा था कि कल प्रभाष जोशी सचिन पर जरूर कोई जबरदस्त पीस लिखेंगे. कल जरूर पढ़ना है. यही सोचते हुए मैं सो गया. लेकिन तड़के ही एक मित्र ने फोन पर यह सूचना दी तो मुझे सहसा ही भरोसा नहीं हुआ. सोचा शायद नींद में कुछ गलत सुन लिया है. दोबारा पूछा और वही जवाब मिला तो भरोसा हो गया. कई पुरानी मुलाकातें आंखों के सामने सजीव हो उठीं. मैं कोई 19 साल पीछे लौट गया.
वह अक्तूबर, 1991 की कोई तारीख थी. तब मैं गुवाहाटी से प्रकाशित हिंदी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी में काम करता था. उन दिनों कोलकाता (तब कलकत्ता) से जनसत्ता निकालने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं. खुद मेरे अखबार के अलावा सेंटिनल के दर्जनों लोगों ने वहां अप्लाई किया था और लिखित परीक्षा दे आए थे. मेरी भी इच्छा तो थी लेकिन मैंने आवेदन नहीं भेजा था. उसी दौरान एक दिन राय साब (राम बहादुर राय) गुवाहाटी पहुंचे. उन्होंने मुझे सर्किट हाउस में आ कर मिलने का संदेश दिया. वह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी. मिलने पर उन्होंने पहला सवाल किया कि आपने आवेदन क्यों नहीं भेजा. दरअसल, इस सवाल की वजह थी. पूर्वांचल प्रहरी में रहते हुए मैंने मई,91 में पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों पर जनसत्ता (दिल्ली) के लिए काफी लिखा था. शायद राय साब को मेरी रिपोर्टिंग पसंद आई थी. मैंने कहा कि कोई खास वजह नहीं है. बस यूं ही.
राय साब मुझे गुवाहाटी में रखना चाहते थे. लेकिन मैंने कहा कि अगर सिलीगुड़ी में रहने का मौका मिले तो मुझे खुशी होगी. उन्होंने बाकी बाातें की और फिर कहा कि आप दो-तीन पेज में लिख कर दीजिए कि जनसत्ता को सिलीगुड़ी में एक कार्यालय संवाददाता क्यों रखना चाहिए. मैंने वहीं बैठे-बैठे लिख कर दे दिया. अगर कोई अखबार कलकत्ता से निकालना था तो वह सिलीगुड़ी की अनदेखी नहीं कर सकता था. सिलीगुड़ी कलकत्ता के बाद बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर तो है ही, उत्तर बंगाल की अघोषित राजधानी भी है. नेपाल, सिक्किम, भूटान, नेपाल और बांग्लादेश की सीमा से लगे इस शहर का रणनीतिक महत्व भी है. सिलीगुड़ी का गलियारा ही पूर्वोत्तर राज्यों को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ता है. खैर, राय साब वह पत्र ले कर दिल्ली लौट गए. मैं भी रोजमर्रा के कामकाज में वह बात भूल गया. लेकिन एक हफ्ते बाद जब दफ्तर पहुंचा तो पता चला कि इंडियन एक्प्रेस के गुवाहाटी दफ्तर से फोन आया था मेरे लिए. तब एसएमएस बोरदोलोई वहां मैनेजर थे, जो बाद में मेरे करीबी मित्र बन गए. मैंने फोन किया तो पता चला कि दिल्ली से टेलीप्रिंटर पर संदेश आया है कि प्रभाष जी 22 अक्तूबर को कलकत्ता में मिलना चाहते हैं.
उस समय मैं गुवाहाटी में अकेला था. दुर्गापूजा होने की वजह से पत्नी सिलीगुड़ी गई थी. मैं अगले दिन सिलीगुड़ी पहुंचा और वहां एक दिन रुक कर किसी को कुछ बताए बिना अगले दिन कोलकाता. सुबह तैयार हो कर कलकत्ता के चौरंगी स्थित इंडियन एक्सप्रेस के कार्यालय में बैठ कर हम लोग प्रभाष जी का इंतजार करने लगे. मेरे साथ अमरनाथ भी थे जो गुवाहाटी में जनसत्ता से जुड़े. एक घंटे इंतजार करने के बाद खबर मिली की प्रभाष जी की तबियत कुछ ठीक नहीं है. इसलिए हमें होटल में ही बुलाया है. हम वहीं बगल में होटल ओबराय ग्रैंड स्थित उनके कमरे तक पहुंचे. तब तक मन में काफी झिझक थी. इतने बड़े संपादक-पत्रकार से पहली मुलाकात जो थी. लेकिन उनसे मिल कर सारी झिझक एक पल में दूर हो गई. उन्होंने कहा कि आपका पत्र पढ़ने के बाद ही हमने आपको सिलीगुड़ी में रखने का फैसला किया है. उससे पहले सिलीगुड़ी के लिए एक अंशकालीन संवाददाता रखा जा चुका था. उन्होंने कामकाज के बारे में कोई सवाल नहीं पूछा. फिर वहीं होटल के पैड पर ही आफर लेटर लिख कर थमा दिया. मैं अगले दिन सिलीगुड़ी लौट आया.
उसके बाद जनसत्ता के स्थापना दिवस पर होने वाले समारोहों में उनसे मुलाकात होती थी. बाद में वह सिलसिला खत्म हो गया. इसबीच, जून 1997 में मेरा तबादला गुवाहाटी हो गया. कोई साल भऱ बाद प्रधानमंत्री का दौरा कवर करने के लिए मैं शिलांग गया था. वहां से घर फोन करने पर पता चला कि प्रभाष जी ने फोन किया था और मुझसे बात कराने को कहा है. उन्होंने अपना नंबर छोड़ रखा था. मैंने शिलांग से फोन किया तो प्रभाष जी ने कहा कि अरे भाई, जीएल (जीएल अग्रवाल, पूर्वांचल प्रहरी के मालिक व संपादक) से कहो कि आ जाएं. वे किसी सम्मेलन में जीएल को बुलाना चाहते थे. मैंने जीएल अग्रवाल को भी बता दिया. बाद में शायद वे गए नहीं. उसके बाद लंबे अरसे तक प्रभाष जी से कोई मुलाकात नहीं हुई. कोलकाता तबादला होने पर एक बार भाषा परिषद में मुलाकात हुई थी. मैं क्रिकेट पर लिखे उनके लेखों का मुरीद रहा शुरू से ही. शायद इसकी वजह यह रही हो कि मैं भी क्लब स्तर से क्रिकेट खेलता रहा हूं. बाद में जनसत्ता के लिए भी मैंने कई एकदिनी मैचों और आईपीएल के पहले सीजन की रिपोर्टिंग की है. मैं अपने अखबार में खेल संवाददाता नहीं हूं. लेकिन गुवाहाटी और अब कोलकाता में क्रिकेट की रिपोर्टिंग का कोई मौका नहीं चूकता. सचिन के 17 हजार रन पूरे होने के मौके पर मैं आज सुबह के अखबार में उनका लेख पढ़ने का इंतजार कर रहा था. लेकिन उसकी जगह मिली उनके जाने की दुखद सूचना.
प्रभाष जी मेरी आखिरी मुलाकात बीते साल नवंबर में बनारस में हुई. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की ओर से पराड़कर जयंती पर बनारस में एक आयोजन था. कुलपति अच्युतानंद मिश्र जी ने कहा था कि मौका मिले तो आ जाइए. मैं वहां पहुंच गया. समारोह स्थल पर कुछ देर में प्रभाष जी नामवर सिंह के साथ पहुंचे. मैंने नमस्ते की तो कंधे पर हाथ रख कर कहा कि कैसे हो पंडित? तुम्हारा लिखा तो पढ़ता रहता हूं. समारोह के बाद वे उसी दिन दिल्ली लौट गए.
Saturday, October 24, 2009
महज एक ट्रेन नहीं, संस्कृति भी है मेट्रो
देश की पहली मेट्रो रेल शनिवार यानी 24 अक्तूबर को अपने सफर के 25 साल पूरे कर लिए हैं. वर्ष 1984 में इसी दिन पहली मेट्रो ट्रेन ने कोलकाता में धर्मतल्ला से भवानीपुर तक की दूरी तय की थी. अपनी चौथाई सदी के सफर में इस भूमिगत सेवा ने महानगर के लोगों की रहन-सहन में बदलाव तो किया ही है, इसकी संस्कृति भी काफी हद तक बदल दी है. मेट्रो की शुरूआत के बाद महानगर में जो नई संस्कृति विकसित होने लगी थी, वह अब युवास्था में पहुंच गई है. अब हाल में मेट्रो के विस्तार के बाद इसके पांच स्टेशन जमीन से ऊपर बने हैं. पहले सिर्फ दमदम और टालीगंज (अब महानायक उत्तम कुमार) ही जमीन पर थे और बाकी जमीन के भीतर.
देश में अपने किस्म की इस पहली परियोजना का शिलान्यास तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 29 दिसंबर, 1972 को किया था. इसका निर्माण कार्य 1972 में शुरू हुआ था. लेकिन महानगर के उत्तरी सिरे को दक्षिण से जोड़ने वाली इस परियोजना में जमीन अधिग्रहण जैसी बाधाओं की वजह से इस पर पहली ट्रेन 24 अक्तूबर,1984 को चली. उसके बाद इसे टालीगंज तक बढ़ाया गया. धन की कमी से से भी इसका काम प्रभावित हुआ. बाद में कोई छह बरसों तक विभिन्न वजहों से परियोजना लगभग ठप रही. आखिर में दमदम से टालीगंज तक 16.45 किमी की दूरी के बीच मेट्रो का सफर 1995 में शुरू हुआ. उस समय जमीन के लगभग सौ फीट नीचे सुरंग बना कर उसमें ट्रेन चलाना इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी चुनौती माना गया था. अब इसी साल 22 अगस्त को टालीगंज के बाद पांच नए स्टेशन इसमें जुड़े हैं.
अपने तय समय और लागत के मुकाबले देरी और कई गुना खर्च से पूरी होने वाली इस परियोजना ने महानगर के लोगों के लिए परिवहन का मतलब ही बदल दिया. पहले बसों के अलावा ट्रामें ही कोलकाता में परिवहन का सुलभ साधन थीं. लेकिन सड़कों पर जाम की वजह से इस सफऱ में काफी वक्त लगता था. मेट्रो ने लोगों का वक्त बचाया. जो दूरी बसों के जरिए दो घंटे में पूरी होती थी, वह अब महज आधे घंटे में हो जाती है. इस भूमिगत ट्रेन ने लोगों की आदतें भी बदल डाली. पहले बसों और ट्रामों में सफऱ के दौरान लोगों को बीड़ी-सिगरेट पीने और जहां-तहां पान की पीक फेंकने की आदत थी. लेकिन मेट्रो में शुरू से ही इन चीजों पर पाबंदी लग थी. इस ट्रेन ने यात्रियों को काफी हद तक प्रदूषण से निजात दिला दी.
बीते 15 बरसों से मेट्रो में सफर करने वाले सरकारी कर्मचारी विमल कांति दास कहते हैं कि ‘मेट्रो ने हमारी उम्र में कई साल जोड़ दिए. पहले दफ्तर आने-जाने में ही कई घंटे लग जाते थे. अब यह कीमत समय बच जाता है.’ इसके अलावा प्रदूषण से मुक्ति भी मिल गई है. मेट्रो में सफऱ करने वाली एक महिला श्यामली कहती हैं कि ‘मेट्रो ने लोगों की आदतें बदल दी हैं. मेट्रो शुरू होने के बाद ही लोगों को समय की कीमत समझ में आई. पहले दफ्तर आने-जाने में समय तो ज्यादा लगता ही था, थकान भी बहुत होती थी. अब इन ट्रेनों में भीड़ के बावजूद लोग कुछ मिनटों के भीतर ही अपने मुकाम तक पहुंच जाते हैं.’ वे कहती हैं कि ‘मेट्रो का सफर तो टैक्सी के मुकाबले भी आरामदेह है. उससे बेहद सस्ता तो है ही.’
मेट्रो के पहले सफऱ के समय इसके चीफ इंजीनियर रहे अशोक सेनगुप्ता पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि ‘यह परियोजना उस समय इंजीनियरिंग की सबसे बड़ी और कठन चुनौती थी.’ वे बताते हैं कि ‘इस परियोजना की डिजाइन से लेकर इसमें इस्तेमाल तमाम उपकरण भारत में ही बने थे. इसके निर्माण के दौरान कई अप्रत्याशित चुनौतियों से जूझना पड़ा. लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी. धर्मतल्ला यानी एस्पलानेड से भवानीपुर (अब नेताजी भवन) के बीच जब पहली मेट्रो ट्रेन चली तो हमें लगा कि सारी मेहनत सफल हो गई.’ सेनगुप्ता भी कहते हैं कि मेट्रो ने लोगों की आदतों में बदलाव आया है. सरे राह थूकने वाले लोग मेट्रो में थूकने से परहेज करते हैं.
यानी एक चौथाई सदी के अपने सफर में इस रेल ने सिर्फ लोगों का समय ही नहीं बचाया, बल्कि उनकी कई बुरी आदतें भी बदल दी हैं. और अब तो इस मेट्रो को देखते, इसमें सफर करते और इसकी संस्कृति में पली एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है.
Saturday, October 17, 2009
उनकी ज़िंदगी से जुड़े हैं पटाखे
दीवाली को खुशियों का त्योहार माना जाता है. लेकिन पश्चिम बंगाल में राजधानी कोलकाता से सटे नुंगी गांव में यह सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि रोजीरोटी का जरिया भी है. यानी उनके लिए यह दोहरी खुशी का मौका है. पहली तो यह कि दीवाली उनके लिए भी खुशियों का त्योहार है और दूसरी यह कि दीवाली उनके लिए पूरे साल की मेहनत का नतीजा लेकर आती है. दरअसल, इस गांव में घर-घर में खासकर महिलाओं के हाथों बनने वाले पटाखों से ही पूरे साल घर का खर्च निकलता है. दक्षिण 24-परगना जिले में स्थानीय लोगों के बीच यह गांव पटाखा गांव के तौर पर मशहूर है.गांव की सीमा के पास पहुंचते हुए हवा में बारूद की गंध आने लगती है. गांव की हर उम्र की महिलाएं दीवाली के बहुत पहले से पटाखे बनाना शुरू कर देती हैं. यहां बनने वाले पटाखों की बंगाल के अलावा पड़ोसी झारखंड और बिहार समेत देश के दूसरे शहरों में भारी मांग है. गांव का हर लगभग परिवार इस काम से जुड़ा है. यह कहना सही होगा कि पटाखा निर्माण यहां कुटीर उद्योग बन गया है. सुजाता दास कहती है कि ‘गांव में लगभग तीन हजार महिलाएं पटाखा बनाती हैं. हमारे पटाखों की पूरे देश में अच्छी मांग है. हम यहां तरह-तरह के पटाखे बनाते हैं.’ सुजाता बचपन से ही यह काम कर रही है.पटाखा बनाने के काम में जुड़ी बर्नाली कहती है कि ‘पटाखे हमारी रोजी-रोटी का जरिया हैं. हम पूरे साल दीवाली का इंतजार करते हैं और इसके लिए तरह-तरह के पटाखे बनाते हैं. वह बताती है कि हर साल पटाखों की डिजाइन बदल दी जाती है. लोग हर बार कुछ नया चाहते हैं.’ इसी गांव की सादिया कहती है कि ‘यह पटाखों का गांव है. हमारी पूरी जिंदगी ही पटाखों से जुड़ी है.’
गांव में पटाखों के धंधे से जुड़े बासुदेव दास कहते हैं कि ‘यहां बनी चकरी और रॉकेट की दूसरे शहरों में काफी मांग है.’ वे बताते हैं कि गांव की बुजुर्ग महिलाएं पटाखे बनाने की कला युवतियों को सिखाती हैं.कुछ साल पहले राज्य में तेज आवाज वाले पटाखों पर पाबंदी लगने के बाद इस गांव को कुछ नुकसान उठाना पड़ा था. लेकिन अब इन महिलाओं ने कम आवाज और रंग-बिरंगी रोशनियों वाली फूलझड़ियां बनाना सीख लिया है. गांव के ही देवप्रिय दास कहते हैं कि यहां बनने वाले पटाखों की क्वालिटी बेहतर होने की वजह से ही इनकी काफी मांग है.
Wednesday, October 14, 2009
सात समंदर पार चला बांग्ला सिनेमा
बांग्ला सिनेमा अब सात समंदर पार अमेरिका पहुंच गया है. अमेरिका और यूरोप में अब तक हिंदी और तमिल फिल्मों का ही व्यावसाइक तौर पर प्रदर्शन किया जाता था. अब बांग्ला फिल्में भी इसी राह पर चलने की तैयारी में हैं. दुर्गापूजा के दौरान सनफ्रांस्सिको में नई बांग्ला फिल्म ‘दूजने (दोनों लोग)’ व्यावसाइक तौर पर रिलीज की गई. वहां दो सिनेमाघरों में प्रदर्शन के बाद फिलहाल मियामी और वाशिंगटन जीसी में भी सप्ताहांत के दौरान यह फिल्म सिनेमाघरों में दिखाई जा रही है. इसे मिलने वाली कामयाबी से उत्साहित बांग्ला फिल्मोद्योग यानी टालीवुड ने अगले छह महीनों के दौरान अमेरिका और इंग्लैंड में कम से कम सात और बांग्ला फिल्मों के प्रदर्शन की तैयारी की है.इस पहल की अगुवाई करने वाले कोलकाता स्थित पियाली फिल्म्स के मालिक अरिजीत दत्त कहते हैं कि ‘फिल्म के प्रीमियर के दौरान इसके ज्यादातर कलाकार वहां मौजूद थे. इस काम में अमेरिका के बंगाली एसोसिएशन ने भी काफी सहायता की. हम कम से कम सात और फिल्मों की रिलीज के लिए अमेरिका और इंग्लैंड में वितरकों से बातचीत कर रहे हैं.’
कई सुपरहिट बांग्ला फिल्में बनाने वाले निर्माता प्रभात राय कहते हैं कि ‘विदेशों में बांग्ला फिल्मों का बाजार काफी बड़ा है. अब तक इसकी चर्चा ही होती थी. लेकिन कभी किसी ने कोई पहल नहीं की. अब शुरूआत होने के बाद इसके लिए वितरक भी आगे आएंगे.’ दत्त कहते हैं कि ‘विदेशों में व्यावसाइक प्रदर्शन की वजह से हर फिल्म को 30 से 50 लाख रुपए तक की अतिरिक्त कमाई हो सकती है. इस रकम से बांग्ला फिल्मोद्योग का तेजी से विकास हो सकता है.’
‘दूजने’ के नायक देव कहते हैं कि ‘वैश्विक पहचान बनाने के लिए विदेशों में बांग्ला फिल्मों का प्रदर्शन जरूरी है. अब तक तो एक अभिनेता के तौर पर विदेश में बसे बंगालियों के बीच मेरी कोई पहचान नहीं बनी है.’ जाने-माने अभिनेता प्रसेनजित कहते हैं कि ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के बाद अब बांग्ला सिनेमा के लिए विदेशों में व्यावसाइक कामयाबी हासिल करने का समय आ गया है.’ वे कहते हैं कि बंगाल में बाक्स आफिस पर हिट होकर संतुष्ट होने की बजाय बांग्ला सिनेमा को अब अपनी वैश्विक पहचान बनाने पर ध्यान देना चाहिए. खुद प्रसेनजित भी एक अभिनेता के तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं. वे कहते हैं कि विदेशों में व्यावसाइक प्रदर्शन नहीं शुरू होने तक ऐसा संभव नहीं है.बांग्ला फिल्में अब तक अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों या बंग सम्मेलनों में मुफ्त में ही दिखाई जाती रही हैं. विदेश में रिलीज होने वाली फिल्म के सब-टाइटल अंग्रेजी में हैं ताकि गैर-बंगाली दर्शक भी इसे समझ सकें. हाल में बांग्ला सिनेमा पर अपनी वेबसाइट बनाने वाले प्रसेनजित कहते हैं कि यह वेबसाइट बांग्ला फिल्मों को वैश्विक पहचान दिलाने की दिशा में एक कदम है. वे मानते हैं कि अब बांग्ला फिल्में गुणवत्ता के स्तर पर एशिया और यूरोप की फिल्मों की बराबरी के लिए तैयार हैं.पहली फिल्म की कामयाबी के बाद अनिल अंबानी की बिग पिक्चर्स और महानगर की पियाली फिल्म्स समेत कई कंपनियां अब अपनी फिल्मों को सात समंदर पार दिखाने की तैयारी में जुटी हैं. पियाली फिल्म्स के दत्त कहते हैं कि यह बांग्ला सिनेमा के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है.
अब मॉडलिंग से अपना खर्च उठाएंगे हाथी
पश्चिम बंगाल के विभिन्न वन्यजीव अभयारण्यों में रहने वाले लगभग 86 पालतू हाथी अब मॉडलिंग के जरिए अपना खर्च खुद उठाएंगे. राज्य के वन विभाग ने हाथियों पर होने वाले भारी खर्च का कुछ हिस्सा जुटाने के लिए यह अनूठी योजना बनाई है. इसके तहत विभिन्न कंपनियां बैनर के तौर पर अपने विज्ञापन तैयार कर वन विभाग को सौंपेगा. उन बैनरों को हाथियों पर पीठ पर बांधा जाएगा. इससे होने वाली आय हाथियों को पालने पर खर्च होगी. इन हाथियों पर सरकार हर साल 80 लाख रुपए से भी ज्यादा की रकम खर्च करती है.वन मंत्री अनंत राय कहते हैं कि ‘हाथियों को पालना अब बेहद खर्चीला साबित हो रहा है. पालतू हाथियों की तादाद बढ़ने की वजह से अब खर्च पूरा नहीं हो रहा है. इसलिए सरकार ने हाथियों को मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करने का फैसला किया है.’ कम से कम एक दर्जन कंपनियों ने सरकार को हाल ही में यह प्रस्ताव दिया है कि अपने विज्ञापनों के बदले वे संबंधित हाथियों का पूरे साल का खर्च उठाने को तैयार हैं.उत्तर बंगाल में वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी मनींद्रचंद्र विश्वास कहते हैं कि ‘बूढ़े हाथियों को सरकार की ओर से आजीवन भत्ता दिया जाता है. उनके महावतों को भी एक निश्चित रकम दी जाती है. इस पर काफी रकम खर्च होती है. विज्ञापन से आय होने की स्थिति में पैसों की समस्या दूर हो जाएगी.’ उत्तर बंगाल स्थित विभिन्न राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में वन विभाग के पास 86 प्रशिक्षित हाथी हैं. इनमें से सबसे ज्यादा 52 हाथी जलदापाड़ा वन्यजीव अभयारण्य में हैं. इनका इस्तेमाल पर्यटकों को जंगल में घूमाने के लिए किया जाता है. वन मंत्री कहते हैं कि ‘जल्दी ही मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ बैठक में मॉडल के तौर पर हाथियों के इस्तेमाल को हरी झंडी दिखा दी जाएगी. इसके लिए केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की अनुमति भी जरूरी है.’ वे बताते हैं कि हाथियों की पीठ पर किसी व्यावसाइक घराने के बैनर बांध दिए जाएंगे ताकि पर्यटकों की नजर उस पर पड़े. इसके बदले संबंधित घराना उस हाथी का पूरे साल का खर्च उठाएगा. राय बताते हैं कि एक हाथी पर सालाना औसतन एक लाख रुपए का खर्च आता है. हाथियों की पीठ पर बैठकर घूमने के लिए पर्यटकों से 25 से 50 रुपए की जो रकम वसूल की जाती है वह नाकाफी है. इसकी एक वजह यह है कि किसी भी राष्ट्रीय पार्क में छह महीने ही पर्यटक आते हैं. बाकी समय बरसात और प्रजनन का सीजन होने की वजह से पार्क बंद रहता है. लेकिन मॉडलिंग के एवज में हाथियों को पूरे साल का खर्च मिल जाएगा.
