Monday, May 18, 2009

अपने शहर में अजनबी

दो महीने पहले की ही बात है। सिलीगुड़ी में अपने घर या ससुराल में जिसको भी फोन किया, एक ही जवाब मिलता था-हमलोग फलां बाजार में हैं। दरअसल, कुछ दिनों पहले ही पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के सिलीगुड़ी में एक सुपरमॉल खुला था। कहने को तो यह शहर महज एक सब-डिवीजन है, लेकिन हाल के वर्षों में इस शहर का जिस तेजी से विकास हुआ है, उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। इस साल जून में जब बेटी के स्कलू की छुट्टी होने पर सिलीगुड़ी जाना हुआ तो हर जगह बदली हुई नजर आ रही थी। कस्बे से शहर में तब्दील होते सिलीगुड़ी में जहां एक सुपरमॉल खुल गया था, वहीं कई और ऐसे मॉल खुलने की तैयारी में थे। बीती गर्मियों के बाद इस एक साल के दौरान शहर तेजी से बदला है। मैं पैदा भले उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में अपने मामा के घर हुआ था, परवरिश तो सिलीगुड़ी में ही हुई थी। वर्ष 1964 के जून महीने में मेरी मां जब मुझे लेकर इस शहर में आई तो मैं महज छह महीने का ही था। पिताजी रेलवे में नौकरी करते थे। उनको रेलवे का एक छोटा-सा क्वार्टर मिला था। मां अक्सर बताती थी कि कैसे वह शुरूआती दो-तीन दिन पूरी रात मुझे गोद में लेकर ही काटती रही इस मकान में। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों और सांपों के डर से। खैर, वह दिन भी बीते। उस क्वार्टर में बिजली भी नहीं थी। बिजली तो वहां तब तक नहीं आई थी जब वर्ष 1978 में मैंने वहां से हाईस्कूल की परीक्षा पास कर ली और आगे की पढ़ाई के लिए अपने मामा के घर चला गया। मेरे दो भाइयों में से एक तो सिलीगुड़ी के ही सरकारी अस्पताल में हुआ। आज वह लंदन में है ब्रिटिश नागरिक के तौर पर। लेकिन इस शहर से अनगिनत यादें जुड़ी हैं। इसलिए इसके हर बदलाव पर अचरज होता है। वह चाहे शहर में धीरे-धीरे बनते फ्लाईओवरों पर हो या फिर रिक्शों का शहर कहे जाने वाले सिलीगुड़ी को आटोरिक्शा यानी तिपहिया का शहर कहने पर।
बीते साल तक कुछ भी नहीं था। शहर का इकलौता फ्लाईओवर अभी बन रहा था। अबकी गया तो नक्शा ही बदला हुआ था। देशबंधुपाड़ा स्थित अपने घर से हिलकार्ट रोड स्थित ससुराल तक जाने में अब महज पांच मिनट लगते थे। इसबीच बचपन से यादों में बसे रेलवे के इकलौते गेट के ऊपर फ्लाईओवर जो बन गया था। अब इस शहर में पांच किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए आटोरिक्शा में महज पांच रुपए देने पड़ते हैं। यहां भी एक खुशनुमा आश्चर्य होता है। कोलकाता, जहां मैं रहता हूं, में टैक्सी में पांव रखते ही न्यूनतम बीस रुपए अदा करने पड़ते हैं, उसके मुकाबले यहां पांच रुपए और पांच-सात मिनट में पांच किलोमीटर की दूरी तय करना हैरत में डालता है। लगता है किसी अजनबी शहर में आ गया हूं। बचपन की यादों में भरा यह शहर अब भी बहुत सस्ता है-रहन-सहन और खाने-पीने के लिहाज से। वैसे, कोलकाता को गरीबों और अमीरों का शहर कहा जाता है। कहते हैं कि कोलकाता में पांच रुपए से पांच हजार तक का भोजन मिलता है। लेकिन मुझे तो इस मामले में सिलागुड़ी कोलकाता से एक कदम आगे नजर आता है। शायद इस शहर से मेरे लगाव की वजह से। शहर से सिक्किम की ओर जाने वाली सड़क सेवक रोड पर एक कतार में नई-नई इमारतें नजर आती हैं। उसी सड़क पर मॉल, सुपर मॉल और आईनॉक्स जैसे मिनीप्लेक्स खुल रहे हैं। लगता है अगली बार जब गर्मी की छुट्टियों में आऊंगा तो यह शहर सुपरमॉल का शहर बन चुका होगा। पहले जिन इलाकों में दिन को जाते हुए भी एक अनजाना-सा डर लगता था, वहां अब देर रात तक बत्तियां जगमगाती रहती हैं। हो भी क्यों न? इस शहर को उत्तर बंगाल की अघोषित राजधानी जो कहा जाता है।
