Monday, May 18, 2009

पूर्वोत्तर और हिंदी पत्रकारिता का वह दौर

दिन तो अब ठीक से याद नहीं, लेकिन वह 15 मार्च, 1989 की तारीख थी। उसी दिन गुवाहाटी से हिंदी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी शुरू करने के लिए सिलीगुड़ी से हम कोई आठ-नौ लोग गुवाहाटी पहुंचे थे। नए उत्साह और जोश के साथ आंतकवाद के लिए मशहूर असम के इस प्रवेशद्वार में पत्रकारिता के लिए आने से पहले तमाम मित्रों, शुभचिंतकों और घरवालों ने न जाने कितनी ही बार इस फैसले पर दोबारा विचार करने की सलाह दी थी। लेकिन नए इलाके में नया अखबार शुरू करने की ललक ऐसी तमाम सलाहों पर भारी पड़ी थी। हमारे पहुंचने तक वहां देश के अलग-अलग राज्यों से कई और लोग आए थे। एक से बढ़ कर एक प्रतिभावान, युवा और जुनूनी। अगले दिन से ही तमाम लोगों में तालमेल बिठाने और डेस्क और रिपोर्टिंग के कार्यों के प्रशिक्षण का सिलसिला शुरू हो गया। उत्साह इतना कि हम लोग जब कंपनी की ओर क्रिश्चियन बस्ती में मिले अपने हास्टलनुमा कमरों से सुबह कंपनी की कार से उलूबाड़ी स्थित जी.एल. पब्लिकेशंस के परिसर में पहुंचते तो फिर देर रात ही वापसी होती थी।
पूर्वोत्तर में संगठित हिंदी पत्रकारिता का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं है। जब हम पूर्वांचल प्रहरी शुरू करने गुवाहाटी पहुंचे तब असम में हिंदी का कोई दैनिक अखबार नहीं था। हालांकि उसी समय जी.एल. पब्लिकेशंस के प्रबंध निदेशक श्री जी.एल. अग्रवाल की देखादेखी दो अन्य संस्थानों ने भी हिंदी अखबार निकालने की योजना बनाई। दिलचस्प बात यह है कि जी.एल. अग्रवाल ने काफी पैसे खर्च कर जिन पत्रकारों को देश के विभिन्न हिस्सों से गुवाहाटी में जुटाया था उनमें से ही कुछ को तोड़ कर एक स्थानीय मीडिया हाउस ने अपना अखबार शुरू कर दिया। दूसरे अखबार के लिए भी ज्यादातर बिहार से पत्रकार वहां पहुंचे थे। लेकिन उस अखबार ने भी जल्दी ही दम तोड़ दिया। बाद में उसके भी कुछ लोग पूर्वांचल प्रहरी में रख लिए गए।
वह दौर यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (अल्फा) के उत्थान का दौर था। अगर संप्रभु राष्ट्र की मांग में उसका आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा था। आंदोलन की काली छाया राज्य में दुधारू गाय समझे जाने वाले चाय उद्योग पर भी पसरने लगी थी और वहां जबरन वसूली का दौर शुरू हो गया था। असमिया और वहां से निकलने वाले अंग्रेजी अखबारों के लिए तो ठीक था। लेकिन उस दौर में हिंदी अखबार निकालना और उसमें भी अल्फा की जबरन वसूली और उसकी कार्यप्रणाली के खिलाफ खबरें छापना किसी चुनौती से कम नहीं था। उस दौर में जी.एल.पब्लिकेशंस के मालिक श्री जी.एल. अग्रवाल ने इस चुनौती को कबूल किया और इस पर खरे भी उतरे। दो महीने तक तालमेल बिठाने और मशीनें लग जाने के बाद आखिर पूर्वांचल प्रहरी के प्रकाशन की तारीख भी आ गई। हमारे तबके कार्यकारी संपादक के.एम.अग्रवाल ने प्रवेशांक के साथ निकलने वाले रंगीन परिशिष्ट के लिए सबको कुछ न कुछ लिखने की सलाह दी। सबने उत्साह से लिखा भी। पहले दिन का अखबार निकालने के लिए हमारी जो टीम सुबह दस बजे दफ्तर पहुंची वह अगले दिन सुबह अखबार छपने के बाद उसका अंक हाथों में लेकर ही अपने कमरों पर लौटी। यह सिलसिला कोई तीन महीने तक चला। इसबीच, विनोदानंद ठाकर, बद्रीनाथ तिवारी और रामदत्त त्रिपाठी के अलावा कई नाम अखबार से जुड़े और कुछ इसी कम समय में ही बिछड़े भी। इसी दौरान पूर्वोत्तर की सात बहनों को जोड़ने के लिए सप्तसेतु नामक साप्ताहिक पत्रिका निकालने की भी योजना बनी। तमाम लोगों ने उसमें खूब लिखा और उस पत्रिका ने इलाके के हिंदीभाषियों को जोड़ने में अपने नाम के अनुरूप ही अहम भूमिका निभाई। उस पत्रिका के लिए भी खासकर बिहार से कई नए संघर्षशील और प्रतिभाशाली पत्रकार आए थे। उनमें से कुछ तो आज पत्रकारिता जगत के बड़े नाम बन चुके हैं।
