उदंत मार्तंड से अब तक कोलकाता की हिंदी पत्रकारिता ने एक लंबा सफर तय किया है। इस दौरान हुगली में ढेर सारा पानी बह चुका है और इसी के साथ पत्रकारिता ने भी कई बदलाव देखे हैं। अब तकनीक के लिहाज से यह बेहतर जरूर हुई है। लेकिन कंटेंट और क्वालिटी के लिहाज से इसमें लगातार गिरावट आई है। बीते कुछ वर्षों के दौरान महानगर से निकलने वाले हिंदी अखबारों की तादाद तेजी से बढ़ी है। लेकिन तमाम अखबार बंधी-बंधाई लीक पर ही चलने लगे हैं। कोई अठारह साल पहले जनसत्ता ने कोलकाता की हिंदी पत्रकारिता में कई नए आयाम खोले और दिखाए थे। तब देश भर से चुन-चुन कर लोग इसमें रखे गए थे। अब इस अखबार से निकले लोग तमाम संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर काम कर रहे हैं। उस समसय जनसत्ता के प्रकाशन के बाद जमे-जमाए स्थानीय अखबारों को भी खुद को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। जनसत्ता के कोलकाता आने से पहले स्थानीय अखबारों में जिस क्लिष्ट भाषा का इस्तेमाल होता होता था वह आज सार्वजनिक क्षेत्र के हिंदी अधिकारियों की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी की तरह ही थी। आम लोग इन अखबारों के जरिए इसी को शुद्ध हिंदी मानते थे। संस्कृत और हिंदी के घालमेल से बनी वह भाषा शुद्ध तो थी। लेकिन पाठकों के सिर के ऊपर से गुजर जाती थी। तब के अखबारों में फोटो परिचय में छपता था-चित्र में दाएं से प्रथम परिलक्षित हैं फलां और द्वितीय हैं फलां....। यह तो एक मिसाल है। ऐसे ही न जाने कितने गूढ़ शब्दों और मुहावरों को भी इन अखबारों ने जीवित रखा था जो साठ-सत्तर के दशक में ही आम बोलचाल से बाहर हो चुके थे।
जैसा तू बोलता है वैसा तू लिख...की तर्ज पर खबरों में बोलचाल की भाषा और शब्दों के इस्तेमाल के लिए पूरे देश में अपनी खास पहचान बना चुके जनसत्ता के कोलकाता आने के बाद कोलकाता के हिंदी हलके में तूफान नहीं तो एक क्रांति जरूर आ गई थी। इसकी देखादेखी दूसरे अखबारों ने भी संस्कृत का मुलम्मा चढ़े शब्दों से परहेज का सिलसिला शुरू किया। कोलकाता में अखबारों की भाषा और कुछ हद तक खबरों की गुणवत्ता सुधारने में जनसत्ता की अहम भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता।
उस समय दूर से खबरें भेजने का काम फैक्स पर ही निर्भर था। हर जगह फैक्स भी ठीक से काम नहीं करता था। इसके अलावा रोमन में लिख कर टेलीग्राम भेजने या फिर ट्रंक काल के जरिए गला फाड़ कर चिल्लाने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैंने तीन बीघा आंदोलन, गोरखालैंड आंदोलन और उत्तर बंगाल की बाढ़ की न जाने कितनी ही खबरें टेलीग्राम से भेजीं या ट्रंक काल पर लिखवाई होंगी। मोबाइल तो बहुत दूर था, ई-मेल का भी चलन नहीं था। अब तो मिनटों में ई-मेल के जरिए खबरें भेजी जाती हैं। उस समय अखबारों में कंपोजिटर का पद अनिवार्य था। हाथ से लिखी कापियों को कंपोज करने वाले कंपोजिटर अखबार का महत्वपूर्ण अंग थे। अब तो ज्यादातर अखबारों में यह पद खत्म हो गया है। अब रिपोर्टर अपनी कापी खुद ही कंपोज कर फाइल कर देते हैं।
