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पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने अगर समय रहते समुचित कार्रवाई की होती तो पश्चिम मेदिनीपुर जिले के लालगढ़ में आज हालात इतने बेकाबू नहीं होते। सरकार की नीतियों ने इस समस्या को बेतरह उलझा दिया है। लालगढ़ में यह हालात कोई एक दिन में नहीं बने हैं। वहां पुलिस और माकपा काडरों के खिलाफ स्थानीय लोगों का गुस्सा तो बीते नवंबर में ही भड़क उठा था। लेकिन नंदीग्राम में हाथ जला चुकी सरकार ने महीनों चुप्पी साधे रखी। और तो और उसने राज्य में माओवादियों पर पाबंदी भी नहीं लगाई है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य बार-बार कहते रहे हैं कि सरकार इस समस्या को राजनीतिक स्तर पर सुलझाने की पक्षधर है।
बीते साल दो नवंबर को तत्कालीन केंद्रीय इस्पात मंत्री राम विलास पासवान और मुख्यमंत्री के काफिले के सालबनी में एक शिलान्यास समारोह से लौटने के दौरान माओवादियों ने बारूदी सुरंग का विस्फोट किया था। उसके बाद स्थानीय पुलिस ने लोगों पर जम कर जुल्म ढाए और इस हमले के आरोप में तीन छात्रों समेत कोई आधा दर्जन लोगों को गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद ही स्थानीय लोगों की नाराजगी भड़की। बाद में बहती गंगा में हाथ धोने के लिए माओवादी भी इस आंदोलन में कूद पड़े। पंद्रह नवंबर के बाद पुलिस अत्याचार विरोधी जनसाधारण समिति और माओवादियों ने महीनों लालगढ़ का संपर्क राज्य के बाकी हिस्सों से काट दिया। तमाम सड़कें काट दी गईं और जगह-जगह जांच चौकियां बना दी गईं। लोगों ने पुलिस वालों को गांव में नहीं घुसने देने का एलान कर रखा था। इस दौरान माकपा काडरों की हत्याएं होती रहीं। लेकिन राज्य सरकार इस नक्सली हिंसा के लिए झारखंड को जिम्मेवार ठहराते हुए केंद्र सरकार से अर्धैनिक बलों की मांग करती रही। यह बात अलग है कि वर्षों से झारखंड से सटे तीनों जिलों-पश्चिम मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ा में माओवादियों की लगातार बढ़ती सक्रियता के बावजूद सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए किसी खास बल का गठन नहीं किया।
सरकार की इस चुप्पी की भी वजह थी। नंदीग्राम में पुलिस को जबरन घुसाने का अंजाम वह देख चुकी थी। ऐसे में लालगढ़ को एक और नंदीग्राम बनाने का खतरा वह कम से कम चुनावों के पहले मोल नहीं ले सकती थी। इसलिए वह चुनाव बीतने का इंतजार करती रही। चुनावों के दौरान भी सरकार को समिति के साथ उसकी शर्तों पर समझौता करना पड़ा। इसमें तय हुआ था कि लालगढ़ इलाके के गांवों में मतदान केंद्र नहीं बनेंगे और मतदान के दिन भी पुलिस गांवों में नहीं घुसेगी। सरकार ने वह शर्त मान कर बाहर कुछ मतदान केंद्र बनाए थे। लेकिन वहां बहुत कम वोट पड़े। चुनावी नतीजों के बाद सरकार में शामिल दल अपनी हार की वजहें तलाशने में जुटे रहे। तब तक यह समस्या काफी गंभीर हो गई। माओवादियों और आदिवासियों ने चुनाव से पहले न सिर्फ लालगढ़ की नाकेबंदी कर दी थी, बल्कि कोलकाता में सरकार की नाक के नीचे रैली कर उन्होंने सरकार को खून-खराबे की भी चेतावनी दी थी। लेकिन सरकार बार-बार वहां बल प्रयोग नहीं करने की बात करते हुए इस समस्या के खुद-ब-खुद सुलझने का इंतजार करती रही।
गृह सचिव अर्द्धेंदु सेन की दलील है कि लालगढ़ के मामले में सरकार ने जरूरत और परिस्थितियों के हिसाब से समुचित कार्रवाई की है। लेकिन हकीकत तो यह है कि सरकार ने वहां कोई कार्रवाई ही नहीं की। अब समस्या के विकराल होने के बाद उसने दो दिन पहले केंद्र से इस समस्या से निपटने के लिए अर्धसैनिक बल मांगे हैं। लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार ने अगर पहले ही यह फैसला किया होता तो हालात बेकाबू नहीं होते। पर्यवेक्षकों का कहना है कि राज्य पुलिस के जवानों के गुरिल्ला लड़ाई का प्रशिक्षण हासिल नहीं है। उन इलाकों में तैनात पुलिसवालों के पास आधुनिकतम हथियारों का भी अभाव है। इसबीच, माओवादियों ने इलाके में भारी तादाद में गोला-बारूद जमा कर लिया है। लालगढ़ की ओर जाने वाले तमाम रास्तों पर भी बारूदी सुरंग बिछा दी गई हैं। ऐसे में केंद्रीय बलों के लिए भी सीधी लड़ाई में माओवादियों से निपटना आसान नहीं है। माओवादियों ने केंद्रीय बलों को भी लालगढ़ तक पहुंचने से पहले ही रोक दिया है। यही वजह है कि इस आंदोलन के खिलाफ अभियान चलाने के बारे में अभी कोई फैसला नहीं हो सका है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार की लंबी चुप्पी में इस आंदोलन को मजबूत होने में मदद दी। छह महीने पहले पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ शुरू होने वाला यह आंदोलन अब सरकार के साथ सीधी लड़ाई में बदल गया है। और सरकार ने लालगढ़ को नंदीग्राम बनने से बचाने के लिए जो चुप्पी साध रखी थी, वह भी उसके काम नहीं आई। माओवादियों की तैयारी को देखते हुए देर-सबेर लालगढ़ में भी नंदीग्राम दुहराया जाना अब लगभग तय है।
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