Tuesday, October 6, 2009
टूटे सपनों के साथ बेपहिया ज़िंदगी
प्रभाकर मणि तिवारी
‘एक छोटी कार के आने की सूचना ने हमारी ज़िंदगी में पंख लगा दिए थे। हम सबकी आंखों ने न जाने कितने ही सुनहरे सपने देखे थे। लेकिन बीते एक साल से तो हम अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल भी नहीं रह गए हैं। बस, यूं समझ लीजिए कि हम टूटे सपनों के साथ अपनी बेपहिया जिंदगी को घसीट रहे हैं……।’ सिंगुर के विकास पाखिरा यह कहते हुए कहीं अतीत में खो जाते हैं। टाटा मोटर्स की नैनो कार परियोजना के लिए जमीन के अधिग्रहण और संयंत्र का काम शुरू होते ही इलाके के लोगों की जिंदगी में मानो पंख लग गए थे। राजधानी कोलकाता से सटा हुगली जिले का यह अनाम-सा कस्बा रातों-रात महानगरीय रंग में रंगने लगा था। लोगों को जमीन की कीमत के एवज में लाखों रुपए मिले थे। इलाके में बैंकों की नई शाखाओं के अलावा कारों और ब्रांडेड कपड़ों के शोरूम तक खुलने लगे थे। लेकिन बीते साल ठीक दुर्गापूजा से पहले ही रतन टाटा ने नैनो परियोजना को सिंगुर से हटा कर गुजरात में लगाने का एलान कर दिया। उनके इस एलान से सपनों के पंख लगा कर उड़ते स्थानीय लोग एक झटके में जमीन पर आ गए थे। नैनो के जाने के एक साल बीतने के बावजूद लोग अब तक छोटी कार के बड़े सदमे से उबर नहीं सके हैं। यही वजह है कि इस साल भी दुर्गापूजा में सिंगुर में खामोशी पसरी रही।
नैनो संयंत्र परिसर अब इलाके की गाय-भैंसों का चारागह बन चुका है। खाली जमीन पर घास के जंगल पनप गए हैं। परियोजना के सहारे इलाके में होने वाले विकास के काम भी रातोंरात ठप हो गए हैं। संदीप दे भी उन्हीं लोगों में हैं जो इस संयंत्र में काम कर हर महीने दस हजार रुपए तक कमा लेते थे। लेकिन वे बेरोजगार हो गए। अब वे अपनी गाय चराते हैं। संदीप कहते हैं कि इस छोटी कार ने इलाके के तमाम लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। हम तो सिंगुर के आगे चल कर टाटानगर या पुणे की तर्ज पर विकसित होने की उम्मीद बांध रहे थे। लेकिन एक झटके में ही तमाम सपने मिट्टी में मिल गए।
संदीप और उनके दोस्त विकास पाखिरा साल भर बाद भी यह नहीं समझ सके हैं कि आखिर चूक कहां हुई? विकास कहते हैं कि आंदोलन तो होते ही रहते हैं। लेकिन इस पर समझौता भी तो हो सकता था। उनलोगों को इस बात का अफसोस है कि राज्य सरकार ने टाटा को रोकने का ठोस प्रयास नहीं किया। परियोजना के लिए बालू की सप्लाई करने वाले प्रदीप दे कहते हैं कि एक झटके में सब कुछ खत्म हो गया। साल भर बाद भी सिंगुर उस छोटी कार के जाने के बड़े सदम से नहीं उबर सका है।
इलाके के लोगों को हल्की उम्मीद थी कि टाटा ने सिंगुर की जमीन नहीं लौटाई तो शायद देर-सबेर यहां कोई परियोजना लगे। लेकिन बीते महीने कोलकाता आए रतन टाटा ने साफ कर दिया कि सिंगुर के लिए फिलहाल उनके पास कोई योजना नहीं है। उन्होंने कहा था कि सरकार अगर यहां निवेश की गई रकम का मुआवजा दे दे तो वे जमीन लौटाने को तैयार हैं। दूसरी ओर, रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, जिनकी अगुवाई में इलाके में अधिग्रहण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ था, ने सिंगुर की जमीन मिलने पर वहां रेल कारखाना लगाने का भरोसा दिया है। लेकिन फिलहाल कुछ भी तय नहीं है।
टाटा के कामकाज समेटने के बाद परियोजना से जुड़े कुछ स्थानीय युवकों ने नौकरी के लिए दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में हाथ-पांव मारे थे। लेकिन मंदी के इस दौर में नौकरी भला कहां मिलती। कुछ दिनों बाद वे सब सिंगुर लौट आए। अब सिंगुर की उस खाली पड़ी जमीन और संयंत्र के ढांचे को निहारते ही उनके दिन बीतते हैं। मन में इस उम्मीद के साथ कि कभी न तो कभी तो फिर भारी-भरकम मशीनों के शोर से परियोजनास्थल पर बिखरी खामोशी टूटेगी। सुनील कहते हैं कि हमारी तो जिंदगी ही खामोश हो गई है। जनसत्ता
अभी जारी है सुर का सफर
वे भले अपनी उम्र के नौवें दशक में हों, उनके सुरों का सफर अभी भी जस का तस है. आवाज में वही जादू और अपनी धुन के पक्के. जी हां, इस शख्स का नाम है प्रबोध चंद्र दे. लेकिन उनके इस नाम की जानकरी कम लोगों को ही है. ऐ भाई जरा देख के चलो और बरसात के न तो कारवां की तलाश है--. और ऐसे ही हजारों हिट गीत देने वाले प्रबोध को पूरी दुनिया मन्ना दे के नाम से जानती है. कोई 65 साल पहले 1943 में सुरैया के साथ तमन्ना फिल्म से अपनी गायकी का आगाज करने वाले मन्ना दे ने उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने हिंदी के अलावा बांग्ला और मराठी गीत भी गाए हैं. और वह भी बड़ी तादाद में. अब बढ़ती उम्र की वजह से सक्रियता तो पहले जैसी नहीं रही, लेकिन आवाज का जादू जस का तस है. संगीत की दुनिया में वे सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते रहे. रास्ते में सम्मान भी खुद-ब-खुद मिलते रहे. वर्ष 2005 में उनको पद्मभूषण से नवाजा गया. बीते साल पश्चिम बंगाल सरकार ने भी संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उनको सम्मानित किया था. अब उनको दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया है.
दिलचस्प बात यह है कि कोलकाता में अपने कालेज के दिनों में मन्ना दे कुश्ती और फुटबाल के दीवाने थे. उसके बाद वे लंबे समय तक इस दुनिधा में रहे कि बैरिस्टर बनें या गायक. आखिर में अपने चाचा और गुरू कृष्ण चंद्र दे से प्रभावित होकर उन्होंने गायन के क्षेत्र में कदम रखा. मन्ना दे का बचपन किसी आम शरारती बच्चे की तरह ही बीता. दुकानदार की नजरें बचा कर मिठाई और पड़ोसी की नजरें बचा कर उसकी बालकनी से अचार चुराना उनकी शरारतों में शुमार था. अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई जाने पर उन्होंने पहले उनके और फिर सचिन देव बर्मन के साथ सहायक के तौर पर काम किया. मन्ना कहते हैं कि 'वे मुफलिसी और संघर्ष के दिन थे. शुरआत में बालीवुड में पांव टिकाने भर की जगह बनाने के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा.' वे बताते हैं कि '1943 में सुरैया के साथ तमन्ना फिल्म में गाने का मौका मिला. लेकिन उसके बाद भी काम नहीं मिला. बाद में धीरे-धीरे काम मिलने लगा.'
मन्ना हिंदी फिल्मों में संगीत के स्तर में आई गिरावट से बेहद दुखी हैं. वे कहते हैं कि'मौजूदा दौरा का गीत-संगीत अपनी भारतीयता खे चुका है. इसके लिए संगीत निर्देशक ही जिम्मेवार हैं.' मन्ना दे अपने जीवन में धुन के पक्के रहे हैं. किसी को जुबान दे दी तो किसी भी कीमत पर अपना वादा निभाते थे. लेकिन एक बार अगर किसी को ना कह दिया तो फिर उनको मनाना काफी मुश्किल होता था.
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए मन्ना दे कहते हैं कि 'मेरे माता-पिता चाहते थे मैं पढ़-लिख कर बैरिस्टर बनूं. उन दिनों इसे काफी सम्मानजनक कैरियर माना जाता था .' वे बताते हैं कि 'मैं आज जिस मुकाम पर हूं, उसमें मेरे चाचा कृष्ण चंद्र दे की अहम भूमिका रही है. वह चूंकि अपने समय के एक माने हुए संगीतकार थे इसलिए हमारे घर संगीत जगत के बड़े-बड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था. कम उम्र में ही चाचा की आंखों की रोशनी चली जाने की वजह अक्सर मैं उनके साथ ही रहता था.' वे बताते हैं कि'संगीत की पहली तालीम मुझे अपने चाचा से ही मिली. खयाल के अलावा मैंने रवींद्र संगीत भी सीखा। उन दिनों चाचा के साथ मैं भी न्यू थिएटर आया जाया करता था. इसी वजह से वहां उस दौर के जाने-माने गायकों को नजदीक से देखने-सुनने का मौका मिला। लेकिन तब तक संगीत को कैरियर बनाने का ख्याल भी मन में नहीं आय़ा था.'
अपने चाचा के साथ मुंबई जाना मन्ना दे के जीवन में एक निर्णायक मोड़ बन गया. मुंबई पहुंचने के कुछ दिनों बाद संगीतकार एच.पी. दास ने अपने साथ सहायक के रूप में रख लिया. कुछ दिनों बाद कृष्ण चंद्र दे को फिल्म 'तमन्ना' में संगीत निर्देशन का मौका मिला. फिल्म में एक गीत था 'जागो आई उषा'. यह गीत एक भिखमंगे और एक छोटी लड़की पर फिल्माया जाना था। भिखमंगे वाले हिस्से को गाने के लिए मन्ना को चुना गया. छोटी लड़की के लिए गाया सुरैया ने. वैसे, मन्ना दे की पहली फिल्म थी रामराज्यजिसके संगीतकार विजय भट्ट थे. उसके बाद लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला तो उनके मन में कई बार कोलकाता लौट जाने का ख्याल आया. नाउम्मीदी और मुफलिसी के उसी दौर में 'मशाल' फिल्म में गाया उनका गीत 'ऊपर गगन विशाल' हिट हो गया और फिर धीरे-धीरे काम मिलने लगा.
मौजूदा दौर की गलाकाटू होड़ की तुलना उस दौर से करते हुए मन्ना याद करते हैं कि'फिल्मी दुनिया में उस समय भी काफी प्रतिद्वंद्विता थी, लेकिन वह आजकल की तरह गलाकाटू नहीं थी. उस समय टांगखिंचाई के बदले स्वस्थ प्रतिद्वंद्विंता होती थी. हम लोग दूसरे गायकों के बढ़िया गीत सुन कर खुल कर उसकी सराहना भी करते थे और उससे सीखने का प्रयास भी.' वे बताते हैं कि 'काम तो सबसे साथ और सबके लिए किया लेकिनबलराज साहनी और राज कपूर के लिए गाने की बात ही कुछ और थी. पृथ्वी राज कपूर से पहले से पहचान होने की वजह से राजकपूर से मुलाकात आसानी से हो गई. उसके बाद राज कपूर के जीने तक मेरे उनसे बहुत अच्छे संबंध रहे.'
संगीत ने ही मन्ना दे को अपने जीवनसाथी सुलोचना कुमारन से मिलवाया था. दोनों बेटियां सुरोमा और सुमिता गायन के क्षेत्र में नहीं आईं. एक बेटी अमेरिका में बसी है. पांच दशकों तक मुंबई में रहने के बाद मन्ना दे ने बंगलूर को अपना घर बनाया. लेकिन कोलकाता आना-जाना लगा रहता है. आप अब फिल्मों में ज्यादा क्यों नहीं गाते ? इस सवाल पर वे कहते हैं कि 'अब बहुत कुछ बदल गया है. न तो पहले जैसा माहौल रहा और न ही गायक और कद्रदान. लेकिन संगीत ने मुझे जीवन में बहुत कुछ दिया है. इसलिए मैं अपने अंतिम सांस तक इसी में डूबा रहना चाहता हूं.'
जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडिय अजय चक्रवर्ती कहते हैं कि 'मन्ना दा (बांग्ला में बड़े भाई के लिए संबोधन) अपने जीते-जी एक किंवदंती बन चुके हैं. अपने कालजयी गीतों से उन्होंने लाखों संगीतप्रेमियों के दिलों में अलग जगह बना ली है.'
Thursday, September 10, 2009
नष्ट हो रही है एक ‘अमानुष’ की धरोहर
दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा, बर्बादी की तरफ ऐसा मोड़ा,एक भले मानुष को अमानुष बना कर छोड़ा........’ कोई 35 साल पहले बनी हिंदी फिल्म ‘अमानुष’ का यह गाना भला कौन भूल सकता है! बांग्ला फिल्मों के महानायक उत्तम कुमार की 83वीं जयंती के मौके पर केंद्र सरकार ने भले उनके सम्मान में डाक टिकट जारी करने का फैसला किया हो, उनकी ज्यादातर फिल्मों के प्रिंट अब बेहद खराब हो चुके हैं. हाल ही में रेल मंत्री ममता बनर्जी ने टालीगंज मेट्रो रेल स्टेशन का नाम भी बदल कर महानायक उत्तम कुमार कर दिया. टालीगंज में ही बांग्ला फिल्म उद्योग बसता है. उत्तम कुमार का ज्यादातर समय भी इसी इलाके में स्थित स्टूडियो में अभिनय करते बीता था. बांग्ला फिल्मों के इस महानायक को सम्मान तो बहुत मिला और अब भी मिल रहा है. लेकिन किसी ने उनकी धरोहर के रखरखाव में दिलचस्पी नहीं ली. यही वजह है कि उन्होंने जिन 226 फिल्मों में अभिनय किया था उनमें से सौ से भी कम फिल्मों के निगेटिव ही सुरक्षित बचे हैं. उनकी ज्यादातर फिल्मों के प्रिंट इस हालत में हैं कि उनको 35 मिमी के परदे पर दिखाना संभव नहीं है. कई फिल्मों के तो प्रिंट भी नहीं मिल रहे हैं. अब ज्यादातर सिनेमाघरों में श्वेत-श्याम फिल्में नहीं दिखाई जातीं. यही वजह है कि किसी ने इनके संरक्षण और रखरखाव में दिलचस्पी नहीं दिखाई है.उत्तम कुमार ने 1968 में शिल्पी संसद नामक एक संगठन बनाया था. इसके सचिव साधन बागची बताते हैं कि ‘दुर्भाग्य से उत्तम कुमार की कई बेहतरीन फिल्मों के न तो प्रिंट उपलब्ध हैं और न ही उनके निगेटिव.’ वे कहते हैं कि ‘एक नया प्रिंट डेवलप करने पर कम से एक लाख रुपए की लागत आती है. इसलए कोई भी निर्माता या वितरक यह रकम खर्च करने के लिए तैयार नहीं है.’ उत्तम कुमार की जिन फिल्मों के प्रिंट खो गए हैं उनमें ‘शिल्पी,’ ‘अग्नि परीक्षा,’ ‘पथे होलो देरी’ और ‘नवराग’ शामिल हैं. उत्तम कुमार की ‘ओगो वधू सुंदरी’ के भी प्रिंट का कोई पता नहीं है. यह उनकी रिलीज होने वाली अंतिम फिल्म थी.शिल्पी संसद लंबे अरसे से उत्तम कुमार की फिल्मों का एक आर्काइव बनाने का प्रयास कर रहा है. लेकिन किसी ने भी इस काम में सहायता का हाथ नहीं बढ़ाया है. बागची कहते हैं कि ‘आर्काइव तो दूर की बात है. कोई इस महानायक की फिल्मों के संरक्षण में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा है.’ वे कहते हैं कि राज्य सरकार से भी इस मामले में कोई सहायता नहीं मिली है. हमने बीते साल ही उसे उन फिल्मों की सूची सौंपी थी जिनके प्रिंट नष्ट हो रहे हैं. लेकिन सरकार की ओर से अब तक कोई जवाब नहीं आया है.
उत्तम कुमार की लगभग पांच दर्जन फिल्में सीडी और डीवीडी पर उपलब्ध हैं. लेकिन उनकी क्वालिटी बेहद खराब है. ‘अमानुष’ और ‘आनंद आश्रम’ समेत उनकी सभी तेरह हिंदी फिल्मों के प्रिंट सुरक्षित हैं.उत्तम कुमार का जन्म कोलकाता के अहिरीटोला इलाके में हुआ था. बचपन में उनका नाम अरुण कुमार चटर्जी था. लेकिन नानी प्यार से उनको उत्तम कहती थीं. इसलिए बाद में उनका नाम उत्तम कुमार हो गया. उन्होंने कुछ दिनों तक थिएटर में भी काम किया. बाद में वे फिल्मों की ओर मुड़े और बांग्ला फिल्म ‘दृष्टिदान’ (1948) से अपना सफर शुरू किया. लेकिन अगले चार-पांच साल तक उनकी फिल्में लगातार फ्लॉप होती रहीं. फ्लॉप हीरो का ठप्पा लगने की वजह से तब वे फिल्मों से तौबा करने का मन बनाने लगे. लेकिन 1952 में बनी बसु परिवार फिल्म के हिट होते ही उनकी गाड़ी चल निकली. उसके अगले साल सुचित्रा सेन के साथ आई ‘साढ़े चौहत्तर’ फिल्म ने उनको करियर को एक नई दिशा दी. उसके बाद उत्तम कुमार ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाद में उन्होंने ‘अमानुष,’ ‘किताब,’ ‘आनंद आश्रम’ और ‘दूरियां’ समेत कई हिंदी फिल्मों में भी काम किया. वर्ष 1980 में एक फिल्म के सेट पर ही दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया.
Monday, September 7, 2009
तो मत करें प्यार का सार्वजनिक इजहार!
अगर त्योहारों के इस सीजन में आप पहाड़ियों की रानी दार्जिलिंग की सैर की योजना बना रहे हैं तो यह खबर आपके लिए है. अगर आप नवविवाहित हैं और हनीमून के लिए दार्जिलिंग की हसीन वादियों में जा रहे हैं तब तो आपको और सावधानी बरतनी चाहिए. अब इन वादियों में आप पत्नी के साथ ही सही, अपने प्यार का सार्वजनिक तौर पर इजहार नहीं कर सकते. हां, इसमें पत्नी का हाथ पकड़ कर सड़कों पर घूमना भी शामिल है. वजह--इलाके में अलग राज्य के लिए लंबे अरसे से आंदोलन करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने अपने ताजा फरमान में इस पर पाबंदी लगा दी है. मोर्चा ने इससे पहले बीते साल इसी सीजन में इलाके के लोगों के लिए ड्रेस कोड लागू कर दिया था. तब उसने कहा था कि पूरे एक महीने इलाके के लोग पारंपरिक गोरखा ड्रेस में ही नजर आएंगे.उस समय भी मोर्चा के फरमान की काफी आलोचना हुई थी और अब भी हो रही है. गोरखा मोर्चा की युवा शाखा के प्रमुख रमेश कहते हैं कि ‘हमने समाज के भले के लिए ही यह फैसला किया है.’ वे कहते हैं कि ‘हमारे कार्यकर्ता पूरे इलाके में इस फरमान को कड़ाई से लागू कराएंगे.’ इसका असर भी नजर आने लगा है. इसी सप्ताह दार्जिलिंग के मशहूर मॉल चौरास्ता पर इन उत्साही कार्यकर्ताओं ने एक जोड़े को सार्वजनिक स्थल पर प्यार के इजहार के लिए सजा दी और माफी मांगने के बाद ही उसे छोड़ा. उस जोड़े का कसूर यह था कि पति-पत्नी एक-दूसरे का हाथ पकड़े वादियों का हसीन नजारा देख रहे थे.मोर्चा के नेता भले अपने ताजा फरमान को सही ठहराएं, आम लोग और होटल मालिक इसकी आलोचना में जुटे हैं. लेकिन मोर्चा के दबदबे को देखते हुए अब तक किसी ने खुल कर इसका विरोध नहीं किया है. मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने इस फऱमान को कड़ाई से लागू करने के फेर में कई जोड़ों के साथ बदतमीजियां की हैं. उनके खिलाफ थाने में शिकायतें भी दर्ज कराई गई हैं. लेकिन अब तक दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है. बंगाल में दुर्गापूजा की छुट्टियां शुरू होते ही इन पहाड़ियों में पर्यटकों की आवाजाही बढ़ जाती है. अक्तूबर के तीसरे सप्ताह से शुरू होने वाला यह पर्यटन सीजन नववर्ष तक जारी रहता है. इस दौरान तमाम होटल पहले से बुक हो जाते हैं. इलाके की अर्थव्यवस्था भी पर्यटन पर ही आधारित है.लेकिन अबकी होटल मालिक इस फरमान से डरे हुए हैं. एक होटल मालिक नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि इससे लोग यहां आने से डरेंगे. वे सवाल करते हैं कि ‘अब अगर पति-पत्नी का एक-दूसरे का हाथ पकड़ना अपराध है तो यहां लोग भला घूमने क्यों आएंगे?’ होटल मालिकों का कहना है कि इस फरमान से इलाके की बदनामी तो होगी ही, पर्यटकों की आवक पर भी इसका असर पड़ेगा. महाराष्ट्र से हनीमुन के लिए दार्जिलिंग आए एक इंजीनियर अजय भारद्वाज इससे परेशान हैं. वे कहते हैं कि ‘यहां आने के बाद इसका पता चला. इतनी पाबंदी में कौन होटल से बाहर निकलेगा.’ दस दिनों के लिए दार्जिलिंग आए अजय दो दिनों बाद ही सिक्किम चले गए.बीते तीन दिनों में इस मामले में मोर्चा कार्यकर्ताओं के खिलाफ दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और कर्सियांग थानों में छह शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं. दार्जिलिंग के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अखिलेश चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘हम इन शिकायतों की जांच कर रहे हैं. जांच के बाद दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी.’ लेकिन पर्यटन उद्योग से जुड़े लोगों को पुलिस और प्रशासन की कार्यवाही पर भरोसा कम ही है.लोग कहते हैं कि बीते साल मोर्चा की ओर से लागू ड्रेस कोड का सबको मजबूरन पालन करना पड़ा था. इस बार भी उसके समर्थक ताजा फरमान को जबरन लागू कर रहे हैं. ऐसे में इस सीजन में यहां आने वाले जोड़ों को एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है.
