Friday, May 15, 2009

नदी में समाती एक धरोहर



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


प्रभाकर मणि तिवारी
असम के जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र के बीच स्थित दुनिया का यह सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। हर साल आने वाली बाढ़ इस द्वीप का बड़ा हिस्सा अपने साथ बहा ले जाती है। लेकिन एक के बाद एक सत्ता में आने वाली राजनीतिक पार्टियों ने समृध्द सांस्कृतिक विरासत वाले इस द्वीप को बचाने की कोई ठोस पहल नहीं की। अपनी विशेषताओं के चलते दुनिया भर में मशहूर माजुली का अस्तित्व अब साल दर साल आने वाली बाढ़ और भूमिकटाव के चलते खतरे में पड़ गया है।
वर्ष 1997 में उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) के हाथों एक गैर-सरकारी संगठन अवार्ड-एनई के महासचिव संजय घोष के अपहरण और हत्या के चलते यह द्वीप देश-विदेश में सुर्खियों में रहा था।
विश्व धरोहरों की सूची में इसे शामिल कराने के तमाम प्रयास भी अब तक बेनतीजा रहे हैं। यूनेस्को की बैठकों के दौरान राज्य सरकार ने या तो ठीक से माजुली की पैरवी नहीं की या फिर आधी-अधूरी जानकारी मुहैया कराई। इसी के चलते यूनेस्को ने बीते साल इसे विश्व धरोहर का दर्जा देने का अनुरोध ठुकरा दिया था। अब एक बार फिर नए सिरे से इसकी तैयारियां शुरू हो गई हैं। बीते दिनों गुवाहाटी के दौरे पर गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी माजुली को विश्व विरासत का दर्जा दिलाने के लिए हरसंभव कोशिश करने का भरोसा दिया था। राज्य सरकार ने इस द्वीप को बचाने की पहल के तहत कुछ साल पहले माजुली कल्चरल लैंडस्केप मैनेजमेंट अथारिटी का गठन किया था। बावजूद इसके इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ है।
इस द्वीप पर रहने वाले डेढ़ लाख लोग तलवार की धार पर जीवन काट रहे हैं। हर साल बरसात के मौसम में वहां कमर तक पानी भर जाता है। एक गांव से दूसरे गांव तक जाने का रास्ता टूट जाता है और टेलीफोन काम नहीं करता। इस साल भी यही स्थिति है। बरसात के चार महीनों के दौरान बाहरी दुनिया से इस द्वीप का संपर्क कट जाता है और लोगों का जीवन दूभर हो जाता है। ब्रह्मपुत्र का तेज बहाव हर साल अपने साथ द्वीप का बड़ा हिस्सा अपने साथ बहा ले जाता है। कामकाज की सहूलियत के लिए वर्ष 1978 में इसे सब-डिवीजन का दर्जा दिया गया था। तब इसका क्षेत्रफल 1278 वर्ग किलोमीटर था लेकिन बाढ़ व भूमिकटाव के चलते अब यह घटकर 640 वर्ग किलोमीटर रह गया है।
यह द्वीप अपने वैष्णव सत्रों के अलावा रास उत्सव, टेराकोटा और नदी पर्यटन के लिए मशहूर है। मिसिंग,देउरी, सोनोवाल, कोच, कलिता, नाथ, अहोम,नेराली और अन्य जातियों की मिली-जुली आबादी वाले माजुली को मिनी असम और सत्रों की धरती भी कहा जाता है। असम में फैले लगभग 600 सत्रों में 65 माजुली में ही थे। राज्य में वैष्णव पूजास्थलों को सत्र कहा जाता है।
माजुली की ऐसी कई विशेषताएं हैं जिनके बारे में राज्य के बाहर के लोग कम ही जानते हैं। राज्य का दूसरा अखबार द असम विलासिनी वर्ष 1871 में यहीं से निकला था। वर्ष 1846 में ईसाई मिशनरियों ने राज्य के पहले अखबार अरुणोदय का प्रकाशन शुरू किया था। अपनी धनी सांस्कृतिक विरासत और विशेषताओं के बावजूद प्रशासन की उदासीनता से माजुली का अस्तित्व ही खतरे में है। द्वीप की सड़कें खस्ताहाल हैं। बरसात के दिनों की बात छोड़ भी दें, तो साल के बाकी महीनों के दौरान भी द्वीप के कई इलाकों में जाना लगभग असंभव है। बरसात के चार महीनों के दौरान तो इस द्वीप का संपर्क देश के बाकी हिस्सों के साथ पूरी तरह कट जाता है। राज्य में एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया नतीजतन जिस माजुली को दुनिया के सबसे आकर्षक पर्यटन केंद्र के तौर पर विकसित किया जा सकता था वह आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। यहां पर्यटन का आधारभूत ढांचा तैयार करने में किसी ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। माजुली की धरोहर की रक्षा के लिए संजय घोष की अगुवाई में एक ठोस पहल हुई थी लेकिन उनकी असामयिक मौत ने इलाके में इस प्रक्रिया को लगभग ठप कर दिया।
माजुली के बारे में एक मजेदार तथ्य यह है कि यहां जितनी नावें हैं उतनी शायद इटली के शहर वेनिस में भी नहीं हैं। द्वीप का कोई भी घर ऐसा नहीं है जहां नाव नहीं हो। यहां नावें लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बन गई हैं। लोग कार, टेलीविजन और आधुनिक सुख-सुविधा की दूसरी चीजों के बिना तो रह सकते हैं लेकिन नावों के बिना नहीं। हर साल आने वाली बाढ़ पूरे द्वीप को डुबो देती है। इस दौरान अमीर-गरीब और जाति का भेद खत्म हो जाता है। महीनों तक नावें ही लोगों का घर बन जाती हैं। उस समय माजुली में आवाजाही का एकमात्र साधन भी लकड़ी की बनी यह नौकाएं ही होती हैं। अगर इस द्वीप को बचाने के लिए जल्दी ही ठोस कदम नहीं उठाए गए तो वह दिन दूर नहीं है जब यह धरोहर पूरी तरह ब्रह्मपुत्र में समा जाएगी।

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