Saturday, October 25, 2014

छोड़ा मद्रास था, लौटा चेन्नई

यूं तो अपने जीवन में बचपन से ही अनेक यात्राएं की हैं. बहता पानी निर्मला की तर्ज पर यात्रा करना मुझे हमेशा अच्छा लगता था. पिता जी के रेलवे की नौकरी में होने ने इस काम को कुछ आसान बना दिया. कुछ इस तरह की रेलवे का पास मिलने की वजह से ट्रेन का किराया बच जाता था. वही पैसे घूमने-फिरने के काम आ जाते थे. कभी पढ़ाई तो कभी कालेज में दाखिले के लिए उत्तर से दक्षिण भारत तक की कई यात्राएं हुईं. अस्सी के दशक में तो तब के मद्रास (अब चेन्नई) में कोई चार साल रहा भी. लेकिन अक्तूबर, 1986 में न जाने किस घड़ी में वह महानगर छोड़ा कि दोबारा जाने का मौका ही नहीं मिल सका था. जून, 2000 में गुवाहाटी से स्थानांतरित होकर कोलकाता पहुंचने के बाद लगा कि अब मद्रास के कुछ करीब आ गया हूं. शायद अब जाने का मौका लगे. लेकिन नौकरी और दुनियादारी के लाख झमेलों ने इन यात्राओं को सिलीगुड़ी, बनारस, सिवान और पुरी तक ही सीमित कर दिया था. उसके बाद बेटी की पढ़ाई, इंजीनियरिंग कालेज में उसके दाखिले और भारी खर्चों की वजह से चाहते हुए भी कहीं निकलना नहीं हो सका था. पिछले साल जरूर आगरा और उत्तराखंड के दो सप्ताह के सफर पर निकला था. लेकिन दक्षिण भारत हमेशा आकर्षित करता रहा. अपने मित्र अंबरीश जी (जनसत्ता के पूर्व उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख) का यात्रा वृत्तांत पढ़ कर दक्षिण की ओर जाने की इच्छा बलवती होती रही. लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था. आखिर संयोग बना इस साल सितंबर में. महीनों की प्लानिंग, ट्रेन के टिकट और बाकी तमाम औपचारिकताओं को पूरा करते हुए दिन महीने बन कर बीतते रहे और आखिर वह दिन आ ही गया जब हावड़ा से चेन्नई की ट्रेन पकड़नी थी. हावड़ा से कोरोमंडल एक्सप्रेस अपने तय समय से ही रवाना हुई. 28 साल पहले इसी ट्रेन से मद्रास से लौटा था. अब फिर उसी ट्रेन से वहीं जा रहा था. नोस्टालजिक होना लाजिमी था. बीच के तीन दशक यादों से न जाने कहां हवा हो गए और उस शहर में बिताए दिनों की याद एकदम ताजी हो गई. लग रहा था जैसे कल की ही बात हो. लंबी यात्रा होने की वजह से सामान काफी था और दक्षिण भारत में खाने-पीने की दिक्कतों को ध्यान में रखते हुए पत्नी ने खाने का काफी सामान भी बना-बांध लिया था. भुवनेश्वर में रात का खाना खा कर सब लोग सोने चले गए। एसी टू के कोच में तीन सीटें तो हमारी ही थीं. चौथी पर एक दक्षिण भारतीय युवक था जो अपने मोबाइल पर लगातार तमिल में किसी से बात किए जा रहा था. सुबह विशाखापत्तनम में आंख खुली. घड़ी देखी तो साढ़े चार बजे थे. चाय पीने की तलब हुई. लेकिन नींद भी आ रही थी. इसलिए चाय की बजाय नींद को तरजीह देते हुए चादर तान कर फिर लंबा हो गया. लेकिन एक बार नींद उचट जाए तो फिर आती कहां हैं. अपनी बर्थ पर लेटे हुए कोई तीन दशक पहले के चेहरे आंखों के आगे नाचने लगे. पता नहीं सब लोग कहां होंगे, मुलाकात होगी भी या नहीं, लोग वैसे ही होंगे या बदल गए होंगे-----इन सवालों से जूझते हुए बाहर झांका तो देखा ट्रेन राजमहेंद्री स्टेशन पहुंच रही है. सिर झटक कर मैं दक्षिण गंगा गोदावरी को देखने के लिए उठ कर बैठ गया. बेटी को भी जगा दिया था ताकि वो गोदावरी के चौड़े पाट को निहार सके. उसे पहले से ही इस नदी के बारे में विस्तार से बता रखा था. सो, वह भी ऊपर की बर्थ से नीच उतर आई. गोदावरी का पानी कुछ घट गया था लेकिन उसके पाट पहले की तरह ही चौड़े थे. आगे दस बजे विजयवाड़ा पहुंचे. वहां नीचे उतर कर चाय पी. पत्नी और बेटी के लिए खाने-पीने का कुछ सामान खरीदा. कोरोमंडल एक्सप्रेस विजयवाड़ा से रवाना होने के बाद कोई सात घंटे बाद सीधे मद्रास ही रुकती है. दिन का यह सफर उबाऊ होता है. लेकिन पत्नी और बेटी की चूंकि यह पहली दक्षिण यात्रा थी, इसलिए उनमें भारी उत्साह था. खैर, शाम पांच बजे चेन्नई सेंट्रल पहुंचे. वहां से टैक्सी पर सामान लाद कर सीधे होटल, जो स्टेशन से ज्यादा दूर नहीं था. लेकिन मेट्रो रेल परियोजना ने स्टेशन के आसपास के इलाके के ट्रैफिक को इतना बेतरतीब कर दिया है कि होटल पहुंचने के लिए लंबा यू-टर्न लेना पड़ा. होटल के कमरे में पहुंचने के बाद थकान हावी होने लगी. नहा-धोकर चाय पीने के बाद कल की योजना बनने लगी. डिनर जल्दी निपटा कर बिस्तर पर गए तो नींद ने तुरंत आगोश में ले लिया.