बुद्धदेव के एक सपने पर पानी फिरा
जमीन अधिग्रहण पर लगातार उभरने वाले विवादों के चलते पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की ड्रीम परियोजनाओं पर धीरे-धीरे पानी फिरने लगा है। सरकार ने सोमवार को कोलकाता से सटे राजरहाट में सूचना तकनीक (आईटी) हब बनाने की महात्वाकांक्षी परियोजना रद्द कर दी है। सौलह सौ एकड़ में बनने वाली इस परियोजना का शुमार बुद्धदेव की सबसे पसंदीदा परियोजनाओं में होता था। लेकिन अब उसी पर पानी फिर गया है।
सरकार ने साथ ही सूचना तकनीक क्षेत्र की दो बड़ी कंपनियों- इंफोसिस और विप्रो को भी सूचित कर दिया है कि उनको इस परियोजना के लिए कोई जमीन नहीं दी जाएगी। बीते साल बंगाल सरकार ने इंफोसिस और विप्रो के साथ अलग-अलग सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उसके तहत दोनों कंपनियों को इस हब में 90-90 एकड़ जमीन दी जानी थी।
प्रस्तावित सूचना तकनीक उपनगरी एक लग्जरी रिसोर्ट वैदिक विलेज के पास बनने वाली थी। लेकिन 23 अगस्त को हुए विरोधा प्रदर्शन और आगजनी के बाद भू माफिया और रिसोर्ट प्रबंधन में सांठगांठ के आरोप उठने लगे थे। उसके बाद से ही आवासन, भू-राजस्व, सार्वजनिक निर्माण वित्राग और शहरी विकास मंत्रालय उक्त परियोजना को रद्द करने की बात कर रहे थे।
सिंगुर और नंदीग्राम में हुए विरोध के बाद अब इस हब में वैदिक विलेज के भूमिका को लेकर काफी सवाल उठ रहे थें। भू-राजस्व मंत्री अब्दुर रज्जाक मोल्ला ने तो सीधे इस परियोजना को रद्द करने की मांग की थी।
यह हालत तब है जब कोई महीने भर पहले ही राज्य के सूचना तकनीक मंत्री देवेश दास ने कहा था कि सरकार ने विप्रो और इंफोसिस के लिए प्रस्तावित टाउनशिप में जमीन का अधिग्रहण किया है। यहां जानकारों का कहना है कि परियोजना रद्द होने के बाद संभावित निवेश और इससे पैदा होने वाली तीन लाख नौकरियों की वजह से राज्य को लगभग दस हजार करोड़ रुपए के निवेश का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी इसकी पुष्टि करते हुए बताते हैं कि इस परियोजना के रद्द होने से बंगाल दस हजार करोड़ के निवेश और तीन लाख नौकरियों से वंचित रह सकता है। अधिकारी ने कहा कि अगर इंफोसिस और विप्रो टाउनशिप में अपनी परियोजनाएं लगाने में कामयाब रहतीं तो उसके बाद आईसीआईसीआई बैंक और आईटीसी इंफोटेक के भी यहां पहुंचने की संभावना थी।
सोलह हजार एकड़ के टाउनशिप में आईटी और आईटी सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनियों को छह सौ एकड़ जमीन मुहैया कराई जानी थी। इंफोसिस और विप्रो दोनों ने ऐलान किया था कि वैदिक विलेज टाउनशिप में शुरू में दोनों कंपनियां पांच हजार लोगों को रोजगार मुहैया कराएंगी। हालांकि सूत्रों का कहना है कि दोनों कंपनियों ने सरकार को बताया था कि आगे चल कर उनके जरिये इस टाउनशिप में कम से कम 40 हजार रोजगार पैदा होंगे। लेकिन अब इस सपने पर पानी फिर गया है।
पार्टी में अकेले पड़ गए हैं बुद्धदेव!
प्रभाकर मणि तिवारी
कभी माकपा के शीर्ष नेतृत्व से अपने हर फैसले पर मुहर लगवा लेने वाले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अब अपनी ही पार्टी में अकेले पड़ गए हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भट्टाचार्य की अगुवाई में राज्य में औद्योगिकीकरण की जबरदस्त आंधी चली थी। लेकिन सिंगुर व नंदीग्राम की घटनाओं और उनके चलते पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव और विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी की दुर्गति के बाद मुख्यमंत्री ने खुद को काफी समेट लिया है। बीते महीने तबियत खराब होने के बहान वे कोई पंद्रह दिनों तक राइटर्स बिल्डिंग स्थित अपने दफ्तर नहीं गए। अब वे दफ्तर तो जाने लगे हैं। लेकिन पहले के मुकाबले उनके काम के समय में दो से तीन घंटों तक की कटौती हो गई है। बीमारी की आड़ में ही वे दो-दो बार माकपा की पोलितब्यूरो बैठक में शिरकत करने दिल्ली नहीं गए।
मुख्यमंत्री की लगातार लंबी खिंचती इस बीमारी से साफ हो गया है कि पार्टी में अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं है। लोकसभा चुनावों के बाद भी माकपा के नेता एक के बाद एक विवादों में फंसते जा रहे हैं। ताजा मामला वैदिक विलेज का है। इसमें माकपा के दो दिग्गज मंत्रियों ने ही जिस तरह एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा किया, उससे बुद्धदेव परेशान हैं। बीते कुछ महीनों से पार्टी बुद्धदेव पर लगातार हावी हो रही है। सरकार के रोजमर्रा के कामकाज में पार्टी के लगातार बढ़ते हस्तक्षेप से खिन्न बुद्धदेव ने बीच में अपने इस्तीफे की भी पेशकश की थी। उनका कहना था कि पार्टी को अब मुख्यमंत्री के तौर पर किसी नए चेहरे की जरूरत है जो पार्टी और सरकार में बेहतर तालमेल बिठाते हुए 2011 में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पूरी तैयारी कर सके।
यहां माकपा के सूत्रों का कहना है कि बुद्धदेव की नाराजगी की कई वजहें हैं। वे लंबे अरसे से सरकार के कुछ दागी मंत्रियों को हटा कर उनकी जगह नए चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल करने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन पार्टी के दबाव में वे ऐसा नहीं कर सके। माकपा ने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के खिलाफ जिस तरह मोर्चा खोला था वह भी बुद्धदेव के गले नहीं उतरा। यह इसी से साफ है कि जब माकपा और वाममोर्चा के तमाम नेता राज्यपाल के खिलाफ जहर उगल रहे थे, मुख्यमंत्री ने इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की।
जानकार सूत्रों का कहना है कि 2001 के चुनाव राज्य में वाममोर्चा के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। इसकी तैयारी के लिए सरकार के नेतृत्व परिवर्तन की सलाह के साथ बुद्धदेव ने हाल ही में माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु के साथ पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के साल्टलेक स्थित आवास पर उनसे मुलाकात कर इस मामले पर विचार-विमर्श किया था। लेकिन बसु ने यह कहते हुए उनको इस्तीफा नहीं देने की सलाह दी थी कि इससे राज्य के लोगों में एक गलत संदेश जाएगा। पहले एक दिन में उद्योगपतियों और व्यापारिक संगठनों के साथ तीन-तीन बैठकों में शिरकत करने वाले मुख्यमंत्री अब ऐसे सम्मेलनों में नहीं नजर आते। बीते दिनों वे अमेरिकन चैंबर औफ कामर्स की एक बैठक में भी शिरकत करने नहीं गए। यही नहीं, हाल में जब टाटा समूह के मुखिया रतन टाटा कोलकाता आए तो मुख्यमंत्री ने उसे भी मुलाकात नहीं की। टाटा ने मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री से मुलाकात के लिए समय मांगा था। लेकिन समय दिया सिर्फ उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने।
मुख्यमंत्री के करीबी सूत्रों का कहना है कि राज्य में लोकसभा चुनावों में दुर्गति के लिए जिस तरह अकेले उनको और उनके औद्योगिकीकरण अभियान को जिम्मेवार ठहराया गया, उससे बुद्धदेव काफी आहत हैं। लेकिन अब वे सरकार से उस तरह एक झटके में नाता नहीं तोड़ सकते, जिस तरह उन्होंने ज्योति बसु के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान तोड़ा था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पार्टी और बुद्धदेव के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन उसके सामने भी फिलहाल मुख्यमंत्री पद लायक ऐसा कोई नेता नहीं है जो बुद्धदेव के आसपास भी हो। ऐसे में बुद्धदेव को बनाए रखना उसकी मजबूरी है। माकपा के सूत्र बताते हैं कि पार्टी में बुद्धदेव के साथ एक उपमुख्यमंत्री बनाने पर गहन विचार-विमर्श चल रहा है। इस पद के लिए उद्योग मंत्री निरुपम सेन का नाम भी चर्चा में है। सूत्रों की मानें तो उपमुख्यमंत्री का पद महज दिखावे के लिए नहीं होगा, उसके पास काफी अधिकार होंगे। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सिंगुर, नंदीग्राम, लालगढ़, मंगलकोट और जमीन अधिग्रहण से जुड़े तमाम मुद्दों व चुनावों में हुई दुर्गति के बाद फिलहाल पुनर्गठन के दौर से गुजर रही है। यह अलग बात है कि इस वजह से पार्टी में महीनों से भीतर ही भीतर कायम असहमतियां सतह पर आने लगी हैं। जनसत्ता
Friday, September 4, 2009
बादलों का घर है मेघालय
देश के पूर्वोत्तर में गारो, खासी और जयंतिया पहाड़ियों पर बसा मेघालय प्राकृतिक सौंदर्य का एक बेहद खूबसूरत नमूना है। इस राज्य में गारो, खासी और जयंतिया जनजाति के लोग ही रहते हैं। स्थानीय भाषा में मेघालय का मतलब है बादलों का घर। यह छोटा-सा पर्वतीय राज्य अपने नाम को पूरी तरह साकार करता है। यहां घूमते हुए कब बादलों का एक टुकड़ा आपको छूकर निकल जाता है, इसका पता तक नहीं चलता। उसके गुजर जाने के बाद भीगेपन से ही इस बात का अहसास होता है। मेघालय की राजधानी शिलांग समुद्रतल से 1496 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसको पूरब का स्काटलैंड कहा जाता है। इस राज्य का गठन 2 अप्रैल, 1970 को एक स्वायत्तशासी राज्य के रूप में किया गया। एक पूर्ण राज्य के रूप में मेघालय 21 जनवरी, 1972 को अस्तित्व में आया। मेघालय उत्तरी और पूर्वी दिशाओं में असम से घिरा है तथा इसके दक्षिण और पश्चिम में बांग्लादेश है।
राजधानी शिलांग में एलीफेंटा फॉल, शिलांग व्यू पॉइंट, लेडी हैदरी पार्क, वार्ड्स लेक, गोल्फ कोर्स, संग्रहालय व कैथोलिक चर्च जैसे कई दर्शनीय स्थल हैं। शिलांग से कोई 56 किमी दूर चेरापूंजी अपनी बारिश के लिए मशहूर है। इसका नाम अब बदल कर सोहरा कर दिया गया है। यह खासी पहाड़ी के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक छोटा-सा कस्बा है। वायु सेना की पूर्वी कमान का मुख्यालय भी शिलांग में ही है।
एलीफैंटा फाल्स शहर से 12 किमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां पर एक झरना दो पहाड़ियों के बीच से बहता है। हाथी के पांव की शक्ल का होने की वजह से ही इसे एलीफैंटा फाल्स कहा जाता है। डाकी कस्बे में हर साल नौका दौड़ की प्रतियोगिता होती है। यह उमगोट नदी पर आयोजित किया जाता है। पश्चिमी गारो पर्वतीय जिले में स्थित नोकरेक नेशनल पार्क रिजर्व तूरा से लगभग 45 किलो मीटर की दूरी पर है। यह दुनिया के सबसे दुर्लभ लाल पांडा का घर माना जाता है।
इस राज्य में जनजातियों के त्योहारों की कोई कमी नहीं है। पांच दिनों तक मनाया जाने वाला ‘का पांबलांग-नोंगक्रेम’ खासियों का एक प्रमुख धार्मिक त्योहार है। यह नोंगक्रेम नृत्य के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह हर साल शिलांग से लगभग 11 कि.मी. दूर स्मित नाम के गांव में मनाया जाता है। शाद सुक मिनसीम भी खासियों का एक अन्य महत्वपूर्ण उत्सव है। यह हर साल अप्रैल के दूसरे सप्ताह में शिलांग में मनाया जाता है। जयंतिया आदिवासियों के सबसे महत्वपूर्ण तथा खुशनुमा त्योहार का नाम है बेहदीनखलम। यह आमतौर पर जुलाई के महीने में जयंतिया पहाडियों के जोवई कस्बे में मनाया जाता है। गारो आदिवासी अपने देवता सलजोंग (सूर्य देवता) से सम्मान में अक्तूबर-नवंबर में वांगला त्योहार मनाते हैं। यह भी एक हफ्ते तक चलता है।
शिलांग जाने के लिए पर्यटकों को सबसे पहले असम की राजधानी गुवाहाटी जाना होता है। वहां से सड़क मार्ग के जरिए तीन घंटे में शिलांग पहुंचा जा सकता है। गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही शिलांग के लिए बसें व टैक्सियां मिल जाती हैं। शिलांग में रहने के लिए हर तरह के होटल हैं।
Tuesday, September 1, 2009
मैसूर में राजशाही के निशान
कर्नाटक की राजधानी बंगलूर से कोई 140 किमी दूर स्थित इस ऐतिहासिक व पौराणिक शहर में हर कदम पर राजशाही के निशान बिखरे हैं। शहर के हर कोने में या तो वाडियार राजाओं का बनवाया कोई महल है या फिर कोई मंदिर। पौराणिक मान्यता के मुताबिक, शहर से ऊपर चामुंडी पहाड़ी पर रहने वाली चामुंडेश्वरी ने इसी जगह पर महिषासुर को मारा था। पहले इस शहर का नाम महीसूर था जो बाद में धीरे-धीरे मैसूर बन गया। महाभारत के अलावा सम्राट अशोक से भी इस शहर का गहरा रिश्ता रहा है। वाडियार राजाओं के शासनकाल में फले-फूले इस मंथर गति वाले शहर का मिजाज अब भी राजसी है। मंथर इसलिए कि शहर में आम जनजीवन काफी सुस्त है। वाहनों की रफ्तार पर भी अंकुश है। शहर की चौड़ी सड़कों पर 40 किमी प्रति घंटे से ज्यादा गति से कोई वाहन चलाने पर पाबंदी है।
शहर की गति भले सुस्त हो, लेकिन अगर लोगों व प्रशासन का उत्साह देखना हो तो यहां दशहरे में आना चाहिए। यहां का दशहरा दुनिया भर में मशहूर है। उस दौरान देश-विदेश से बारी तादाद में सैलानी यहां जुटते हैं। आम तौर पर इस शांत व सुस्त शहर को उन दिनों लगभग दो महीने पहले से ही पंख लग जाते हैं। इसके दौरान शहर मानों फिर से राजशाही के दौर में लौट जाता है। इसके लिए पूरे शहर में साफ-सफाई का काम महीनों पहले शुरू हो जाता है। मैसूर राजमहल व शहर के दूसरे महलों को भी दुल्हन की तरह सजाया जाता है। बंगलूर से शहर में घुसते ही एक विशाल स्टेडियम नजर आता है। स्थानीय निवासी मुदप्पा बताते हैं कि इस स्टेडियम में दशहरा उत्सव के दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। साल के बाकी दिनों में इस स्टोडियम का इस्तेमाल सामूहिक विवाह जैसे सामुदायिक कार्यों के लिए होता है। वे कहते हैं कि मैसूर का सौंदर्य देखना हो तो दशहरे के दौरान यहां आना चाहिए।
शहर की अर्थव्यवस्था के दो मजबूत स्तंभ हैं। पहला सिल्क उद्योग व दूसरा पर्यटन । साथ ही चंदन की लकड़ियों से बनी वस्तुएं भी बहुतायत में मिलती हैं। दशहरा उत्सव के दौरान शहर के तमाम होटल महीनों पहले से ही बुक हो जाते हैं। दशहरा उत्सव के लिए नागरहोल नेशनल पार्क से हाथियों दस्ता भी शहर में आता है। इस उत्सव की शुरूआत चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा के साथ होती है। इस दौरान मैसूर राजमहल पूरे दस दिन बिजली की रोशनी में चमकता रहता है।
वर्ष 1799 में टीपू सुल्तान की मौत के बाद यह शहर तत्कालीन मैसूर राज की राजधानी बना था। उसके बाद यह लगातार फलता-फूलता रहा। विशाल इलाके में फैले इस शहर की चौड़ी सड़कें वाडियार राजाओं की यादें ताजा करती हैं। शहर की हर प्रमुख सड़क इन राजाओं के नाम पर ही है। राजाओं के बनवाए महलों में से कुछ अब होटल में बदल गए हैं तो एक में आर्ट गैलरी बन गई है। मैसूर राजमहल से सटे एक भवन में राजा के वंशज एक संग्रहालय भी चलाते हैं।
शहर के आसपास भी देखने लायक जगहों की कोई कमी नहीं है। कावेरी बांध के किनारे बसा विश्वप्रसिद्ध वृंदावन गार्डेन, चामुंडी हिल्स, ललित महल, चिड़ियाखाना, जगमोहन महल, टीपू सुल्तान का महल व मकबरा--यह सूची काफी लंबी है। मशहूर पर्वतीय पर्यटन स्थल ऊटी भी यहां से महज 150 किमी ही है। यही वजह है कि यहां पूरे साल देशी-विदेशी पर्यटकों की भरमार रहती है।
बंगलूर से निकल कर मैसूर जाने के दौरान हाइवे के किनारे बने एक दक्षिण भारतीय होटल में दोपहर के खाने के दौरान ही दक्षिण भारत की पाक कला की झलक मिलती है। तमाम वेटर पारंपरिक दक्षिण भारतीय ड्रेस में। दक्षिण भारत में लंबा अरसा गुजारने के बाद इडली की विविध आकार-प्रकार इसी होटल में देखने को मिले। मैसूर पहुंच कर होटल में कुछ देर आराम करने के बाद हमारा भी पहला ठिकाना वही था जो यहां आने वाले तमाम सैलानियों का होता है। यानी वृंदावन गार्डेन। होटल के मैनेजर ने सलाह दी कि जल्दी निकल जाइए वरना गेट बंद हो जाएगा। वहां पहुंच कर कार की पार्किंग के लिए माथापच्ची और भीतर घुसने के लिए लंबी कतार। खैर, भीतर जाकर तरह-तरह के रंगीन झरनों के संगीत की धुन पर नाचते देखा। लेकिन सबसे दिलचस्प है झील के पास गार्डेन के दूसरी ओर का नजारा। न जाने कितनी ही हिंदी फिल्मों में हीरो-हीरोइन को ठीक उसी जगह गाते देख चुका था। पुरानी यादें अतीत की धूल झाड़ कर एक पल में सजीव हो उठी।
अगले दिन पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर में जाकर दर्शन और पूजा से दिन की शुरूआत होती है। मंदिर के सामने ही महीषासुर की विशालकाय मूर्ति है। मन में किसी राक्षस के बारे में जैसी कल्पना हो सकती है, उससे भी विशाल और भयावह। मंदिर के करीब से पूरे मैसूर शहर का खूबसूरत नजारा नजर आता है। नीचे उतरते हुए मैसूर रेस कोर्स का फैलाव नजर आता है। हमारा अगला पड़ाव है मैसूर का राजमहल। कैमरा और बैग वगैरह मुख्यद्वार के पास ही टोकन के एवज में जमा करना पड़ता है। अब यह पुरात्तव विभाग के अधीन है। वहां सुरक्षा के लिहाज से पुलिस के जवान तैनात हैं। महल की खूबसूरती और वास्तुकला एपने आप में बेजोड़ है। यह तय करना मुश्किल है कि राजदरबार ज्यादा भव्य है या रनिवास। महल परिसर में ही चंदन की लकड़ी और अगरबत्तियां बिकती हैं। वापसी में बंगलूर से कोलकाता की उड़ान शाम को थी। इसलिए तय हुआ कि रास्ते में श्रीरंगपट्टनम होते हुए निकलेंगे। श्रीरंगपट्टनम यानी टीपू सुल्तान की बसाई नगरी और राजधानी। वहां अब टीपू सुल्तान का मकबरा है। काफी भीड़ जुटती है वहां भी। देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। वहां जगह-जगह पुरानी पेंटिग्स हैं जिनमें टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से लोहा लेते हुए दिखाया गया है। यहां आकर स्कूली किताबों में पढ़े वे तमाम अध्याय बरबस ही याद आने लगते हैं जो जीवन की आपाधापी में मन के किसी कोने में गहरे दब गए थे।
यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। कोलकाता से पहुंचने के बाद बंगलूर एअरपोर्ट से निकलने के बाद पूरे शहर में जहां भारी ट्रैफिक जाम से पाला पड़ा था। तब बंगलूर भी कहीं से कोलकाता जैसा ही लगा था। लेकिन शहर की सीमा से निकल कर मैसूर की ओर बढ़ते ही राज्य सरकार की ओर से बनवाया गया बंगलूर-मैसूर हाइवे देख कर यह धारणा कपूर की तरह उड़ जाती है। चिकनी सड़क पर न कहीं कोई गड्ढा, न कोई गंदगी और न ही ट्रैफिक जाम। एक जगह का जिक्र किए बिना यह कहानी अधूरी ही रह जाएगी। बंगलूर-मैसूर हाइवे पर ही स्थित है रामनगर। ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा रामनगर वही जगह है जहां जी.पी.सिप्पी ने अपनी मशहूर फिल्म शोले का सेट लगा कर उसे रामगढ़ में तब्दील कर दिया था। उन पहाड़ियों को देखते ही शोले का दृश्य आंखों के सामने सजीव हो उठता है। लगता है मानो अभी किसी कोने से आवाज आएगी-तेरा क्या होगा कालिया?