कई शहरों और मीडिया घरानों में काम करने के बाद अब मुझे लगता है कि उस समय वहां जो माहौल था, अब तो उसकी कल्पना तक करना मुश्किल है। दूर-दराज से आए युवा पत्रकारों में सामाजिक हैसियत और आर्थिक पृष्ठभूमि का फासला होने के बावजूद जीएल पब्लिकेशंस परिसर में तमाम फासले मिट गए थे। वहां लोग एक परिवार की तरह थे। आज के दौर की पत्रकारिता मे तो सीनियर से जूनियर तक मौका मिलते ही पीठ में छुरा घोंपने की फिराक में रहते हैं। ऐसे में वह माहौल अब सपना और कल्पना तक ही सिमट कर रह गया है।
इस परिसर से खट्टी-मीठी न जाने कितनी ही यादें जुड़ी हैं। वहां नीचे बने शर्मा जी के ढाबे का स्वादिष्ट खाना भी याद है। वहां काम करने वाले कई मित्र अब बहुत ऊपर पहुंच गए हैं और याद नहीं करते। कई अच्छे लोग जिनसे नौकरी छोड़ने के बाद कभी मुलाकात नहीं हुई, वे अक्सर याद आते हैं। तब मोबाइल भी नहीं होता था। इसी अखबार में काम करते हुए जीवन की कुछ कड़वी सच्चाईयों से पाला पड़ा और कुछ खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए। अब भी याद है कि छुट्टी के दिन लोग कैसे बिन बुलाए घर पहुंच जाते थे और जनता स्टोव के उस दौर में भी बिना खाए-पिए लौटते नहीं थे। होली और दीवाली जैसे कितने ही त्यौहार मिल-जुल कर मनाए। अखबार में रिपोर्टिंग से लेकर खबरों का संपादन और पेज पर खबरें लगवाने तक तमाम काम किए। एक वाकया याद आता है। 21 मई 1991 का। तब देर रात वाले संस्करण में एक आदमी डेस्क पर हुआ करता था। पहला संस्करण छप रहा था नीचे मशीन पर। वह संस्करण छूटने के बाद बाकी साथी चले गए थे। मैं रह गया देर रात वाला संस्करण छोड़ने के लिए। उस समय लोकसभा चुनाव चल रहे थे। राजीव गांधी चुनाव प्रचार के सिलसिले में दक्षिण भारत में थे। टेलीप्रिंटर पर आती खबरों पर निगाह डालते ही आंखों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। एक लाइन की खबर थी। तब टेलीप्रिंटर पर महत्वपूर्ण खबरें फ्लैश लिख कर आती थीं। वैसे ही, जैसे आजकल न्यूज चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज आती है। फर्क यह है कि तब बहुत महत्वपूर्ण कबरों के लिए फ्लैश का इस्तेमाल किया जाता था, अब तो हर खबर ब्रेकिंग न्यूज होती है। बम विस्फोट में राजीव गांधी की मौत। एक पल के लिए तो दिमाग ही सुन्न हो गया। इतनी बड़ी खबर। लेकिन अगले ही पल मैंने पहला काम किया नीचे जाकर पहले संस्करण की छपाई रोकने का। इतनी बड़ी खबर के बिना आखिर अगली सुबह कोई अखबार बाजार में कैसे जा सकता था? यह तो उस अखबार और उससे जुड़े लोगों की साख का सवाल था। छपाई रोकने के बाद अखबार के मालिक व संपादक जी.एल.