अबकी मेरे साले गोपाल, जिसका इस शहर में रेडीमेड कपड़े का कोरबार है, ने कहा कि जीजाजी, आप दस-पांच कठ्ठा जमीन खरीद कर रख दीजिए। दो-तीन सालों में उसकी कीमत तिगुनी हो जाएगी। उसका कहना सही थी। गोपाल के अलावा मेरे एक रिश्तेदार ने भी कुछ साल पहले वहां जमीन खरीद थी जिसकी कीमत अब कम से कम पांच गुनी बढ़ गई है। मैंने उसकी इस सलाह पर कोई टिप्पणी नहीं की। कहता भी क्या? उसको लगता है कि उसके पत्रकार जीजा जी को शायद वेतन के अलावा ऊपरी आमदनी भी हो। मैंने सोचा कि अब बंद मुठ्ठी को खोलने से क्या फायदा? मुझे सही समय पर यह कहावत य़ाद आ गई थी कि बंद हो मुट्ठी तो लाख की, खुल गई तो फिर खाक की। मैंने बस यही कहा कि अभी बिटिया की पढ़ाई पर काफी खर्च है। बाद में देखा जाएगा। शहर तेजी से बदल रहा है, इसका अंदाजा बीते दो-तीन वर्षों से लग रहा था। सत्तर के दशक में जिस सिलीगुड़ी हिंदी हाईस्कूल में हम तीनों भाई पढ़े थे, अब कोई उसमें दाखिला नहीं लेना चाहता। अबकी पता चला कि बीते तीन वर्षों से उसमें कक्षा पांच की पढ़ाई ही बंद है। हमलोग पांचवीं में ही इस स्कूल में दाखिल हुए थे-आठ रुपए महीने की फीस पर। अब नौंवी कक्षा में पढ़ने वाली अपनी बेटी के लिए कोलकाता के एक स्कूल में हर महीने लगभग सत्ररह सौ रुपए का भुगतान करना पड़ता है। अब सिलीगुड़ी और पास ही दार्जिलिंग की पहाड़ियों में कुकुरमुत्तों की तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल उग आए हैं। ऐसे में हिंदी स्कूल को कौन पूछता है।
इस शहर के विकास के साथ ही अब कोलकाता से छपने वाले तमाम अंग्रेजी और बांग्ला अखबार यहां से छपने लगे हैं। खुद को दुनिया का नंबर एक हिंदी अखबार कहने वाला दैनिक भी भागलपुर से ही छपकर यहां आता है। लेकिन अब भी सबसे ज्यादा दो ही अखबार बिकते हैं। हिंदी में जनपथ समाचार-जहां से मैंने अपनी पत्रकारिता शुरू की थी। पहले गोरखालैंड आंदोलन के दिनों यानी अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में। और दूसरा बांग्ला में उत्तर बंग संवाद। जनपथ समाचार के मालिक राजेंद्र बैद अब भी उसी लहजे में बात करते हैं जैसे कोई बीस साल पहले करते थे। हालांकि अब उनका ज्यादा समय अपने होटल के कारोबार में ही बीतता है। सिलीगुड़ी हिदी हाईस्कूल में मेरे साथ पढ़े और अब इलाके के जाने-माने चार्टर्ड अकाउंटेंट महेश अग्रवाल कहते हैं कि यह शहर तेजी से बदल रहा है। अब शहर में कई दर्जन बार खुल गए हैं। शहर से सटे चांदमनी चाय बागान की जमीन पाट कर कोलकाता के एक उद्योगपति ने कोलकाता के ही साल्टलेक की तर्ज पर एक विशालकाय हाउसिंग कालोनी बसा दी है। अस्सी के दशक में असम आंदोलन के दौरान इस गुमनाम से शहर ने प्रगति के पथ पर जो सफर शुरू किया था वह अब काफी तेज हो चुका है। हां, तेजी से बड़े शहर में बदलते इस शहर में रिश्तों का अपनापन अब भी जस का तस है। कोलकाता में नजदीकी रिश्तों में भी ऐसे अपनापन के लिए मन तरस गया है। लेकिन क्या बीतते समय के साथ यह अपनापन कायम रहेगा? इसी सवाल के साथ मैं अपनी कर्मभूमि कोलकाता लौटने के लिए दार्जिलिंग मेल में बैठा हूं। अगले साल नई उम्मीद और नए बदलाव की उम्मीदों के साथ फिर इस शहर में लौटने के लिए।
(यह लेख बीते साल गर्मियों में सिलीगुड़ी से छुट्टियां बिता कर लौटते हुए लिखा था। लेकिन साल भर बाद यह अब और ज्यादा प्रासंगिक है। इसलिए ब्लाग पर डाल रहा हूं।)

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर अतीत और वर्तमान का परिचय. यशपाल का यात्रा वृतांत याद आ गया. कभी मौका मिले तो पढियेगा. पूर्वोत्तर के देश मसलन, जापान, बर्मा, कम्बोडिया के भारत वंशियों का सुन्दर जिक्र किया था.

    आपका भी सुन्दर है. हम सभी ने इसी शहरीकरण को देखा है, या भोगा भी है.

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  2. बेहतरीन संस्मरण बीते दिनों का. विकास के दौर में इस परिवर्तन का सामना तो करते रहना पड़ेगा.

    अच्छा लगा पढ़कर.

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  3. जी सही बात है..विकास अपनी कीमत मांगता है..!यह सुख के साथ साथ दुःख भी लेकर आता है..उनके लिए जो अतीत से प्यार करते है..!नयी पीढी भले न समझे लेकिन हमें वे चौक,गलियां और पुराने बाज़ार ही भले लगते है...!इस कंक्रीट के बढ़ते जंगल में रिश्ते भी कठोर हो गए है...हम अजनबी हो गए है...अपने ही शहर में....

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