Sunday, August 9, 2009

ठहर-सा गया है कोलकाता


किसी जमाने में राजीव गांधी ने कलकत्ता को मरता हुआ शहर कहा था। तब उनकी इस टिप्पणी पर भद्रलोक कहे जाने वाले इस समाज ने काफी बवाल किया था। तब मरता हुआ था या नहीं, यह मुझे नहीं पता। मैं तब इस महानगर में आया ही नहीं था। लेकिन अब पंद्रह साल पुराने वाहनों को हटाने की मुहिम के तहत इस महीने की पहली तारीख से हजारों बसों, टैक्सियों और आटो रिक्शा यानी तिपहियों के सड़कों से गायब हो जाने से इस महानगर की रफ्तार जरूर थमक गई है। दक्षिण से उत्तर कोलकाता के बीच जमीन के नीचे चलने वाली मेट्रो रेल के विभिन्न स्टेशनों के बाहर अलग-अलग कालोनियों और मोहल्लों के लिए बने आटो स्टैंड अब सूने पड़े हैं। यात्री तो नहीं घटे, लेकिन सवारियां बेहद घट गई हैं। इनको देखते हुए एक पुराना गीत बरबस ही याद आता है---इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूं है....। पुराने बस मालिकों ने हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। अदालत सोमवार 10 मई को इस पर विचार करेगी। पहले यह सुनवाई चार मई को होनी थी। लेकिन टल गई।
पहले इस लेख का शीर्षक दिया था-ठहर गया है मेरा शहर। फिर लगा कि कोलकाता मेरा शहर तो कभी रहा ही नहीं। इस तथ्य के बावजूद कि बीते नौ वर्षों से यहीं रहता हूं। दफ्तर से लौटते हुए दक्षिण कोलकाता के टालीगंज मेट्रो स्टेशन तक तो आसानी से पहुंच जाता हूं । लेकिन बीते नौ-दस दिनों से इससे कोई डेढ़ किमी दूर स्थित अपने फ्लैट तक पहुंचने के लिए बाकायदा जंग लड़नी पड़ रही है। पहले जिस रूट पर कई दर्जन आटो चलते थे, अब वहां दो ही बचे हैं। कई दिन तो यह दूरी पैदल ही तय करनी पड़ी। अब दफ्तर से थके-हारे लौटने के बाद कौन घंटों लाइन में खड़ा हो कर अपनी बारी का इंतजार करे। दरअसल, भीड़-भाड़ और ट्रैफिक जाम के चलते कोलकाता मुझे कभी उतना पसंद नहीं आया। सिलीगुड़ी में रहते हुए दफ्तर के कामकाज से साल में तीन-चार बार यहां आना होता था। उस समय धर्मतल्ला इलाके में राजभवन के ठीक सामने बने भारतीय जीवन बीमा निगम के गेस्ट हाउस में ठहरता था। वहां से सुबह-सबेरे जो दफ्तर जाता था तो रात दस बजे के बाद ही वापसी होती थी। दो-तीन दिन में काम निपटाने के बाद धर्मतल्ला से ही बस पकड़ कर सिलीगुड़ी लौट जाता था। तब कभी सोचा तक नहीं था कि मुझे इसी शहर में बसना होगा। आखिर नौ साल तक रहना एक तरह से बसना ही तो है। गुवाहाटी से तबादले पर आने के बाद मेट्रो को ध्यान में रखते हुए टालीगंज इलाके में मकान लिया था। दफ्तर के बाकी साथी दमदम यानी एकदम उत्तरी इलाके में रहते थे। मेट्रो ने कभी दूरी महसूस नहीं होने दी। लेकिन नौ साल की इस सहूलियत और सुख पर इन नौ दिनों का दुख (सवारी नहीं होने का) बहुत भारी पड़ रहा है।

बीते नौ दिनों से कोलकाता में लाखों लोगों को उमस और गर्मी के बीच बस अड्डों और टैक्सी स्टैंड पर लंबी-लंबी कतारों में खड़े रहना पड़ रहा है। इन सबको को उम्मीद है कि शहर की यातायात प्रणाली जल्द ठीक होगी।
पुलिस इस महीने की पहली तारीख से ही 1993 से पहले बने वाहनों को ज़ब्त कर रही है। कोलकाता हाई कोर्ट ने जुलाई 2008 में शहरी इलाक़ों में ऐसे व्यावसायिक वाहनों के चलाने पर रोक लगा दी थी जो एक जनवरी 1993 से पहले पंजीकृत किए गए हों। पहले यह पाबंदी बीते साल 31 दिसंबर से लागू होनी थी। लेकिन सरकार ने कुछ समय और मांगा था। उसके बाद यह समयसीमा बढ़ा कर 31 जुलाई 2009 कर दी गई थी.
कोलकाता की सेवियर एंड फ़्रेंड ऑफ़ इन्वायरमेंट( सेफ़) के सर्वेक्षण के मुताबिक इन वाहनों को ज़ब्त करने के बाद से शहर के पर्यावरण में सुधार हुआ है और पिछले दो दशकों में इतना पर्यावरण इतना स्वच्छ कभी नहीं रहा।
लेकिन पर्यावरण के साथ लोगों की दिक्कतों का ख्याल रखना भी तो जरूरी है। इस मामले में न तो पुराने वाहन मालिक चेते और न ही सरकार ने कोई ध्यान दिया। अब आग लगने पर कुंआ खोदने की कहावत चरितार्थ करते हुए सरकार ने चार सौ नई बसें उतारने का दावा किया है। लेकिन यह जरूरत के मुकाबले बहुत कम है।
मुझे तो अब इस दिक्कत से निजात पाने के लिए 23 अगस्त का इंतजार है। इसकी वजह यह है कि उसी दिन टालीगंज से न्यू गड़िया के बीच मेट्रो की विस्तारित सेवा का उद्घाटन होना है। और मेरा फ्लैट इसी रूट में टालीगंज के बाद वाले स्टेशन से ही सटा है। तब तक तो मेट्रो से उतर कर घऱ पहुंचने के लिए रोज एक लड़ाई लड़नी होगी। यह तो मेरी बात हुई। लेकिन सब लोगों की किस्मत ऐसी कहां? सोचता हूं, और कुछ न सही मेट्रो के मामले में तो किस्मत का धनी हूं ही।

2 comments:

  1. प्रभाकर मणि जी, आपकी पोस्ट लिखने की शैली बहुत आत्मीयता से भरी लगी। मेरा अनुमान है कि आप पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, कुशीनगर या अन्य पड़ोसी जिले से सम्बन्ध रखते होंगे। आपकी प्रोफाइल यहाँ क्यों नहीं है, मुझे नहीं मालूम। एक और प्रभाकर जी है (पाण्डेय)जो देवरिया से जाकर मुम्बई आईआईटी में हिन्दी भाषा की सेवा कर रहे हैं। इधर आप कोलकाता में अलख जगाए हैं। अच्छी बात है। जमाए रहिए। शुभकामनाएं।

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  2. कोलकाता के बदलते रूपों से सामना होता रहा है। आपकी इस पोस्ट ने कुछ साल पहले की कोलकाता यात्रा की याद दिला दी जिसके अनुभवों को मैंने इस पोस्ट में बाँटा था

    कोलकाता तोमार कौतो रूप़

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