शहर की गति भले सुस्त हो, लेकिन अगर लोगों व प्रशासन का उत्साह देखना हो तो यहां दशहरे में आना चाहिए। यहां का दशहरा दुनिया भर में मशहूर है। उस दौरान देश-विदेश से बारी तादाद में सैलानी यहां जुटते हैं। आम तौर पर इस शांत व सुस्त शहर को उन दिनों लगभग दो महीने पहले से ही पंख लग जाते हैं। इसके दौरान शहर मानों फिर से राजशाही के दौर में लौट जाता है। इसके लिए पूरे शहर में साफ-सफाई का काम महीनों पहले शुरू हो जाता है। मैसूर राजमहल व शहर के दूसरे महलों को भी दुल्हन की तरह सजाया जाता है। बंगलूर से शहर में घुसते ही एक विशाल स्टेडियम नजर आता है। स्थानीय निवासी मुदप्पा बताते हैं कि इस स्टेडियम में दशहरा उत्सव के दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। साल के बाकी दिनों में इस स्टोडियम का इस्तेमाल सामूहिक विवाह जैसे सामुदायिक कार्यों के लिए होता है। वे कहते हैं कि मैसूर का सौंदर्य देखना हो तो दशहरे के दौरान यहां आना चाहिए।
शहर की अर्थव्यवस्था के दो मजबूत स्तंभ हैं। पहला सिल्क उद्योग व दूसरा पर्यटन । साथ ही चंदन की लकड़ियों से बनी वस्तुएं भी बहुतायत में मिलती हैं। दशहरा उत्सव के दौरान शहर के तमाम होटल महीनों पहले से ही बुक हो जाते हैं। दशहरा उत्सव के लिए नागरहोल नेशनल पार्क से हाथियों दस्ता भी शहर में आता है। इस उत्सव की शुरूआत चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा के साथ होती है। इस दौरान मैसूर राजमहल पूरे दस दिन बिजली की रोशनी में चमकता रहता है।
वर्ष 1799 में टीपू सुल्तान की मौत के बाद यह शहर तत्कालीन मैसूर राज की राजधानी बना था। उसके बाद यह लगातार फलता-फूलता रहा। विशाल इलाके में फैले इस शहर की चौड़ी सड़कें वाडियार राजाओं की यादें ताजा करती हैं। शहर की हर प्रमुख सड़क इन राजाओं के नाम पर ही है। राजाओं के बनवाए महलों में से कुछ अब होटल में बदल गए हैं तो एक में आर्ट गैलरी बन गई है। मैसूर राजमहल से सटे एक भवन में राजा के वंशज एक संग्रहालय भी चलाते हैं।
शहर के आसपास भी देखने लायक जगहों की कोई कमी नहीं है। कावेरी बांध के किनारे बसा विश्वप्रसिद्ध वृंदावन गार्डेन, चामुंडी हिल्स, ललित महल, चिड़ियाखाना, जगमोहन महल, टीपू सुल्तान का महल व मकबरा--यह सूची काफी लंबी है। मशहूर पर्वतीय पर्यटन स्थल ऊटी भी यहां से महज 150 किमी ही है। यही वजह है कि यहां पूरे साल देशी-विदेशी पर्यटकों की भरमार रहती है।
बंगलूर से निकल कर मैसूर जाने के दौरान हाइवे के किनारे बने एक दक्षिण भारतीय होटल में दोपहर के खाने के दौरान ही दक्षिण भारत की पाक कला की झलक मिलती है। तमाम वेटर पारंपरिक दक्षिण भारतीय ड्रेस में। दक्षिण भारत में लंबा अरसा गुजारने के बाद इडली की विविध आकार-प्रकार इसी होटल में देखने को मिले। मैसूर पहुंच कर होटल में कुछ देर आराम करने के बाद हमारा भी पहला ठिकाना वही था जो यहां आने वाले तमाम सैलानियों का होता है। यानी वृंदावन गार्डेन। होटल के मैनेजर ने सलाह दी कि जल्दी निकल जाइए वरना गेट बंद हो जाएगा। वहां पहुंच कर कार की पार्किंग के लिए माथापच्ची और भीतर घुसने के लिए लंबी कतार। खैर, भीतर जाकर तरह-तरह के रंगीन झरनों के संगीत की धुन पर नाचते देखा। लेकिन सबसे दिलचस्प है झील के पास गार्डेन के दूसरी ओर का नजारा। न जाने कितनी ही हिंदी फिल्मों में हीरो-हीरोइन को ठीक उसी जगह गाते देख चुका था। पुरानी यादें अतीत की धूल झाड़ कर एक पल में सजीव हो उठी।
अगले दिन पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर में जाकर दर्शन और पूजा से दिन की शुरूआत होती है। मंदिर के सामने ही महीषासुर की विशालकाय मूर्ति है। मन में किसी राक्षस के बारे में जैसी कल्पना हो सकती है, उससे भी विशाल और भयावह। मंदिर के करीब से पूरे मैसूर शहर का खूबसूरत नजारा नजर आता है। नीचे उतरते हुए मैसूर रेस कोर्स का फैलाव नजर आता है। हमारा अगला पड़ाव है मैसूर का राजमहल। कैमरा और बैग वगैरह मुख्यद्वार के पास ही टोकन के एवज में जमा करना पड़ता है। अब यह पुरात्तव विभाग के अधीन है। वहां सुरक्षा के लिहाज से पुलिस के जवान तैनात हैं। महल की खूबसूरती और वास्तुकला एपने आप में बेजोड़ है। यह तय करना मुश्किल है कि राजदरबार ज्यादा भव्य है या रनिवास। महल परिसर में ही चंदन की लकड़ी और अगरबत्तियां बिकती हैं। वापसी में बंगलूर से कोलकाता की उड़ान शाम को थी। इसलिए तय हुआ कि रास्ते में श्रीरंगपट्टनम होते हुए निकलेंगे। श्रीरंगपट्टनम यानी टीपू सुल्तान की बसाई नगरी और राजधानी। वहां अब टीपू सुल्तान का मकबरा है। काफी भीड़ जुटती है वहां भी। देखने के लिए टिकट लेना पड़ता है। वहां जगह-जगह पुरानी पेंटिग्स हैं जिनमें टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से लोहा लेते हुए दिखाया गया है। यहां आकर स्कूली किताबों में पढ़े वे तमाम अध्याय बरबस ही याद आने लगते हैं जो जीवन की आपाधापी में मन के किसी कोने में गहरे दब गए थे।
यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। कोलकाता से पहुंचने के बाद बंगलूर एअरपोर्ट से निकलने के बाद पूरे शहर में जहां भारी ट्रैफिक जाम से पाला पड़ा था। तब बंगलूर भी कहीं से कोलकाता जैसा ही लगा था। लेकिन शहर की सीमा से निकल कर मैसूर की ओर बढ़ते ही राज्य सरकार की ओर से बनवाया गया बंगलूर-मैसूर हाइवे देख कर यह धारणा कपूर की तरह उड़ जाती है। चिकनी सड़क पर न कहीं कोई गड्ढा, न कोई गंदगी और न ही ट्रैफिक जाम। एक जगह का जिक्र किए बिना यह कहानी अधूरी ही रह जाएगी। बंगलूर-मैसूर हाइवे पर ही स्थित है रामनगर। ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा रामनगर वही जगह है जहां जी.पी.सिप्पी ने अपनी मशहूर फिल्म शोले का सेट लगा कर उसे रामगढ़ में तब्दील कर दिया था। उन पहाड़ियों को देखते ही शोले का दृश्य आंखों के सामने सजीव हो उठता है। लगता है मानो अभी किसी कोने से आवाज आएगी-तेरा क्या होगा कालिया?
Sunday, August 30, 2009
बंगाल में मुद्दा बने महापुरुष
नेताजी सुभाष चंद्र बोस, कवि नजरूल, मास्टर सूर्यसेन और उत्तम कुमार। पश्चिम बंगाल में लंबे अरसे से आम लोगों के नायक रहे यह तमाम महापुरुष फिलहाल राज्य में राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बन गए हैं। दरअसल, मेट्रो रेलवे के विस्तार के बाद रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने तमाम स्टेशनों के नाम इन महापुरुषों के नाम पर रखने का जो फैसला किया है उस पर विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी ममता के इस फैसले को एक तमाशा करार देते हुए कहा है कि महापुरुषों के साथ ऐसा मजाक ठीक नहीं है। राज्य सरकार ने फिलहाल इन नामों के पंजीकरण से इंकार कर दिया है।
पहले मेट्रो ट्रेन उत्तर कोलकाता के दमदम से लेकर दक्षिण में टालीगंज तक चलती थी। बीते हफ्ते विस्तार के बाद उसमें चार नए स्टेशन जोड़े गए हैं जिनके नाम क्रमशः नेताजी, मास्टरदा सूर्यसेन, गीतांजलि व कवि नजरूल हैं। इसके अलावा टालीगंज का नाम बदल कर महानायक उत्तम कुमार कर दिया गया है। उद्घाटन समारोह के बाद मेट्रो रेलवे अधिकारियों ने इन नामों के पंजीकरण के लिए मुख्य सचिव अशोक मोहन चक्रवर्ती को एक पत्र लिखा है। लेकिन सरकार इसे मान्यता देने के मूड में नहीं है। परिवहन मंत्री रंजीत कुंडू कहते हैं कि हमने उचित मंच पर इस फैसले का विरोध किया है। हम इनका पंजीकरण नहीं करेंगे। हालांकि यह पंजीकरण महज एक औपचारिकता है। लेकिन इसी मुद्दे पर माकपा और तृणमूल कांग्रेस ने एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें खींच रखी हैं।
मेट्रो रेलवे के विस्तार के मौके पर आयोजित समारोह में मुख्यमंत्री को नहीं बुलाने से नाराज माकपा और राज्य सरकार ने रेल मंत्रालय के खिलाफ कमर कस ली है। वैसे, ममता का दावा है कि उन्होंने मुख्यमंत्री और परिवहन मंत्री को समारोह में बुलाया था। लेकिन उनलोगों ने इसमें आने की बजाय महापुरुषों को मुद्दा बना दिया है। दूसरी ओर, परिवहन मंत्री रंजीत कुंडू कहते हैं कि राज्य सरकार ने इस परियोजना का एक तिहाई खर्च उठाया है। लेकिन मुख्यमंत्री को नहीं बुलाया गया। मुझे भी आखिरी वक्त पर एक सिपाही के हाथों न्योता भेजा गया। इसलिए मैंने समारोह में नहीं जाने का फैसला किया।
मुख्यमंत्री भट्टाचार्य भी रेलवे के इस तमाशे के लिए रेल मंत्री की खिंचाई कर चुके हैं। भट्टाचार्य ने कहा है कि क्या यह कोई तमाशा है जो कवि नजरूल इस्लाम, नेताजी और मास्टरदा सूर्यसेन जैसी महान हस्तियों की तस्वीरें रेलवे के कार्यक्रम में प्रदर्शित की गईं। उन्होंने कहा कि वामपंथी स्वाधीनता आंदोलन की महान विरासत के दुरुपयोग के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा कि यह कृत्य महान क्रांतिकारियों के प्रति अनादर दर्शाता है। उन्होंने सवाल किया है कि रेल मंत्रालय आखिर क्या कर रहा है? वह रोजाना एक नई रेलगाड़ी चला रहा है। यह क्या है? क्या वे सोचते हैं कि लोगों ने अपनी आंखें बंद रखी हैं? रेलवे की क्या स्थिति है? रेलवे की हालत बेहद खराब है।
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहने के दौरान केबिनेट ने एक प्रस्ताव पारित कर रेलवे स्टेशनों के नाम महापुरुषों के नाम पर रखने पर पाबंदी लगा दी थी। उक्त अधिकारी कहते हैं कि ममता का फैसला कानूनन सही नहीं है। स्टेशनों के नामकरण के लिए संबंधित राज्य सरकार की सहमति जरूरी है। लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं किया गया।
दूसरी ओर, रेल मंत्री ममता बनर्जी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा है कि यह काफी आश्चर्य की बात है कि महात्मा गांधी को ब्रिटिश एजंट और स्वामी विवेकानंद को प्रतिक्रियावादी कहने वाली माकपा अब महापुरुषों के नामों के कथित दुरुपयोग पर आंसू बहा रही है। ऐसे महापुरुषों से समाज को प्रेरणा मिलती है और हम उनका सम्मान करते रहेंगे। ममता का आरोप है कि राज्य सरकार व माकपा अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए हाथ धोकर रेलवे मंत्रालय के पीछे पड़ गई है। माकपा इसके लिए तमाम हथियार आजमा रही है। लेकिन उसे अब तक अपने अभियान में कोई कामयाबी नहीं मिल सकी है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस और माकपा लोकसभा चुनावों के बाद से ही एक-दूसरे को पछाड़ने का मौका तलाशती रही हैं। राज्य में राजनीतिक हिंसा, राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी की टिप्पणी पर होने वाले विवाद और मंगलकोट की हिंसा के बाद अभ राज्य के महापुरुष इन दोनों के बीच राजनीतिक बर्चस्व की लड़ाई में पिस रहे हैं। फिलहाल इस लड़ाई के थमने के आसार नहीं नजर आ रहे हैं।
Friday, August 28, 2009
कोलकाता में हिंदी पत्रकारिता
उदंत मार्तंड से अब तक कोलकाता की हिंदी पत्रकारिता ने एक लंबा सफर तय किया है। इस दौरान हुगली में ढेर सारा पानी बह चुका है और इसी के साथ पत्रकारिता ने भी कई बदलाव देखे हैं। अब तकनीक के लिहाज से यह बेहतर जरूर हुई है। लेकिन कंटेंट और क्वालिटी के लिहाज से इसमें लगातार गिरावट आई है। बीते कुछ वर्षों के दौरान महानगर से निकलने वाले हिंदी अखबारों की तादाद तेजी से बढ़ी है। लेकिन तमाम अखबार बंधी-बंधाई लीक पर ही चलने लगे हैं। कोई अठारह साल पहले जनसत्ता ने कोलकाता की हिंदी पत्रकारिता में कई नए आयाम खोले और दिखाए थे। तब देश भर से चुन-चुन कर लोग इसमें रखे गए थे। अब इस अखबार से निकले लोग तमाम संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर काम कर रहे हैं। उस समसय जनसत्ता के प्रकाशन के बाद जमे-जमाए स्थानीय अखबारों को भी खुद को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। जनसत्ता के कोलकाता आने से पहले स्थानीय अखबारों में जिस क्लिष्ट भाषा का इस्तेमाल होता होता था वह आज सार्वजनिक क्षेत्र के हिंदी अधिकारियों की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी की तरह ही थी। आम लोग इन अखबारों के जरिए इसी को शुद्ध हिंदी मानते थे। संस्कृत और हिंदी के घालमेल से बनी वह भाषा शुद्ध तो थी। लेकिन पाठकों के सिर के ऊपर से गुजर जाती थी। तब के अखबारों में फोटो परिचय में छपता था-चित्र में दाएं से प्रथम परिलक्षित हैं फलां और द्वितीय हैं फलां....। यह तो एक मिसाल है। ऐसे ही न जाने कितने गूढ़ शब्दों और मुहावरों को भी इन अखबारों ने जीवित रखा था जो साठ-सत्तर के दशक में ही आम बोलचाल से बाहर हो चुके थे।
जैसा तू बोलता है वैसा तू लिख...की तर्ज पर खबरों में बोलचाल की भाषा और शब्दों के इस्तेमाल के लिए पूरे देश में अपनी खास पहचान बना चुके जनसत्ता के कोलकाता आने के बाद कोलकाता के हिंदी हलके में तूफान नहीं तो एक क्रांति जरूर आ गई थी। इसकी देखादेखी दूसरे अखबारों ने भी संस्कृत का मुलम्मा चढ़े शब्दों से परहेज का सिलसिला शुरू किया। कोलकाता में अखबारों की भाषा और कुछ हद तक खबरों की गुणवत्ता सुधारने में जनसत्ता की अहम भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता।
उस समय दूर से खबरें भेजने का काम फैक्स पर ही निर्भर था। हर जगह फैक्स भी ठीक से काम नहीं करता था। इसके अलावा रोमन में लिख कर टेलीग्राम भेजने या फिर ट्रंक काल के जरिए गला फाड़ कर चिल्लाने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैंने तीन बीघा आंदोलन, गोरखालैंड आंदोलन और उत्तर बंगाल की बाढ़ की न जाने कितनी ही खबरें टेलीग्राम से भेजीं या ट्रंक काल पर लिखवाई होंगी। मोबाइल तो बहुत दूर था, ई-मेल का भी चलन नहीं था। अब तो मिनटों में ई-मेल के जरिए खबरें भेजी जाती हैं। उस समय अखबारों में कंपोजिटर का पद अनिवार्य था। हाथ से लिखी कापियों को कंपोज करने वाले कंपोजिटर अखबार का महत्वपूर्ण अंग थे। अब तो ज्यादातर अखबारों में यह पद खत्म हो गया है। अब रिपोर्टर अपनी कापी खुद ही कंपोज कर फाइल कर देते हैं।
तमाम आधुनिक तकनीक के बावजूद कोलकाता के हिंदी अखबारों में कंटेंट और क्वालिटी में अगर लगातार गिरावट आई है तो इसकी कई वजहें गिनाई जा सकती हैं। जनसत्ता ने पूरे देश से प्रतिभावान पत्रकारों को कोलकाता में जुटाया था। आनंद बाजार समूह की पत्रिका रविवार के बाद यह दूसरा ऐसा प्रकाशन था जिसके लिए पूरे देश से युवा और अनुभवी पत्रकार जॉब चार्नक के बसाए इस शहर में आए थे। लेकिन उसके बाद यहां पांव फैलाने वाले तमाम अखबारों ने कम पैसों पर नौसिखिए लोगों को रख कर काम चलाने की जो परपंरा शुरू की थी वह अब धीरे-धीरे और समृद्ध हो रही है। इन तमाम अखबारों में कोई दर्जन भर ऐसे चेहरे हैं जो इस अखबार से उस अखबार में डोलते मिल जाते हैं। हिंदी लिखने-पढ़ने से दूर तक उनका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे तमाम पत्रकार प्रेस क्लब में जाम छलकाते हुए इस गलत धारणा के शिकार हो गए हैं कि प्रेस क्लब में हर शाम शराब के जाम नहीं छलकाने वाला पत्रकार हो ही नहीं सकता। नतीजतन इन हिंदी अखबारों के पत्रकार लिखना-पढ़ना बाद में सीखते हैं, बोतल साफ करने की कला में पहले पारंगत हो जाते हैं। सभी ऐसे नहीं हैं, लेकिन बहुमत ऐसे लोगों का ही है।
इसके अलावा पैसे लेकर खबरें छापने की परंपरा से भी यहां के ज्यादातर अखबार अछूते नहीं हैं। कोई प्रेस रिलीज छापने के पैसे लेता है तो कोई किसी समारोह की तस्वीरें छापने के। भजन-कीर्तन और बाबाओं के प्रवचन की भरमार देख कर किसी को शक हो सकता है कि कोलकाता के ज्यादातर हिंदी अखबार धार्मिक प्रवृत्ति के हैं या फिर समाजसेवा में उनकी भारी रूचि है। लेकिन ऐसा नहीं है। इन खबरों की सबसे बड़ी वजह है पैसा। जितना भारी प्रसाद, उतनी ही बड़ी कवरेज। हालांकि कुछ अखबारों का दावा है कि यह सर्कुलेश बढ़ाने और मार्केटिंग की रणनीति का हिस्सा है। लेकिन सच क्या है, यह सबको मालूम है।
स्थानीय अखबारों में प्रबंधन अपनी अंटी ढीली नहीं करना चाहता। उनको कंटेंट या खबरों की क्वालिटी की कोई चिंता नहीं है। स्थानीय पत्रकारों को पीने-पिलाने से ही फुर्सत नहीं है। जो नहीं पीते, वे भी बेहतर लिखने-पढ़ने में सक्षम हों, यह जरूरी नहीं। प्रबंधन अव्वल तो ज्यादा पैसे खर्च कर बाहर से पत्रकारों को बुलाना नहीं चाहते और बुलाते भी हैं तो अखबारों के माहौल से ऊबकर वैसे लोग जल्दी ही हावड़ा या सियालदह से वापसी की ट्रेन पकड़ लेते हैं। ऐसे में पत्रकारों की स्थानीय चौकड़ी की बन आई है। कई ऐसे पत्रकार भी यहां मिल जाएंगे जो लगभग सभी अखबारों में काम कर चुके हैं। इनके दफ्तर तो हर छह महीने बाद बदल जाते हैं। एक चीज जो नहीं बदलती वह है प्रेस क्लब में सूरज ढलने के बाद हर शाम होने वाली बैठकें। ऐसे में अब अखबारों के स्तर में सुधार की कोई गुंजाइश कम ही बची है।
कुल मिला कर उदंत मार्तंड की इस धरती पर हिंदी पत्रकारिता अब अपने सबसे बदहाल दौर से गुजर रही है।
जैसा तू बोलता है वैसा तू लिख...की तर्ज पर खबरों में बोलचाल की भाषा और शब्दों के इस्तेमाल के लिए पूरे देश में अपनी खास पहचान बना चुके जनसत्ता के कोलकाता आने के बाद कोलकाता के हिंदी हलके में तूफान नहीं तो एक क्रांति जरूर आ गई थी। इसकी देखादेखी दूसरे अखबारों ने भी संस्कृत का मुलम्मा चढ़े शब्दों से परहेज का सिलसिला शुरू किया। कोलकाता में अखबारों की भाषा और कुछ हद तक खबरों की गुणवत्ता सुधारने में जनसत्ता की अहम भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता।
उस समय दूर से खबरें भेजने का काम फैक्स पर ही निर्भर था। हर जगह फैक्स भी ठीक से काम नहीं करता था। इसके अलावा रोमन में लिख कर टेलीग्राम भेजने या फिर ट्रंक काल के जरिए गला फाड़ कर चिल्लाने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैंने तीन बीघा आंदोलन, गोरखालैंड आंदोलन और उत्तर बंगाल की बाढ़ की न जाने कितनी ही खबरें टेलीग्राम से भेजीं या ट्रंक काल पर लिखवाई होंगी। मोबाइल तो बहुत दूर था, ई-मेल का भी चलन नहीं था। अब तो मिनटों में ई-मेल के जरिए खबरें भेजी जाती हैं। उस समय अखबारों में कंपोजिटर का पद अनिवार्य था। हाथ से लिखी कापियों को कंपोज करने वाले कंपोजिटर अखबार का महत्वपूर्ण अंग थे। अब तो ज्यादातर अखबारों में यह पद खत्म हो गया है। अब रिपोर्टर अपनी कापी खुद ही कंपोज कर फाइल कर देते हैं।
तमाम आधुनिक तकनीक के बावजूद कोलकाता के हिंदी अखबारों में कंटेंट और क्वालिटी में अगर लगातार गिरावट आई है तो इसकी कई वजहें गिनाई जा सकती हैं। जनसत्ता ने पूरे देश से प्रतिभावान पत्रकारों को कोलकाता में जुटाया था। आनंद बाजार समूह की पत्रिका रविवार के बाद यह दूसरा ऐसा प्रकाशन था जिसके लिए पूरे देश से युवा और अनुभवी पत्रकार जॉब चार्नक के बसाए इस शहर में आए थे। लेकिन उसके बाद यहां पांव फैलाने वाले तमाम अखबारों ने कम पैसों पर नौसिखिए लोगों को रख कर काम चलाने की जो परपंरा शुरू की थी वह अब धीरे-धीरे और समृद्ध हो रही है। इन तमाम अखबारों में कोई दर्जन भर ऐसे चेहरे हैं जो इस अखबार से उस अखबार में डोलते मिल जाते हैं। हिंदी लिखने-पढ़ने से दूर तक उनका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे तमाम पत्रकार प्रेस क्लब में जाम छलकाते हुए इस गलत धारणा के शिकार हो गए हैं कि प्रेस क्लब में हर शाम शराब के जाम नहीं छलकाने वाला पत्रकार हो ही नहीं सकता। नतीजतन इन हिंदी अखबारों के पत्रकार लिखना-पढ़ना बाद में सीखते हैं, बोतल साफ करने की कला में पहले पारंगत हो जाते हैं। सभी ऐसे नहीं हैं, लेकिन बहुमत ऐसे लोगों का ही है।
इसके अलावा पैसे लेकर खबरें छापने की परंपरा से भी यहां के ज्यादातर अखबार अछूते नहीं हैं। कोई प्रेस रिलीज छापने के पैसे लेता है तो कोई किसी समारोह की तस्वीरें छापने के। भजन-कीर्तन और बाबाओं के प्रवचन की भरमार देख कर किसी को शक हो सकता है कि कोलकाता के ज्यादातर हिंदी अखबार धार्मिक प्रवृत्ति के हैं या फिर समाजसेवा में उनकी भारी रूचि है। लेकिन ऐसा नहीं है। इन खबरों की सबसे बड़ी वजह है पैसा। जितना भारी प्रसाद, उतनी ही बड़ी कवरेज। हालांकि कुछ अखबारों का दावा है कि यह सर्कुलेश बढ़ाने और मार्केटिंग की रणनीति का हिस्सा है। लेकिन सच क्या है, यह सबको मालूम है।