तमाम आधुनिक तकनीक के बावजूद कोलकाता के हिंदी अखबारों में कंटेंट और क्वालिटी में अगर लगातार गिरावट आई है तो इसकी कई वजहें गिनाई जा सकती हैं। जनसत्ता ने पूरे देश से प्रतिभावान पत्रकारों को कोलकाता में जुटाया था। आनंद बाजार समूह की पत्रिका रविवार के बाद यह दूसरा ऐसा प्रकाशन था जिसके लिए पूरे देश से युवा और अनुभवी पत्रकार जॉब चार्नक के बसाए इस शहर में आए थे। लेकिन उसके बाद यहां पांव फैलाने वाले तमाम अखबारों ने कम पैसों पर नौसिखिए लोगों को रख कर काम चलाने की जो परपंरा शुरू की थी वह अब धीरे-धीरे और समृद्ध हो रही है। इन तमाम अखबारों में कोई दर्जन भर ऐसे चेहरे हैं जो इस अखबार से उस अखबार में डोलते मिल जाते हैं। हिंदी लिखने-पढ़ने से दूर तक उनका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे तमाम पत्रकार प्रेस क्लब में जाम छलकाते हुए इस गलत धारणा के शिकार हो गए हैं कि प्रेस क्लब में हर शाम शराब के जाम नहीं छलकाने वाला पत्रकार हो ही नहीं सकता। नतीजतन इन हिंदी अखबारों के पत्रकार लिखना-पढ़ना बाद में सीखते हैं, बोतल साफ करने की कला में पहले पारंगत हो जाते हैं। सभी ऐसे नहीं हैं, लेकिन बहुमत ऐसे लोगों का ही है।
इसके अलावा पैसे लेकर खबरें छापने की परंपरा से भी यहां के ज्यादातर अखबार अछूते नहीं हैं। कोई प्रेस रिलीज छापने के पैसे लेता है तो कोई किसी समारोह की तस्वीरें छापने के। भजन-कीर्तन और बाबाओं के प्रवचन की भरमार देख कर किसी को शक हो सकता है कि कोलकाता के ज्यादातर हिंदी अखबार धार्मिक प्रवृत्ति के हैं या फिर समाजसेवा में उनकी भारी रूचि है। लेकिन ऐसा नहीं है। इन खबरों की सबसे बड़ी वजह है पैसा। जितना भारी प्रसाद, उतनी ही बड़ी कवरेज। हालांकि कुछ अखबारों का दावा है कि यह सर्कुलेश बढ़ाने और मार्केटिंग की रणनीति का हिस्सा है। लेकिन सच क्या है, यह सबको मालूम है।
स्थानीय अखबारों में प्रबंधन अपनी अंटी ढीली नहीं करना चाहता। उनको कंटेंट या खबरों की क्वालिटी की कोई चिंता नहीं है। स्थानीय पत्रकारों को पीने-पिलाने से ही फुर्सत नहीं है। जो नहीं पीते, वे भी बेहतर लिखने-पढ़ने में सक्षम हों, यह जरूरी नहीं। प्रबंधन अव्वल तो ज्यादा पैसे खर्च कर बाहर से पत्रकारों को बुलाना नहीं चाहते और बुलाते भी हैं तो अखबारों के माहौल से ऊबकर वैसे लोग जल्दी ही हावड़ा या सियालदह से वापसी की ट्रेन पकड़ लेते हैं। ऐसे में पत्रकारों की स्थानीय चौकड़ी की बन आई है। कई ऐसे पत्रकार भी यहां मिल जाएंगे जो लगभग सभी अखबारों में काम कर चुके हैं। इनके दफ्तर तो हर छह महीने बाद बदल जाते हैं। एक चीज जो नहीं बदलती वह है प्रेस क्लब में सूरज ढलने के बाद हर शाम होने वाली बैठकें। ऐसे में अब अखबारों के स्तर में सुधार की कोई गुंजाइश कम ही बची है।
कुल मिला कर उदंत मार्तंड की इस धरती पर हिंदी पत्रकारिता अब अपने सबसे बदहाल दौर से गुजर रही है।
Friday, August 28, 2009
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प्रभाकर भाई,
ReplyDeleteबहुत साफ़ और शत-प्रतिशत सही लिखा है आपने.
प्रकाश चंडालिया