Friday, May 2, 2014

ब्लागरों को पहचान दिलाता बॉब्स

दुनिया भर से जर्मन रेडियो सेवा डॉयचे वेले के पाठकों ने तीन हजार से ज्यादा ऑनलाइन अभियानों और ब्लॉगों को नामांकित किया है. अंतरराष्ट्रीय जूरी ने इनमें से 14 भाषाओं में वोटिंग के लिए खास ब्लॉग चुने हैं. अब आप इनमें से विजेता तय कर सकते हैं.बॉब्स 2014 के लिए ऑनलाइन वोटिंग 7 मई तक की जा सकती है. इस साल भी आप तय कर सकते हैं कि कौन से ब्लॉग या ऑनलाइन मुहिम को यूजर इनाम मिलना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय जूरी छह मुख्य श्रेणियों में ब्लॉग और ऑनलाइन मुहिम के विजेता चुनेगी. यह प्रक्रिया वोटिंग से अलग होती है और मई में जज तय करेंगे कि किस भाषा के किस ब्लॉग को वह इनाम देना चाहते हैं. आप यहां http://thebobs.com/hindi/वोट दे सकते हैं. जूरी इनाम जीतने वाले ब्लॉगरों को 30 जून से 2 जुलाई तक डॉयचे वेले ग्लोबल मीडिया फोरम के लिए बॉन बुलाया जाएगा. बॉब्स की शुरुआत 2004 में हुई. इसमें ऐसे प्रोजेक्ट शामिल किए गए हैं जिनमें पारदर्शिता लाना मुख्य मुद्दा है और जो अपनी भाषा या अपने इलाके से ऊपर उठकर इंटरनेट की अहमियत का अहसास दिलाते हैं. प्रतियोगिता 14 भाषाओं में होती है, तुर्की, हिन्दी, जर्मन, अंग्रेजी, चीनी, इंडोनेशियाई, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, रूसी, स्पेनी, यूक्रेनी, बंगाली और फ्रेंच. पिछले साल बेहतरीन ब्लॉग के विजेता बने चीन के लेखक ली चेंगपेंग. इससे पहले क्यूबा की कार्यकर्ता योआनी सांचेस, ईरान के अरश सिगर्ची और लीना बेन मेनी ने पुरस्कार जीते हैं. वोटिंग में अपने पसंदीदा ब्लॉगर को जिताने के लिए आप 24 घंटों में एक बार एक श्रेणी में वोट कर सकते हैं. सबसे ज्यादा वोटों वाला ब्लॉग या वेबसाइट को “जनता की पसंद” घोषित किया जाएगा. वोटिंग के लिए बिलकुल नामांकन की ही तरह आप फेसबुक, ट्विटर या डीडब्ल्यू पर अपना अकाउंट बनाकर वोट कर सकते हैं. अगर और जानकारी चाहिए तो इसके बारे में जानकारी नियम वाले पेज पर पढ़ी जा सकती है. 