स्थानीय अखबारों में प्रबंधन अपनी अंटी ढीली नहीं करना चाहता। उनको कंटेंट या खबरों की क्वालिटी की कोई चिंता नहीं है। स्थानीय पत्रकारों को पीने-पिलाने से ही फुर्सत नहीं है। जो नहीं पीते, वे भी बेहतर लिखने-पढ़ने में सक्षम हों, यह जरूरी नहीं। प्रबंधन अव्वल तो ज्यादा पैसे खर्च कर बाहर से पत्रकारों को बुलाना नहीं चाहते और बुलाते भी हैं तो अखबारों के माहौल से ऊबकर वैसे लोग जल्दी ही हावड़ा या सियालदह से वापसी की ट्रेन पकड़ लेते हैं। ऐसे में पत्रकारों की स्थानीय चौकड़ी की बन आई है। कई ऐसे पत्रकार भी यहां मिल जाएंगे जो लगभग सभी अखबारों में काम कर चुके हैं। इनके दफ्तर तो हर छह महीने बाद बदल जाते हैं। एक चीज जो नहीं बदलती वह है प्रेस क्लब में सूरज ढलने के बाद हर शाम होने वाली बैठकें। ऐसे में अब अखबारों के स्तर में सुधार की कोई गुंजाइश कम ही बची है।
कुल मिला कर उदंत मार्तंड की इस धरती पर हिंदी पत्रकारिता अब अपने सबसे बदहाल दौर से गुजर रही है।
Thursday, August 27, 2009
पहाड़ी पगडंडी में बदली अलग राज्य की राह
(इधर कोई एक हफ्ते कोलकाता से बाहर रहा। इस दौरान कंप्यूटर से संबंध नहीं था। सो, ब्लॉग पर भी वीरानी छाई थी। इस एक हफ्ते कहां रहा, क्या किया, इसकी चर्चा कभी बाद में। फिलहाल तो जसवंत सिंह के निष्कासन और भाजपा में आए भूकंप के झटके पहाड़ियों की रानी कही जाने वाली दार्जिलिंग की वादियों में भी लग रहे हैं। इसी पर यह रिपोर्ट-प्रभाकर मणि तिवारी)
पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग की पहाड़ियों में बरसों से चलने वाले अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में बरसों से चल रहे आंदोलन की राह अब पहाड़ी पगडंडियों की तरह ही सर्पीली हो गई है। पूर्व भाजपा नेता और स्थानीय सांसद जसवंत सिंह को पार्टी से निकाले जाने और भाजपा में लगातार बिखराव के चलते इस आंदोलन की धार अचानक कुंद होने लगी है। जसवंत को पार्टी से निकाले जाने पर आंदोलन की अगुवाई करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं ने कहा था कि उनका गठजोड़ भाजपा से है, जसवंत से नहीं। लेकिन अब पार्टी जिस तरह तेजी से बिखर रही है उससे स्थानीय लोगों की आंखों में अंगड़ाई लेता अलग राज्य का सपना भी मुरझाने लगा है। इसके साथ ही मोर्चा के नेता अब इस असमंजस से जूझ रहे हैं कि वे जसवंत के साथ संबंध रखें या भाजपा के। मोर्चा के नेता भले असमंजस में हों, आम लोगों को तो लगता है कि जसवंत का भाजपा से जाना इन पहाड़ियों के लिए एक ऐसा भूस्खलन है जिसने अलग राज्य के रास्ते सामयिक तौर पर तो बंद कर ही दिए हैं।
जसवंत को पार्टी से निकाले जाने के बाद मोर्चा प्रमुख विमल गुरुंग उनसे कई बार फोन पर बातचीत कर चुके हैं। मोर्चा के दो नेता उनसे मुलाकात के बाद कल ही दिल्ली से यहां लौटे हैं। मोर्चा की केंद्रीय समिति के नेता अमर लामा कहते हैं कि हमारा गठजोड़ भाजपा से था। इसलिए हमने लोकसभा चुनाव में जसवंत सिंह का समर्थन किया। वे कहते हैं कि भाजपा ने उनकी जगह किसी और को भी यहां मैदान में उतारा होता तो हम उसका भी इसी तरह समर्थन करते। विमल गुरुंग ने फिलहाल इस मामले पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की है। वे कहते हैं कि हम दोनों यानी जसवंत और भाजपा से संबंध बनाए रखेंगे। गुरुंग भले दोनों से संबंध बनाए रखने की बात कहें, वे भी जानते हैं कि ऐसा संभव नहीं है। इसके अलावा अब भाजपा में जिस तेजी से बिखराव शुरू हुआ है उससे मोर्चा के नेताओं की नींद उड़ गई है। केंद्र सरकार की ओर से आयोजित तितरफा बैठक में गोरखा पर्वतीय परिषद अधिनियम रद्द कर जिस वैकल्पिक प्रशासनिक ढांचे की बात कही गई थी, उसे इन नेताओं ने अलग राज्य की दिशा में एक ठोस कदम करार दिया था। लेकिन उसके तुरंत बाद हुए जसवंत प्रकरण ने उनकी उम्मीदें धूमिल कर दी हैं।
अब निर्दलीय सांसद बन चुके जसवंत सिंह ने जल्दी ही अपनी कर्मभूमि दार्जिलिंग लौटने की बात कही है। मोर्चा के एक नेता बताते हैं कि जसवंत सिंह जल्दी ही यहां आएंगे। लेकिन आम लोगों को इसका भरोसा नहीं है। चौक बाजार इलाके में चाय की दुकान चलाने वाले हरका बहादुर छेत्री कहते हैं कि हमने इस उम्मीद के साथ जसवंत सिंह को वोट दिया था कि वे गोरखालैंड की स्थापना में सहायता करेंगे। लेकिन पहले तो केंद्र में भाजपा की सरकार ही नहीं बनी। अब जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। छेत्री कहते हैं कि मोर्चा के नेता अब भले जसवंत की बजाय भाजपा से गठजोड़ की बात कह कर लोगों को दिलासा दे रहे हों, अलग राज्य की राह आसान नहीं रही। भाजपा तो खुद ही अपने बिखरते कुनबे को बचाने के लिए जूझ रही है। ऐसे में उसे दार्जिलिंग में अलग राज्य का ख्याल कैसे आएगा। मॉल रोड स्थित एक होटल के मालिक सूरज थापा कहते हैं कि अब अलग राज्य का सपना टूटने लगा है। इस सपने को साकार करने के लिए इलाके के लोगों ने जसवंत सिंह को जो लाखों वोट दिए थे, वह लगता है कूड़ेदान में चला गया है।
जसवंत को निकाले जाने के साथ ही अब पहाड़ियों का माहौल बदल गया है। लोग कहते हैं कि जसवंत सिंह जब भाजपा में रहते कुछ खास नहीं कर पाए तो अब निर्दलीय होकर क्या करेंगे। लेकिन मोर्चा के नेताओं को अब भी जसवंत से उम्मीद है। मोर्चा प्रमुख गुरुंग कहते हैं कि हम जल्दी ही एक रैली में अपने रुख का खुलासा करेंगे।
वैसे, जसवंत की जिस किताब के चलते उनको पार्टी से जाना पड़ा, उसके जरिए उन्होंने दार्जिलिंग के लोगों का कर्ज कुछ हद तक जरूर चुका दिया है। उस पुस्तक के पिछले कवर पर जसवंत के परिचय में लिखा है कि वे दार्जिलिंग पर्वतीय राज्य से लोकसभा के लिए चुने गए हैं। पुस्तक के प्रकाशक का कहना है कि ऐसा गलती से हुआ है। लेकिन मोर्चा के नेता कहते हैं कि यह इस बात का सबूत है कि जसवंत सिंह इन पहाड़ियों को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के प्रति कितने गंभीर हैं।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब जसवंत और गोरखा मोर्चा दोनों की आगे की राह कठिन हो गई है। अब जसवंत के दार्जिलिंग दौरे के बाद ही परिस्थिति साफ होने की उम्मीद है। जसवंत अपना राजनीतिक करियर दार्जिलिंग से ही आगे बढ़ाएंगे मोर्चा उनसे नाता रखेगा या भाजपा से अलग राज्य की मांग में चलने वाला आंदोलन अब किस दिशा में जाएगा इन सवालों का जवाब अब आने वाले दिनों में ही मिलेगा। तब तक तो अलग राज्य के सपने पर भी अनिश्चयता का कोहरा छा गया है। ठीक वैसा ही घना कोहरा जो बरसात के इस सीजन में इन पहाड़ियों की पहचान बन जाता है। जनसत्ता से
पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग की पहाड़ियों में बरसों से चलने वाले अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में बरसों से चल रहे आंदोलन की राह अब पहाड़ी पगडंडियों की तरह ही सर्पीली हो गई है। पूर्व भाजपा नेता और स्थानीय सांसद जसवंत सिंह को पार्टी से निकाले जाने और भाजपा में लगातार बिखराव के चलते इस आंदोलन की धार अचानक कुंद होने लगी है। जसवंत को पार्टी से निकाले जाने पर आंदोलन की अगुवाई करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं ने कहा था कि उनका गठजोड़ भाजपा से है, जसवंत से नहीं। लेकिन अब पार्टी जिस तरह तेजी से बिखर रही है उससे स्थानीय लोगों की आंखों में अंगड़ाई लेता अलग राज्य का सपना भी मुरझाने लगा है। इसके साथ ही मोर्चा के नेता अब इस असमंजस से जूझ रहे हैं कि वे जसवंत के साथ संबंध रखें या भाजपा के। मोर्चा के नेता भले असमंजस में हों, आम लोगों को तो लगता है कि जसवंत का भाजपा से जाना इन पहाड़ियों के लिए एक ऐसा भूस्खलन है जिसने अलग राज्य के रास्ते सामयिक तौर पर तो बंद कर ही दिए हैं।
जसवंत को पार्टी से निकाले जाने के बाद मोर्चा प्रमुख विमल गुरुंग उनसे कई बार फोन पर बातचीत कर चुके हैं। मोर्चा के दो नेता उनसे मुलाकात के बाद कल ही दिल्ली से यहां लौटे हैं। मोर्चा की केंद्रीय समिति के नेता अमर लामा कहते हैं कि हमारा गठजोड़ भाजपा से था। इसलिए हमने लोकसभा चुनाव में जसवंत सिंह का समर्थन किया। वे कहते हैं कि भाजपा ने उनकी जगह किसी और को भी यहां मैदान में उतारा होता तो हम उसका भी इसी तरह समर्थन करते। विमल गुरुंग ने फिलहाल इस मामले पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की है। वे कहते हैं कि हम दोनों यानी जसवंत और भाजपा से संबंध बनाए रखेंगे। गुरुंग भले दोनों से संबंध बनाए रखने की बात कहें, वे भी जानते हैं कि ऐसा संभव नहीं है। इसके अलावा अब भाजपा में जिस तेजी से बिखराव शुरू हुआ है उससे मोर्चा के नेताओं की नींद उड़ गई है। केंद्र सरकार की ओर से आयोजित तितरफा बैठक में गोरखा पर्वतीय परिषद अधिनियम रद्द कर जिस वैकल्पिक प्रशासनिक ढांचे की बात कही गई थी, उसे इन नेताओं ने अलग राज्य की दिशा में एक ठोस कदम करार दिया था। लेकिन उसके तुरंत बाद हुए जसवंत प्रकरण ने उनकी उम्मीदें धूमिल कर दी हैं।
अब निर्दलीय सांसद बन चुके जसवंत सिंह ने जल्दी ही अपनी कर्मभूमि दार्जिलिंग लौटने की बात कही है। मोर्चा के एक नेता बताते हैं कि जसवंत सिंह जल्दी ही यहां आएंगे। लेकिन आम लोगों को इसका भरोसा नहीं है। चौक बाजार इलाके में चाय की दुकान चलाने वाले हरका बहादुर छेत्री कहते हैं कि हमने इस उम्मीद के साथ जसवंत सिंह को वोट दिया था कि वे गोरखालैंड की स्थापना में सहायता करेंगे। लेकिन पहले तो केंद्र में भाजपा की सरकार ही नहीं बनी। अब जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। छेत्री कहते हैं कि मोर्चा के नेता अब भले जसवंत की बजाय भाजपा से गठजोड़ की बात कह कर लोगों को दिलासा दे रहे हों, अलग राज्य की राह आसान नहीं रही। भाजपा तो खुद ही अपने बिखरते कुनबे को बचाने के लिए जूझ रही है। ऐसे में उसे दार्जिलिंग में अलग राज्य का ख्याल कैसे आएगा। मॉल रोड स्थित एक होटल के मालिक सूरज थापा कहते हैं कि अब अलग राज्य का सपना टूटने लगा है। इस सपने को साकार करने के लिए इलाके के लोगों ने जसवंत सिंह को जो लाखों वोट दिए थे, वह लगता है कूड़ेदान में चला गया है।
जसवंत को निकाले जाने के साथ ही अब पहाड़ियों का माहौल बदल गया है। लोग कहते हैं कि जसवंत सिंह जब भाजपा में रहते कुछ खास नहीं कर पाए तो अब निर्दलीय होकर क्या करेंगे। लेकिन मोर्चा के नेताओं को अब भी जसवंत से उम्मीद है। मोर्चा प्रमुख गुरुंग कहते हैं कि हम जल्दी ही एक रैली में अपने रुख का खुलासा करेंगे।
वैसे, जसवंत की जिस किताब के चलते उनको पार्टी से जाना पड़ा, उसके जरिए उन्होंने दार्जिलिंग के लोगों का कर्ज कुछ हद तक जरूर चुका दिया है। उस पुस्तक के पिछले कवर पर जसवंत के परिचय में लिखा है कि वे दार्जिलिंग पर्वतीय राज्य से लोकसभा के लिए चुने गए हैं। पुस्तक के प्रकाशक का कहना है कि ऐसा गलती से हुआ है। लेकिन मोर्चा के नेता कहते हैं कि यह इस बात का सबूत है कि जसवंत सिंह इन पहाड़ियों को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के प्रति कितने गंभीर हैं।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब जसवंत और गोरखा मोर्चा दोनों की आगे की राह कठिन हो गई है। अब जसवंत के दार्जिलिंग दौरे के बाद ही परिस्थिति साफ होने की उम्मीद है। जसवंत अपना राजनीतिक करियर दार्जिलिंग से ही आगे बढ़ाएंगे मोर्चा उनसे नाता रखेगा या भाजपा से अलग राज्य की मांग में चलने वाला आंदोलन अब किस दिशा में जाएगा इन सवालों का जवाब अब आने वाले दिनों में ही मिलेगा। तब तक तो अलग राज्य के सपने पर भी अनिश्चयता का कोहरा छा गया है। ठीक वैसा ही घना कोहरा जो बरसात के इस सीजन में इन पहाड़ियों की पहचान बन जाता है। जनसत्ता से
Tuesday, August 18, 2009
बुद्धदेव सरकार के लिए नासूर बन गया है लालगढ़
पश्चिम मेदिनीपुर जिले का माओवाद प्रभावित लालगढ़ बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाई वाली राज्य की वाममोर्चा सरकार के लिए धीरे-धीरे एक ऐसे नासूर में बदल गया है जो अक्सर टीसता रहता है। दो महीने से जारी लालगढ़ अभियान के बावजूद सुरक्षा बलों को वहां खास कामयाबी नहीं मिल सकी है। मजबूरन बीते हफ्ते सरकार ने भी मान लिया कि इस अभियान को कामयाबी नहीं मिल सकी है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए जहां केंद्र से पड़ोसी झारखंड में भी लालगढ़ की तर्ज पर माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाने की मांग की है, वहीं वाममोर्चा के दूसरे घटक दल इस समस्या के लिए सरकार और माकपा की छीछालेदर कर रहे हैं।
लालगढ़ में बीते दो महीने से केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्य पुलिस का अभियान जारी रहने के बावजूद इलाके में माओवाद की समस्या सुलझने की बजाय और उलझती ही जा रही है। अब तक न तो कोई बड़ा नेता पुलिस की पकड़ में आया है और न ही इलाके में सामान्य स्थिति बहाल हो सकी है। इसलिए सरकार अब माओवादियों से निपटने के लिए रणनीति बदलने पर विचार कर रही है। इसी कवायद के तहत मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बीते दिनों अपने मेदिनीपुर दौरे के दौरान पुलिस व प्रशासन के तमाम आला अधिकारियों के साथ बैठक में भावी रणनीति पर विचार किया। लेकिन अब तक नई रणनीति पर अमल नहीं शुरू हो सका है। उससे पहले ही सोमवार को लालगढ़ एक बार फिर अशांत हो गया। वहां माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच घंटों हुई गोलाबारी में पुलिस का एक जवान घायल हो गया। वैसे, सरकार इससे पहले ही मान चुकी है कि लालगढ़ अभियान कामयाब नहीं रहा है। इलाके में माकना नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याओं का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। इलाके में विकास के काम ठप हैं। इससे लोगों की नाराजगी और बढ़ रही है। सरकार की मुश्किल यह है कि हालात सामान्य हुए बिना इलाके में विकास परियोजनाएं शुरू नहीं हो सकती।
राज्य सरकार का असली संकट है केंद्रीय बलों की मौजूदगी। गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन मानते हैं कि केंद्रीय बल हमेशा के लिए लालगढ़ में नहीं रह सकते। राज्य सरकार ने केंद्र से उनको कम से कम और तीन महीने तक लालगढ़ में तैनात करने की गुहार की है। लेकिन मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए तीन महीनों में भी समस्या के सुलझने के आसार कम ही हैं। सरकार को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि जब केंद्रीय बलों के रहते यह स्थिति है तो उनके लौट जाने पर क्या होगा।
दूसरी ओर, वाममोर्चा की बैठक में सरकार व माकपा को सहयोगी दलों की आलोचना से जूझना पड़ रहा है। बीते सप्ताह हुई बैठक में घटक दलों ने सरकार से इस मुद्दे पर सफाई मांगते हुए कहा कि वह लालगढ़ अभियान की नाकामी की वजह बताए। आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने इससे पहले माओवादियों पर पाबंदी लगाने का विरोध करते हुए इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर हल करने की वकालत की थी। फारवर्ड ब्लाक के एक नेता कहते हैं कि हमने सरकार से लालगढ़ अभियान की प्रगति रिपोर्ट मांगी है। भारी तादाद में सुरक्षा बलों की मौजूदगी के बावजूद हत्याओं और अपहरण का सिलसिला थम नहीं रहा है। यह गहरी चिंता का विषय है। हम सरकार से जानना चाहते हैं कि वह माओवादियों से निपटने के लिए क्या रणनीति अपना रही है।
घटक दलों ने इस मामले पर मुख्यमंत्री के बयान की मांग की। मुख्यमंत्री उस बैठक में मौजूद नहीं थे। इसलिए अब इसी हफ्ते मोर्चा की बैठक दोबारा बुलाई जाएगी। उसमें बुद्धदेव भी मौजूद रहेंगे।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लालगढ़ की समस्या अब धीरे-धीरे नासूर बनती जा रही है। यह लंबे अरसे तक जब-तब रिसता ही रहेगा। किसी ठोस रणनीति के अभाव में सुरक्षा बल अंधेरे में ही ही तीर चला रहे हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में भी वहां हालात सामान्य होने की उम्मीद कम ही है। जनसत्ता से
लालगढ़ में बीते दो महीने से केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्य पुलिस का अभियान जारी रहने के बावजूद इलाके में माओवाद की समस्या सुलझने की बजाय और उलझती ही जा रही है। अब तक न तो कोई बड़ा नेता पुलिस की पकड़ में आया है और न ही इलाके में सामान्य स्थिति बहाल हो सकी है। इसलिए सरकार अब माओवादियों से निपटने के लिए रणनीति बदलने पर विचार कर रही है। इसी कवायद के तहत मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बीते दिनों अपने मेदिनीपुर दौरे के दौरान पुलिस व प्रशासन के तमाम आला अधिकारियों के साथ बैठक में भावी रणनीति पर विचार किया। लेकिन अब तक नई रणनीति पर अमल नहीं शुरू हो सका है। उससे पहले ही सोमवार को लालगढ़ एक बार फिर अशांत हो गया। वहां माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच घंटों हुई गोलाबारी में पुलिस का एक जवान घायल हो गया। वैसे, सरकार इससे पहले ही मान चुकी है कि लालगढ़ अभियान कामयाब नहीं रहा है। इलाके में माकना नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याओं का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। इलाके में विकास के काम ठप हैं। इससे लोगों की नाराजगी और बढ़ रही है। सरकार की मुश्किल यह है कि हालात सामान्य हुए बिना इलाके में विकास परियोजनाएं शुरू नहीं हो सकती।
राज्य सरकार का असली संकट है केंद्रीय बलों की मौजूदगी। गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन मानते हैं कि केंद्रीय बल हमेशा के लिए लालगढ़ में नहीं रह सकते। राज्य सरकार ने केंद्र से उनको कम से कम और तीन महीने तक लालगढ़ में तैनात करने की गुहार की है। लेकिन मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए तीन महीनों में भी समस्या के सुलझने के आसार कम ही हैं। सरकार को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि जब केंद्रीय बलों के रहते यह स्थिति है तो उनके लौट जाने पर क्या होगा।
दूसरी ओर, वाममोर्चा की बैठक में सरकार व माकपा को सहयोगी दलों की आलोचना से जूझना पड़ रहा है। बीते सप्ताह हुई बैठक में घटक दलों ने सरकार से इस मुद्दे पर सफाई मांगते हुए कहा कि वह लालगढ़ अभियान की नाकामी की वजह बताए। आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने इससे पहले माओवादियों पर पाबंदी लगाने का विरोध करते हुए इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर हल करने की वकालत की थी। फारवर्ड ब्लाक के एक नेता कहते हैं कि हमने सरकार से लालगढ़ अभियान की प्रगति रिपोर्ट मांगी है। भारी तादाद में सुरक्षा बलों की मौजूदगी के बावजूद हत्याओं और अपहरण का सिलसिला थम नहीं रहा है। यह गहरी चिंता का विषय है। हम सरकार से जानना चाहते हैं कि वह माओवादियों से निपटने के लिए क्या रणनीति अपना रही है।
घटक दलों ने इस मामले पर मुख्यमंत्री के बयान की मांग की। मुख्यमंत्री उस बैठक में मौजूद नहीं थे। इसलिए अब इसी हफ्ते मोर्चा की बैठक दोबारा बुलाई जाएगी। उसमें बुद्धदेव भी मौजूद रहेंगे।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि लालगढ़ की समस्या अब धीरे-धीरे नासूर बनती जा रही है। यह लंबे अरसे तक जब-तब रिसता ही रहेगा। किसी ठोस रणनीति के अभाव में सुरक्षा बल अंधेरे में ही ही तीर चला रहे हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में भी वहां हालात सामान्य होने की उम्मीद कम ही है। जनसत्ता से
खूबसूरती और कंडोम !