अग्रवाल को खबर दी। तब न्यूज चैनलों का जमाना नहीं था। इसलिए हर खबर के लिए टेलीप्रिटर का ही भरोसा था। संपादक ने कहा कि कहिए तो और लोगों को बुलवा लूं। मैंने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है। फिर भी उन्होंने एकाध लोगों को बुलवा लिया। खैर, राजीव गांधी की जीवनी आदि लिख कर मोटे प्वायंट में आधे पन्ने की खबर लिख कर पहला संस्करण तो छोड़ दिया गया। उसके बाद लाइब्रेरी से फोटो छांटने और राजवी गांधी के जीवन की तमाम पहलुओं की खबरें टेलीप्रिटर से छांट कर संपादन करने के बाद उनकी कंपोजिंग शुरू हुई। और अगले दिन पूर्वांचल प्रहरी की कवरेज शानदार थी। ऐसे हादसों की कवरेज के लिए शानदार शब्द का इस्तेमाल शायद उचित नहीं लगे। लेकिन पत्रकारिता में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। अममून रात दो बजे तक घर पहुंचने वाला मैं उस दिन सुबह अखबार छपने के बाद पांच बजे घर पहुंचा। अपनी चाबी से दरवाजा खोलने के बाद जब पत्नी को जगाया तो वह पहले तो काफी झल्लाई। लेकिन मैंने बिना कुछ कहे उसके सामने अखबार रख दिया जिसमें रिवर्स यानी काली स्याही में मोटी हेडिंग छपी थी कि बम विस्फोट में राजीव गांधी की मौत।
पूर्वांचल प्रहरी में काम करते हुए बाहर लिखने की भी आजादी थी। मैंने इस मौके का भरपूर फायदा उठाते हुए धर्मयुग. हिंदुस्तान, साप्ताहिक हिंदुस्तान और जनस्तात में भरपूर लखा। धर्मयुग के संपादक डा. धर्मवीर भारती हों, विश्वनाथ सचदेव या फिर फीचर संपादक कुमार प्रशांत, सबने आतंकवाद पर मेरी रिपोर्ट्स मंगा-मंगा कर छापीं। साप्ताहिक हिंदुस्तान की संपादकर मृणाल पांडेय और हिंदुस्तान के सहायक संपादक के.के. पांडे ने भी असम और पू्र्वोत्तर की विभिन्न समस्याओं पर मेरे लेखों को प्रमुखता से छापा। दरअसल, पूर्वांचल प्रहरी की शुरूआत से पहले तक इलाके की समस्याओं को हिंदी में राष्ट्रीय अखबारों तक पहुंचाने वाले लोग बहुत कम थे। जो थे उनमें भी पेशेवर पुट नहीं था। उनका असली काम व्यापार था और लिखना-पढ़ना शौकिया था। लेकिन उसके बाद पत्रकारों की नई जमात ने वह परिदृश्य ही बदल दिया। साप्ताहिक हिंदुस्तान में दो पन्ने में छपी मेरी पहली रिपोर्ट चाय बागानों पर मंडराता उल्फा का काला साया, तब काफी चर्चित रही थी। यह बात अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसी लग सकती है। लेकिन तब की परिस्थिति की तस्वीर खींचने के लिए इसका जिक्र जरूरी है। उसके बाद कई अन्य पत्रकार भी लिखने लगे विभिन्न अखबारों व पत्रिकाओं में।
जनसत्ता का कोलकाता संस्करण लांच होने से पहले अक्तूबर, 1991 में जब नौकरी का ऑफर मिला तो राष्ट्रीय अखबार में आने के लालच ने हां करा दी। पूर्वांचल प्रहरी छोड़ने के कोई सात साल बाद जून, 1997 में दोबारा गुवाहाटी जाना हुआ। जनसत्ता में तबादला होने पर। लेकिन तब तक हालात भी बदल चुके थे, अखबार और उनमें काम करने वाले लोग भी।
बहरहाल, इस लेख को लंबा नहीं करते हुए एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि पूर्वोत्तर या और साफ कहें तो असम में कई नए अखबारों के आने और उनके नए संस्करण खुलने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता अब भी अपने शैशवकाल में ही है। यह सही है कि इसके प्रौढ़ होने में अभी और समय लगेगा। लेकिन इसके लिए इन अखबारों में काम करने वालों को भी पेशेवर नजरिया अपनाना होगा। पैसे लेकर किसी व्यक्ति, संगठन या तबके की खबरें छापने या रोकने की जो परपंरा धीरे-धीरे देश भर के खासकर हिंदी अखबारों पर हावी होती जा रही है, उस पर अंकुश लगाना होगा। वैसे, मैं कोई नाम नहीं लेना चाहता। लेकिन कुछ लोग हैं जो बेहतर काम कर रहे हैं और उनसे उम्मीदें पैदा होती हैं। दो दशक बीतने के बावजूद पूर्वांचल प्रहरी अपने नाम को सार्थक करते हुए एक सजग प्रहरी की भूमिका निभा रहा है।

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