7 मई को पता चलेगा कि कौनसी श्रेणी में कौनसी वेबसाइट जीती. जूरी सदस्य जिन ब्लॉगरों को चुनेंगे, वह आएंगे जून में जर्मनी और डॉयचे वेले बॉन में पुरस्कार समारोह में हिस्सा लेंगे. जनता की पसंद से जीतने वाले ब्लॉगरों को सर्टिफिकेट और बैज भेजे जाएंगे जो आप अपनी वेबसाइट पर लगा सकते हैं. बर्लिन में चार और पांच मई दे दिन जूरी विजेताओं का चयन करेगी. जूरी पुरस्कार कुल छह श्रेणियों के लिए चुने जाएंगे जिसमें प्रतियोगिता बॉब्स में चुने गए सभी भाषाओं के ब्लॉग्स के बीच होगी. दो दिनों तक जूरी बहस करेगी कि कौन सा ब्लॉग सबसे अच्छा और श्रेणी में बेहतरीन है. इसके बाद बहुमत के आधार पर फैसला किया जाता है. बॉब्स के पन्ने पर सभी नामांकित वेबसाइट के साथ उनके बारे में जानकारी आपको मिल जाएगी. ब्लॉग, वेबसाइट, माइक्रोब्लॉग, वीडियो और पॉडकास्ट की मदद से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा मिलता है. यह हाल फिलहाल में होने वाली घटनाओं का विश्लेषण करती हैं या दूर दराज और पिछड़े इलाकों से हमें खबरें देती हैं. बॉब्स की रूसी जज आलेना पोपोवा कहती हैं, "रूस में जनता जैसे कई सालों से सोई हुई थी. हर किसी को लगता था कि उसे अकेले ही हालात से लड़ना होगा. ऑनलाइन अभियानों की वजह से अब पता चला है कि रूसी समाज बदलाव के लिए तैयार है. हम एक साथ होकर कुछ कर सकते हैं. इसे सरकार का प्रोपोगेंडा भी खत्म नहीं कर पाएगा. 2011 में संसदीय चुनावों के बाद से ही ऑनलाइन अभियानों का असर दिख रहा है." अपने शहर में पोपोवा नागरिकों की और हिस्सेदारी, पारदर्शिता और राजनीति पर निगरानी पर काम करती हैं. इंटरनेट में दुनिया भर के लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पारदर्शिता के लिए काम कर रहे हैं, यह कहना है डॉयचे वेले की प्रोग्राम डायरेक्टर गेर्डा मॉयर का. "लेकिन इंटरनेट पर जासूसी होती है और नियंत्रण रखा जाता है और इस प्रतियोगिता में कई अभियान इसकी आलोचना करते हैं. वह चाहते हैं कि डिजिटल जासूसी खत्म हो." मॉयर बॉब्स प्रतियोगिता में शामिल कुछ अभियानों की मिसाल देती हैं, जैसे इंटरसेप्ट, जिसे एडवर्ड स्नोडेन के करीबी ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने शुरू किया है या सेंसर के खिलाफ काम करने वाली वेबसाइट लैंटर्न या यूक्रेन की यूरोमैदान. जर्मन भाषी देशों में केऑस कंप्यूटर क्लब और थ्रीमा ऐसे संगठन हैं जो यूजर की जानकारी की निजता सुरक्षित करते हैं. डॉयचे वेले बॉब्स के मुख्य पार्टनरों में भारत से वेबदुनिया के अलावा यूएनआई और अन्य देशों से ग्लोबल वॉसेस, टेरा, माइनेट और चाईना डिजिटल टाइम्स शामिल हैं.