गर्म निरोधक के तौर पर इस्तेमाल होने वाले कंडोम का भला खूबसूरती के क्या रिश्ता है? यह सवाल सुन कर कोई भी अचरज में पड़ सकता है। लेकिन इसका जवाब जानने के लिए आपको भारत के पड़ोसी पर्वतीय देश भूटान की राजधानी थिम्पू जाना होगा। भूटान की महिलाएं अपने चेहरे की खूबसूरती बढ़ाने और आंखों के नीचे के स्याह घेरे को मिटाने के लिए इन दिनों धड़ल्ले से कंडोम का इस्तेमाल कर रही हैं। यही नहीं, कपड़े बुनने के लिए धागों को नरम बनाने के लिए भी कंडोम का ही इस्तेमाल हो रहा है।
राजधानी में दवाइयों की दुकान चलाने वाली कर्मा देम ने बताया कि महिलाएं उनके पास कंडोम खरीदने आ रही हैं। वे कहती हैं कि इससे न केवल आँखों के नीचे के काले घेरे मिटते हैं, बल्कि गर्भवती महिलाओं के चेहरे के दाग भी हट जाते हैं।
एक अन्य दवा विक्रेता कहते हैं कि महिलाओं का कहना है कि कंडोम रूखी त्वचा को निखारने और झाइयों को दूर करने में काम आता है। महिला खरीददारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। इसकी वजह उनका यह भरोसा है कि कंडोम कास्मेटिक के तौर पर भी फायदेमंद है।
लेकिन डाक्टर इस विचार से सहमत नहीं हैं। त्वचा रोग विशेषज्ञ पेमा रिंजिन कहती हैं कि कंडोम से त्वचा के कोमल होने के दावों में कोई दम नहीं है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो त्वचा में निखार लाए। कंडोम में उपयोग होने वाले लुब्रिकेंट सामान्य होते हैं। अगर उनका कास्मेटिक के तौर पर लाभ है तो उसे उसी तरह से बेचा जाना चाहिए।
एक अन्य चिकित्सक का कहना है कि शोध से पता चला है कि कंडोम लुब्रिकेंट में बेंजीन होता है, जो बहुत ज्यादा मात्रा में उपयोग करने पर हानिकारक साबित हो सकता है।
महिलाओं के अलावा भूटान के बुनकर भी कंडोम का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका दावा है कि यह धागों की सख्ती दूर करने में सहायक है। एक बुनकर का कहना है कि वह कंडोम को ठंड के दौरान उपयोग करता है। उस समय धागे बहुत सख्त हो जाते हैं और उनसे काम करना मुश्किल होता है।
सरकारी बुनाई केंद्र की एक कर्मचारी फुंतशो ने बताया कि उसने एक बार धागों पर कंडोम का उपयोग किया। उसने कहा कि वह आगे भी उसका उपयोग कर सकती है, अगर कोई उसे कंडोम ला दे तो। वह कहती है कि मैं बाहर जाकर उसे खरीद नहीं सकती। मैं दवा विक्रेता को कैसे बताउँगी कि मुझे उसका क्या उपयोग करना है,कोई मेरा विश्वास नहीं करेगा। कंडोम के लुब्रिकेंट को लूम पर लगाया जाता है ताकि धागे उस पर आसानी से चल सकें।
राजधानी में दवाइयों की दुकान चलाने वाली कर्मा देम ने बताया कि महिलाएं उनके पास कंडोम खरीदने आ रही हैं। वे कहती हैं कि इससे न केवल आँखों के नीचे के काले घेरे मिटते हैं, बल्कि गर्भवती महिलाओं के चेहरे के दाग भी हट जाते हैं।
एक अन्य दवा विक्रेता कहते हैं कि महिलाओं का कहना है कि कंडोम रूखी त्वचा को निखारने और झाइयों को दूर करने में काम आता है। महिला खरीददारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। इसकी वजह उनका यह भरोसा है कि कंडोम कास्मेटिक के तौर पर भी फायदेमंद है।
लेकिन डाक्टर इस विचार से सहमत नहीं हैं। त्वचा रोग विशेषज्ञ पेमा रिंजिन कहती हैं कि कंडोम से त्वचा के कोमल होने के दावों में कोई दम नहीं है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो त्वचा में निखार लाए। कंडोम में उपयोग होने वाले लुब्रिकेंट सामान्य होते हैं। अगर उनका कास्मेटिक के तौर पर लाभ है तो उसे उसी तरह से बेचा जाना चाहिए।
एक अन्य चिकित्सक का कहना है कि शोध से पता चला है कि कंडोम लुब्रिकेंट में बेंजीन होता है, जो बहुत ज्यादा मात्रा में उपयोग करने पर हानिकारक साबित हो सकता है।
महिलाओं के अलावा भूटान के बुनकर भी कंडोम का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका दावा है कि यह धागों की सख्ती दूर करने में सहायक है। एक बुनकर का कहना है कि वह कंडोम को ठंड के दौरान उपयोग करता है। उस समय धागे बहुत सख्त हो जाते हैं और उनसे काम करना मुश्किल होता है।
सरकारी बुनाई केंद्र की एक कर्मचारी फुंतशो ने बताया कि उसने एक बार धागों पर कंडोम का उपयोग किया। उसने कहा कि वह आगे भी उसका उपयोग कर सकती है, अगर कोई उसे कंडोम ला दे तो। वह कहती है कि मैं बाहर जाकर उसे खरीद नहीं सकती। मैं दवा विक्रेता को कैसे बताउँगी कि मुझे उसका क्या उपयोग करना है,कोई मेरा विश्वास नहीं करेगा। कंडोम के लुब्रिकेंट को लूम पर लगाया जाता है ताकि धागे उस पर आसानी से चल सकें।
Monday, August 17, 2009
मंदी की मार से बेहाल हैं पूजा समितियां
आर्थिक मंदी और जरूरी वस्तुओँ की आसमान छूती कीमतों ने पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े त्योहार दुर्गापूजा के आयोजकों को मुश्किल में डाल दिया है। इस बार पूजा के लिए वसूली जाने वाली चंदे की रकम में गिरावट का अंदेशा तो है ही, प्रायजकों का भी टोटा पड़ रहा है। आयोजन समितियों का कहना है कि प्रायोजकों ने मंदी के चलते अपने बजट में भारी कटौती कर दी है। इसका असर आयोजन पर पड़ना लाजिमी है।
एक पूजा समिति के सदस्य देवाशीष पाल बताते हैं कि पूजा को अब महज पांच सप्ताह बचे हैं। लेकिन हमें अब तक ढंग का प्रायोजक नहीं मिला है। जिन प्रायोजकों से अभी तक बात हुई है उन्होंने इस बार काफी कम धन खर्च करने का प्रस्ताव दिया है। उल्लेखनीय है कि दुर्गा पूजा आयोजन समितियों को चंदे के अलावा पंडालों के आस पास होर्डिग बैनर तथा स्टालों के लिए प्रायोजकों पर निर्भर रहना पड़ता है। कई पूजा आयोजकों ने बताया अबकी दुर्गा पूजा आयोजन के लिए उनको चंदे में गिरावट का अंदेशा है। मंदी के लंबे दौर की वजह से कुम्हारटोली के मूर्तिकार भी आशंकित हैं कि इस साल उनको अपनी बनाई मूर्तियों के ठीक-ठाक दाम नहीं मिलेंगे। कुम्हारटोली शिल्पी संगठन के सचिव बाबुल पाल ने बताया कि इस बार छोटी मूर्तियों के लिये अधिक आर्डर मिल रहे हैं।
एक मूर्तिकार रमेश प्रमाणिक बताते हैं कि मूर्ति निर्माण के लिये जरूरी मिट्टी के अलावा, धान की भूसी, रस्सी, जूट, लकड़ी और सजावटी सामानों और रंग की कीमतों में बीते साल के मुकाबले लगभग 25 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन बजट में कटौती के चलते पूजा आयोजक मूर्तियों की अधिक कीमत देने को तैयार नहीं हैं।
जयपुर के हवा महल की तर्ज पर पंडाल बना रहे कालेज स्क्वायर के आयोजकों ने बजट के बारे में कोई भी खुलासा करने से मना कर दिया। बीते साल उनका बजट 25 लाख का था। समितियों का कहना है कि अबकी दुर्गा पूजा पर मंदी का असर साफ नजर आएगा। पंडाल का आकार तो घटेगा ही, इनकी साज-सज्जा पर होने वाले खर्च में भी भारी कटौती होगी। ध्यान रहे कि महानगर में दर्जनों ऐसे आयोजन होते हैं जिनका बजट पहले 50 लाख से एक करोड़ के बीच होता था। अकेले बिजली की सजावट पर ही लाखों रुपए खर्च किए जाते थे। कई आयोजन समितियों ने बीते साल के मुकाबले अपना बजट आधा कर दिया है।
एक पूजा समिति के सदस्य देवाशीष पाल बताते हैं कि पूजा को अब महज पांच सप्ताह बचे हैं। लेकिन हमें अब तक ढंग का प्रायोजक नहीं मिला है। जिन प्रायोजकों से अभी तक बात हुई है उन्होंने इस बार काफी कम धन खर्च करने का प्रस्ताव दिया है। उल्लेखनीय है कि दुर्गा पूजा आयोजन समितियों को चंदे के अलावा पंडालों के आस पास होर्डिग बैनर तथा स्टालों के लिए प्रायोजकों पर निर्भर रहना पड़ता है। कई पूजा आयोजकों ने बताया अबकी दुर्गा पूजा आयोजन के लिए उनको चंदे में गिरावट का अंदेशा है। मंदी के लंबे दौर की वजह से कुम्हारटोली के मूर्तिकार भी आशंकित हैं कि इस साल उनको अपनी बनाई मूर्तियों के ठीक-ठाक दाम नहीं मिलेंगे। कुम्हारटोली शिल्पी संगठन के सचिव बाबुल पाल ने बताया कि इस बार छोटी मूर्तियों के लिये अधिक आर्डर मिल रहे हैं।
एक मूर्तिकार रमेश प्रमाणिक बताते हैं कि मूर्ति निर्माण के लिये जरूरी मिट्टी के अलावा, धान की भूसी, रस्सी, जूट, लकड़ी और सजावटी सामानों और रंग की कीमतों में बीते साल के मुकाबले लगभग 25 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन बजट में कटौती के चलते पूजा आयोजक मूर्तियों की अधिक कीमत देने को तैयार नहीं हैं।
जयपुर के हवा महल की तर्ज पर पंडाल बना रहे कालेज स्क्वायर के आयोजकों ने बजट के बारे में कोई भी खुलासा करने से मना कर दिया। बीते साल उनका बजट 25 लाख का था। समितियों का कहना है कि अबकी दुर्गा पूजा पर मंदी का असर साफ नजर आएगा। पंडाल का आकार तो घटेगा ही, इनकी साज-सज्जा पर होने वाले खर्च में भी भारी कटौती होगी। ध्यान रहे कि महानगर में दर्जनों ऐसे आयोजन होते हैं जिनका बजट पहले 50 लाख से एक करोड़ के बीच होता था। अकेले बिजली की सजावट पर ही लाखों रुपए खर्च किए जाते थे। कई आयोजन समितियों ने बीते साल के मुकाबले अपना बजट आधा कर दिया है।
Sunday, August 16, 2009
बंगाल से आईएएस अफसरों का पलायन
एक बहुत पुरानी कहावत है कि बुरे वक्त में परछाई भी साथ छोड़ देती है। माकपा की अगुवाई वाली वाममोर्चा सरकार को शायद अब इस कहावत का अर्थ समझ में आ रहा है। बीते लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा की किस्मत क्या बिगड़ी, राज्य के आईएएस अफसरों में डेपुटेशन पर केंद्र में जाने की होड़ मच गई है। जिन अफसरों के सहारे बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने राज्य में औद्योगिकीकरण की जोरदार मुहिम शुरू की थी, अब वे भी एक-एक कर बंगाल को लाल सलाम करने लगे हैं। दो महीने बाद भी यह सिलसिला थमता नहीं नजर आ रहा है। बीते कुछ हफ्तों के दौरान राज्य के कई काबिल आईएएस अफसरों के केंद्र की सेवा में जाने की वजह से प्रशासन तेजी से पंगु होता जा रहा है। बीते सप्ताह भी दो अफसर दिल्ली चले गए। अभी कोई एक दर्जन अफसर केंद्र में जाने के लिए हरी झंडी मिलने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे अफसरों की लगातार लंबी होती सूची ने राज्य सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं। इन अफसरों की दलील है कि दिल्ली में कामकाज के बेहतर मौके तो हैं ही, वहीं राजनीतिक हस्तक्षेप भी बहुत कम है।
ताजा मामला दो अफसरों का है। 1984 बैच के आईएएस अफसर आर.डी.मीना दिल्ली में बंगाल के अतिरिक्त आवासीय आयुक्त बनाए गए हैं। इसी तरह स्वास्थ्य विभाग में परियोजना निदेशक रहे अनूप अग्रवाल के केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री शिशिर अधिकारी का निजी सचिव बनने की चर्चा है। इससे पहले बंगाल काडर के तीन अफसर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के साथ जुड़ गए थे। तृणमूल कांग्रेस के मंत्री भी राज्य के आईएएस अफसरों को अपने साथ रखना चाहते हैं। कुछ अफसरों ने अपने गृह राज्य में तैनाती का आवेदन दे रखा है तो कुछ अध्ययन अवकाश पर जाना चाहते हैं।
बीते कुछ हफ्तों के दौरान जिन अफसरों ने केंद्र सरकार के तहत विभिन्न स्थानों पर तैनाती ली है उनमें राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव सुनील मित्र, वस्त्र आयुक्त मनोज पंत, विशेष सचिव (उद्योग) एस.किशोर, कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथारिटी (केएमडीए) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पी.आर.वाभिष्कर व शहरी विकास मंत्रालय में प्रमुख सचिव पी.के.प्रधान जैसे लोग शामिल हैं। वाणिज्य कर आयुक्त एच.के. द्विवेदी (1988) को राज्य का नया मुख्य चुनाव अधिकारी बनाए जाने की चर्चा है। इस पर पर रहे देवाशीष सेन को पश्चिम बंगाल बिजली विकास निगम का प्रबंध निदेशक बनाया गया है।
एख आईएएस अफसर कहते हैं कि इस राज्य में काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को भी पांच हजार रुपए खर्च करने के लिए ऊपर से मंजूरी लेनी पड़ती है। ऊपर से हर काम में राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। एक अन्य अधिकारी कहते हैं कि हर आईएएस अधिकारी केंद्र में काम करना चाहता है। किसी भी काडर का अधिकारी कुछ साल तक राज्य सरकार के साथ काम करने के बाद केंद्र में जाना चाहता है। अबकी अगर आईएएस अफसरों का पलायन एक मुद्दा बन गया है तो इसकी वजह यह है कि सरकार के करीबी समझे जाने वाले अधिकारी भी बाहर जाने के लिए बेताब हैं।
यहां हालात ऐसे बन गए हैं कि दिल्ली में केंद्र सरकार के साथ डेपुटेशन की अवधि पूरी कर लेने वाले कम से कम दो अधिकारी राज्य में नहीं लौटना चाहते। इनमें से एक ने तो दो साल के अध्ययन अवकाश का आवेदन दे रखा है ताकि बंगाल नहीं लौटना पड़े।
फिलहार राज्य सरकार ने एक-एक अफसरों को दो-दो-तीन-तीन विभागों का जिम्मा सौंप रखा है। लेकिन इससे समस्या और जटिल हो रही है। अफसरों के पलायन से सरकार की हरी झंडी का इंतजार कर रहीं विभिन्न परियोजनाएं लटक गई हैं। अब भी लगभग एक दर्जन अधिकारी किसी तरह केंद्र में जाने के जुगाड़ में हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में इस समस्या के और गंभीर होने का अंदेशा है।
ताजा मामला दो अफसरों का है। 1984 बैच के आईएएस अफसर आर.डी.मीना दिल्ली में बंगाल के अतिरिक्त आवासीय आयुक्त बनाए गए हैं। इसी तरह स्वास्थ्य विभाग में परियोजना निदेशक रहे अनूप अग्रवाल के केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री शिशिर अधिकारी का निजी सचिव बनने की चर्चा है। इससे पहले बंगाल काडर के तीन अफसर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के साथ जुड़ गए थे। तृणमूल कांग्रेस के मंत्री भी राज्य के आईएएस अफसरों को अपने साथ रखना चाहते हैं। कुछ अफसरों ने अपने गृह राज्य में तैनाती का आवेदन दे रखा है तो कुछ अध्ययन अवकाश पर जाना चाहते हैं।
बीते कुछ हफ्तों के दौरान जिन अफसरों ने केंद्र सरकार के तहत विभिन्न स्थानों पर तैनाती ली है उनमें राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव सुनील मित्र, वस्त्र आयुक्त मनोज पंत, विशेष सचिव (उद्योग) एस.किशोर, कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथारिटी (केएमडीए) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पी.आर.वाभिष्कर व शहरी विकास मंत्रालय में प्रमुख सचिव पी.के.प्रधान जैसे लोग शामिल हैं। वाणिज्य कर आयुक्त एच.के. द्विवेदी (1988) को राज्य का नया मुख्य चुनाव अधिकारी बनाए जाने की चर्चा है। इस पर पर रहे देवाशीष सेन को पश्चिम बंगाल बिजली विकास निगम का प्रबंध निदेशक बनाया गया है।
एख आईएएस अफसर कहते हैं कि इस राज्य में काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को भी पांच हजार रुपए खर्च करने के लिए ऊपर से मंजूरी लेनी पड़ती है। ऊपर से हर काम में राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। एक अन्य अधिकारी कहते हैं कि हर आईएएस अधिकारी केंद्र में काम करना चाहता है। किसी भी काडर का अधिकारी कुछ साल तक राज्य सरकार के साथ काम करने के बाद केंद्र में जाना चाहता है। अबकी अगर आईएएस अफसरों का पलायन एक मुद्दा बन गया है तो इसकी वजह यह है कि सरकार के करीबी समझे जाने वाले अधिकारी भी बाहर जाने के लिए बेताब हैं।
यहां हालात ऐसे बन गए हैं कि दिल्ली में केंद्र सरकार के साथ डेपुटेशन की अवधि पूरी कर लेने वाले कम से कम दो अधिकारी राज्य में नहीं लौटना चाहते। इनमें से एक ने तो दो साल के अध्ययन अवकाश का आवेदन दे रखा है ताकि बंगाल नहीं लौटना पड़े।
फिलहार राज्य सरकार ने एक-एक अफसरों को दो-दो-तीन-तीन विभागों का जिम्मा सौंप रखा है। लेकिन इससे समस्या और जटिल हो रही है। अफसरों के पलायन से सरकार की हरी झंडी का इंतजार कर रहीं विभिन्न परियोजनाएं लटक गई हैं। अब भी लगभग एक दर्जन अधिकारी किसी तरह केंद्र में जाने के जुगाड़ में हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में इस समस्या के और गंभीर होने का अंदेशा है।
Wednesday, August 12, 2009
अब गांधी से दो-दो हाथ कर रहे हैं वामपंथी
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के सबसे बड़ी घटक माकपा ने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के खिलाफ लगता है अंतिम मोर्चा खोल दिया है। वैसे, तो गांधी के कार्यकाल के दौरान माकपा से उनका छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है। लेकिन अब उनके कार्यकाल के आखिरी दौर में माकपा ने उन पर अपनी संवैधानिक जिम्मेवारियों के निर्वाह में तटस्थ नहीं रहने का आरोप लगाते हुए उन पर हमले तेज कर दिए हैं। यह हमला इतना तीखा था कि राज्यपाल को मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और माकपा के प्रदेश सचिव विमान बसु, जो वाममोर्चा के अध्यक्ष भी हैं, को बाकायदा पत्र लिख कर यह सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने अपने कामकाज में हमेशा तटस्थता बरती है। बावजूद उसके माकपा सोची-समझी रणनीति के तहत गांधी पर हमले का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। माकपा के बाद अब वाममोर्चा में उसकी सहयोगी भाकपा भी हमलावर मूड में आ गई है। भाकपा महासचिव ए.बी. वर्द्धन ने भी राज्यपाल को राजनीतिक हिंसा की पूरी जानकारी लेने के बाद ही कोई टिप्पणी करने की नसीहत दे डाली।
