Tuesday, May 26, 2009

वहां पेड़ों पर उगती हैं विदेशी नौकरियां !


आस्था और अंधविश्वास के बीच विभाजन की रेखा बहुत महीन होती है. लेकिन हर सप्ताह दो दिन जुमेरात और जुम्मे को झारखंड के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से यहां आने वाले आस्था की मजबूत डोर के सहारे ही इस मजार तक चले आते हैं. वे कहते हैं कि यह विशुद्ध आस्था है कोई अंधविश्वास नहीं. आखिर वे लोग कौन हैं? यह वे लोग हैं जो नौकरी के लिए विदेश जाना चाहते हैं. वे अपने पासपोर्ट की प्रति मजार से सटे पेड़ पर बांधने के लिए यहां आते हैं. जमशेदपुर स्थित सूफी संत हजरत मिस्कीन शाह की मजार पर जुटने वाली भीड़ के चलते इसका नाम ही ‘पासपोर्ट बाबा’ की मजार पड़ गया है.
जमशेदपुर के कालूबागान इलाके में स्थित इस मजार में यों तो रोजाना हाथों में पासपोर्ट की प्रतियां ले कर लोग आते रहते हैं. लेकिन जुमेरात और जुम्मा के दिन यहां भीड़ काफी बढ़ जाती है. उनके अलावा छात्र-छात्राएं या उनके अभिभावक भी परीक्षा के एडमिट कार्ड की प्रतियां पेड़ों में टांगने आते हैं ताकि रिजल्ट बेहतर हो और जल्दी ही नौकरी मिल जाए. यही नहीं, लोग नौकरी के लिए विदेशी कंपनियों में भेजे गए आवेदनों की प्रति भी यहां चढ़ाते हैं. कई लोग तो अपनी समस्याओं को बाबा के नाम पत्र में लिख कर चढ़ा देते हैं. उनको भरोसा है कि बाबा उसे जरूर हल कर देंगे. मजार के संरक्षक पीर मोहम्मद कहते हैं कि ‘अगर किसी को पासपोर्ट की जरूरत होती है, तो वे यहां आते हैं और बाबा की मजार पर प्रार्थना करते हैं.’ यहां आने वालों में सबसे ज्यादा तादाद उन लोगों की है जो नौकरी करने के लिए खाड़ी देशों या यूरोप जाना चाहते हैं.’ उनका दावा है कि अब तक सैकड़ों युवक इसी तरीके से विदेशों में बढ़ियां नौकरियां पा चुके हैं.
मजार पर आए धनबाद के मोहम्मद अफऱोज कहते हैं कि “बीते सप्ताह ही मैंने यहां अपना पासपोर्ट चढ़ाया है. उम्मीद है कि जल्दी ही कुवैत में नौकरी मिल जाएगी. पीर मोहम्मद बताते हैं कि ‘बाबा लाहौर से यहां आए थे और 1934 में उनका निधन हो गया था. उसके बाद यहीं उनकी मजार बनाई गई थी.’ वे बताते हैं कि ‘मैं बीते 15-16 वर्षों से विदेशी नौकरियों के इच्छुक लोगों को यहां आते देख रहा हूं. पीर मोहम्मद अपने पिता की मौत के बाद बीते 20 वर्षों से मजार की देखभाल करते हैं. यहां पासपोर्ट चढ़ाने वालों में सिर्फ आसपास के मुसलिम युवक ही नहीं हैं. जम्मू और जालंधर से लेकर दूरदराज चेन्नई और भुवनेश्वर तक के लोग यहां आते हैं.
वैसे, पासपोर्ट चढ़ाने के लिए खुद मजार तक आना जरूरी नहीं है. जो इतनी दूर नहीं आ पाते वे नौकरी दिलाने के लिए बाबा के नाम एक पत्र लिख कर अपने पासपोर्ट की प्रति कूरियर या डाक से भेज देते हैं. पीर मोहम्मद और उनके पुत्र उस पत्र और पासपोर्ट की प्रति को पेड़ पर टांग देते हैं.
अपने बेटे सुलेमान अहमद का पासपोर्ट मजार पर चढ़ाने आई सुल्ताना बेगम बताती हैं कि ‘मजार पर पासपोर्ट चढ़ाने के तीन महीने के भीतर उनके दो भतीजों को बहरीन में बढ़िया नौकरियां मिल गईं. उनकी बस्ती में पांच और लोग इसी महीने बाबा के आशीर्वाद से नौकरी करने अलग-अलग देशों में गए हैं.’ वे कहती हैं कि ‘मैं यहां आस्था के चलते ही आई हूं. कई लोगों को कामयाबी मिलते देख बाबा के प्रति मेरी आस्था धीरे-धीरे मजबूत हो रही है.’ लेकिन मजार से बाहर आने पर एक चबूतरे पर बैठे युवक कुछ अलग ही कहानी बताते हैं. उनमें से एक रामपाल शर्मा कहते हैं कि ‘लोगों की देखा-देखी मैंने भी चार साल पहले अपना पासपोर्ट चढ़या था. लेकिन कोई नौकरी नहीं मिली.’ वे सवाल करते हैं कि ‘अगर इससे विदेशी नौकरियां इतनी आसानी से मिल जातीं तो क्या मजार के नजदीक रहने के बावजूद हम लोग पढ़-लिख कर बेरोजगार रहते?ट लेकिन फिर यहां इतनी दूर से लोग क्यों आते हैं? इस सवाल पर वह कहता है कि अपनी-अपनी आस्था की बात है.’
पीर मोहम्मद और इन युवकों की बातें सुनने के बाद आस्था और असमंजस के बीच झूलते हुए मैंने भी अपने पासपोर्ट की फोटोकॉपी करा कर एक पेड़ पर टांग दी. क्या पता, शायद कहीं से मेरा भी बुलावा आ ही जाए! और नहीं, तो दाल-रोटी तो चल ही रही है. पासपोर्ट चढ़ाने में नुकसान ही क्या है? लेकिन वहां अफरोज की आंखों में उमड़ती आस्था को देखते हुए इन युवकों की टिप्पणी के बारे में उसे बताने को जी नहीं चाहता और मैं वापसी के लिए उस आटो के ड्राइवर को आवाज देता हूं जो मुझे इस मजार तक लाया था.

1 comment:

  1. उम्मीद इन्सान से क्या-क्या नहीं कराती!
    हिंदी में प्रेरक कथाओं और संस्मरणों का एकमात्र ब्लौग http://hindizen.com ज़रूर देखें.

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