Monday, March 3, 2014


असली या कागजी प्रभाकर मणि तिवारी जनसत्ता 27 फरवरी, 2014 : कुछ समय पहले ‘जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं’ के संदेश के साथ फोन करने वाले मित्र ने आखिर वह सवाल पूछ ही लिया, जिसे हर साल झेलना पड़ता है। उन्होंने पूछा कि आपका यह जन्मदिन असली है या कागजी! अब उसे क्या और कितनी बार समझाता! मैंने कहा कि यही मेरी असली जन्मतिथि है। यों, मित्र का सवाल मुझे बुरा भले लगा, लेकिन यह जायज ही था। अपने समकालीन जितने भी मित्रों, सहकर्मियों को जन्मदिन की बधाई देता हूं, अक्सर सुनने को मिलता है कि यार, मेरी असली जन्मतिथि तो फलां तारीख को है। यह तो मां-बाबूजी ने हाईस्कूल का आवेदन भरते समय लिखवा दिया था। चारों ओर देखने के बाद लगता है कि किसी की उम्र से दो साल गायब हैं तो किसी से चार साल। एक परिचित की तो असली और कागजी जन्मतिथि में पूरे आठ साल का हेरफेर था। अट्ठावन की जगह छियासठ की उम्र में वे इसी साल जनवरी में सेवानिवृत्त हुए। दो साल पहले से इतने बीमार चल रहे थे कि दफ्तर तक नहीं जा पाते थे। बीच में तो दुनिया से ही निकल जाने का अंदेशा हो गया था! एकाध बार दफ्तर गए भी तो पत्नी को साथ लेकर। मेरी भी असली और कागजी जन्मतिथि अलग-अलग हैं। लेकिन दूसरे लोगों की तरह इसमें दो या चार साल नहीं, बल्कि महज एक दिन का अंतर है। और उस अंतर से मेरा फायदा नहीं, नुकसान है। एक दिन पहले ही नौकरी से सेवानिवृत्त हो जाऊंगा। दरअसल, मैं दो दिसंबर की आधी रात के बाद पैदा हुआ था। यानी जन्मतिथि तीन दिसंबर हुई। लेकिन कागज में दर्ज है दो दिसंबर। हालांकि अलग-अलग जन्मतिथि के अपने फायदे भी हैं। मसलन मित्र, सहपाठी और सहकर्मी प्रमाणपत्र वाली तारीख, यानी दो दिसंबर को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं और तमाम परिजन अगले दिन। यानी लगातार दो दिनों तक शुभकामना संदेश मिलते रहते हैं। कुछ वर्षों से सबको बताने भी लगा हूं कि मेरी असली जन्मतिथि दो नहीं, तीन तारीख है। कुछ मित्रों ने इसे सुनते ही सवाल दाग दिया कि अच्छा, और साल कौन-सा है! उन्हें लगता था कि तीन दिसंबर मेरी जन्म की तारीख भले हो, लेकिन साल जरूर कोई और होगा! किस-किस को सफाई देता रहूं! अब तो कुछ वर्षों से पत्नी भी उलाहने की तर्ज पर कह देती हैं कि ‘फलां को देखिए, आपसे चार साल बड़ा है और आपके बाद रिटायर होगा!’ आसपास देखता हूं तो कागजी जन्मतिथि वाले लोग ही ज्यादा नजर आते हैं। कई करीबी रिश्तेदारों ने जब नौकरी शुरू की थी तो मैं स्कूल जाता था। लेकिन अब पता चला है कि वे तमाम लोग मुझसे साल-दो साल बाद तक नौकरी में जमे रहेंगे। लेकिन ‘अब पछताए होत क्या’ की तर्ज पर मन मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। सहकर्मी सोचते हैं कि इसने भी हमारी तरह साल-दो साल तो जरूर चुराए होंगे! लाख सफाई दूं, चेहरे पर उभरने वाले अविश्वास के भाव उनके सोच की चुगली कर देते हैं। बीते जन्मदिन पर पचास पूरे करने के बाद इस साल भी लोगों ने बधाई देने के साथ सवालिया अंदाज में पूछ ही लिया कि कम से कम बावन के तो हो गए होंगे! कई लोग सीधे पूछने के बजाय घुमा कर यही सवाल करते हैं कि अभी कितने दिन नौकरी बची है। पिछले साल तो मुहल्ले के एक सज्जन कहने लगे कि अपनी तरफ गांव में तो लोग चालीस की उम्र पार करते ही बूढ़े लगने लगते हैं। लेकिन आपको देखिए! इस उम्र में भी जवान लग रहे हैं! लोग समझते हैं कि रंग-रोगन के जरिए उम्र छिपा रहा है। एक सहकर्मी तो कहने लगे कि अब यार आपस में क्या छिपाना! मेरी असली उम्र कागजी उम्र से तीन साल ज्यादा है। तुम भी तो मेरी ही उम्र के हो गए होगे। मैं क्या कहता! एक मित्र ने फोन किया और औपचारिकता निभाने के बाद कहने लगे कि फेसबुक पर आपकी फोटो देख कर नहीं लगता कि इतनी उम्र हो गई है। मैंने कहा कि भाई, अभी तो पचास पूरे किए हैं। इस पर कहने लगे कि कागज में तो मैं भी अड़तालीस का ही हूं! मन में कोफ्त होने के बावजूद हंस कर बात बदलने की कोशिश की। लेकिन वे भला कहां मानने वाले थे! सवाल दाग दिया कि यार, अब तो बता दो कि तुम्हारी असली जन्मतिथि क्या है! लगता है कि असली और कागजी के इस चक्कर से इस जन्म में पीछा शायद ही छूटेगा। जनसत्ता से साभार