दरअसल, विधानसभा में विपक्ष के नेता पार्थ चटर्जी की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने बीते सप्ताह राज्यपाल से मिल कर राजनीतिक हिंसा रोकने पर उनसे हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था। उन्होंने राज्यपाल को बताया था कि राज्य में हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए केंद्रीय हस्तक्षेप जरूरी है। उसी दिन वाममोर्चा विधायकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भी राज्यपाल से मिल कर राज्य में हिंसा फैलाने के लिए तृणमूल सांसदों व केंद्रीय मंत्रियों की ओर से भड़काऊ बयान देने की शिकायत की। प्रतिनिधि मंडल ने राजनीतिक हिंसा के लिए विपक्षी दलों को जिम्मेवार ठहराया था। उसके बाद ही राज्यपाल ने एक बयान जारी राजनीतिक हिंसा पर चिंता जताई थी और इसे रोकने के लिए राजनीतिक दलों की चुप्पी का भी जिक्र किया था। उसके बाद पहले वाममोर्चा की ओर से एक बयान जारी कर राज्यपाल पर पक्षपात करने का आरोप लगाया गया और बाद में माकपा राज्य समिति के सदस्य श्यामल चक्रवर्ती ने सार्वजनिक तौर पर राज्यपाल की आलोचना की।
माकपा ने गांधी के बयान को एकतरफा व पक्षपातपूर्ण करार दिया है। उसने मंगलकोट में हिंसा और लाठीचार्ज के लिए तृणमूल को जिम्मेदार ठहराया है। माकपा के राज्य सचिव विमान बसु ने आरोप लगाया है कि तृणमूल कांग्रेस सुनियोजित तरीके से राज्य में हिंसा फैला रही है। मंगलकोट में बाहरी लोगों को ले जाकर पुलिस पर हमला किया गया। इस पर टिप्पणी करते हुए तृणमूल कांग्रेस के पार्थ चटर्जी ने कहा कि सच्चाई से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ही माकपा नेता राज्यपाल के खिलाफ बेसिर-पैर के आरोप लगा रहे हैं।
रविवार को माकपा राज्य कमेटी के सदस्य व सीटू के वरिष्ठ नेता श्यामल चक्रवर्ती ने राज्यपाल पर हमला बोला। उनका कहना था कि राजनीतिक हिंसा पर राज्यपाल हमें तो बहुत उपदेश देते हैं, लेकिन वे तृणमूल कांग्रेस की ओर से फैलाई जा रही हिंसा पर चुप्पी साध लेते हैं। चक्रवर्ती ने गांधी के रवैए को अनुचित करार दिया। नंदीग्राम से लेकर अब तक के गांधी के बयानों का हवाला देते हुए माकपा नेता ने कहा कि उनका रवैया हमेशा पक्षपातपूर्ण रहा है। वे वाम मोर्चा और माकपा को ही कठघरे में खड़ा करने में लगे हैं।
इन हमलों के बाद राज्यपाल ने मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और माकपा के राज्य सचिव विमान बसु को पत्र भेज कर साफ किया है कि संवैधानिक पद का निर्वाह तटस्थ रह कर ही किया जाता है। वे निष्पक्ष होकर ही अपनी संवैधानिक जिम्मेवारी निभा रहे हैं। इसबीच, पार्टी के एक कार्यक्रम में शिरकत करने कोलकाता आए भाकपा महासचिव ए.बी. वर्द्धन ने कहा कि राज्यपाल को राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा की विस्तृत जानकारी हासिल करने के बाद ही कोई बयान जारी करना चाहिए। उनको कम से कम यह तो पता करना ही चाहिए कि हिंसा के लिए कौन जिम्मेवार है। उन्होंने कहा कि वाममोर्चा के प्रतिनिधिमंडल ने पहले ही राज्यपाल को बताया था कि तृणमूल नेता व कुछ केंद्रीय मंत्री के भड़काऊ बयानों से तनाव फैल रहा है। लेकिन गांधी ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की। वर्द्धन ने कहा कि राज्यपाल ने जिस तरह पक्षपातपूर्ण बयान जारी किया वह ठीक नहीं है।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि माकपा ने सोची-समझी रणनीति के तहत ही राज्यपाल पर हमले शुरू किए हैं। पार्टी यह साबित करने का प्रयास कर रही है कि विपक्ष की हिंसा को राज्यपाल का भी समर्थन हासिल है। ऐसे में यह सिलसिला अभी थमने के आसार कम ही हैं। जनसत्ता से
Sunday, August 9, 2009
ठहर-सा गया है कोलकाता
किसी जमाने में राजीव गांधी ने कलकत्ता को मरता हुआ शहर कहा था। तब उनकी इस टिप्पणी पर भद्रलोक कहे जाने वाले इस समाज ने काफी बवाल किया था। तब मरता हुआ था या नहीं, यह मुझे नहीं पता। मैं तब इस महानगर में आया ही नहीं था। लेकिन अब पंद्रह साल पुराने वाहनों को हटाने की मुहिम के तहत इस महीने की पहली तारीख से हजारों बसों, टैक्सियों और आटो रिक्शा यानी तिपहियों के सड़कों से गायब हो जाने से इस महानगर की रफ्तार जरूर थमक गई है। दक्षिण से उत्तर कोलकाता के बीच जमीन के नीचे चलने वाली मेट्रो रेल के विभिन्न स्टेशनों के बाहर अलग-अलग कालोनियों और मोहल्लों के लिए बने आटो स्टैंड अब सूने पड़े हैं। यात्री तो नहीं घटे, लेकिन सवारियां बेहद घट गई हैं। इनको देखते हुए एक पुराना गीत बरबस ही याद आता है---इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूं है....। पुराने बस मालिकों ने हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। अदालत सोमवार 10 मई को इस पर विचार करेगी। पहले यह सुनवाई चार मई को होनी थी। लेकिन टल गई।
पहले इस लेख का शीर्षक दिया था-ठहर गया है मेरा शहर। फिर लगा कि कोलकाता मेरा शहर तो कभी रहा ही नहीं। इस तथ्य के बावजूद कि बीते नौ वर्षों से यहीं रहता हूं। दफ्तर से लौटते हुए दक्षिण कोलकाता के टालीगंज मेट्रो स्टेशन तक तो आसानी से पहुंच जाता हूं । लेकिन बीते नौ-दस दिनों से इससे कोई डेढ़ किमी दूर स्थित अपने फ्लैट तक पहुंचने के लिए बाकायदा जंग लड़नी पड़ रही है। पहले जिस रूट पर कई दर्जन आटो चलते थे, अब वहां दो ही बचे हैं। कई दिन तो यह दूरी पैदल ही तय करनी पड़ी। अब दफ्तर से थके-हारे लौटने के बाद कौन घंटों लाइन में खड़ा हो कर अपनी बारी का इंतजार करे। दरअसल, भीड़-भाड़ और ट्रैफिक जाम के चलते कोलकाता मुझे कभी उतना पसंद नहीं आया। सिलीगुड़ी में रहते हुए दफ्तर के कामकाज से साल में तीन-चार बार यहां आना होता था। उस समय धर्मतल्ला इलाके में राजभवन के ठीक सामने बने भारतीय जीवन बीमा निगम के गेस्ट हाउस में ठहरता था। वहां से सुबह-सबेरे जो दफ्तर जाता था तो रात दस बजे के बाद ही वापसी होती थी। दो-तीन दिन में काम निपटाने के बाद धर्मतल्ला से ही बस पकड़ कर सिलीगुड़ी लौट जाता था। तब कभी सोचा तक नहीं था कि मुझे इसी शहर में बसना होगा। आखिर नौ साल तक रहना एक तरह से बसना ही तो है। गुवाहाटी से तबादले पर आने के बाद मेट्रो को ध्यान में रखते हुए टालीगंज इलाके में मकान लिया था। दफ्तर के बाकी साथी दमदम यानी एकदम उत्तरी इलाके में रहते थे। मेट्रो ने कभी दूरी महसूस नहीं होने दी। लेकिन नौ साल की इस सहूलियत और सुख पर इन नौ दिनों का दुख (सवारी नहीं होने का) बहुत भारी पड़ रहा है।
बीते नौ दिनों से कोलकाता में लाखों लोगों को उमस और गर्मी के बीच बस अड्डों और टैक्सी स्टैंड पर लंबी-लंबी कतारों में खड़े रहना पड़ रहा है। इन सबको को उम्मीद है कि शहर की यातायात प्रणाली जल्द ठीक होगी।
पुलिस इस महीने की पहली तारीख से ही 1993 से पहले बने वाहनों को ज़ब्त कर रही है। कोलकाता हाई कोर्ट ने जुलाई 2008 में शहरी इलाक़ों में ऐसे व्यावसायिक वाहनों के चलाने पर रोक लगा दी थी जो एक जनवरी 1993 से पहले पंजीकृत किए गए हों। पहले यह पाबंदी बीते साल 31 दिसंबर से लागू होनी थी। लेकिन सरकार ने कुछ समय और मांगा था। उसके बाद यह समयसीमा बढ़ा कर 31 जुलाई 2009 कर दी गई थी.
कोलकाता की सेवियर एंड फ़्रेंड ऑफ़ इन्वायरमेंट( सेफ़) के सर्वेक्षण के मुताबिक इन वाहनों को ज़ब्त करने के बाद से शहर के पर्यावरण में सुधार हुआ है और पिछले दो दशकों में इतना पर्यावरण इतना स्वच्छ कभी नहीं रहा।
लेकिन पर्यावरण के साथ लोगों की दिक्कतों का ख्याल रखना भी तो जरूरी है। इस मामले में न तो पुराने वाहन मालिक चेते और न ही सरकार ने कोई ध्यान दिया। अब आग लगने पर कुंआ खोदने की कहावत चरितार्थ करते हुए सरकार ने चार सौ नई बसें उतारने का दावा किया है। लेकिन यह जरूरत के मुकाबले बहुत कम है।
मुझे तो अब इस दिक्कत से निजात पाने के लिए 23 अगस्त का इंतजार है। इसकी वजह यह है कि उसी दिन टालीगंज से न्यू गड़िया के बीच मेट्रो की विस्तारित सेवा का उद्घाटन होना है। और मेरा फ्लैट इसी रूट में टालीगंज के बाद वाले स्टेशन से ही सटा है। तब तक तो मेट्रो से उतर कर घऱ पहुंचने के लिए रोज एक लड़ाई लड़नी होगी। यह तो मेरी बात हुई। लेकिन सब लोगों की किस्मत ऐसी कहां? सोचता हूं, और कुछ न सही मेट्रो के मामले में तो किस्मत का धनी हूं ही।
खेत ही बाड़ खाने पर उतारू है बंगाल में!
पश्चिम बंगाल में क्या खेत ही बाड़ को खाने पर उतारू है? बर्दवान जिले के मंगलकोट के पास शुक्रवार को पुलिस वालों ने जिस तरह तृणमूल कांग्रेस की रैली के लिए बने मंच पर चढ़ कर उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं पर लाठियां बरसाईं उससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या यहां माकपा और प्रशासन मिल कर बुद्धदेव सरकार की कब्र खोदने पर तुले हैं। माकपा का प्रदेश नेतृत्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी की टिप्पणियों के लिए दो दिनों से लगातार उन पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए उनकी खिंचाई कर रहा है। बंगाल में मुख्य विपक्षी दल के मंच पर पुलिस के चढ़ कर लाठी भांजने की हाल के वर्षों में यह शायद पहली घटना है।
पश्चिम बंगाल में बर्दवान जिले का मंगलकोट कस्बा राजनीतिक हिंसा के सवाल पर नंदीग्राम बनने की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। मंगलकोट में बीते दो महीने से माकपा के एक नेता की हत्या के मुद्दे पर माकपा काडर आक्रामक मूड में हैं। राजनीतिक हिंसा के सवाल पर पार्टी का प्रदेश नेतृत्व तो इतने आक्रामक मूड में है कि उसने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी से भी दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है। लोकसभा चुनावों के बाद बंगाल में राजनीतिक हिंसा का जो दौर शुरू हुआ है वह कहीं से थमता नहीं नजर आ रहा है। मंगलकोट ने इस मामले में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी हैं। इस मामले में उसने लालगढ़ को भी पीछे छोड़ दिया है।
मंगलकोट पर फिलहाल सरकार नहीं माकपा का राज है। कांग्रेस के कई विधायकों की बीते महीने वहां जम कर पिटाई हुई। उसके बाद कल मंगलकोट से काफी पहले तृणमूल कांग्रेस की एक रैली पर पुलिस ने जम कर लाठियां बरसाईं। तृणमूल वालों ने भी पुलिस पर पथराव किए। उसके बाद पुलिस के जवानों ने मंच पर चढ़ कर नेताओं की पिटाई की। अब पार्टी प्रमुख व रेल मंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को मंगलकोट का दौरा करने का एलान किया है। इससे इलाके में उत्तेजना और बढ़ने का अंदेशा है।
इसबीच, राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा पर राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी और माकपा में ठन गई है। गांधी ने एक बयान में सवाल उठाया था कि जब तमाम राजनीतिक दल हिंसा रोकने पर सहमत हैं तो आखिर इस पर अंकुश क्यों नहीं लग रहा है? उनका कहना था कि जो लोग कुछ करने की हालत में वे समुचित कदम नहीं उठा रहे हैं। राज्य सरकार से अवैध हथियारों की बिक्री रोकने और अपराधियों पर अंकुश लगाने का अनुरोध किया था। गांधी ने बंगाल में हिंसा जारी रहने पर गहरी चिंता जताई थी।
उन्होंने तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं से कहा था कि वे दलगत भावना से ऊपर उठ कर अपने-अपने संगठनों में हिंसक लोगों की पहचान करें और उन्हें कानून के हवाले करें।
गांधी ने अपने बयान में कहा था कि मुझे भरोसा है कि सरकार अवैध हथियारों के कारोबार को रोकने के लिए आगे आएगी। हिंसक लोगों पर नकेल लगाने के लिए तेजी के साथ कार्रवाई करेगी और लोगों में यह भरोसा पैदा करेगी कि उनकी सुरक्षा के साथ राजनीति नहीं जोड़ी जाएगी। राज्यपाल के इस बयान पर माकपा में तीखी प्रतिक्रया हुई। उसने ईंट का जवाब पत्थर से देने की तर्ज पर एक लिखित बयान में राज्यपाल को अपने संवैधानिक पद की गरिमा बनाए रखते हुए और तटस्थ रहने का सुझाव दिया। इसके अलावा भी बयान में कई बातें कही गईं थी। वैसे, माकपा और राज्यपाल में कोई पहली बार नहीं ठनी है। नंदीग्राम में हुई हिंसा पर राज्यपाल की टिप्पणी और फिर राजभवन में स्वेच्छा से बिजली की कटौती जैसे मुद्दों पर भी माकपा ने गांधी की जम कर खिंचाई की थी।
राज्यपाल की चिंता जायज थी। बीते बुधवार को तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा का एक प्रतिनिधिमंडल अलग-अलग उनसे मिला था। इन दोनों ने राज्य में उनसे राज्य में जारी हिंसा को रोकने की दिशा में पहल की अपील की थी। ऐसे में गांधी का यह सवाल गलत नहीं था कि अगर तमाम दल इसे रोकने के लिए कृतसंकल्प हैं तो आखिर यह रुक क्यों नहीं रही है। माकपा और तृणमूल कांग्रेस इस हिंसा के लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते रहे हैं। लेकिन दोनों शायद इस मामूली तथ्य को भूल गए हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती। इसी तरह दोनों दलों में हिंसा में मरने वाले अपने समर्थकों की तादाद बढ़ा-चढ़ा कर बताने की होड़ लगी है। अगर दोनों दलों के दावों को मान लें तो राज्य में बीते दो महीने से जारी इस हिंसा में मृतकों की तादाद दोगुनी हो जाएगी।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पूरा मामला खुद को इस हिंसा का शिकार बता कर सहानुभूति बटोरने और अपना राजनीतिक हित साधने का है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस हिंसा को रोकने की जिम्मेवारी प्रशासन व राज्य सरकार की है। लेकिन फिलहाल वह भी लालगढ़ की तरह मंगलकोट के मामले में भी फेल होती नजर आ रही है। ऐसे में मंगलकोट में सामान्य स्थिति बहाल होने के कोई आसार नहीं नजर आते।
पश्चिम बंगाल में बर्दवान जिले का मंगलकोट कस्बा राजनीतिक हिंसा के सवाल पर नंदीग्राम बनने की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। मंगलकोट में बीते दो महीने से माकपा के एक नेता की हत्या के मुद्दे पर माकपा काडर आक्रामक मूड में हैं। राजनीतिक हिंसा के सवाल पर पार्टी का प्रदेश नेतृत्व तो इतने आक्रामक मूड में है कि उसने राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी से भी दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है। लोकसभा चुनावों के बाद बंगाल में राजनीतिक हिंसा का जो दौर शुरू हुआ है वह कहीं से थमता नहीं नजर आ रहा है। मंगलकोट ने इस मामले में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी हैं। इस मामले में उसने लालगढ़ को भी पीछे छोड़ दिया है।
मंगलकोट पर फिलहाल सरकार नहीं माकपा का राज है। कांग्रेस के कई विधायकों की बीते महीने वहां जम कर पिटाई हुई। उसके बाद कल मंगलकोट से काफी पहले तृणमूल कांग्रेस की एक रैली पर पुलिस ने जम कर लाठियां बरसाईं। तृणमूल वालों ने भी पुलिस पर पथराव किए। उसके बाद पुलिस के जवानों ने मंच पर चढ़ कर नेताओं की पिटाई की। अब पार्टी प्रमुख व रेल मंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को मंगलकोट का दौरा करने का एलान किया है। इससे इलाके में उत्तेजना और बढ़ने का अंदेशा है।
इसबीच, राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा पर राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी और माकपा में ठन गई है। गांधी ने एक बयान में सवाल उठाया था कि जब तमाम राजनीतिक दल हिंसा रोकने पर सहमत हैं तो आखिर इस पर अंकुश क्यों नहीं लग रहा है? उनका कहना था कि जो लोग कुछ करने की हालत में वे समुचित कदम नहीं उठा रहे हैं। राज्य सरकार से अवैध हथियारों की बिक्री रोकने और अपराधियों पर अंकुश लगाने का अनुरोध किया था। गांधी ने बंगाल में हिंसा जारी रहने पर गहरी चिंता जताई थी।
उन्होंने तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं से कहा था कि वे दलगत भावना से ऊपर उठ कर अपने-अपने संगठनों में हिंसक लोगों की पहचान करें और उन्हें कानून के हवाले करें।
गांधी ने अपने बयान में कहा था कि मुझे भरोसा है कि सरकार अवैध हथियारों के कारोबार को रोकने के लिए आगे आएगी। हिंसक लोगों पर नकेल लगाने के लिए तेजी के साथ कार्रवाई करेगी और लोगों में यह भरोसा पैदा करेगी कि उनकी सुरक्षा के साथ राजनीति नहीं जोड़ी जाएगी। राज्यपाल के इस बयान पर माकपा में तीखी प्रतिक्रया हुई। उसने ईंट का जवाब पत्थर से देने की तर्ज पर एक लिखित बयान में राज्यपाल को अपने संवैधानिक पद की गरिमा बनाए रखते हुए और तटस्थ रहने का सुझाव दिया। इसके अलावा भी बयान में कई बातें कही गईं थी। वैसे, माकपा और राज्यपाल में कोई पहली बार नहीं ठनी है। नंदीग्राम में हुई हिंसा पर राज्यपाल की टिप्पणी और फिर राजभवन में स्वेच्छा से बिजली की कटौती जैसे मुद्दों पर भी माकपा ने गांधी की जम कर खिंचाई की थी।
राज्यपाल की चिंता जायज थी। बीते बुधवार को तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा का एक प्रतिनिधिमंडल अलग-अलग उनसे मिला था। इन दोनों ने राज्य में उनसे राज्य में जारी हिंसा को रोकने की दिशा में पहल की अपील की थी। ऐसे में गांधी का यह सवाल गलत नहीं था कि अगर तमाम दल इसे रोकने के लिए कृतसंकल्प हैं तो आखिर यह रुक क्यों नहीं रही है। माकपा और तृणमूल कांग्रेस इस हिंसा के लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते रहे हैं। लेकिन दोनों शायद इस मामूली तथ्य को भूल गए हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती। इसी तरह दोनों दलों में हिंसा में मरने वाले अपने समर्थकों की तादाद बढ़ा-चढ़ा कर बताने की होड़ लगी है। अगर दोनों दलों के दावों को मान लें तो राज्य में बीते दो महीने से जारी इस हिंसा में मृतकों की तादाद दोगुनी हो जाएगी।
यहां राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पूरा मामला खुद को इस हिंसा का शिकार बता कर सहानुभूति बटोरने और अपना राजनीतिक हित साधने का है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस हिंसा को रोकने की जिम्मेवारी प्रशासन व राज्य सरकार की है। लेकिन फिलहाल वह भी लालगढ़ की तरह मंगलकोट के मामले में भी फेल होती नजर आ रही है। ऐसे में मंगलकोट में सामान्य स्थिति बहाल होने के कोई आसार नहीं नजर आते।
Saturday, August 8, 2009
एक खामोश लेकिन सराहनीय क्रांति!
