Thursday, July 15, 2010

वे दिन ही सबसे अच्छे थे

पत्रकारिता में लगभग 25 साल पूरे करने के बाद जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि पूर्वांचल प्रहरी में बिताए दिन ही सबसे अच्छे थे. शुरूआती दिनों में जो टीम और टीम भावना बनी, वह आज कल दुर्लभ ही है. जाने कहां-कहां से आए लोग बहुत जल्द एक-दूसरे से ऐसे घुल-मिल गए मानों बरसों से जानते हों. मैंने भांगागढ़ में मकान लिया था. तब दो कमरों के उस असम टाइप मकान का किराया था छह सौ रुपए. बिजली के लिए साठ रुपए अलग से. सामान के नाम पर एक चौकी थी और बिस्तर. वहीं स्टोव खरीद कर गृहस्थी बसाने का काम शुरू हुआ. दफ्तर में काम करने वालों में कोई राजनीति या टांग खिंचाई नहीं. अब आज के माहौल में इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. होली-दीवाली या कोई त्योहार हो, तमाम लोग सपत्नीक मेरे घर जुटते थे. पत्नी जनता स्टोव पर ही सबके लिए खाना बना देती थी बिना कोई उफ किए. लगभग सबकी शादी हाल में ही हुई थी. इसलिए किसी को बच्चा नहीं था. सो, सार्वजनिक छुट्टियों के दिन देर रात गए तक मेरे घर ही महफिल जमती थी.
हां, पूर्वांचल प्रहरी और सेंटिनल के मालिकों में भले प्रतिद्वंद्विता हो, इन दोनों अखबारों में काम करने वाले लोगों में ऐसी कोई भावना नहीं थी. इसलिए मेरे घर दोनों अखबारों के लोग आते थे. सेंटिनल के सुधीर सुधाकर, मधु व जयप्रकाश मिश्र और उसके संपादक मुकेश जी भी. इनमें से ही एक थे सत्य नारायण मिश्र. उन्होंने तब जनसत्ता जैसे अखबार में लिखने के लिए मुझे काफी प्रोत्साहित किया था. उनके कहने पर मैंने खास खबर और खोज खबर जैसे स्तंभों के लिए कई लेख लिखे. उनसे कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती थी. तब जनसत्ता में ज्योतिर्मय जी इन स्तंभों के इंचार्ज थे. लेकिन मिश्र में कुछ अक्खड़पन भी था. एक बार उन्होंने अपना ब्लैक एंड व्हाइट टीवी मेरे घर रख दिया. यह कह कर कि मुझे तो देखने का समय नहीं मिलता. तुम लोग देखना. उनकी तब तक शादी नहीं हुई थी. दफ्तर के समय के बाद इधर-उधर घूमते रहते थे. टीवी मेरे घर रखने के बाद बाद लगभग रोज मेरे घर ही खाते रहे. लेकिन एक बार जब बीमारी के चलते पत्नी ने कुछ दिनों तक खाना नहीं बनाया खिलाया तो बोले अब मैं अपना टीवी घर ले जाऊंगा. तब लगा कि शायद वे इतने दिनों से टीवी का किराया वसूल रहे थे. वह तो भला हो उदय चंद्र आचार्य का. पूर्वांचल प्रहरी में काम करने वाले आचार्य ने अपने किसी परिचित से कह कर पहले मुझे एक टीवी दिलाया किश्तों पर. उसके बाद फिर एक टेप रिकार्डर भी दिलाया.
तब एकमुश्त इतने पैसे नहीं होते थे कि पंखा खरीद सकूं. एक बार सेंटिनल के कार्यकारी संपादक मुकेश कुमार घर आए. उन्होंने कहा कि आखिर इतनी गर्मी में आप लोग पंखे के बिना रहते कैसे हैं. खैर, कुछ दिनों बाद किसी तरह जुगाड़ कर हमने एक पंखा खरीद लिया. पंखा खरीदने से एक रोचक किस्सा भी जुड़ा है. फैंसी बाजार से पंखा खरीदने के बाद मैंने सोचा कि बहुत गर्मी है. कहीं चल कर जूस वगैरह पिया जाए. पत्नी के साथ जूस की दुकान पर पहुंच कर दो गिलास मौसमी के जूस पिए. जब पैसे देने की बारी आई तो दुकानदार ने कहा चालीस रुपए हुए. इतना सुनते ही जूस का स्वाद फीका हो गया और गर्मी अचानक ही गायब हो गई. वह अफसोस बहुत दिनों तक रहा. बाद में सोचते रहे कि उन पैसों में यह आ सकता था या वह खरीद सकते थे. अब भी अक्सर हम उस वाकए का याद कर हंसते हैं.
पूर्वांचल प्रहरी के पास ही सेवेंथ हैवेन नामक एक रेस्तरां था. कभी छुट्टी के दिन रात को जब खाना बनाने या घर का खाना खाने की इच्छा नहीं होती तो हम पति-पत्नी टहलते हुए वहीं चले जाते. पांच-पांच रुपए का डोसा खाकर हमारा डिनर हो जाता. और वह भी भरपेट. वेतन के तौर पर कुल मिला कर दो हजार रुपए मिलते थे. लेकिन महंगाई कम थी. मैं रोजाना दो रुपए लेकर दफ्तर जाता. उसमें से बारह आने या एक रुपया सिगरेट पर खर्च होता. एक सिगरेट तब पच्चीस पैसे में आती थी. पैदल दफ्तर जाने में सात-आठ मिनट लगते थे. कभी धूप तेज हो या बारिश हो रही हो तो रिक्शा ले लेता था. किराया था एक रुपए. लेकिन वह अखर जाता था.
हमारे संपादक कृष्ण मोहन अग्रवाल भी बड़े खुले दिल के थे. अक्सर चाय या खाने पर घर बुलाते रहते थे. संपादक नहीं, सहयोगी की तरह व्यवहार करते. इससे अखबार में काम करने का मजा ही कुछ और था. अखबार हमारी रगों में बस गया था. इसलिए कई बार पत्नी के मायके जाने पर मैं सुबह 10-11 बजे ही दफ्तर चला जाता. भले ही मेरी ड्यूटी शाम या रात की शिफ्ट में हो. वहीं शर्मा जी की कैंटीन में खाना खा कर गप्पें लड़ाता रहता.
पूर्वांचल प्रहरी में तब तक कई लड़कियां भी काम करने लगी थी. और हां, साल भर बाद बाहर से कुछ नए लोगों के आने के बाद राजनीति भी शुरू हो गई थी. इनकी चर्चा अगली बार.....

1 comment:

  1. सही है तब अयह एक मिशन था ..आज नौकरी हो गया है या उससे भी बदतर कुछ ।

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