पश्चिम बंगाल के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार और माओवादी गतिविधियों के लिए अक्सर सुर्खियां बटोरने वाले पुरुलिया जिले में बीते कुछ महीनों से एक खामोश क्रांति हो रही है. लेकिन माओवादी गतिविधियों के तले दबी इस क्रांति को कभी राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खी नहीं मिल सकी है. यह क्रांति शुरू की है कुछ छात्राओं ने. इलाके के विभिन्न गांवों और तबकों में लंबे अरसे से जारी बाल विवाह की परंपरा के खिलाफ. अशिक्षा व पिछड़ेपन के चलते उस जिले की ज्यादातर गांवों में लड़कियां 12-13 साल की होते न होते ब्याह कर जबरन पिया के घर भेज दी जाती हैं.
लेकिन अब शिक्षा के प्रति बढ़ते ललक ने इलाके में नाबालिग लड़कियों को इस परंपरा के खिलाफ खड़ा कर दिया है. रेखा कालिंदी नामक एक युवती ने कुछ महीने पहले अपने मां-बाप और समाज के विरोध के बावजूद इस दिशा में पहल की थी. उसकी इस पहल में अब धीरे-धीरे कई लड़कियां शामिल हो गई हैं. उनके इस अभियान में प्रशासन भी उनकी मदद कर रहा है. यह साहसिक फैसला करने वाली तीन लड़कियों-रेखा कालिंदी,सुनीता महतो व अफसाना खातून से राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने हाल ही में राष्ट्रपति भवन में मुलाकात कर उनका हौसला बढ़ाया था. राष्ट्रपति ने इन लड़कियों के साहसिक कदम के बारे में जानकर उनको दिल्ली बुलवाया था.
इन तीनों के साहस ने इलाके की दूसरी लड़कियों को भी बाल विवाह के खिलाफ एकजुट कर दिया है. अब अक्सर ऐसे खबरें जिले के विभिन्न गांवों से आ रही हैं जहां लड़कियां मा-बांप की मर्जी के खिलाफ बाल विवाह से इंकार करते हुए पढ़ाई को तरजीह दे रही हैं. सबसे ताजा मामला जिले के झालदा दो नंबर ब्लाक के ओलदी गांव के निवासी निमाई कुमार की पुत्री अहिल्या का है. उस के पिता निमाई कुमार बीड़ी मजदूर हैं. पढ़ाई में दिलचस्पी के चलते दो साल पहले अहिल्या का दाखिला पातराहातु चाइल्ड लेबर स्कूल में हुआ था. इसी दौरान अचानक उसके पिता ने कोटशिला थाना इलाके के बड़तलिया में एक लड़के से उसका विवाह तय कर दिया. अहिल्या ने इस मामले की जानकारी अपने मित्रों को दी. इसके बाद यह बात उसके शिक्षकों तक पहुंच गई. स्कूल के शिक्षकों ने अहिल्या के पिता को काफी समझाया-बुझाया और यह विवाह रोकने में कामयाब हो गए. अहिल्या के पिता की दलील है कि मजदूरी से पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करना काफी मुश्किल है. इसलिए उन्होंने अहिल्या का विवाह तय कर दिया था ताकि उसे इस दुख से मुक्ति मिल सके.
दूसरी ओर, जिले के सहायक श्रम आयुक्त प्रसेनजीत कुंडू का कहना है कि पुरुलिया के पिछड़े क्षेत्रों में नारी सशक्तिकरण व बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है. इसी वजह से अब लोग जागरूक हो रहे हैं. विवाह रद्द होने के बाद अहिल्या फिर से स्कूल जाने लगी. वह अब पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है. अहिल्या कहती है कि मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं ताकि घर की गरीबी दूर कर सकूं. इन छोटी लड़कियों के इस अभियान ने सरकार व बाल विवाह रोकने का दावा करने वाले तमाम गैर-सरकारी संगठनों को आईना तो दिखा ही दिया है.
Friday, August 7, 2009
काश! मोबाइल और पहले आया होता
(आज से तीन दिन बाद यानी दस तारीख को ब्लॉग लिखते तीन महीने पूरे हो जाएंगे. यह ब्लॉग की सौवीं पोस्ट है. ब्लॉग में आंकड़ों के लिहाज से मुझे अगर तेज नहीं तो बहुत सुस्त भी नहीं कहा जा सकता. सैकड़ा चाहे क्रिकेट में रनों का हो या फिर ब्लॉग में पोस्ट्स का, हमेशा अहम होता है. इसलिए सोचा इसमें राजनीति की बजाय कुछ पुराने अनुभव ही लिख दूं. कौन जाने किसी मित्र की नजर पड़ जाए इस पोस्ट पर.)
काश! मोबाइल और पहले आया होता. काश! आज की तरह ई-मेल और चैट का दौर और कुछ पहले आ गया होता. अगर इन दोनों में से कोई भी एक चीज दो दशक पहले हुई होती तो मुझे जीवन के कुछ बेहतरीन दोस्तों से बिछड़ना नहीं पड़ता. पत्रकारिता के लंबे अनुभव ने बताया है कि जीवन में बेहतर लोग कैरियर के शुरूआती दौर में ही मिलते हैं. अब ऐसा है या नहीं, नहीं जानता. इसकी वजह यह है कि अपने कुछ पूर्व सहयोगियों की नजर में मैं मुख्यधारा की पत्रकारिता में नहीं हूं. दिल्ली या हिंदी पट्टी में कभी नौकरी नहीं की, इसीलिए. मेरा अब तक का समय बंगाल, पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, भूटान और नेपाल की रिपोर्टिंग करते ही बीता है. लेकिन दिल्ली में अब कई अहम पदों तक पहुंचे लोगों को लगता है कि यह पत्रकारिता भी कोई पत्रकारिता है लल्लू. बहरहाल, मुझे इसका कोई दुख नहीं है. अब तक जो भी काम किया, उससे पूरी तरह संतुष्ट हूं. सही है कि जीवन में ज्यादा मौके नहीं मिले. जो मिले भी उनको भुनाने में कामयाब नहीं रहा. शायद हिंदी पट्टी या कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता नहीं की थी--यही वजह रही होगी. लेकिन जब भी जहां काम किया मन लगा कर किया. बीते 18 वर्षों से ऐसे अखबार में हूं जहां लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी है. जो भी लिखा, जस का तस छपा. राजनीति के इतर विषयों मसलन पर्यावरण, सामाजिक सरोकार और क्रिकेट पर भी खूब लिखा. क्रिकेट के एकदिनी और आईपीएल के कई मैच कवर किए इसी अखबार के लिए. अब तक जो किया उससे संतुष्ट हूं. अपनी खबरों की कतरनें रखना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था. अब न तो इतनी जगह है और न ही इसकी जरूरत. जरूरत की चीजें तो वैसे भी घर के कंप्यूटर में दर्ज हैं.
बहरहाल, मैं बात कर रहा था शुरूआती दौर की. सिलीगुड़ी से छपने वाले जनपथ समाचार में तीन साल की नौकरी के बाद गुवाहाटी से छपने वाले पूर्वांचल प्रहरी की लांचिग टीम के सदस्य के तौर पर मार्च, 1989 में जब गुवाहाटी पहुंचा तो वहां माहौल ही कुछ अलग था. देश के विभिन्न हिस्सों से आए युवा व प्रशिक्षु पत्रकारों के चलते वह टीम सही मायने में एक राष्ट्रीय टीम बन गई थी. बाद में हालांकि कुछ लोग सेंटिनल समूह के हिंदी दैनिक में चले गए तो कुछ गुवाहाटी को ही छोड़ गए. लेकिन वहां रहने वालों से मित्रता जस की तस रही. होली-दीवाली, तीज-त्योहार में एक-दूसरे के घर आना-जाना चलता रहता था. अक्सर ऐसी जुटान मेरे दो कमरे के किराए के असम टाइप मकान में होती थी. असम टाइप मकान का मतलब दीवारें टाट खड़ी कर उन पर सीमेंट की हल्की परत और ऊपर छत के जगह टीन. लेकिन तब वही महल लगता था. आखिर घर से पहली बार निकल कर अपनी कमाई से मकान किराए पर लेने का सुख ही कुछ और होता है. वहां बाथरूम दूर था. पानी की किल्लत थी. फिर भी महफिलें खूब जमीं. उसी मकान में दिल्ली से आए पत्रकार भी जुटते थे कई बार. उनमें से कुछ से अब भी संबंध हैं, कुछ रखना नहीं चाहते.
उसी दौर में विवेक पचौरी, प्रशांत, अरुण अस्थाना, आलोक जोशी और राकेश सक्सेना समेत कितने ही लोग आए थे गुवाहाटी. लेकिन उनमें से ज्यादातर नए आशियाने की तलाश में जल्दी ही लौट गए. सेंटिनल में काम करने वाले जयप्रकाश दंपती (जयप्रकाश मिश्र और उनकी पत्नी मधु) तो हमारे अजीज थे. बाद में एक बहुत प्यारी बेटी हुई थी उनको. बाद में वे गुवाहाटी से चले गए. उसके बाद बाद उनसे कोई संपर्क ही नहीं हो सका. वे गया के ही थे और उन्होंने प्रेम विवाह किया था. बाद में उड़ती-सी खबर सुनी कि जयप्रकाश को वहीं सरकारी नौकरी मिल गई है शायद.
फुर्सत के क्षणों में अजीजों का यह बिछोह बहुत सालता है. सेंटिनल में ही थे सुधीर सुधाकर, जो बाद में दिल्ली, बरेली और कई दूसरी जगहों पर घूमते हुए फिलहाल बी.ए.जी (अब शायद उसके न्यूज चैनल) में जमे हैं. अरुण अस्थाना बीबीसी होते हुए मुंबई में हैं और अक्सर बात होती है उनसे. लेकिन बाकी लोग एक बार बिछड़े तो फिर मिले ही नहीं. इनमें ही थे पूर्वांचल प्रहरी के कार्यकारी संपादक के.एम अग्रवाल, जो गोरखपुर के थे. अमृत प्रभात (इलाहाबाद) में लंबा अरसा बिताने के बाद वे गुवाहाटी आए थे. उनकी तरह ही कल्याण जायसवाल भी इलाहाबाद के थे.
पूर्वांचल में मार्केंटिग विभाग में काम करने वाली सुषमा सिंह और मेरी पत्नी के बीच काफी पटती थी. लेकिन सारनाथ में शादी के बाद वह मार्च, 1991 में गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर आखिरी बार मिली थी. उसके बाद रिपोर्टिंग के लिए बनारस जाने पर मैंने उसकी तलाश भी की. लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिला. वहीं एक पंजाबी कंपोजिटर थी सुरेखा सागर. काफी शर्मीली और सुंदर. हमारे फोटोग्राफर गोपाल मिश्र ने दफ्तर के नीचे बनी कैंटीन में चाय पीते हुए उससे पहली बार औपचारिक परिचय कराया था. फिर तो हमारी जो जमी कि पूछिए मत. किसी से ज्यादा बात नहीं करने वाली सुरेखा और मेरे बीच दुनिया-जहान के मुद्दों पर घंटों बातचीत होती थी. बाद में हमलोग एक बार उसके घर भी गए. सुरेखा के पिता नूनमाटी स्थित रिफाइनरी में काम करते थे. सुरेखा की शादी भी अमेरिका में बसे किसी एनआरआई से हो गई थी. तब से उसके बारे में भी कोई सूचना नहीं मिली.
तब दफ्तर के बाद समय काटने के लिए लोगों से मिलने-जुलने के अलावा कोई और साधन नहीं था. सरकारी दूरदर्शन अपने समय पर ही कार्यक्रम दिखाता था. बाकी कुछ था नहीं. उन दिनों की ही बात है. हर इतवार को सुबह एक सीरियल आता था-फिर वही तलाश. घर में तो टीवी था नहीं. लेकिन यह सीरियल शुरू होते ही हम मकान मालिक के घर भागते थे. हम पति-पत्नी ने शायद ही कोई एपीसोड मिस किया हो. हफ्ते में एक ही दिन तो आता था. बाद में लोग इधर-उधर बिछड़ते गए. जो बचे उनमें राजनीति घर करने लगी. जनसत्ता का कोलकाता संस्करण निकलने वाला था. कई लोग वहां चले गए. मुझे भी सिलीगुड़ी से काम करने का आफर मिला. घर लौटने के लोभ में मैं वहां चला आया. लेकिन अब भी कुछ मित्रों की यादें सालती हैं. बाद में यही सीखा कि उस समय की मित्रता निश्छल थी. आजकल की पत्रकारिता में तो मुंह में राम बगल में छुरी वाले मित्र ही ज्यादा मिलते हैं. काश! वो दिन फिर लौट आते. या फिर उन मित्रों में दो-चार फिर मिल जाते. उनके साथ बैठकर नब्बे के दशक की शुरूआत के उन दिनों को एक बार फिर जी लेता.
काश! मोबाइल और पहले आया होता. काश! आज की तरह ई-मेल और चैट का दौर और कुछ पहले आ गया होता. अगर इन दोनों में से कोई भी एक चीज दो दशक पहले हुई होती तो मुझे जीवन के कुछ बेहतरीन दोस्तों से बिछड़ना नहीं पड़ता. पत्रकारिता के लंबे अनुभव ने बताया है कि जीवन में बेहतर लोग कैरियर के शुरूआती दौर में ही मिलते हैं. अब ऐसा है या नहीं, नहीं जानता. इसकी वजह यह है कि अपने कुछ पूर्व सहयोगियों की नजर में मैं मुख्यधारा की पत्रकारिता में नहीं हूं. दिल्ली या हिंदी पट्टी में कभी नौकरी नहीं की, इसीलिए. मेरा अब तक का समय बंगाल, पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, भूटान और नेपाल की रिपोर्टिंग करते ही बीता है. लेकिन दिल्ली में अब कई अहम पदों तक पहुंचे लोगों को लगता है कि यह पत्रकारिता भी कोई पत्रकारिता है लल्लू. बहरहाल, मुझे इसका कोई दुख नहीं है. अब तक जो भी काम किया, उससे पूरी तरह संतुष्ट हूं. सही है कि जीवन में ज्यादा मौके नहीं मिले. जो मिले भी उनको भुनाने में कामयाब नहीं रहा. शायद हिंदी पट्टी या कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता नहीं की थी--यही वजह रही होगी. लेकिन जब भी जहां काम किया मन लगा कर किया. बीते 18 वर्षों से ऐसे अखबार में हूं जहां लिखने-पढ़ने की पूरी आजादी है. जो भी लिखा, जस का तस छपा. राजनीति के इतर विषयों मसलन पर्यावरण, सामाजिक सरोकार और क्रिकेट पर भी खूब लिखा. क्रिकेट के एकदिनी और आईपीएल के कई मैच कवर किए इसी अखबार के लिए. अब तक जो किया उससे संतुष्ट हूं. अपनी खबरों की कतरनें रखना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था. अब न तो इतनी जगह है और न ही इसकी जरूरत. जरूरत की चीजें तो वैसे भी घर के कंप्यूटर में दर्ज हैं.
बहरहाल, मैं बात कर रहा था शुरूआती दौर की. सिलीगुड़ी से छपने वाले जनपथ समाचार में तीन साल की नौकरी के बाद गुवाहाटी से छपने वाले पूर्वांचल प्रहरी की लांचिग टीम के सदस्य के तौर पर मार्च, 1989 में जब गुवाहाटी पहुंचा तो वहां माहौल ही कुछ अलग था. देश के विभिन्न हिस्सों से आए युवा व प्रशिक्षु पत्रकारों के चलते वह टीम सही मायने में एक राष्ट्रीय टीम बन गई थी. बाद में हालांकि कुछ लोग सेंटिनल समूह के हिंदी दैनिक में चले गए तो कुछ गुवाहाटी को ही छोड़ गए. लेकिन वहां रहने वालों से मित्रता जस की तस रही. होली-दीवाली, तीज-त्योहार में एक-दूसरे के घर आना-जाना चलता रहता था. अक्सर ऐसी जुटान मेरे दो कमरे के किराए के असम टाइप मकान में होती थी. असम टाइप मकान का मतलब दीवारें टाट खड़ी कर उन पर सीमेंट की हल्की परत और ऊपर छत के जगह टीन. लेकिन तब वही महल लगता था. आखिर घर से पहली बार निकल कर अपनी कमाई से मकान किराए पर लेने का सुख ही कुछ और होता है. वहां बाथरूम दूर था. पानी की किल्लत थी. फिर भी महफिलें खूब जमीं. उसी मकान में दिल्ली से आए पत्रकार भी जुटते थे कई बार. उनमें से कुछ से अब भी संबंध हैं, कुछ रखना नहीं चाहते.
उसी दौर में विवेक पचौरी, प्रशांत, अरुण अस्थाना, आलोक जोशी और राकेश सक्सेना समेत कितने ही लोग आए थे गुवाहाटी. लेकिन उनमें से ज्यादातर नए आशियाने की तलाश में जल्दी ही लौट गए. सेंटिनल में काम करने वाले जयप्रकाश दंपती (जयप्रकाश मिश्र और उनकी पत्नी मधु) तो हमारे अजीज थे. बाद में एक बहुत प्यारी बेटी हुई थी उनको. बाद में वे गुवाहाटी से चले गए. उसके बाद बाद उनसे कोई संपर्क ही नहीं हो सका. वे गया के ही थे और उन्होंने प्रेम विवाह किया था. बाद में उड़ती-सी खबर सुनी कि जयप्रकाश को वहीं सरकारी नौकरी मिल गई है शायद.
फुर्सत के क्षणों में अजीजों का यह बिछोह बहुत सालता है. सेंटिनल में ही थे सुधीर सुधाकर, जो बाद में दिल्ली, बरेली और कई दूसरी जगहों पर घूमते हुए फिलहाल बी.ए.जी (अब शायद उसके न्यूज चैनल) में जमे हैं. अरुण अस्थाना बीबीसी होते हुए मुंबई में हैं और अक्सर बात होती है उनसे. लेकिन बाकी लोग एक बार बिछड़े तो फिर मिले ही नहीं. इनमें ही थे पूर्वांचल प्रहरी के कार्यकारी संपादक के.एम अग्रवाल, जो गोरखपुर के थे. अमृत प्रभात (इलाहाबाद) में लंबा अरसा बिताने के बाद वे गुवाहाटी आए थे. उनकी तरह ही कल्याण जायसवाल भी इलाहाबाद के थे.
पूर्वांचल में मार्केंटिग विभाग में काम करने वाली सुषमा सिंह और मेरी पत्नी के बीच काफी पटती थी. लेकिन सारनाथ में शादी के बाद वह मार्च, 1991 में गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर आखिरी बार मिली थी. उसके बाद रिपोर्टिंग के लिए बनारस जाने पर मैंने उसकी तलाश भी की. लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिला. वहीं एक पंजाबी कंपोजिटर थी सुरेखा सागर. काफी शर्मीली और सुंदर. हमारे फोटोग्राफर गोपाल मिश्र ने दफ्तर के नीचे बनी कैंटीन में चाय पीते हुए उससे पहली बार औपचारिक परिचय कराया था. फिर तो हमारी जो जमी कि पूछिए मत. किसी से ज्यादा बात नहीं करने वाली सुरेखा और मेरे बीच दुनिया-जहान के मुद्दों पर घंटों बातचीत होती थी. बाद में हमलोग एक बार उसके घर भी गए. सुरेखा के पिता नूनमाटी स्थित रिफाइनरी में काम करते थे. सुरेखा की शादी भी अमेरिका में बसे किसी एनआरआई से हो गई थी. तब से उसके बारे में भी कोई सूचना नहीं मिली.
तब दफ्तर के बाद समय काटने के लिए लोगों से मिलने-जुलने के अलावा कोई और साधन नहीं था. सरकारी दूरदर्शन अपने समय पर ही कार्यक्रम दिखाता था. बाकी कुछ था नहीं. उन दिनों की ही बात है. हर इतवार को सुबह एक सीरियल आता था-फिर वही तलाश. घर में तो टीवी था नहीं. लेकिन यह सीरियल शुरू होते ही हम मकान मालिक के घर भागते थे. हम पति-पत्नी ने शायद ही कोई एपीसोड मिस किया हो. हफ्ते में एक ही दिन तो आता था. बाद में लोग इधर-उधर बिछड़ते गए. जो बचे उनमें राजनीति घर करने लगी. जनसत्ता का कोलकाता संस्करण निकलने वाला था. कई लोग वहां चले गए. मुझे भी सिलीगुड़ी से काम करने का आफर मिला. घर लौटने के लोभ में मैं वहां चला आया. लेकिन अब भी कुछ मित्रों की यादें सालती हैं. बाद में यही सीखा कि उस समय की मित्रता निश्छल थी. आजकल की पत्रकारिता में तो मुंह में राम बगल में छुरी वाले मित्र ही ज्यादा मिलते हैं. काश! वो दिन फिर लौट आते. या फिर उन मित्रों में दो-चार फिर मिल जाते. उनके साथ बैठकर नब्बे के दशक की शुरूआत के उन दिनों को एक बार फिर जी लेता.
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